Books - चेतना की प्रचण्ड क्षमता-एक दर्शन
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Language: HINDI
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देव-मन्दिर के देवता और परमात्मा
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‘‘स्वर्गादि उच्च लोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, जल आदि की उत्पत्ति हो चुकी तब परमात्मा ने लोकपालों की रचना का विचार किया। इस रचना का विचार आते ही उन्होंने सर्वप्रथम प्रकाश अणु पैदा किये। यह अणु अण्डाकार थे और उसमें पुरुष के लक्षण थे, फिर उस अंड में परमात्मा ने छेद किया जो मुख बना मुख से वाणी, वाणी से अग्नि उत्पन्न हुई। इसके बाद दो छेद किये जो नासिका कहलाये। उससे प्राण की उत्पत्ति हुई, प्राणों से वायु और नेत्रों के छिद्र बने। उनमें सुनने की शक्ति उत्पन्न हुई, श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा दिशायें प्रकटीं, फिर त्वचा उत्पन्न हुई। त्वचा से रोम, रोम से औषधियां, फिर हृदय, हृदय से मन और मन से चन्द्रमा प्रकट हुआ। फिर नाभि बनी, नाभि से अपान देवता उस से मृत्यु देवता प्रकट हुये। फिर उपस्थ, उपस्थ से रेत, रेत से जल की उत्पत्ति हुई।’’
‘‘इस प्रकार उत्पन्न हुये देवतागण अभी तक अपने सूक्ष्म रूप में थे। परमात्मा ने उनमें भूख और प्यास की अनुभूति भी उत्पन्न कर दी थी किन्तु वे संसार-समुद्र में निराश्रय पड़े थे, उन्हें रहने के लिये योग्य स्थान का अभाव खटक रहा था। उसके लिये उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की तब परमात्मा ने उन्हें गाय का शरीर दिखाया। उस शरीर को देवताओं ने पसन्द नहीं किया। तब फिर उन्हें घोड़े का शरीर दिखाया वह भी उन्हें अच्छा नहीं लगा। बहुत से शरीर विधाता ने देवताओं को दिखाये पर वे उन्हें पसन्द न आये तब उसने मनुष्य शरीर दिखाया। यह देवताओं को पसन्द आ गया। अग्नि उसमें वाणी बन कर घुस गया, वायु प्राण बनकर नासिका में, सूर्य चक्षु बनकर नेत्र गोलकों में प्रविष्ट हुआ, दिशायें क्षेत्र बन कर कानों में घुसीं औषधि रोम बन कर त्वचा में पहुंची, चन्द्रमा मन बन कर हृदय में स्थिति हुआ, मृत्यु अपान बन कर नाभि में जल (रेत) बनकर उपस्थ में स्थिति हो गया।’’
‘‘शरीर की यहां तक की रचना में पूरी तरह प्रकृति का ही आधिपत्य था देवताओं की प्रतिष्ठा होने के कारण शरीर देवमंदिर तो बन गया पर उसमें निवास करने वाली मूर्तियां—देवशक्तियां एक नहीं अनेक थीं सब की अपनी-अपनी आकांक्षाएं, अपनी-अपनी वासनायें थीं। भगवान् ने विचार किया। यदि इन सभी देवताओं ने केवल अपनी वासनायें तृप्त करनी चाहीं तब तो यह शरीर एक भी दिन न चल सकेगा। देवतागण उसे नष्ट कर डालेंगे। फिर इनके लिये मेरा भी तो कुछ अस्तित्व होना चाहिये, अन्यथा वे मुझे कैसे जानेंगे? इस विचार के आते ही उसने मनुष्य शरीर की मूर्धा (शरीर का वह भाग जहां से दाहिने बायें भाग बराबर-बराबर विभक्त होते हैं चोटी वाले स्थान से लेकर यह भाग नीचे चूतड़ों तक के सीबन वाले भाग तक चला जाता है) से प्रवेश किया। अब मनुष्य ने देखा कि मुझ में पंच भौतिक प्रकृति के अतिरिक्त यह बुद्धि रूप में कौन आ गया—तब उसने परमात्मा को पहचाना और उनके दर्शन पाकर स्वर्गीय सुख में विभोर हो गया।’’
ऐतरेय उपनिषद्, की इस आख्यायिका में जहां सृष्टि के विकास का सूक्ष्म विज्ञान भरा पड़ा है, वहां ईश्वर दर्शन का महत्वपूर्ण तत्वदर्शन भी। सामान्य दृष्टि से देखने पर इन्द्रियां ही मनुष्य शरीर में सक्रिय दिखाई देती हैं इसलिये अज्ञान-ग्रस्त लोग दिनरात उन्हीं की तृप्ति में जुटे रह कर मनुष्य देह रूपी मन्दिर को भग्न और गन्दा किया करते हैं। देवताओं को स्थूल पूजा मिलती चाहिये पर यदि देवताओं की संतुष्टि ही एक मात्र शरीर का उद्देश्य रह जायेगा तो उस परमात्मा की प्राप्ति के आनन्द का क्या होगा जो इन सभी शक्तियों को भी उत्पन्न करने वाला आनन्द और सृष्टि का मूल है। सारी परिपूर्णतायें तो एक मात्र ब्रह्म में ही हैं उसे प्राप्त किये बिना आत्मिक सुख कहां?
परमात्मा को कैसे प्राप्त किया जाये? यह संसार के सामने एक जटिल और गम्भीर प्रश्न है? ऐतरेय उपनिषद् इस प्रश्न की हलकी दिशा में एक महत्वपूर्ण शोध है इसमें तथ्यों को बड़े सरल ढंग से समझाया गया है, यह बताया गया है कि इंद्रियों की वासनायें मनुष्य की आवश्यकतायें नहीं वरन् देव शक्तियों की आकांक्षायें होती हैं मनुष्य तो बुद्धि-ज्ञान और चेतना को कहते हैं। बुद्धि परमात्मा की प्रतिनिधि है अर्थात् मनुष्य देव शक्तियों से ऊपर की सत्ता है। उसे इन्द्रियों का स्वामी बन कर देव शक्तियों का लाभ उठाना चाहिये और अपनी बौद्धिक एवं आत्मिक क्षमताओं का विकास करके विराट ब्रह्म को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यही परम पुरुषार्थ है और यही है योग। जो अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन गया उसे अपने लघु रूप को विराट् ब्रह्म में परिवर्तित करते देर न लगेगी।
अभी तक यह ज्ञान केवल शास्त्रों तक सीमित था। शास्त्रीय व्याख्याओं से विश्वास उठ जाने के कारण इस तरह के विवेचनों के प्रति अश्रद्धालु होना और इस तरह जीवन-विकास के मूल-ज्ञान से वंचित रह जाना स्वाभाविक ही था। इसे अपना दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि हमारे देशवासी स्वयं इस महत्तम विज्ञान को भूल गये जिसका प्रतिपादन आज भौतिक-विज्ञान भी करता है।
शरीर विज्ञान मानता है कि मनुष्य का मस्तिष्क इन्द्रियों की सामर्थ्य से बड़ा और उनका स्वामी है, अतएव इन्द्रियों को नहीं महत्व बौद्धिक शक्तियों को देना चाहिए। इस दृष्टि से मस्तिष्क की बारह नसों और सात शून्य स्थानों (सात-लोक) की शोध एक विशिष्ट महत्व रखती है। यह नसें मस्तिष्क के निचले वाले धरातल से निकलती हैं और शरीर के सभी तन्मात्रा अवयवों तक चली जाती हैं।
(1) आलफैक्ट्री नस का सम्बन्ध नासिका नली से है जिससे मस्तिष्क सूंघने की अनुभूति करता है। (2) आप्टिक नस-नेत्र गोलकों तक चली जाती हैं और वही मस्तिष्क को सामने वाली वस्तुओं का ज्ञान कराती है। (3) आकुलो मोटर का सम्बन्ध भी आंखों से है इससे पुतलियों को गति मिलती है। (4) ट्राक्लियर-नेत्र की मांसपेशियों को जोड़ने वाली नस है (5) ट्राय जोव्हिनल मुख के निचले जबड़े एवं जीभ की मांस-पेशियों से सम्बन्ध जोड़ती है और स्वाद आदि की अनुभूति में सहायक होती है। (6) अब्डूऐट आंख को भीतर की ओर खींचे रहती है। (7) फेशियल मुख की मांस पेशियों को। (8) आडिटरी-कानों में। (9) ग्लासोफेरिब्जयल-स्वर ध्वनि यन्त्र लेरिंग्स) जीभ, पेट और जिगर को मस्तिष्क के उस चमत्कारी अवचेतन अंश से जोड़ते हैं। (10) स्पाइनल अऐसरी गले को जाती है। (11) वेगस स्वर ध्वनि यन्त्रों का फेफड़ों से सम्बन्ध जोड़ती है और 12वीं हाइपोग्लोसल जीभ की मांस-पेशियों को इसके अतिरिक्त सुषुम्ना शीर्षक जो कि लगभग सम्पूर्ण मेरुदण्ड है। मस्तिष्क का सम्बन्ध सीधे प्रजनन केन्द्रों से जोड़ती है। आधुनिक शरीर वैज्ञानिकों का ज्ञान अधिकांश शरीर के स्थूल अवयवों तक सीमित है। चेतना की आन्तरिक अनुभूतियों का ज्ञान वे नहीं कर सके इसलिये जीवात्मा के दार्शनिक पक्ष को इनमें से कोई भी प्रमाणित करने में आज तक सफल नहीं हुआ है। यही नहीं इन नसों में कई ऐसी हैं जिनके यथार्थ उद्देश्य की ही इन वैज्ञानिकों को जानकारी नहीं है उदाहरणार्थ अकुलोमोटर का सम्बन्ध मस्तिष्क से त्रिकुटी मध्य के उस भाग से हैं जहां ज्योतिर्लिंग के दर्शन होते हैं पर शरीर रचना शास्त्री उसे केवल दोनों पुतलियों से सम्बन्धित मानते हैं। स्पाइनल एसेसटी नाभिस्थित सूर्य चक्र (सोलर फ्लैक्सस) से सम्बन्धित है और योग विद्या में उसका अपना विशिष्ट महत्व है पर उसे भी शरीर-रचना शास्त्री नहीं जानते यहां तक कि नाभि जैसे महत्वपूर्ण संस्थान का जिससे कि गर्भावस्था में सारे शरीर को पोषण मिलता है, वैज्ञानिक कुछ भी नहीं जानते हैं। तो भी यह कम महत्वपूर्ण नहीं कि उन्होंने इन जानकारियों के आधार पर इतना तो सिद्ध कर ही दिया कि मस्तिष्क ही सम्पूर्ण इन्द्रियों का अधिष्ठान है। यदि मस्तिष्क नहीं रहता तो इन सभी इन्द्रियों को चेतना अपना कारोबार समेट कर उसे नष्ट कर देने में ही जुट जाती और अपनी समस्त सूक्ष्म तन्मात्राओं को मस्तिष्क में ही केन्द्रित कर देती, यही मस्तिष्कीय चेतना इन्द्रिय सूक्ष्म तन्मात्रायें लेकर मृत्यु काल में शरीर से विदा होकर फिर दूसरी योनियों की तलाश में चली जाती और यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक मस्तिष्कीय द्रव्य प्रकृति के अज्ञान आवरण और इन्द्रियों की लिप्साओं को स्वच्छ नहीं कर लेता। यजुर्वेद में इसी तथ्य को दोहराते हुए ऋषि ने लिखा है—
यस्ण प्रयाण मन्वन्य इवयुर्देवा देवस्य महिमान मोजसा । यः पार्थिवानि विममे स एयशो रजाँ-सि देवः सविता महित्वना । यजुर्वेद 11।6
अर्थात्—दूसरे सभी देवता (इन्द्रियां) जिस देवता (जीवात्मा) के आधीन गति करती हैं जब जीवात्मा शरीर त्याग देता है तो उसी के आधीन चली जाती हैं। जिस देवता (जीवात्मा) की यह ओजस-शक्तियां उन्हीं के अनुरूप बन जाती हैं यह श्रेष्ठ योनियों को प्राप्त होकर मुक्ति का स्वामी बनता है अन्यथा निम्नगामी योनियों में चला जाता है। इस प्रकार जीवात्मा के बड़प्पन के लिये प्राप्त हुई, इन्द्रियां ही उसे दुर्गति में ले जाने वाली अथवा मुक्ति में सहायक होती है।
