Books - चिरयौवन का रहस्योद्घाटन
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Language: HINDI
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ये भ्रान्ति पूर्ण मान्यताएं मिटेंगी तो ही शरीर स्वस्थ होगा
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भ्रान्तियां हर दृष्टि से हानिकारक सिद्ध होती हैं, चाहे वे किसी भी क्षेत्र की क्यों न हों? मान्यताओं एवं विश्वासों के रूप में कितनी ही बातें ऐसी हैं जो मनुष्य के चिन्तन एवं स्वभाव का अंग बनी हुई हैं। तथ्यों के आधार पर समीक्षा करने पर जिनकी न तो उपयोगिता जान पड़ती है और न ही महत्ता। पर लम्बे समय से मन-मस्तिष्क में उपयोगी होने जैसी मान्यता के रूप में बने रहने के कारण वे स्वभाव का अनिवार्य अंग-सा बन गयी हैं, जिन्हें न निकालते बनता है और न ही छोड़ते।
भ्रान्तियों में एक है—खानपान सम्बन्धी, जिसका मनुष्य के स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है। सदियों से यह मान्यता चली आ रही है कि मनुष्य शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए नमक आवश्यक है। पोषक आहारों के समान ही इसे भी भोजन का अनिवार्य एवं उपयोगी तत्व माना गया। जबकि तथ्य इसके विपरीत है। नवीन वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हुआ है कि ‘नमक’ शरीर के लिए अनुपयोगी ही नहीं हानिकारक भी है। इसे साधारण धीमे विष की संज्ञा दी गई है तथा स्वास्थ्य सम्वर्धन में एक अवरोधक तत्व माना गया है।
पिछले दिनों मोनेक्को के मांटेकार्लो नामक स्थान में चिकित्सा विशेषज्ञों की एक गोष्ठी हुई। विषय था मनुष्य के गिरते हुए स्वास्थ्य का। स्थायी उपचार ढूंढ़ना तथा उन कारणों का पता लगाना जो आरोग्य के लिए घातक हैं। गोष्ठी के उपरान्त विशेषज्ञों ने जो निष्कर्ष निकाले वे महत्वपूर्ण हैं। सबने एक स्वर से स्वीकार किया कि कृत्रिम नमक हर दृष्टि से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। खाद्य-पदार्थों में प्राकृतिक रूप से मौजूद नमक ही मनुष्य शरीर के लिए अनुकूल है। शरीर को जितने नमक की आवश्यकता है उतने की व्यवस्था प्रकृति ने खाद्य-पदार्थों, साग-सब्जियों एवं फलों के रूप में प्रचुर मात्रा में कर दी है। जिह्वा के स्वाद की आपूर्ति के अतिरिक्त ऐसा कोई औचित्य नजर नहीं आता जिसके लिए अलग से कृत्रिम नमक ग्रहण किया जाय। गोष्ठी की प्रकाशित रिपोर्ट में यह कहा गया कि नमक का शरीर के रक्त चाप से गहरा सम्बन्ध है। निम्न और उच्च रक्त चाप जैसे रोगों को बढ़ावा देने में नमक की असाधारण भूमिका है। प्राकृतिक खाद्य स्रोतों में भी उन वस्तुओं को अधिक पौष्टिक शरीर के लिए लाभ कर माना गया जिनमें नमक की मात्रा सबसे कम हो। इस दृष्टि से मां के दूध को वैज्ञानिकों ने सर्वोच्च ठहराया। शाक-सब्जियों और मांस-मछलियों में किसमें नमक की मात्रा अधिक है, इस आधार पर मांस, मछली-अण्डे में नमक की मात्रा अधिक होने के कारण इन्हें शरीर के अनुपयुक्त एवं हानिकारक बताया गया है।
