Books - अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -2
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Language: HINDI
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दरोगा जी ने दिलाई नौकरी
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स्कूली पढ़ाई के प्रति मेरी रुचि हमेशा ही कुछ कम रही। यों मन लायक पुस्तकें मिलतीं तो डूबकर पढ़ता, पर कोर्स की पढ़ाई मुझे कभी नहीं भाई। जैसे- तैसे दसवीं तक की पढ़ाई पूरी कर मैंने सोचा अब नौकरी कर लूँ, लेकिन घर में बड़ों के दबाव में आकर इण्टर में एडमीशन लेना पड़ा।
इण्टर का अभी एक ही वर्ष पूरा हुआ था कि मेरे चचेरे भाई की नौकरी केबल कम्पनी, जमशेदपुर में लग गई। भाई की नौकरी लगने से घर में सभी खुश थे, मैं भी खुश था। लेकिन मुझे बार- बार यह बात कचोटती रहती कि मैं बड़ा हूँ और अब तक कुछ नही कर सका। घर में सभी उसकी इज्जत करते। मुझे लगता अगर मुझे भी नौकरी मिल गई होती, तो इसी तरह मेरी भी इज्जत होती। भाई को टाटानगर में ज्वाइन करने जाना था। उसे पहुँचाने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। नई नौकरी थी। उसके लिए नए कपड़े सिलवाए गए थे, जिसे पहनकर वह बड़ा स्मार्ट दिख रहा था। मैं बार- बार उसे देख रहा था। भाई को लेकर मैं जमशेदपुर पहुँचा। अगले दिन उसने ज्वाइन भी कर लिया। मैं ही साथ लेकर गया था। उसे छोड़ खिन्न मन से मैं वापस लौट रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अब मुझे कहीं कुछ नहीं मिलने वाला।
हमें छोटी- छोटी जरूरतों के लिए घर में हाथ फैलाना पड़ता है। कब तक ऐसे चलेगा। अब मैं कोई बच्चा तो नहीं। अब तो माँगने में और भी शर्म महसूस होगी। मैं सोचता हुआ चल रहा था। अचानक रास्ते में पड़े एक छोटे से पत्थर से पैर टकरा गया और मैं गिरते- गिरते बचा। मेरे मुँह से अनायास निकल गया हे गुरुदेव! मेरी आँखों में आँसू आ गए। अपने आप को शांत करने के लिए मैं मानसिक जप शुरू किया।
मन कुछ स्थिर हुआ ही था कि आवाज आई ‘ओ पहलवान इधर आ’। मैंने चौंककर इधर- उधर देखा बिष्टुपुर थाना के दरोगा आर.बी.बी.सिंह थाना कार्यालय के पास, पीपल के पेड़ के नीचे कुर्सी लगाकर बैठे थे और मुझे ही घूर रहे थे। उन्होंने फिर आवाज दी ‘तुझे ही बुला रहा हूँ, इधर आ’। मैंने क्या किया है! ये मुझे क्यों बुला रहे हैं? कुछ सोच नहीं पाया। फिर मन ने सुझाया- मैं तो गायत्री साधना करता हूँ। मेरा कोई क्या बिगाड़ेगा। मैं क्यों डरूँ, मानसिक जप करता हुआ मैं पास गया।
उन्होंने पूछा- तुम इंस्पेक्टर कुमार के भाई हो? मैंने हामी भरी। फिर प्रश्न हुआ नौकरी करोगे? अचानक गुरुदेव का मुखमण्डल आँखों के आगे आ गया। देखा मुस्कराते हुए मेरी ओर देख रहे हैं। जैसे कह रहे हों खिन्न क्यों होते हो, तुम्हें भी मिल जाएगी नौकरी। मैंने आँखों ही आँखों उन्हें प्रणाम किया। फिर दरोगा जी को अपनी सम्मति बताई। उन्होंने तुरंत काइजर कम्पनी के डायरेक्टर कैप्टन बालको को फोन मिलाया और बोले, मेरा भाई तीन महीने से खाली बैठा है। उसको खिलाने की व्यवस्था आप कीजिए या कम्पनी में भर्ती कर लीजिए। उधर से आवाज आई एक हफ्ते के बाद भेज दें। उन्होंने कहा- एक सप्ताह बाद नहीं, मैं अभी लेकर आ रहा हूँ।
उन्होंने मुझे अपनी मोटर साइकिल पर बैठाया और सीधे जाकर वर्मा माइन्स मेन गेट के सामने रुके। अन्दर जाते ही एक व्यक्ति ने पत्र देकर मुझे शीट मेटल शाप में भेज दिया। वहाँ नाम की एन्ट्री हुई। आरंभिक वेतन ५०० रुपये प्रतिमाह तय हुआ। दारोगा का भाई होने के कारण नित्य ८ घण्टे ओवर टाइम भी मिलने लगा।
