Books - अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -2
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Language: HINDI
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गुरु संरक्षण में किया गंगा स्नान
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मेरी लड़की का विवाह सन् २००५ में १७ फरवरी को शांतिकुंज में होना निश्चित हुआ। शान्तिकुञ्ज में शादी होना मेरे क्षेत्र में चर्चा का विषय बना हुआ था। मेरे गाँव घर के लोगों एवं रिश्तेदारों को मिलाकर लगभग ७०- ८० लोग शांतिकुंज पहुँचे। बहुत से लोग ऐसे थे जिन्होंने शान्तिकुञ्ज पहली बार देखा था। सभी लोग बहुत उत्साहित थे। तीर्थ में विवाह संस्कार और शान्तिकुञ्ज का दिव्य दर्शन दोनों का लाभ एक साथ पाकर सभी के हृदय पुलकित थे।
विवाह संस्कार नियत तिथि को बड़े अच्छे ढंग से सम्पन्न हुआ। विवाह संस्कार सम्पन्न होने के बाद भोजन आदि के पश्चात् बिटिया की विदाई पाँच बजे शाम को हो गयी। मेरी इच्छा और संकल्प था कि अगर मेरी लड़की की शादी हो जाएगी तो मैं गंगा नहाऊँगी। शान्तिकुञ्ज में शादी होने से मेरे दोनों संकल्प आसानी से पूरे हो रहे थे। शादी तो हो ही चुकी थी। बाकी बचा गंगा स्नान। हमें बहुत सारे और भी काम करने थे। चूँकि शादी में कन्या पक्ष से काफी लोग थे। सभी हर चीज देखना सुनना चाह रहे थे और सभी लोगों को दीक्षा भी दिलवानी थी, इसलिए रात में मैंने अपनी चाची से कहा कि अगर गंगा स्नान की बात सभी को मालूम होगी तो सुबह हम लोग स्नान नहीं कर पाएँगे। सभी तैयार होंगे तो सारा कार्यक्रम लेट हो जाएगा। करीब पचास लोग दीक्षा संस्कार के लिए तैयार थे, इसलिए हमने योजना बनाई कि २.३०- ३.०० बजे के आसपास हम दोनों उठकर चुपचाप बिना किसी को बताए गंगा स्नान को जाएँगे। तुरन्त स्नान कर जल्दी वापस भी आ जाएँगे।
दूसरे दिन सुबह मैं और मेरी चाची चुपचाप उठकर गंगा स्नान के लिए चल दिए। शान्तिकुञ्ज में तो सब कुछ सामान्य था। लेकिन जब मैं गेट से बाहर सप्तऋषि आश्रम के पास पहुँची तो मुझे बहुत भय लगने लगा। जाड़े का दिन था। कुहरा भी छाया हुआ था। सड़क पर एक दो व्यक्ति चलते हुए दिखाई पड़ रहे थे। धीरे- धीरे आगे बढ़ने पर एकदम सुनसान रास्ता था। मैं अन्दर ही अन्दर बहुत डर रही थी। जाने कितने प्रकार के भाव आ रहे थे। मैं बहुत डरी हुई थी। लेकिन अपने डर को चाची पर प्रकट नहीं होने दिया। चाची ने कहा- रास्ता सुनसान है, तो मैंने कहा कोई बात नहीं, यहाँ कोई डर नहीं रहता। इधर शान्तिकुञ्ज का क्षेत्र है सुरक्षित रहता है। उनको सांत्वना दे रही थी किन्तु मैं अन्दर ही अन्दर गुरुदेव माताजी से प्रार्थना कर रही थी कि गुरुदेव इतनी जल्दी आकर बहुत बड़ी गलती की है। अगर कुछ हो जाता है तो कोई जान भी नहीं पाएगा कि हम लोग कहाँ हैं। गुरुदेव रक्षा करें। अब ऐसी गलती दुबारा नहीं होगी। उस समय मैं एकदम बीच रास्ते पर थी, शांतिकुंज की ओर का रास्ता भी सुनसान था। इस स्थिति में कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैं जल्दी- जल्दी गुरुदेव का स्मरण कर आगे बढ़ रही थी। सोचा घाट पर कोई न कोई स्नान करते मिल ही जाएगा।