संक्रामक रोगों की तरह रक्त चाप की बीमारी भी बढ़ती जा रही है। विकसित और सम्पन्न राष्ट्रों में तो सर्वाधिक संख्या रक्तचाप से पीड़ित रोगियों की है। चिकित्सा विज्ञान की शोधों ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि कृत्रिम नमक रक्तचाप रोगों का एक प्रधान कारण है। सर्वविदित है कि उच्च रक्तचाप के चिकित्सक भोजन में रोगों को नमक का निषेध कर देते हैं। निदान में इससे विशेष योगदान मिलता है। प्रकारान्तर से यह इस बात का संकेत देता है कि यदि आरम्भ से ही कृत्रिम नमक को ग्रहण करने से बचा जाय तो भविष्य में रक्तचाप जैसे रोग की सम्भावना नहीं होगी।
पिछड़े, जंगली एवं आदिवासी क्षेत्रों के पर्यवेक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि उनमें कितनी ही जातियां ऐसी हैं जो आधुनिक सभ्यता से सर्वथा दूर हैं। उनके खानपान में नमक का बिल्कुल ही स्थान नहीं है। फलतः वे स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सबसे आगे हैं। पख्तूनों व अफगानी कबाइलियों के रहन-सहन अब आदिम युग जैसा है। वे प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त नमक का सेवन नहीं करते।
भोजन सम्बन्धी दूसरी भ्रांति है—खाद्य पदार्थों की पोष्टिकता के सम्बन्ध में। मान्यता यह है कि जिन खाद्यान्नों में प्रोटीन की—वसा की—मात्रा जितनी अधिक हो—उसका ही अधिकाधिक सेवन करने से शरीर की सुरक्षा एवं स्वास्थ्य सम्वर्धन का उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। नवीन तथ्य यह उभर कर सामने आया है कि खाद्यान्नों का स्वास्थ्य सम्वर्धन का गुण इस बात पर नहीं आधारित है कि उनमें कैलोरी की—प्रोटीन की कितनी मात्रा विद्यमान है वरन् इस पर अवलम्बित है कि वह कितना शीघ्र पच जाता है और वह जीव प्रकृति के कितना अनुकूल है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद दिल्ली में डॉ. आर.एन. चक्रवर्ती की देख-रेख में बन्दरों पर प्रयोग किया गया। विषय था—हृदय रोगों एवं रक्तचाप के कारणों का अध्ययन करना। प्रयोग की अवधि में बन्दरों को अधिक प्रोटीन एवं वसायुक्त भोजन दिया गया जो उनके पाचन संस्थान की प्रकृति के प्रतिकूल था। फलतः कुछ दिनों बाद बन्दरों की ‘महाधमनी’ तथा ‘कोरोनरी धमनी’ में वसा का जमाव होने लगा—तथा वे हृदय रोग से पीड़ित हो गये। जब पुनः उन्हें उनकी प्रकृति के अनुकूल कम कैलोरी युक्त भोजन दिया गया तो हृदय की धमनियों को ठीक होने में सहयोग मिला। डॉ. चक्रवर्ती के ही निर्देशन में चण्डीगढ़ में भी इसी प्रकार के प्रयोग हुए। 124 बन्दरों की परीक्षा की गई। अनुसंधान दल ने कुछ बन्दरों को एक वर्ष तक अधिक वसायुक्त भोजन पर रखा। फलस्वरूप उन्हें दिल के दौरे पड़ने लगे। कई में उक्त रक्तचाप का अवलोकन किया गया। कितने बन्दर ‘थ्रोम्बोसिस’ (रक्त का थक्का जम जाना) रोग से ग्रसित पाये गये।
मांसाहार में दलील यह दी जाती है कि उसमें प्रोटीन की—‘कैलोरी’ की मात्रा अधिक होती है। उपरोक्त प्रयोग इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्रोटीन अथवा अधिक कैलोरीयुक्त भोजन का स्वास्थ्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। शरीर की प्रकृति के अनुकूल, खाद्यान्न ही स्वास्थ्य सम्वर्धन में सहायक सिद्ध होते हैं। मनुष्य का पाचन संस्थान मांसाहार के सर्वथा प्रतिकूल है। मांसाहारी जीवों के दांतों एवं आंतों की बनावट भी अलग ढंग की होती है जिनकी मनुष्य शरीर एवं प्रकृति के साथ थोड़ी भी समता नहीं है। मांस मछली अण्डे में विद्यमान गरिष्ठ प्रोटीन, वसा की मात्रा को पचा सकने में मानवी पाचन संस्थान असमर्थ है। बढ़ते हुए हृदय रोगों का एक और कारण है—मनुष्य का अपने सहज स्वाभाविक सुपाच्य शाकाहार प्रवृत्ति से अलग हटकर मांसाहार का सेवन करना।