इन्द्रियां स्ववश नहीं होतीं यह कहना गलत है ऐसा कहने की अपेक्षा यह कहना चाहिये कि हमने अपने अपने मानसिक संस्थान को प्रखर नहीं बनाया। मनुष्य के मस्तिष्क की शक्ति अपार है हम उसका जागरण कर पायें तो सचमुच ही ब्रह्म की सारी शक्तियों की अनुभूति शरीर में ही कर सकते हैं। साधारण अभ्यास से ही मस्तिष्क की शक्तियों का विकास होता देखा गया है, योग-प्रक्रिया तो उससे कहीं लाखों गुना उच्चस्तरीय विज्ञान है। ओहियो यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के एक परीक्षण में अभ्यास से विद्यार्थियों में एक मिनट में 230 शब्दों से बढ़कर 500 शब्द प्रतिमिनट पढ़ने की क्षमता का विकास हुआ। अमरीकी प्रेसीडेन्ट रूजवेल्ट का सेक्रेटरी जेम्स ए. फेचरली ने अपनी याददाश्त का इतना विकास किया था कि वह 20000 व्यक्तियों से परिचित था और सब के बारे में सैकड़ों बातें जानता था। जर्मन मैथमैटीशियन जकेरियस से एक बार एक प्रदर्शन में पूछा गया 2—2 का 100 बार गुणा करने से कितना गुणनफल आयेगा तो उसका उत्तर उसने प्रश्नकर्त्ता का वाक्य पूरा होते ही दे दिया मानो उसके मस्तिष्क में वह सब कुछ पहले से लिखा था। वैज्ञानिक मानते हैं कि हम सारे जीवन में मस्तिष्क के कुल 17 प्रतिशत भाग से काम लेते हैं शेष 83 प्रतिशत के बारे में वैज्ञानिक तक कुछ नहीं जानते।
रीडर डाइजेस्ट में ‘‘आपके मस्तिष्क की सीमा क्या है’’ (ह्वाट इज दि लिमिट आफ योर माइंड) शीर्षक से अर्डिस हिटमैन ने एक लेख छापा था उसमें उन्होंने लिखा है कि सारे संसार में जितनी भी विद्युत और विद्युत उपकरणों की सामर्थ्य है, उसे पूरी तरह इकट्ठा करके तराजू के एक पलड़े पर रख दिया जाये और दूसरी तरफ मस्तिष्क का 3 पिन्ट (एक पिन्ट डेढ़ पाव के बराबर होता है) ग्रे मैटर (मस्तिष्क का भीतरी भाग) रखकर तौला जाये तो ग्रे मैटर की शक्ति कहीं अधिक होगी।
यह केवल सैद्धान्तिक कथा मात्र नहीं है इस पर प्रयोग हुये हैं और प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि मस्तिष्क के इस भूरे द्रव्य (ग्रे मैटर) में वह सारे गुण विद्यमान हैं जो परमात्मा में होने की कल्पना की जाती है। ईश्वर के बारे में मान्यता है कि वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वदृष्टा, अजर-अमर सनातन आदि है। पूर्ण विकसित, मस्तिष्क में वह सारे लक्षण हो सकते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह भी स्पष्ट हो गया है इन चमत्कारों पर मैगिल यूनिवर्सिटी मन्ट्रियल में डा. विल्डर पेनफील्ड के निर्देशन में खोज चल रही है। उनकी खोजें आज नहीं तो कल पूर्ण रूप से भारतीय दर्शन को प्रमाणित करेंगी।
यह प्रयोग मस्तिष्क के चमत्कारी केन्द्रों की विद्युतशक्ति बढ़ाकर किये गये हैं। एक रोगी को इलेक्ट्रोड के द्वारा मस्तिष्क के दृश्य भाग को स्पर्श कराया गया तो उसने बताया कि मैं सारे आकाश को देख रहा हूं बड़े-बड़े तारागण घूम रहे हैं कितने ही उल्कापात हो रहे हैं, आकाश की यह भयंकर हलचल देखते ही वह भयभीत हो उठा। शायद उसकी स्थिति गीता में भगवान् के विराट् रूप देखने वाले अर्जुन की-सी हो गई हो। इसके बाद उसके श्रवण केन्द्र की शक्ति बढ़ाई गई तो उसने अजीब ध्वनियां सुनी और यह सिद्ध कर दिया कि हम जो ध्वनियां अपने आस-पास सुना करते हैं वहीं नहीं सृष्टि के अन्तराल में ग्रह नक्षत्रों के परिभ्रमण आदि की आकाश गंगाओं के विस्फोट आदि की भी भयंकर ध्वनियां सुनाई दे रही हैं। इसके बाद एक और आश्चर्यजनक स्थान में इलेक्ट्रोड स्पर्श कराया गया तो रोगी एकाएक हंस पड़ा और बोला—अरे यह तो मेरी मां का कमरा है, वह पियानो रखा है, मेरी मां इधर ही आ रही है वह कोई कपड़ा निकाल कर पहन रही है। कपड़े का यह रंग है वह अब नौकर को बुलाकर कार निकालने को कह रही है। पीछे फोन करके उसके घर वालों से पूछा गया तो सारी घटना ठीक वैसी ही थी जैसी रोगी ने बताई थी। इन प्रयोगों में वर्षों पूर्व के दृश्य और शब्द मस्तिष्क में ज्यों के त्यों सुने गये हैं।
यह खोजें इस बात की प्रमाण हैं कि बुद्धि और मस्तिष्क सचमुच ही ईश्वरीय चेतना के प्रतिनिधि हैं। हम उस शक्ति को तुच्छ इन्द्रिय सुखों में खर्च न करके केवल मस्तिष्क को ही प्रखर बनाने में जुट जायें तो अपने आप में ब्रह्म की अनुभूति कर लेना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऋषियों की अलौकिक शोध आज भी उतना ही आनन्द, वही उपलब्धियां दे सकती हैं, पर यह तभी संभव है जब लोग इन्द्रियों के गुलाम नहीं स्वामी बनकर उस शक्ति का क्षय रोकें जो मस्तिष्क को वैसे ही प्रखर बनाकर विराट् की अनुभूति कराती हैं जैसे बिल्डर पेनफील्ड-इलेक्ट्रोड से अतिरिक्त विद्युत शक्ति देकर क्षणिक अनुभूति कराते हैं।
बुद्धि और मस्तिष्क तो शरीर संस्थान का एक छोटा अंग अवयव मात्र है। इसके अलावा हमारे शरीर में जो दूसरी इकाइयां हैं वे कम विलक्षण और अद्भुत नहीं हैं। बाहर से दिखाई देने पर कोई अंग भले ही कितना भी साधारण लगे परन्तु उसका महत्व और कार्य अपने आप में इतना मूल्यवान तथा विलक्षण है कि उसकी तुलना अन्य किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती।
उदाहरण के लिए त्वचा को ही लें। त्वचा यों बाहर से देखने में आवरणमात्र लगती है। पर गहराई से देखने में उसका कण-कण विशेषताओं से भरा है। शरीर शास्त्री उसे काया का संरक्षक आवरण मानते हैं। सौन्दर्य शास्त्री उसी के आधार पर रंग रूप का लेखा-जोखा लेते हैं। पर आत्मवेत्ताओं की दृष्टि में वह सबसे प्रबल और सबसे विस्तृत इन्द्रिय है। आंख, कान, नाक आदि तो सीमित स्थान ही घेरे हैं, पर त्वचा ने सारा शरीर ही आच्छादित कर रखा है। उसका शासन विस्तार एवं क्रिया कलाप सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करता है।
जननेन्द्रिय की गणना पृथक इन्द्रिय में न करके उसे स्पर्शेन्द्रिय के रूप में त्वचा परिधि में ही गिना गया है। कारण कि इसी की संवेदनशीलता जननेन्द्रिय में एक विशेष स्पर्श संवेदन उत्पन्न करती है। कोमलता का आनन्द त्वचा ही लेती और देती है। स्नेह स्वजनों का स्पर्श चुम्बन आलिंगन त्वचा के माध्यम से होता है। उसकी संवेदनशीलता ही स्पर्श में अन्तःकरण को गुदगुदा देती है। भाव विभोर स्थिति में बिछड़े हुए प्रियपात्र को अथवा सफल स्वजन को हर्षातिरेक में छाती से लगाये बिना चैन नहीं पड़ता। बालक और अभिभावकों को गोदी में लेना केवल शारीरिक कारणों से ही सुखद नहीं होता वरन् उस स्पर्श सुख में आन्तरिक आनन्द की चेतनात्मक अनुभूति भी जुड़ी होती है। त्वचा इन्द्रिय हमारे भाव संस्थान को कम प्रभावित नहीं करती। इसलिए उसे अवांछनीय स्पर्श से बचाया जाता है और वांछनीय स्पर्श के लिए प्रयत्न पूर्वक सचेष्ट रहा जाता है।
भारतीय संस्कृति में छूत-छात के तत्व मौजूद हैं। आज तो वह जाति-पांति के आधार पर उलट गया पर प्राचीन काल में यह सिद्धान्त वांछनीयता और अवांछनीयता की दृष्ट से प्रयुक्त होता था। दुष्ट, दुराचारियों को अस्पर्श मानने का तात्पर्य था उनकी दुष्ट प्रकृति के साथ जुड़ी हुई सम्वेदना के आक्रमण से अपने को बचाना। गुरुजनों के चरण-स्पर्श करने उनके पैर दबाने की प्रक्रिया मात्र सम्मान सूचक ही नहीं वरन् इसमें उनकी महानता को अपने हाथों के माध्यम से ग्रहण करना भी है। शिष्य, पुत्र आदि अपने गुरुजनों के अक्सर पैर छूते या पैर दबाते हैं। उसमें थकान मिटाना कारण नहीं वरन् जिस तरह गाय का दूध दुहा जाता है उस तरह उसके शक्ति प्रवाह को लेकर अपने अन्दर भरना ही प्रमुख लाभ है।
साधारणतया इतना ही समझा जाता है कि धूप वर्षा से बचाव करने के लिये जिस तरह छाता लगाया जाता है उसी तरह त्वचा भी बाहरी ऋतु प्रभावों से लेकर विकरण विभावों तक को रोकती है, अपने ऊपर सहन करती है। वह एक सुसज्जित वस्त्र की तरह है। जो आन्तरिक अवयवों को ढकने के अतिरिक्त बाहर की शोभा सुसज्जा भी रखता है। ईश्वर के दिये हुए इस परिधान से बढ़ कर मनुष्य कृत कोई पोशाक हो ही नहीं सकती।
जहां तक सौन्दर्य का प्रश्न है—उसे त्वचा का सौन्दर्य ही कहना चाहिए। वस्त्र कितने ही कीमती और आकर्षक क्यों न हों वे तभी शोभा पाते हैं जब हाथ-पैर, मुख आदि अंगों के नग्न प्रदर्शन में अवरोध उत्पन्न करें। नारी अंगों को तो चित्रकार से लेकर मूर्तिकार तक यथासम्भव निर्वस्त्र रखने का प्रयत्न करते हैं। सिनेमा और नृत्यों में सबसे बड़ा आकर्षण त्वचा का अधिकाधिक भाग निर्वस्त्र देखने का होता है। मनुष्य स्वभाव में यह जुगुप्सा इतनी अधिक बढ़ी है कि अमर्यादित नग्नता को अश्लीलता के प्रतिबन्धों से जकड़ कर उसे कानून द्वारा अवांछनीय घोषित करना पड़ा। निस्सन्देह त्वचा के दर्पण से ही मनुष्य का सौन्दर्य मुखरित होता है।
त्वचा की सामर्थ्य और महत्व
वस्त्रों से लादकर उसे दुर्बल बना दिया जाय यह बात दूसरी है अन्यथा वह शीत ताप से प्राणी की रक्षा करने में पूर्णतया समर्थ है। इस धरती के सभी जीव जन्तु, जलचर, थलचर, नभचर इसी पोशाक के बलबूते अपनी जिन्दगी मजे में काट लेते हैं। उन्हें अतिरिक्त वस्त्र पहनने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आदिम मनुष्य भी नंगे ही रहते थे। सभ्यता की बात चली तो नर-नारी जननेन्द्रिय ढकने तक की आवश्यकता अनुभव करने लगे। अभी भी वन्य प्रदेशों के निवासी न्यूनतम वस्त्र पहनते हैं, त्वचा ही उनके शरीर को ऋतु प्रभाव से बचाती है। कितने ही सन्त, तपस्वी भी नंगे रहते हैं। बहुत हुआ तो मिट्टी या राख की एक परत और ऊपर से मल लेते हैं इस दुहरे आवरण से वे और भी आसानी से ऋतु प्रभाव सहन कर लेते हैं।
चेहरे को सदा खुला ही रखा जाता है। हाथ-पैरों में तो मोजे भी पहन लिये जाते हैं पर नाक, मुंह, आंख, गाल आदि पर तो कोई मोजे भी नहीं पहने जाते। वहां की त्वचा खुली रहने की अभ्यस्त रहने से शीत-ताप आदि की शिकायत नहीं करती—न वस्त्रों की मांग करती है न ऋतु प्रभाव से प्रभावित होती है, अभ्यस्त त्वचा शरीर का संरक्षण कर सकने में पूरी तरह समर्थ है। वस्त्रों ने उसका कुछ उपकार नहीं किया वरन् दुर्बल और परावलम्बी ही बनाया है।
शरीर पर चमड़ी का क्षेत्रफल लगभग 250 वर्ग फुट होता है। वजन 6 पौण्ड। सबसे पतली वह पलकों पर होती है 0.5 मिली मीटर। पैर के तलवों में सबसे मोटी होती है 6.00 मिली मीटर। साधारणतया उसकी मोटाई 0.3 से लेकर 300 मिली मीटर की होती है। उसमें बारीक-बारीक अगणित छेद होते हैं जो खुर्दबीन की सहायता से देखे जा सकते हैं। औसतन इन छेदों से दिन-रात में 10 छटांक पसीना बाहर निकलता है। गर्मी पड़ने पर या अधिक परिश्रम करने पर जब शरीर का इंजन गरम हो उठता है तो उसे ठण्डा करने के लिए स्वेद ग्रन्थियां तेजी से पसीना बाहर निकालती हैं और बदन ठण्डा कर देती हैं। पर सर्दियों में शरीर को गरम रखने की जरूरत पड़ती है इसलिए वे छेद सिकुड़ जाते हैं। भीतर की गर्मी रुकी रहती है और ठण्ड से बचाव हो जाता है। इस तरह त्वचा की संरचना शरीर को ‘‘एयर कंडीशन’’ बनाये रहती है।
