Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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परकाया-प्रवेश एक कपोल कल्पना नहीं, सत्य
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चिकित्सा-विज्ञान के प्रोफेसर फ्रेडरिक वॉन श्लेगल विज्ञान के कई अन्य विषयों में पारंगत थे। अपने साथी वैज्ञानिकों के विपरीत उनका भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म के प्रति गहरा रुझान था। इसी रुचि के चलते वे भारत भी आए थे। उन्होंने अपने भारत-भ्रमण के दौरान कई योगियों, संतों एवं अध्यात्मवेत्ताओं से मुलाकात की। यहाँ की आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर उन्होंने संस्कृत सीखनी शुरू की, ताकि भारतीय ऋषियों की अनुभूतियों को गहराई से समझ सकें। अपने अनवरत अध्ययन एवं अभ्यास से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि ऋषियों द्वारा अन्वेषित अध्यात्म-विद्या पूरी तरह वैज्ञानिक है। यदि इस पर ठीक ढंग से काम किया जाय तो एक स्वतन्त्र एवं समग्र विज्ञान का विकास सम्भव है।
अपनी सोच में डूबे रहने वाले प्रोफेसर श्लेगल दुबले, पतले और लम्बे थे। उनकी भूरी आँखों में अजीब-सी चमक थी, जो दूसरों के चेहरे ही नहीं विचारों को भी पढ़ लेने की क्षमता रखती है। प्रोफेसर साहब छात्रों में बेहद लोकप्रिय थे। लेक्चर के बाद छात्र उन्हें घेर लेते और उनके विचित्र सिद्धान्तों को उत्सुकतापूर्वक सुनते थें। उन्हें अपने प्रोफेसर की अतीन्द्रिय ज्ञान की बातें, आध्यात्मिक अनुभव बेहद रोचक एवं रोमाँचक लगते।
प्रायः वह कुछ छात्रों को अपने प्रयोगों के लिए नियुक्त कर लेते थे। इसलिए शायद ही कोई ऐसा छात्र रहा हो, जिसे उन्होंने ध्यान की शिक्षा न दी हो। उनके इस वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रति समर्पित छात्रों में सबसे अधिक उत्साही श्वेरिन था। वह प्रोफेसर के विभिन्न प्रयोगों में हमेशा उनका सहायक बन रहता। शायद इसी वजह से प्रोफेसर उसे चाहते भी बहुत थे। प्रोफेसर की युवा बेटी कार्सिका भी उसे बेहद पसन्द करती थी। श्वेरिन भी उसे मन ही मन चाहता था, लेकिन अभी तक वह अपने गुरु के सामने अपने हृदय की बात जाहिर नहीं कर सका था।
श्वेरिन स्वस्थ और सुन्दर युवक था। पैतृक सम्पत्ति के रूप में उसकी काफी जमीन-जायदाद थी। मेधावी छात्र तो वह था ही। कार्सिका के लिए वह सुयोग्य वर हो सकता था। मगर कार्सिका की माँ को वह पसंद नहीं था, इस नापसंदगी का कारण उसकी कोई खराब आदत नहीं थी। अपनी आदतों से तो श्वेरिन बेहद साफ-सुथरा एवं चरित्रवान नवयुवक था। लेकिन उसकी एक बात जो कार्सिका की माँ को रह-रह कर खटकती थी, वह थी उसकी वैराग्य भावना। वह यदा-कदा अपना सम्पूर्ण जीवन आध्यात्मिक साधनाओं में लगाने की बात करता रहता था। उसकी यही बातें प्रोफेसर वाँन श्लेगल की पत्नी को नागवार गुजरती थीं। वह सोचती कहीं ऐसा न हो कि श्वेरिन के साथ बँधकर उसकी इकलौती संतान कार्सिका की जिन्दगी भी जीवन के सारे सुखों से मरहूम हो जाए।
