Books - चिरयौवन का रहस्योद्घाटन
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सूर्य सेवन से जीवनी शक्ति बढ़ाएं
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सामान्यतया इतना ही समझा जाता है कि सूर्य से गर्मी और रोशनी मिलती है। यों यह दोनों भी जीवन निर्वाह और सृष्टि व्यवस्था के लिए आवश्यक हैं, पर तथ्यों पर गंभीरता से विचार करने से प्रतीत होता है कि सूर्य की सत्ता ही जीवन सम्पदा का रूप धारण करती है। रोग निवारण और स्वास्थ्य संवर्धन में निरन्तर काम आने वाली ‘‘जीवनी शक्ति’’ शरीर का अपना उपार्जन नहीं वरन् सूर्य का दिया हुआ अनुदान है। इसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक है, कि हम सूर्य ऊर्जा के निकट संपर्क में रहें। उससे बचने फिरने से तरावट की सुविधा भले ही मिल सके, पर उस सामर्थ्य की कमी होती जायेगी, जो स्वास्थ्य रक्षा एवं दीर्घ जीवन के लिए आवश्यक है।
इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि सूर्य के बिना पृथ्वी पर जीवन की सम्भावना नहीं है। सूर्य किरणें सभी प्राणियों के साथ मानव जीवन को प्रत्यक्षतः प्रभावित करती हैं, पृथ्वी के सभी पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं एवं मनुष्यों का जीवन सूर्य पर ही अवलम्बित है। सभी खाद्यान्नों की उत्पत्ति सौर ऊर्जा ही होती है। पौधा अपने हरे रंग से सूर्य की शक्ति को शोषित करता है। जड़ों द्वारा जल, हवा से कार्बन डाईऑक्साइड, सूर्य शक्ति के माध्यम से पौधे अपने हरे रंग (क्लोरोफिल) से एक संयुक्त पदार्थ बना लेते हैं, जिन्हें कार्बोहाइड्रेट कहते हैं। पौधों को पोषण इन्हीं से मिलता है। इन कार्बोहाइड्रेट में वसा, स्टार्च एवं शक्कर होते हैं। वनस्पति शास्त्र में इसी क्रिया को (पौधों में भोजन निर्माण की प्रक्रिया ) (फोटोसिन्थेसिस) प्रकाश संश्लेषण के नाम से जाना जाता है।
पेड़-पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया से उनका भोजन बनता है। मनुष्य का आहार वनस्पति है, दूध गाय-भैंस से प्राप्त होता है लेकिन वे भी उसे वनस्पतियां खाकर ही बना सकते हैं अर्थात् प्रकारान्तर से भी खाद्य-पदार्थ सूर्य किरणों से ही उपलब्ध माने जा सकते हैं।
सूर्य-रश्मियों के अदृश्य भाग में इन्फ्रारेड और अल्ट्रावायलेट किरणें और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। पृथ्वी को गर्म रखने, जैव रासायनिक क्रियाओं को तीव्र करने का कार्य इन्फ्रारेड किरणों से होता है। अल्ट्रावायलेट किरणों से हमारे शरीर में विटामिन ‘डी’ का निर्माण होता है। मात्र इसी विटामिन का मानव शरीर में निर्माण होता है। यह कैल्शियम, फास्फोरस आदि के खनिज लवणों को उपयोगी बनाने का कार्य करता है। इन्फ्रारेड और अल्ट्रावायलेट किरणों को कृत्रिम रूप से पैदा करके रोगों के उपचार में प्रयोग होने लगा है। सूर्य-किरणों का प्रत्यक्ष रूप से उपयोग अन्य कृत्रिम उपायों से प्राप्त लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छा रहता है।
फ्रांस के एक वैज्ञानिक डॉ. हापकिन्स का कहना है कि ‘‘मानव-शरीर एक ऐसा पुष्प है जिसे सूर्य के प्रकाश की सबसे अधिक आवश्यकता है।’’ वहां कुछ व्यक्तियों पर प्रयोग करके देखा गया, उनको हल्के सफेद वस्त्र पहनाकर सूर्य के प्रकाश में रखा गया। फिर उन्हीं को उतने ही समय के लिए बिना वस्त्रों के सूर्य किरणों के संपर्क में रखा गया। निष्कर्ष यह निकला वस्त्र सहित रहने की अपेक्षा बिना वस्त्रों के रहने पर वजन में वृद्धि अधिक पाई गयी। कार्य करने की क्षमता भी अधिक देखी गई तथा स्वास्थ्य भी अपेक्षाकृत अच्छा पाया गया और नींद भी अच्छी आई।
