Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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पर्यावरण से खिलवाड़ करेंगे तो दण्ड भुगतना ही होगा
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13 मई मंगलवार, रात्रि दूरदर्शन के समाचार को सुनकर श्रोताओं में यकायक सिहरन-सी दौड़ गई। इस समाचार में बताया गया था कि उसी दिन 8 बजे सायं उत्तर भारत में भूकम्प के झटके महसूस किये गये। इन झटकों से भले ही कहीं कोई विशेष नुकसान न पहुँचा हो, परन्तु 10 मई, 1997 को ईरान में आए भूकम्प का विनाशकारी परिदृश्य जरूर साकार हो उठा। पर्यावरण काक असंतुलन, मानव की प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़-प्रकृति को किस कदर कुषित कर सकती है, यह ईरान में भूकम्प के दौरान स्पष्ट अनुभव किया गया। इस जबर्दस्त भूकम्प में 2400 लोग मारे गए तथा 5000 लोग घायल हुए। तकरीबन 200 गाँव पूरी तरह तहस-नहस हो गए। इससे अफगानिस्तान में भी काफी तबाही हुई। इस भूकम्प की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.1 थी। पिछले तीन महीनों में यह ईरान में तीसरा भूकंप है और 1990 के बाद सबसे भयानक। 1990 में आए थे। इस 28 फरवरी को उत्तरी पश्चिमी ईरान के आर्दाबील इलाके में भूकम्प आया था। इसमें करीब 1900 लोग मरे थे। इसकी तीव्रता 5.5 रिक्टर आँकी गयी थी।
भूकम्प प्रकृति दुसह्य कोप हैं, जो अनगिनत आपदाओं-विपदाओं की असहनीय यन्त्रणा दे जाता है। कोई अन्य प्राकृतिक विपदा इतने कम समय में इतनी अधिक तबाही नहीं लाती। कुछ सेकेंड से लेकर कुछ मिनटों तक की अवधि में भूकम्प पृथ्वी के एक विशाल भू-भाग में उथल-पुथल मचा देता है। पूरी पृथ्वी के साथ ही भारत का इतिहास भी अनेक विनाशकारी भूकम्पों की भयावह घटनाओं से भरा पड़ा है। खास कर हिमालय की स्थिति को बड़े ही नाजुक दृष्टिकोण से देखा जा रहा है।
विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार, भूपटन के शैलों में
भ्रंशन होता है। भ्रंशन के फलस्वरूप शैल टूटते-खिसकते हैं। और ऊपर-नीचे चढ़ जाते हैं। इससे धरातल में कम्पन उत्पन्न होता है, जो भूकम्प का रूप धारण कर लेता है। भारत की भू-पट्टिकाएँ पिछले करोड़ों सालों से अपने स्थान से सरक रही हैं। आज भी ये 5.5 सेण्टीमीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से हिमालय की ओर बढ़ रही हैं। जिन स्पर्श-बिन्दुओं पर नवागत भारत की भू पट्टिकाएँ एशिया की भौतिक भू-पट्टिका के सामने-आमने टक्कर खाती हैं या रगड़ खाती है, वहाँ धनुष की कमान की तरह खिंचवा पैदा हो जाता है। हिमालय की पर्वत शृंखलाएं इसी कसावट के परिणामस्वरूप उभर कर अस्तित्व के परिणामस्वरूप उभर कर अस्तित्व में आयी थीं। भारत की प्लेट और एशिया की प्लेट के आपस में निरंतर दबाव डालने से भूकम्प की स्थिति उत्पन्न होती है। भूकम्प विशेषज्ञ डॉ. के गौड ने आशंका व्यक्त की है कि भारत की 2600 किलोमीटर लम्बी प्लेट में विनाशकारी भूकम्प आने की सम्भावना है।