इधर जब से फ्रेड्रिक वाँन श्लेगल भारत से आए थे, उनके सारे चिन्तन पर एक ही सवाल हावी था। उनके सभी प्रयोग और सिद्धान्त सिर्फ इस बिन्दु पर केन्द्रित हो गए थे कि मनुष्य की आत्मा को कुछ समय के लिए शरीर से अलग करके उसे पुनः शरीर में लौटाया जा सकता है। पहली बार विचार आने पर उनके वैज्ञानिक दिमाग ने इसे फौरन अस्वीकृत कर दिया था। मगर धीरे-धीरे रिसर्च करते हुए उन्होंने इसे सम्भव मान लिया कि आत्मा या प्राणतत्व पदार्थ से अलग अस्तित्व रख सकता है अब उन्हें अपने भारत-प्रवास के दौरान सुनी गई आचार्य शंकर की कहानी में कुछ सार नजर आने लगा था। जिसके अनुसार जगद्गुरु शंकराचार्य अपने शरीर को शिष्यों के हवाले करके अपनी आत्मा से निहित कार्य करने के बाद पुनः अपने शरीर में लौट आए थे। उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि इस आध्यात्मिक कथानक की सच्चाई को जानने के लिए एक साहस भरा मौलिक प्रयोग करके इस गूढ़ प्रश्न को हल कर लिया जाए।
प्रोफेसर ने अपने एक विशिष्ट लेख में यह घोषणा करके समूचे वैज्ञानिक जगत को आश्चर्यचकित कर दिया, “यह स्पष्ट है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में आत्मा स्वयं को शरीर से अलग कर लेती हैं। सम्मोहित व्यक्ति के मामले में शरीर बेहोशी की हालत में पड़ा रहता है, लेकिन सम्मोहन के चरम बिन्दु पर पहुंचकर आत्मा उसे छोड़ देती है। एक संवेदनशील व्यक्ति को सम्मोहन के जरिए माध्यम बनाकर मैं स्वयं यह सही-सही जान लेता हूँ कि दूसरे कमरे या दूसरे घर में क्या हो रहा है? यह तभी सम्भव होता है जब आत्मा या चेतना शरीर को छोड़ कर बाहर भ्रमण करे। आत्मा अपनी प्रकृति में अदृश्य है, इसलिए उसका जाना और आना हम देख नहीं पाते हैं। लेकिन व्यक्ति के शरीर पर उसके आवागमन का प्रभाव हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं। जैसे शरीर का कड़ा पड़ना-निश्चल हो जाना और अपने प्रभावों को व्यक्त करने के लिए संघर्ष करना और फिर सामान्य हो जाना।”
“इसीलिए मेरा इरादा है कि मैं अपने एक शिष्य को सम्मोहन के साथ ध्यान की गहराइयों में ले जाऊँ। ध्यान की इन विशेष प्रक्रियाओं के माध्यम से मेरी और मेरे शिष्य की आत्मा हमारे शरीरों से अलग होकर शून्य में एक-दूसरे से संपर्क स्थापित करेंगी। थोड़ी देर बाद वे हमारे शरीरों में वापस लौट आएँगी। इस दिलचस्प प्रयोग के निष्कर्ष मैं विश्व के वैज्ञानिकों एवं विचारशीलों के समक्ष प्रस्तुत करूंगा।”
इस विशिष्ट लेख के साथ, जब प्रोफेसर ने अपने विचित्र प्रयोग के बारे में पूरी जानकारी दी तो हलचल मच गई। उनका मजाक उड़ाया गया, गुस्सा जाहिर किया गया। कइयों ने तो धमकियाँ तक दीं। लेकिन प्रोफेसर फ्रेड्रिक वाँन श्लेगल अपने निश्चय पर पूरी तरह अडिग रहे।
