Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मतत्व को वैज्ञानिक भी अब स्वीकार करने लगे हैं।
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चेतना के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा दार्शनिकों को ही नहीं वैज्ञानिकों को भी है। वर्तमान शताब्दी के इस अन्तिम दौर में इस जिज्ञासा और इससे सम्बन्धित परिचर्चाओं ने कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ा है। इनमें से ज्यादातर लोगों की मान्यताएँ हैं कि हमारी विचारशक्ति, भाषा सामर्थ्य, सामाजिक व्यवस्था, संस्थाएँ मस्तिष्क के स्थूल स्वरूप एवं बनावट पर निर्भर करती हैं, लेकिन इसके साथ ये लोग यह भी मानते हैं कि मस्तिष्क की कार्यप्रणाली न्यूटन के याँत्रिक सिद्धान्तों पर आधारित है तथा वह मात्र पर्सनल कम्प्यूटर की भाँति काम करता है।
किसी वस्तु को पहचानना, प्रसन्नता तथा दर्द की अनुभूति, ऐच्छिक एवं स्वसंचालित क्रियाएं सामान्य मानवीय सामर्थ्य में आती हैं। इस अनुभूतियों के लिए हमारा मस्तिष्क पशुओं के मस्तिष्क के समान कार्य करता है, किन्तु इनसान में अन्य विशेषताएँ भी हैं-जैसे तर्कबुद्धि (प्रज्ञा), कल्पनाशक्ति, किसी बात को गहराई से समझने की सामर्थ्य, प्रेम करना आदि। इसके अतिरिक्त सौन्दर्यात्मक, भावात्मक, आध्यात्मिक विषयों पर विचार करने की शक्ति सिर्फ मनुष्य को ही मिली है। आत्मानुभूति शारीरिक नश्वरता का ज्ञान आदि अनेकों उच्चस्तरीय अनुभव यह दर्शाते हैं कि मानवीय चेतना का स्त्रोत जितना स्थूल कलेवर में है, उससे बढ़कर कुछ और भी है।
अनुभवों का यह वैचित्र्य केवल बुद्धि के दायरे में सिमटा-बँधा नहीं है, बल्कि कहीं और भी है। वैज्ञानिकों का समुदाय-इस कहीं और को चेतना मानने के लिए विवश है। आज तक न तो किसी मशीन, न ही किसी ऐसे कम्प्यूटर का निर्माण हुआ है, जिसके पास चेतना हो। मशीनें चेतना द्वारा अनुभूत कुछ अनुभवों पर आधारित क्रियाओं की नकल कुछ हद तक ही कर सकती हैं, किन्तु उनके पास स्वयं अनुभवों को प्राप्त करना कल्पनातीत हैं। हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि किसी मशीन के दर्द हो रहा है। अथवा वह प्रसन्न है या किसी से मित्रता कर रही है।
चेतना को जानने के लिए जिज्ञासु तो सभी हैं, लेकिन उसके स्वरूप को लेकर लोगों के मत अलग-अलग हैं। नोबल लारेट, जॉन एक्लस और दार्शनिक कार्ल पोवर का दृढ़तापूर्वक मानना है कि चेतना का स्त्रोत स्थूल मस्तिष्क नहीं हो सकता। इसका अस्तित्व मस्तिष्क के अन्दर सूक्ष्म रूप में हैं। प्लेटो, देकार्ते एवं ईसाई गिरजाघरों से जुड़ा दर्शन इस बात पर जोर नहीं देता कि आत्मा की ही भाँति बुद्धि का भी कोई विशेष आयाम है। उनके अनुसार बुद्धि अति सूक्ष्म तत्व अवश्य है एवं उसका कोई स्थूल आधार नहीं है। हालाँकि ऐसे विचार बुद्धि तथा स्थूल जगत की दूरी बढ़ाते हैं। कतिपय विचारों का यह भी मानना है कि चेतना को सही ढंग से न समझे जाने के कारण ही प्रकृति और संस्कृति के सम्बन्धों को नकारा जा रहा है, जो आज ज्यादातर पर्यावरण संकटों का महत्वपूर्ण कारण है। सामाजिक विग्रह का भी यह एक कारण है।