प्रकृति के सान्निध्य में रहने वाले नन्हे जीव-जन्तु उछलते-कूदते एवं मचलते रहते हैं। सदा स्वस्थ एवं निरोग बने रहते हैं। वे यदा-कदा ही बीमार पड़ते हैं। पड़ते भी हैं तो संयम आदि द्वारा स्वतः ही अपने को ठीक कर लेते हैं। उन्हें हृदय रोग शायद ही कभी होता हो। नमक जिसे मनुष्य आवश्यक मानता है, वे अलग से कभी नहीं लेते। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं में विद्यमान नमक ही उनके स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रखता है। एक मनुष्य ही है जो स्वाद के नाम पर तरह-तरह के बहाने बनाता है। कभी स्वास्थ्य रक्षा के आवश्यक तत्व मानकर नमक का सेवन करता है तो कभी प्रोटीन एवं अधिक कैलोरी के नाम पर अभक्ष मांस को ठूंसकर पेट को कब्र बनाता है। फलतः अनेकानेक बीमारियों से भी वही ग्रसित होता है। जबकि बुद्धि एवं साधनों की दृष्टि से असमर्थ मनुष्येत्तर जीव स्वस्थ बने रहते और हंसते-फुदकते हुए जीवन का वास्तविक आनन्द उठाते हैं।
खान-पान की इस भ्रान्ति को मन और मस्तिष्क से हटाया जाना आवश्यक है। शरीर के लिए नमक न तो आवश्यक है और न ही उपयोगी। स्वाद एवं अभ्यास का अंग बन जाने के कारण इसके बिना काम नहीं चलता अन्यथा पोषण की दृष्टि से उसमें ऐसी कोई विशेषता नहीं है जिनके बिना काम न चले। जितनी थोड़ी आवश्यकता है भी, वह प्राकृतिक स्रोतों में सन्तुलित रूप से घुला मिला है और शरीर रक्षा का उद्देश्य पूरा करता है। इसके लिए अलग से नमक लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। आहर में इस मान्यता को भी बदलना होगा कि अधिक प्रोटीन युक्त भोजन शरीर के लिए लाभकारी है। स्वास्थ्य पोष्टिक तत्वों पर नहीं इस बात पर अवलम्बित है कि भोजन में ग्रहण किए जाने वाले पदार्थ कितने शीघ्र एवं सुविधा से पच जाते हैं। इस दृष्टि से शाक-सब्जियों को हरे एवं ताजे फलों को सर्वोपरि ठहराया गया है। इन तथ्यों से प्रभावित होकर अब पाश्चात्य जगत में भी शाकाहार का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। वहां के नागरिक मांसाहार की हानियों को समझने लगे हैं। इंग्लैंड में तो एक ‘वेजीटेरियन सोसाइटी’ की स्थापना हुई है जो प्रचार द्वारा लोगों को प्रकृति प्रदत्त सुविधा से उपलब्ध होने वाले सुपाच्य खाद्यान्नों, शाकों एवं फलों की महत्ता बताती तथा मांसाहार की हानियों से अवगत कराती है। इस सत्प्रयास का आशातीत प्रभाव पड़ा है। हजारों व्यक्तियों ने मांसाहार छोड़ा व शाकाहार को अपनाया है। वहां इसे स्वास्थ्य क्रान्ति के रूप में मान्यता मिली है।