उनके इस निश्चय पर छात्रों में उत्तेजना फैल गई। कई छात्रों का यह कहना था कि यह तो आत्मघाती कदम है। मान लो आत्मा शरीर से बाहर निकल गई लेकिन वापस न आयी तो? प्रोफेसर खुद तो अपनी तरह-तरह की सनकों में मशगूल रहते हैं, परन्तु बेचारे श्वेरिन की जान क्यों लेना चाहते हैं। जितने मुँह उतनी बातें। चर्चाओं का बाजार गर्म था और कॉलेज में होने वाली इन दिनों की सारी चर्चाएँ इसी अजीबो-गरीब प्रयोग पर ही केन्द्रित थीं।
एक दिन प्रयोगशाला में व्यस्त रहने के बाद जब प्रोफेसर साहब विचारमग्न अवस्था में घर लौट रहे थे, तो पुस्तकालय से बाहर निकल रहे छात्रों ने उन्हें घेर लिया। हरेक ने उन्हें समझाने की कोशिश की। वह चुपचाप सुनते रहे। आखिर खीझकर एक छात्र ने उनसे जानना खीझकर एक छात्र ने उनसे जानना चाहा, “आखिर आपके इस प्रयोग में आपका साथ कौन देगा?” “यह भी कोई पूछने की बात है।” प्रोफेसर ने मुसकराते हुए कहा-”श्वेरिन।”
श्वेरिन की सहमति के बाद प्रोफेसर ने इस प्रयोग के लिए अगले महीने की पन्द्रह तारीख का चुनाव किया। निर्धारित तिथि पर प्रोफेसर के साथी वैज्ञानिक एक विशेष हॉल में उपस्थित हुए। अध्यात्म तथा अलौकिक शक्तियों की लौकिक गतिविधियों के गहन अध्येता भी इस विलक्षण अवसर पर उपस्थित थे। इन सबके साथ कतिपय अन्य विचारणीय व्यक्ति भी उपस्थित थे। ये सभी हॉल के उस मंच पर टकटकी लगाए देख रहे थे, जिस पर सिर्फ दो कुर्सियाँ रखी थीं। एक पर प्रोफेसर साहब विराजमान थे और दूसरी पर उनके प्रिय शिष्य श्वेरिन।
एक बूढ़ा और दूसरा नवजवान दिल साथ-साथ मिलकर स्पन्दित हो रहे थे। उपस्थित दर्शकों के दिलों में भी ऊहापोह मची थी कि देखें आखिर क्या होता है तमाशा। सबको सम्बोधित करते हुए प्रोफेसर ने चुने हुए शब्दों में कहा, “मैं कहता हूँ, जब व्यक्ति सम्मोहन के सघन प्रभाव में होता है, उसकी आत्मा कुछ समय के लिए उसके शरीर से मुक्त हो जाती है। भारतवर्ष में प्रणीत योग विद्या में आत्मा को शरीर से अलग करने, शरीर से बाहर भ्रमण करने और पुनः शरीर में आने की कई तकनीकें विकसित की गई हैं। मैंने वहीं अपने प्रवास के दौरान महान दार्शनिक एवं योगी आचार्य शंकर के बारे में प्रचलित कहानी को सुना था। आप सब भी इसे जानते होंगे। मैं स्वयं भी योगविद्या का अभ्यास करता हूँ। मेरे शिष्य श्वेरिन की भी योग में गम्भीर रुचि हैं।
मैं उम्मीद करता हूँ कि अपने शिष्य को सम्मोहित करने के बाद स्वयं भी गम्भीर ध्यान में चला जाऊँगा। हमारी आत्माएँ घुल-मिलकर बातें करेंगी, जबकि हमारे शरीर निश्चल होकर जीवित रहेंगे। थोड़ी देर के बाद हम दोनों की आत्माएँ अपने-अपने शरीरों में लौट आएँगी और सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। आप सबकी विनम्र अनुमति से अब मैं अपने प्रयोग की कोशिश शुरू करता हूँ।”
प्रोफेसर के इस संक्षिप्त भाषण पर खूब तालियाँ बजीं। फिर सब लोग देखें क्या होता है, ऐसी खामोशी में डूब गए।
