Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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श्रद्धा हुई प्रगाढ़ तीन पावन प्रतीकों से
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गौ, गंगा और गीता भारतीय संस्कृति का प्रतीकात्मक बोध कराते हैं। इनमें से गौ सात्विकता का प्रतीक है, तो गंगा तरल-सरल प्रवाहमान पावनता का, जबकि गीता संस्कृति के उच्च आदर्शों एवं अध्यात्म ज्ञान का प्रतीक है। बाल्यावस्था से ही संस्कृति पुरुष श्रीराम का मन-अंतःकरण इन तीनों के प्रति श्रद्धासिक्त था। मार्गदर्शक गुरुसत्ता के मिलन के बाद तो यह श्रद्धा और अधिक प्रगाढ़ हुई। गुरुदेव ने उन्हें जो साधना का विज्ञान-विधान बतलाया, उसके अनुसार तो ये तीनों ही प्रतीक उनकी साधना का अभिन्न अंग बन गए। उन्होंने गौ, गंगा, गीता को गायत्री से अभिन्न जाना और अनुभव किया।
सूक्ष्मशरीरधारी गुरुदेव ने सबसे पहले अपने शिष्य को गायत्री साधना का जो विधि-विज्ञान बतलाया, उसमें गौ कि महिमा स्वयमेव ओत-प्रोत थी। छह घंटे के नियमित साधनाकाल में ही नहीं, बल्कि नित्य अखंड अविराम जो दीप जलाया जाना था, उसमें गौघृत होना अनिवार्य था। मार्गदर्शक सत्ता ने इसकी अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए बतलाया था कि साधनाकाल में सात्विकता का प्रकाश चतुर्दिक् बिखरना चाहिए। यों तो गायत्री जप स्वयं में यज्ञ है, परन्तु जप यज्ञ की यह प्रक्रिया मन-प्राण-अंतःकरण तक ही सीमित रहती है। इसका बहिरंग स्वरूप भी आवश्यक है। जपकाल में घृतदीप इसी हेतु जलाया जाता है।
परन्तु यह तथ्य सामान्य साधना उपक्रम के लिए है। जब प्रयोजन विशेष हो, तब आयोजन भी विशिष्ट होना चाहिए। इसीलिए अखंड दीप अनिवार्य है। इस दीप से उठने वाली ज्योति सात्विकता एवं निष्कामता की ही प्रभा बिखेरे, इसलिए इसमें घृत गौ का ही होना चाहिए, क्योंकि समूची धरती पर गौ ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो पूर्णतः सात्विक है। प्राचीनकाल में ऋषि-महर्षियों द्वारा गौ-पालन में सात्विकता की शुभेच्छा ही निहित थी। गौ से जो तत्त्व हमें प्राप्त होते हैं, उनसे भी सात्विक तरंगें ही निकलती हैं। भले ही इसे हमारी सामान्य आँखें न देख पाएँ।
इसी क्रम में सात्विकता की विशेष अभिवृद्धि के लिए विशिष्ट हविष्यान्न जौ की रोटी के साथ गौ के छाछ को लेने का निर्देश हुआ। गौ की महिमा भारतीय संस्कृति में जगह-जगह बखानी गई है। इस महिमा में निहित सत्य को सामान्य आँखें भले ही न देख पाएँ, परन्तु अध्यात्मवेत्ता इसे सतत् अनुभव करते हैं और आत्मसात् करते हैं। संस्कृति पुरुष श्रीराम के जीवन में यह अनुभव प्रारम्भ से ही पग-पग पर समाया रहा। अपनी इस अनुभूति को शब्द देते हुए उन्होंने गायत्री महाविज्ञान के प्रथम खंड में लिखा भी है। उनके अनुसार, “शरीर और मन के अनेक विकारों को दूर करने के लिए गव्यकल्प अभूतपूर्व है। गाय का दूध, गाय का दही, गाय की छाछ, गाय का घी सेवन करना, गाय के कंडों से दूध गरम करना चाहिए। गाय के शरीर से निकलने वाला तेज बड़ा सात्विक एवं बलदायक होता है।”
गौ की ही भाँति गंगा का साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व है। यह महत्त्व भी गायत्री तत्त्व से अभिन्न है। गंगा तरल-सरल प्रवाहमान पावनता का मूर्त रूप है। इसमें चिरप्राचीनकाल से महर्षियों-महायोगियों एवं तपस्वियों का तप-प्राण समाता रहा है। यह स्थूल आँखों से न दिखाई देने पर भी अनुभव करने योग्य सत्य है। साधकप्रवर संस्कृति पुरुष श्रीराम अपनी पूजा-स्थली पर गंगा जल से भरा एक पात्र नियमित रूप से रखा करते थे। उनके अनुसार, नियमित साधना प्रारम्भ करने से पहले गंगा जल से तीन बार आचमन मन-प्राण-अंतःकरण में एक अलौकिक पवित्रता का संचार करता है। इसके प्रभाव से चित्तवृत्तियाँ सहज निरुद्ध होती हैं, एकाग्रता अपने आप सधती है।
