Books - चिरयौवन का रहस्योद्घाटन
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
दीर्घायुष्य का रहस्य प्राकृतिक जीवन क्रम
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
खरगोश की औसत आयु 7 वर्ष होती है। बिल्लियां और बकरियां 12 वर्ष तक जीवित रहती हैं। कबूतर 8 वर्ष और घोड़े 50 वर्ष तक जीवित रहते हैं। कछुए एवं सर्प की औसतन आयु 150 वर्ष और 120 वर्ष होती है। मनुष्य की आयु 100 आंकी गई है। मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवों के जीवनक्रम पर दृष्टि डालते हैं तो पता चलता है कि उनमें सदा यौवन का उत्साह बना रहता है। आयु की दृष्टि से उनकी सम्पूर्ण आयु में बचपन, यौवन एवं वृद्धावस्था की कोई स्पष्ट सीमा रेखा दृष्टिगोचर नहीं होती है। अपवादों एवं दुर्घटनाओं को छोड़ दिया जाय तो पर्यवेक्षण करने पर शायद ही कोई जीव ऐसा दिखाई पड़े जो रोग ग्रस्त पड़ा हो अथवा वृद्धावस्था के कारण शक्ति रहित बना असमर्थता के चंगुल में जकड़ा हो। अधिकांशतः पशु-पक्षी जीवन-पर्यन्त युवा बने रहते हैं। उनकी मृत्यु वृद्धावस्था की असमर्थता में नहीं, यौवन जैसे उत्साह एवं उमंगों के बीच होती है। उछलते, कूदते, मचलते इठलाते जीवों को कभी भी मृत्यु का वृद्धावस्था का आभास नहीं होता। पैदा होते हैं चिरयौवन की उमंगों के साथ और मरते हैं यौवन की उमंगों के बीच। जरावस्था की थकान क्या होती है इससे वे सदा अनभिज्ञ बने रहते हैं। साधनों की दृष्टि से पिछड़े, शक्ति, सामर्थ्य, एवं बुद्धि में अविकसित इन मनुष्येत्तर जीवों के चिरयौवन के कारणों की खोज करते हैं तो एक ही तथ्य हाथ लगता है, प्राकृतिक दिनचर्या आशंकाओं से रहित उमंग एवं उत्साह से भरा जीवन क्रम।
मचलते, इतराते युवा उमंगों से युक्त पशु-पक्षियों के मस्त जीवन के रहस्योद्घाटन करते हुए सन्त फ्रान्सिस कहते हैं कि प्राणि-सृष्टि ईश्वर के पितृ-हृदय के बहुत समीप हुआ करते हैं। इस तथ्य से मैं पूर्णतया सहमत हूं। प्रकृति की सहज प्रेरणा से अभिप्रेरित होकर प्रत्येक प्राणी जीवन से असीम प्यार करता एवं उसका भरपूर आनन्द उठाता है। उनमें चिर-उत्साह का यही कारण है।
‘एलन डिबाय’ प्रकृति प्रेमी रहे हैं। उनका अधिकांश समय जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों के अध्ययन में ही बीता है। उन्होंने रहस्योद्घाटन किया है कि प्रकृति के इन नन्हें जीवों में चिर उत्साह का कारण है, उनकी प्रकृति प्रेरणा के अनुरूप क्रियायें। लिखते हैं कि मेरा अधिकांश समय पशुओं की जानकारी में बीता है। घनिष्ठ साथियों में खरगोश, गिनीपिग्टन सफेद चूहे, हिरण, रैकून्स, स्कन्स, लोमड़ियां सदा मेरा मन बहलाते रहे तथा प्रेरणायें देते रहे हैं। मैंने 80 वर्ष से इन प्राणियों से इतना कुछ सीखा है जितना कि तत्वज्ञान की पुस्तकों में भी नहीं। वे कहते हैं कि जीव मूक रूप से कहते हैं कि ‘‘प्रत्येक क्षण का आनन्द लूटना सीखो’’। सृष्टि का प्रत्येक प्राणी अपने जीवन का भरपूर आनन्द उठाता है। गोधूलि बेला में गिलहरियां नटों की भांति हवाई कौशल प्रस्तुत करती हैं। उन्हें न तो रात के अंधकार का डर होता है न कल की चिंता। चौकड़ी भरता हिरण सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार जताता है। हरी-भरी घास का आनन्द लेते समय उसके मनोयोग को देखते ही बनता है।
