Books - चिरयौवन का रहस्योद्घाटन
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Language: HINDI
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आसन-व्यायाम : स्वस्थ व पुष्ट शरीर के लिए अत्यन्त अनिवार्य
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योग मुख्यतया जीव चेतना को ब्रह्म चेतना के साथ जोड़ देने वाली भावनात्मक एवं विचारणात्मक पद्धति है। उसमें दार्शनिकता प्रधान है तथा हलचल कम। योगी अपनी हलचलों को समेटते और शरीर की शिथिलता मन की शान्ति एकाग्रता की स्थिति में ले जाने का प्रयत्न करते हैं। इससे अन्तर्जगत की थकान दूर ही होती है और ध्यान-धारणा के सहारे समाधि स्तर की विश्रान्ति प्राप्त करने के उपरान्त वह स्थिति बन जाती है जिसमें नव जीवन का नये सिरे से निर्धारण सम्भव है। ब्रह्म विद्या का तत्व-दर्शन मन और चिन्तन परक है उपनिषद् में योग का प्रतिपादन इसी रूप में हुआ है।
योग का भौतिक पक्ष वह है, जिसमें शारीरिक हलचलों पर ध्यान दिया गया है और उसके सहारे स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रयत्न किया गया है। इस प्रतिपादन का तर्क यह है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। इसलिए मन को सुसंस्कृत बनाने से पूर्व शरीर को स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है।
तर्कों का यह सिलसिला व्यर्थ है। शरीर प्रथम या मन इस वाद-विवाद में पड़े बिना भी यह माना जा सकता है कि स्वास्थ्य की अपनी उपयोगिता है और प्रधान या गौण ठहराने के झंझट में पड़े बिना भी महत्वपूर्ण समझा जाय। इसके लिए जो साधन उपयोगी हो सकते हैं उन्हें काम में लाया जाय।
योग साधन के शरीर पक्ष में आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा जैसी क्रियापरक विधियों का समावेश है। हठयोग के अन्तर्गत नैति, धोति, वस्ति न्यौली, वज्रौली कपालमति, आदि जिन शोधन कृत्यों का विधि-विधान है उन्हें भी इस स्तर का माना जा सकता है। व्रत, उपवास एवं तितिक्षा उपचार भी लगभग इसी श्रेणी के हैं। इनका उद्देश्य शरीर को निरोग समर्थ बनाना है। फिर भी जिन सिद्धान्तों, उपायों का इस प्रकार के क्रिया-कृत्य में उपयोग किया जाता है उनका परोक्ष रूप से चेतना को परिष्कृत करने में भी कुछ उपयोग रहता ही है। स्वास्थ्य सुधार का लाभ भी कम महत्व का नहीं है। इसके लिए जो उपचार काम में लाये जाते हैं उन्हें योगविद्या के भौतिक पक्ष की पूर्ति करने वाला माना और अपनाया जा सकता है।
विज्ञान क्षेत्र में शरीर को ही प्रधानता मिली है इसलिये योग के सम्बन्ध में उसका वही पक्ष आकर्षक लगा है जो स्वास्थ्य संवर्द्धन के लिए प्रयुक्त होता है। इसलिए विदेशों में आसन, प्राणायाम को ही योग माना गया है बहुत हुआ तो मानसिक एकाग्रता को भी इसमें सम्मिलित किया जाता है।