दूसरे प्रकार के लोगों का मत है कि बुद्धि का मस्तिष्क में कोई स्थूल आधार अवश्य है, लेकिन ऐसा दावा करने वाले चेतना के विभिन्न अनुभवों का स्थूल स्त्रोत नहीं बता पाते। अपनी खोज-बीन में असफल रहने पर वे अपनी असफलता तथा वैज्ञानिक कार्यप्रणाली की सीमाओं को स्वीकार करने के बदले यह कहने लगते हैं कि चेतना मात्र भ्रम है अथवा यह सिर्फ आन्तरिक मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाला एक निमित्त कारण है, जो मानवीय विकासक्रम में शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्तरदायी है।
इन सभी भिन्न मत वालों तथा आर्टिफीशियल इन्टेलीजेन्स (ए॰ आई0) की वकालत करने वालों के अनुसार चेतना ऐसे गुणों का समुच्चय है, जो मात्र याँत्रिक ढाँचे से उत्पन्न हुई है। इस कथन के पीछे शायद कहने वालों की यह समझ है कि चेतना मात्र बौद्धिक कार्यकुशलता तक सीमित है। वे इसे स्ट्र्ग ए॰ आई॰ का नाम भी देते हैं। दूसरी है वीक ए॰ आई॰ यानि कि वे गुण जिनकी नकल मशीनें कर सकती हैं। हालाँकि यह कथन कुछ उसी प्रकार है जैसे यह कहना कि हम आरकेस्ट्र् के उस सम्पूर्ण संगीत आनन्द उठा सकते हैं, जो काम्पैक्ट डिस्क में है। यद्यपि इस संगीत में वादक वृन्द की मौलिक सूझ-बूझ, आवश्यकतानुरूप फेर-बदल का सदा अभाव बना रहेगा।
सम्भवतः इसी वजह से स्ट्रग ए॰ आई॰ जिसके अनुसार बौद्धिक चेतना मात्र एक कम्प्यूटर प्रोग्राम है का जॉन शर्ले जैसे दार्शनिकों द्वारा तीव्र विरोध किया गया। वीक ए॰ आई॰ के ह्मूबर्ट ड्र्कस तथा रोजर पेनरोज जैसे आलोचक हैं। जिनके अनुसार बुद्धि के अन्य मशीन नहीं कर सकती। इन विचारकों के अनुसार बौद्धिक चेतना को यन्त्र मानने वाली विचारधारा ने एक ऐसे समाज का निर्माण किया है, जिसमें कठोर तथा निश्चित नियमों के अंतर्गत कार्य करने को प्रोत्साहन मिला एवं बौद्धिक चेतना की वास्तविक क्षमताओं का उपयोग बहुत ही कम हुआ।
‘द क्वाँटम सोसाइटी’ पुस्तक की लेखिका दाना जोहर के अनुसार चेतना का सम्पूर्ण क्षेत्र यथार्थ भी है और अति महत्वपूर्ण भी। मनुष्य स्वेच्छानुसार कार्य कर सकता है। स्वयं द्वारा सम्पन्न कार्यों की जिम्मेदारी का उसे अहसास होता है। ऐसी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता, जिम्मेदारी का अहसास यान्त्रिक नियमों पर आधारित मस्तिष्क में मिलना सम्भव नहीं।
समग्रता या ‘होलिज्म’ चेतना का एक विशेष गुण है। अलग-अलग इन्द्रियों-आँख, नाक, कान, मुँह त्वचा आदि से भिन्न-भिन्न जानकारी उपलब्ध होती है। चेतना उन सबको समग्रता एवं एक्यता देकर अर्थपूर्ण स्वरूप प्रदान करती है। देकार्ते के अनुसार शरीर और समग्र चेतना के बीच बहुत अन्तर हैं-शरीर विभाजित है, जबकि चेतना सर्वथा अविभाजित। चेतना की यही विशेषता वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है। यह माना गया कि हमारे समस्त मानसिक क्रिया-कलाप-न्यूरान्स (मस्तिष्क की कोशिकाएँ) में विभिन्न संदेशों की आवाजाही से होती है। वैज्ञानिकों के लिए यह आज तक आश्चर्य का विषय हैं कि अनेक अलग न्यूरान्स में विभक्त कोई व्यवस्था किस प्रकार एक्यता देकर हमें अपने अस्तित्व की समग्र अनुभूति करा देती हैं? यहाँ निश्चित रूप से उस शक्ति की ओर ध्यान जाता है जो कि इस व्यवस्था की प्रेरक एवं नियन्ता है। इसे आत्मचेतना कहें या कुछ और?