उस दिन वापस लौटते समय मन बल्लियों उछल रहा था। गुरुदेव अवश्य ही अन्तर्यामी हैं। मन की रुदन को उन्होंने कैसे तुरन्त पहचान लिया और समाधान भी तुरन्त प्रस्तुत कर दिए।
प्रस्तुति :- प्रभाशंकर कुमार
टाटानगर (झारखण्ड)
इण्टर का अभी एक ही वर्ष पूरा हुआ था कि मेरे चचेरे भाई की नौकरी केबल कम्पनी, जमशेदपुर में लग गई। भाई की नौकरी लगने से घर में सभी खुश थे, मैं भी खुश था। लेकिन मुझे बार- बार यह बात कचोटती रहती कि मैं बड़ा हूँ और अब तक कुछ नही कर सका। घर में सभी उसकी इज्जत करते। मुझे लगता अगर मुझे भी नौकरी मिल गई होती, तो इसी तरह मेरी भी इज्जत होती। भाई को टाटानगर में ज्वाइन करने जाना था। उसे पहुँचाने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। नई नौकरी थी। उसके लिए नए कपड़े सिलवाए गए थे, जिसे पहनकर वह बड़ा स्मार्ट दिख रहा था। मैं बार- बार उसे देख रहा था। भाई को लेकर मैं जमशेदपुर पहुँचा। अगले दिन उसने ज्वाइन भी कर लिया। मैं ही साथ लेकर गया था। उसे छोड़ खिन्न मन से मैं वापस लौट रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अब मुझे कहीं कुछ नहीं मिलने वाला।
हमें छोटी- छोटी जरूरतों के लिए घर में हाथ फैलाना पड़ता है। कब तक ऐसे चलेगा। अब मैं कोई बच्चा तो नहीं। अब तो माँगने में और भी शर्म महसूस होगी। मैं सोचता हुआ चल रहा था। अचानक रास्ते में पड़े एक छोटे से पत्थर से पैर टकरा गया और मैं गिरते- गिरते बचा। मेरे मुँह से अनायास निकल गया हे गुरुदेव! मेरी आँखों में आँसू आ गए। अपने आप को शांत करने के लिए मैं मानसिक जप शुरू किया।
मन कुछ स्थिर हुआ ही था कि आवाज आई ‘ओ पहलवान इधर आ’। मैंने चौंककर इधर- उधर देखा बिष्टुपुर थाना के दरोगा आर.बी.बी.सिंह थाना कार्यालय के पास, पीपल के पेड़ के नीचे कुर्सी लगाकर बैठे थे और मुझे ही घूर रहे थे। उन्होंने फिर आवाज दी ‘तुझे ही बुला रहा हूँ, इधर आ’। मैंने क्या किया है! ये मुझे क्यों बुला रहे हैं? कुछ सोच नहीं पाया। फिर मन ने सुझाया- मैं तो गायत्री साधना करता हूँ। मेरा कोई क्या बिगाड़ेगा। मैं क्यों डरूँ, मानसिक जप करता हुआ मैं पास गया।
उन्होंने पूछा- तुम इंस्पेक्टर कुमार के भाई हो? मैंने हामी भरी। फिर प्रश्न हुआ नौकरी करोगे? अचानक गुरुदेव का मुखमण्डल आँखों के आगे आ गया। देखा मुस्कराते हुए मेरी ओर देख रहे हैं। जैसे कह रहे हों खिन्न क्यों होते हो, तुम्हें भी मिल जाएगी नौकरी। मैंने आँखों ही आँखों उन्हें प्रणाम किया। फिर दरोगा जी को अपनी सम्मति बताई। उन्होंने तुरंत काइजर कम्पनी के डायरेक्टर कैप्टन बालको को फोन मिलाया और बोले, मेरा भाई तीन महीने से खाली बैठा है। उसको खिलाने की व्यवस्था आप कीजिए या कम्पनी में भर्ती कर लीजिए। उधर से आवाज आई एक हफ्ते के बाद भेज दें। उन्होंने कहा- एक सप्ताह बाद नहीं, मैं अभी लेकर आ रहा हूँ।
उन्होंने मुझे अपनी मोटर साइकिल पर बैठाया और सीधे जाकर वर्मा माइन्स मेन गेट के सामने रुके। अन्दर जाते ही एक व्यक्ति ने पत्र देकर मुझे शीट मेटल शाप में भेज दिया। वहाँ नाम की एन्ट्री हुई। आरंभिक वेतन ५०० रुपये प्रतिमाह तय हुआ। दारोगा का भाई होने के कारण नित्य ८ घण्टे ओवर टाइम भी मिलने लगा।
उस दिन वापस लौटते समय मन बल्लियों उछल रहा था। गुरुदेव अवश्य ही अन्तर्यामी हैं। मन की रुदन को उन्होंने कैसे तुरन्त पहचान लिया और समाधान भी तुरन्त प्रस्तुत कर दिए।
प्रस्तुति :- प्रभाशंकर कुमार
टाटानगर (झारखण्ड)