त्वचा छिद्र पसीना ही नहीं निकालते वे एक प्रकार से सांस भी लेते रहते हैं। वाष्प की तरह कुछ चीजें बाहर निकलती रहती हैं और जरूरत की चीजें भीतर घुसती रहती हैं। इस तरह छोटे छेद एक प्रकार से नाक के छोटे बड़े छेदों का भी काम करते हैं। यदि यह छेद सर्वथा बन्द हो जायें तो आदमी घुटकर मर जायगा। पुराने जमाने में अपराधी को मौत की सजा देने का एक तरीका यह भी था कि उसके शरीर पर मोम पोत दिया जाय, हाथ बंधे होने से वह उसे हटा नहीं सकता था और त्वचा का श्वास बन्द हो जाने पर घुट-घुटकर मर जाता था। एकबार एक लड़के के शरीर पर सीरा पोत कर रुई चिपकाई गई और लंगूर का स्वांग बनाया गया। त्वचा छिद्र बन्द हो जाने से लड़का थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया और अस्पताल पहुंचते-पहुंचते मर गया। जो लोग स्नान की उपयोगिता नहीं समझते। चिन्ह पूजा का स्नान करते हैं। चमड़ी पर मैल की परतें जमने देते हैं उन्हें जानना चाहिए कि यह गन्दी आदत स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही अहितकर है।
सांप की केंचुली सबने देखी है। मनुष्य की त्वचा भी केंचुली बदलती है पर उसका क्रम बहुत हलका और धीमा होने से दिखाई नहीं पड़ता। किसी बीमार के बहुत दिन तक चारपाई पर पड़े रहने के बाद उसकी चमड़ी पर से भूसी उतरती देखी जाती है। शिर में भी अक्सर भूसी जमती रहती है। शरीर को रगड़ने पर मैल की तरह से भी केंचुली के अंश रहते हैं। हमें दिखाई भले ही न दें पर चमड़ी की कोशाएं मरती रहती हैं और उनका स्थान नई ग्रहण करती रहती हैं। इस प्रकार केंचुली बदलने का क्रम चलता रहता है। सांप ही नहीं मनुष्य भी केंचुली बदलता है।
त्वचा के भीतर बिखरे हुए ज्ञान तन्तुओं की लम्बाई 45 मील कूती गई है। यह शरीर को स्पर्श होने वाले अनुभवों को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के तन्तु भी हैं जो दृश्य, गन्ध, ध्वनि, दबाव, स्वाद सर्दी-गर्मी की अनुभूतियां नाक, कान, आंख, जीभ आदि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से विशिष्ट प्रकार की अनुभूतियां कराने में योगदान करते हैं।
त्वचा में एक विशेष तेल रहता है जो ‘‘कोरियम’’ कहलाता है। शरीर पर इसी चिकनाई की चमक रहने से सौन्दर्य बढ़ता है और तेजस्विता झलकती है। इसी प्रकार त्वचा की रंजक कोशिकाएं ‘मेलानिक’ नामक रंग उत्पन्न करती हैं। इन्हीं के कारण गोरा, काला, गेहुंआ, पीला आदि रंग मनुष्य का होता है।
चोट लग जाने पर क्षत स्थल की पूर्ति करने के लिए समीपवर्ती पड़ौसी पदार्थ दौड़ पड़ते हैं और वह घाव जल्दी भर देते हैं। योगसाधना के षटचक्रों की तरह त्वचा की छह परतें हैं (1) स्ट्रेटम कोर्नियम—सबसे ऊपर की (2) स्ट्रेटन ल्यूसीडम—पारदर्शी (3) स्ट्रेटम—ग्रैन्यू—लोसम मूर्छित (4) स्ट्रेटम एस्यूलीटम—अपेक्षाकृत मोटी परत (5) स्ट्रेटम वेसेल—क्षति पूरक (6) कोरियम या डर्मिस सहायक। हाथ पैरों के पोरुवे, हथेली तलवे आदि पर जहां—तहां जो मोटी गद्दी-सी पाई जाती है उसे पोपिली—कहते हैं। त्वचा परतों में कितनी वस्तुएं विद्यमान हैं। (1) केशग्रन्थि, (2) स्वेद ग्रन्थि, (3) तैल ग्रन्थि (4) वाह्य त्वचा, अन्तःत्वचा (5) स्नायु, (6) मज्जाकोष (7) रक्त नलियां इनमें से मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त अधिक गहराई से जानने पर उनमें और भी बहुत कुछ मिलेगा।
यह त्वचा सम्बन्धी शारीरिक जानकारी हुई। चेतनात्मक परिचय यह है कि वाह्य वस्तुओं को स्पर्श करके मस्तिष्क तक उसकी जानकारी पहुंचाने का अति महत्वपूर्ण कार्य त्वचा का ही है। संसार में व्यक्ति का सम्बन्ध बनाने—वस्तुओं को शरीर के साथ जोड़ने मिलाने का कार्य उसी के द्वारा सम्पन्न होता है। अतएव उसे अन्य समस्त इन्द्रियों से अधिक व्यापक और समर्थ बनाया गया है। त्वचा में इतनी अद्भुत शक्तियां भरी पड़ी हैं कि यदि उन्हें विकसित कर लिया जाय तो वह अन्य समस्त ग्रन्थियों का काम कर सकती हैं। त्वचा से देखा जा सकता है, सुना जा सकता है सूंघा जा सकता है, चखा जा सकता है। स्पर्श सुख तो उसका प्रधान कार्य है—मैथुन ही नहीं—काम स्पंदन के अन्य प्रकार भी लगभग उसी के द्वारा अनुभव होते हैं और हलचल मचाने वाली अन्तःस्थिति उत्पन्न करते हैं।
त्वचा अन्य इन्द्रियों का भी कार्य कर सकने में समर्थ है। मूलतया यह शक्ति उसमें पूरी तरह विद्यमान है। काम में न आने से ही वह प्रसुप्त पड़ी है। योग साधनाओं द्वारा यदि त्वचा की संवेदनशीलता बढ़ाली जाये तो अन्य इन्द्रियों की शक्ति बचाकर त्वचा से ही काम चलाया जा सकता है। वह बची हुई अन्य इन्द्रियों की शक्ति अन्य उपयोगी कार्यों में खर्च हो सकती है। जिनकी कोई इन्द्रिय नष्ट हो गई है वे अभ्यास करके त्वचा से ही उस प्रयोजन को पूरा कर सकते हैं। नेत्रों का काम त्वचा कर सकने में समर्थ है इस सम्बन्ध में रूस में लगातार कई उदाहरण सामने आये हैं और वहां इस सम्बन्ध में काफी खोज भी हो रही है।
त्वचा के पारदर्शी परत केवल आर-पार दिखाने वाले ही नहीं हैं। वे ऐक्सरे का काम करते हैं यदि उन्हें विकसित किया जा सके तो एक्सरे यन्त्र के स्थान पर अपनी त्वचा के संस्पर्श से ही अज्ञात और अदृश्य का एक बड़ा भाग हमारी जानकारी में आ सकता है।
कुछ समय पूर्व मास्को में एक टेलीविजन कार्यक्रम पर यह दिखाया गया था कि किस प्रकार बिना आंखों की सहायता के मात्र स्पर्श से देखने का काम लिया जाना सम्भव है। निझनी तगिन की 22 वर्षीया कुमारी रोजा कुलेशोवा ने अपने दाहिने हाथ की तीसरी थौची उंगली में दृष्टि शक्ति की विद्यमानता का परिचय दिया। आंख से मजबूत पट्टी बंधवाकर वैज्ञानिकों की उपस्थिति में उसने इन दो उंगलियों के सहारे अखबार का एक पूरा लेख पढ़ कर सुनाया और फोटो चित्रों को पहचाना। इससे रूसी वैज्ञानिकों की शरीर में संव्याप्त चेतना को बहुमुखी प्रयोजन पूरा कर सकने की क्षमता का ज्ञान हुआ और नृतत्व विज्ञान को एक नई शोध करने की दिशा मिली।
अभी उस अध्याय में एक कड़ी और जुड़ी है। कितने ही लोगों ने तलाश किया कि क्या उनमें या उनके कुटुम्बियों में भी कोई इन्द्रियातीत शक्ति हैं। इस खोज में इस वर्ष एक 9 वर्षीय लड़ती और प्रकाश में आई है जिसने रोजाकुलेशोवा की अपेक्षा और भी अधिक लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया।
संवाददाता निकोलाई स्वितेको के अनुसार खार्कोंव की श्रीमती ओल्गा व्लिजनोवा ने अपनी 9 वर्षीय पुत्री में यह प्रतिभा और भी अधिक बढ़ी-चढ़ी पाई तो उसने सोवियत विज्ञान अकादमी के सम्मुख उसे पेश किया और कई तरह के अद्भुत परीक्षण कराये। बिछी हुई शतरंज पर से उसने काली और सफेद गोट छांटकर अलग कर दीं। इसके बाद रंग-बिरंगे कागजों की कतरनें उसने तरतीब बार छांटीं परिचित लोगों के फोटो पहचाने। बच्ची कम पढ़ी थी सो उसे बच्चों वाली रंगीन किताबें दी गईं और उसने उन्हें हाथ से छूकर ठीक तरह पढ़ दिया।
इसके बाद और भी कठिन परीक्षा शुरू हुई। उंगलियों के अतिरिक्त क्या शरीर के किसी अन्य भाग में भी ऐसी शक्ति हैं। इसका परीक्षण किया गया तो वह बात भी सही निकली, उसने बांह, कन्धा, पीठ, पैर आदि से छूकर भी वैसा ही अनुभव प्रस्तुत किया जैसा हाथ से छूकर करती थी। क्या चीजों को बिना छुये भी इस तरह की पहचान की जा सकती है? इस परीक्षण में पांच सेन्टीमीटर दूर रखी चीजों तक को उसने उंगली के पोरवों की सहायता से पढ़ लिया। 9 महीने बाद उसने दूसरी तैयारी में और भी अधिक दूर पर रखी हुई चीजों को देखने और कागजों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। इसी प्रकार उसने पैर की उंगलियों से छूकर कितनी ही वस्तुओं का सही-सही परिचय बताया। रूस के वैज्ञानिकों का ध्यान तब से इस दिशा में अधिक गया है और उन्होंने उस सम्बन्ध में लगातार शोध कार्य किया है।
मनोविज्ञान शाखा के वरिष्ठ शोधकर्त्ता प्रो. कोन्स्टाटिन प्लातोनोव ने कहा है—मानवीय चेतना विद्युत की व्यापकता को देखते हुए इस प्रकार की अनुभूति अप्रत्याशित नहीं है। नेत्रों में जो शक्ति काम करती है वही अन्यत्र ज्ञान तन्तुओं में विद्यमान है उसे विकसित करने पर मस्तिष्क को वैसी ही जानकारी मिल सकती है जैसी आंखों से मिलती है।
प्रो. एलेक्जोदर स्मिर्नोव ने कहा है कि—यह कोई अलौकिक बात नहीं है। वरन् सामान्य विज्ञान सम्मत सिद्धान्तों का ही एक दिलचस्प प्रतिपादन है। एक अंग की चेतना दूसरे अंगों में भी काम कर सकती है।
निझोरी तागिल पैडागोगीकल इन्स्टीट्यूट के रीडर नोवोमोइस्की ने अपने अनेक छात्रों में इस तरह की विशेषता को ढूंढ़ा तो कुछ छात्राएं ऐसी मिल गईं जिनमें एक सीमा तक इस तरह की शक्ति मौजूद है उसे बढ़ाने पर सफलता की मात्रा अधिक बढ़ने की भी आशा की गई है। इस तरह की क्षमता अन्य अंगों की अपेक्षा दाहिने हाथ की उंगलियों में अधिक पायी गई है और लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में यह अतीन्द्रिय तत्व अधिक हैं। आयु बढ़े के साथ कठोरता ज्ञान तन्तुओं में आ जाती है उसके कारण बड़ी उम्र में शरीर उतना संवेदनशील नहीं रह जाता, फलस्वरूप ऐसे अनुभव प्रौढ़ वर्ग में दृष्टिगोचर नहीं होते।
त्वचा का महत्व यदि समझा जाय तो वह अति महत्वपूर्ण माध्यम सिद्ध होगी। अन्य समस्त इन्द्रियों का तो वह कार्य कर सकने में समर्थ है ही साथ ही अंतःचेतना को विकसित एवं परिवर्तित करने में उसका और भी ऊंचा उपयोग है। साधना विज्ञान में त्वचा साधना को ‘‘स्पर्शास्पर्श’’ कहते हैं इसका क्षेत्र अति व्यापक, विस्तृत और प्रभावोत्पादक माना गया है।
हमारी रक्त सम्पदा कितनी मूल्यवान
जिसे हम रक्त के नाम से जानते हैं। मोटेतौर पर वह लाल रंग का पानी है जो नस नाड़ियों में ऐसे ही मन मौजी घुमक्कड़ की तरह धूमता फिरता रहता है। यदि बारीकी से देखा जाय तो किसी देश या नगर की जल व्यवस्था की तरह रक्त संचार प्रक्रिया भी अनेकानेक गुत्थियों को सुलझाती हुई व्यवधानों का निराकरण करती हुई ही गतिशील हो रही है। उसकी गतिविधियां देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
