Magazine - Year 2000 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
उन्होंने सुनी आर्ष साहित्य की पुकार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
वेद भारतीय धर्म-परंपरा और ज्ञान-संपदा के वाहक हैं। इनके महत्त्व को ध्यान में रखकर चलें, तो आसानी से समझा जा सकेगा कि पूज्य गुरुदेव ले लुप्तप्राय वैदिक संहिताओं के साथ उपनिषद्, आरण्यक, दर्शन आदि आर्षग्रंथों को जनसुलभ बनाकर शताब्दियों में संपन्न हो सकने वाला कितना बड़ा युगीन कार्य किया। वेदों के संबंध में पहली ध्यान रखते योग्य बात यह है कि अन्य धर्मों के शासन ग्रंथों की तरह न तो ये अलौकिक सत्ता के किसी एक प्रतिनिधि व्यक्तित्व की रचना है ओर न ही अनुयायियों के लिए विधि-निषेध की व्याख्या करने वाली पुस्तकें। भारतीय धर्म-परंपरा का पालन करने वालों के आचार-विचार रहन-सहन, विश्वास और रीतियों को जानने के लिए तो इन ग्रंथों की उपादेयता है लेकिन ये ग्रंथ किसी भी विषय में स्पष्ट नियम-व्यवस्था नहीं देते। वेदों का अध्ययन, उनके मंत्रों का आराधन मानव के भीतर सोई प्रज्ञा को जगाने भर का काम करते हैं। उस प्रज्ञा के आलोक में साधक हित-अहित या शुभ-अशुभ का निर्धारण स्वयं कर लेता है। आचार्य बलदेव उपाध्याय ने इनकी उपयोगिता ज्ञान के रूप में नहीं, नेत्र के रूप में बताई है। उन्होंने लिखा है, “ लौकिक वस्तुओं के साक्षात्कार के लिए जस प्रकार नेत्र की उपयोगिता है उसी प्रकार दिव्य तत्त्वों का रहस्य जानने की सामर्थ्य वेदों से आती है।”
ऋषि सत्ताओं द्वारा गहन समाधि अथवा साक्षात्कार की स्थिति में अनुभव किए गए आध्यात्मिक सत्य का नाम वेद है। प्रसिद्ध है कि वेद-में.ो की रचना छंद शास्त्र के नियमों का ध्यान रखते हुए नहीं की गई, बल्कि इन अपौरुषेय मंत्रों का उद्भव जिस रूप में हुआ, उस आधार पर ही छंद व्याकरण, अलंकार आदि विधाओं का स्वरूप उभरता चला गया। प्रसिद्ध है कि भारत में उद्भूत धर्म-परंपराओं और साधनाओं के विविध रूप वेद-शास्त्रों पर ही निर्भर है। वेद-शास्त्र अर्थात् ऋषिप्रणीत और प्रमाणित प्रज्ञा दृष्टि। बीस हजार मंत्रों में फैली हुई वैदिक संहिता उस प्रज्ञा का स्थूल प्रतीक है। जब तक वह अंतश्चेतना में उद्भूत नहीं होती, तब तक वेद-शास्त्रों से ही प्रमाण लेने होते है। अध्यात्म विद्या या दर्शन शास्त्र की दो विपरीत धाराएँ भी वेदों से ही पुष्टि ओर समर्थन लेती है। अपने पक्ष का समर्थन करते हुए दो विरोधी सिद्धाँतों के प्रतिपादन में लगे हुए आचार्यों को यदि कोई युक्ति वेद-विरुद्ध लगती है तो वे तुरंत उसे वापस लेते हैं। वेद से हटकर जाने का साहस नहीं करते। यही कारण है कि ईश्वर की सत्ता को महत्त्व नहीं देने वाला साँख्य और उसे सब कुछ मानने वाला मीमाँसा, वेदाँत वेद से ही अपने लिए आवश्यक समर्थन जुटाते हैं। । अन्य परंपराओं में नास्तिक का अर्थ भले ही ईश्वर को नहीं मानने वाले के रूप में दिया जाता हो। लेकिन भारतीय परंपरा में वेद का प्रमाण नहीं मानने वालों, अंतर्दृष्टि की उपेक्षा करने वालों को नास्तिक कहा गया है।” नास्तिकों वेद निदंकः” अर्थात् “वेद की निंदा करने वाला नास्तिक है।” ऐसी मान्यता रही है।