पिछले कई सालों से बौद्धिक चेतना के ‘होलोग्राफिक मॉडल’ पर विशद् चर्चा होती रही है। इस मॉडल को डेविड बोम तथा कैलीफोर्निया के न्यूरोसर्जन कार्ल प्रिब्राम के सुझावों के आधार पर बनाया गया। इसके अनुसार मस्तिष्कीय छवियों की एकात्मता तथा होलोग्राम की एक्यता में बहुत समानता है। होलोग्राम को कई हिस्सों में बाँटने पर भी प्रत्येक हिस्से में सम्पूर्ण छवि सूक्ष्म रूप में मिलेगी, इसी प्रकार मानव शरीर की प्रत्येक कोशिका में सम्पूर्ण शरीर का आनुवंशिक गुण (जैनेटिक कोड) होता है। इस आधार पर लघु में विभु तथा विभु में लघु होने की बात स्पष्ट हो जाती है। इन्हीं प्रयोगों के आधार पर वैज्ञानिक ‘अयमात्माब्रह्म’ के सूत्र की सार्थकता स्वीकार करने लगे हैं। अब उन्हें स्पष्ट होने लगा है। कि किस प्रकार परमात्म-चेतना की व्यापक अनन्तता व्यक्ति की आत्म-चेतना में समग्र रूप में प्रतिबिंबित होती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार होलोग्राम की यह विशेषता लेकर किरणों के कारण हैं। इंग्लैण्ड की लीवर पूल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हर्बर्ट फ्रोलिक के अनुसार कुछ ऐसे ही गुण ईस्ट बैक्टीरिया तथा डी0 एन॰ ए॰ अणुओं में मिलते हैं। जर्मनी के भौतिकशास्त्री फ्रिट्ज पॉप ने खोज की है कि जैव ऊतकों से उचित शक्ति द्वारा उत्तेजित किए जाने पर एक धीमे प्रकाश का स्फुरण होता है। प्रत्येक कोशिका की दीवारें असंख्य प्रोटीन तथा वसा के अणुओं से निर्मित होती है। प्रत्येक अणु में एक विद्युत चार्ज होने की सम्भावना हैं विश्राम की अवस्था में वे उत्तेजित रहते हैं, किन्तु भोजन के पाचन से प्राप्त शक्ति से व्यवस्थित होकर दोलित या कम्पित होने लगते हैं। तब प्रत्येक अणु रेडियो ट्रांसमीटर की तरह ऐ सूक्ष्म सन्देश प्रसारित करता है।
इस तरह एक निश्चित ऊर्जा प्राप्ति के पश्चात् सभी अणुओं द्वारा प्रस्फुटित ऊर्जा में लेकर किरणों की तरह ऐक्यता (होलिज्म ) गुण होते हैं।
कार्ल प्रिब्राम के अनुसार मस्तिष्क एक ऐसा ब्लैकबोर्ड है, जिस पर हमारे अनुभव लिखे जा सकते हैं। यह एक तालाब की तरह हैं, जिसमें चेतना के अंग, विचार, छवियाँ, भावनाएँ, स्मृतियाँ आदि लहरों की तरह उमड़ती रहती हैं। ध्यानावस्था में अन्तःकरण पवित्र होने पर मस्तिष्क में कोई लहर या उत्तेजना नहीं होती। इन लहरों के उत्पन्न होने की वजह वे विद्युत रासायनिक प्रक्रियाएँ हैं, जो न्यूरान्स में होती रहती हैं। बाह्य जगत से प्रेरित ये प्रक्रियाएँ मनुष्य के आनुवंशिक गुणों, अनुभवों, भावनाओं, रुचियों स्मृतियों तथा अन्य शारीरिक आवश्यकताओं का मूल कारण है। इन्हीं सबको मिलाकर हमारा मस्तिष्क हमें स्वयं का तथा ब्रह्माण्ड का ज्ञान कराता है।