एक अन्य सर्वेक्षण में भू-गर्भ शास्त्री कहते हैं कि गतिमान प्लेटों की परस्पर रगड़ से भूकम्प होता है। विशेषज्ञों के अनुसार पर्यावरण में व्यापक असन्तुलन से इन दिनों इसकी सम्भावना काफी बढ़ गयी है। भू-गर्भ शास्त्रियों ने भूकम्प की दृष्टि से भारत को पाँच क्षेत्रों में बाँटा हैं। इस वर्गीकरण के अनुसार हिमालय की पर्वत शृंखलाएं सर्वाधिक संवेदनशील हैं, परन्तु 1967 में कोएना तथा 1993 में आए लातूर के भूकम्प ने स्थिति को और भी गम्भीर कर दिया है। इसके पूर्व यह मान्यता थी कि दक्षिणी पठार भूकम्प के खतरे से मुक्त हैं, परन्तु यह धारणा बदल गयी है। पहले कभी यह भी कहा गया था कि भारत में रिक्टर पैमाने की चार डिग्री से अधिक बलशाली भूकम्प नहीं आ सकते, लेकिन यह सही नहीं साबित हुआ।
हिमालय पर्वत अत्यन्त संवेदनशील पट्टी पर स्थित है। इस पट्टी के अंतर्गत जापान, दक्षिण, चीन, पाकिस्तान, ईरान-ईराक तथा जिव्राल्टर आते हैं। यह पट्टी बेहद संवेदनशील है तथा इसके अन्दर चट्टानों में टूटन तथा घर्षण के कारण ऊर्जा पैदा होती है। इस पट्टी के ईरान के आर्दाबील क्षेत्र और पाकिस्तान को ब्लूचिस्तान प्रान्त में आए भीषणतम भूकम्प ने इस पट्टी में गम्भीर तनाव पैदा कर दिया है। इस पट्टी पर स्थित हिमालय पर्वत विश्व की सुप्रसिद्ध पर्वत-शृंखला है तथा उसमें भूगर्भीय प्रक्रियाएँ, अभिक्रियाएँ सक्रिय हैं रुड़की इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. के. एम. वैद्य ने पिछले कुछ सालों से बेतरह नष्ट हो रहे पर्यावरण सन्तुलन की वजह से इस क्षेत्र में भूकम्प आने इतिहास के अध्येता और अमेरिका को रैकेर यूनिवर्सिटी के भूकम्प विशेषज्ञ रोजर विल्हेम ने बहुत पहले ही इस बात की पुष्टि की थी।
हिमालय की प्रकृति से छेड़छाड़ तथा यहाँ पर विकास के नाम पर हुए अन्धाधुन्ध विनाश के कारण उत्पन्न स्थितियाँ लगातार भूकम्प को आमन्त्रण देती रहती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इन दिनों हिमालय की हिमरेखा नीचे खिसक रही है। ग्लेशियर बुरी तरह खिसक रहे हैं जिससे जमीन पर दबाव पड़ रहा है। इसी दबाव के कारण भूगर्भीय प्लेट सरकती चली जा रही हैं। इस सबके चलते हिमालय में भूगर्भीय हलचलों की समस्याएँ तीव्रतर हो गयी हैं। परिणामस्वरूप हिमालय क्षेत्र में असीम ऊर्जा संग्रह होती चली जा रही है, जो निश्चित रूप से भूकम्प को रूप में फट सकती है। हिमालय में आने वाले भूकम्पों की संख्या भारतीय क्षेत्र में ऊपर की ओर खिसकने के कारण हिमालय में जमा हो रही ऊर्जा की दर पर निर्भर करती है। वर्तमान में ऊर्जा का जमाव तो निरन्तर हो रहा है, लेकिन उसका निस्तारण नहीं हो पाया है। भूगर्भ-वेत्ताओं के अनुसार सन् 2000 तक इस ऊर्जा का निस्तारण होने की सम्भावना है। यह कम से कम 8 रिक्टर की क्षमता वाले भूकम्प से हो पाएगा। इससे 270 किलोमीटर लम्बी दरार पैदा हो सकती है। चूँकि हिमालय में अभी भी भूगर्भीय रिक्तता 800 किलोमीटर के विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई हैं। इसलिए इस रिक्तता को भरने के लिए 8 क्षमता वाले भूकम्प की सम्भावना का वैज्ञानिक आकलन कर रहे हैं।
