Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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स्वतन्त्रता स्वर्णजयन्ती लेखमाला-1 - स्वामी विवेकानन्द के सपनों का भारत
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स्वाधीनता का पचासवाँ वर्ष पूरा होने को है। स्वर्णजयंती की स्वर्णिम आभा के लिए जिन महामानवों ने सपने सँजोये थे, उनमें स्वामी विवेकानन्द अद्वितीय और अनुपम हैं। स्वामीजी राष्ट्रीय नवजागरण के प्रथम मंत्रदृष्टा थे। राष्ट्रप्रेम उनके रोम-रोम में समाया था। उनके विचारों के आलोक में हम सब स्वतन्त्र भारत के नागरिक अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों की समीक्षा कर सकते हैं। आखिर हम कहाँ चूक गये? क्यों आज राष्ट्रीय स्वाधीनता का स्वर्णजयंती वर्ष, देश के नागरिकों एवं कर्णधारों के त्याग-बलिदान, प्रतिभा एवं ज्ञान के गौरव से दीप्त होने की बजाय आपराधिक घोटालों, जालसाजी, अलगाव एवं आतंक की कालिमा से धुँधला हो रहा है। भारत-माता के चेहरे पर पीड़ा की लकीरें आज साफ नजर आ रही हैं। विश्ववन्द्य माँ भारती आज विदेशियों से नहीं अपनी ही सन्तानों से छली जा रही हैं।
आखिर कैसे हुआ यह सब? स्वामीजी के शब्दों में-”यह वहीं प्राचीन भूमि है, जहाँ। दूसरे देशों को जाने से पहले तत्वज्ञान ने आकर अपनी वासभूमि बनायी थी। यह वही भारत है जहाँ के आध्यात्मिक प्रवाह का स्थूल प्रतिरूप उसके समुद्राकार नद हैं। जहाँ चिरन्तन हिमालय श्रेणीबद्ध उठा हुआ अपने हिमशिखरों द्वारा मानो स्वर्ग राज्य के रहस्यों की ओर निहार रहा है। यह वही भारत है जिसकी भूमि पर संसार के सर्वश्रेष्ठ ऋषियों की चरणज पड़ चुकी है। यहीं सबसे पहले मनुष्य प्रकृति तथा अंतर्जगत के रहस्योद्घाटन की जिज्ञासाओं के अंकुर उगे थे। आत्मा का अमरत्व, अंतर्यामी ईश्वर एवं जगत्प्रपंच तथा मनुष्य के भीतर सर्वव्यापी परमात्मा विषयक मतवादों का पहले-पहल यहीं उद्भव हुआ था। बाढ़ की तरह ज्ञान एवं विज्ञान के तत्वों तथा व्यापारिक समृद्धि ने समस्त संसार को बार-बार आप्लावित किया है। यह वही भारत है जो शताब्दियों के आघात, विदेशियों के शत-शत आक्रमण और सैकड़ों आचार-व्यवहारों के विपर्यय सहकर भी अक्षय बना हुआ है। यह वही भारत है जो अपने अविनाशी वीर्य और जीवन के साथ अब तक पर्वत से भी अधिक दृढ़तर भाव से खड़ा है।”
“इस पर्वतीय दृढ़ता के पीछे अपने देश के नागरिकों की राष्ट्रीय भावनाओं के साथ सजग अभिन्नता रही है। किसी जाति-विशेष, किसी धर्म विशेष से हमसे से किसी का कोई खास लगाव हो सकता है, किन्तु इसमें भी सबसे पहले हम भारतमाता के पुत्र-पुत्रियाँ हैं। भारतीय हैं-राष्ट्रीय गौरव हमारी सर्वोपरि पहचान, सर्वश्रेष्ठ परिचय है। यह ठीक है कि अध्यात्म भारतीय जीवन का मूल मंत्र रहा है, लेकिन हम साम्प्रदायिक कभी नहीं रहे। यूरोप तथा अन्य देशों में राजनैतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का आधार अपनी आध्यात्मिक संस्कृति रही है, हमारी आध्यात्मिक भावनाएँ, हमारी साँस्कृतिक विरासत हमारे राष्ट्रीय जीवन की मूल मूर्ति हैं।”