गंगा के प्रति उनका यह लगाव जीवन के अंतकाल तक बना रहा। हरिद्वार के सप्तऋषि क्षेत्र में गंगातीर पर शाँतिकुँज की स्थापना इसी का जीता-जागता प्रमाण है। वह शाँतिकुँज के साधना सत्रों में आने वाले साधकों-प्रज्ञा पुत्रों को नियमित गंगा-भ्रमण एवं गंगाजल के पान के लिए प्रोत्साहित किया करते थे। उनका कहना था कि गंगाजल में तप की उर्मियाँ उमंगती हैं। गंगा का किसी भी तरह सान्निध्य, सुवास आध्यात्मिक उत्थान के लिए हितकर है। उन्होंने प्राण प्रत्यावर्तन, कल्पसाधना, चाँद्रायण साधना आदि में भाग लेने वाले साधकों के लिए भोजन निर्माण की व्यवस्था में भी गंगाजल का प्रयोग करवाया, जिसके तद्नुरूप परिणाम भी सामने आए। वह कहा करते थे, गंगा जल की महिमा जितनी वैज्ञानिक है, उससे अनगिन अनन्त गुना साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक है। यदि परिस्थितिवश किसी के लिए गंगा स्नान एवं गंगाजल पान सम्भव न हो, तो मानसिक एवं भावनात्मक रूप से गंगा स्नान एवं गंगाजल पान करना चाहिए। गंगा, गायत्री का ही रूप है। तभी तो शायद गंगा दशहरा एवं गायत्री जयन्ती के रूप में दोनों की अवतरण तिथि एक है।
गीता भी इनसे अलग नहीं है। यह भारतीय संस्कृति का प्राण तो है ही, संस्कृति पुरुष श्रीराम के प्राणों का तत्त्व भी यही था। “गायत्री छंद सामऽहम्” का गीता वाक्य यह स्पष्ट करता है कि गायत्री, गीताकार एवं उनकी कृति का साक्षात् स्वरूप है और साधकप्रवर श्रीराम तो अपनी साधना के प्रारंभिक काल से ही गायत्रीयम होने के साथ गीतामय भी हो गए थे। कर्म, भक्ति एवं ज्ञान के रूप में गीता की यह त्रिवेणी उनके अंतरंग एवं बहिरंग जीवन में शाश्वत एवं सतत् प्रवाहित थी। वह मानव-जीवन में इन तीनों के प्रवाह को सतत् एक साथ महत्त्व देते थे। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो भक्ति एवं ज्ञान से विमुख कर्म केवल महत्त्वाकाँक्षा की पूर्ति का साधन व जीवन में भटकन का पर्याय बनकर रह जाता है। इसी तरह कर्म एवं ज्ञान से विमुख भक्ति कोरी भावुकता बन जाती है और यदि ज्ञान, कर्म एवं भक्ति से विमुख हो, तो कोरी विचार तरंगें ही पल्ले पड़ती हैं, जो मात्र दिवास्वप्नों की सृष्टि करती रहती हैं।
वह कहा करते थे कि गीता का महत्त्व गीता-पाठ तक सीमित नहीं है। रटने को तोता भी राम-राम रटता रहता है, किन्तु बिल्ली जैसे ही उस पर झपट्टा मारती है, वैसे ही टें-टें करने लगता है। गीता में निरूपित कर्म, ज्ञान एवं भक्ति जब तक जीवन में नहीं रच-बस जाते, तब तक गीता की यथार्थ महिमा प्रकट नहीं होती। उनके जीवन में यह महिमा क्षण-प्रतिक्षण, पल-प्रतिपल प्रकट थी। जिन्होंने उन्हें नजदीक से देखा और जाना है, उनके लिए यह कथन तनिक भी अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि वह गीता और गीताकार के मूर्तिमान स्वरूप हो गए थे और तभी तो उन्होंने अपने शिष्यों एवं संतानों को परम वात्सल्यपूर्ण स्नेह से अभयदान देते हुए कहा, “न में भक्तः प्रणश्यति।” इसी के साथ उन्होंने जिज्ञासु साधकों को यह साधना सूत्र भी दिया कि “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” ये सूत्र उनके लिए हैं, जो उनके हैं और उनके होना चाहते हैं। गीता के साथ गंगा एवं गौ में निहित संस्कृति तत्त्व उनके जीवन में सहल परिव्याप्त थे, हालाँकि उनका जीवन ऊपर से दिखने में सामान्य गृहस्थ का था, जिसे उन्होंने तपोवन बना लिया था।