एलन डिवाय लिखते हैं कि ‘‘एक बार मैंने एक बुड्ढे हिरन को घास चरते देखा। इतने में एक सर्प उसकी नासिका के पास आ पहुंचा। उस समय उसकी सतर्कता परिवर्तित भाव मुद्रा देखते ही बनती थी। एक क्षण में ही आनन्द के भाव तिरोहित हो गये और वह वीर रस के भाव में हुंकार भरने लगा। पैने खुरों से आवाज करते हुए उसने सांप को दबोचकर काम तमाम कर दिया। तुरन्त बाद वह अपनी पूर्ववत् स्थिति में आ गया और इस प्रकार घास चरने का आनन्द लेने लगा जैसे कोई घटना ही न हुई न हो। इन जीवों के जीवन क्रम से मनुष्य प्रेरणा ले सकता है। सामान्य घटना एवं बातों से प्रभावित होकर अपना सन्तुलन खोने वाले, निराशा चिन्ता से घिर जाने वाले मनुष्य उद्विग्नता और चिन्ता से मुक्ति पालें तो 80 वर्ष की आयु में भी वे हिरन की-सी कुचालें भरते रह सकते हैं।
प्रकृति की प्रेरणा है कि अनावश्यक चिन्तायें छोड़ो, ईश्वर प्रदत्त जीवन का सर्वोत्तम उपयोग करो। प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता का प्रत्येक कार्य में समावेश रखो। इस प्रेरणा के अनुरूप जीवन-क्रम अपनाकर पशु-पक्षी सदा प्रसन्न रहते तथा जीवन-पर्यन्त यौवन का आनन्द लेते हैं। कृत्रिमता से वे सदा दूर रहते हैं। समय पर उठना प्रकृति का अभिवादन करना, आहार जुटाना, एवं निश्चिन्त होकर सोना ही उनके सदा स्वस्थ व चिर युवा रहने का रहस्य है।
आकृति सामर्थ्य एवं बुद्धि की दृष्टि से सबसे पिछड़ी चिड़ियों के फुदकने को देखकर लगता है जैसे प्रकृति ने सम्पूर्ण आनन्द उसकी झोली में भर दिया हो। बच्चों को भोजन कहां से प्राप्त होगा। कल के लिए आहार की व्यवस्था क्या होगी, इसकी बिलकुल ही चिन्ता नहीं करती। बस सूर्योदय का अभिवन्दन करके अपने काम में जुट जाती हैं। जो आहार प्राप्त होता है उसे अपने बच्चों में मिल-बांटकर खाती हैं। हाथी जैसे विशालकाय जीव को सर्वाधिक आहार की आवश्यकता होती है पर उसे थोड़ी भी चिन्ता नहीं रहती। भूख लगने पर वह घने जंगल में स्वच्छन्द निकल पड़ता तथा हरी फूल-पत्तियों का आहार करता है। मनुष्य जैसे संग्रह की चिन्ता उसे नहीं सताती। फलतः वह सदा स्वस्थ रहता है। बिल्लियां, बकरियां, घोड़े, कबूतर यदा-कदा ही रुग्ण होते हैं। सूर्य देवता अपनी प्रातःकालीन स्वर्गीय आभा लिए उन्हें उछलने, मचलने के लिए जैसे बाध्य कर देते हों।
प्रकृति विज्ञानी एलनडिवाय ने अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख किया है कि किस प्रकार नन्हे पक्षी प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं। वे लिखते हैं कि एक बार मैंने एक पुराने लकड़ी के पुल के नीचे एक पक्षी का घोंसला बना देखा। उसके अण्डे देखने के लिए सावधानी से आगे बढ़ रहा था। एकाएक मादा पक्षी ने मेरी नाक से एक इंच दूर मेरी आंखों पर अपने पंखों से प्रहार किया। चौंककर सिर उठाया कि उतने में नर-पक्षी ने झपट्टा मारकर मेरा चश्मा गिरा दिया। इस अप्रत्याशित संघबद्ध आक्रमण से मैं घबरा उठा और पैर फिसल जाने के कारण कमर तक पानी में जा गिरा। किसी प्रकार उठकर वहां से भागा। मुझे उस घटना से प्रेरणा मिली कि आने वाली कठिनाइयों का जब नन्हें-नन्हें जंतु वीरों की तरह सामना कर जाते हैं तब छोटे-छोटे उतार-चढ़ावों से घबराकर अपनी जीवनी शक्ति मनुष्य नष्ट करे, उसका यह दुर्भाग्य ही है।
एक अन्य घटना का वर्णन करते हैं। एक कठफोड़वा पक्षी उड़ता हुआ मेरे खेत में आया और किनारे रखे हुए एक बड़े पत्थर पर बैठ गया और कुछ ही क्षणों में शरीर को निश्चेष्ट छोड़कर मृत्यु की गोद में समा गया। अन्तिम समय में भी उसे न किसी प्रकार का कष्ट था नहीं मृत्यु का भय। मुझे उसकी शानदार मौत पर विशेष आश्चर्य हुआ। मनुष्य से तुलना की तो मालूम हुआ कि रोते-बिलखते कष्ट से कराहते मनुष्य की तुलना में जीवों की मृत्यु भी कितनी सरल एवं कष्टरहित होती है। निःसन्देह यह उसके स्वच्छन्द, चिन्ता रहित प्राकृतिक रहन-सहन का ही प्रतिपादन है।