लेकिन मेरा सोचना एकदम गलत था। जब मैं घाट पर पहुँची तो वहाँ एकदम सुनसान था! गंगा की लहरें भी बिल्कुल शान्त थीं। मेरा हृदय भय के मारे काँप रहा था। इतना सब सोचने के बावजूद मैंने अपने भय को अन्दर ही छिपाए रखा। चाची को नहीं बताया। वह इससे और डर जाती। यही सब सोचकर गुरुदेव का नाम लेकर मैं सीढ़ियों के नीचे उतर गई। मन में आया अब आ ही गई हूँ तो स्नान के अलावा कोई रास्ता नहीं है। मैंने गंगा माँ को प्रणाम किया और स्नान करने लगी।
अचानक मेरी निगाह सीढ़ियों के ऊपर पड़ी। घाट पर घना कुहरा छाया हुआ था। उसी कुहरे में देखा एक वृद्ध पुरुष सफेद धोती- कुर्ता पहने दोनों हाथ पीछे किए एक छोर से दूसरे छोर तक टहल रहे हैं। मैंने सोचा पता नहीं कौन है? इनको दिखाई भी नहीं पड़ता कि औरतें नहा रही हैं। ये यहाँ पता नहीं क्या कर रहे हैं। चाची की भी निगाह पड़ी वह भी बोली कोई बाबा टहल रहें हैं तो मैंने कहा ठीक है टहलने दो। हम दो लोग हैं डरने की कोई बात नहीं। इस प्रकार हम लोग स्नान आदि करके गंगाजी का पूजन करने के बाद सीढ़ियों पर चढ़ते हुए घाट की ओर बढ़ने लगे।
लेकिन यह क्या! जैसे ही हम लोग घाट के पास पहुँचे वहाँ वह बाबा न जाने कहाँ गायब हो गए। हम लोग सोच में पड़ गए कि ये इतनी जल्दी कहाँ गायब हो गए। काफी देर सोचने के बाद हमने शान्तिकुञ्ज की ओर प्रस्थान किया। तब तक रास्ते में काफी चहल- पहल हो चुकी थी। मेरा डर न जाने कहाँ गायब हो चुका था। दिमाग पर बहुत जोर देने के बाद जब मैंने उस वृद्ध पुरुष का ध्यान किया तो लगा वे तो साक्षात् गुरुदेव ही थे। हम डरें नहीं, कोई दुर्घटना न हो इसलिए वह अपनी उपस्थिति का आभास देकर चले गए। इस घटना को आज भी याद करती हूँ तो अफसोस होता है कि वे आए और हम उन्हें पहचान भी न पाए। जाने कितनी बातें उस समय मैंने उनको कह डालीं। लेकिन भक्तवत्सल गुरुदेव हमेशा अपने बच्चों का ध्यान रखते हैं।
प्रस्तुति : श्रीमती ममता सिंह
बहराईच(उत्तरप्रदेश)
विवाह संस्कार नियत तिथि को बड़े अच्छे ढंग से सम्पन्न हुआ। विवाह संस्कार सम्पन्न होने के बाद भोजन आदि के पश्चात् बिटिया की विदाई पाँच बजे शाम को हो गयी। मेरी इच्छा और संकल्प था कि अगर मेरी लड़की की शादी हो जाएगी तो मैं गंगा नहाऊँगी। शान्तिकुञ्ज में शादी होने से मेरे दोनों संकल्प आसानी से पूरे हो रहे थे। शादी तो हो ही चुकी थी। बाकी बचा गंगा स्नान। हमें बहुत सारे और भी काम करने थे। चूँकि शादी में कन्या पक्ष से काफी लोग थे। सभी हर चीज देखना सुनना चाह रहे थे और सभी लोगों को दीक्षा भी दिलवानी थी, इसलिए रात में मैंने अपनी चाची से कहा कि अगर गंगा स्नान की बात सभी को मालूम होगी तो सुबह हम लोग स्नान नहीं कर पाएँगे। सभी तैयार होंगे तो सारा कार्यक्रम लेट हो जाएगा। करीब पचास लोग दीक्षा संस्कार के लिए तैयार थे, इसलिए हमने योजना बनाई कि २.३०- ३.०० बजे के आसपास हम दोनों उठकर चुपचाप बिना किसी को बताए गंगा स्नान को जाएँगे। तुरन्त स्नान कर जल्दी वापस भी आ जाएँगे।
