Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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सिद्ध पुरुष बने (kahani)
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चंडकौशिक ने प्रचंड तप तो किया, पर उन्होंने क्रोध का शमन न किया। वह दुष्ट दुर्गुण उनमें ज्यों-का-त्यों बना रहा। एक दिन उनके पैर से मेंढक कुचलकर मर गया। साथी तपस्वी ने इस प्रमाद की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया, तो चंडकौशिक आग बबूला हो गए। वे उस साथी को मारने दौड़े। क्रोध में मनुष्य अंधा हो जाता है। आवेश में उन्हें बीच में खड़ा खम्भा भी न दीख पड़ा। दौड़ते हुए उसी से टकरा गए। यही चोट उनकी मृत्यु का करण बन गई। मोहवश उन्होंने उसी आश्रम में फिर जन्म लिया और साधना के द्वारा उसी के संचालक बने, फिर भी उनका क्रोध गया नहीं।
एक बार कुछ भक्तजन उपहार और पूजा उपकरण लेकर उपस्थित हुए। भक्तों के व्यवहार और उपहार में उन्हें कुछ दोष दीखा और वे क्रुद्ध होकर मारने दौड़े। भक्त भागे, अधिपति पीछे दौड़े। दौड़ तेजी से चल पड़ी। आवेश ने उन्हें पागल जैसा बना दिया था। रास्ते के व्यवधान भी उन्हें सूझ न पड़े। कुएं में पैर पड़ा और उसी में उनकी मृत्यु हो गई।
तीसरी बार भी चंडकौशिक का जन्म उसी आश्रम में हुआ। अब की बार वे भयंकर विषधर सर्प की देह लेकर जन्मे। जो कोई उधर से निकलता, उसी का पीछा करते और जो पकड़ में आ जाता, डसकर उसका प्राण हरण कर लेते। भगवान् महावीर एक बार उस आश्रम में पधारे, तो उन्हें भी चंडकौशिक के क्रोध का भाजन बनना पड़ा। दंशन से उनका पैर क्षत-विक्षत हो चला, फिर भी करुणा की उस प्रतिमूर्ति के चेहरे पर क्रोध न आया। वे मुस्कराते रहे और उस क्षुद्र प्राणी को अपनी अनंत क्षमा का पात्र बनाए रहे। आश्रमवासी उस दुष्ट जीव को मारने आए, तो उन्होंने रोक दिया। भगवान् की दिव्य सत्ता को पहचानकर सर्प योनि में बैठे चंडकौशिक ने पश्चाताप व्यक्त किया। उन्हें भगवान् के उपदेश सुनने के बाद मुक्ति मिली। फिर मानव देह में जन्म लेकर उन्होंने क्रोध शमन हेतु तप किया और सिद्ध पुरुष बने।