नवादा यूनिवर्सिटी अमेरिका के भूकम्प विज्ञानशाला के निदेशक प्रो. जेम्स ब्रूने ने तो समस्त हिमालय को अत्यन्त दिलचस्प जगह बताया है। इनके अनुसार पूरे संसार में यही एकमात्र स्थान है, जहँ दो प्लेट भारतीय और यूरोसियस एक दूसरे में पाँच सेण्टीमीटर प्रतिवर्ष की दर से घुस रही हैं। इससे संग्रहित ऊर्जा भूकम्प के रूप में निकलती है। परन्तु सन् 1803 व 1833 में यहाँ आए भूकम्पों के कारण दरारें उत्पन्न नहीं हो पायी थीं। यही संग्रहित ऊर्जा सम्भवतः 200 साल बाद सनफ 1991 में उत्तरकाशी में आए भूकम्प के रूप में उभर कर आयी और उसके जरिए ऊर्जा निस्तारण का प्रयास हुआ। इस विनाशलीला का दृश्य अभी तक सब को याद है।
हिमालय क्षेत्र में 1817, 1905, 1934 एवं 1950 में बड़े भूकम्प आए। 1897 में आए भूकम्प के दौरान उत्तरी पूर्वी हिमालय क्षेत्र में भूटान एवं असम हिमालय में 500 किलोमीटर लम्बी दरारें उत्पन्न हुईं। इसी तरह 1905 में काँगड़ा भूकम्प के कारण कुमाऊँ एवं पंजाब के हिमालय क्षेत्र में 300 किमी लम्बी तथा 1950 में असम हिमालय में भी 300 किलोमीटर लम्बी दरार पैदा हो गयी थी। इस प्रकार इन चार प्रमुख भूकम्पों के कारण हिमालय क्षेत्र में आयी दरार की कुल लम्बाई 1400 किलोमीटर हैं।
राजकीय स्नातकोत्तर महा-विद्यालय पिथौरागढ़ में भूगर्भ विज्ञान अध्यक्ष प्रो. संजय तिवारी ने हिमालय क्षेत्र में भूकम्प की स्थिति पर एक विश्लेषणात्मक शोध-आलेख तैयार किया है। उनका कहना है कि उत्तरी पूर्वी भारत में पिछले 200 वर्षों में जितने भी भूकम्प आए उसमें सबसे ज्यादा उत्तराखण्ड प्रभावित हुआ है। अध्ययन के आधार पर यह भी चेतावनी दी गयी है कि उत्तराखण्ड में इक्कीसवीं सदी के आगमन को साथ ही रिक्टर पैमाने में 8 से भी अधिक तीव्रता वाले भूकम्प का आगमन सम्भावित है।
प्रोफेसर तिवारी ने बताया है कि पिछले 200 वर्षों में हिमालय में सात से अधिक क्षमता वाला भूकम्प नहीं आया है। उन्होंने दो प्रसिद्ध भूवैज्ञानिकों नहीं आया हैं। उन्होंने दो प्रसिद्ध भूवैज्ञानिकों गुप्ता एवं सिंह के शोध-प्रबन्ध के आधार पर बताया कि 21 डिग्री से 25 डिग्री उत्तरी अक्षांश एवं 13 डिग्री से 16 डिग्री पूर्वी देशान्तर क्षेत्र में किसी भी समय 8 क्षमता वाला भूकम्प आने का खतरा है।
इस बीच कतिपय अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भूवेत्ताओं ने भी काठमाण्डू से देहरादून के मध्य जबरदस्त आन्तरिक हलचलों की समस्याओं को रेखाँकित किया है। प्रसिद्ध भूगर्भशास्त्री डॉ. के. एस. वालिया के अनुसार हिमालय वलित पर्वत श्रेणी में आता है। इस कारण उसमें भूगर्भीय हलचलों का बोल-बाला सर्वाधिक है। हिमालय के धास्मूला मन्यासी, अल्मोड़ा, मराडी, चमोली तथा उत्तरकाशी अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्र में आते हैं। नेपाल भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