आसनों के सम्बन्ध में जो शोध देश और विदेश में चला है उसमें वे अंग संचालन की सामान्य व्यायाम प्रक्रिया न रहकर उससे अधिक बढ़े-चढ़े सिद्ध हो रहे हैं। स्पष्ट है कि जिसे प्रयोगशाला स्वीकार करती है उन्हें अन्य लोग भी अपनाने लगते हैं। लगता है जिन आसन अभ्यासों को उपहासास्पद ठहराया जाता था। अगले दिनों तथाकथित लोगों को भी उनकी उपयोगिता देखते हुए आकर्षित होना पड़ेगा।
रूस के व्यायाम चिकित्सा के प्रोफेसर एम. सारकी सौव सैराजिनी ने ‘‘मैन मस्ट बी हेल्दी’’ नामक पुस्तक लिखी है। वे वहां अपने विषय के मर्मज्ञ एवं विशेषज्ञ समझे जाते हैं। अपनी उक्त पुस्तक में उन्होंने स्वस्थ रहने के लिए यौगिक श्वसन का परामर्श दिया है।
सेण्ट्रल क्लीनिक हॉस्पिटल, मास्को के बाल-रोग विशेषज्ञ एवं सर्जन डॉ. अनातोली मैड वैस्टकाई रोगी बालकों को सरल एवं साधारण योगासनों का नुस्खा बताते हैं और इस कार्य में वह विशेष सफलता प्राप्त करते हैं।
रूस के ही कॉन्सटेनिटन बुटिंको नामक हृदय रोग विशेषज्ञ चिकित्सक ने सैकड़ों विभिन्न प्रकार के बीमारों को योगिक क्रियाओं द्वारा ठीक करने में आशातीत सफलता प्राप्त की उन्होंने दमा से पीड़ित व्यक्तियों को औषधियां देने के बजाय यौगिक श्वसन की क्रिया का अभ्यास कराया। परिणाम स्वरूप उनके शरीर में प्रवेश करने वाली ऑक्सीजन व कार्बनडाइऑक्साइड के बीच रहने वाला सन्तुलन दूर हो गया और दमा के रोगियों को बहुत लाभ हुआ। दमा के अतिरिक्त वह यौगिक क्रियाओं के द्वारा मिर्गी उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोग जैसी भयानक बीमारियों का सफल उपचार करते हैं।
वर्तमान समय में विश्व में करोड़ों की संख्या में मधुमेह के रोगी हैं। ‘मेडीकल साइन्स’ के द्वारा अभी तक इसका कोई सुनिश्चित उपचार ज्ञात नहीं हो सका है। 400 ई.पू. सुश्रुत ने इन बीमारियों के रोगियों के मूत्र में मिठास की उपस्थिति बताई थी। ईसा की 17वीं शताब्दी में वैस्ट विली, शे मधुमेह से पीड़ित रोगी के मूत्र में शक्कर की उपस्थिति का परिक्षण करके दिखाया। मधुमेह के रोगी की समस्त अन्तःस्रावी ग्रंथियां प्रभावित होती हैं। प्रारम्भ में रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम एवं पैंक्रियाज से स्रवित इन्सुलिन की मात्रा कमी पाई जाती है।
सेण्ट्रल कॉन्सिल फॉर रिसर्व इन इण्डियन इन्डिजिनस मेडीसन एण्ड होम्योपैथी, द्वारा आयोजित प्रथम वैज्ञानिक सम्मेलन में डॉ. धर्मवीर, नारायण वनन्दानी और स्वामी आनन्द ने मधुमेह की चिकित्सा में ‘योग’ का योगदान सम्बन्धी कुछ प्रयोगों का निष्कर्ष प्रस्तुत किया।
‘‘यौगिक ट्रीटमेंट रिसर्च सेन्टर’’ नामक संस्था में विभिन्न आयु वर्ग के 283 मधुमेह के रोगियों पर तीन महीने के लिए प्रयोग किया गया। रोगियों को संतुलित भोजन के रूप में 98 ग्राम वसीय पदार्थ, 400 ग्राम कार्बोहाइड्रेट्स, 100 ग्राम प्रोटीन और कुल 2900 कैलोरी नियमित ढंग से प्रदान किए। समय-समय उनका भार, मूत्र परीक्षण, खून में शुगर ग्लूकोज की जांच तथा हृदय का ई.सी.जी. द्वारा परीक्षण किया गया।
