Books - चिरयौवन का रहस्योद्घाटन
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Language: HINDI
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जीवन रस को छक कर पीते ये चिर-युवा
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आमतौर पर 60-70 वर्ष से अधिक आयु के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि इस उम्र में मनुष्य की जीवनी शक्तियां चुकने लगती हैं। लोग इस आयु में मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगते हैं और जीवन से हताश होकर निष्क्रिय, निद्रित, मरणोन्मुख, मृतप्राय जिन्दगी जीने लगते हैं। वास्तविकता यह है कि मनुष्य की पूर्ण आयु 100 वर्ष की निर्धारित की गई है। ऋषियों ने भी मनुष्य की आयु के चार भाग कर उसे चार आश्रमों में बांटकर क्रमशः व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने के निर्देश दिये थे किन्तु इन दिनों थोड़े ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो 60-70 की आयु पार करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की गिनती तो अंगुली पर की जा सकती है, जिन्होंने सौ वर्ष की जिंदगी देखी और जीयी। पिछले दिनों अमरीका में हुई जनगणना के अनुसार वहां 29 हजार व्यक्ति ऐसे थे जो सौ वर्ष की आयु पार कर चुके थे और इसके बाद भी वे सक्रिय थे।
इतनी लम्बी अवधि तक कैसे जीवित रहा जा सका? और कैसे क्रियाशील जीवन व्यतीत किया गया? इसका उत्तर प्राप्त करने के लिए डा. आन गौलुक और डा. एपिन हिल ने खोजबीन की, उन्होंने 29 हजार व्यक्तियों में से 400 ऐसे व्यक्तियों को चुना जो सौ वर्ष की आयु पार कर चुके थे और उसी प्रकार व्यस्त जिंदगी बिता रहे थे, जैसी कि अन्य लोग पचास साठ की आयु में बिताया करते हैं। इन 400 व्यक्तियों में 150 पुरुष थे और 250 महिलाएं थीं। महिलाओं की संख्या इसलिए अधिक रखी गई कि देखा गया था, पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ही अधिक दीर्घ जीवी होती हैं।
इस सर्वेक्षण के समय आशा यह की गई थी कि ऐसे उत्तर प्राप्त होंगे जिनके दीर्घ जीवन के सम्बन्ध में किन्हीं अविज्ञान रहस्यों पर से पर्दा उठाया जा सकेगा। और कुछ ऐसे सूत्र प्राप्त हो सकेंगे जिन्हें अपना कर दीर्घ जीवन जीने की इच्छा रखने वाले दीर्घायुष्य प्राप्त कर सकेंगे। इस बात की भी तैयारी की गई थी कि जो निष्कर्ष प्राप्त होंगे उन्हें अनुसंधान का विषय बनाया जायेगा और देखा जायेगा कि इन सिद्धान्तों को किस स्थिति में, किस व्यक्ति के लिए किस प्रकार प्रयोग कर पाना संभव है। किन्तु जब सर्वेक्षण पूरा हुआ तो सभी पूर्व कल्पनाएं मिथ्या सिद्ध हुईं और प्राप्त अनुसंधान के लिए की गई तैयारियां निरस्त कर देनी पड़ी।
जिन व्यक्तियों से प्रश्न किया गया कि आप लम्बी अवधि तक कैसे जिये? उनमें से 28 प्रतिशत ने कहा कि हम इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कह सकते हम नहीं जानते कि इतनी उम्र हमने कैसे पाई? हमने इसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया, यह अनायास ही हो गया। 22 प्रतिशत लोगों ने इसे ईश्वर की इच्छा बताया, 17 प्रतिशत का कहना था कि वे अपनी समस्याओं की ओर से उदासीन रहे। 16 प्रतिशत व्यक्तियों ने अपने दीर्घ-जीवन का कारण परिश्रम शीलता और नियमितता को बताया। 11 प्रतिशत ने कहा कि हमारे पूर्वज दीर्घजीवी होते रहे हैं सो हमें भी दीर्घजीवन उनसे विरासत में मिला। केवल 6 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने कहा कि उन्होंने जानबूझ कर लम्बी जिन्दगी जीने के लिए नियमित आहार विहार और स्वास्थ्य के नियमों का पालन किया।
इस सर्वेक्षण में डा. गैलुप और डा. हिल ने दीर्घजीवी व्यक्तियों से जो उत्तर प्राप्त किये वे आश्चर्य जनक भले ही न हों पर कौतूहल वर्धक अवश्य हैं। ये निष्कर्ष ऐसे नये तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं जिनसे दीर्घजीवन प्राप्त करने के लिये कोई चमत्कारी गुरु प्राप्त करने को लालायित व्यक्तियों के हाथ निराशा ही लग सकती है। इन उत्तरों में एक अजीब बात यह है कि सोचना पड़ता है, क्या सभ्यता के इस युग में दकियानूसीपन वास्तव में दीर्घजीवन का आधार बन सकता है?