मनुष्य पशु-पक्षियों से बुद्धिमान है और सामर्थ्यवान् भी। प्रकृति के सर्वाधिक अनुदान उसे ही मिले हैं। नन्हें जीवों को तो सीमित सामर्थ्य प्राप्त है। अपने सीमित क्षेत्र में सीमित साधनों के सहारे असीम आनन्द अनुभव करते हैं। किन्तु मनुष्य के लिए इससे बढ़कर दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि उसे जीवन का आनन्द लेना नहीं आ सका। कारणों की खोज में जाते हैं तो एक ही तथ्य हाथ लगता है उसका चिन्ताओं, आशंकाओं कृत्रिमताओं से भरा जीवन-क्रम।
प्राकृतिक दिनचर्या, प्रसन्नता, प्रफुल्लता से युक्त जीवन-क्रम अपनाने वाले मनुष्यों में ही अधिकांशतः चिरयुवा बने रहे। ढलती उम्र में भी उनमें असाधारण उत्साह एवं उमंग देखी गयी। चर्चिल वृद्धावस्था को सर्वोत्तम काल कहते थे। उनका कहना था, जवानी खिला हुआ फूल है तो बुढ़ापा पका हुआ फल—एक रंग का खजाना दूसरा रस का कलश। दोनों की अपनी सुवास है और अपना सौन्दर्य। इस दृष्टिकोण के कारण ही उनमें 80 वर्ष की आयु में भी युवकों जैसी उमंग और बच्चों सी मस्ती थी। इंग्लैण्ड के शासकीय कार्यों में भी आयु की अन्तिम अवधि में भी परामर्श देते रहे। महात्मा गांधी 80 वर्ष की आयु में भी अपने को युवक मानते थे। उनकी फुर्ती देखते बनती थी। वृद्धावस्था में भी बर्नार्डशा की चुस्ती एवं फुर्ती देखकर उनके युवा होने का सन्देह होने लगता था। उसका कारण था कि वे सक्रियता, प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं प्राकृतिक दिनचर्या को बताते थे।
एक जापानी संत का कथन है—बुढ़ापे की झुर्रियां, ईश्वर का दिया हुआ वरदान है। निश्चय ही प्रसन्नता मुख-मण्डल पर सतत् बनी रही तो वृद्धावस्था का अभिशाप नहीं बन सकती। भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् ने चिरयौवन का रहस्य बताते हुए कहा है कि चिरयुवा बने रहने के लिए मनुष्य को हंसमुख स्वभाव को वास्तविक एवं गंभीर रूप में विकसित करना चाहिए। उन्होंने संयमित प्रकृति के अनुरूप आहार-विहार को चिरयौवन की कुंजी माना।
डॉ. मेलविन कीथ अपनी पुस्तक ‘‘रायल रोड टू हेल’’ में लिखते हैं कि अप्राकृतिक दिनचर्या के कारण मानव जाति दिन-प्रतिदिन शक्ति सामर्थ्य की दृष्टि से क्षीण होती जा रही है। जिसका प्रतिफल है असमय बुढ़ापा—अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति। मनुष्य को प्रकृति के अन्य पशु-पक्षियों की प्रेरणा लेनी तथा अनुकरण करनी चाहिए जो आयु के अन्तिम समय में भी असीम उत्साह एवं उमंग भरे रहते हैं। जबकि मनुष्य अनेकों प्रकार के रोगों से ग्रस्त हुआ रोते-कलपते जीवन के अन्तिम दिन पूरे करता है।
अविकसित प्राणी जो मनुष्य से हर दृष्टि से छोटे हैं। उनके पास न तो रहने के मकान हैं न ही अन्य साधन। कल के लिए आहर की समस्या है। संचय के नाम पर कुछ भी नहीं है। ऐसी स्थिति में भी सदा स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रहते हैं। वृद्धावस्था की असमर्थता का अभिशाप उन्हें नहीं लगने पाता। जबकि मनुष्य साधनों, योग्यता, प्रतिभा की दृष्टि से सबसे आगे हैं। फिर भी रोग-क्लेशों का, असमर्थता का, बुढ़ापे का रोना उसे रोना पड़ता है। निस्सन्देह यह अप्राकृतिक रहन-सहन, अनावश्यक चिन्ताओं एवं आशंकाओं का ही दुष्परिणाम है। शारीरिक सक्रियता, मानसिक प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता बनी रहे तो कोई कारण नहीं है कि उसे चिर-चौवन के आनन्द से भी वंचित रहना पड़े। इस तथ्य को समझा एवं अपनाया जा सके तो उसी प्रकार जीवन-पर्यन्त स्वस्थ एवं प्रसन्न चित्त रहा जा सकता है। जिस प्रकार पशु-पक्षी। मनुष्य को श्रेष्ठतम