रोगियों को प्रतिदिन प्रातः सायं दो बार सर्वांगासन, हलासन, मयूरासन, पादहस्तासन, उत्तानपादासन, शीर्षासन, आनुसिरासन, पवनमुक्तासन, शवासन आदि सरल आसन एवं कुछ अन्यान्य यौगिक क्रियायें कराई जाती रहीं। साथ ही उनकी दिनचर्या नियमित क्रम से रखी तथा प्रार्थना, भजन-पूजन, ध्यान-साधना आदि का भी समावेश रखा गया।
तीन महीने के परीक्षण के बाद देखा गया तो ज्ञात हुआ कि 52% रोगी लाभान्वित हुए उनमें से अधिकांश पूर्ण स्वस्थ हो गये। इस अवधि में भी जिन्हें बहुत अल्प लाभ पहुंचा या ठीक नहीं हुए वे या तो जन्म से रुग्ण थे अथवा लम्बी अवधि से बीमार रहे थे।
‘‘योगा लाइफ’’ के 1977 के अंक में डॉ. लक्ष्मीकान्तन् का ‘‘योग एण्ड दी हार्ट’’ नामक लेख छपा था। डॉ. लक्ष्मीकान्तन् ‘‘मेडीकल कॉलेज’’ मद्रास के प्रोफेसर हैं। उन्होंने गवर्नमेण्ट ऑफ जनरल हॉस्पिटल में विभिन्न हृदय रोगियों पर आसनों का प्रभाव देखने के लिए प्रयोग किए। उन्होंने ऐसे उच्च रक्तचाप वाले रोगियों के ऊपर प्रयोग किए जिन्हें ‘‘मैडीकल चिकित्सा’’ से कोई विशेष फायदा नहीं हुआ। प्रोफेसर लक्ष्मीकान्तन जी ने दो प्रकार के योगासनों का अभ्यास रखा (1) जिनके रक्तचाप अधिक उच्च थे और हृदय कमजोर थे उनको केवल (शवासन में ही पैरों के नीचे नरम तकिया लगाना) का अभ्यास कराया इनको करने से रोगियों को काफी आराम मिला।
(2) जिनके हृदय मजबूत थे उनके उपरोक्त अभ्यास के साथ हलासन, सर्वांगासन और विपरीत करणी मुद्रा का भी अभ्यास कराया।
आसनों के अभ्यास के उपरान्त रोगियों को अधिक स्फूर्ति एवं शक्ति का अनुभव हुआ और उन्हें पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी गहरी नींद आने लगी।
इसी प्रकार के परिणाम डॉ. के.के. दांते ने भी शवासन के प्रभाव से हृदय-रोग के रोगियों पर पाये हैं।
पटना के डॉ. श्री निवास एवं अमेरिका के डॉ. बेनसन ने प्रयोगों के आधार पर देखा कि हृदय रोगों पर ध्यान का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
आसन व्यायाम पूर्णतः वैज्ञानिक व्यायाम पद्धति है। इसमें मांसपेशियों में खिंचाव एवं फैलाव होने से रक्त प्रवाह की गति में कुछ तीव्रता आती है जबकि अन्य व्यायाम जैसे दंड-बैठक आदि से दबाव पड़ता है जिससे पेशियां कठोर हो जाती हैं। आसनों से पेशियों में लचीलापन आता है। शरीर में स्फूर्ति की अनुभूति होती है।
शीर्षासन को आसनों में सबसे उत्तम कहा जाता है। इस पर वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षण किये जा रहे हैं। सर्वप्रथम पोलैण्ड के ‘थर्ड क्लीनिक ऑफ मेडीसन’ के डायरेक्टर एलेक्जाण्ट्रो विच (जूलियन) ने शीर्षासन के द्वारा शरीर के अवयवों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से किया। उन्होंने शारीरिक एवं मानसिक रूप से संतुलित स्वास्थ्य वाले व्यक्ति पर शीर्षासन के प्रभाव को देखने के लिए एक्सरे एवं ई.सी.जी. आदि उपकरणों की सहायता ली।