बर्नार्डशा मामूली जुकाम से ग्रस्त थे। औषधियों से परहेज रखने वाले उस मनीषी को जब बिस्तर पकड़ना पड़ा तो एक चिकित्सक के बड़े आग्रह के बाद दिखाने के लिये वे राजी हो गये। शा दुमंजिले पर रहते थे। डॉक्टर थे मोटे ऊपर पहुंचते-पहुंचते उनकी सांस फूल गयी। शा ने उन्हें बिठाकर कहा—डॉक्टर! तुम मांस मत खाया करो। देखो, छोटा सा जीना चढ़ने में सांस फूल गयी।’’ डॉक्टर ने पलट कर जवाब दिया—‘‘आप तो शाकाहारी हैं, फिर बीमार क्यों हो गये।’’ शा बोले—मैं और बीमार? इतना कहकर वे उठे व उन्होंने रेडियो खोल दिया। वाद्य यन्त्र से मधुर स्वर लहरियां गूंजने लगीं। वे तन्मय होकर नाचने लगे। बीमारी भूलकर वे ऐसे मग्न हुए कि पसीना-पसीना हो गए पर रुके नहीं। गीत समाप्त हुआ और शा का नृत्य भी। शा बोले—डॉक्टर! मान गये न कि शाकाहार की शक्ति अधिक है। अब लाओ मेरी फीस के 5 शिलिंग। और हां, अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूं, मुझे अब औषधि की आवश्यकता नहीं।’’ सचमुच वे तब तक निरोग भी हो चुके थे।
वस्तुतः शाकाहार का महत्व अवर्णनीय है पर मांसाहार के दुष्प्रचार ने कुछ ऐसी विकृत मान्यताएं बना दी हैं कि बहुसंख्य जनता पुष्टाई के नाम पर अब मांस भक्षण का समर्थन करने लगी है। वैज्ञानिक दृष्टि से प्रोटीन को भोजन का उपयोगी अंश माना जाता है। इन दिनों उसकी पूर्ति के लिये मांस का प्रयोग चल पड़ा है। परन्तु परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि दालों में मांस की अपेक्षा अधिक मात्रा में प्रोटीन होता है और अपेक्षाकृत सुपाच्य भी अधिक है। प्रोटीन की उपस्थिति विभिन्न पदार्थों में कम अधिक पायी जाती है। अण्डे में तेरह प्रतिशत, मछली में बाईस प्रतिशत, मांस में अठारह प्रतिशत, मूंग की दाल में चौबीस प्रतिशत, मसूर की दाल में पच्चीस प्रतिशत, उर्द की दाल में चौबीस प्रतिशत, मूंगफली में इकतीस प्रतिशत तथा सोयाबीन में तैंतालिस प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है।
कहा जाता है कि मांस में विटामिन ‘ए’ की मात्रा अधिक होती है। परन्तु आर्थिक दृष्टि से जितनी कीमत एक किलोग्राम मांस के लिए देनी पड़ती है, उतने के दूध, छेना, दही या पनीर द्वारा उससे कई गुना अधिक विटामिन ‘ए’ मिल सकता है। मांस की अपेक्षा सोयाबीन में प्रोटीन, कैल्शियम, फास्फोरस आयरन, वसा और विटामिन्स आदि अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। सोयाबीन मांस की अपेक्षा सस्ता भी होता है। वनस्पति प्रोटीन का 95 प्रतिशत भाग पच जाता है परन्तु मांस का 50 प्रतिशत प्रोटीन भी पचना मुश्किल है। विश्व में सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन ने पौष्टिक आहार या आदर्श खाद्य के रूप में सोयाबीन को महत्व दिया है।
प्रमुख आहार विशेषज्ञ डॉ. एम.बी. गंडी कहते हैं कि ‘‘मांस की चिकनाई में भी ऐसे पदार्थ हैं जो कि शरीर में विभिन्न विकृतियों को उत्पन्न करते हैं।’’ डॉ. वाल्डेन के कथनानुसार सुअर के मांस में पाया जाने वाला टीनिया सोलियम नामक कृमि जो मांस पकाने पर भी आमतौर पर नहीं मर पाता शरीर में स्नायविक रोगों का जनक होता है। अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहार संघ के उपाध्यक्ष डा बुल लैंड ने योजना बनायी है कि हाथी, गैंडा, सुअर इत्यादि बड़े-बड़े जानवरों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाय और सब लोगों को यह बतलाया जाय कि इन जानवरों का इतना बड़ा शरीर, ताकत शाकाहार के कारण है। संसार का सबसे बड़ा प्राणी व्हेल भी पूर्ण शाकाहारी है।