सारे शरीर में रक्त की एक परिक्रमा प्रायः डेढ़ मिनट में पूरी हो जाती है। हृदय और फेफड़े के बीच की दूरी पार करने में उसे मात्र 6 सैकिण्ड लगते हैं, जब कि उसे मस्तिष्क तक रक्त पहुंचने में 8 सैकिण्ड लग जाते हैं। रक्त प्रवाह रुक जाने पर हृदय भी 5 मिनट जी लेता है, पर मस्तिष्क तीन मिनट में ही बुझ जाता है। हृदय फेल होने की मृत्युओं में प्रधान कारण धमनियों से रक्त की सप्लाई रुक जाना ही होता है। औसत दर्जे के मनुष्य शरीर में पांच से छह लीटर तक खून रहता है। इसमें से 5 लीटर तो निरन्तर गतिशील रहता है और एक लीटर आपत्ति कालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है। 24 घण्टे में हृदय को 13 हजार लीटर खून का आयात-निर्यात करना पड़ता है। 10 वर्ष में इतना खून फेंका समेटा जाता है जिसे यदि एक बारगी इकट्ठा कर लिया जाय तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में ही भरा जा सकेगा। इतना श्रम यदि एक बार ही करना पड़े तो उसमें इतनी शक्ति लगानी पड़ेगी जितनी कि दस टन बोझ जमीन से 50 हजार फुट तक उठा ले जाने में लगानी पड़ेगी। शरीर में जो तापमान रहता है, उसका कारण रक्त प्रवाह के कारण उत्पन्न होने वाली ऊष्मा ही है।
अपने चार वर्ण और चार आश्रमों की तरह रक्त के भी चार वर्ण हैं। भगवान मनु ने मनुष्य जीवन की क्रम व्यवस्था इन चार भागों में की थी। लेण्ड स्टीनर ने रक्त की चार श्रेणियों का रहस्योद्घाटन किया था। सब मनुष्यों का रक्त एक जैसा नहीं होता, इनके बीच कुछ रासायनिक भिन्नता रहती है। इसी को ध्यान में रखते हुए उसे (1) ए. (2) बी. (3) ए.बी. (4) ओ. इन चार नामों से वर्गीकरण किया है। किसी की नसों में किसी का रक्त चढ़ाने से पहले यह विधि वर्ग मिला लिया जाता है अन्यथा भिन्न रक्त चढ़ा देने से रोगी भयंकर विपत्ति में फस जायगा और मृत्यु संकट सामने आ खड़ा होगा।
हमारा रक्त लाल रंग का एक गाढ़ा तरल पदार्थ है जो हवा लगने पर जम जाता है उसे दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। (1) तरल पदार्थ—प्लाज्मा (2) ठोस कण—सारतत्व। प्लाज्मा, रक्त में 55 प्रतिशत होता है, इस भूरे, पीले रंग के पानी जैसी शकल में देखा जा सकता है। उसमें नमक, ग्लूकोस, प्रोटीन आदि घुले रहते हैं। कुछ ठोस पदार्थ उसमें घुल नहीं पाते और तैरते रहते हैं। इन ठोस कणों को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं (1) एरिथ्रोसाइट खून के लाल कण (2) ल्यूकोसाइट खून के सफेद कण (3) प्लेटलेट—खून की पपड़ियां।
लाल कण शरीर के प्रत्येक अंश-तंतु और कोष को आहार एवं ऑक्सीजन पहुंचाते हैं, मल रूप निकली कार्बनडाई ऑक्साइड गैस को ढोकर फेफड़ों तक ले जाते हैं; ताकि वहां से सांस द्वारा उसे बाहर निकाला जा सके।
सफेद कण वस्तुतः कोषाणु हैं उनकी संख्या कम ही होती है, 650 लाल कणों के पीछे एक। इन्हें शत्रु रोगाणुओं से लड़ने वाले सैनिक कहा जा सकता है। शरीर के किसी भाग में यदि रोगकीट हमला करदें तो यह श्वेत कण उनसे लड़ने को तत्काल जा पहुंचते हैं। आवश्यकता के समय अपनी जाति वृद्धि कर लेने की इनमें अद्भुत क्षमता है। रोगों के कीटाणु हवा, पानी, आहार, छूत या चोट आदि के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ये इतने भयंकर होते हैं कि देखते-देखते सारे शरीर पर कब्जा कर सकते हैं और किसी को भी रोगग्रस्त करके मौत के मुंह में धकेल सकते हैं। ईश्वर को लाख धन्यवाद कि इस रोग कीटाणुओं से भरे शत्रुओं के चक्रव्यूह में आत्मरक्षा करने के लिए हमें श्वेत कणों की सुदृढ़ सेना दी है। यदि यह न मिली होती तो पग-पग पर मृत्यु संकट सामने खड़ा रहता।
श्वेत कोषाणु रोग कीटाणुओं से अधिक प्रबल होते हैं और वे शत्रुओं को मार काट कर धराशायी करने में प्रायः सफल ही रहते हैं। इस युद्ध में उनमें से भी बहुतों को शहीद होना पड़ता है। मृत श्वेत कणों के ढेर को सफेद पीव के रूप में देखा जा सकता है; वह चमड़ी तोड़कर बाहर निकलता है। अपनी विशेषताओं के आधार पर उन श्वेतकणों की भी कई जातियां होती हैं यथा—न्यूट्रोफिल, ईओसिनोफिल, वेसोफिल, लिम्फोसाइट, मोनोसाइट आदि। इनका आवश्यकता से अधिक बढ़ जाना या घट जाना भी चिन्ता का विषय है इनकी असाधारण वृद्धि ‘ल्यूकोसाइटोसिस’ और कमी ल्यूकोपेनिया कहलाती है।
साधारणतया प्रतिघन मिली मीटर रक्त में 5 से 10 हजार तक श्वेत कण होते हैं। पर कभी-कभी यह संख्या बढ़ कर ढाई लाख तक जा पहुंचती है तब यह वृद्धि आत्मघाती सिद्ध होती है। कैंसर की संभावना बढ़ जाती है।
रक्त रस-प्लाज्मा में 90 प्रतिशत जल और 10 प्रतिशत में चर्बी, हारमोन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बनडाई ऑक्साइड आदि पदार्थ मिले होते हैं। इस हल्के पीले रंग के तरह पदार्थ में लाल और श्वेत रक्त कणिकाएं तथा विम्बाणु तैरा करते हैं। लाल रक्त कण इतने छोटे होते हैं कि वे 3000 की संख्या में सीधे एक लाइन में रख दिये जायं तो एक इंच से भी कम लम्बाई होगी। युवा मनुष्य के शरीर में 25,000,000,000,000 लाल रक्त कण होते हैं, वे चार महीने जीवित रह कर मर जाते हैं और उनका स्थान लेने के लिए नये पैदा हो जाते हैं।
रक्त की चाल धमनियों में प्रतिघण्टा 65 कि.मी. की है। रक्त कणिकाएं लौह और ऑक्सीजन से मिलकर बने पदार्थ हीमोग्लोबिन अपने साथ प्रोटीन, प्राण वायु आदि अपने पोशाक पदार्थ अपने ऊपर लाद कर चलता है और उस खुराक को शरीर के कण-कण तक पहुंचाता है। उसे दुहरा काम करना पड़ता है। इधर से उपयोगी पदार्थों का पहुंचाना, उधर से कार्बन डाइऑक्साइड तथा दूसरी हानिकारक गन्दगियों को समेट कर फेफड़े द्वारा बाहर निकाल दिये जाने के लिए उन तक पहुंचाना, यह दुहरी ढुलाई उसे करनी पड़ती है। अपने काम को रक्त द्रुत गति से करता है। पोषण पहुंचाने तथा गन्दगी साथ करने के रसोई महाराज और सफाई जमादार की दुहरी ड्यूटी देने में उसे कोई आपत्ति नहीं होती।
लाल रक्त कणिकाएं प्रायः 4 महीने में लगभग 1500 चक्कर सारे शरीर के लगा देने के बाद बूढ़ी होकर मर जाती हैं। तिल्ली के जिम्मे उनका अंत्येष्टि संस्कार करना और लाश को तोड़-फोड़ कर मल द्वारों से बाहर निकालने की व्यवस्था उसी को जुटानी पड़ती है। हमारा छोटा सा शरीर वस्तुतः बहुत बड़ा है। एक पूरी पृथ्वी के बराबर जीवधारी उसमें रहते हैं। इसलिए उसके व्यवस्था कर्मचारियों की संख्या भी लगभग उसी अनुपात में रहती है। इन 2500 करोड़ लाल रक्त कणों को यदि एक सीधी पंक्ति में बिठा दिया जाय तो इतना छोटा आकार रहते हुए भी वे इतनी बड़ी लाइन में होंगे जो समस्त पृथ्वी की चार बार परिक्रमा कर सकें।
ऊपर कहा जा चुका है कि रक्त में तीन जाति के कण रहते हैं लाल रक्त कणों की चर्चा हो चुकी है। अब कर्मचारियों में 1 करोड़ 20 लाख श्वेत रक्ताणु और 50 लाख लाल रक्त विम्बाणु और रहते हैं। एक बूंद खून में प्रायः 11 हजार श्वेत कण होते हैं। इन का मुख्य कार्य शरीर में बाहर से प्रवेश करने वाले अथवा भीतर से ही पैदा होने वाले रोग कीटाणुओं से लड़कर उन्हें परास्त करना और उनके शरीरों को देह से बाहर निकाल देना होता है। बीमारियां तभी प्रकट होती हैं जब ये श्वेत कण रोगाणुओं से हारते हैं। अन्यथा हमें पता भी नहीं चलता है और रोग निवारण का अधिकांश कार्य इन श्वेत कणों द्वारा भीतर ही भीतर निपटा दिया जाता है। बाहरी रक्त शरीर में प्रवेश कराया जाय या किसी दूसरे व्यक्ति का कोई अंग किसी की देह में आरोपित कराया जाय तो यह श्वेत कणिकाएं ‘बाहरी पदार्थ’ के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर देती हैं और लेने के देने पड़ जाते हैं। यही कारण है कि डॉक्टर लोग किसी रोगी को वही रक्त चढ़ाते हैं जो उसके अपने रक्त का सजातीय हो। अंगों का आरोपण करते समय इन श्वेत कणों को मूर्छित करने की औषधियां देकर चुप कर दिया जाता है।
तीसरे किस्म के रक्त विम्बाणु कभी चोट आदि लगने पर बाहर बहते हुए रक्त को जमाने की भूमिका सम्पादित करते हैं। यह न हो तो आघात लगने पर रक्त बाहर बहता ही रहे और उसके न रुकने पर मृत्यु हो जाय। एक बूंद खून में इनकी संख्या 3 लाख के करीब होती है और प्रायः 10 घण्टे ही जीवित रहते हैं।
यदि रक्त में लाल कण कम पड़ जायं या होमोग्लोबिन की मात्रा घट जाय तो ‘एनीमिया’ रोग हो जाता है, शरीर थका-थका सा रहता है और शिर चकराता है। रक्त के अभाव में हृदय तो पांच मिनट भी अपना काम चला लेता है, पर मस्तिष्क तीन मिनट में ही निर्जीव हो जाता है।
वांई पसलियों में 9वीं, 10वीं और 11वीं के नीचे आमाशय के पीछे तिल्ली का स्थान है यह लाल बैंगनी रंग की है। इसमें रक्त एकत्रित रहता है। उसकी 12 सेन्टीमीटर लम्बाई तथा 7 सेन्टीमीटर चौड़ाई होती है। वजन 150 से 200 ग्राम तक। इसमें रक्त को एकत्रित करने और निकालने की विशिष्ट क्षमता है।
पुराने जर्जर लाल रक्त कर्ण अक्सर इसी में समाधिस्थ होते रहते हैं। गर्भावस्था में उसे रक्त बनाने के एक विशेष कारखाने का काम करना पड़ता है। किसी दुर्घटना के समय रक्त अधिक निकल जाय अथवा मज्जा में कोई दोष उत्पन्न हो जाय तो तिल्ली को उस आपत्ति काल में विशेष कार्य करना पड़ता है। और उस क्षति की पूर्ति वहीं से हो जाती है।
बाहरी रोग कीटाणुओं के आक्रमण से शरीर की रक्षा करना तिल्ली का मुख्य कार्य है। तपैदिक, टाइफ़ाइड, सिफलिस, कालाजार, मलेरिया आदि रोगों के विषाणुओं से लड़ने वाली फौज विशेषतया तिल्ली में ही तैयार होती है तब उसका वजन भी बढ़ जाता है। रक्त कैंसर—ल्यूकीमिया—में तो तिल्ली 20 गुनी तक बढ़ जाती है और एक प्रकार से सारे पेट पर ही कब्जा कर लेती है।
रक्त संचार की दुनिया बहुत महत्वपूर्ण और सुव्यवस्थित है। उसे न शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है और न ही उसका विवेचन किया जा सकता है फिर भी यह कम आश्चर्यजनक और अद्भुत विलक्षण नहीं है। रक्त संचार की इस सुव्यवस्थित और महत्वपूर्ण दुनिया को यदि ठीक तरह से समझा जा सके और उसके उपयुक्त रीति-नीति अपनाई जा सके तो परिपुष्ट और सुविकसित दीर्घजीवन प्राप्त किया जा सकता है।