प्रोफेसर जूलियन ने उस व्यक्ति को खाली पेट की स्थिति में 30-40 मिनट शीर्षासन कराके शवासन में विश्राम कराया। आसन के पूर्व एवं बाद में परीक्षणों से निम्न निष्कर्ष निकाले।
शीर्षासन से रक्त को जमाने वाले पदार्थ सीरम, जो रक्त में पाया जाता है, उसकी मात्रा में सन्तुलन आने लगता है। उन्होंने शीर्षासन के अभ्यास से हृदय रोग के दौरे रोके जा सकने की सम्भावना व्यक्त की है।
रक्त में श्वेत कणों की वृद्धि पायी गई जिससे शरीर की जीवनी शक्ति एवं रोग-निरोधक क्षमता में वृद्धि पायी गई।
शीर्षासन की स्थिति में ऐक्सरे द्वारा देखे जाने पर वक्षस्थल फैला हुआ पाया एवं हृदय पूरी तरह दबाव रहित देखा गया।
फेफड़ों को पर्याप्त खुला स्थान मिलता है। फेफड़ों में ऑक्सीजन की 33% की वृद्धि देखी गयी तथा श्वांस की दर एवं मात्रा में कमी पाई गयी श्वास की मात्रा तो प्रति मिनट 8 लीटर के स्थान पर 3 लीटर हो गयी परन्तु फेफड़ों की उसको ‘कन्ज्यूम’ करने की क्षमता बढ़ गयी। निष्कासित दूषित वायु में ऑक्सीजन की मात्रा में 10% कमी हो गयी।
भुजंगासन पर अनुसंधान जून 1978 चेकोस्लोविया में हुआ। ‘‘फर्स्ट कान्फ्रेंस ऑन दि एप्लिकेशन आफ योग इन रिहेविलटेशन थेरॉपी’’ में इस आसन पर विशेष प्रयोग किए गये। प्रयोग कर्त्ताओं ने पाया है इस आधार पर मानसिक तनाव को नियमित करने में सहायता मिलती है।
लोनावाला (महाराष्ट्र) में चलने वाले प्रयोगों में सर्वांगासन मयूरासन को सामान्य स्वास्थ्य सम्वर्द्धन और दुर्बलता ग्रसित रोगियों के लिए अन्य आसनों की तुलना में अधिक उपयोगी पाया गया।
देश-विदेश में आसन उपचार के सम्बन्ध में चल रहे अनुसंधान यह बताते हैं कि उन्हें सरल व्यायामों की तरह प्रयुक्त करते हुए कई ऐसे रहस्यमय लाभ उठाये जा सकते हैं जो ऐसी ही अंग संचालन की अन्य साधारण क्रिया-पद्धतियों के माध्यम से सम्भव नहीं हैं।
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योग का भौतिक पक्ष वह है, जिसमें शारीरिक हलचलों पर ध्यान दिया गया है और उसके सहारे स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रयत्न किया गया है। इस प्रतिपादन का तर्क यह है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। इसलिए मन को सुसंस्कृत बनाने से पूर्व शरीर को स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है।
तर्कों का यह सिलसिला व्यर्थ है। शरीर प्रथम या मन इस वाद-विवाद में पड़े बिना भी यह माना जा सकता है कि स्वास्थ्य की अपनी उपयोगिता है और प्रधान या गौण ठहराने के झंझट में पड़े बिना भी महत्वपूर्ण समझा जाय। इसके लिए जो साधन उपयोगी हो सकते हैं उन्हें काम में लाया जाय।