अण्डों में पाया जाने वाला सफेद भाग आंतों में सड़न पैदा करता है, आमाशय के रस स्राव को प्रभावित करता है जिससे पैप्सिन के विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है। ब्रिटिश वैज्ञानिक यूप्लेहर्ट ने बताया है कि अण्डे में थोड़ी मात्रा में डी.डी.टी. से मिलता जुलता एक रसायन भी पाया जाता है जो मानव शरीर के लिए बहुत हानिकारक होता है।
स्वास्थ्य एवं आरोग्य का वरदान जिन्हें प्राप्त करना हो उन्हें सर्वप्रथम आहार की भ्रांतियों से छुटकारा पाना होगा।
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भ्रान्तियों में एक है—खानपान सम्बन्धी, जिसका मनुष्य के स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है। सदियों से यह मान्यता चली आ रही है कि मनुष्य शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए नमक आवश्यक है। पोषक आहारों के समान ही इसे भी भोजन का अनिवार्य एवं उपयोगी तत्व माना गया। जबकि तथ्य इसके विपरीत है। नवीन वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हुआ है कि ‘नमक’ शरीर के लिए अनुपयोगी ही नहीं हानिकारक भी है। इसे साधारण धीमे विष की संज्ञा दी गई है तथा स्वास्थ्य सम्वर्धन में एक अवरोधक तत्व माना गया है।
पिछले दिनों मोनेक्को के मांटेकार्लो नामक स्थान में चिकित्सा विशेषज्ञों की एक गोष्ठी हुई। विषय था मनुष्य के गिरते हुए स्वास्थ्य का। स्थायी उपचार ढूंढ़ना तथा उन कारणों का पता लगाना जो आरोग्य के लिए घातक हैं। गोष्ठी के उपरान्त विशेषज्ञों ने जो निष्कर्ष निकाले वे महत्वपूर्ण हैं। सबने एक स्वर से स्वीकार किया कि कृत्रिम नमक हर दृष्टि से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। खाद्य-पदार्थों में प्राकृतिक रूप से मौजूद नमक ही मनुष्य शरीर के लिए अनुकूल है। शरीर को जितने नमक की आवश्यकता है उतने की व्यवस्था प्रकृति ने खाद्य-पदार्थों, साग-सब्जियों एवं फलों के रूप में प्रचुर मात्रा में कर दी है। जिह्वा के स्वाद की आपूर्ति के अतिरिक्त ऐसा कोई औचित्य नजर नहीं आता जिसके लिए अलग से कृत्रिम नमक ग्रहण किया जाय। गोष्ठी की प्रकाशित रिपोर्ट में यह कहा गया कि नमक का शरीर के रक्त चाप से गहरा सम्बन्ध है। निम्न और उच्च रक्त चाप जैसे रोगों को बढ़ावा देने में नमक की असाधारण भूमिका है। प्राकृतिक खाद्य स्रोतों में भी उन वस्तुओं को अधिक पौष्टिक शरीर के लिए लाभ कर माना गया जिनमें नमक की मात्रा सबसे कम हो। इस दृष्टि से मां के दूध को वैज्ञानिकों ने सर्वोच्च ठहराया। शाक-सब्जियों और मांस-मछलियों में किसमें नमक की मात्रा अधिक है, इस आधार पर मांस, मछली-अण्डे में नमक की मात्रा अधिक होने के कारण इन्हें शरीर के अनुपयुक्त एवं हानिकारक बताया गया है।
संक्रामक रोगों की तरह रक्त चाप की बीमारी भी बढ़ती जा रही है। विकसित और सम्पन्न राष्ट्रों में तो सर्वाधिक संख्या रक्तचाप से पीड़ित रोगियों की है। चिकित्सा विज्ञान की शोधों ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि कृत्रिम नमक रक्तचाप रोगों का एक प्रधान कारण है। सर्वविदित है कि उच्च रक्तचाप के चिकित्सक भोजन में रोगों को नमक का निषेध कर देते हैं। निदान में इससे विशेष योगदान मिलता है। प्रकारान्तर से यह इस बात का संकेत देता है कि यदि आरम्भ से ही कृत्रिम नमक को ग्रहण करने से बचा जाय तो भविष्य में रक्तचाप जैसे रोग की सम्भावना नहीं होगी।
