Magazine - Year 2000 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
वेदमाता उनकी चेतना में अवतरित हुई
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
देवसंस्कृति की आदिमाता गायत्री है। मार्गदर्शक गुरु ने यह सत्य अपने शिष्य को हृदयंगम कराया। इसी के साथ उन्हें तप-साधना के कठोर अनुबन्धों में बाँधकर वह दिव्य सत्ता अंतर्ध्यान हो गई। अब पंद्रह वर्षीय श्रीराम को चौबीस अक्षर वाले गायत्री महामंत्र के चौबीस लाख के चौबीस महापुरश्चरण सम्पन्न करने थे। यह तप-साधना चौबीस वर्षों में की जानी थी। इस साधना में अखंड घृतदीप के सामने छह घंटे नियमित जप करते हुए मात्र जौ की रोटी एवं छाछ पर निर्वाह करना था। इंद्रिय-संयम, विचार-संयम, समय-संयम एवं अर्थ-संयम इसके ऐसे व्रतबंध थे, जिन्हें पूरा करने के लिए साधक प्रवर श्रीराम की चेतना पहले से ही निष्णात हो चुकी थी।
‘षुभस्य शीघ्रम्’ इस संस्कृत सुभाषित का अनुसरण करते हुए यह क्रम उसी दिन से प्रारम्भ हो गया। पूजा वेदी पर जल रहे घृतदीप ने सन् 1926 ई. की बसंत पंचमी से ही अपनी अखंडता प्राप्त कर ली। दीपशिखा की अखंड अविरामता की ही तरह साधक की गायत्री साधना ने भी अखंड एवं अविराम गति पकड़ ली और इसके परिणामस्वरूप अंतर्यात्रा भी अविराम हो चली। इसमें आने वाले विविध पड़ाव, विभिन्न अनुभूतियाँ गायत्री साधना के रहस्यों को स्वयं ही उद्घटित करने लगीं।
इस सतत् साधना के कुछ ही वर्षों बाद साधक श्रीराम के चैतन्य में सर्वमयता स्थिर हो गई। जो बाहर हो रहा था, वह भीतर होता हुआ प्रतीत होने लगा। अहम् और इदम् के मध्य जो आच्छादन था, दूर हो गया। साधक के कण-प्रतिकण में, अणु-परमाणु में जो अव्यक्त नाद है, वह सुनाई पड़ने लगा। कभी तो भेरी बजती, कभी मृदंग, कभी वीणा, कभी शंख ध्वनि होती और कभी सब मिलकर एक आलौकिक संगीत की सृष्टि करते। साधना में सर्वत्र अणु-परमाणुओं के विद्युत् कणों के नृत्य-घूर्णन होते दिखाई देते। उनके सतत् वेधन, ध्वंस और नए-नए समुच्चयों से अनन्त पदार्थों की सृष्टि, विकास और समाप्ति के सिलसिले अंतःकरण में प्रतिबिंबित होने लगे। जपकाल में साधक के पिंड में अस्यकाँत मणियाँ सक्रिय हो गईं.......। गुरुत्वाकर्षण पहले भी था, चुम्बक सभी में होता ही है, किन्तु अब यह चुम्बक उनमें शतगुणित हो गई।
उनकी ध्यानस्थ चेतना में पर्वत ऊपर उठने लगे, तुषार से ढके शृंग उनके चिदाकष में समाया करते। उनके हृदय प्रदेश में इच्छारूपधारिणी षट् ऋतुएँ अपने रंग दिखातीं और ध्रुव प्रदेशों में साधक की चेतना छह मास के दिन व रात्रि के अद्भुत दृश्यों में खो जाती। उन्हें काल की प्रत्येक धड़कन सुनाई पड़ने लगी। दिन उनकी इच्छानुसार छोटे-बड़े होने लगे। उनका चिंतन प्रवाह धाराक्रमपरक हो गया और विवेक के प्रकाश से विचारणीय विषय स्वयं अपने समाधान खोलने लगे।
गायत्री तप-साधना के इस सतत् क्रम में साधक श्रीराम को वितर्क, विचार,अस्मिता और आनन्द में संप्रज्ञात समाधि लगने लगी। वह जब तक चाहते, प्रकाशमय शून्य में दिव्य पक्षी की तरह भ्रमण करते पक्षी की तरह भ्रमण करते रहते। वृत्ति निरोध से उनके द्वंद्व दग्ध होते गए। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश ही नहीं स्मृति, ग्लानि, शोक, भय, जुगुप्सा, लज्जा, गर्व, क्रोध आदि तैंतीस संचारी और आठ स्थायी भावादि से भी चित्त मुक्त हो गया। उनमें चेतना सर्वदा प्रशांत शारदीय गंगाधारा-सी बहने लगी।