दूसरे दिन सुबह मैं और मेरी चाची चुपचाप उठकर गंगा स्नान के लिए चल दिए। शान्तिकुञ्ज में तो सब कुछ सामान्य था। लेकिन जब मैं गेट से बाहर सप्तऋषि आश्रम के पास पहुँची तो मुझे बहुत भय लगने लगा। जाड़े का दिन था। कुहरा भी छाया हुआ था। सड़क पर एक दो व्यक्ति चलते हुए दिखाई पड़ रहे थे। धीरे- धीरे आगे बढ़ने पर एकदम सुनसान रास्ता था। मैं अन्दर ही अन्दर बहुत डर रही थी। जाने कितने प्रकार के भाव आ रहे थे। मैं बहुत डरी हुई थी। लेकिन अपने डर को चाची पर प्रकट नहीं होने दिया। चाची ने कहा- रास्ता सुनसान है, तो मैंने कहा कोई बात नहीं, यहाँ कोई डर नहीं रहता। इधर शान्तिकुञ्ज का क्षेत्र है सुरक्षित रहता है। उनको सांत्वना दे रही थी किन्तु मैं अन्दर ही अन्दर गुरुदेव माताजी से प्रार्थना कर रही थी कि गुरुदेव इतनी जल्दी आकर बहुत बड़ी गलती की है। अगर कुछ हो जाता है तो कोई जान भी नहीं पाएगा कि हम लोग कहाँ हैं। गुरुदेव रक्षा करें। अब ऐसी गलती दुबारा नहीं होगी। उस समय मैं एकदम बीच रास्ते पर थी, शांतिकुंज की ओर का रास्ता भी सुनसान था। इस स्थिति में कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैं जल्दी- जल्दी गुरुदेव का स्मरण कर आगे बढ़ रही थी। सोचा घाट पर कोई न कोई स्नान करते मिल ही जाएगा।
लेकिन मेरा सोचना एकदम गलत था। जब मैं घाट पर पहुँची तो वहाँ एकदम सुनसान था! गंगा की लहरें भी बिल्कुल शान्त थीं। मेरा हृदय भय के मारे काँप रहा था। इतना सब सोचने के बावजूद मैंने अपने भय को अन्दर ही छिपाए रखा। चाची को नहीं बताया। वह इससे और डर जाती। यही सब सोचकर गुरुदेव का नाम लेकर मैं सीढ़ियों के नीचे उतर गई। मन में आया अब आ ही गई हूँ तो स्नान के अलावा कोई रास्ता नहीं है। मैंने गंगा माँ को प्रणाम किया और स्नान करने लगी।
अचानक मेरी निगाह सीढ़ियों के ऊपर पड़ी। घाट पर घना कुहरा छाया हुआ था। उसी कुहरे में देखा एक वृद्ध पुरुष सफेद धोती- कुर्ता पहने दोनों हाथ पीछे किए एक छोर से दूसरे छोर तक टहल रहे हैं। मैंने सोचा पता नहीं कौन है? इनको दिखाई भी नहीं पड़ता कि औरतें नहा रही हैं। ये यहाँ पता नहीं क्या कर रहे हैं। चाची की भी निगाह पड़ी वह भी बोली कोई बाबा टहल रहें हैं तो मैंने कहा ठीक है टहलने दो। हम दो लोग हैं डरने की कोई बात नहीं। इस प्रकार हम लोग स्नान आदि करके गंगाजी का पूजन करने के बाद सीढ़ियों पर चढ़ते हुए घाट की ओर बढ़ने लगे।
लेकिन यह क्या! जैसे ही हम लोग घाट के पास पहुँचे वहाँ वह बाबा न जाने कहाँ गायब हो गए। हम लोग सोच में पड़ गए कि ये इतनी जल्दी कहाँ गायब हो गए। काफी देर सोचने के बाद हमने शान्तिकुञ्ज की ओर प्रस्थान किया। तब तक रास्ते में काफी चहल- पहल हो चुकी थी। मेरा डर न जाने कहाँ गायब हो चुका था। दिमाग पर बहुत जोर देने के बाद जब मैंने उस वृद्ध पुरुष का ध्यान किया तो लगा वे तो साक्षात् गुरुदेव ही थे। हम डरें नहीं, कोई दुर्घटना न हो इसलिए वह अपनी उपस्थिति का आभास देकर चले गए। इस घटना को आज भी याद करती हूँ तो अफसोस होता है कि वे आए और हम उन्हें पहचान भी न पाए। जाने कितनी बातें उस समय मैंने उनको कह डालीं। लेकिन भक्तवत्सल गुरुदेव हमेशा अपने बच्चों का ध्यान रखते हैं।
प्रस्तुति : श्रीमती ममता सिंह
बहराईच(उत्तरप्रदेश)