कुछ तेज कोशिशों के बाद प्रोफेसर वाँन श्लेगल ने अपने शिष्य की सम्मोहित किया और धीरे-धीरे उसका शरीर निढाल होकर कुर्सी से चिपक गया। ठीक तभी प्रोफेसर ने अपनी आँखें बन्द कीं। और वे भी अपने शिष्य की अवस्था में पहुँच गए। उन दोनों के शरीर पीले और सख्त पड़ गए थे।
यह बड़ा अजीब और असरदार मंजर था। गुरु और शिष्य दोनों समान मूर्छा की दशा में थे, तो उनकी आत्माएँ कहाँ भाग गयी थीं? यह सवाल वहाँ उपस्थित सभी लोगों के दिमाग में हलचल मचा रहा था। सब चुप थे, इस तरह जैसे वहाँ कोई था ही नहीं।
पाँच मिनट बीत गए-दस बीत गए, पन्द्रह और गुजर गए। इस बीच प्रोफेसर के साथ उनका शिष्य ज्यों का त्यों रहा। प्रोफेसर के साथी चिकित्सा वैज्ञानिकों ने उन दोनों के शरीर की जाँच-पड़ताल की। उन्हें यही समझ में आ रहा था कि ये दोनों गहरी मूर्छा में हैं इससे अधिक वे कुछ नहीं समझ पा रहे थे।
लगभग एक घण्टा बीत गया। फिर उपस्थित लोगों की बेचैनी को विराम मिला। पहले प्रोफेसर के चेहरे पर एक ताजगी आयी। अचानक उन्होंने अपनी लम्बी, पतली बांहें फैलायीं, जैसे नींद से जागे हों। पलकें झपकाते हुए वह उठ खड़े हुए। मगर आश्चर्य, अब प्रोफेसर के हाव-भाव में गम्भीरता और शालीनता नहीं थी।
तभी श्वेरिन भी सचेत हो गया। वह अपनी कुर्सी से उठकर मंच पर आया और गंभीर स्वर में कहने लगा, “आप लोगों ने देखा हमारा प्रयोग सफल रहा। इस एक घण्टे में हमारी आत्माओं ने शून्य में जाकर संपर्क किया। लेकिन वहाँ क्या बातें हुईं, यह हमें इस समय याद नहीं है। भविष्य में हम ऐसा प्रयोग करेंगे जिसमें आत्माओं की सारी गतिविधियाँ। हमें याद रहेंगी और हम आपको बता सकेंगे।”
नौजवान श्वेरिन के मुँह से ये प्रोफेसराना बातें सुनकर लोग चौंक पड़े कि यह क्या तमाशा है।?
प्रयोग सफल रहा, इसमें कोई दो राय नहीं, मगर एक अजीबो-गरीब मसला पैदा हो गया था। आत्माएँ निकलीं और फिर शरीरों में लौट आयीं, लेकिन हुआ यह कि प्रोफेसर की आत्मा वापसी में नौजवान छात्र श्वेरिन के शरीर में प्रवेश कर गयी थी और श्वेरिन की आत्मा वृद्ध प्रोफेसर के शरीर में। इसीलिए दोनों के विचारों एवं व्यवहार में भी फर्क आ गया था। बहरहाल लोग थोड़ा चौंके तो जरूर, मगर विशेष ध्यान न देकर चले गए।
इधर प्रोफेसर के शरीर के पाँव विश्वविद्यालय के पुस्तकालय की ओर मुड़े। यहाँ यह बताना जरूरी है कि प्रोफेसर साहब श्वेरिन की आत्मा पाकर उसी के जैसा व्यवहार करने लगे थे और श्वेरिन प्रोफेसर साहब जैसा। इस तरह बड़ा अजीबो-गरीब तमाशा शुरू हो गया था।
प्रोफेसर (भीतर से श्वेरिन) ने लाइब्रेरी में पहुँचकर सभी से उल्लास में कहा-”भाई मेरा प्रयोग सफल रहा। अब मैं तुम सबके साथ मस्ती करना चाहता हूँ।”
मस्ती और प्रोफेसर, वहाँ सभी छात्र घोर आश्चर्य में पड़ गए। क्या हो गया है, आज प्रोफेसर साहब को। थोड़ी देर तक वे उन्हें सिर से पैर तक घूरते ही रह गए, खामोश रहकर।
“इस तरह मुझे घूर क्या रहे हो, अब मैं बहुत जल्द शादी करने वाला हूँ।” शादी! एक छात्र ने प्रोफेसर के इस कथन पर हतप्रभ होते हुए कहा-”क्या मैडम मर गयी?”
“मैडम......कौन मैडम?”