जीवों में गिना जाता है। यहां तक कि मानवी को परमात्मा की सर्वोत्कृष्ट कृति कहा गया है। उसे पंचतत्वों से निर्मित परमात्मा का निवास स्थान माना जाता है। इसीलिए इसे देव मन्दिर भी कहा गया है। परमात्मा के निवास गृह देवरूपी मन्दिर को पवित्रता, निर्मलता और शोभा-सुषमा—सौन्दर्य से भरा रहना चाहिए। ईश्वर के इस दुर्लभ अनोखे एवं सुन्दर देहरूपी उपहार की उपेक्षा-अवहेलना तिरस्कार करके उससे रोगी, शक्तिहीन कुरूप बनाना महापाप अर्जित करना है। इसको सुन्दर, स्वस्थ और रोगमुक्त रखना ही सर्वोपरि कर्तव्य है।
‘‘शरीरमाद्यम् खलुधर्मसाधनम्’’ यह शरीर ही धर्मादि को प्राप्त करने का साधन है। कोई भी भौतिक अथवा आध्यात्मिक उपलब्धि बिना स्वस्थ एवं नीरोग-सशक्त, शरीर से सम्बन्ध नहीं। इस संसार में जीवन का आधार यह शरीर ही है।
इस देव मंदिर देह की जब इतनी महत्ता शास्त्रों में प्रतिपादित की गयी, तो प्रश्न उठता है कि इसे निरोग स्वस्थ एवं सशक्त कैसे रखा जाय? यह तो सभी जानते हैं कि इस मानव-देह का निर्माण अवनि, अम्बु, अनल, अनिल और आकाश के पंचतत्वों से हुआ है। शरीर में यदि इन तत्वों का संतुलन साम्य बना रहे तो उसमें निरोगता एवं सशक्तता बनी रहती है और उनमें असन्तुलन, विकृति अथवा कुपित हो जाने के कारण रोगों की उत्पन्न हो जाती है। ये पंचतत्व प्राकृतिक हैं। इनके असंतुलन, न्यूनता, अधिकता से उत्पन्न रुग्णता, दुर्बलता आदि को प्रकृति के सामीप्य सान्निध्य में रहकर ही दूर किया जा सकता है। जीवन को भौतिक कृत्रिमता से अधिकाधिक दूर रखकर रोगमुक्त, शक्तियुक्त रखना पंचतत्वों की साधना-प्राकृतिक जीवन से सम्भव है।
मनुष्य प्रकृति विरोधों का आचरण करके अपनी भूल, प्रमाद या अज्ञानवश रोगों को आमन्त्रित कर लेता है और अपने इस पंचतत्व के कलेवर का उपचार तीव्र एवं विषैली औषधियों से इन्जेक्शनों या शल्य क्रिया से कराता है जिसके दूरगामी परिणाम हानिप्रद ही होते हैं। यद्यपि क्षणिक राहत इन उपायों से जान पड़ती है। कालान्तर में अन्य जीर्ण-साध्य व्याधियां प्रकट हो जाती हैं जो शरीर का अन्त करके ही छोड़ती हैं। प्रकृति माता बड़ी उदार है। जब भी मानव अपने को प्रकृति के आंचल में छोड़ पंच-तत्वों का उपचार प्रारम्भ करता है वह करुणामयी अपना वरद्हस्त उसके सिर पर रखकर स्वास्थ्य, निरोगता एवं सशक्तता का अनुदान-वरदान देना प्रारम्भ कर देती है। उसकी अनन्त अनुकम्पा से मनुष्य देह-रूपी देव-मन्दिर, रोगमुक्त, शक्तियुक्त हो जाता है। अस्तु अधिक से अधिक प्राकृतिक आहार-विहार के अनुरूप हो जाता जीवन चर्या बनाकर, तदनुरूप पालन कर इस देह को स्वस्थ और सशक्त रखा जाय और देव-मन्दिर की सार्थकता को पूर्ण किया जाय।
जहां तक मृत्यु का प्रश्न है संसार का कोई प्राणी इससे बचा नहीं है। जिसने जन्म लिया है उसे निश्चित रूप से मरना है। शास्त्रकारों ने मृत्यु को सुखद नींद और दिव्य-लोक कहा है। अथर्ववेद में कहा गया है—
‘‘यह देवताओं का प्यारा लोक है। यहां पराजय का क्या काम? तुम सोचते हो कि तुम मौत के प्रति संकल्पित किये हुए हो। बात ऐसी नहीं है, हम तुम्हें वापिस बुलाते, बुढ़ापे से पहले मरने की न सोचो।’’
वस्तुतः मृत्यु से कोई बचा नहीं, वह तो अवश्यम्भावी है। जन्म-मृत्यु का चक्र निरन्तर गतिशील है। जहां जन्म है वहां मृत्यु भी एक दिन अवश्य होती है परन्तु मौत को उत्कृष्ट विचारों की शक्ति एवं सद्भाव सम्पन्न मनः स्थिति द्वारा आनन्ददायक अवश्य बनाया जा सकता है। उसे संघर्ष करते हुए आगे को टाला जा सकता है। वेदों में इस तथ्य का उद्घोष किया गया है—
वर्च प्रा धेहि मे तन्वांऽसह ओजोवयं ललम् ।