“लेकिन यह आध्यात्मिक कट्टरता का पर्याय नहीं, पारस्परिक आत्म-भाव एवं सौहार्द का विशेषण है। भारत ने कभी भी किसी नए विचार का विरोध नहीं किया। उसे ग्रहण करने, उसका समन्वय करने की सतत् चेष्टा की है। भारत की सर्वमान्य विशेषता है- उसकी आध्यात्मिकता एवं शान्तिप्रियता। यही हमारा जीवनरक्त है। यही राजनीति, समाज, शिक्षा और बुद्धि को सबल और सतेज बना सकती है। भारत विविध सम्प्रदायों का आश्रय-स्थल है। यहाँ की आध्यात्मिक विचारधारा का सर्वमान्य सिद्धान्त रहा है-एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति। फिर साम्प्रदायिक द्वेष क्यों? यह सही है कि भारत में एक के बाद एक न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ। ये आपस में टकराए भी, किंतु धीरे-धीरे जब कोलाहल शान्त हुआ, ये यहाँ की राष्ट्रीय मूल भावना में समाहित होते चले गए या यूँ कहें कि यहाँ की मूल भावना ने सबको स्वयं में आत्मसात् कर लिया। वर्तमान साम्प्रदायिक द्वेष को साम्प्रदायिक सौमनस्य में बदलने को महत्वपूर्ण राष्ट्रीय कर्त्तव्य के रूप में निभाया जाना चाहिए। यही नियति की भवितव्यता भी हैं।”
स्वामीजी स्पष्ट उद्घोष करते हैं-”मेरा दृढ़ विश्वास है कि शीघ्र ही भारतवर्ष किसी में भी जिस श्रेष्ठता का अधिकारी नहीं था। शीघ्र ही उस श्रेष्ठता का अधिकारी हो जाएगा। अपूर्व महिमामण्डित भावी भारत का निर्माण होगा। सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती हुई जान पड़ रही है। महा दुःख का प्रायः अन्त ही प्रतीत होता है। महानिद्रा में निमग्न शव माना जाग्रत हो रहा है। इतिहास की बात तो दूर रही, जिस सुदूर अतीत के घनाँधकार को मन्द करने में अनुश्रुतियाँ भी असमर्थ हैं, वहीं से एक आवाज हमारे पास आ रही है। हिमालय की हर एक चोटी से प्रतिध्वनित होकर यह आवाज मृदु दृढ़तर परन्तु अभ्रान्त स्वर में हमारे पास तक आ रही है। जितना समय बीतता है, उतनी ही वह और भी स्पष्ट तथा गम्भीर होती जाती है। इसके प्रभाव से निद्रित भारत अब जगने लगा है। मानो हिमालय के ध्रुव केन्द्र प्रवाहित प्रायः अस्थि-माँस तक में प्राण-संचार हो रहा है। जड़ता धीरे-धीरे दूर हो रही है। जो अंधे हैं वे ही देख नहीं सकते और जो विकृत बुद्धि हैं वे ही नहीं समझ सकते कि हमारी मातृभूमि अपनी गम्भीर निद्रा से अब जाग रही है। अब उसे कोई रोक नहीं सकता। अब यह फिर से सो भी नहीं सकती। कोई बाहरी ताकत इस समय इसे दबा नहीं सकती, क्योंकि असाधारण शक्ति का अपना देश अब जागकर खड़ा हो रहा है।”
“ऐसे में राष्ट्रवासियों के कर्त्तव्य और बढ़ जाते हैं। जीवन, समृद्धि, ज्ञान-विज्ञान की चेतना सब ओर पहुँचे इसके लिए खासतौर पर प्रयत्न करने का यही समय है। जो इसमें सहायक होंगे, वे प्रभु योजना में भागीदार बनेंगे श्रेय और सम्मान पाएँगे, विभूतियों के अधिकारी बनेंगे। इसके विपरीत जो साधन और विभूतियों को अपने तक सीमित रखने की चेष्टा करेंगे, वे उपहास के पात्र होंगे, हास्यास्पद बनेंगे। प्रवाह की प्रचण्डता किसी के रोके नहीं रुकती। जो इसके लिए मिथ्या प्रयास करते हैं, वे कुछ समय के लिए तो उत्साहित हो सकते हैं, लेकिन शीघ्र ही उन्हें पता चलेगा कि प्रवाह उनके रोके नहीं रुका। वह बनाए गए बाँधों को तोड़ता, स्वयं का विस्तार करता हुआ आगे बढ़ गया। इसे अपने तक समेटे रखने वालों के पल्ले बदनामी के सिवा और कुछ नहीं पड़ा।”
“अन्तरिक्ष से समड़ने वाला दैवी प्रवाह सृजन के लिए है। महाशक्ति की यह बाढ़ हर कहीं-हर और सृजन के लिए निमन्त्रण दे रही है। जो राष्ट्र, समाज एवं जाति का अर्थ हैं वर्ग या श्रेणी विशेष। जाति का मूल अर्थ प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वाधीनता। जाति सम्बन्धी इसी भाव के त्याग से अपना अधःपतन हुआ। मात्र जाति से कोई छोटा-बढ़ा ऊँचा-नीचा नहीं होता। उसके आन्तरिक सद्गुण, अर्जित की गयी विभूतियाँ ही उसे श्रेष्ठ या कनिष्ठ बनाती हैं। सड़क का भंगी भी उतना ही उच्च तथा श्रेष्ठ है, जितना कि एक कुलीन ब्राह्मण।”