115 वर्षीय सिनेसिनोटी ने नशेबाजी से हमेशा परहेज रखा। 100 वर्षीय जान यषर्टस ने कहा कि मुझे पकवान कभी नहीं रुचे और मैंने हमेशा सादा भोजन ही किया। 102 वर्षीय दन्त चिकित्सक को हमेशा मस्ती में रहना अच्छा लगा। अपने काम से फुरसत मिलने पर उसे हमेशा गाना ही प्रीतिकर लगा। हालांकि उसका कंठ मधुर नहीं है फिर भी वह अपने क्लीनिक में पुराने गीतों को भर्राये स्वर में गाता रहता है।
लुलु विलियम्स ने बताया कि उसने कभी भरपेट भोजन नहीं किया। वह हमेशा भूख से कम भोजन करता रहा। श्रीमती मैगार 103 वर्ष की हो चुकी हैं, आलू और रोटी उनका प्रिय आहार रहा है। इसके अलावा उन्होंने कोई व्यंजन नहीं खाया। स्त्रियों में से अधिकांश ने कहा कि वे अपने घर-गृहस्थी में इस तन्मयता और गहराई से लगी रहीं कि उन्हें अपनी उम्र का कभी खयाल नहीं हुआ।
176 वर्षीय हैफगुच नामक गड़रिये ने कहा कि मैं अपने आपको भेड़ों के झुंड में से ही एक भेड़ मानता रहा और ढर्रे के जीवन क्रम पर सन्तोष किया। उसने न बेकार की महत्वाकांक्षाएं पालीं और न सिर खपाने वाले झंझट मोल लिए। केलोरडे का कथन है कि एक दिन जवानी में उसने ज्यादा शराब पी तो वह बीमार पड़ गया। ठीक होने के बाद उसने निश्चय किया वह ऐसी चीजें नहीं खाया करेगा जिनसे लाभ के स्थान पर उलटी हानि होती हो। मेनदोके ने जोर देकर कहा कि मैंने कभी ज्यादा सोच विचार करने की जहमत नहीं पाली और न ही कभी किसी बात पर खीझा।
यह आश्चर्य की बात है कि इन वृद्धों में से नियमित व्यायाम करने वाले तो 10 प्रतिशत भी नहीं थे। अधिकांश का कहना यह था कि हमारा दिन भर का काम ही ऐसा रहा, जिसमें शरीर थक कर चूर-चूर हो जाता है फिर हम क्यों बेकार के झंझट में पड़ते? वर्ग विभाजन के अनुसार आधे से अधिक लोग ऐसे निकले जो श्रमजीवी थे और कभी मेहनत के द्वारा ही अपनी जीविका उपार्जित करते थे। स्त्रियों में भी अधिकांश श्रमिक मजदूर वर्ग की थीं। मानसिक श्रम करने पर भी दीर्घजीवन प्राप्त करने वालों का प्रतिशत केवल 8 प्रतिशत ही निकला।
सैन फ्रांसिस्को का 103 वर्षीय विलियम मेरी सैनिक था। उसने कहा युद्ध में मुझे कई बार गोलियां लगीं और प्रायः गहरी चोटें आई। उपचार के लिए अस्पताल में भी रहना पड़ा और गंभीर आपरेशन भी हुए पर मरने की आशंका कभी छू तक नहीं पाई। उन कष्ट कर दिनों में भी कभी आंसू नहीं निकले बल्कि यही सोचता रहा कि अस्पताल से छुट्टी मिलने पर वह जल्दी ही घर लौटेगा और शानदार जिन्दगी गुजारेगा।
श्रीमती मेरुचीर्ने ने कहा कि उसे परिवार और पड़ोस के बच्चों से विशेष लगाव रहा है। उन्हीं के साथ हिलमिल कर उसने खुद को इतना तन्मय रखा कि अपना बुढ़ापा भी बचपन जैसी हर्षोल्लास भरी सरलता का आनन्द लेता रहा।
व्यवसाय के अनुसार दीर्घजीवियों का वर्गीकरण करने पर पता चला कि नौकरी पेशा लोगों की अपेक्षा स्वतन्त्र व्यवसाय में लगे लोग अधिक लम्बी जिन्दगी जीते हैं उन्हें मालिकों की खुशामद नहीं करनी पड़ती और न उनकी डांट-डपट सहकर अपने आपको व्यग्र रखना पड़ता है। स्वतन्त्र व्यवसाय करने के कारण इन लोगों को भले ही शारीरिक श्रम अधिक करना पड़ता हो, किन्तु उन पर हीनता और खिन्नता का दबाव नहीं पड़ता। कई व्यक्ति ऐसे भी थे जो नौकरी करते थे और नौकरी के दिनों में प्रायः अस्वस्थ रहते थे। देखा गया कि रिटायर होने के बाद वे स्वस्थ रहने लगे। उनके नीरोग रहने का कारण यही था कि रिटायर होने के बाद उन्हें अपने पसन्द की दिनचर्या बिताने और स्वतन्त्र रूप से नई योजना बनाने का अवसर मिल गया।