रक्त सम्पदा, त्वचा और मस्तिष्क ही नहीं शरीर संस्थान का एक-एक घटक अद्भुत तथा विलक्षण है। साढ़े पांच-छह फीट की इस मानवी काया में परमात्मा ने इसमें अधिक आश्चर्य भर दिये हैं कि उसे देवमंदिर कहने और मनने में कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए। इस शरीर में सब देवताओं का आवास है। जीवित और जागृत देवताओं का सान्निध्य प्राप्त रहने पर भी कोई व्यक्ति इन देवसत्ताओं का लाभ न उठा पाये तो इससे बड़ी दुर्भाग्यता और क्या होगी।
‘‘इस प्रकार उत्पन्न हुये देवतागण अभी तक अपने सूक्ष्म रूप में थे। परमात्मा ने उनमें भूख और प्यास की अनुभूति भी उत्पन्न कर दी थी किन्तु वे संसार-समुद्र में निराश्रय पड़े थे, उन्हें रहने के लिये योग्य स्थान का अभाव खटक रहा था। उसके लिये उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की तब परमात्मा ने उन्हें गाय का शरीर दिखाया। उस शरीर को देवताओं ने पसन्द नहीं किया। तब फिर उन्हें घोड़े का शरीर दिखाया वह भी उन्हें अच्छा नहीं लगा। बहुत से शरीर विधाता ने देवताओं को दिखाये पर वे उन्हें पसन्द न आये तब उसने मनुष्य शरीर दिखाया। यह देवताओं को पसन्द आ गया। अग्नि उसमें वाणी बन कर घुस गया, वायु प्राण बनकर नासिका में, सूर्य चक्षु बनकर नेत्र गोलकों में प्रविष्ट हुआ, दिशायें क्षेत्र बन कर कानों में घुसीं औषधि रोम बन कर त्वचा में पहुंची, चन्द्रमा मन बन कर हृदय में स्थिति हुआ, मृत्यु अपान बन कर नाभि में जल (रेत) बनकर उपस्थ में स्थिति हो गया।’’
‘‘शरीर की यहां तक की रचना में पूरी तरह प्रकृति का ही आधिपत्य था देवताओं की प्रतिष्ठा होने के कारण शरीर देवमंदिर तो बन गया पर उसमें निवास करने वाली मूर्तियां—देवशक्तियां एक नहीं अनेक थीं सब की अपनी-अपनी आकांक्षाएं, अपनी-अपनी वासनायें थीं। भगवान् ने विचार किया। यदि इन सभी देवताओं ने केवल अपनी वासनायें तृप्त करनी चाहीं तब तो यह शरीर एक भी दिन न चल सकेगा। देवतागण उसे नष्ट कर डालेंगे। फिर इनके लिये मेरा भी तो कुछ अस्तित्व होना चाहिये, अन्यथा वे मुझे कैसे जानेंगे? इस विचार के आते ही उसने मनुष्य शरीर की मूर्धा (शरीर का वह भाग जहां से दाहिने बायें भाग बराबर-बराबर विभक्त होते हैं चोटी वाले स्थान से लेकर यह भाग नीचे चूतड़ों तक के सीबन वाले भाग तक चला जाता है) से प्रवेश किया। अब मनुष्य ने देखा कि मुझ में पंच भौतिक प्रकृति के अतिरिक्त यह बुद्धि रूप में कौन आ गया—तब उसने परमात्मा को पहचाना और उनके दर्शन पाकर स्वर्गीय सुख में विभोर हो गया।’’
ऐतरेय उपनिषद्, की इस आख्यायिका में जहां सृष्टि के विकास का सूक्ष्म विज्ञान भरा पड़ा है, वहां ईश्वर दर्शन का महत्वपूर्ण तत्वदर्शन भी। सामान्य दृष्टि से देखने पर इन्द्रियां ही मनुष्य शरीर में सक्रिय दिखाई देती हैं इसलिये अज्ञान-ग्रस्त लोग दिनरात उन्हीं की तृप्ति में जुटे रह कर मनुष्य देह रूपी मन्दिर को भग्न और गन्दा किया करते हैं। देवताओं को स्थूल पूजा मिलती चाहिये पर यदि देवताओं की संतुष्टि ही एक मात्र शरीर का उद्देश्य रह जायेगा तो उस परमात्मा की प्राप्ति के आनन्द का क्या होगा जो इन सभी शक्तियों को भी उत्पन्न करने वाला आनन्द और सृष्टि का मूल है। सारी परिपूर्णतायें तो एक मात्र ब्रह्म में ही हैं उसे प्राप्त किये बिना आत्मिक सुख कहां?
परमात्मा को कैसे प्राप्त किया जाये? यह संसार के सामने एक जटिल और गम्भीर प्रश्न है? ऐतरेय उपनिषद् इस प्रश्न की हलकी दिशा में एक महत्वपूर्ण शोध है इसमें तथ्यों को बड़े सरल ढंग से समझाया गया है, यह बताया गया है कि इंद्रियों की वासनायें मनुष्य की आवश्यकतायें नहीं वरन् देव शक्तियों की आकांक्षायें होती हैं मनुष्य तो बुद्धि-ज्ञान और चेतना को कहते हैं। बुद्धि परमात्मा की प्रतिनिधि है अर्थात् मनुष्य देव शक्तियों से ऊपर की सत्ता है। उसे इन्द्रियों का स्वामी बन कर देव शक्तियों का लाभ उठाना चाहिये और अपनी बौद्धिक एवं आत्मिक क्षमताओं का विकास करके विराट ब्रह्म को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यही परम पुरुषार्थ है और यही है योग। जो अपनी इन्द्रियों का स्वामी बन गया उसे अपने लघु रूप को विराट् ब्रह्म में परिवर्तित करते देर न लगेगी।
अभी तक यह ज्ञान केवल शास्त्रों तक सीमित था। शास्त्रीय व्याख्याओं से विश्वास उठ जाने के कारण इस तरह के विवेचनों के प्रति अश्रद्धालु होना और इस तरह जीवन-विकास के मूल-ज्ञान से वंचित रह जाना स्वाभाविक ही था। इसे अपना दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि हमारे देशवासी स्वयं इस महत्तम विज्ञान को भूल गये जिसका प्रतिपादन आज भौतिक-विज्ञान भी करता है।
शरीर विज्ञान मानता है कि मनुष्य का मस्तिष्क इन्द्रियों की सामर्थ्य से बड़ा और उनका स्वामी है, अतएव इन्द्रियों को नहीं महत्व बौद्धिक शक्तियों को देना चाहिए। इस दृष्टि से मस्तिष्क की बारह नसों और सात शून्य स्थानों (सात-लोक) की शोध एक विशिष्ट महत्व रखती है। यह नसें मस्तिष्क के निचले वाले धरातल से निकलती हैं और शरीर के सभी तन्मात्रा अवयवों तक चली जाती हैं।
(1) आलफैक्ट्री नस का सम्बन्ध नासिका नली से है जिससे मस्तिष्क सूंघने की अनुभूति करता है। (2) आप्टिक नस-नेत्र गोलकों तक चली जाती हैं और वही मस्तिष्क को सामने वाली वस्तुओं का ज्ञान कराती है। (3) आकुलो मोटर का सम्बन्ध भी आंखों से है इससे पुतलियों को गति मिलती है। (4) ट्राक्लियर-नेत्र की मांसपेशियों को जोड़ने वाली नस है (5) ट्राय जोव्हिनल मुख के निचले जबड़े एवं जीभ की मांस-पेशियों से सम्बन्ध जोड़ती है और स्वाद आदि की अनुभूति में सहायक होती है। (6) अब्डूऐट आंख को भीतर की ओर खींचे रहती है। (7) फेशियल मुख की मांस पेशियों को। (8) आडिटरी-कानों में। (9) ग्लासोफेरिब्जयल-स्वर ध्वनि यन्त्र लेरिंग्स) जीभ, पेट और जिगर को मस्तिष्क के उस चमत्कारी अवचेतन अंश से जोड़ते हैं। (10) स्पाइनल अऐसरी गले को जाती है। (11) वेगस स्वर ध्वनि यन्त्रों का फेफड़ों से सम्बन्ध जोड़ती है और 12वीं हाइपोग्लोसल जीभ की मांस-पेशियों को इसके अतिरिक्त सुषुम्ना शीर्षक जो कि लगभग सम्पूर्ण मेरुदण्ड है। मस्तिष्क का सम्बन्ध सीधे प्रजनन केन्द्रों से जोड़ती है। आधुनिक शरीर वैज्ञानिकों का ज्ञान अधिकांश शरीर के स्थूल अवयवों तक सीमित है। चेतना की आन्तरिक अनुभूतियों का ज्ञान वे नहीं कर सके इसलिये जीवात्मा के दार्शनिक पक्ष को इनमें से कोई भी प्रमाणित करने में आज तक सफल नहीं हुआ है। यही नहीं इन नसों में कई ऐसी हैं जिनके यथार्थ उद्देश्य की ही इन वैज्ञानिकों को जानकारी नहीं है उदाहरणार्थ अकुलोमोटर का सम्बन्ध मस्तिष्क से त्रिकुटी मध्य के उस भाग से हैं जहां ज्योतिर्लिंग के दर्शन होते हैं पर शरीर रचना शास्त्री उसे केवल दोनों पुतलियों से सम्बन्धित मानते हैं। स्पाइनल एसेसटी नाभिस्थित सूर्य चक्र (सोलर फ्लैक्सस) से सम्बन्धित है और योग विद्या में उसका अपना विशिष्ट महत्व है पर उसे भी शरीर-रचना शास्त्री नहीं जानते यहां तक कि नाभि जैसे महत्वपूर्ण संस्थान का जिससे कि गर्भावस्था में सारे शरीर को पोषण मिलता है, वैज्ञानिक कुछ भी नहीं जानते हैं। तो भी यह कम महत्वपूर्ण नहीं कि उन्होंने इन जानकारियों के आधार पर इतना तो सिद्ध कर ही दिया कि मस्तिष्क ही सम्पूर्ण इन्द्रियों का अधिष्ठान है। यदि मस्तिष्क नहीं रहता तो इन सभी इन्द्रियों को चेतना अपना कारोबार समेट कर उसे नष्ट कर देने में ही जुट जाती और अपनी समस्त सूक्ष्म तन्मात्राओं को मस्तिष्क में ही केन्द्रित कर देती, यही मस्तिष्कीय चेतना इन्द्रिय सूक्ष्म तन्मात्रायें लेकर मृत्यु काल में शरीर से विदा होकर फिर दूसरी योनियों की तलाश में चली जाती और यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक मस्तिष्कीय द्रव्य प्रकृति के अज्ञान आवरण और इन्द्रियों की लिप्साओं को स्वच्छ नहीं कर लेता। यजुर्वेद में इसी तथ्य को दोहराते हुए ऋषि ने लिखा है—
यस्ण प्रयाण मन्वन्य इवयुर्देवा देवस्य महिमान मोजसा । यः पार्थिवानि विममे स एयशो रजाँ-सि देवः सविता महित्वना । यजुर्वेद 11।6
अर्थात्—दूसरे सभी देवता (इन्द्रियां) जिस देवता (जीवात्मा) के आधीन गति करती हैं जब जीवात्मा शरीर त्याग देता है तो उसी के आधीन चली जाती हैं। जिस देवता (जीवात्मा) की यह ओजस-शक्तियां उन्हीं के अनुरूप बन जाती हैं यह श्रेष्ठ योनियों को प्राप्त होकर मुक्ति का स्वामी बनता है अन्यथा निम्नगामी योनियों में चला जाता है। इस प्रकार जीवात्मा के बड़प्पन के लिये प्राप्त हुई, इन्द्रियां ही उसे दुर्गति में ले जाने वाली अथवा मुक्ति में सहायक होती है।
इन्द्रियां स्ववश नहीं होतीं यह कहना गलत है ऐसा कहने की अपेक्षा यह कहना चाहिये कि हमने अपने अपने मानसिक संस्थान को प्रखर नहीं बनाया। मनुष्य के मस्तिष्क की शक्ति अपार है हम उसका जागरण कर पायें तो सचमुच ही ब्रह्म की सारी शक्तियों की अनुभूति शरीर में ही कर सकते हैं। साधारण अभ्यास से ही मस्तिष्क की शक्तियों का विकास होता देखा गया है, योग-प्रक्रिया तो उससे कहीं लाखों गुना उच्चस्तरीय विज्ञान है। ओहियो यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के एक परीक्षण में अभ्यास से विद्यार्थियों में एक मिनट में 230 शब्दों से बढ़कर 500 शब्द प्रतिमिनट पढ़ने की क्षमता का विकास हुआ। अमरीकी प्रेसीडेन्ट रूजवेल्ट का सेक्रेटरी जेम्स ए. फेचरली ने अपनी याददाश्त का इतना विकास किया था कि वह 20000 व्यक्तियों से परिचित था और सब के बारे में सैकड़ों बातें जानता था। जर्मन मैथमैटीशियन जकेरियस से एक बार एक प्रदर्शन में पूछा गया 2—2 का 100 बार गुणा करने से कितना गुणनफल आयेगा तो उसका उत्तर उसने प्रश्नकर्त्ता का वाक्य पूरा होते ही दे दिया मानो उसके मस्तिष्क में वह सब कुछ पहले से लिखा था। वैज्ञानिक मानते हैं कि हम सारे जीवन में मस्तिष्क के कुल 17 प्रतिशत भाग से काम लेते हैं शेष 83 प्रतिशत के बारे में वैज्ञानिक तक कुछ नहीं जानते।