इन्द्रियाय त्वा कर्मणे वीर्याय प्रतिगृहणाभि शतं शारदाय ।।
(अ. 19।37।2)
अर्थात्—‘‘मेरे शरीर में शक्ति, ओज, पराक्रम, पौरुष सदा बना रहे। मैं सौ वर्षों तक अपनी समस्त इन्द्रियों में कर्म करता हूं।
मानव-जीवन की सार्थकता इसी में है कि मनुष्य अपने जीवन-पर्यन्त पूर्ण स्वस्थ, शक्तिवान् एवं वीर्यवान् बना रहे। आर्षग्रन्थों में स्थान-स्थान पर दीर्घ जीवन के रहस्यों का उद्घाटन किया गया है।
‘‘अनुहृत पुनरेति विदवानुदयनं पथः ।
आरोहणमाक्रमण जीवतो जीवतोऽयनम् ।।’’
(अ. 5।30।।7)
अर्थात्—‘‘हे मनुष्यो! तुम मृत्यु की ओर क्यों जा रहे हो? मैं तुम्हें जीवन, उल्लास, यौवन, उत्साह की ओर बुला रहा हूं, वापिस आओ।’’
वस्तुतः उल्लास, स्फूर्ति, निरोगता ही यौवन है, वास्तविक आयु कुछ भी हो। उदासी, कायरता, निषेधात्मक मनःस्थिति, प्रमाद ही बुढ़ापा है।
***
मचलते, इतराते युवा उमंगों से युक्त पशु-पक्षियों के मस्त जीवन के रहस्योद्घाटन करते हुए सन्त फ्रान्सिस कहते हैं कि प्राणि-सृष्टि ईश्वर के पितृ-हृदय के बहुत समीप हुआ करते हैं। इस तथ्य से मैं पूर्णतया सहमत हूं। प्रकृति की सहज प्रेरणा से अभिप्रेरित होकर प्रत्येक प्राणी जीवन से असीम प्यार करता एवं उसका भरपूर आनन्द उठाता है। उनमें चिर-उत्साह का यही कारण है।
‘एलन डिबाय’ प्रकृति प्रेमी रहे हैं। उनका अधिकांश समय जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों के अध्ययन में ही बीता है। उन्होंने रहस्योद्घाटन किया है कि प्रकृति के इन नन्हें जीवों में चिर उत्साह का कारण है, उनकी प्रकृति प्रेरणा के अनुरूप क्रियायें। लिखते हैं कि मेरा अधिकांश समय पशुओं की जानकारी में बीता है। घनिष्ठ साथियों में खरगोश, गिनीपिग्टन सफेद चूहे, हिरण, रैकून्स, स्कन्स, लोमड़ियां सदा मेरा मन बहलाते रहे तथा प्रेरणायें देते रहे हैं। मैंने 80 वर्ष से इन प्राणियों से इतना कुछ सीखा है जितना कि तत्वज्ञान की पुस्तकों में भी नहीं। वे कहते हैं कि जीव मूक रूप से कहते हैं कि ‘‘प्रत्येक क्षण का आनन्द लूटना सीखो’’। सृष्टि का प्रत्येक प्राणी अपने जीवन का भरपूर आनन्द उठाता है। गोधूलि बेला में गिलहरियां नटों की भांति हवाई कौशल प्रस्तुत करती हैं। उन्हें न तो रात के अंधकार का डर होता है न कल की चिंता। चौकड़ी भरता हिरण सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार जताता है। हरी-भरी घास का आनन्द लेते समय उसके मनोयोग को देखते ही बनता है।
एलन डिवाय लिखते हैं कि ‘‘एक बार मैंने एक बुड्ढे हिरन को घास चरते देखा। इतने में एक सर्प उसकी नासिका के पास आ पहुंचा। उस समय उसकी सतर्कता परिवर्तित भाव मुद्रा देखते ही बनती थी। एक क्षण में ही आनन्द के भाव तिरोहित हो गये और वह वीर रस के भाव में हुंकार भरने लगा। पैने खुरों से आवाज करते हुए उसने सांप को दबोचकर काम तमाम कर दिया। तुरन्त बाद वह अपनी पूर्ववत् स्थिति में आ गया और इस प्रकार घास चरने का आनन्द लेने लगा जैसे कोई घटना ही न हुई न हो। इन जीवों के जीवन क्रम से मनुष्य प्रेरणा ले सकता है। सामान्य घटना एवं बातों से प्रभावित होकर अपना सन्तुलन खोने वाले, निराशा चिन्ता से घिर जाने वाले मनुष्य उद्विग्नता और चिन्ता से मुक्ति पालें तो 80 वर्ष की आयु में भी वे हिरन की-सी कुचालें भरते रह सकते हैं।
प्रकृति की प्रेरणा है कि अनावश्यक चिन्तायें छोड़ो, ईश्वर प्रदत्त जीवन का सर्वोत्तम उपयोग करो। प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता का प्रत्येक कार्य में समावेश रखो। इस प्रेरणा के अनुरूप जीवन-क्रम अपनाकर पशु-पक्षी सदा प्रसन्न रहते तथा जीवन-पर्यन्त यौवन का आनन्द लेते हैं। कृत्रिमता से वे सदा दूर रहते हैं। समय पर उठना प्रकृति का अभिवादन करना, आहार जुटाना, एवं निश्चिन्त होकर सोना ही उनके सदा स्वस्थ व चिर युवा रहने का रहस्य है।