पिछड़े, जंगली एवं आदिवासी क्षेत्रों के पर्यवेक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि उनमें कितनी ही जातियां ऐसी हैं जो आधुनिक सभ्यता से सर्वथा दूर हैं। उनके खानपान में नमक का बिल्कुल ही स्थान नहीं है। फलतः वे स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सबसे आगे हैं। पख्तूनों व अफगानी कबाइलियों के रहन-सहन अब आदिम युग जैसा है। वे प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त नमक का सेवन नहीं करते।
भोजन सम्बन्धी दूसरी भ्रांति है—खाद्य पदार्थों की पोष्टिकता के सम्बन्ध में। मान्यता यह है कि जिन खाद्यान्नों में प्रोटीन की—वसा की—मात्रा जितनी अधिक हो—उसका ही अधिकाधिक सेवन करने से शरीर की सुरक्षा एवं स्वास्थ्य सम्वर्धन का उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। नवीन तथ्य यह उभर कर सामने आया है कि खाद्यान्नों का स्वास्थ्य सम्वर्धन का गुण इस बात पर नहीं आधारित है कि उनमें कैलोरी की—प्रोटीन की कितनी मात्रा विद्यमान है वरन् इस पर अवलम्बित है कि वह कितना शीघ्र पच जाता है और वह जीव प्रकृति के कितना अनुकूल है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद दिल्ली में डॉ. आर.एन. चक्रवर्ती की देख-रेख में बन्दरों पर प्रयोग किया गया। विषय था—हृदय रोगों एवं रक्तचाप के कारणों का अध्ययन करना। प्रयोग की अवधि में बन्दरों को अधिक प्रोटीन एवं वसायुक्त भोजन दिया गया जो उनके पाचन संस्थान की प्रकृति के प्रतिकूल था। फलतः कुछ दिनों बाद बन्दरों की ‘महाधमनी’ तथा ‘कोरोनरी धमनी’ में वसा का जमाव होने लगा—तथा वे हृदय रोग से पीड़ित हो गये। जब पुनः उन्हें उनकी प्रकृति के अनुकूल कम कैलोरी युक्त भोजन दिया गया तो हृदय की धमनियों को ठीक होने में सहयोग मिला। डॉ. चक्रवर्ती के ही निर्देशन में चण्डीगढ़ में भी इसी प्रकार के प्रयोग हुए। 124 बन्दरों की परीक्षा की गई। अनुसंधान दल ने कुछ बन्दरों को एक वर्ष तक अधिक वसायुक्त भोजन पर रखा। फलस्वरूप उन्हें दिल के दौरे पड़ने लगे। कई में उक्त रक्तचाप का अवलोकन किया गया। कितने बन्दर ‘थ्रोम्बोसिस’ (रक्त का थक्का जम जाना) रोग से ग्रसित पाये गये।
मांसाहार में दलील यह दी जाती है कि उसमें प्रोटीन की—‘कैलोरी’ की मात्रा अधिक होती है। उपरोक्त प्रयोग इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्रोटीन अथवा अधिक कैलोरीयुक्त भोजन का स्वास्थ्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। शरीर की प्रकृति के अनुकूल, खाद्यान्न ही स्वास्थ्य सम्वर्धन में सहायक सिद्ध होते हैं। मनुष्य का पाचन संस्थान मांसाहार के सर्वथा प्रतिकूल है। मांसाहारी जीवों के दांतों एवं आंतों की बनावट भी अलग ढंग की होती है जिनकी मनुष्य शरीर एवं प्रकृति के साथ थोड़ी भी समता नहीं है। मांस मछली अण्डे में विद्यमान गरिष्ठ प्रोटीन, वसा की मात्रा को पचा सकने में मानवी पाचन संस्थान असमर्थ है। बढ़ते हुए हृदय रोगों का एक और कारण है—मनुष्य का अपने सहज स्वाभाविक सुपाच्य शाकाहार प्रवृत्ति से अलग हटकर मांसाहार का सेवन करना।