कोई समय था जब श्रुति के आधार पर स्थापित वैदिक वाङ्मय के अध्ययन का व्यापक प्रचलन था। चारों वेद, उनका अर्थ-गाँभीर्य समझने के लिए आवश्यक ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद्, सूत्र ग्रंथ व्याकरण निघंट, निरुक्त छंद, ज्योतिष, अनुक्रमणों आदि वेदाँगों का विपुल विस्तार था। उपनिषद्, दर्शन शास्त्र, स्मृति ग्रंथ महाकाव्य और पुराणादि ग्रंथ भी वैदिक ज्ञान के विस्तार-विवेचन के लिए ही थे। अध्ययन-अध्यापन के लिए गुरुकुल आश्रम, देवालय, तीर्थ, आरण्यक, उपाश्रमों जैसी विभिन्न व्यवस्थाएँ थी। ऐसी विभूतियाँ भी थी। जिनके कारण वैदिक अध्ययन प्रतिष्ठित हुआ। उद्गीथ माधवभट्ट, सायण, उब्बट महीघर, कुमारिल, शंकर आदि ने वैदिक वाङ्मय को जीवंत बनाए रखा।
मध्यकाल का अंधकार युग आया। संस्कृतिद्रोहितों के हमलों की बाढ़ से हमारी ज्ञान-संपदा नष्ट होने लगी। बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों, तीर्थों में रखी साहित्य-संपदा और उसके मर्मज्ञ सिद्धांतों पर दोतरफा ध्वंस होने लगा। विद्या परंपरा फिरा भी जीवित रही। अपने जीवन की तुलना में लोक-शिक्षकों ने शास्त्रों को प्राथमिकता दी, विरासत अपने सहयात्री को सौंप आत्मबलिदान करते चले जाने वालों का एक विलक्षण इतिहास हैं। शहीद हुए इन संस्कृति वीरों के कारण ही वैदिक परंपरा के बीच बचा लिए गए।
परमपूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि मध्यकाल के ध्वंस और प्लावन के दिनों में कुछ मनस्वी-तेजस्वी विभूतियों ने शास्त्र विद्या को धारण कर बचाए रखा। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं शताब्दी में मैक्समूलर, विलसन, मेल्डनर जैसे पाश्चात्य तथा महर्षि दयानंद, पंडित जयदेव, रामगोविन्द शास्त्री आदि पौर्वात्य विद्वानों ने वैदिक संहिताओं को फिर से प्रतिष्ठित करने का महती पुरुषार्थ किया।
लोकमान्य तिलक, आनंद कुमार स्वामी, श्री अरविंद, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, माधवार्चा आदि विद्वानों ने श्री वेदों के अनुशीलन को फिर से प्रचलित करने के सरंजाम रचे। वेदों को समझने-समझाने के लिए इन विद्वानों के पास मौलिक दृष्टि थी। उनके प्रयास भी विलक्षण थे। शास्त्र-परंपरा को बचाए रखने वाली विभूतियों की जब भी चर्चा होगी तो इन विद्वानों का नाम आदर के साथ जरूर लिया जाएगा, लेकिन इन प्रयत्नों की अपनी सीमा थी। स्वामी दयानंद के वेदभाष्यों के सिवाय कोई और टीका-व्याख्या जनसुलभ नहीं हो सकी। साधारण अनुवाद भी लोगों तक नहीं पहुँच पाए। उसके जनसुलभ होने की आशा भी कैसे की जा सकती हैं।
पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि वेद−शास्त्रों का अनुशीलन इसलिए भी बंद हुआ कि ब्राह्मणों या विद्वानों ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। यह व्यवस्था किसी संस्कृति द्रोही ने ही रची और महर्षि गौतम के नाम से समाज में फेंकी होगी कि शूद्रों को वेद का अध्ययन नहीं करना चाहिए। यदि वह चोरी से वेदमंत्र सुनता हुआ पकड़ा जाए तो उसके कान में पिघला हुआ सीसा भर दें। शूद्र अर्थात् श्रम और सेवा से जीविका चलाने वाला समाज का बहुसंख्यक वर्ग। स्वामी दयानंद ने सबसे पहले इस मान्यता का खंडन किया। उन्होंने वेदों की बोधगम्य व्याख्या की। साधारणजन उनसे धर्म, राजनीति, अर्थ, मोक्ष और सफलता के रहस्य समझ सकें, यह ध्यान में रखकर उनका प्रचार किया। बाद में पचास के दशक में परमपूज्य गुरुदेव ने गायत्री तपोभूमि की स्थापना के साथ आर्ष साहित्य के जनोपयोगी भाष्य की योजना हाथ में ली। चारों वेदों का अनुवाद मात्र करने के लिए लोगों का पूरा जीवन खप जाता है ? गुरुदेव ने वेदों के साथ 107 उपनिषद्, छह दर्शन और स्मृति ग्रंथों का अनुवाद, भाष्य और संपादन कुछ ही वर्षों में संपन्न कर दिया। सन् 1931 की गायत्री जयंती को चारों वेदों की टीका सात भागों में और 107 उपनिषद्, तीन खंडों में प्रकाशित हुए। इन ग्रंथों का महत्व दर्शाते हुए पूज्य गुरुदेव ने भूमिका में लिखा,”वेद-उपनिषदों को जीवन का सर्वांगपूर्ण दर्शन कहना चाहिए,”वेद-उपनिषदों को जीवन का सर्वांगपूर्ण दर्शन कहना चाहिए। उनमें जीवन को शाँति ओर आनंद के साथ जीने और प्रगति पथ पर निरंतर बढ़ते रहने की विधा का भलीभाँति विवेचन हुआ है। लौकिक और पारलौकिक, बाह्य और आँतरिक, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के दोनों ही पक्ष जिस आधार पर समुन्नत हो, वह महत्त्वपूर्ण ज्ञान उनमें भरा हुआ है।”
पूज्य गुरुदेव के संपादित आर्ष साहित्य का महत्त्व कुछ ही पंक्तियों में समझना हो तो डॉ. राधाकृष्णन की टिप्पणी को उद्धृत करना चाहिए। सन् 1961 में वे भारत के राष्ट्रपति थे। आर्ष साहित्य का सैट जब उन्हें भेंट किया गया, तो व्यस्त जीवन में समय निकालकर उन्होंने कुछ दिनों में उसका अवगाहन कर लिया। इसके बाद उन्होंने अपनी सम्मति लिखी, “ यदि यह ज्ञान नवनीत मुझे कुछ वर्ष पूर्व मिल गया होता, तो मैं संभवतः राजनीति में नहीं जाता। मैं इन आत्मसात् कर लेने योग्य ग्रंथों के मनन-चिंतन में ही लीन रहता।” सर्वविदित है कि डॉ. राधाकृष्णन भारतीय दर्शन और विद्या धाराओं के अधिकारी विद्वान थे। ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालय में उन्होंने भारतीय दर्शन पढ़ाया। उनकी अँगरेजी व्याख्याएँ यूरोपीय जगत् में भारतीय दर्शन की प्रामाणिक और प्रतिनिधि रचनाएँ समझी जाती है।