रीडर डाइजेस्ट में ‘‘आपके मस्तिष्क की सीमा क्या है’’ (ह्वाट इज दि लिमिट आफ योर माइंड) शीर्षक से अर्डिस हिटमैन ने एक लेख छापा था उसमें उन्होंने लिखा है कि सारे संसार में जितनी भी विद्युत और विद्युत उपकरणों की सामर्थ्य है, उसे पूरी तरह इकट्ठा करके तराजू के एक पलड़े पर रख दिया जाये और दूसरी तरफ मस्तिष्क का 3 पिन्ट (एक पिन्ट डेढ़ पाव के बराबर होता है) ग्रे मैटर (मस्तिष्क का भीतरी भाग) रखकर तौला जाये तो ग्रे मैटर की शक्ति कहीं अधिक होगी।
यह केवल सैद्धान्तिक कथा मात्र नहीं है इस पर प्रयोग हुये हैं और प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि मस्तिष्क के इस भूरे द्रव्य (ग्रे मैटर) में वह सारे गुण विद्यमान हैं जो परमात्मा में होने की कल्पना की जाती है। ईश्वर के बारे में मान्यता है कि वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वदृष्टा, अजर-अमर सनातन आदि है। पूर्ण विकसित, मस्तिष्क में वह सारे लक्षण हो सकते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह भी स्पष्ट हो गया है इन चमत्कारों पर मैगिल यूनिवर्सिटी मन्ट्रियल में डा. विल्डर पेनफील्ड के निर्देशन में खोज चल रही है। उनकी खोजें आज नहीं तो कल पूर्ण रूप से भारतीय दर्शन को प्रमाणित करेंगी।
यह प्रयोग मस्तिष्क के चमत्कारी केन्द्रों की विद्युतशक्ति बढ़ाकर किये गये हैं। एक रोगी को इलेक्ट्रोड के द्वारा मस्तिष्क के दृश्य भाग को स्पर्श कराया गया तो उसने बताया कि मैं सारे आकाश को देख रहा हूं बड़े-बड़े तारागण घूम रहे हैं कितने ही उल्कापात हो रहे हैं, आकाश की यह भयंकर हलचल देखते ही वह भयभीत हो उठा। शायद उसकी स्थिति गीता में भगवान् के विराट् रूप देखने वाले अर्जुन की-सी हो गई हो। इसके बाद उसके श्रवण केन्द्र की शक्ति बढ़ाई गई तो उसने अजीब ध्वनियां सुनी और यह सिद्ध कर दिया कि हम जो ध्वनियां अपने आस-पास सुना करते हैं वहीं नहीं सृष्टि के अन्तराल में ग्रह नक्षत्रों के परिभ्रमण आदि की आकाश गंगाओं के विस्फोट आदि की भी भयंकर ध्वनियां सुनाई दे रही हैं। इसके बाद एक और आश्चर्यजनक स्थान में इलेक्ट्रोड स्पर्श कराया गया तो रोगी एकाएक हंस पड़ा और बोला—अरे यह तो मेरी मां का कमरा है, वह पियानो रखा है, मेरी मां इधर ही आ रही है वह कोई कपड़ा निकाल कर पहन रही है। कपड़े का यह रंग है वह अब नौकर को बुलाकर कार निकालने को कह रही है। पीछे फोन करके उसके घर वालों से पूछा गया तो सारी घटना ठीक वैसी ही थी जैसी रोगी ने बताई थी। इन प्रयोगों में वर्षों पूर्व के दृश्य और शब्द मस्तिष्क में ज्यों के त्यों सुने गये हैं।
यह खोजें इस बात की प्रमाण हैं कि बुद्धि और मस्तिष्क सचमुच ही ईश्वरीय चेतना के प्रतिनिधि हैं। हम उस शक्ति को तुच्छ इन्द्रिय सुखों में खर्च न करके केवल मस्तिष्क को ही प्रखर बनाने में जुट जायें तो अपने आप में ब्रह्म की अनुभूति कर लेना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऋषियों की अलौकिक शोध आज भी उतना ही आनन्द, वही उपलब्धियां दे सकती हैं, पर यह तभी संभव है जब लोग इन्द्रियों के गुलाम नहीं स्वामी बनकर उस शक्ति का क्षय रोकें जो मस्तिष्क को वैसे ही प्रखर बनाकर विराट् की अनुभूति कराती हैं जैसे बिल्डर पेनफील्ड-इलेक्ट्रोड से अतिरिक्त विद्युत शक्ति देकर क्षणिक अनुभूति कराते हैं।
बुद्धि और मस्तिष्क तो शरीर संस्थान का एक छोटा अंग अवयव मात्र है। इसके अलावा हमारे शरीर में जो दूसरी इकाइयां हैं वे कम विलक्षण और अद्भुत नहीं हैं। बाहर से दिखाई देने पर कोई अंग भले ही कितना भी साधारण लगे परन्तु उसका महत्व और कार्य अपने आप में इतना मूल्यवान तथा विलक्षण है कि उसकी तुलना अन्य किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती।
उदाहरण के लिए त्वचा को ही लें। त्वचा यों बाहर से देखने में आवरणमात्र लगती है। पर गहराई से देखने में उसका कण-कण विशेषताओं से भरा है। शरीर शास्त्री उसे काया का संरक्षक आवरण मानते हैं। सौन्दर्य शास्त्री उसी के आधार पर रंग रूप का लेखा-जोखा लेते हैं। पर आत्मवेत्ताओं की दृष्टि में वह सबसे प्रबल और सबसे विस्तृत इन्द्रिय है। आंख, कान, नाक आदि तो सीमित स्थान ही घेरे हैं, पर त्वचा ने सारा शरीर ही आच्छादित कर रखा है। उसका शासन विस्तार एवं क्रिया कलाप सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करता है।
जननेन्द्रिय की गणना पृथक इन्द्रिय में न करके उसे स्पर्शेन्द्रिय के रूप में त्वचा परिधि में ही गिना गया है। कारण कि इसी की संवेदनशीलता जननेन्द्रिय में एक विशेष स्पर्श संवेदन उत्पन्न करती है। कोमलता का आनन्द त्वचा ही लेती और देती है। स्नेह स्वजनों का स्पर्श चुम्बन आलिंगन त्वचा के माध्यम से होता है। उसकी संवेदनशीलता ही स्पर्श में अन्तःकरण को गुदगुदा देती है। भाव विभोर स्थिति में बिछड़े हुए प्रियपात्र को अथवा सफल स्वजन को हर्षातिरेक में छाती से लगाये बिना चैन नहीं पड़ता। बालक और अभिभावकों को गोदी में लेना केवल शारीरिक कारणों से ही सुखद नहीं होता वरन् उस स्पर्श सुख में आन्तरिक आनन्द की चेतनात्मक अनुभूति भी जुड़ी होती है। त्वचा इन्द्रिय हमारे भाव संस्थान को कम प्रभावित नहीं करती। इसलिए उसे अवांछनीय स्पर्श से बचाया जाता है और वांछनीय स्पर्श के लिए प्रयत्न पूर्वक सचेष्ट रहा जाता है।
भारतीय संस्कृति में छूत-छात के तत्व मौजूद हैं। आज तो वह जाति-पांति के आधार पर उलट गया पर प्राचीन काल में यह सिद्धान्त वांछनीयता और अवांछनीयता की दृष्ट से प्रयुक्त होता था। दुष्ट, दुराचारियों को अस्पर्श मानने का तात्पर्य था उनकी दुष्ट प्रकृति के साथ जुड़ी हुई सम्वेदना के आक्रमण से अपने को बचाना। गुरुजनों के चरण-स्पर्श करने उनके पैर दबाने की प्रक्रिया मात्र सम्मान सूचक ही नहीं वरन् इसमें उनकी महानता को अपने हाथों के माध्यम से ग्रहण करना भी है। शिष्य, पुत्र आदि अपने गुरुजनों के अक्सर पैर छूते या पैर दबाते हैं। उसमें थकान मिटाना कारण नहीं वरन् जिस तरह गाय का दूध दुहा जाता है उस तरह उसके शक्ति प्रवाह को लेकर अपने अन्दर भरना ही प्रमुख लाभ है।
साधारणतया इतना ही समझा जाता है कि धूप वर्षा से बचाव करने के लिये जिस तरह छाता लगाया जाता है उसी तरह त्वचा भी बाहरी ऋतु प्रभावों से लेकर विकरण विभावों तक को रोकती है, अपने ऊपर सहन करती है। वह एक सुसज्जित वस्त्र की तरह है। जो आन्तरिक अवयवों को ढकने के अतिरिक्त बाहर की शोभा सुसज्जा भी रखता है। ईश्वर के दिये हुए इस परिधान से बढ़ कर मनुष्य कृत कोई पोशाक हो ही नहीं सकती।
जहां तक सौन्दर्य का प्रश्न है—उसे त्वचा का सौन्दर्य ही कहना चाहिए। वस्त्र कितने ही कीमती और आकर्षक क्यों न हों वे तभी शोभा पाते हैं जब हाथ-पैर, मुख आदि अंगों के नग्न प्रदर्शन में अवरोध उत्पन्न करें। नारी अंगों को तो चित्रकार से लेकर मूर्तिकार तक यथासम्भव निर्वस्त्र रखने का प्रयत्न करते हैं। सिनेमा और नृत्यों में सबसे बड़ा आकर्षण त्वचा का अधिकाधिक भाग निर्वस्त्र देखने का होता है। मनुष्य स्वभाव में यह जुगुप्सा इतनी अधिक बढ़ी है कि अमर्यादित नग्नता को अश्लीलता के प्रतिबन्धों से जकड़ कर उसे कानून द्वारा अवांछनीय घोषित करना पड़ा। निस्सन्देह त्वचा के दर्पण से ही मनुष्य का सौन्दर्य मुखरित होता है।
त्वचा की सामर्थ्य और महत्व
वस्त्रों से लादकर उसे दुर्बल बना दिया जाय यह बात दूसरी है अन्यथा वह शीत ताप से प्राणी की रक्षा करने में पूर्णतया समर्थ है। इस धरती के सभी जीव जन्तु, जलचर, थलचर, नभचर इसी पोशाक के बलबूते अपनी जिन्दगी मजे में काट लेते हैं। उन्हें अतिरिक्त वस्त्र पहनने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आदिम मनुष्य भी नंगे ही रहते थे। सभ्यता की बात चली तो नर-नारी जननेन्द्रिय ढकने तक की आवश्यकता अनुभव करने लगे। अभी भी वन्य प्रदेशों के निवासी न्यूनतम वस्त्र पहनते हैं, त्वचा ही उनके शरीर को ऋतु प्रभाव से बचाती है। कितने ही सन्त, तपस्वी भी नंगे रहते हैं। बहुत हुआ तो मिट्टी या राख की एक परत और ऊपर से मल लेते हैं इस दुहरे आवरण से वे और भी आसानी से ऋतु प्रभाव सहन कर लेते हैं।
चेहरे को सदा खुला ही रखा जाता है। हाथ-पैरों में तो मोजे भी पहन लिये जाते हैं पर नाक, मुंह, आंख, गाल आदि पर तो कोई मोजे भी नहीं पहने जाते। वहां की त्वचा खुली रहने की अभ्यस्त रहने से शीत-ताप आदि की शिकायत नहीं करती—न वस्त्रों की मांग करती है न ऋतु प्रभाव से प्रभावित होती है, अभ्यस्त त्वचा शरीर का संरक्षण कर सकने में पूरी तरह समर्थ है। वस्त्रों ने उसका कुछ उपकार नहीं किया वरन् दुर्बल और परावलम्बी ही बनाया है।
शरीर पर चमड़ी का क्षेत्रफल लगभग 250 वर्ग फुट होता है। वजन 6 पौण्ड। सबसे पतली वह पलकों पर होती है 0.5 मिली मीटर। पैर के तलवों में सबसे मोटी होती है 6.00 मिली मीटर। साधारणतया उसकी मोटाई 0.3 से लेकर 300 मिली मीटर की होती है। उसमें बारीक-बारीक अगणित छेद होते हैं जो खुर्दबीन की सहायता से देखे जा सकते हैं। औसतन इन छेदों से दिन-रात में 10 छटांक पसीना बाहर निकलता है। गर्मी पड़ने पर या अधिक परिश्रम करने पर जब शरीर का इंजन गरम हो उठता है तो उसे ठण्डा करने के लिए स्वेद ग्रन्थियां तेजी से पसीना बाहर निकालती हैं और बदन ठण्डा कर देती हैं। पर सर्दियों में शरीर को गरम रखने की जरूरत पड़ती है इसलिए वे छेद सिकुड़ जाते हैं। भीतर की गर्मी रुकी रहती है और ठण्ड से बचाव हो जाता है। इस तरह त्वचा की संरचना शरीर को ‘‘एयर कंडीशन’’ बनाये रहती है।