“नैतिकता और सदाचार राष्ट्रीय जीवन के आधार है। इन्हें राष्ट्रीय कर्तव्यों के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन यह तभी सम्भव है जब हम अपनी साँस्कृतिक सीमा के प्रति जागरुक हों। यूरोप और अमेरिका का राष्ट्रीय आदर्श एवं मानक भिन्न है। हम उनकी नकल नहीं कर सकते। यह नकल पश्चिमी भावों का अन्धानुकरण हमारी अपनी प्रकृति के विपरीत होगा। जबरदस्ती ऐसा करने से हमारा राष्ट्रीय जीवन विचित्र विपर्यय से ग्रस्त हो जाएगा। हमें अपनी प्रकृति एवं राष्ट्रीय संस्कृति के अनुरूप राष्ट्रीय आदर्श एवं मानक खोजने होंगे। साथ ही इन्हें साकार स्वरूप देने के लिए नैतिकता एवं सदाचार को व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन एवं राष्ट्रीय जीवन में सर्वोपरि स्थान देना होगा।”
“भारत में किसी भी प्रकार का समाज सुधार उधार की विचारधारा अथवा विदेशी अनुभवों के अनुकरण से सम्भव नहीं। हर देश का अपना अतीत होता है और उसी के अनुरूप उसकी मौलिक प्रकृति। इसका अपना इतिहास, अपनी परम्पराएँ, मूल्य एवं मानदण्ड होते हैं। इन्हें एकबारगी नकारा या झुठलाया नहीं जा सकता। राष्ट्रीय प्रकृति में जो भी सामयिक विकृति आ जाती है उसके निदान उसकी प्रकृति के अनुरूप ही खोजे जाने चाहिए। भारत को समाजवादी अथवा राजनैतिक विचारों से प्लावित करने के पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय। सर्वप्रथम हमारे उपनिषदों, पुराणों एवं अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, इन्हें इन सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकाल कर मठों की चहारदीवारियों को भेदकर वनों की शून्यता से दूर लाकर, कुछ सम्प्रदाय विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सब जगह फैल जाएँ। हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र धधक उठें।”
“किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है वहाँ की महिलाओं की स्थिति। नारी राष्ट्रीय एवं सामाजिक जीवनवृत्त का केन्द्र हैं। भारतीय नारी में आध्यात्मिक एवं सामाजिक नेतृत्व की सारी सम्भावनाएँ मौजूद है। कदाचित् संसार की सभी स्त्रियों से अधिक। तभी तो स्वामीजी कहते हैं-”मेरे देश में नारी प्रार्थना के योग्य हैं, क्योंकि प्रार्थना से विश्व में एक नयी आत्मा का प्रादुर्भाव होता है। यही आत्मा ही किसी राष्ट्र की सार्थक सम्पत्ति है। मेरे देश में स्त्रियों में उतनी ही साहसिकता है जितनी कि पुरुषों में। सभी उन्नत राष्ट्रों ने स्त्रियों को समुचित सम्मान देकर ही अपने राष्ट्रीय गौरव को विकसित किया है। देश, जो राष्ट्र स्त्रियों का आदर नहीं करते, वे कभी बड़े नहीं हो पाए हैं और न भविष्य में कभी बड़े होंगे। हमारे देश के वर्तमान पतन का मुख्य कारण यह है कि हमने शक्ति की इन सजीव प्रतिमाओं के प्रति आदर-बुद्धि नहीं रखी। महिलाओं की विशेष रूप से सामाजिक सम्मान देना, उन्हें प्रगति व उन्नति के उचित अवसर उपलब्ध कराना भारतवासियों का अनिवार्य राष्ट्रीय कर्तव्य है। जहाँ की स्त्रियाँ उदासीन और दुःखी जीवन व्यतीत करती हैं, उस कुटुम्ब या देश की उन्नति की किसी भी स्थिति में आशा नहीं की जानी चाहिए।”
“हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुँचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्याओं को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। भारतमाता हमसे नारी शक्ति के उद्धारक बनने की नहीं, उनके सेवक और सहायक बनने की अपेक्षा करती हैं। भारतीय नारियाँ संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भाँति अपनी समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखती हैं। आवश्यकता उन्हें उपयुक्त अवसर देने की हैं स्त्रियों की अवस्था सुधारे बिना भारतीय समाज की प्रगति की कोई आशा नहीं। पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं हैं।
भारत के स्वर्णिम वर्तमान एवं उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए जिस चीज की आवश्यकता है वह है लोहे की माँसपेशियाँ और फौलाद के स्नायु, दुर्दमनीय प्रचण्ड इच्छाशक्ति जो सृष्टि के गुप्त और रहस्यों को भेद सके और जिस उपाय से भी हो अपने उद्देश्य की पूर्ति करने में समर्थ हो, फिर चाहे उसके लिए समुद्र तल में ही क्यों न जाना पड़े। साक्षात् मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़ें। हम मनुष्य बनाने वाला धर्म चाहते हैं। हम मनुष्य बनाने वाले सिद्धान्त ही चाहते हैं। हम सर्वत्र सभी क्षेत्रों में मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते हैं।”
“भारतमाता को अपनी समुन्नति के लिए अपनी कुछ विशुद्धात्मा सन्तानों की आवश्यकता है। उनके व्यक्तित्व के तेज से सहस्रों पुरुष स्फूर्ति प्राप्त करेंगे। मैं जो चाहता हूँ वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु, उनके भीतर ऐसा मन वास करता हो, जोकि वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल, पुरुषार्थ, वीर्य और ब्रह्मतेज सम्पन्न युवक-युवतियों की आवश्यकता है। भारत-माता अपने नव-निर्माण के लिए ऐसी कम से कम एक हजार सन्तानों को बलिदान चाहती है। मस्तिष्क वाली सन्तानों का, पशुओं का नहीं।”
“राष्ट्र निर्माण के लिए नाम-यश का मोह छोड़ो, काम में लगो। आलस्य का त्याग करो, इहलोक और परलोक के सुखभोग को दूर हटाओ। मेरे भीतर जो आग जल रही है, वही तुम्हारे भीतर जल उठे। तुम अत्यन्त निष्कपट बनो, राष्ट्र निर्माण के रणक्षेत्र में तुम्हें वीरगति प्राप्त हो। यही मेरी निरन्तर प्रार्थना है। पहले अपने आप पर विश्वास करो, सब शक्ति तुममें है। उसे जान लो और विकसित करो। केवल मात्र बातों से कुछ होने वाला नहीं है। जिसके मन में साहस और हृदय में प्यार है वही मेरे स्वप्नों के भारत का निर्माण कर सकता है। राष्ट्र-परायण बलिदानियों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। मुझे उज्ज्वल भविष्य स्पष्ट नजर आ रहा हैं। युगधर्म का यह महान् कार्य भारतीय युवाओं पर सम्पूर्ण रूप से निर्भर है। जगत की अनन्त शक्ति तुम्हारे भीतर है। जो कुसंस्कार तुम्हारे मन को ढके हुए हैं उन्हें भगा दो। साहसी बनो, सत्य को जानो और उसे जीवन में परिणत करो।”
राष्ट्र् निर्माता वही हो सकता है, जो विनीत, निरभिमानी और विश्वासपरायण है। ईश्वर के प्रति आस्था रखो, दुखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो। मैंने जीवन भर हृदय का रक्त बहाते हुए अपनी भूमिका निभा दी। अब राष्ट्र-निर्माण का दायित्व तुम पर, तुम सब भारत के युवकों एवं युवतियों पर है। मैं गरीबों, मूर्खों, दलितों और उत्पीड़ियों की भावभरों सेवा उनके कल्याण के लिए प्राणपण से यत्न थाती के तौर पर तुम्हें अर्पित करता हूँ। भगवान के प्रति एक महाबलि दो, अपने समस्त जीवन की बलि दो। प्रतिज्ञा करो कि अपना समस्त जीवन दीन−हीन, पतित लोगों के उद्धार कार्य में लगा दोगे। जो दिनों-दिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं।