प्रकृति के सान्निध्य में रहने वाले नन्हे जीव-जन्तु उछलते-कूदते एवं मचलते रहते हैं। सदा स्वस्थ एवं निरोग बने रहते हैं। वे यदा-कदा ही बीमार पड़ते हैं। पड़ते भी हैं तो संयम आदि द्वारा स्वतः ही अपने को ठीक कर लेते हैं। उन्हें हृदय रोग शायद ही कभी होता हो। नमक जिसे मनुष्य आवश्यक मानता है, वे अलग से कभी नहीं लेते। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं में विद्यमान नमक ही उनके स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रखता है। एक मनुष्य ही है जो स्वाद के नाम पर तरह-तरह के बहाने बनाता है। कभी स्वास्थ्य रक्षा के आवश्यक तत्व मानकर नमक का सेवन करता है तो कभी प्रोटीन एवं अधिक कैलोरी के नाम पर अभक्ष मांस को ठूंसकर पेट को कब्र बनाता है। फलतः अनेकानेक बीमारियों से भी वही ग्रसित होता है। जबकि बुद्धि एवं साधनों की दृष्टि से असमर्थ मनुष्येत्तर जीव स्वस्थ बने रहते और हंसते-फुदकते हुए जीवन का वास्तविक आनन्द उठाते हैं।
खान-पान की इस भ्रान्ति को मन और मस्तिष्क से हटाया जाना आवश्यक है। शरीर के लिए नमक न तो आवश्यक है और न ही उपयोगी। स्वाद एवं अभ्यास का अंग बन जाने के कारण इसके बिना काम नहीं चलता अन्यथा पोषण की दृष्टि से उसमें ऐसी कोई विशेषता नहीं है जिनके बिना काम न चले। जितनी थोड़ी आवश्यकता है भी, वह प्राकृतिक स्रोतों में सन्तुलित रूप से घुला मिला है और शरीर रक्षा का उद्देश्य पूरा करता है। इसके लिए अलग से नमक लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। आहर में इस मान्यता को भी बदलना होगा कि अधिक प्रोटीन युक्त भोजन शरीर के लिए लाभकारी है। स्वास्थ्य पोष्टिक तत्वों पर नहीं इस बात पर अवलम्बित है कि भोजन में ग्रहण किए जाने वाले पदार्थ कितने शीघ्र एवं सुविधा से पच जाते हैं। इस दृष्टि से शाक-सब्जियों को हरे एवं ताजे फलों को सर्वोपरि ठहराया गया है। इन तथ्यों से प्रभावित होकर अब पाश्चात्य जगत में भी शाकाहार का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। वहां के नागरिक मांसाहार की हानियों को समझने लगे हैं। इंग्लैंड में तो एक ‘वेजीटेरियन सोसाइटी’ की स्थापना हुई है जो प्रचार द्वारा लोगों को प्रकृति प्रदत्त सुविधा से उपलब्ध होने वाले सुपाच्य खाद्यान्नों, शाकों एवं फलों की महत्ता बताती तथा मांसाहार की हानियों से अवगत कराती है। इस सत्प्रयास का आशातीत प्रभाव पड़ा है। हजारों व्यक्तियों ने मांसाहार छोड़ा व शाकाहार को अपनाया है। वहां इसे स्वास्थ्य क्रान्ति के रूप में मान्यता मिली है।
बर्नार्डशा मामूली जुकाम से ग्रस्त थे। औषधियों से परहेज रखने वाले उस मनीषी को जब बिस्तर पकड़ना पड़ा तो एक चिकित्सक के बड़े आग्रह के बाद दिखाने के लिये वे राजी हो गये। शा दुमंजिले पर रहते थे। डॉक्टर थे मोटे ऊपर पहुंचते-पहुंचते उनकी सांस फूल गयी। शा ने उन्हें बिठाकर कहा—डॉक्टर! तुम मांस मत खाया करो। देखो, छोटा सा जीना चढ़ने में सांस फूल गयी।’’ डॉक्टर ने पलट कर जवाब दिया—‘‘आप तो शाकाहारी हैं, फिर बीमार क्यों हो गये।’’ शा बोले—मैं और बीमार? इतना कहकर वे उठे व उन्होंने रेडियो खोल दिया। वाद्य यन्त्र से मधुर स्वर लहरियां गूंजने लगीं। वे तन्मय होकर नाचने लगे। बीमारी भूलकर वे ऐसे मग्न हुए कि पसीना-पसीना हो गए पर रुके नहीं। गीत समाप्त हुआ और शा का नृत्य भी। शा बोले—डॉक्टर! मान गये न कि शाकाहार की शक्ति अधिक है। अब लाओ मेरी फीस के 5 शिलिंग। और हां, अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूं, मुझे अब औषधि की आवश्यकता नहीं।’’ सचमुच वे तब तक निरोग भी हो चुके थे।