जर्मनी के प्रसिद्ध डॉक्टर लुईकुनी ने कई रोगों के उपचार के लिए सूर्य-किरणों का उपयोग सफलतापूर्वक किया। सूर्य में रोगों को नष्ट करने तथा प्राणी मात्र को स्वास्थ्य एवं नवजीवन प्रदान करने की अपूर्व प्राकृतिक शक्ति है। प्राचीनकाल से ही वैदिक संध्या त्रिकाल करने की पद्धति सूर्य की इसी लाभकारी शक्ति का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए बनाई गयी थी। ऋषि मुनियों के आश्रम, गुरुकुल आदि ऐसे ही स्थान पर होते थे जहाँ सूर्य प्रकाश खुली वायु एवं निर्मल आकाश और पवित्र वातावरण रहता था।
विगत महायुद्ध के समय डॉ. सोरेल ने घायल सिपाहियों के उपचार के लिए सूर्य किरणों का उपयोग किया। पहले तो उन्होंने केवल घावों पर सूर्य रश्मियों का प्रयोग किया, बाद में पूरे शरीर पर प्रयोग करके देखा तो अपेक्षाकृत अधिक लाभ हुआ।
सूर्य के प्रकाश को दृश्य एवं अदृश्य दो प्रमुख भागों से मिलकर बना माना जाता है। अदृश्य भाग में पराबैगनी (अल्ट्रावायलेट) किरणें होती हैं तथा दूसरे प्रकार की ‘‘इन्फ्रारेड’’ किरणें भी होती हैं। इनका शरीर पर चमत्कारी प्रभाव पड़ता है। इन्फ्रारेड किरणें शरीर को गर्म करती हैं। तथा अल्ट्रावायलेट किरणें लाल रक्त कणों की वृद्धि करती हैं। उनमें हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ने से ही यह वृद्धि होती है।
सूर्य की रश्मियों में रोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता है। सूर्य चिकित्सा विज्ञानियों का कहना है कि सभी प्रकार के रोगों में सूर्य की किरणों से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। भूख न लगना, डिसेन्ट्री, खांसी, फोड़ा-फुंसी, कालन्दा पुराना, नेत्र-रोग, मानसिक असन्तुलन आदि सबमें सूर्य की किरणों की लाभदायक शक्ति का उपयोग हो सकता है। कैल्शियम की कमी, एवं विटामिन ‘‘डी’’ की अल्पता में तो सूर्य रश्मियों का उपभोग लाभप्रद है ही।
डॉ. स्किली का कहना है कि रोगों से छुटकारा पाने, स्वस्थ होने के लिए रवि-रश्मियों का विधिवत् उपयोग किया जाय। प्रातः धूप में बैठकर सरसों के तेल की मालिश शारीरिक कान्ति वृद्धि के लिए अतीव उपयोगी है। फेफड़ों के टी.बी. रोग एवं अन्यान्य बुखार संबंधी रोगों में धूप सीधे शरीर पर न पड़ने पाये बल्कि कपड़े या कांच से छनकर उपयोग किया जाय। इसके अतिरिक्त सूर्य-किरणों के प्रयोग के समय निम्नलिखित सावधानियां अपनाई जायें—
शीत प्रधान देशों में जब धुन्ध और बदली नहीं रहती और स्वच्छ प्रकाश धरती पर आता है तो लोग सूर्य सेवन के लिए आतुर हो उठते हैं। शरीर को निर्वस्त्र करके उस पर खुली किरणें देर तक पड़ने देते हैं। मात्र जननेन्द्रिय और शिर को हरे पत्तों से ढके रहते हैं। उन देशों में सूर्य सेवन को अलभ्य अवसर मानकर उसका लाभ आतुरतापूर्वक उठाने के लिए अनेक विधि विधान बनाये गये हैं, पर भारत जैसे देशों में तो वह सहज सुलभ है इसलिए यहां तेज धूप से बचने एवं प्रातःकाल की स्वर्णिम रश्मियों को अधिक हितकारक मानने का जो प्रचलन है उसी को पर्याप्त माना जा सकता है।
