Books - चिरयौवन का रहस्योद्घाटन
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मनःस्थिति सम्भालिए—आयुष्य का आनन्द लीजिए
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
वृद्धावस्था जिसे कभी परिपक्व आनन्द, प्रगाढ़-ज्ञान, अनुभव कोष और मानवी गरिमा का पर्याय माना जाता था, आज की परिस्थितियों में सर्वत्र भार प्रतीत होती दीखती है, तो परमात्मा के विधान में कहीं कोई भूल हुई जान पड़ती है। अधिकांश लोग इस अवस्था में दुःखी खीझते दिखाई देते है वे इस स्थिति का दोष या तो अपने भाग्य और भगवान को देते है या फिर आज के समाज को कोसने में सन्तोष मानते हैं। किन्तु तथ्य ठीक इससे विपरीत है वृद्धावस्था के क्षोभ का कारण वह स्वयं ही है। सच तो यह है कि चिन्तन की विकृति के कारण वह असामयिक वृद्धावस्था का आवरण स्वतः ओढ़ लेता है।
फ्रेंक एण्ड वैगनाल्स कम्पनी द्वारा एक पुस्तक प्रकाशित हुई ‘स्टेइंग यंग वियांड योर डयर्स’ लेखक है—डॉ. एच. डब्ल्यू. हैगर्ड। इस पुस्तक में लेखक ने कहा है कि ‘काहिली वृद्धावस्था की जननी है। एक जर्मन चिकित्सक क्रिस्टोफ विलहेल्स हम्यूफलैंड ने अपनी प्रस्तुक मैक्रोविओटिया नामक पुस्तक में लिखा है कि हमारी भावनात्मक आदतें ही हममें बुढ़ापा ला देती है। यदि हम निराश, उदास, चिन्ताग्रस्त मनोवृत्ति के हैं तो वृद्धावस्था का शीघ्र आना सुनिश्चित है।’’ वे कहते हैं कि चिर युवा बने रहने का सूत्र—प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता।
हाइजिया नामक पत्रिका में डॉ. ए.सी. आड़ती ने डॉ. रेमाण्ड पर्ल के किए गये पर्यवेक्षण निष्कर्ष का उल्लेख किया है। डॉ. रेमण्ड ने 5000 व्यक्तियों का अध्ययन किया जो 90 वर्ष की आयु से उपर थे। अध्ययन का निष्कर्ष यह निकला कि एक विशेषता सबके साथ जुड़ी थी—निश्चिन्तता का जीवनक्रम। आशावादी दृष्टिकोण प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता से परिपूर्ण मनोभूमि।
वृद्धावस्था का कारण बताते हुए ‘‘गैलेट वर्गेंस’’ लुक एलेविन डयर्स यंगर’ नामक पुस्तक में लिखते हैं कि एकाकी एवं एकान्त प्रिय मनोवृत्ति चिन्ता एवं निराशा का कारण बनती है। यह प्रवृत्ति इस बात का परिचायक है कि वृद्धावस्था शीघ्र आने वाली है। उदासी, खिन्नता, निराशा के रहते कोई भी शक्ति सम्पन्न बने रहने का प्रयत्न कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। अधिक दिनों तक जीना हो— चिरयौवन की आकांक्षा हो तो लोगों में घुलना, मिलना सीखिये। सदा प्रसन्न रहिये और प्रत्येक छोटे बड़े कार्य में रुचि लीजिये।
‘लीविंग’ नामक पत्रिका में ‘ऐंडूज एलन’ नामक विद्वान ने वृद्धावस्था न आने देने की 6 सूत्रीय योजनायें प्रकाशित कराई थीं जो हर व्यक्ति के मनोबल को ऊंचा बनाये रखने—चिरयौवन का आनन्द लेने की कुंजी है। वे इस प्रकार हैं—