आकृति सामर्थ्य एवं बुद्धि की दृष्टि से सबसे पिछड़ी चिड़ियों के फुदकने को देखकर लगता है जैसे प्रकृति ने सम्पूर्ण आनन्द उसकी झोली में भर दिया हो। बच्चों को भोजन कहां से प्राप्त होगा। कल के लिए आहार की व्यवस्था क्या होगी, इसकी बिलकुल ही चिन्ता नहीं करती। बस सूर्योदय का अभिवन्दन करके अपने काम में जुट जाती हैं। जो आहार प्राप्त होता है उसे अपने बच्चों में मिल-बांटकर खाती हैं। हाथी जैसे विशालकाय जीव को सर्वाधिक आहार की आवश्यकता होती है पर उसे थोड़ी भी चिन्ता नहीं रहती। भूख लगने पर वह घने जंगल में स्वच्छन्द निकल पड़ता तथा हरी फूल-पत्तियों का आहार करता है। मनुष्य जैसे संग्रह की चिन्ता उसे नहीं सताती। फलतः वह सदा स्वस्थ रहता है। बिल्लियां, बकरियां, घोड़े, कबूतर यदा-कदा ही रुग्ण होते हैं। सूर्य देवता अपनी प्रातःकालीन स्वर्गीय आभा लिए उन्हें उछलने, मचलने के लिए जैसे बाध्य कर देते हों।
प्रकृति विज्ञानी एलनडिवाय ने अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख किया है कि किस प्रकार नन्हे पक्षी प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं। वे लिखते हैं कि एक बार मैंने एक पुराने लकड़ी के पुल के नीचे एक पक्षी का घोंसला बना देखा। उसके अण्डे देखने के लिए सावधानी से आगे बढ़ रहा था। एकाएक मादा पक्षी ने मेरी नाक से एक इंच दूर मेरी आंखों पर अपने पंखों से प्रहार किया। चौंककर सिर उठाया कि उतने में नर-पक्षी ने झपट्टा मारकर मेरा चश्मा गिरा दिया। इस अप्रत्याशित संघबद्ध आक्रमण से मैं घबरा उठा और पैर फिसल जाने के कारण कमर तक पानी में जा गिरा। किसी प्रकार उठकर वहां से भागा। मुझे उस घटना से प्रेरणा मिली कि आने वाली कठिनाइयों का जब नन्हें-नन्हें जंतु वीरों की तरह सामना कर जाते हैं तब छोटे-छोटे उतार-चढ़ावों से घबराकर अपनी जीवनी शक्ति मनुष्य नष्ट करे, उसका यह दुर्भाग्य ही है।
एक अन्य घटना का वर्णन करते हैं। एक कठफोड़वा पक्षी उड़ता हुआ मेरे खेत में आया और किनारे रखे हुए एक बड़े पत्थर पर बैठ गया और कुछ ही क्षणों में शरीर को निश्चेष्ट छोड़कर मृत्यु की गोद में समा गया। अन्तिम समय में भी उसे न किसी प्रकार का कष्ट था नहीं मृत्यु का भय। मुझे उसकी शानदार मौत पर विशेष आश्चर्य हुआ। मनुष्य से तुलना की तो मालूम हुआ कि रोते-बिलखते कष्ट से कराहते मनुष्य की तुलना में जीवों की मृत्यु भी कितनी सरल एवं कष्टरहित होती है। निःसन्देह यह उसके स्वच्छन्द, चिन्ता रहित प्राकृतिक रहन-सहन का ही प्रतिपादन है।
मनुष्य पशु-पक्षियों से बुद्धिमान है और सामर्थ्यवान् भी। प्रकृति के सर्वाधिक अनुदान उसे ही मिले हैं। नन्हें जीवों को तो सीमित सामर्थ्य प्राप्त है। अपने सीमित क्षेत्र में सीमित साधनों के सहारे असीम आनन्द अनुभव करते हैं। किन्तु मनुष्य के लिए इससे बढ़कर दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि उसे जीवन का आनन्द लेना नहीं आ सका। कारणों की खोज में जाते हैं तो एक ही तथ्य हाथ लगता है उसका चिन्ताओं, आशंकाओं कृत्रिमताओं से भरा जीवन-क्रम।