यह एक दिन का काम नहीं है और रास्ता भी अत्यन्त भयंकर कंटकों से आकीर्ण है। भगवान का नाम लेकर और उन पर अनन्त विश्वास रखकर भारत का युगों से संचित पर्वतकाय राशि में आग लगा दो। वह जलकर राख हो जाएगी। कार्य गुरुतर है और हम लोग साधनहीन हैं। तो भी हम अमृतपुत्र और ईश्वर की सन्तान हैं। हम अवश्य सफल होंगे। इस संग्राम में सैकड़ों खेत रहेंगे, पर सैकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जाएँगे। विश्वास, सहानुभूति, दृढ़ विश्वास और भावभरा प्यार चाहिए। जीवन तुच्छ है, मरण भी तुच्छ है, भूख भी तुच्छ है और जाड़ा भी तुच्छ है। पीछे मत देखो कौन गिरा, आगे बढ़ो। बढ़ते चला। विश्वास रखो एक गिरेगा तो दूसरा वहाँ डट जाएगा। इस प्रकार के निर्भीक युवक-युवतियों पर ही मेरे स्वप्नों के भारत का निर्माण टिका हुआ हैं।
“कर्मरत रहो अपने अहं को शून्य में विलीन हो जाने दो, फिर देखो मेरे स्वप्नों के भारत को अभ्युदय कैसे होता है? यह नया भारत निकलेगा हल पकड़े किसानों की कुटी भेदकर, माली, मोची, मेहतरों की झोंपड़ियों से। निकलेगा बनिये की दुकानों, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से निकल पड़ेगा। झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। इन लोगों ने सहस्र-सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है, उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता। इन्होंने सनतन दुःख उठाया है, जिससे पायी है अटल जीवनी शक्ति ये लोग मुट्ठी भर सत्त खाकर दुनिया उलट देंगे। इन्हें आधी रोटी मिली तो तीनों लोकों में इतना तेज न अटकेगा ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं और पाया सदाचार बल, जो तीनों लोक में नहीं है। इतनी शान्ति, इतनी प्रीति, इतना प्यार, बेजबान रहकर दिन-रात खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम। यही है तुम्हारे सामने तुम्हारा उत्तराधिकारी भारत। अपनी रत्न पेटिकाएँ, अपनी मणि की अँगूठियाँ फेंक दो, इनके बीच, जितना शीघ्र फेंक सको फेंक दो। तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ। तुम ज्यों ही ऐसा करोगे, उसी वक्त सुनोगे-त्रैलोक्यकम्पकारिणी भावी भारत की उद्बोधन ध्वनि।”
“ध्यान रहे हमारा राष्ट्र झोंपड़ियों में बसता है। वर्तमान समय में राष्ट्रपरायण लोगों का कर्तव्य है कि वे देश के एक भाग से दूसरे भाग तक जाएँ, गाँव-गाँव जाकर लोगों को समझाएँ कि अब आलसी बनकर बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। उन्हें उनकी यथार्थ अवस्था का परिचय कराना होगा। उनसे कहना होगा, भाइयों! सब कोई उठो! जागो! अब और कितना सोओगो? जाओ और उन्हें अपनी अवस्था को सुधारने की सलाह दो, उनकी मदद करो और शास्त्रों की बातों को विराट रूप से सफलतापूर्वक समझाते हुए उदात्त सत्यों का ज्ञान कराओ। उनके मन में यह बात जगा दो कि ब्राह्मणों के समान उनका भी धर्म पर अधिकार है। सभी को चाण्डाल तक को भी इन्हीं जाज्वल्यमान मंत्रों का उपदेश दो। उन्हें सरल शब्दों में जीवन के लिए आवश्यक विषयों तथा वाणिज्य व्यापार तथा कृषि आदि की शिक्षा दो।”