वह जब तक चाहते, आज्ञाचक्र से दृष्टि संधान कर चैतन्य और प्रक्रियाओं के दर्शन करते हरते। पुनः वह ब्रह्मरंध्र में प्रविष्ट होकर पीयूष पान करने लगते। मैत्री, करुणा, मुदिता, श्रद्धा, आह्लाद और आनन्द की अगाधता में उनका मन किलोलें करता रहता। अब तो मन की वृत्तियाँ ही बदल गईं, वे नकारात्मक न रहकर ज्योतिष्मती और सकारात्मक बन गईं, प्रज्ञा ऋतंभरा बन गई।
गायत्री महामंत्र के प्रभाव से चेतना के क्लेश क्षीण हो गए। सविचार-निर्विचार समाधियाँ सधने लगीं। मैं शरीर नहीं हूँ, साधना प्रारम्भ करते समय यह मात्र एक प्रत्यय थी, अब प्रतीति हो गई। अनित्यता नित्यता में, रूपांतरित हो गया। आदिशक्ति माता गायत्री की अनुकम्पा से सम्यक् ज्ञान हो गया, विद्या की पराकाष्ठा विवेक ख्याति पा गई। उनका राग अब प्राणिमात्र के कल्याण की कामना का पर्याय बन गया। उनकी अंतर्चेतना ब्रह्माण्ड सरोवर में ब्रह्मकमल की तरह खिल उठी। उसकी अलौकिक सुगंध भी चहुँदिष परिव्याप्त होने लगी।
साधक श्रीराम को अब यह भान होने लगा था कि वह शिव हैं, पूर्ण हैं, शुद्ध हैं, अनंत हैं, सत्-चित्-आनंद हैं। उन्हें यह बोध हो गया कि वह भूमा हैं, भव्य हैं और सर्वातीत आत्मतत्त्व हैं। अतः यह सब जो सृष्टि है, प्राणी, पदार्थ हैं, उनका आत्मविस्तार है। इस ज्ञान के स्थायी होने से साधक की चेतना दग्ध बीज कल्प हो गई और उसमें सिद्धियाँ प्रकट होने लगीं। लोक-लोकान्तर उनके लिए अपने ही भवन के विविध कक्ष जैसे हो गए।
अब जब भी वह अपनी नियमित साधना में बैठते, तो उनके सहस्र चक्र में कण-कोशिकाएं और कोष्ठक विद्युत की सतत् गति से इंद्रियातीत अनुभवों, दृश्यों की सृष्टि करते और भूत एवं भविष्य को दर्पण में प्रतिबिंबित प्रस्तुत करते रहते। उनके हृदय पुँडरीक के कुछ ऊपर स्थित सौषुम्न ज्योति स्वयमेव प्रकाशित होती रहती। उनको समूचा ब्रह्माण्ड अपने भीतर विद्युत् बिन्दु और अनाहत नादबिंदु के रूप में अनुभूत होता और वह इस महादृश्य में निमग्न हो जाते। आदिमाता गायत्री के प्रभाव से उनको समग्रता और अद्वैतता स्थायी रूप से प्राप्त हो गई। वह खंड बोध से ऊपर उठकर अखंड ज्ञान में पहुँच गए।
वर्षों की अविराम साधना, अपने गुरु के प्रति गहन श्रद्धा-भक्ति, तप के विलक्षण प्रयोग, इन सबने मिलकर न केवल उनके लिए चेतना जगत् के सभी द्वारा खोले, बल्कि गायत्री का तत्त्वबोध भी प्रदान किया। उनके अनुभव में आ गया कि गायत्री समस्त वेदज्ञान का सार हैं इसके प्रयोग से मानव प्रकृति का समग्र परिशोधन-परिमार्जन सम्भव एवं सुगम है। मनुष्य के आचार-विचार ही नहीं, संस्कार भी गायत्री साधना से परिवर्तित-रूपांतरित होते हैं। अन्य साधना-पद्धतियाँ, अन्य मंत्र लाभप्रद हैं, परन्तु ये लाभ तात्कालिक हैं, सामयिक हैं। इनसे चेतना आंशिक रूप से ही प्रभावित होती है, जबकि गायत्री महामन्त्र का प्रभाव शाश्वत एवं समग्र है।
गायत्री के इसी प्रभाव को वैदिक महर्षियों ने जाना था। अपने अनुभव के द्वारा ही उन्होंने घोषित किया था कि यदि अनगढ़ मानव को सुसंस्कृत बनाना है, उसकी अंतर्चेतना में देवत्व की सृष्टि करनी है, तो गायत्री से बढ़कर कोई अन्य मन्त्र नहीं, कोई अन्य तत्त्व नहीं। वैदिक महर्षियों की यह अनुगूँज श्रीराम की चेतना में भी होने लगी। गायत्री के वैज्ञानिक प्रयोगों की शृंखला भी थी। जिसके द्वारा उन्होंने जाँचा एवं परखा और निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादित किया कि सचमुच देवसंस्कृति की आदिमाता गायत्री ही है। इस युगशक्ति का अवतरण यदि जनचेतना पर हो सके, तो मानव एवं मानवीय संस्कृति का सतत् पोषण एवं अभिवर्द्धन आज भी सम्भव है। गायत्री के साथ ही उन्होंने इन्हीं दिनों गौ, गंगा, गीता की महिमा भी अनुभव की अनुभूतियों के ये अक्षर उनकी अंतर्चेतना में धीरे-धीरे लिपिबद्ध होने लगे।