इस सर्वेक्षण में एक बात स्पष्ट रूप से उभर कर आई। वह यह कि दीर्घायु प्राप्त करने के लिए अलमस्त प्रकृति का होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना गहरी नींद नहीं आ सकती और जो शांति से निद्रा नहीं ले सकेगी उसे लम्बी जिन्दगी कैसे मिलेगी? इसी प्रकार खाने और पचने की संगति जिन्होंने मिला ली, उन्हीं को निरोग रहने का अवसर मिला है और वे ही अधिक दिन तक जीवित रह सके हैं। एक वृद्ध व्यक्ति ने पेट के सही रहने की बात पर हंसते हुए प्रकाश डाला और कहा यह तो नितान्त आसान है। बड़ी सरलता से कब्ज से बचा जा सकता है। भूख से कम खाया जाय तो न किसी को कब्ज रह सकता है और न ही डॉक्टर की शरण में जाने की जरूरत पड़ती है।
आस्था भी व्यक्ति को दीर्घायुष्य प्रदान करने में सक्षम और समर्थ आधार है। हेफेकुक ने कहा, मैंने ईश्वर पर सच्चे मन से विश्वास किया है और माना है कि वह आड़े वक्त में निश्चित रूप से सहायता करता है। भावी जीवन के लिए निश्चिन्तता की स्थिति मैंने इसी विश्वास के आधार पर प्राप्त की और निश्चिन्त रहा। जेम्स हेनरी व्रंट का कथन है कि वह एक धार्मिक व्यक्ति है। विश्वास की दृष्टि से ही नहीं आचरण की दृष्टि से भी उसने धर्म का पालन किया। धार्मिक मान्यताओं ने उसे पाप पंक में गिरने का अवसर ही नहीं दिया।
गहराई से इन दीर्घजीवियों के मानसिक स्तर का विश्लेषण किया गया तो यह तथ्य सामने आए कि उन्होंने किसी के साथ छल, विश्वास घात या निष्ठुर व्यवहार नहीं किया। उन्होंने सज्जनता की नीति अपनाई और अपनी जिन्दगी को एक खुली किताब की तरह जिया, जिसमें दबाने लायक या छिपाने लायक कुछ भी नहीं था। न तो उन्होंने किसी का बुरा चाहा और न ही कभी किसी का बुरा किया। फलतः सभी लोगों से उनके सम्बन्ध मैत्री और सद्भाव पूर्ण रहे, कभी कोई नोक-झोंक हुई भी तो वह बात ऐसे ही भुला दी। किसी अप्रिय घटना को उन्होंने मन में गांठ बांधकर नहीं रखा। बेकार की बातों को अनसुनी कर देने और भुला देने के स्वभाव ने उन पर ऐसा मानसिक तनाव नहीं पड़ने दिया जिसके कारण उन्हें उद्विग्न होकर रहना पड़े।
इन 400 दीर्घजीवियों में से एक पेट्रिस ने अपने भूतकाल की सुखद स्मृतियों को बनाये रखने की आदत को अपने दीर्घजीवन का कारण बताया। वह अपनी सुखद स्मृतियों को रस ले लेकर सुनाया करता था साथ ही उसे इस बात की भी शिकायत नहीं थी कि वह वृद्ध हो गया है। उसे इस बात का गर्व था कि उसका अतीत बहुत शानदार रहा है। वह कहता था, भला यह भी कोई कम गर्व और सन्तोष की बात है? आज के अवसान की तुलना करके अतीत की सुखद स्मृतियों और कल्पनाओं को क्यों धूमिल किया जाय? हेन्स वोर्ड का कथन था कि उसने जिन्दगी भर आनन्द भोगा है। हर खट्टी-मीठी घटना से कुछ पाने और सीखने का प्रयत्न किया है। अनुकूलता का अपना आनन्द है और प्रतिकूलता का दूसरा। मैंने दोनों प्रकार की स्थितियों का रस लेने का उत्साह रखा और आजीवन आनंदित रहा।
इस सभी दीर्घजीवियों के अनुभव प्राप्त करने के बाद निष्कर्ष यह सामने आया कि वे सभी अपनी वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट थे। वे मानते थे कि बुढ़ापा अनिवार्य है और मौत भी एक निश्चित अटल सचाई है। फिर उससे डरने का क्या अर्थ? इन 400 व्यक्तियों में से सभी लोग सदा निरोग रहे हों, ऐसी बात नहीं है, बीच-बीच बीमारियां भी सताती रहीं और दवादारू भी करानी पड़ी। पर मानसिक बीमारियों ने उन्हें कभी त्रास नहीं दिया। लम्बी अवधि में उन्हें अपने स्त्री बच्चों तक को दफनाना पड़ा, कितनों का ही दांपत्य जीवन टूटा, अनेकों को तलाक लेना पड़ा और कईयों के बच्चे कृतघ्न निकले। लेकिन इन सब बातों का उनके मन पर कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ने दिया। यों भी कहा जा सकता है कि वे मानसिक दृष्टि से इतने परिपक्व थे अथवा उनकी संवेदना इतनी विकसित नहीं हुई थी कि इन घटनाओं का उन पर कोई असर होता। वहरहाल, इन दुखद स्थितियों से वे अप्रभावित ही रहे और छक कर जीवन रस पीते रहे।
यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्य होता है कि प्राचीन काल में सौ वर्ष से अधिक आयु तक जीवित रहना एक सामान्य बात थी। अविश्वसनीय इसलिए भी लगता है कि ऐसे उदाहरण मात्र अपवाद बनकर रह गये हैं। शतायु पार करने वाले व्यक्तियों को तो अब दैवी सामर्थ्य से सम्पन्न मानकर संतोष कर लिया जाता है। पर वास्तविकता यह है कि प्राकृतिक जीवन चर्या अपना कर कोई भी व्यक्ति दीर्घ जीवन का लाभ प्राप्त कर सकता है, समय-समय पर विरले व्यक्तियों के तो उदाहरण मिलते रहते हैं। जो शतायु को पार कर चुके हैं, पर हाल ही में एक ऐसे गांव का उदाहरण सामने आया है जहां कि आकस्मिक दुर्घटनाओं के अतिरिक्त गांव का कोई भी व्यक्ति सौ वर्ष के पूर्व नहीं मरता है।
सोवियत रूस से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका स्पूतनिक के मार्च 1982 अंक में ऐसे ही एक गांव का उल्लेख है जहां कि शतायु प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का जमघट है। रूस के दक्षिण पश्चिम भाग के अजर-वैजान प्रान्त के वृहत काकेशश पहाड़ी के बीच तेट-नेट नदी की घाटी में अवस्थित उस गांव का नाम है—कासिम बीना केण्ड। सारे संसार में मात्र यही एक ऐसा गांव है जहां कि प्रायः अधिकांश व्यक्तियों की मृत्यु सौ वर्ष पूरे करने के बाद ही होती है। समुद्र तट से तीन हजार मीटर ऊपर बसे इस गांव के चारों ओर गगनचुम्बी पर्वत की चोटियां गांव के चारों ओर आठ माह तक बर्फ रूपी चादर ताने रहती हैं प्रकृति का यह अनुपम श्रृंगार देखते बनता है। ऐसी मान्यता है पहले यह गांव सुनसान था। भीषण ठंड और आवागमन की असुविधा के कारण लोग वहां रहने से कतराते थे। कासिम-बीना केण्ड गांव का नाम कासिम नामक एक व्यक्ति के कारण पड़ा। कहते हैं कि प्रकृति के इस उन्मुक्त नयनाभिराम अंचल में स्थायी रूप से रहने का दुस्साहस उस व्यक्ति ने किया। धीरे-धीरे परिवार की आबादी बढ़ती गई और पूरा गांव ही बस गया। कासिम की मृत्यु 130 वर्ष पूरे करने पर हुई। गांव में परिवारों की संख्या अब दो सौ के लगभग है।
इस गांव में अभी दर्जनों व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी आयु सौ वर्षों से ऊपर है। 148 वर्षीय गुलीयमण्डम मेरी नामक वृद्धा जो अपने को युवती कहती है को आज भी नौ जवानों की भांति घुड़ सवारी करते देखा जा सकता है। दर्शक उसकी अधिकतम आयु पचास वर्ष आंकते हैं। ‘रुस्तम कीशी’ नामक व्यक्ति की आयु 120 वर्ष है। वन रक्षक का कार्य पूरी मुस्तैदी से संभालते उन्हें देखा जा सकता है। रुस्तम कीशी के साथ ही उसका 135 वर्षीय मित्र लकड़ी का व्यवसाय करता है। कई बार वन विभाग ने रुस्तम को सवैतनिक स्थायी रूप से छुट्टी देनी चाही पर उसने यह कहकर लेने से इन्कार कर दिया कि काम के बिना तो मैं जिन्दा भी नहीं रह सकता।
रूस के ही एक ‘‘मखमूद इवाजोव’’ नामक किसान 158 वर्ष के हुए हैं। उनके कार्य, स्वास्थ्य एवं सक्रियता की बड़ी सराहना की गयी। सोवियत सरकार ने उन्हें ‘‘ऑनर आफ रेड बैनर आफ लेबर’’ से 1957 ई. में विभूषित किया था।