पिछले 20 वर्षों के दौरान हिमालय क्षेत्र में कई भूकम्प आए। 19 जनवरी, 1975 को किन्नौर में रिक्टर स्केल पर 7 क्षमता वाला भूकम्प आया। इसमें 42 लोग मारे गए। 278 मकान पूर्ण नष्ट हुए और तकरीबन 2 हजार मकानों को आँशिक रूप से क्षति पहुँची। 14 जून, 1976 को धर्मशाला में रिक्टर 5 भूकम्प आया। 22 जुलाई, 1980 में धारस्मूला में 6.1 तीव्रता का भूकम्प आया। 24 अगस्त, 1980 को जम्मू में 5.5 रिक्टर क्षमता का तथा 26 अप्रैल, 1986 को 5.6 क्षमता का भूकम्प आया। परन्तु सबसे ज्यादा तबाही मचाने वाला भूकम्प 20 अक्टूबर, 1991 को उत्तरकाशी में 6.5 रिक्टर पैमाने का आया। इसमें डेढ़ हजार लोग मारे गए। इसके अलावा बिहार राज्य में सन् 1954 में भूकम्प से बड़ी क्षति हुई थी। सन् 1967 में महाराष्ट्र का कोएना नगर भूकम्प से बर्बाद हो गया था। 31 दिसम्बर, 1974 में पाकिस्तान के पाटन में और उसके कुछ साल बाद हिमालय प्रदेश में भूकम्प आने से अपार धन-जन की हानि हुई थी। सन् 1913 में लातूर और उसमानाबाद में आए भूकम्प की त्रासदी से सभी वाकिफ हैं। इसका केन्द्र वहाँ से 200 कि.मी. दक्षिण में स्थित था।
विश्व में भूकम्प के सम्भावित और संवेदनशील क्षेत्र हैं-हिमालय, उत्तर पश्चिम चीन, पाकिस्तान में सिंधु घाटी और भारत में गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान है। भूकम्प से प्राचीन मीनोअन सभ्यता तथा सीदाम और गोमोराह जैसे नगर कुछ ही क्षणों में समाप्त हो गए थे। मेनलोनार्थ कैलीफोर्निया के भूकम्प विशेषज्ञ रास स्टीव के अनुसार, भूकम्प मैदानी क्षेत्र की अपेक्षा दलदली भूमि में तीव्रता के साथ आता है एवं अत्यधिक क्षति पहुँचाता है। सनफ 1989 में कोव जापान तथा सेन फ्राँसिस्को के मेरीना में आया भूकम्प नमी वाली जमीन पर था। इससे अपार धन-जन की हानि हुई।
अमेरिका के एक अन्य भूकम्प वेत्ता वेयन थेचर ने एक भूगर्भीय सर्वेक्षण प्रस्तुत किया है। इसके अनुसार दो भीषणतम भूकम्पों के बीच की अवधि एक हजार से पाँच वर्ष की होती हैं, जबकि इससे कम शक्तिशाली वाला भूकम्प शताब्दी के अन्दर ही आ जाता है। यह कभी भी, किसी भी समय अपनी तबाही प्रस्तुत कर सकता है। कोव का भूकम्प पृथ्वी की सतह पर उठा था, जबकि अमेरिका के नारर्पीज क्षेत्र में पृथ्वी की गहराई से आया था। भूकम्प से उत्पन्न ऊर्जा का सही मापन सम्भव नहीं है, इसका तो मात्र अनुमान लगाया जाता है। शहर के बीच उठे भूकम्प का हलका झटका भी एक हजार लोगों की मौत के लिए पर्याप्त हैं।
जापान भूकम्प का देश कहलाता है। यह देश भूकम्प की प्राकृतिक आपदा से त्रस्त है। सन् 1995 में कोव में 7.2 क्षमता वाला भूकम्प आने से लगभग 5000 लोग मारे गए। 25000 घायल हुए तथा 46440 इमारतें नष्ट हो गयीं। लाखों लोग बेघर हो गए। चालीस हजार घरों में घरेलू गैस कनेक्शन टूट गया। कोव जापान का टोयो के बाद दूसरा बड़ा बन्दरगाह है। इसकी जनसंख्या करीब डेढ़ करोड़ हैं।
भूकम्प की तीव्रता बढ़ने के साथ ही प्राकृतिक पीड़ा और अधिक होती चली जाती है। सन् 1985 में मैक्सिकोसिटी में 7.9 क्षमता वाला विप्लवी भूकम्प आया, जिसमें 1500 लोग परलोक सिधार गये। 