(1) भूतकाल की कल्पनाओं में अपना समय निरर्थक न गंवाइये— यौवन के वे दिन जीवन में अग्रसर होने के लिए संघर्ष के थे। और अनिश्चितता को आमन्त्रित करना विवेक सम्मत नहीं है। संघर्ष की उस अवस्था को अब आप पार कर चुके हैं। आनन्द अतीत नहीं है—वर्तमान है और वर्तमान अपनी झोली में आनन्द का भण्डार लिए सामने खड़ा है। देर बस आमन्त्रण के स्वीकार करने की है।
(2) अतीत की अपनी असफलताओं पर क्षोभ मत प्रकट कीजिये। उनसे प्रेरणा लीजिये और वर्तमान का अधिक कुशलता से उपयोग कीजिए। ईश्वर को धन्यवाद दीजिए जिसके सहारे जीवन के पूर्वार्ध के संघर्षों का पार कर लिया। अब तो केवल जीवन का आनन्द लेना आपके लिए अब शेष है। चिन्ता छोड़िए और प्रकृति के अक्षय आनन्द भण्डार को अपने बाहों में समेट कर सदा प्रसन्न रहें।
(3) यदि आप कुछ अधिक उम्र के दिखाई पड़ते हैं तो उसकी किंचित चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। अतीत के संघर्ष के कारण चेहरे पर जो झुर्रियां उभर आयी हैं वे प्रौढ़ परिपक्वता की घोतक हैं जिन्हे देखकर लोग सम्मान देते हैं। उसे परिपक्वता का चिन्ह मानकर गर्व अनुभव करना तथा अनुभवों का लाभ दूसरों को देना ही इस आयु का वास्तविक सदुपयोग है।
(4) अधेड़ आयु में लम्बी-चौड़ी अनेकों योजनायें बनाने से व्यक्ति और भी संकट में पड़ जाता है कई कार्यों में हाथ डालने की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य एवं स्थिति के अनुरूप एक कार्य में मनोयोग लगाना अधिक उपयुक्त है। अनावश्यक भाग-दौड़ एवं चिन्ता से थकान आती और बुढ़ापे का प्रभाव दिखलाई पड़ने लगता है। काम करें पर अपनी सामर्थ्य के अनुरूप और साथ ही विश्राम की उपेक्षा भी न करें।
(5) कभी यह न सोचे कि हमारी क्षमता की ‘इति श्री’ यहीं तक है। नवीन स्फूर्ति के लिए नई दिशाओं की तलाश करें और नये काम सीखने में मन लगायें। नयी-नयी खोजें आपको आनन्द देंगी।
(6) भविष्य की अनावश्यक चिन्ता करना उचित नहीं। कभी यह न सोचें कि संसार हमें इसलिए छोड़ देगा कि हमारी शक्ति क्षीण हो चुकी है। यह सोचना निराशा को जन्म देगा। वास्तविकता यह है कि संसार को अनुभवशीलों के मार्ग-दर्शन की विशेष आवश्यकता है। आयु ने आपको छः अनुभवों की पूंजी दी है। इसका सदुपयोग करने में कभी पीछे न हटें। आत्म-विश्वास सदा बनाये रखें।
योग्यता, प्रतिभा एवं अनुभवों की दृष्टि से आयु का उत्तरार्ध पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। पर देखा जाय तो अधिकांश के आयु का यह पक्ष यों ही बेकार चला जाता है कारण स्पष्ट है अनावश्यक चिन्ताओं एवं आशंकाओं के कारण असमय बुढ़ापा हावी हो जाता है। यह सच है कि अवस्था के अनुरूप शारीरिक चिन्ह प्रकट होते हैं। बालों का पकना, आंखों से कम दिखाई देना, कानों से कम सुनाई देना जैसे चिन्ह असमर्थता के नहीं आयु के अनुरूप परिवर्तन के लक्षण हैं। जिनको एक सीमा तक ही रोका जा सकता है, पर इनको ही बुढ़ापे का, असमर्थता का लक्षण मान लेना भारी भूल है। संसार के परदे पर सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हुए हैं जो जीवन पर्यन्त युवा उमंगों से भरपूर बने रहे। आयु के अनुरूप शारीरिक परिवर्तन तो उनमें भी दिखाई पड़े किन्तु इन लक्षणों को उन्होंने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। हर क्षण का उसी उत्साह एवं उमंग के साथ उपयोग किया जितना कि युवावस्था में।
मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में यह मान्यता जोर पकड़ती जा रही है, यौवन का सम्बन्ध आयु से नहीं, मनःस्थिति से है। वह सन्तुलित प्रसन्नचित्त बनी रहे तो मनुष्य सदा बुढ़ापे से बचा रह सकता है। गांधीजी 80 वर्ष की आयु में भी अपने को युवक मानते थे। इस अवस्था में भी उनकी स्फूर्ति देखते बनती थी। इसका रहस्योद्घाटन करते हुए उन्होंने एक बार कहा था कि—‘‘मैंने कभी भी परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। अपने समय के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना एवं अनावश्यक चिन्ताओं से मन को विमुक्त रखना ही मेरे चिरयौवन का रहस्य है। ‘चर्चिल’ बुढ़ापे को एक गाली मानते थे ‘उनका कहना था—कि ‘‘वृद्धावस्था पके हुए फल के समान है। जिसमें मिठास अधिक है। इस आयु में मनुष्य समाज के लिए सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है।’’ ‘जार्ज वर्नाडशा’ का कहना है कि ‘‘प्रकृति का वास्तविक आनन्द जीवन के उत्तरार्ध में ही उठाया जा सकता है। भूत के अनुभवों से प्रेरणा लेकर मनुष्य संसार का आनन्द लेते हुए समाज के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है’’ वे कहते है कि बुढ़ापे को मैं जीवन का अभिशाप मानता हूं।’’
मनःस्थिति निराशा एवं आशंकाओं से ग्रस्त हो तो असमय वृद्धावस्था के चिन्ह प्रकट होने लगते हैं और मनुष्य अपने को असमर्थ, असहाय अनुभव करने लगता है। इस स्थिति से बचने के लिए शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुरूप सतत् रचनात्मक कार्यों में संलग्न रहना श्रेयष्कर है। सत्कार्यों में निरत रहने पर आत्म-संतोष की अनुभूति होती है जो, स्वयं जीवन को और भी अधिक श्रेष्ठता से जीने की प्रेरणा देती रहती है।
***
फ्रेंक एण्ड वैगनाल्स कम्पनी द्वारा एक पुस्तक प्रकाशित हुई ‘स्टेइंग यंग वियांड योर डयर्स’ लेखक है—डॉ. एच. डब्ल्यू. हैगर्ड। इस पुस्तक में लेखक ने कहा है कि ‘काहिली वृद्धावस्था की जननी है। एक जर्मन चिकित्सक क्रिस्टोफ विलहेल्स हम्यूफलैंड ने अपनी प्रस्तुक मैक्रोविओटिया नामक पुस्तक में लिखा है कि हमारी भावनात्मक आदतें ही हममें बुढ़ापा ला देती है। यदि हम निराश, उदास, चिन्ताग्रस्त मनोवृत्ति के हैं तो वृद्धावस्था का शीघ्र आना सुनिश्चित है।’’ वे कहते हैं कि चिर युवा बने रहने का सूत्र—प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता।
हाइजिया नामक पत्रिका में डॉ. ए.सी. आड़ती ने डॉ. रेमाण्ड पर्ल के किए गये पर्यवेक्षण निष्कर्ष का उल्लेख किया है। डॉ. रेमण्ड ने 5000 व्यक्तियों का अध्ययन किया जो 90 वर्ष की आयु से उपर थे। अध्ययन का निष्कर्ष यह निकला कि एक विशेषता सबके साथ जुड़ी थी—निश्चिन्तता का जीवनक्रम। आशावादी दृष्टिकोण प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता से परिपूर्ण मनोभूमि।