प्राकृतिक दिनचर्या, प्रसन्नता, प्रफुल्लता से युक्त जीवन-क्रम अपनाने वाले मनुष्यों में ही अधिकांशतः चिरयुवा बने रहे। ढलती उम्र में भी उनमें असाधारण उत्साह एवं उमंग देखी गयी। चर्चिल वृद्धावस्था को सर्वोत्तम काल कहते थे। उनका कहना था, जवानी खिला हुआ फूल है तो बुढ़ापा पका हुआ फल—एक रंग का खजाना दूसरा रस का कलश। दोनों की अपनी सुवास है और अपना सौन्दर्य। इस दृष्टिकोण के कारण ही उनमें 80 वर्ष की आयु में भी युवकों जैसी उमंग और बच्चों सी मस्ती थी। इंग्लैण्ड के शासकीय कार्यों में भी आयु की अन्तिम अवधि में भी परामर्श देते रहे। महात्मा गांधी 80 वर्ष की आयु में भी अपने को युवक मानते थे। उनकी फुर्ती देखते बनती थी। वृद्धावस्था में भी बर्नार्डशा की चुस्ती एवं फुर्ती देखकर उनके युवा होने का सन्देह होने लगता था। उसका कारण था कि वे सक्रियता, प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं प्राकृतिक दिनचर्या को बताते थे।
एक जापानी संत का कथन है—बुढ़ापे की झुर्रियां, ईश्वर का दिया हुआ वरदान है। निश्चय ही प्रसन्नता मुख-मण्डल पर सतत् बनी रही तो वृद्धावस्था का अभिशाप नहीं बन सकती। भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् ने चिरयौवन का रहस्य बताते हुए कहा है कि चिरयुवा बने रहने के लिए मनुष्य को हंसमुख स्वभाव को वास्तविक एवं गंभीर रूप में विकसित करना चाहिए। उन्होंने संयमित प्रकृति के अनुरूप आहार-विहार को चिरयौवन की कुंजी माना।
डॉ. मेलविन कीथ अपनी पुस्तक ‘‘रायल रोड टू हेल’’ में लिखते हैं कि अप्राकृतिक दिनचर्या के कारण मानव जाति दिन-प्रतिदिन शक्ति सामर्थ्य की दृष्टि से क्षीण होती जा रही है। जिसका प्रतिफल है असमय बुढ़ापा—अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति। मनुष्य को प्रकृति के अन्य पशु-पक्षियों की प्रेरणा लेनी तथा अनुकरण करनी चाहिए जो आयु के अन्तिम समय में भी असीम उत्साह एवं उमंग भरे रहते हैं। जबकि मनुष्य अनेकों प्रकार के रोगों से ग्रस्त हुआ रोते-कलपते जीवन के अन्तिम दिन पूरे करता है।
अविकसित प्राणी जो मनुष्य से हर दृष्टि से छोटे हैं। उनके पास न तो रहने के मकान हैं न ही अन्य साधन। कल के लिए आहर की समस्या है। संचय के नाम पर कुछ भी नहीं है। ऐसी स्थिति में भी सदा स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रहते हैं। वृद्धावस्था की असमर्थता का अभिशाप उन्हें नहीं लगने पाता। जबकि मनुष्य साधनों, योग्यता, प्रतिभा की दृष्टि से सबसे आगे हैं। फिर भी रोग-क्लेशों का, असमर्थता का, बुढ़ापे का रोना उसे रोना पड़ता है। निस्सन्देह यह अप्राकृतिक रहन-सहन, अनावश्यक चिन्ताओं एवं आशंकाओं का ही दुष्परिणाम है। शारीरिक सक्रियता, मानसिक प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता बनी रहे तो कोई कारण नहीं है कि उसे चिर-चौवन के आनन्द से भी वंचित रहना पड़े। इस तथ्य को समझा एवं अपनाया जा सके तो उसी प्रकार जीवन-पर्यन्त स्वस्थ एवं प्रसन्न चित्त रहा जा सकता है। जिस प्रकार पशु-पक्षी। मनुष्य को श्रेष्ठतम जीवों में गिना जाता है। यहां तक कि मानवी को परमात्मा की सर्वोत्कृष्ट कृति कहा गया है। उसे पंचतत्वों से निर्मित परमात्मा का निवास स्थान माना जाता है। इसीलिए इसे देव मन्दिर भी कहा गया है। परमात्मा के निवास गृह देवरूपी मन्दिर को पवित्रता, निर्मलता और शोभा-सुषमा—सौन्दर्य से भरा रहना चाहिए। ईश्वर के इस दुर्लभ अनोखे एवं सुन्दर देहरूपी उपहार की उपेक्षा-अवहेलना तिरस्कार करके उससे रोगी, शक्तिहीन कुरूप बनाना महापाप अर्जित करना है। इसको सुन्दर, स्वस्थ और रोगमुक्त रखना ही सर्वोपरि कर्तव्य है।
‘‘शरीरमाद्यम् खलुधर्मसाधनम्’’ यह शरीर ही धर्मादि को प्राप्त करने का साधन है। कोई भी भौतिक अथवा आध्यात्मिक उपलब्धि बिना स्वस्थ एवं नीरोग-सशक्त, शरीर से सम्बन्ध नहीं। इस संसार में जीवन का आधार यह शरीर ही है।