“मैडम इवा श्लेगल।”
“हा....हा....हा..” प्रोफेसर ने
ठहाका लगाते हुए कहा-” तो तुम लोग मेरी पहले की परेशानियों से परिचित हो। नहीं, वह मरी नहीं है, लेकिन वह अब मेरी शादी का विरोध नहीं करेगी। हम सब एक साथ रहेंगे।”
“वाह! कितना खुशहाल परिवार होगा।” छात्रों के इस व्यंग्य को प्रोफेसर समझ नहीं सके।
इधर एक तरफ बातों का शोरगुल था, तो दूसरी तरफ एक नया ही तमाशा होने लगा था। प्रयोग के कार्यक्रम के बाद नवयुवक श्वेरिन प्रयोगशाला के कर्मचारियों को जरूरी हिदायतें देकर चिन्तन की मुद्रा में प्रोफेसर के घर की ओर चल पड़ा।
रास्ते में दो छात्र मिल गए। उन्होंने दौड़ कर श्वेरिन का कन्धा थपथपाते हुए बधाई दी और बांहें थामते हुए उससे गले मिलने की कोशिश की, लेकिन श्वेरिन ने इसे अपनी बेइज्जती समझा और अपनी बांहें झटक कर बोला-”मैं तुम दोनों को विश्वविद्यालय से निकलवा दूँगा।”
“अच्छा जाओ यार, पता नहीं क्यों आज तुम्हारा मूड खराब हैं।” दोनों छात्र श्वेरिन को छोड़कर अपनी राह चलते बने। श्वेरिन झुँझलाता हुआ प्रोफेसर के घर की ओर चल पड़ा।
इधर मैडम इवा श्लेगल को अपने पति का डिनर के लिए इन्तजार था। तभी उनकी निगाह बड़े इत्मीनान से आते हुए श्वेरिन पर पड़ी। जो गेट से दाखिल हो रहा था, उसके आने का अन्दाज कुछ ऐसा था, जैसे वही घर का मालिक हो। मैडम इवा को अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ। कार्सिका ने भी ऊपर की खिड़की से उसे देख लिया था। आज उसे अपने श्वेरिन पर गर्व महसूस हो रहा था।
मैडम इवा खुले दरवाजे पर खड़ी थीं। श्वेरिन ने मुस्कराकर उनकी ओर देखा और कहा, “आज का दिन बहुत अच्छा है इवा। खड़ी क्यों हो जल्दी से डिनर लगाओ, बहुत भूख लगी हैं।”
इवा! डिनर! मैडम श्लेगल उनके बेटे की उम्र के श्वेरिन के मुख से यह सब सुनकर बौखला गई।
“हाँ, डिनर, इवा.. डिनर” श्वेरिन ने थोड़ा जोर से कहा-”मैं डाइनिंग रूप में चल रहा हूँ। जो भी तैयार हो, ले आओ। अरे तुम अब भी खड़ी हो?”
मैडम इवा से यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ। वह श्वेरिन को शिष्ट-शालीन लड़का समझती थी। उसकी इस तरह की बातें सुनकर वह तेजी से पलटी और अपने कमरे में चली गयी। इधर श्वेरिन ड्राईंग रूम जाकर सोफे पर पसर गया और जोर से चिल्लाया, “कार्सिका, ओ लड़की, इधर आ।”
इस तरह बुआई जाने पर कार्सिका घबरा-सी गयी और सीढ़ियों से उतर कर अपने प्रेमी के पास आ खड़ी हुई। फिर उसके गले में बाँहें डालकर बोली-”प्रियतम मुझे मालूम है, तुमने यह जोखिम मेरे लिए उठायी थीं।”
श्वेरिन के लिए यह दूसरा अजूबा हमला था। उसने गुस्से में भरकर कार्सिका को परे धकेल दिया और लगभग चीख पड़ा, “ऐसा दिन मेरी जिन्दगी में कभी नहीं आया। लगता है मेरा प्रयोग असफल हो गया। रास्ते में दो छात्रों ने मेरे साथ बदतमीज़ी की। घर में डिनर माँगा तो बीबी भाग खड़ी हुई और बेटी पागलों की तरह व्यवहार कर रही है।”