8.2 रिक्टर के भूकम्प ने विश्व इतिहास का सबसे भयानक और वीभत्स दृश्य उपस्थित किया था। यह सन् 1923 में टोक्यों में आया। इससे 14 3000 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। इसी तीव्रता वाला भूकम्प 1976 में चीन के ताँगसेन क्षेत्र में आया। इसके प्रभाव से ढाई लाख लोग मारे गए। इससे कुछ आगे की तीव्रता 8.3 रिक्टर का भूकम्प सन् 1906 में सेनफ्रांसिस्को में आया जिससे सिर्फ 700 लोग मारे गए। इतनी कम जनहानि का कारण यह था क्योंकि यह क्षेत्र ऐसे स्थान में अवस्थित है जिसमें तीव्र झटके सहने की सामर्थ्य है। सन् 1960 में चीन में आए भूकम्प के कारण पृथ्वी एक घण्टे तक हिलती रही। इससे 100 किलोमीटर लम्बी और दस मीटर गहरी दरार पड़ गयी। शोन एण्ड्र्यू की 1000 किलोमीटर लम्बी पट्टी बड़ी संवेदनशील मानी जाती हैं।
भूकम्प इतना आकस्मिक होता है कि इसके बारे में सटीक भविष्यवाणी कर पाना सम्भव नहीं हो पाता। जापान ने इसको जानने के लिए अर्थक्वेक ऐससमेण्ट कमेटी (ई. ए. सी. ) गठित की है। इसमें विश्वप्रसिद्ध भूकम्पवेत्ता पिछले सत्तरह सालों से भूकम्प का अध्ययन कर रहे हैं, परन्तु सुनिश्चित तथ्य की जानकारी नहीं मिल पायी हैं। 30 जनवरी, 1995 की टाइम पत्रिका के अनुसार जापान की अर्थक्वेक एसेसमेण्ट कमेटी हर साल इस काम के लिए एक हजार लाख डालर खर्च करती है।
ऐसे भूकम्प को जानने के लिए कई विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसमें प्रमुख तीन हैं डायलेशन डीफ्यूजन कैकएवालची तथा लेजर विधि। पहली विधि में रेडान गैस को मापा जाता है, जो भूतल के नीचे से निकल कर पानी में घुलती रहती है। दूसरी विधि में भूतल पड़ने वाली दरारों के मापन से पता लगाया जाता है। लेजर किरणें पृथ्वी के भूकम्प से सम्बन्धित पट्टियों के असामान्य व्यवहार का पता लगाती हैं। भूमिगत पानी और गैसों के दबाव आदि के अध्ययन से भी भूकम्पों को नजर रखने में सहायता मिलती है।
भूकम्प की अभी तक यन्त्रों के माध्यम से सही-सही जानकारी नहीं पायी जा सकी है। विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार यह प्राकृतिक घटना होने के कारण प्रकृति के संवेदनशील जीव-जन्तु इसे आसानी से पहचान लेते हैं। उनके असामान्य व्यवहार को देखकर मनुष्य भी इस प्राकृतिक आपदा के आगमन को भाँप सकता है। भूकम्प की कम तीव्रता वाली तरंगें 7 से 14 साइकिल प्रति जन्तु सेकेंड निकलती हैं। सम्भवतः जीव-जन्तु इन सूक्ष्म तरंगों को पहचान लेते हैं। भूकम्प के एक घण्टा पूर्व खरगोश और हिरन भूकम्प केन्द्र से दूर बेतरतीब भागने लगते हैं। अचानक कुत्ते भौंकने लगते हैं जापान में पायी जाने वाली गोल्डफिश तो इसके पूर्व विचित्र एवं उत्तेजित ढंग से तैरकर इसके पूर्व संकेत करती है। जापानी लोग इसीलिए गोल्डफिश को सदैव अपने पास रखते हैं, ताकि समय रहते इस भीषण आपदा से अपना बचाव कर सकें। प्रसिद्ध मनीषी लायल वाटसन ने अपने सुविख्यात ग्रन्थ ‘सुपरनेचर’ में उल्लेख किया है कि महिलाएँ एवं बच्चे भूकम्प की इन तरंगों के प्रति अति संवेदनशील होते हैं। ‘द प्लेनेट अर्थ’ में एफ किंगडन वार्ड ने सन् 1951 में आसाम में आए हुए भयावह भूकम्प का चित्रण किया हैं, यह भी उपरोक्त बातों की पुष्टि करते हैं।