त्वचा छिद्र पसीना ही नहीं निकालते वे एक प्रकार से सांस भी लेते रहते हैं। वाष्प की तरह कुछ चीजें बाहर निकलती रहती हैं और जरूरत की चीजें भीतर घुसती रहती हैं। इस तरह छोटे छेद एक प्रकार से नाक के छोटे बड़े छेदों का भी काम करते हैं। यदि यह छेद सर्वथा बन्द हो जायें तो आदमी घुटकर मर जायगा। पुराने जमाने में अपराधी को मौत की सजा देने का एक तरीका यह भी था कि उसके शरीर पर मोम पोत दिया जाय, हाथ बंधे होने से वह उसे हटा नहीं सकता था और त्वचा का श्वास बन्द हो जाने पर घुट-घुटकर मर जाता था। एकबार एक लड़के के शरीर पर सीरा पोत कर रुई चिपकाई गई और लंगूर का स्वांग बनाया गया। त्वचा छिद्र बन्द हो जाने से लड़का थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया और अस्पताल पहुंचते-पहुंचते मर गया। जो लोग स्नान की उपयोगिता नहीं समझते। चिन्ह पूजा का स्नान करते हैं। चमड़ी पर मैल की परतें जमने देते हैं उन्हें जानना चाहिए कि यह गन्दी आदत स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही अहितकर है।
सांप की केंचुली सबने देखी है। मनुष्य की त्वचा भी केंचुली बदलती है पर उसका क्रम बहुत हलका और धीमा होने से दिखाई नहीं पड़ता। किसी बीमार के बहुत दिन तक चारपाई पर पड़े रहने के बाद उसकी चमड़ी पर से भूसी उतरती देखी जाती है। शिर में भी अक्सर भूसी जमती रहती है। शरीर को रगड़ने पर मैल की तरह से भी केंचुली के अंश रहते हैं। हमें दिखाई भले ही न दें पर चमड़ी की कोशाएं मरती रहती हैं और उनका स्थान नई ग्रहण करती रहती हैं। इस प्रकार केंचुली बदलने का क्रम चलता रहता है। सांप ही नहीं मनुष्य भी केंचुली बदलता है।
त्वचा के भीतर बिखरे हुए ज्ञान तन्तुओं की लम्बाई 45 मील कूती गई है। यह शरीर को स्पर्श होने वाले अनुभवों को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के तन्तु भी हैं जो दृश्य, गन्ध, ध्वनि, दबाव, स्वाद सर्दी-गर्मी की अनुभूतियां नाक, कान, आंख, जीभ आदि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से विशिष्ट प्रकार की अनुभूतियां कराने में योगदान करते हैं।
त्वचा में एक विशेष तेल रहता है जो ‘‘कोरियम’’ कहलाता है। शरीर पर इसी चिकनाई की चमक रहने से सौन्दर्य बढ़ता है और तेजस्विता झलकती है। इसी प्रकार त्वचा की रंजक कोशिकाएं ‘मेलानिक’ नामक रंग उत्पन्न करती हैं। इन्हीं के कारण गोरा, काला, गेहुंआ, पीला आदि रंग मनुष्य का होता है।
चोट लग जाने पर क्षत स्थल की पूर्ति करने के लिए समीपवर्ती पड़ौसी पदार्थ दौड़ पड़ते हैं और वह घाव जल्दी भर देते हैं। योगसाधना के षटचक्रों की तरह त्वचा की छह परतें हैं (1) स्ट्रेटम कोर्नियम—सबसे ऊपर की (2) स्ट्रेटन ल्यूसीडम—पारदर्शी (3) स्ट्रेटम—ग्रैन्यू—लोसम मूर्छित (4) स्ट्रेटम एस्यूलीटम—अपेक्षाकृत मोटी परत (5) स्ट्रेटम वेसेल—क्षति पूरक (6) कोरियम या डर्मिस सहायक। हाथ पैरों के पोरुवे, हथेली तलवे आदि पर जहां—तहां जो मोटी गद्दी-सी पाई जाती है उसे पोपिली—कहते हैं। त्वचा परतों में कितनी वस्तुएं विद्यमान हैं। (1) केशग्रन्थि, (2) स्वेद ग्रन्थि, (3) तैल ग्रन्थि (4) वाह्य त्वचा, अन्तःत्वचा (5) स्नायु, (6) मज्जाकोष (7) रक्त नलियां इनमें से मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त अधिक गहराई से जानने पर उनमें और भी बहुत कुछ मिलेगा।
यह त्वचा सम्बन्धी शारीरिक जानकारी हुई। चेतनात्मक परिचय यह है कि वाह्य वस्तुओं को स्पर्श करके मस्तिष्क तक उसकी जानकारी पहुंचाने का अति महत्वपूर्ण कार्य त्वचा का ही है। संसार में व्यक्ति का सम्बन्ध बनाने—वस्तुओं को शरीर के साथ जोड़ने मिलाने का कार्य उसी के द्वारा सम्पन्न होता है। अतएव उसे अन्य समस्त इन्द्रियों से अधिक व्यापक और समर्थ बनाया गया है। त्वचा में इतनी अद्भुत शक्तियां भरी पड़ी हैं कि यदि उन्हें विकसित कर लिया जाय तो वह अन्य समस्त ग्रन्थियों का काम कर सकती हैं। त्वचा से देखा जा सकता है, सुना जा सकता है सूंघा जा सकता है, चखा जा सकता है। स्पर्श सुख तो उसका प्रधान कार्य है—मैथुन ही नहीं—काम स्पंदन के अन्य प्रकार भी लगभग उसी के द्वारा अनुभव होते हैं और हलचल मचाने वाली अन्तःस्थिति उत्पन्न करते हैं।
त्वचा अन्य इन्द्रियों का भी कार्य कर सकने में समर्थ है। मूलतया यह शक्ति उसमें पूरी तरह विद्यमान है। काम में न आने से ही वह प्रसुप्त पड़ी है। योग साधनाओं द्वारा यदि त्वचा की संवेदनशीलता बढ़ाली जाये तो अन्य इन्द्रियों की शक्ति बचाकर त्वचा से ही काम चलाया जा सकता है। वह बची हुई अन्य इन्द्रियों की शक्ति अन्य उपयोगी कार्यों में खर्च हो सकती है। जिनकी कोई इन्द्रिय नष्ट हो गई है वे अभ्यास करके त्वचा से ही उस प्रयोजन को पूरा कर सकते हैं। नेत्रों का काम त्वचा कर सकने में समर्थ है इस सम्बन्ध में रूस में लगातार कई उदाहरण सामने आये हैं और वहां इस सम्बन्ध में काफी खोज भी हो रही है।
त्वचा के पारदर्शी परत केवल आर-पार दिखाने वाले ही नहीं हैं। वे ऐक्सरे का काम करते हैं यदि उन्हें विकसित किया जा सके तो एक्सरे यन्त्र के स्थान पर अपनी त्वचा के संस्पर्श से ही अज्ञात और अदृश्य का एक बड़ा भाग हमारी जानकारी में आ सकता है।
कुछ समय पूर्व मास्को में एक टेलीविजन कार्यक्रम पर यह दिखाया गया था कि किस प्रकार बिना आंखों की सहायता के मात्र स्पर्श से देखने का काम लिया जाना सम्भव है। निझनी तगिन की 22 वर्षीया कुमारी रोजा कुलेशोवा ने अपने दाहिने हाथ की तीसरी थौची उंगली में दृष्टि शक्ति की विद्यमानता का परिचय दिया। आंख से मजबूत पट्टी बंधवाकर वैज्ञानिकों की उपस्थिति में उसने इन दो उंगलियों के सहारे अखबार का एक पूरा लेख पढ़ कर सुनाया और फोटो चित्रों को पहचाना। इससे रूसी वैज्ञानिकों की शरीर में संव्याप्त चेतना को बहुमुखी प्रयोजन पूरा कर सकने की क्षमता का ज्ञान हुआ और नृतत्व विज्ञान को एक नई शोध करने की दिशा मिली।
अभी उस अध्याय में एक कड़ी और जुड़ी है। कितने ही लोगों ने तलाश किया कि क्या उनमें या उनके कुटुम्बियों में भी कोई इन्द्रियातीत शक्ति हैं। इस खोज में इस वर्ष एक 9 वर्षीय लड़ती और प्रकाश में आई है जिसने रोजाकुलेशोवा की अपेक्षा और भी अधिक लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया।
संवाददाता निकोलाई स्वितेको के अनुसार खार्कोंव की श्रीमती ओल्गा व्लिजनोवा ने अपनी 9 वर्षीय पुत्री में यह प्रतिभा और भी अधिक बढ़ी-चढ़ी पाई तो उसने सोवियत विज्ञान अकादमी के सम्मुख उसे पेश किया और कई तरह के अद्भुत परीक्षण कराये। बिछी हुई शतरंज पर से उसने काली और सफेद गोट छांटकर अलग कर दीं। इसके बाद रंग-बिरंगे कागजों की कतरनें उसने तरतीब बार छांटीं परिचित लोगों के फोटो पहचाने। बच्ची कम पढ़ी थी सो उसे बच्चों वाली रंगीन किताबें दी गईं और उसने उन्हें हाथ से छूकर ठीक तरह पढ़ दिया।
इसके बाद और भी कठिन परीक्षा शुरू हुई। उंगलियों के अतिरिक्त क्या शरीर के किसी अन्य भाग में भी ऐसी शक्ति हैं। इसका परीक्षण किया गया तो वह बात भी सही निकली, उसने बांह, कन्धा, पीठ, पैर आदि से छूकर भी वैसा ही अनुभव प्रस्तुत किया जैसा हाथ से छूकर करती थी। क्या चीजों को बिना छुये भी इस तरह की पहचान की जा सकती है? इस परीक्षण में पांच सेन्टीमीटर दूर रखी चीजों तक को उसने उंगली के पोरवों की सहायता से पढ़ लिया। 9 महीने बाद उसने दूसरी तैयारी में और भी अधिक दूर पर रखी हुई चीजों को देखने और कागजों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। इसी प्रकार उसने पैर की उंगलियों से छूकर कितनी ही वस्तुओं का सही-सही परिचय बताया। रूस के वैज्ञानिकों का ध्यान तब से इस दिशा में अधिक गया है और उन्होंने उस सम्बन्ध में लगातार शोध कार्य किया है।
मनोविज्ञान शाखा के वरिष्ठ शोधकर्त्ता प्रो. कोन्स्टाटिन प्लातोनोव ने कहा है—मानवीय चेतना विद्युत की व्यापकता को देखते हुए इस प्रकार की अनुभूति अप्रत्याशित नहीं है। नेत्रों में जो शक्ति काम करती है वही अन्यत्र ज्ञान तन्तुओं में विद्यमान है उसे विकसित करने पर मस्तिष्क को वैसी ही जानकारी मिल सकती है जैसी आंखों से मिलती है।
प्रो. एलेक्जोदर स्मिर्नोव ने कहा है कि—यह कोई अलौकिक बात नहीं है। वरन् सामान्य विज्ञान सम्मत सिद्धान्तों का ही एक दिलचस्प प्रतिपादन है। एक अंग की चेतना दूसरे अंगों में भी काम कर सकती है।
निझोरी तागिल पैडागोगीकल इन्स्टीट्यूट के रीडर नोवोमोइस्की ने अपने अनेक छात्रों में इस तरह की विशेषता को ढूंढ़ा तो कुछ छात्राएं ऐसी मिल गईं जिनमें एक सीमा तक इस तरह की शक्ति मौजूद है उसे बढ़ाने पर सफलता की मात्रा अधिक बढ़ने की भी आशा की गई है। इस तरह की क्षमता अन्य अंगों की अपेक्षा दाहिने हाथ की उंगलियों में अधिक पायी गई है और लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में यह अतीन्द्रिय तत्व अधिक हैं। आयु बढ़े के साथ कठोरता ज्ञान तन्तुओं में आ जाती है उसके कारण बड़ी उम्र में शरीर उतना संवेदनशील नहीं रह जाता, फलस्वरूप ऐसे अनुभव प्रौढ़ वर्ग में दृष्टिगोचर नहीं होते।
त्वचा का महत्व यदि समझा जाय तो वह अति महत्वपूर्ण माध्यम सिद्ध होगी। अन्य समस्त इन्द्रियों का तो वह कार्य कर सकने में समर्थ है ही साथ ही अंतःचेतना को विकसित एवं परिवर्तित करने में उसका और भी ऊंचा उपयोग है। साधना विज्ञान में त्वचा साधना को ‘‘स्पर्शास्पर्श’’ कहते हैं इसका क्षेत्र अति व्यापक, विस्तृत और प्रभावोत्पादक माना गया है।
हमारी रक्त सम्पदा कितनी मूल्यवान
जिसे हम रक्त के नाम से जानते हैं। मोटेतौर पर वह लाल रंग का पानी है जो नस नाड़ियों में ऐसे ही मन मौजी घुमक्कड़ की तरह धूमता फिरता रहता है। यदि बारीकी से देखा जाय तो किसी देश या नगर की जल व्यवस्था की तरह रक्त संचार प्रक्रिया भी अनेकानेक गुत्थियों को सुलझाती हुई व्यवधानों का निराकरण करती हुई ही गतिशील हो रही है। उसकी गतिविधियां देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