वस्तुतः शाकाहार का महत्व अवर्णनीय है पर मांसाहार के दुष्प्रचार ने कुछ ऐसी विकृत मान्यताएं बना दी हैं कि बहुसंख्य जनता पुष्टाई के नाम पर अब मांस भक्षण का समर्थन करने लगी है। वैज्ञानिक दृष्टि से प्रोटीन को भोजन का उपयोगी अंश माना जाता है। इन दिनों उसकी पूर्ति के लिये मांस का प्रयोग चल पड़ा है। परन्तु परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि दालों में मांस की अपेक्षा अधिक मात्रा में प्रोटीन होता है और अपेक्षाकृत सुपाच्य भी अधिक है। प्रोटीन की उपस्थिति विभिन्न पदार्थों में कम अधिक पायी जाती है। अण्डे में तेरह प्रतिशत, मछली में बाईस प्रतिशत, मांस में अठारह प्रतिशत, मूंग की दाल में चौबीस प्रतिशत, मसूर की दाल में पच्चीस प्रतिशत, उर्द की दाल में चौबीस प्रतिशत, मूंगफली में इकतीस प्रतिशत तथा सोयाबीन में तैंतालिस प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है।
कहा जाता है कि मांस में विटामिन ‘ए’ की मात्रा अधिक होती है। परन्तु आर्थिक दृष्टि से जितनी कीमत एक किलोग्राम मांस के लिए देनी पड़ती है, उतने के दूध, छेना, दही या पनीर द्वारा उससे कई गुना अधिक विटामिन ‘ए’ मिल सकता है। मांस की अपेक्षा सोयाबीन में प्रोटीन, कैल्शियम, फास्फोरस आयरन, वसा और विटामिन्स आदि अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। सोयाबीन मांस की अपेक्षा सस्ता भी होता है। वनस्पति प्रोटीन का 95 प्रतिशत भाग पच जाता है परन्तु मांस का 50 प्रतिशत प्रोटीन भी पचना मुश्किल है। विश्व में सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन ने पौष्टिक आहार या आदर्श खाद्य के रूप में सोयाबीन को महत्व दिया है।
प्रमुख आहार विशेषज्ञ डॉ. एम.बी. गंडी कहते हैं कि ‘‘मांस की चिकनाई में भी ऐसे पदार्थ हैं जो कि शरीर में विभिन्न विकृतियों को उत्पन्न करते हैं।’’ डॉ. वाल्डेन के कथनानुसार सुअर के मांस में पाया जाने वाला टीनिया सोलियम नामक कृमि जो मांस पकाने पर भी आमतौर पर नहीं मर पाता शरीर में स्नायविक रोगों का जनक होता है। अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहार संघ के उपाध्यक्ष डा बुल लैंड ने योजना बनायी है कि हाथी, गैंडा, सुअर इत्यादि बड़े-बड़े जानवरों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाय और सब लोगों को यह बतलाया जाय कि इन जानवरों का इतना बड़ा शरीर, ताकत शाकाहार के कारण है। संसार का सबसे बड़ा प्राणी व्हेल भी पूर्ण शाकाहारी है।
अण्डों में पाया जाने वाला सफेद भाग आंतों में सड़न पैदा करता है, आमाशय के रस स्राव को प्रभावित करता है जिससे पैप्सिन के विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है। ब्रिटिश वैज्ञानिक यूप्लेहर्ट ने बताया है कि अण्डे में थोड़ी मात्रा में डी.डी.टी. से मिलता जुलता एक रसायन भी पाया जाता है जो मानव शरीर के लिए बहुत हानिकारक होता है।
स्वास्थ्य एवं आरोग्य का वरदान जिन्हें प्राप्त करना हो उन्हें सर्वप्रथम आहार की भ्रांतियों से छुटकारा पाना होगा।
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