“लगता है तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है डियर”, कार्सिका उसे समझाते हुए बोली, “तुम्हारा मन अभी कहीं और भटक रहा है, तभी ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो।”
“मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है तुम क्या कह रही हो।” श्वेरिन के इस कथन के उत्तर में कार्सिका उसके एकदम पास आ गयी। उसके इस अप्रत्याशित आलिंगन से घबराकर श्वेरिन पीछे रखे सोफे से भिड़ गया। सोफा पुराना था, वह टूट गया और श्वेरिन पानी से लबालब भरे उस टैंक से बाहर किया। इस खींच-तान में वह तर-बतर हो गया था। क्रोधित होकर वह उसी तरह घर से बाहर निकल गया। वह किसी होटल में जाकर पहले कुछ खाना चाहता था।
श्वेरिन के शरीर में कैद प्रोफेसर फ्रेड्रिक वाँन श्लेगल की आत्मा गुस्से में भरी हुई सड़क पर चली जा रही थी। अचानक उसने बूढ़े प्रोफेसर को सामने आते देखा। प्रोफेसर आज मस्ती में झूमते चले आ रहे थे। वह आनन्दमग्न होकर छात्रों में बेहद लोकप्रिय एक गीत गुनगुना रहे थे। पहले तो श्वेरिन को यह नजारा बड़ा मजेदार लगा, लेकिन थोड़ा पास आने पर उसे लगा कि इसे तो पहले कहीं देखा है।
वृद्ध प्रोफेसर ने भी श्वेरिन को पहचानने की कोशिश की और पास जाने पर बोले, “अच्छा बेटे बताओ तो मैंने तुम्हें कहाँ देखा है? मैं अपनी तरह तुम्हें भी जानता हूँ। लेकिन असमंजस में पड़ गया हूँ।”
“ मैं प्रोफेसर फ्रेड्रिक वाँन श्लेगल हूँ”, श्वेरिन ने बताया। “आप कौन हैं?”
“तुम्हें झूठ नहीं बोलना चाहिए, युवक। तुम प्रोफेसर नहीं हो, क्योंकि प्रोफेसर तो लम्बा, दुबला, पतला वृद्ध व्यक्ति है और तुम खूबसूरत नौजवान हो। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं श्वेरिन हूँ।”
“तुम किसी भी तरह श्वेरिन नहीं हो सकते। तुम तो उसकी पिता की उम्र के हो।” बातें करते-करते वे दोनों पास के होटल में पहुँच गए। वहाँ लगे शीशे के पास के होटल में पहुँच गए। वहाँ लगे शीशे के सामने आते ही सत्य स्पष्ट हो गया। क्षण भर में असलियत उनके दिमाग में कौंध गयी। वे दोनों एक साथ चिल्ला उठे, “बात समझ में आ गयी। हमारी आत्माएँ गलत शरीरों में प्रवेश कर गयी हैं। मैं तुम हूँ और तुम मैं” भारतीय अध्यात्म विद्या के आत्मा एवं शरीर के अलग अस्तित्व एवं परकाया-प्रवेश दोनों ही सिद्धान्तों की सत्यता एक साथ प्रमाणित हो गयी। लेकिन किस कीमत पर?
काफी देर विचार करने पर उन दोनों ने ही निश्चित किया कि हमें अपने उसी प्रयोग को दुहराना चाहिए। पास एक एकान्त स्थान को तलाश कर श्वेरिन के शरीर में कैद प्रोफेसर की आत्मा ने फौरन प्रयोग का यह क्रम दो घण्टे चलता रहा। तभी कुछ और लोग भी इकट्ठे हो गए थे। कुछ लोग आपस में यह भी सोचने लगे थे कि इन दोनों को अस्पताल पहुँचाया जाय।
तभी गुरु-शिष्य के शरीर में हरकत शुरू हो गयी। उनके चेहरों पर सहजता लौट आयी। अबकी बार की खुशी दुगुनी थी। क्योंकि इन दोनों ने ही अपने शरीर पा लिए थे और भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म के सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता को शत-प्रतिशत प्रमाणित अनुभव कर लिया था।