योग साधन के शरीर पक्ष में आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा जैसी क्रियापरक विधियों का समावेश है। हठयोग के अन्तर्गत नैति, धोति, वस्ति न्यौली, वज्रौली कपालमति, आदि जिन शोधन कृत्यों का विधि-विधान है उन्हें भी इस स्तर का माना जा सकता है। व्रत, उपवास एवं तितिक्षा उपचार भी लगभग इसी श्रेणी के हैं। इनका उद्देश्य शरीर को निरोग समर्थ बनाना है। फिर भी जिन सिद्धान्तों, उपायों का इस प्रकार के क्रिया-कृत्य में उपयोग किया जाता है उनका परोक्ष रूप से चेतना को परिष्कृत करने में भी कुछ उपयोग रहता ही है। स्वास्थ्य सुधार का लाभ भी कम महत्व का नहीं है। इसके लिए जो उपचार काम में लाये जाते हैं उन्हें योगविद्या के भौतिक पक्ष की पूर्ति करने वाला माना और अपनाया जा सकता है।
विज्ञान क्षेत्र में शरीर को ही प्रधानता मिली है इसलिये योग के सम्बन्ध में उसका वही पक्ष आकर्षक लगा है जो स्वास्थ्य संवर्द्धन के लिए प्रयुक्त होता है। इसलिए विदेशों में आसन, प्राणायाम को ही योग माना गया है बहुत हुआ तो मानसिक एकाग्रता को भी इसमें सम्मिलित किया जाता है।
आसनों के सम्बन्ध में जो शोध देश और विदेश में चला है उसमें वे अंग संचालन की सामान्य व्यायाम प्रक्रिया न रहकर उससे अधिक बढ़े-चढ़े सिद्ध हो रहे हैं। स्पष्ट है कि जिसे प्रयोगशाला स्वीकार करती है उन्हें अन्य लोग भी अपनाने लगते हैं। लगता है जिन आसन अभ्यासों को उपहासास्पद ठहराया जाता था। अगले दिनों तथाकथित लोगों को भी उनकी उपयोगिता देखते हुए आकर्षित होना पड़ेगा।
रूस के व्यायाम चिकित्सा के प्रोफेसर एम. सारकी सौव सैराजिनी ने ‘‘मैन मस्ट बी हेल्दी’’ नामक पुस्तक लिखी है। वे वहां अपने विषय के मर्मज्ञ एवं विशेषज्ञ समझे जाते हैं। अपनी उक्त पुस्तक में उन्होंने स्वस्थ रहने के लिए यौगिक श्वसन का परामर्श दिया है।
सेण्ट्रल क्लीनिक हॉस्पिटल, मास्को के बाल-रोग विशेषज्ञ एवं सर्जन डॉ. अनातोली मैड वैस्टकाई रोगी बालकों को सरल एवं साधारण योगासनों का नुस्खा बताते हैं और इस कार्य में वह विशेष सफलता प्राप्त करते हैं।
रूस के ही कॉन्सटेनिटन बुटिंको नामक हृदय रोग विशेषज्ञ चिकित्सक ने सैकड़ों विभिन्न प्रकार के बीमारों को योगिक क्रियाओं द्वारा ठीक करने में आशातीत सफलता प्राप्त की उन्होंने दमा से पीड़ित व्यक्तियों को औषधियां देने के बजाय यौगिक श्वसन की क्रिया का अभ्यास कराया। परिणाम स्वरूप उनके शरीर में प्रवेश करने वाली ऑक्सीजन व कार्बनडाइऑक्साइड के बीच रहने वाला सन्तुलन दूर हो गया और दमा के रोगियों को बहुत लाभ हुआ। दमा के अतिरिक्त वह यौगिक क्रियाओं के द्वारा मिर्गी उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोग जैसी भयानक बीमारियों का सफल उपचार करते हैं।
वर्तमान समय में विश्व में करोड़ों की संख्या में मधुमेह के रोगी हैं। ‘मेडीकल साइन्स’ के द्वारा अभी तक इसका कोई सुनिश्चित उपचार ज्ञात नहीं हो सका है। 400 ई.पू. सुश्रुत ने इन बीमारियों के रोगियों के मूत्र में मिठास की उपस्थिति बताई थी। ईसा की 17वीं शताब्दी में वैस्ट विली, शे मधुमेह से पीड़ित रोगी के मूत्र में शक्कर की उपस्थिति का परिक्षण करके दिखाया। मधुमेह के रोगी की समस्त अन्तःस्रावी ग्रंथियां प्रभावित होती हैं। प्रारम्भ में रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम एवं पैंक्रियाज से स्रवित इन्सुलिन की मात्रा कमी पाई जाती है।