रूस में ओसेतिया निवासी एक महिला ‘तेपोआब्जीव’ ने दीर्घायु का विशेष रिकार्ड स्थापित कर दिया। सन् 58 में एक सौ अस्सी वर्ष की लम्बी आयु में देहान्त हुआ था। उनका कथन है कि मात्र मन को सन्तुलित एवं शांत रखकर जीवन यापन करने से शरीर रूपी यन्त्र बड़े लम्बे समय तक काम करता रह सकता है। इन चिर युवाओं के दीर्घ जीवन का रहस्य जानने के लिए विश्व के कितने ही देशों के विशेषज्ञ वहां जा चुके हैं। सबने एक स्वर से स्वीकार किया है कि गांव के लोगों की नीरोगता, स्वस्थता तथा दीर्घ जीवन का एक मात्र रहस्य है—उनकी प्राकृतिक जीवनचर्या। आज की तथाकथित सभ्यता की कृत्रिम जीवनचर्या के प्रभाव से ये अभी अछूते हैं। प्रसन्नता प्रफुल्लता, चेहरे से टपकती रहती है। क्रोध एवं आवेश को वे रोगों की श्रेणी में गिनते हैं। आहार में दूध, साग, सब्जियों की प्रधानता देते हैं। परिश्रम उनका आभूषण है। ग्रामवासियों के साक्षात्कार के लिए गये एक पत्रकार का कहना है कि ‘‘रुग्णता, दुर्बलता एवं अशक्तता के दावानल में जलते सुख-सुविधाओं से युक्त आज के प्रगतिशीलों को जीवन कैसे जीना चाहिए, यह प्रेरणा इन पिछड़े ग्रामवासियों से लेनी चाहिए।’’
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इतनी लम्बी अवधि तक कैसे जीवित रहा जा सका? और कैसे क्रियाशील जीवन व्यतीत किया गया? इसका उत्तर प्राप्त करने के लिए डा. आन गौलुक और डा. एपिन हिल ने खोजबीन की, उन्होंने 29 हजार व्यक्तियों में से 400 ऐसे व्यक्तियों को चुना जो सौ वर्ष की आयु पार कर चुके थे और उसी प्रकार व्यस्त जिंदगी बिता रहे थे, जैसी कि अन्य लोग पचास साठ की आयु में बिताया करते हैं। इन 400 व्यक्तियों में 150 पुरुष थे और 250 महिलाएं थीं। महिलाओं की संख्या इसलिए अधिक रखी गई कि देखा गया था, पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ही अधिक दीर्घ जीवी होती हैं।
इस सर्वेक्षण के समय आशा यह की गई थी कि ऐसे उत्तर प्राप्त होंगे जिनके दीर्घ जीवन के सम्बन्ध में किन्हीं अविज्ञान रहस्यों पर से पर्दा उठाया जा सकेगा। और कुछ ऐसे सूत्र प्राप्त हो सकेंगे जिन्हें अपना कर दीर्घ जीवन जीने की इच्छा रखने वाले दीर्घायुष्य प्राप्त कर सकेंगे। इस बात की भी तैयारी की गई थी कि जो निष्कर्ष प्राप्त होंगे उन्हें अनुसंधान का विषय बनाया जायेगा और देखा जायेगा कि इन सिद्धान्तों को किस स्थिति में, किस व्यक्ति के लिए किस प्रकार प्रयोग कर पाना संभव है। किन्तु जब सर्वेक्षण पूरा हुआ तो सभी पूर्व कल्पनाएं मिथ्या सिद्ध हुईं और प्राप्त अनुसंधान के लिए की गई तैयारियां निरस्त कर देनी पड़ी।
जिन व्यक्तियों से प्रश्न किया गया कि आप लम्बी अवधि तक कैसे जिये? उनमें से 28 प्रतिशत ने कहा कि हम इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कह सकते हम नहीं जानते कि इतनी उम्र हमने कैसे पाई? हमने इसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किया, यह अनायास ही हो गया। 22 प्रतिशत लोगों ने इसे ईश्वर की इच्छा बताया, 17 प्रतिशत का कहना था कि वे अपनी समस्याओं की ओर से उदासीन रहे। 16 प्रतिशत व्यक्तियों ने अपने दीर्घ-जीवन का कारण परिश्रम शीलता और नियमितता को बताया। 11 प्रतिशत ने कहा कि हमारे पूर्वज दीर्घजीवी होते रहे हैं सो हमें भी दीर्घजीवन उनसे विरासत में मिला। केवल 6 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने कहा कि उन्होंने जानबूझ कर लम्बी जिन्दगी जीने के लिए नियमित आहार विहार और स्वास्थ्य के नियमों का पालन किया।
इस सर्वेक्षण में डा. गैलुप और डा. हिल ने दीर्घजीवी व्यक्तियों से जो उत्तर प्राप्त किये वे आश्चर्य जनक भले ही न हों पर कौतूहल वर्धक अवश्य हैं। ये निष्कर्ष ऐसे नये तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं जिनसे दीर्घजीवन प्राप्त करने के लिये कोई चमत्कारी गुरु प्राप्त करने को लालायित व्यक्तियों के हाथ निराशा ही लग सकती है। इन उत्तरों में एक अजीब बात यह है कि सोचना पड़ता है, क्या सभ्यता के इस युग में दकियानूसीपन वास्तव में दीर्घजीवन का आधार बन सकता है?