सारे शरीर में रक्त की एक परिक्रमा प्रायः डेढ़ मिनट में पूरी हो जाती है। हृदय और फेफड़े के बीच की दूरी पार करने में उसे मात्र 6 सैकिण्ड लगते हैं, जब कि उसे मस्तिष्क तक रक्त पहुंचने में 8 सैकिण्ड लग जाते हैं। रक्त प्रवाह रुक जाने पर हृदय भी 5 मिनट जी लेता है, पर मस्तिष्क तीन मिनट में ही बुझ जाता है। हृदय फेल होने की मृत्युओं में प्रधान कारण धमनियों से रक्त की सप्लाई रुक जाना ही होता है। औसत दर्जे के मनुष्य शरीर में पांच से छह लीटर तक खून रहता है। इसमें से 5 लीटर तो निरन्तर गतिशील रहता है और एक लीटर आपत्ति कालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है। 24 घण्टे में हृदय को 13 हजार लीटर खून का आयात-निर्यात करना पड़ता है। 10 वर्ष में इतना खून फेंका समेटा जाता है जिसे यदि एक बारगी इकट्ठा कर लिया जाय तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में ही भरा जा सकेगा। इतना श्रम यदि एक बार ही करना पड़े तो उसमें इतनी शक्ति लगानी पड़ेगी जितनी कि दस टन बोझ जमीन से 50 हजार फुट तक उठा ले जाने में लगानी पड़ेगी। शरीर में जो तापमान रहता है, उसका कारण रक्त प्रवाह के कारण उत्पन्न होने वाली ऊष्मा ही है।
अपने चार वर्ण और चार आश्रमों की तरह रक्त के भी चार वर्ण हैं। भगवान मनु ने मनुष्य जीवन की क्रम व्यवस्था इन चार भागों में की थी। लेण्ड स्टीनर ने रक्त की चार श्रेणियों का रहस्योद्घाटन किया था। सब मनुष्यों का रक्त एक जैसा नहीं होता, इनके बीच कुछ रासायनिक भिन्नता रहती है। इसी को ध्यान में रखते हुए उसे (1) ए. (2) बी. (3) ए.बी. (4) ओ. इन चार नामों से वर्गीकरण किया है। किसी की नसों में किसी का रक्त चढ़ाने से पहले यह विधि वर्ग मिला लिया जाता है अन्यथा भिन्न रक्त चढ़ा देने से रोगी भयंकर विपत्ति में फस जायगा और मृत्यु संकट सामने आ खड़ा होगा।
हमारा रक्त लाल रंग का एक गाढ़ा तरल पदार्थ है जो हवा लगने पर जम जाता है उसे दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। (1) तरल पदार्थ—प्लाज्मा (2) ठोस कण—सारतत्व। प्लाज्मा, रक्त में 55 प्रतिशत होता है, इस भूरे, पीले रंग के पानी जैसी शकल में देखा जा सकता है। उसमें नमक, ग्लूकोस, प्रोटीन आदि घुले रहते हैं। कुछ ठोस पदार्थ उसमें घुल नहीं पाते और तैरते रहते हैं। इन ठोस कणों को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं (1) एरिथ्रोसाइट खून के लाल कण (2) ल्यूकोसाइट खून के सफेद कण (3) प्लेटलेट—खून की पपड़ियां।
लाल कण शरीर के प्रत्येक अंश-तंतु और कोष को आहार एवं ऑक्सीजन पहुंचाते हैं, मल रूप निकली कार्बनडाई ऑक्साइड गैस को ढोकर फेफड़ों तक ले जाते हैं; ताकि वहां से सांस द्वारा उसे बाहर निकाला जा सके।
सफेद कण वस्तुतः कोषाणु हैं उनकी संख्या कम ही होती है, 650 लाल कणों के पीछे एक। इन्हें शत्रु रोगाणुओं से लड़ने वाले सैनिक कहा जा सकता है। शरीर के किसी भाग में यदि रोगकीट हमला करदें तो यह श्वेत कण उनसे लड़ने को तत्काल जा पहुंचते हैं। आवश्यकता के समय अपनी जाति वृद्धि कर लेने की इनमें अद्भुत क्षमता है। रोगों के कीटाणु हवा, पानी, आहार, छूत या चोट आदि के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ये इतने भयंकर होते हैं कि देखते-देखते सारे शरीर पर कब्जा कर सकते हैं और किसी को भी रोगग्रस्त करके मौत के मुंह में धकेल सकते हैं। ईश्वर को लाख धन्यवाद कि इस रोग कीटाणुओं से भरे शत्रुओं के चक्रव्यूह में आत्मरक्षा करने के लिए हमें श्वेत कणों की सुदृढ़ सेना दी है। यदि यह न मिली होती तो पग-पग पर मृत्यु संकट सामने खड़ा रहता।
श्वेत कोषाणु रोग कीटाणुओं से अधिक प्रबल होते हैं और वे शत्रुओं को मार काट कर धराशायी करने में प्रायः सफल ही रहते हैं। इस युद्ध में उनमें से भी बहुतों को शहीद होना पड़ता है। मृत श्वेत कणों के ढेर को सफेद पीव के रूप में देखा जा सकता है; वह चमड़ी तोड़कर बाहर निकलता है। अपनी विशेषताओं के आधार पर उन श्वेतकणों की भी कई जातियां होती हैं यथा—न्यूट्रोफिल, ईओसिनोफिल, वेसोफिल, लिम्फोसाइट, मोनोसाइट आदि। इनका आवश्यकता से अधिक बढ़ जाना या घट जाना भी चिन्ता का विषय है इनकी असाधारण वृद्धि ‘ल्यूकोसाइटोसिस’ और कमी ल्यूकोपेनिया कहलाती है।
साधारणतया प्रतिघन मिली मीटर रक्त में 5 से 10 हजार तक श्वेत कण होते हैं। पर कभी-कभी यह संख्या बढ़ कर ढाई लाख तक जा पहुंचती है तब यह वृद्धि आत्मघाती सिद्ध होती है। कैंसर की संभावना बढ़ जाती है।
रक्त रस-प्लाज्मा में 90 प्रतिशत जल और 10 प्रतिशत में चर्बी, हारमोन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बनडाई ऑक्साइड आदि पदार्थ मिले होते हैं। इस हल्के पीले रंग के तरह पदार्थ में लाल और श्वेत रक्त कणिकाएं तथा विम्बाणु तैरा करते हैं। लाल रक्त कण इतने छोटे होते हैं कि वे 3000 की संख्या में सीधे एक लाइन में रख दिये जायं तो एक इंच से भी कम लम्बाई होगी। युवा मनुष्य के शरीर में 25,000,000,000,000 लाल रक्त कण होते हैं, वे चार महीने जीवित रह कर मर जाते हैं और उनका स्थान लेने के लिए नये पैदा हो जाते हैं।
रक्त की चाल धमनियों में प्रतिघण्टा 65 कि.मी. की है। रक्त कणिकाएं लौह और ऑक्सीजन से मिलकर बने पदार्थ हीमोग्लोबिन अपने साथ प्रोटीन, प्राण वायु आदि अपने पोशाक पदार्थ अपने ऊपर लाद कर चलता है और उस खुराक को शरीर के कण-कण तक पहुंचाता है। उसे दुहरा काम करना पड़ता है। इधर से उपयोगी पदार्थों का पहुंचाना, उधर से कार्बन डाइऑक्साइड तथा दूसरी हानिकारक गन्दगियों को समेट कर फेफड़े द्वारा बाहर निकाल दिये जाने के लिए उन तक पहुंचाना, यह दुहरी ढुलाई उसे करनी पड़ती है। अपने काम को रक्त द्रुत गति से करता है। पोषण पहुंचाने तथा गन्दगी साथ करने के रसोई महाराज और सफाई जमादार की दुहरी ड्यूटी देने में उसे कोई आपत्ति नहीं होती।
लाल रक्त कणिकाएं प्रायः 4 महीने में लगभग 1500 चक्कर सारे शरीर के लगा देने के बाद बूढ़ी होकर मर जाती हैं। तिल्ली के जिम्मे उनका अंत्येष्टि संस्कार करना और लाश को तोड़-फोड़ कर मल द्वारों से बाहर निकालने की व्यवस्था उसी को जुटानी पड़ती है। हमारा छोटा सा शरीर वस्तुतः बहुत बड़ा है। एक पूरी पृथ्वी के बराबर जीवधारी उसमें रहते हैं। इसलिए उसके व्यवस्था कर्मचारियों की संख्या भी लगभग उसी अनुपात में रहती है। इन 2500 करोड़ लाल रक्त कणों को यदि एक सीधी पंक्ति में बिठा दिया जाय तो इतना छोटा आकार रहते हुए भी वे इतनी बड़ी लाइन में होंगे जो समस्त पृथ्वी की चार बार परिक्रमा कर सकें।
ऊपर कहा जा चुका है कि रक्त में तीन जाति के कण रहते हैं लाल रक्त कणों की चर्चा हो चुकी है। अब कर्मचारियों में 1 करोड़ 20 लाख श्वेत रक्ताणु और 50 लाख लाल रक्त विम्बाणु और रहते हैं। एक बूंद खून में प्रायः 11 हजार श्वेत कण होते हैं। इन का मुख्य कार्य शरीर में बाहर से प्रवेश करने वाले अथवा भीतर से ही पैदा होने वाले रोग कीटाणुओं से लड़कर उन्हें परास्त करना और उनके शरीरों को देह से बाहर निकाल देना होता है। बीमारियां तभी प्रकट होती हैं जब ये श्वेत कण रोगाणुओं से हारते हैं। अन्यथा हमें पता भी नहीं चलता है और रोग निवारण का अधिकांश कार्य इन श्वेत कणों द्वारा भीतर ही भीतर निपटा दिया जाता है। बाहरी रक्त शरीर में प्रवेश कराया जाय या किसी दूसरे व्यक्ति का कोई अंग किसी की देह में आरोपित कराया जाय तो यह श्वेत कणिकाएं ‘बाहरी पदार्थ’ के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर देती हैं और लेने के देने पड़ जाते हैं। यही कारण है कि डॉक्टर लोग किसी रोगी को वही रक्त चढ़ाते हैं जो उसके अपने रक्त का सजातीय हो। अंगों का आरोपण करते समय इन श्वेत कणों को मूर्छित करने की औषधियां देकर चुप कर दिया जाता है।
तीसरे किस्म के रक्त विम्बाणु कभी चोट आदि लगने पर बाहर बहते हुए रक्त को जमाने की भूमिका सम्पादित करते हैं। यह न हो तो आघात लगने पर रक्त बाहर बहता ही रहे और उसके न रुकने पर मृत्यु हो जाय। एक बूंद खून में इनकी संख्या 3 लाख के करीब होती है और प्रायः 10 घण्टे ही जीवित रहते हैं।
यदि रक्त में लाल कण कम पड़ जायं या होमोग्लोबिन की मात्रा घट जाय तो ‘एनीमिया’ रोग हो जाता है, शरीर थका-थका सा रहता है और शिर चकराता है। रक्त के अभाव में हृदय तो पांच मिनट भी अपना काम चला लेता है, पर मस्तिष्क तीन मिनट में ही निर्जीव हो जाता है।
वांई पसलियों में 9वीं, 10वीं और 11वीं के नीचे आमाशय के पीछे तिल्ली का स्थान है यह लाल बैंगनी रंग की है। इसमें रक्त एकत्रित रहता है। उसकी 12 सेन्टीमीटर लम्बाई तथा 7 सेन्टीमीटर चौड़ाई होती है। वजन 150 से 200 ग्राम तक। इसमें रक्त को एकत्रित करने और निकालने की विशिष्ट क्षमता है।
पुराने जर्जर लाल रक्त कर्ण अक्सर इसी में समाधिस्थ होते रहते हैं। गर्भावस्था में उसे रक्त बनाने के एक विशेष कारखाने का काम करना पड़ता है। किसी दुर्घटना के समय रक्त अधिक निकल जाय अथवा मज्जा में कोई दोष उत्पन्न हो जाय तो तिल्ली को उस आपत्ति काल में विशेष कार्य करना पड़ता है। और उस क्षति की पूर्ति वहीं से हो जाती है।
बाहरी रोग कीटाणुओं के आक्रमण से शरीर की रक्षा करना तिल्ली का मुख्य कार्य है। तपैदिक, टाइफ़ाइड, सिफलिस, कालाजार, मलेरिया आदि रोगों के विषाणुओं से लड़ने वाली फौज विशेषतया तिल्ली में ही तैयार होती है तब उसका वजन भी बढ़ जाता है। रक्त कैंसर—ल्यूकीमिया—में तो तिल्ली 20 गुनी तक बढ़ जाती है और एक प्रकार से सारे पेट पर ही कब्जा कर लेती है।
रक्त संचार की दुनिया बहुत महत्वपूर्ण और सुव्यवस्थित है। उसे न शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है और न ही उसका विवेचन किया जा सकता है फिर भी यह कम आश्चर्यजनक और अद्भुत विलक्षण नहीं है। रक्त संचार की इस सुव्यवस्थित और महत्वपूर्ण दुनिया को यदि ठीक तरह से समझा जा सके और उसके उपयुक्त रीति-नीति अपनाई जा सके तो परिपुष्ट और सुविकसित दीर्घजीवन प्राप्त किया जा सकता है।
रक्त सम्पदा, त्वचा और मस्तिष्क ही नहीं शरीर संस्थान का एक-एक घटक अद्भुत तथा विलक्षण है। साढ़े पांच-छह फीट की इस मानवी काया में परमात्मा ने इसमें अधिक आश्चर्य भर दिये हैं कि उसे देवमंदिर कहने और मनने में कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए। इस शरीर में सब देवताओं का आवास है। जीवित और जागृत देवताओं का सान्निध्य प्राप्त रहने पर भी कोई व्यक्ति इन देवसत्ताओं का लाभ न उठा पाये तो इससे बड़ी दुर्भाग्यता और क्या होगी।