“भारत की दुरावस्था का मुख्य कारण यह रहा कि मुट्ठी भर लोगों ने देश की सम्पूर्ण शिक्षा और बुद्धि पर एकाधिकार कर लिया। यदि हम पुनः राष्ट्रीय गौरव को दीप्त करना चाहते हैं, तो हम जन-समुदाय में शिक्षा का प्रसार करके वैसा कर सकते हैं। शिक्षा का अर्थ है पूर्णता की अभिव्यक्ति जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। भारत जो झोपड़ियों में बसता है, अपना मनुष्यत्व विस्मृत कर चुका है। उन्हें शिक्षित करना है एवं उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व वापस करना हैं। अनपढ़ शिक्षक के निकट नहीं आ सकते तो शिक्षक को उनके पास घर, खेत, कारखाने और हर जगह पहुँचना होगा। हमारे शास्त्र-ग्रन्थों में आध्यात्मिकता के रत्न विद्यमान हैं और जो अभी थोड़े ही मनुष्यों के अधिकार में मठों और अरण्यों में छिपे हुए हैं, सबसे पहले उन्हें निकालना होगा। मैं इन तत्वों को निकाल कर इन्हें सबकी, भारत के प्रत्येक मनुष्य की सार्वजनिक सम्पत्ति बना देना चाहता हूँ।”
“वेदान्त शिक्षा देता है कि अपनी आत्मा का आह्वान करो और अपने देवत्व को प्रदर्शित करो। अपने बच्चों को सिखाओ कि वे दिव्य हैं, बाकी सब अपने आप हो जाएगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धा सम्पन्न और दृढ़ निश्चयी व्यक्तियों की। ये संख्या में थोड़े भी हों तो भी राष्ट्र में जागरण का महोत्सव सम्पन्न होने लगेगा। इनके कृतसंकल्प होते हैं। भारत पुनः उठ खड़ा होगा। उसकी प्रसुप्त चेतना जाग उठेगी। हमारे कार्यों पर ही भारत का भविष्य निर्भर है। अब तो सतयुग की वापसी होने को है। अतः सब प्रकार के भेदों का अन्त होना ही है।”
“आचार्य शंकर की अपूर्व मेधा के साथ तथागत के हृदय की महानुभावना और अद्भुत लोकहितकारी शक्ति को मिलाकर ही भारत के उत्थान का सपना साकार हो सकता है। आदर्शोपलब्धि के लिए वास्तविक इच्छा यही हमारा पहला और बड़ा कदम है। इसके बाद अन्य सब कुछ सहज हो जाता है। जिनके भीतर ये भाव प्रखरता से उद्दीप्त हो उठे ऐसे व्यक्तियों का समुदाय ही राष्ट्रीय गौरव का निर्माण करता है। ये भाव हमारे मस्तिष्क तक सीमित न रहकर रक्त-मज्जा में घुल-मिल जाने चाहिए। संस्कृति ही युग के आघातों को सह्य कर सकती है, मात्र ज्ञान राशि नहीं। ज्ञान तो मात्र चमड़े की ऊपरी सतह तक ही सीमित है, एक खरोंच लगते ही वह पुरानी नृशंसता जग उठती हैं। अतः शिक्षा में, सेवा में संस्कृति का बोध हो। भारतवासियों में सुसंस्कारों का रोपण करके ही राष्ट्र की उज्ज्वल भवितव्यता साकार हो सकती है।”
“राष्ट्र के स्वर्णिम भविष्य के लिए हममें से प्रत्येक को अहर्निश उन करोड़ों पददलित भारतीयों को शिव समझ कर सेवा करनी होगी जो धनवानों, कुलीनों के छल और अत्याचारों का सदियों से शिकार बने हुए हैं। मैं उच्च और धनिकों की अपेक्षा उनके पास रहने, उनकी सेवा करने में विश्वास रखता हूँ। मैं दार्शनिक नहीं हूँ, तत्ववेत्ता नहीं हूँ और दलितों को प्यार करता हूँ। मेरे सपनों का भारत इन्हीं की झोंपड़ियों एवं इनके ही निश्छल-निर्मल हृदयों से उठकर आएगा।”
राष्ट्रीय नवजागरण का गगनभेदी उद्घोष करने वाले स्वामी विवेकानन्द के उपर्युक्त उद्गार न केवल राष्ट्र के नीति-निर्माताओं एवं कर्णधारों के लिए आत्मावलोकन की प्रेरणा देते हैं, बल्कि भारत के जन-गण-मन के लिए कर्त्तव्य का निर्धारण करते हैं। यह स्पष्ट सन्देश देते हैं कि तुम ही अपने भाग्य विधाता हो। उठो और अपने भाग्य का निर्माण करो। तुम्हारी निद्रा टूटते ही लुटेरे अपने आप पलायन कर जाएँगे। तुम्हारी भ्रान्तियाँ दूर होते ही अलगाव, आतंक का कोई स्थान न रहेगा। युगद्रष्टा स्वामीजी के स्वर स्वाधीनता की इस स्वर्णजयंती पर्व पर हम सबके संकल्प की सम्मिलित गूँज बन सकते हैं। फिर देर किस बात की है। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरत्रिबोधत्। उठो, जागों और रुको मत, जब तक लक्ष्य तक न पहुँच जाओ।