दोपहर की कड़ी धूप से बचना एक बात है और उससे बचने में शान समझना दूसरी। अमीरी के चोचलों में एक यह भी है कि गर्मी से बचा जाय और ठंडक में रहा जाय। ऐसे लोगों के शरीर में विषाणु पलने लगते हैं और ऋतु प्रभाव से लेकर अन्यान्य प्रतिकूलताओं का सामना करने की सामर्थ्य घट जाती है। उन्हें उन पोषणों से भी वंचित रहना पड़ता है जो अन्तरिक्ष में बिना मूल्य बरसते हैं। और कीमती टॉनिकों से भी अधिक गुणकारी होते हैं। इनसे बचने का अर्थ है प्रकृति प्रदत्त उन बहुमूल्य अनुदानों को अस्वीकृत करना जो शरीर और मन को सुदृढ़ बनाये रहने के लिए आवश्यक हैं, सूर्य सान्निध्य में जीवनयापन करना शक्ति संवर्धन और रोग निवारण दोनों ही दृष्टियों से एक दैवी वरदान है।
***
इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि सूर्य के बिना पृथ्वी पर जीवन की सम्भावना नहीं है। सूर्य किरणें सभी प्राणियों के साथ मानव जीवन को प्रत्यक्षतः प्रभावित करती हैं, पृथ्वी के सभी पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं एवं मनुष्यों का जीवन सूर्य पर ही अवलम्बित है। सभी खाद्यान्नों की उत्पत्ति सौर ऊर्जा ही होती है। पौधा अपने हरे रंग से सूर्य की शक्ति को शोषित करता है। जड़ों द्वारा जल, हवा से कार्बन डाईऑक्साइड, सूर्य शक्ति के माध्यम से पौधे अपने हरे रंग (क्लोरोफिल) से एक संयुक्त पदार्थ बना लेते हैं, जिन्हें कार्बोहाइड्रेट कहते हैं। पौधों को पोषण इन्हीं से मिलता है। इन कार्बोहाइड्रेट में वसा, स्टार्च एवं शक्कर होते हैं। वनस्पति शास्त्र में इसी क्रिया को (पौधों में भोजन निर्माण की प्रक्रिया ) (फोटोसिन्थेसिस) प्रकाश संश्लेषण के नाम से जाना जाता है।
पेड़-पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया से उनका भोजन बनता है। मनुष्य का आहार वनस्पति है, दूध गाय-भैंस से प्राप्त होता है लेकिन वे भी उसे वनस्पतियां खाकर ही बना सकते हैं अर्थात् प्रकारान्तर से भी खाद्य-पदार्थ सूर्य किरणों से ही उपलब्ध माने जा सकते हैं।
सूर्य-रश्मियों के अदृश्य भाग में इन्फ्रारेड और अल्ट्रावायलेट किरणें और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। पृथ्वी को गर्म रखने, जैव रासायनिक क्रियाओं को तीव्र करने का कार्य इन्फ्रारेड किरणों से होता है। अल्ट्रावायलेट किरणों से हमारे शरीर में विटामिन ‘डी’ का निर्माण होता है। मात्र इसी विटामिन का मानव शरीर में निर्माण होता है। यह कैल्शियम, फास्फोरस आदि के खनिज लवणों को उपयोगी बनाने का कार्य करता है। इन्फ्रारेड और अल्ट्रावायलेट किरणों को कृत्रिम रूप से पैदा करके रोगों के उपचार में प्रयोग होने लगा है। सूर्य-किरणों का प्रत्यक्ष रूप से उपयोग अन्य कृत्रिम उपायों से प्राप्त लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छा रहता है।
फ्रांस के एक वैज्ञानिक डॉ. हापकिन्स का कहना है कि ‘‘मानव-शरीर एक ऐसा पुष्प है जिसे सूर्य के प्रकाश की सबसे अधिक आवश्यकता है।’’ वहां कुछ व्यक्तियों पर प्रयोग करके देखा गया, उनको हल्के सफेद वस्त्र पहनाकर सूर्य के प्रकाश में रखा गया। फिर उन्हीं को उतने ही समय के लिए बिना वस्त्रों के सूर्य किरणों के संपर्क में रखा गया। निष्कर्ष यह निकला वस्त्र सहित रहने की अपेक्षा बिना वस्त्रों के रहने पर वजन में वृद्धि अधिक पाई गयी। कार्य करने की क्षमता भी अधिक देखी गई तथा स्वास्थ्य भी अपेक्षाकृत अच्छा पाया गया और नींद भी अच्छी आई।
जर्मनी के प्रसिद्ध डॉक्टर लुईकुनी ने कई रोगों के उपचार के लिए सूर्य-किरणों का उपयोग सफलतापूर्वक किया। सूर्य में रोगों को नष्ट करने तथा प्राणी मात्र को स्वास्थ्य एवं नवजीवन प्रदान करने की अपूर्व प्राकृतिक शक्ति है। प्राचीनकाल से ही वैदिक संध्या त्रिकाल करने की पद्धति सूर्य की इसी लाभकारी शक्ति का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए बनाई गयी थी। ऋषि मुनियों के आश्रम, गुरुकुल आदि ऐसे ही स्थान पर होते थे जहाँ सूर्य प्रकाश खुली वायु एवं निर्मल आकाश और पवित्र वातावरण रहता था।