सेण्ट्रल कॉन्सिल फॉर रिसर्व इन इण्डियन इन्डिजिनस मेडीसन एण्ड होम्योपैथी, द्वारा आयोजित प्रथम वैज्ञानिक सम्मेलन में डॉ. धर्मवीर, नारायण वनन्दानी और स्वामी आनन्द ने मधुमेह की चिकित्सा में ‘योग’ का योगदान सम्बन्धी कुछ प्रयोगों का निष्कर्ष प्रस्तुत किया।
‘‘यौगिक ट्रीटमेंट रिसर्च सेन्टर’’ नामक संस्था में विभिन्न आयु वर्ग के 283 मधुमेह के रोगियों पर तीन महीने के लिए प्रयोग किया गया। रोगियों को संतुलित भोजन के रूप में 98 ग्राम वसीय पदार्थ, 400 ग्राम कार्बोहाइड्रेट्स, 100 ग्राम प्रोटीन और कुल 2900 कैलोरी नियमित ढंग से प्रदान किए। समय-समय उनका भार, मूत्र परीक्षण, खून में शुगर ग्लूकोज की जांच तथा हृदय का ई.सी.जी. द्वारा परीक्षण किया गया।
रोगियों को प्रतिदिन प्रातः सायं दो बार सर्वांगासन, हलासन, मयूरासन, पादहस्तासन, उत्तानपादासन, शीर्षासन, आनुसिरासन, पवनमुक्तासन, शवासन आदि सरल आसन एवं कुछ अन्यान्य यौगिक क्रियायें कराई जाती रहीं। साथ ही उनकी दिनचर्या नियमित क्रम से रखी तथा प्रार्थना, भजन-पूजन, ध्यान-साधना आदि का भी समावेश रखा गया।
तीन महीने के परीक्षण के बाद देखा गया तो ज्ञात हुआ कि 52% रोगी लाभान्वित हुए उनमें से अधिकांश पूर्ण स्वस्थ हो गये। इस अवधि में भी जिन्हें बहुत अल्प लाभ पहुंचा या ठीक नहीं हुए वे या तो जन्म से रुग्ण थे अथवा लम्बी अवधि से बीमार रहे थे।
‘‘योगा लाइफ’’ के 1977 के अंक में डॉ. लक्ष्मीकान्तन् का ‘‘योग एण्ड दी हार्ट’’ नामक लेख छपा था। डॉ. लक्ष्मीकान्तन् ‘‘मेडीकल कॉलेज’’ मद्रास के प्रोफेसर हैं। उन्होंने गवर्नमेण्ट ऑफ जनरल हॉस्पिटल में विभिन्न हृदय रोगियों पर आसनों का प्रभाव देखने के लिए प्रयोग किए। उन्होंने ऐसे उच्च रक्तचाप वाले रोगियों के ऊपर प्रयोग किए जिन्हें ‘‘मैडीकल चिकित्सा’’ से कोई विशेष फायदा नहीं हुआ। प्रोफेसर लक्ष्मीकान्तन जी ने दो प्रकार के योगासनों का अभ्यास रखा (1) जिनके रक्तचाप अधिक उच्च थे और हृदय कमजोर थे उनको केवल (शवासन में ही पैरों के नीचे नरम तकिया लगाना) का अभ्यास कराया इनको करने से रोगियों को काफी आराम मिला।
(2) जिनके हृदय मजबूत थे उनके उपरोक्त अभ्यास के साथ हलासन, सर्वांगासन और विपरीत करणी मुद्रा का भी अभ्यास कराया।
आसनों के अभ्यास के उपरान्त रोगियों को अधिक स्फूर्ति एवं शक्ति का अनुभव हुआ और उन्हें पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी गहरी नींद आने लगी।
इसी प्रकार के परिणाम डॉ. के.के. दांते ने भी शवासन के प्रभाव से हृदय-रोग के रोगियों पर पाये हैं।
पटना के डॉ. श्री निवास एवं अमेरिका के डॉ. बेनसन ने प्रयोगों के आधार पर देखा कि हृदय रोगों पर ध्यान का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