पूज्य गुरुदेव ने आर्ष साहित्य के सुलभ संस्करण कुछ ही वर्षों में प्रस्तुत कर दिए। इसकी भूमिका वे स्वतंत्रता आँदोलन में भागीदारी के दिनों से ही बना चुके थे। अपनी मार्गदर्शक सत्ता से द्वितीय साक्षात्कार के समय ही उनके कंधों पर आर्ष साहित्य के उद्धार का गुरुतर भार आ गया था। आगरा में अखण्ड ज्योति का प्रकाशन आरंभ करते वक्त 1939-97 में गुरुदेव ने इस विषय की सामग्री जुटानी शुरू कर दी थी।
प्रमुख कठिनाई संहिता पाठों को जुटाने की थी। समग्र रूप में चारों वेदों के संहिता पाठ एक स्थान पर कहीं भी उपलब्ध नहीं थे। स्वामी दयानंद ने वेदों के उद्धार के लिए प्रचंड पुरुषार्थ किया, लेकिन उनकी व्याख्या और संहिता भी किसी एक जगह सुलभ नहीं थी। जो संस्करण मिलते थे, उनमें पाठ-भेद थे और विभिन्न वर्ग एक को सही दूसरे को अशुद्ध बताते थे। सार्वदेशिक आर्यसभा, काशी विद्वत्परिषद् और वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर से संहिताओं के पाठ प्रकाशित हुए, लेकिन वे भी समग्र नहीं थे। संपूर्ण संहिता पाठ जुटाने के लिए पूज्य गुरुदेव ने काशी, नदिया, पूजा, अड्यार, नासिक आदि क्षेत्रों की यात्रा की। ये स्थान वैदिक विद्या के केन्द्र कहे जाते हैं। अध्याय, सूक्त, मंत्र ऋचा आदि जिस रूप में जहाँ से मिले, लिए ओर अपनी दिव्य क्षमता से उनके शुद्ध रूप को जाँचा परखने पर रखने के बाद उन्हें व्यवस्थित-क्रमबद्ध किया। उपनिषदों के संकलन-संपादन में भी इसी तरह की कठिनाई आई। दस-ग्यारह उपनिषद् ही प्रसिद्ध हैं। आदि शंकराचार्य ने इतनों का ही भाष्य किया है। पूज्य गुरुदेव के सामने एक सौ आठ उपनिषद् जुटाने का दायित्व था जो पाठ मिलते थे उनमें कुछ तो वेद विरुद्ध और भारतीय अध्यात्म परंपरा का शीर्षासन करा देने वाले प्रतिपादनों से भरे थे। उन्हें पहचानने और अलग रखने की सावधानी भी बरतनी थी गुरुदेव ने तमाम सावधानियाँ बरतते हुए उनके प्रामाणिक संस्करण तैयार किए।
वेद-उपनिषदों के अलावा छहों दर्शन, अठारह, पुराण, बीस स्मृतियाँ चौबीस गीताएँ आरण्यक, ब्राह्मण, रिरुक्त, व्याकरण आदि ग्रंथ भी आते हैं। प्रत्येक खंड के संकलन संपादन की गाथा बहुत विस्तार लेगी। इतना ही समझना चाहिए एक पुराण के संकलन, पंदान प्रकाशन और प्रसार में कई पीढ़ियाँ खप जाती हैं, फिर भी वैसे परिणाम उत्पन्न नहीं होते, जो पूज्य गुरुदेव के आर्ष तप के एक अंश से संभव हुआ है। पूज्य गुरुदेव ने जिस अंतर्दृष्टि से पुराणों को संपादित ओर प्रस्तुत किया, उसे देखकर सभी विद्वान दाँतों तले अँगुली दबाने लगे। विभिन्न संस्थाओं के उपदेशक अब बड़े गर्व से अपने प्रवचनों में पौराणिक घटनाओं का दृष्टाँत के रूप में उद्धृत करते थे। आर्ष साहित्य को सर्वसुलभ कराने के लिए किसी समय आलोचना करने वाले विद्वान् अब यह भी कहते है कि आचार्यजी (गुरुदेव) ने इस युग में वेदव्यास की भूमिका नहीं निबाही होती, तो हम अपने शास्त्रों के लिए भी तरस जाते।