वृद्धावस्था का कारण बताते हुए ‘‘गैलेट वर्गेंस’’ लुक एलेविन डयर्स यंगर’ नामक पुस्तक में लिखते हैं कि एकाकी एवं एकान्त प्रिय मनोवृत्ति चिन्ता एवं निराशा का कारण बनती है। यह प्रवृत्ति इस बात का परिचायक है कि वृद्धावस्था शीघ्र आने वाली है। उदासी, खिन्नता, निराशा के रहते कोई भी शक्ति सम्पन्न बने रहने का प्रयत्न कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। अधिक दिनों तक जीना हो— चिरयौवन की आकांक्षा हो तो लोगों में घुलना, मिलना सीखिये। सदा प्रसन्न रहिये और प्रत्येक छोटे बड़े कार्य में रुचि लीजिये।
‘लीविंग’ नामक पत्रिका में ‘ऐंडूज एलन’ नामक विद्वान ने वृद्धावस्था न आने देने की 6 सूत्रीय योजनायें प्रकाशित कराई थीं जो हर व्यक्ति के मनोबल को ऊंचा बनाये रखने—चिरयौवन का आनन्द लेने की कुंजी है। वे इस प्रकार हैं—
(1) भूतकाल की कल्पनाओं में अपना समय निरर्थक न गंवाइये— यौवन के वे दिन जीवन में अग्रसर होने के लिए संघर्ष के थे। और अनिश्चितता को आमन्त्रित करना विवेक सम्मत नहीं है। संघर्ष की उस अवस्था को अब आप पार कर चुके हैं। आनन्द अतीत नहीं है—वर्तमान है और वर्तमान अपनी झोली में आनन्द का भण्डार लिए सामने खड़ा है। देर बस आमन्त्रण के स्वीकार करने की है।
(2) अतीत की अपनी असफलताओं पर क्षोभ मत प्रकट कीजिये। उनसे प्रेरणा लीजिये और वर्तमान का अधिक कुशलता से उपयोग कीजिए। ईश्वर को धन्यवाद दीजिए जिसके सहारे जीवन के पूर्वार्ध के संघर्षों का पार कर लिया। अब तो केवल जीवन का आनन्द लेना आपके लिए अब शेष है। चिन्ता छोड़िए और प्रकृति के अक्षय आनन्द भण्डार को अपने बाहों में समेट कर सदा प्रसन्न रहें।
(3) यदि आप कुछ अधिक उम्र के दिखाई पड़ते हैं तो उसकी किंचित चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। अतीत के संघर्ष के कारण चेहरे पर जो झुर्रियां उभर आयी हैं वे प्रौढ़ परिपक्वता की घोतक हैं जिन्हे देखकर लोग सम्मान देते हैं। उसे परिपक्वता का चिन्ह मानकर गर्व अनुभव करना तथा अनुभवों का लाभ दूसरों को देना ही इस आयु का वास्तविक सदुपयोग है।
(4) अधेड़ आयु में लम्बी-चौड़ी अनेकों योजनायें बनाने से व्यक्ति और भी संकट में पड़ जाता है कई कार्यों में हाथ डालने की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य एवं स्थिति के अनुरूप एक कार्य में मनोयोग लगाना अधिक उपयुक्त है। अनावश्यक भाग-दौड़ एवं चिन्ता से थकान आती और बुढ़ापे का प्रभाव दिखलाई पड़ने लगता है। काम करें पर अपनी सामर्थ्य के अनुरूप और साथ ही विश्राम की उपेक्षा भी न करें।
(5) कभी यह न सोचे कि हमारी क्षमता की ‘इति श्री’ यहीं तक है। नवीन स्फूर्ति के लिए नई दिशाओं की तलाश करें और नये काम सीखने में मन लगायें। नयी-नयी खोजें आपको आनन्द देंगी।
(6) भविष्य की अनावश्यक चिन्ता करना उचित नहीं। कभी यह न सोचें कि संसार हमें इसलिए छोड़ देगा कि हमारी शक्ति क्षीण हो चुकी है। यह सोचना निराशा को जन्म देगा। वास्तविकता यह है कि संसार को अनुभवशीलों के मार्ग-दर्शन की विशेष आवश्यकता है। आयु ने आपको छः अनुभवों की पूंजी दी है। इसका सदुपयोग करने में कभी पीछे न हटें। आत्म-विश्वास सदा बनाये रखें।