115 वर्षीय सिनेसिनोटी ने नशेबाजी से हमेशा परहेज रखा। 100 वर्षीय जान यषर्टस ने कहा कि मुझे पकवान कभी नहीं रुचे और मैंने हमेशा सादा भोजन ही किया। 102 वर्षीय दन्त चिकित्सक को हमेशा मस्ती में रहना अच्छा लगा। अपने काम से फुरसत मिलने पर उसे हमेशा गाना ही प्रीतिकर लगा। हालांकि उसका कंठ मधुर नहीं है फिर भी वह अपने क्लीनिक में पुराने गीतों को भर्राये स्वर में गाता रहता है।
लुलु विलियम्स ने बताया कि उसने कभी भरपेट भोजन नहीं किया। वह हमेशा भूख से कम भोजन करता रहा। श्रीमती मैगार 103 वर्ष की हो चुकी हैं, आलू और रोटी उनका प्रिय आहार रहा है। इसके अलावा उन्होंने कोई व्यंजन नहीं खाया। स्त्रियों में से अधिकांश ने कहा कि वे अपने घर-गृहस्थी में इस तन्मयता और गहराई से लगी रहीं कि उन्हें अपनी उम्र का कभी खयाल नहीं हुआ।
176 वर्षीय हैफगुच नामक गड़रिये ने कहा कि मैं अपने आपको भेड़ों के झुंड में से ही एक भेड़ मानता रहा और ढर्रे के जीवन क्रम पर सन्तोष किया। उसने न बेकार की महत्वाकांक्षाएं पालीं और न सिर खपाने वाले झंझट मोल लिए। केलोरडे का कथन है कि एक दिन जवानी में उसने ज्यादा शराब पी तो वह बीमार पड़ गया। ठीक होने के बाद उसने निश्चय किया वह ऐसी चीजें नहीं खाया करेगा जिनसे लाभ के स्थान पर उलटी हानि होती हो। मेनदोके ने जोर देकर कहा कि मैंने कभी ज्यादा सोच विचार करने की जहमत नहीं पाली और न ही कभी किसी बात पर खीझा।
यह आश्चर्य की बात है कि इन वृद्धों में से नियमित व्यायाम करने वाले तो 10 प्रतिशत भी नहीं थे। अधिकांश का कहना यह था कि हमारा दिन भर का काम ही ऐसा रहा, जिसमें शरीर थक कर चूर-चूर हो जाता है फिर हम क्यों बेकार के झंझट में पड़ते? वर्ग विभाजन के अनुसार आधे से अधिक लोग ऐसे निकले जो श्रमजीवी थे और कभी मेहनत के द्वारा ही अपनी जीविका उपार्जित करते थे। स्त्रियों में भी अधिकांश श्रमिक मजदूर वर्ग की थीं। मानसिक श्रम करने पर भी दीर्घजीवन प्राप्त करने वालों का प्रतिशत केवल 8 प्रतिशत ही निकला।
सैन फ्रांसिस्को का 103 वर्षीय विलियम मेरी सैनिक था। उसने कहा युद्ध में मुझे कई बार गोलियां लगीं और प्रायः गहरी चोटें आई। उपचार के लिए अस्पताल में भी रहना पड़ा और गंभीर आपरेशन भी हुए पर मरने की आशंका कभी छू तक नहीं पाई। उन कष्ट कर दिनों में भी कभी आंसू नहीं निकले बल्कि यही सोचता रहा कि अस्पताल से छुट्टी मिलने पर वह जल्दी ही घर लौटेगा और शानदार जिन्दगी गुजारेगा।
श्रीमती मेरुचीर्ने ने कहा कि उसे परिवार और पड़ोस के बच्चों से विशेष लगाव रहा है। उन्हीं के साथ हिलमिल कर उसने खुद को इतना तन्मय रखा कि अपना बुढ़ापा भी बचपन जैसी हर्षोल्लास भरी सरलता का आनन्द लेता रहा।
व्यवसाय के अनुसार दीर्घजीवियों का वर्गीकरण करने पर पता चला कि नौकरी पेशा लोगों की अपेक्षा स्वतन्त्र व्यवसाय में लगे लोग अधिक लम्बी जिन्दगी जीते हैं उन्हें मालिकों की खुशामद नहीं करनी पड़ती और न उनकी डांट-डपट सहकर अपने आपको व्यग्र रखना पड़ता है। स्वतन्त्र व्यवसाय करने के कारण इन लोगों को भले ही शारीरिक श्रम अधिक करना पड़ता हो, किन्तु उन पर हीनता और खिन्नता का दबाव नहीं पड़ता। कई व्यक्ति ऐसे भी थे जो नौकरी करते थे और नौकरी के दिनों में प्रायः अस्वस्थ रहते थे। देखा गया कि रिटायर होने के बाद वे स्वस्थ रहने लगे। उनके नीरोग रहने का कारण यही था कि रिटायर होने के बाद उन्हें अपने पसन्द की दिनचर्या बिताने और स्वतन्त्र रूप से नई योजना बनाने का अवसर मिल गया।
इस सर्वेक्षण में एक बात स्पष्ट रूप से उभर कर आई। वह यह कि दीर्घायु प्राप्त करने के लिए अलमस्त प्रकृति का होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना गहरी नींद नहीं आ सकती और जो शांति से निद्रा नहीं ले सकेगी उसे लम्बी जिन्दगी कैसे मिलेगी? इसी प्रकार खाने और पचने की संगति जिन्होंने मिला ली, उन्हीं को निरोग रहने का अवसर मिला है और वे ही अधिक दिन तक जीवित रह सके हैं। एक वृद्ध व्यक्ति ने पेट के सही रहने की बात पर हंसते हुए प्रकाश डाला और कहा यह तो नितान्त आसान है। बड़ी सरलता से कब्ज से बचा जा सकता है। भूख से कम खाया जाय तो न किसी को कब्ज रह सकता है और न ही डॉक्टर की शरण में जाने की जरूरत पड़ती है।