आसन व्यायाम पूर्णतः वैज्ञानिक व्यायाम पद्धति है। इसमें मांसपेशियों में खिंचाव एवं फैलाव होने से रक्त प्रवाह की गति में कुछ तीव्रता आती है जबकि अन्य व्यायाम जैसे दंड-बैठक आदि से दबाव पड़ता है जिससे पेशियां कठोर हो जाती हैं। आसनों से पेशियों में लचीलापन आता है। शरीर में स्फूर्ति की अनुभूति होती है।
शीर्षासन को आसनों में सबसे उत्तम कहा जाता है। इस पर वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षण किये जा रहे हैं। सर्वप्रथम पोलैण्ड के ‘थर्ड क्लीनिक ऑफ मेडीसन’ के डायरेक्टर एलेक्जाण्ट्रो विच (जूलियन) ने शीर्षासन के द्वारा शरीर के अवयवों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से किया। उन्होंने शारीरिक एवं मानसिक रूप से संतुलित स्वास्थ्य वाले व्यक्ति पर शीर्षासन के प्रभाव को देखने के लिए एक्सरे एवं ई.सी.जी. आदि उपकरणों की सहायता ली।
प्रोफेसर जूलियन ने उस व्यक्ति को खाली पेट की स्थिति में 30-40 मिनट शीर्षासन कराके शवासन में विश्राम कराया। आसन के पूर्व एवं बाद में परीक्षणों से निम्न निष्कर्ष निकाले।
शीर्षासन से रक्त को जमाने वाले पदार्थ सीरम, जो रक्त में पाया जाता है, उसकी मात्रा में सन्तुलन आने लगता है। उन्होंने शीर्षासन के अभ्यास से हृदय रोग के दौरे रोके जा सकने की सम्भावना व्यक्त की है।
रक्त में श्वेत कणों की वृद्धि पायी गई जिससे शरीर की जीवनी शक्ति एवं रोग-निरोधक क्षमता में वृद्धि पायी गई।
शीर्षासन की स्थिति में ऐक्सरे द्वारा देखे जाने पर वक्षस्थल फैला हुआ पाया एवं हृदय पूरी तरह दबाव रहित देखा गया।
फेफड़ों को पर्याप्त खुला स्थान मिलता है। फेफड़ों में ऑक्सीजन की 33% की वृद्धि देखी गयी तथा श्वांस की दर एवं मात्रा में कमी पाई गयी श्वास की मात्रा तो प्रति मिनट 8 लीटर के स्थान पर 3 लीटर हो गयी परन्तु फेफड़ों की उसको ‘कन्ज्यूम’ करने की क्षमता बढ़ गयी। निष्कासित दूषित वायु में ऑक्सीजन की मात्रा में 10% कमी हो गयी।
भुजंगासन पर अनुसंधान जून 1978 चेकोस्लोविया में हुआ। ‘‘फर्स्ट कान्फ्रेंस ऑन दि एप्लिकेशन आफ योग इन रिहेविलटेशन थेरॉपी’’ में इस आसन पर विशेष प्रयोग किए गये। प्रयोग कर्त्ताओं ने पाया है इस आधार पर मानसिक तनाव को नियमित करने में सहायता मिलती है।
लोनावाला (महाराष्ट्र) में चलने वाले प्रयोगों में सर्वांगासन मयूरासन को सामान्य स्वास्थ्य सम्वर्द्धन और दुर्बलता ग्रसित रोगियों के लिए अन्य आसनों की तुलना में अधिक उपयोगी पाया गया।
देश-विदेश में आसन उपचार के सम्बन्ध में चल रहे अनुसंधान यह बताते हैं कि उन्हें सरल व्यायामों की तरह प्रयुक्त करते हुए कई ऐसे रहस्यमय लाभ उठाये जा सकते हैं जो ऐसी ही अंग संचालन की अन्य साधारण क्रिया-पद्धतियों के माध्यम से सम्भव नहीं हैं।
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