विगत महायुद्ध के समय डॉ. सोरेल ने घायल सिपाहियों के उपचार के लिए सूर्य किरणों का उपयोग किया। पहले तो उन्होंने केवल घावों पर सूर्य रश्मियों का प्रयोग किया, बाद में पूरे शरीर पर प्रयोग करके देखा तो अपेक्षाकृत अधिक लाभ हुआ।
सूर्य के प्रकाश को दृश्य एवं अदृश्य दो प्रमुख भागों से मिलकर बना माना जाता है। अदृश्य भाग में पराबैगनी (अल्ट्रावायलेट) किरणें होती हैं तथा दूसरे प्रकार की ‘‘इन्फ्रारेड’’ किरणें भी होती हैं। इनका शरीर पर चमत्कारी प्रभाव पड़ता है। इन्फ्रारेड किरणें शरीर को गर्म करती हैं। तथा अल्ट्रावायलेट किरणें लाल रक्त कणों की वृद्धि करती हैं। उनमें हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ने से ही यह वृद्धि होती है।
सूर्य की रश्मियों में रोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता है। सूर्य चिकित्सा विज्ञानियों का कहना है कि सभी प्रकार के रोगों में सूर्य की किरणों से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। भूख न लगना, डिसेन्ट्री, खांसी, फोड़ा-फुंसी, कालन्दा पुराना, नेत्र-रोग, मानसिक असन्तुलन आदि सबमें सूर्य की किरणों की लाभदायक शक्ति का उपयोग हो सकता है। कैल्शियम की कमी, एवं विटामिन ‘‘डी’’ की अल्पता में तो सूर्य रश्मियों का उपभोग लाभप्रद है ही।
डॉ. स्किली का कहना है कि रोगों से छुटकारा पाने, स्वस्थ होने के लिए रवि-रश्मियों का विधिवत् उपयोग किया जाय। प्रातः धूप में बैठकर सरसों के तेल की मालिश शारीरिक कान्ति वृद्धि के लिए अतीव उपयोगी है। फेफड़ों के टी.बी. रोग एवं अन्यान्य बुखार संबंधी रोगों में धूप सीधे शरीर पर न पड़ने पाये बल्कि कपड़े या कांच से छनकर उपयोग किया जाय। इसके अतिरिक्त सूर्य-किरणों के प्रयोग के समय निम्नलिखित सावधानियां अपनाई जायें—
शीत प्रधान देशों में जब धुन्ध और बदली नहीं रहती और स्वच्छ प्रकाश धरती पर आता है तो लोग सूर्य सेवन के लिए आतुर हो उठते हैं। शरीर को निर्वस्त्र करके उस पर खुली किरणें देर तक पड़ने देते हैं। मात्र जननेन्द्रिय और शिर को हरे पत्तों से ढके रहते हैं। उन देशों में सूर्य सेवन को अलभ्य अवसर मानकर उसका लाभ आतुरतापूर्वक उठाने के लिए अनेक विधि विधान बनाये गये हैं, पर भारत जैसे देशों में तो वह सहज सुलभ है इसलिए यहां तेज धूप से बचने एवं प्रातःकाल की स्वर्णिम रश्मियों को अधिक हितकारक मानने का जो प्रचलन है उसी को पर्याप्त माना जा सकता है।
दोपहर की कड़ी धूप से बचना एक बात है और उससे बचने में शान समझना दूसरी। अमीरी के चोचलों में एक यह भी है कि गर्मी से बचा जाय और ठंडक में रहा जाय। ऐसे लोगों के शरीर में विषाणु पलने लगते हैं और ऋतु प्रभाव से लेकर अन्यान्य प्रतिकूलताओं का सामना करने की सामर्थ्य घट जाती है। उन्हें उन पोषणों से भी वंचित रहना पड़ता है जो अन्तरिक्ष में बिना मूल्य बरसते हैं। और कीमती टॉनिकों से भी अधिक गुणकारी होते हैं। इनसे बचने का अर्थ है प्रकृति प्रदत्त उन बहुमूल्य अनुदानों को अस्वीकृत करना जो शरीर और मन को सुदृढ़ बनाये रहने के लिए आवश्यक हैं, सूर्य सान्निध्य में जीवनयापन करना शक्ति संवर्धन और रोग निवारण दोनों ही दृष्टियों से एक दैवी वरदान है।
***