इस देव मंदिर देह की जब इतनी महत्ता शास्त्रों में प्रतिपादित की गयी, तो प्रश्न उठता है कि इसे निरोग स्वस्थ एवं सशक्त कैसे रखा जाय? यह तो सभी जानते हैं कि इस मानव-देह का निर्माण अवनि, अम्बु, अनल, अनिल और आकाश के पंचतत्वों से हुआ है। शरीर में यदि इन तत्वों का संतुलन साम्य बना रहे तो उसमें निरोगता एवं सशक्तता बनी रहती है और उनमें असन्तुलन, विकृति अथवा कुपित हो जाने के कारण रोगों की उत्पन्न हो जाती है। ये पंचतत्व प्राकृतिक हैं। इनके असंतुलन, न्यूनता, अधिकता से उत्पन्न रुग्णता, दुर्बलता आदि को प्रकृति के सामीप्य सान्निध्य में रहकर ही दूर किया जा सकता है। जीवन को भौतिक कृत्रिमता से अधिकाधिक दूर रखकर रोगमुक्त, शक्तियुक्त रखना पंचतत्वों की साधना-प्राकृतिक जीवन से सम्भव है।
मनुष्य प्रकृति विरोधों का आचरण करके अपनी भूल, प्रमाद या अज्ञानवश रोगों को आमन्त्रित कर लेता है और अपने इस पंचतत्व के कलेवर का उपचार तीव्र एवं विषैली औषधियों से इन्जेक्शनों या शल्य क्रिया से कराता है जिसके दूरगामी परिणाम हानिप्रद ही होते हैं। यद्यपि क्षणिक राहत इन उपायों से जान पड़ती है। कालान्तर में अन्य जीर्ण-साध्य व्याधियां प्रकट हो जाती हैं जो शरीर का अन्त करके ही छोड़ती हैं। प्रकृति माता बड़ी उदार है। जब भी मानव अपने को प्रकृति के आंचल में छोड़ पंच-तत्वों का उपचार प्रारम्भ करता है वह करुणामयी अपना वरद्हस्त उसके सिर पर रखकर स्वास्थ्य, निरोगता एवं सशक्तता का अनुदान-वरदान देना प्रारम्भ कर देती है। उसकी अनन्त अनुकम्पा से मनुष्य देह-रूपी देव-मन्दिर, रोगमुक्त, शक्तियुक्त हो जाता है। अस्तु अधिक से अधिक प्राकृतिक आहार-विहार के अनुरूप हो जाता जीवन चर्या बनाकर, तदनुरूप पालन कर इस देह को स्वस्थ और सशक्त रखा जाय और देव-मन्दिर की सार्थकता को पूर्ण किया जाय।
जहां तक मृत्यु का प्रश्न है संसार का कोई प्राणी इससे बचा नहीं है। जिसने जन्म लिया है उसे निश्चित रूप से मरना है। शास्त्रकारों ने मृत्यु को सुखद नींद और दिव्य-लोक कहा है। अथर्ववेद में कहा गया है—
‘‘यह देवताओं का प्यारा लोक है। यहां पराजय का क्या काम? तुम सोचते हो कि तुम मौत के प्रति संकल्पित किये हुए हो। बात ऐसी नहीं है, हम तुम्हें वापिस बुलाते, बुढ़ापे से पहले मरने की न सोचो।’’
वस्तुतः मृत्यु से कोई बचा नहीं, वह तो अवश्यम्भावी है। जन्म-मृत्यु का चक्र निरन्तर गतिशील है। जहां जन्म है वहां मृत्यु भी एक दिन अवश्य होती है परन्तु मौत को उत्कृष्ट विचारों की शक्ति एवं सद्भाव सम्पन्न मनः स्थिति द्वारा आनन्ददायक अवश्य बनाया जा सकता है। उसे संघर्ष करते हुए आगे को टाला जा सकता है। वेदों में इस तथ्य का उद्घोष किया गया है—
वर्च प्रा धेहि मे तन्वांऽसह ओजोवयं ललम् ।
इन्द्रियाय त्वा कर्मणे वीर्याय प्रतिगृहणाभि शतं शारदाय ।।
(अ. 19।37।2)
अर्थात्—‘‘मेरे शरीर में शक्ति, ओज, पराक्रम, पौरुष सदा बना रहे। मैं सौ वर्षों तक अपनी समस्त इन्द्रियों में कर्म करता हूं।
मानव-जीवन की सार्थकता इसी में है कि मनुष्य अपने जीवन-पर्यन्त पूर्ण स्वस्थ, शक्तिवान् एवं वीर्यवान् बना रहे। आर्षग्रन्थों में स्थान-स्थान पर दीर्घ जीवन के रहस्यों का उद्घाटन किया गया है।
‘‘अनुहृत पुनरेति विदवानुदयनं पथः ।
आरोहणमाक्रमण जीवतो जीवतोऽयनम् ।।’’
(अ. 5।30।।7)
अर्थात्—‘‘हे मनुष्यो! तुम मृत्यु की ओर क्यों जा रहे हो? मैं तुम्हें जीवन, उल्लास, यौवन, उत्साह की ओर बुला रहा हूं, वापिस आओ।’’
वस्तुतः उल्लास, स्फूर्ति, निरोगता ही यौवन है, वास्तविक आयु कुछ भी हो। उदासी, कायरता, निषेधात्मक मनःस्थिति, प्रमाद ही बुढ़ापा है।
***