कहा जाता है कि फरवरी 1975 में आए हिचाँग भूकम्प की भविष्यवाणी चीनी वैज्ञानिकों ने पशुओं के असामान्य व्यवहारों को देखकर की थी। चीन और जापान में भूकम्प की पूर्व संध्या पर चूहे इधर-उधर पलायन करने लगते हैं। भारत में भी लातूर और उस्मानाबाद के भूकम्पों से पहले चूहों के उन क्षेत्रों से भागे जाने की बात सामने आयी है। कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यहीं से भागे हुए चूहों के उन क्षेत्रों से भागे जाने की बात सामने आयी है। कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यहीं से भागे हुए चूहों ने सूरत आदि शहरों में पहुँच कर प्लैग फैलाया। इस पर अध्ययन करने वाले अमेरिकी वैज्ञानिकों का कहना है कि भूकम्प की तरंगें आने से पूर्व व्यक्तियों के अन्दर अजीब-सी दहशत, तनाव, उत्तेजना भर जाती है। सन् 1956 में अटलाटीस में आये भूकम्प ने आने के पूर्व ही बहुत सारे लोगों को उत्तेजित कर डाला था। सन् 1966 में ताशकंद में आया भूकम्प तो अभूतपूर्व कहानी कहता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि पानी में अक्रिय गैस आर्गन की मात्रा यकायक बढ़ गयी थी। 25 अप्रैल को यह मात्रा सामान्य से चार गुना अधिक हो गयी थी तथा 26 अप्रैल को भूकम्प आया। वैज्ञानिक अभी तक इसके वास्तविक कारणों का पता नहीं लगा पाए हैं।
इन भूकम्पों के आने से अपार धन-जन की हानि सर्वविदित है। इससे धरती का स्वरूप भी बदल जाता है। नयी भू-आकृतियों की रचना होती है। तटों के धँसने से खाड़ियाँ बनती हैं। तटों के धँसने से खाड़ियाँ बनती हैं। कही झील बन जाती है, कहीं सोते निकल आते हैं। भूकम्पों के निरन्तर आने से अवसादी शैलों के क्षेत्र में वलित पर्वतों का निर्माण होता रहता है। जो भूकम्प के लिए अति संवेदनशील होता रहता है। भूकम्प की इस भीषण हानि को मद्देनजर रखते हुए आजकल इमारतों के ढाँचों में परिवर्तन किया जा रहा है। दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता की इमारतें रिक्टर पैमाने पर छह डिग्री से अधिक शक्तिशाली भूकम्प के झटके को सहन नहीं कर सकतीं। दोषयुक्त भू-पट्टिकाओं वाले सोन एण्ड्र्यू प्रदेश में स्थित सेन फ्रांसिस्को की इमारतों को मजबूती की बजाय लचीला बनाया जाता है ताकि वे भूकम्प के झटकों को सहन कर सकें। जापान की कुछ इमारतों में ऐसे यन्त्र लगाए जाते हैं जो भूकम्प की तरंगों को तुरन्त भांप लेते हैं और इमारत की आवश्यक वस्तुओं को, व्यक्तियों को सुरक्षित स्थानों में स्थानान्तरित कर दिया जाता है।
भूकम्प रूपी प्राकृतिक आपदा से पूरी तरह बचने के लिए विज्ञानवेत्ता अभी तक कोई सार्थक उपाय नहीं खोज पाए हैं। हालाँकि इसकी पूर्व सूचना पृथ्वी अपनी सूक्ष्म तरंगों के माध्यम से प्रक्षेपित करती हैं। विशेषज्ञों का इस बारे में यही सुझाव है कि मनुष्य को पर्यावरण के सन्तुलन को किसी भी कीमत पर बिगाड़ना नहीं चाहिए। जंगल, वृक्ष, वन सम्पदा, प्राकृतिक वैभव समूची मनुष्यता की सुरक्षा कवच है। इसे सुरक्षित रखकर ही हम भूकम्प जैसी आपदाओं से स्वयं को धूलिसात होने से बचा सकते हैं। पर्यावरण का प्राकृतिक वैभव ही हमारे उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित सम्भावना को साकार करने में समर्थ है।