विख्यात न्यूरोलॉजिस्ट हैरी वाल्टर के ग्रन्थ ‘ब्रेन एण्ड इट्स रिलेशन विथ कान्शसनेस’ के अनुसार मस्तिष्क में तनी प्रकार की प्रक्रियाएँ चलती हैं। शृंखलाबद्ध, समानान्तर तथा क्वाँटम। निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर भाषा समझना शृंखलाबद्ध प्रक्रिया द्वारा होता है। समानांतर प्रक्रिया से जटिल आदतें बनती हैं। कुछ पहचानना या सीखना इसी से होता है। यह प्रक्रिया छोटे जानवरों में भी मिल जाती है, किंतु क्वाँटम प्रक्रिया के द्वारा सृजनात्मकता आती है। कला, नैतिकता, परस्पर सम्बन्धों आदि के विषय में ज्ञान होता है। इसे ही मानवीय चेतना की विशिष्टता कहा जा सकता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार मस्तिष्क के किसी हिस्से की क्षति से उन गुणों का ह्रास होता है जो उस हिस्से से सम्बन्ध रखते हैं। आँप्टिक कारटेक्स की क्षति से अंधापन, मोटर कारटेक्स की क्षति से लकवा, ब्रोंकाज एरिया की क्षति से गूँगापन आदि हो जाता है, किन्तु मस्तिष्क में, गम्भीर चोटें आने पर भी बहुधा व्यक्ति पूर्णतया चैतन्य रहता है। यह छोटे जानवरों तथा शिशुओं में भी देखा गया है। जहाँ अति अल्प या अविकसित मस्तिष्कीय क्रिया-कलाप होते हैं। सामान्य क्रम में किसी दूरभाष तंत्र के शृंखलाबद्ध तारों को एक स्थान से भी क्षतिग्रस्त कर दिया जाय, तो सम्पूर्ण व्यवस्था निष्क्रिय हो जाती है, किन्तु मस्तिष्क में किसी एक स्थान की क्षति होने पर भी चैतन्यता बनी रहती है। अतः मस्तिष्क में न्यूरान्स के तन्त्र के द्वारा ही संदेशों का आवागमन होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यदि संदेश सम्पूर्ण मस्तिष्क के विशाल क्षेत्र में समान रूप से फैले हों, तभी ऐसा सम्भव हो सकता है।
ज्ञात हो कि सामान्यतया निद्रावस्था के दौरान मस्तिष्क का अधिकाँश भाग क्षतिग्रस्त होने पर मस्तिष्क को तीव्र झटका लगने पर अथवा बेहोशी की अवस्था में चैतन्यता नहीं रहती। सीजोफ्रेनिया नामक रोग में मस्तिष्क की चिकनी सतह प्रभावित होने से न्यूरान्स के चारों ओर बनी क्वाँटम फील्ड की ऐक्यता ‘कोहेरेन्स’ प्रभावित होती है। फलतः अनुभूतियों की ऐक्यता पर प्रभाव पड़ता है। हालाँकि इससे रोगियों की विचारशक्ति में कोई कमी नहीं होती, परन्तु उनका चेतना जगत विभक्त होता है। इसी प्रकार का विभाजन स्वप्नों के दौरान होता है। स्वप्न में हम व्यक्ति के अलग-अलग अंगों को मिलाकर सम्पूर्ण नाटक देख लेते हैं ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि चेतना की ऐक्यता प्रदान करने की शक्ति मन्द पड़ जाती हैं।
अपने विभिन्न प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के विश्लेषण से कार्ल पिब्राम एवं उनके सहयोगी वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि शरीर से उन्नत स्तर की इन्द्रियों का चेतनात्मक स्तर है। इससे उन्नत स्तर है-मन-मस्तिष्क का। इससे उन्नत स्तर बौद्धिक चेतना का तत्व है और बौद्धिक चेतना से परे आत्म-चेतना है, जो इन सभी का मूल स्त्रोत है। श्रीमद्भगवद्गीता भी तो यही कहती हैं-
“इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः,
मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धेः परतस्तु सः”
यही है आत्मतत्व जिसका स्वरूप भले ही विज्ञान और वैज्ञानिक अभी ठीक तरह से न समझ पाए हो, पर उसे स्पष्ट तौर पर स्वीकार तो करने ही लगे हैं।