योग्यता, प्रतिभा एवं अनुभवों की दृष्टि से आयु का उत्तरार्ध पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। पर देखा जाय तो अधिकांश के आयु का यह पक्ष यों ही बेकार चला जाता है कारण स्पष्ट है अनावश्यक चिन्ताओं एवं आशंकाओं के कारण असमय बुढ़ापा हावी हो जाता है। यह सच है कि अवस्था के अनुरूप शारीरिक चिन्ह प्रकट होते हैं। बालों का पकना, आंखों से कम दिखाई देना, कानों से कम सुनाई देना जैसे चिन्ह असमर्थता के नहीं आयु के अनुरूप परिवर्तन के लक्षण हैं। जिनको एक सीमा तक ही रोका जा सकता है, पर इनको ही बुढ़ापे का, असमर्थता का लक्षण मान लेना भारी भूल है। संसार के परदे पर सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हुए हैं जो जीवन पर्यन्त युवा उमंगों से भरपूर बने रहे। आयु के अनुरूप शारीरिक परिवर्तन तो उनमें भी दिखाई पड़े किन्तु इन लक्षणों को उन्होंने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। हर क्षण का उसी उत्साह एवं उमंग के साथ उपयोग किया जितना कि युवावस्था में।
मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में यह मान्यता जोर पकड़ती जा रही है, यौवन का सम्बन्ध आयु से नहीं, मनःस्थिति से है। वह सन्तुलित प्रसन्नचित्त बनी रहे तो मनुष्य सदा बुढ़ापे से बचा रह सकता है। गांधीजी 80 वर्ष की आयु में भी अपने को युवक मानते थे। इस अवस्था में भी उनकी स्फूर्ति देखते बनती थी। इसका रहस्योद्घाटन करते हुए उन्होंने एक बार कहा था कि—‘‘मैंने कभी भी परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। अपने समय के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना एवं अनावश्यक चिन्ताओं से मन को विमुक्त रखना ही मेरे चिरयौवन का रहस्य है। ‘चर्चिल’ बुढ़ापे को एक गाली मानते थे ‘उनका कहना था—कि ‘‘वृद्धावस्था पके हुए फल के समान है। जिसमें मिठास अधिक है। इस आयु में मनुष्य समाज के लिए सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है।’’ ‘जार्ज वर्नाडशा’ का कहना है कि ‘‘प्रकृति का वास्तविक आनन्द जीवन के उत्तरार्ध में ही उठाया जा सकता है। भूत के अनुभवों से प्रेरणा लेकर मनुष्य संसार का आनन्द लेते हुए समाज के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है’’ वे कहते है कि बुढ़ापे को मैं जीवन का अभिशाप मानता हूं।’’
मनःस्थिति निराशा एवं आशंकाओं से ग्रस्त हो तो असमय वृद्धावस्था के चिन्ह प्रकट होने लगते हैं और मनुष्य अपने को असमर्थ, असहाय अनुभव करने लगता है। इस स्थिति से बचने के लिए शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुरूप सतत् रचनात्मक कार्यों में संलग्न रहना श्रेयष्कर है। सत्कार्यों में निरत रहने पर आत्म-संतोष की अनुभूति होती है जो, स्वयं जीवन को और भी अधिक श्रेष्ठता से जीने की प्रेरणा देती रहती है।
***