आस्था भी व्यक्ति को दीर्घायुष्य प्रदान करने में सक्षम और समर्थ आधार है। हेफेकुक ने कहा, मैंने ईश्वर पर सच्चे मन से विश्वास किया है और माना है कि वह आड़े वक्त में निश्चित रूप से सहायता करता है। भावी जीवन के लिए निश्चिन्तता की स्थिति मैंने इसी विश्वास के आधार पर प्राप्त की और निश्चिन्त रहा। जेम्स हेनरी व्रंट का कथन है कि वह एक धार्मिक व्यक्ति है। विश्वास की दृष्टि से ही नहीं आचरण की दृष्टि से भी उसने धर्म का पालन किया। धार्मिक मान्यताओं ने उसे पाप पंक में गिरने का अवसर ही नहीं दिया।
गहराई से इन दीर्घजीवियों के मानसिक स्तर का विश्लेषण किया गया तो यह तथ्य सामने आए कि उन्होंने किसी के साथ छल, विश्वास घात या निष्ठुर व्यवहार नहीं किया। उन्होंने सज्जनता की नीति अपनाई और अपनी जिन्दगी को एक खुली किताब की तरह जिया, जिसमें दबाने लायक या छिपाने लायक कुछ भी नहीं था। न तो उन्होंने किसी का बुरा चाहा और न ही कभी किसी का बुरा किया। फलतः सभी लोगों से उनके सम्बन्ध मैत्री और सद्भाव पूर्ण रहे, कभी कोई नोक-झोंक हुई भी तो वह बात ऐसे ही भुला दी। किसी अप्रिय घटना को उन्होंने मन में गांठ बांधकर नहीं रखा। बेकार की बातों को अनसुनी कर देने और भुला देने के स्वभाव ने उन पर ऐसा मानसिक तनाव नहीं पड़ने दिया जिसके कारण उन्हें उद्विग्न होकर रहना पड़े।
इन 400 दीर्घजीवियों में से एक पेट्रिस ने अपने भूतकाल की सुखद स्मृतियों को बनाये रखने की आदत को अपने दीर्घजीवन का कारण बताया। वह अपनी सुखद स्मृतियों को रस ले लेकर सुनाया करता था साथ ही उसे इस बात की भी शिकायत नहीं थी कि वह वृद्ध हो गया है। उसे इस बात का गर्व था कि उसका अतीत बहुत शानदार रहा है। वह कहता था, भला यह भी कोई कम गर्व और सन्तोष की बात है? आज के अवसान की तुलना करके अतीत की सुखद स्मृतियों और कल्पनाओं को क्यों धूमिल किया जाय? हेन्स वोर्ड का कथन था कि उसने जिन्दगी भर आनन्द भोगा है। हर खट्टी-मीठी घटना से कुछ पाने और सीखने का प्रयत्न किया है। अनुकूलता का अपना आनन्द है और प्रतिकूलता का दूसरा। मैंने दोनों प्रकार की स्थितियों का रस लेने का उत्साह रखा और आजीवन आनंदित रहा।
इस सभी दीर्घजीवियों के अनुभव प्राप्त करने के बाद निष्कर्ष यह सामने आया कि वे सभी अपनी वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट थे। वे मानते थे कि बुढ़ापा अनिवार्य है और मौत भी एक निश्चित अटल सचाई है। फिर उससे डरने का क्या अर्थ? इन 400 व्यक्तियों में से सभी लोग सदा निरोग रहे हों, ऐसी बात नहीं है, बीच-बीच बीमारियां भी सताती रहीं और दवादारू भी करानी पड़ी। पर मानसिक बीमारियों ने उन्हें कभी त्रास नहीं दिया। लम्बी अवधि में उन्हें अपने स्त्री बच्चों तक को दफनाना पड़ा, कितनों का ही दांपत्य जीवन टूटा, अनेकों को तलाक लेना पड़ा और कईयों के बच्चे कृतघ्न निकले। लेकिन इन सब बातों का उनके मन पर कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ने दिया। यों भी कहा जा सकता है कि वे मानसिक दृष्टि से इतने परिपक्व थे अथवा उनकी संवेदना इतनी विकसित नहीं हुई थी कि इन घटनाओं का उन पर कोई असर होता। वहरहाल, इन दुखद स्थितियों से वे अप्रभावित ही रहे और छक कर जीवन रस पीते रहे।
यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्य होता है कि प्राचीन काल में सौ वर्ष से अधिक आयु तक जीवित रहना एक सामान्य बात थी। अविश्वसनीय इसलिए भी लगता है कि ऐसे उदाहरण मात्र अपवाद बनकर रह गये हैं। शतायु पार करने वाले व्यक्तियों को तो अब दैवी सामर्थ्य से सम्पन्न मानकर संतोष कर लिया जाता है। पर वास्तविकता यह है कि प्राकृतिक जीवन चर्या अपना कर कोई भी व्यक्ति दीर्घ जीवन का लाभ प्राप्त कर सकता है, समय-समय पर विरले व्यक्तियों के तो उदाहरण मिलते रहते हैं। जो शतायु को पार कर चुके हैं, पर हाल ही में एक ऐसे गांव का उदाहरण सामने आया है जहां कि आकस्मिक दुर्घटनाओं के अतिरिक्त गांव का कोई भी व्यक्ति सौ वर्ष के पूर्व नहीं मरता है।
सोवियत रूस से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका स्पूतनिक के मार्च 1982 अंक में ऐसे ही एक गांव का उल्लेख है जहां कि शतायु प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का जमघट है। रूस के दक्षिण पश्चिम भाग के अजर-वैजान प्रान्त के वृहत काकेशश पहाड़ी के बीच तेट-नेट नदी की घाटी में अवस्थित उस गांव का नाम है—कासिम बीना केण्ड। सारे संसार में मात्र यही एक ऐसा गांव है जहां कि प्रायः अधिकांश व्यक्तियों की मृत्यु सौ वर्ष पूरे करने के बाद ही होती है। समुद्र तट से तीन हजार मीटर ऊपर बसे इस गांव के चारों ओर गगनचुम्बी पर्वत की चोटियां गांव के चारों ओर आठ माह तक बर्फ रूपी चादर ताने रहती हैं प्रकृति का यह अनुपम श्रृंगार देखते बनता है। ऐसी मान्यता है पहले यह गांव सुनसान था। भीषण ठंड और आवागमन की असुविधा के कारण लोग वहां रहने से कतराते थे। कासिम-बीना केण्ड गांव का नाम कासिम नामक एक व्यक्ति के कारण पड़ा। कहते हैं कि प्रकृति के इस उन्मुक्त नयनाभिराम अंचल में स्थायी रूप से रहने का दुस्साहस उस व्यक्ति ने किया। धीरे-धीरे परिवार की आबादी बढ़ती गई और पूरा गांव ही बस गया। कासिम की मृत्यु 130 वर्ष पूरे करने पर हुई। गांव में परिवारों की संख्या अब दो सौ के लगभग है।
इस गांव में अभी दर्जनों व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी आयु सौ वर्षों से ऊपर है। 148 वर्षीय गुलीयमण्डम मेरी नामक वृद्धा जो अपने को युवती कहती है को आज भी नौ जवानों की भांति घुड़ सवारी करते देखा जा सकता है। दर्शक उसकी अधिकतम आयु पचास वर्ष आंकते हैं। ‘रुस्तम कीशी’ नामक व्यक्ति की आयु 120 वर्ष है। वन रक्षक का कार्य पूरी मुस्तैदी से संभालते उन्हें देखा जा सकता है। रुस्तम कीशी के साथ ही उसका 135 वर्षीय मित्र लकड़ी का व्यवसाय करता है। कई बार वन विभाग ने रुस्तम को सवैतनिक स्थायी रूप से छुट्टी देनी चाही पर उसने यह कहकर लेने से इन्कार कर दिया कि काम के बिना तो मैं जिन्दा भी नहीं रह सकता।
रूस के ही एक ‘‘मखमूद इवाजोव’’ नामक किसान 158 वर्ष के हुए हैं। उनके कार्य, स्वास्थ्य एवं सक्रियता की बड़ी सराहना की गयी। सोवियत सरकार ने उन्हें ‘‘ऑनर आफ रेड बैनर आफ लेबर’’ से 1957 ई. में विभूषित किया था।
रूस में ओसेतिया निवासी एक महिला ‘तेपोआब्जीव’ ने दीर्घायु का विशेष रिकार्ड स्थापित कर दिया। सन् 58 में एक सौ अस्सी वर्ष की लम्बी आयु में देहान्त हुआ था। उनका कथन है कि मात्र मन को सन्तुलित एवं शांत रखकर जीवन यापन करने से शरीर रूपी यन्त्र बड़े लम्बे समय तक काम करता रह सकता है। इन चिर युवाओं के दीर्घ जीवन का रहस्य जानने के लिए विश्व के कितने ही देशों के विशेषज्ञ वहां जा चुके हैं। सबने एक स्वर से स्वीकार किया है कि गांव के लोगों की नीरोगता, स्वस्थता तथा दीर्घ जीवन का एक मात्र रहस्य है—उनकी प्राकृतिक जीवनचर्या। आज की तथाकथित सभ्यता की कृत्रिम जीवनचर्या के प्रभाव से ये अभी अछूते हैं। प्रसन्नता प्रफुल्लता, चेहरे से टपकती रहती है। क्रोध एवं आवेश को वे रोगों की श्रेणी में गिनते हैं। आहार में दूध, साग, सब्जियों की प्रधानता देते हैं। परिश्रम उनका आभूषण है। ग्रामवासियों के साक्षात्कार के लिए गये एक पत्रकार का कहना है कि ‘‘रुग्णता, दुर्बलता एवं अशक्तता के दावानल में जलते सुख-सुविधाओं से युक्त आज के प्रगतिशीलों को जीवन कैसे जीना चाहिए, यह प्रेरणा इन पिछड़े ग्रामवासियों से लेनी चाहिए।’’
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