Books - चेतना की प्रचण्ड क्षमता-एक दर्शन
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्रचण्ड पुरुषार्थ का प्रतिफल मनुष्य जन्म
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनुष्य परमात्मा का पुत्र राजकुमार कहा जाता है। उसमें वे सभी विशेषतायें हैं, जिनके आधार पर उसे इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जा सके। इसी तथ्य का एक पहलू यह भी है कि मनुष्य और छोटे-छोटे एक कोशीय जीव अमीबा या हाइड्रा में कोई अन्तर नहीं है। प्रकाश रूप आत्मा की लघुत्तम सत्ता में भी विराट् विश्व संव्याप्त है। 5 फीट 6 इंच लम्बे 120 पौण्ड भार के शरीर में जो कुछ है आश्चर्य नहीं, बीज और संस्कार रूप से वह सब एक वीर्य कोष में विद्यमान रहता है। शरीर शास्त्रियों का मत है कि कोष स्थित गुण सूत्र (क्रोमोसोम) और संस्कार सूत्र (जीन्स) में वह सबके सब शारीरिक और मानसिक लक्षण और विशेषतायें विद्यमान रहती हैं, जो आगे चलकर मनुष्य शरीर में परिपक्व होने वाली होती हैं। बच्चे की 6 उंगलियां होंगी या दो जुड़ी हुई, आंख नीली होंगी या पीली यह सारे लक्षण प्रजनन कोषों में विद्यमान रहते हैं।
स्त्री के प्रजनन क्षेत्र में भी विशेष प्रकार के जननेन्द्रिय कोष (ओवम) पाये जाते हैं। प्रत्येक पन्द्रहवें दिन दायें या बायें ओर स्त्री के काम-अवयव (सेक्स-आर्गन) जिसे ‘ओवरी’ कहते हैं, में एक जननेन्द्रिय कोष प्रकट होता है। वहां से निकलकर ‘फिम्रिएटेड एण्ड’ जो एक पंजे की शक्ल का अवयव होता है, उसमें चला जाता है यहां से चलकर वह गर्भाशय की भीतरी दीवाल से चिपक जाता है, जब तक कामेच्छा नहीं होती, मासिक धर्म के साथ ओवम-कोष धुलकर बाहर निकल जाता है, किन्तु यदि काम की इच्छा हो और स्त्री को पुरुष का संयोग मिले तो यह सम्भव है कि पुरुष का एक वीर्य-कोष (स्पर्म) गर्भाशय में जाकर ओवम से मिल जाये। ओवम और स्पर्म का मिलना ही गर्भाधान कहलाता है।
पुरुष शरीर का वीर्य-कोष (स्पर्म) मछली के बच्चे जैसी आकृति का होता है, किन्तु उसे नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। परमाणु का सैद्धान्तिक व्यास 0.000001 मिलीमीटर होता है, जबकि उसके नाभिक का व्यास 0.000000000001 मिलीमीटर होता है। इनका ही अध्ययन करने के लिये शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों (माइक्रोस्कोप) की आवश्यकता होती है तो इनसे भी लघुतम आकार के मानव प्रजनन कोषों को तो बिना न्यूक्लियर माइक्रोस्कोप को देख पाना भी सम्भव नहीं। लघुतम होकर भी वीर्य-कोष का सुनिश्चित आकार होता है। सबसे ऊपर त्रिपार्श्व, फिर एक अण्डाकार पिण्ड और उसमें भी पूंछ। यह है, मनुष्य शरीर का आधार। कितना लघुतम रूप पर कितनी शक्तिशाली सत्ता। एक मुर्दा परमाणु में 24 लाख किलो कैलोरी ऊर्जा हो सकती है, तब इस जीवन परमाणु की शक्ति का तो कहना ही क्या। यदि मनुष्य इस लघुता का चिन्तन कर सका होता तो वह शक्ति की एक अत्यन्त शुद्ध और विशाल अवस्था में होता। अज्ञानता का दम्भ और अहंकार तो स्वयं उसी के लिये कष्टदायक सिद्ध होता है। अहंकार के वशवर्ती मनुष्य अपने घर, पास-पड़ोस वालों से भी मैत्री बनाये नहीं रख पाता। यदि वह अपनी इस सूक्ष्मता का चिन्तन कर सका होता, तब उसे सृष्टि के छोटे से छोटे जीव और जर्रे-जर्रे में अपनी ही प्रतिच्छाया दिखाई देती, तब न किसी के साथ द्वेष होता न दुर्भाव। शक्ति, क्रियाशीलता, संतोष और आनन्द की विभूतियों से आच्छादित हो गया होता।
यह निश्चित हो गया है कि जीवन प्रणाली नाभिक में ही है और वह शक्ति रूप में है। उसका कोई आकार नहीं है एक अमीबा का नाभिक साइटोप्लाज्मा (नाभिक के अतिरिक्त कोष में जलवायु, गैस खनिज आदि जो भी है, सब साइटोप्लाज्मा कहलाता है) का कुछ अंश लेकर दो अमीबाओं में बदल जाता है, दोनों की आकृति स्वभाव भिन्न-भिन्न हो जाते हैं, लगता है वे दोनों अलग-अलग विचार प्रणाली के रूप में जन्मे हों। एक ही विचार प्रणाली या केन्द्रीभूत सत्ता का अनेक रूपों विभक्त होना ऐसा ही है। वस्तुतः चेतना सारे विश्व में एक ही है। उस विश्व-व्यापी चेतना को जब हम एक महत् इकाई के रूप में देखते हैं तो वही सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी ईश्वर के रूप में दिखाई देने लगता है। सविता के रूप में वही आत्मा मनुष्य और कीड़े-मकोड़ों के जीवन में वही जीव कहलाता है। तीनों अवस्थायें विराट् से सूक्ष्म और सूक्ष्म से विराट्। इसी विद्या का अवगाहन कर हम भारतीय भी योगी, दृष्टा, ऋषि और महर्षि हो गये थे। ज्ञान के पुंज थे, शक्ति के पुंज थे हम, और उसका एक मात्र आधार यह तत्त्व-दर्शन ही था जिसने हमें ससीम से असीम बना दिया था।
जिस प्रकार एक अमीबा उपरोक्त विधि द्वारा अनेक अमीबाओं में बदल सकता है, उसी प्रकार स्त्री के गर्भाशय में पहुंचा हुआ, आत्म-चेतना कण या वीर्य-कोष अपना विस्तार प्रारम्भ करता है। एक वीर्य-कोष टूट कर दो हो जाते हैं। इस क्रिया में कोष की अन्तःप्रेरणा काम करती है। फिर दो कोष विभक्त होकर चार बन जाते हैं। चार-आठ, आठ-सोलह, सोलह-बत्तीस। इस क्रम में यह कोष (सेल्स) ही बढ़ते और पकते रहते हैं। प्रारम्भ में इनकी स्थिति शहतूत के फल (मोरुला) की सी होती है। फिर एक प्लेट और प्लेट से ट्यूब की शक्ल बनती है, यह ट्यूब आकृति ही तीन स्थानों से मुड़कर मस्तिष्क के तीन भाग (1) अग्रभाग (फोरब्रेन), (2) मध्य मस्तिष्क (मिडब्रेन), (3) पिछला मस्तिष्क (विहाइडब्रेन) बन जाते हैं।
कोषों का बनना अभी भी जारी रहता है, मुख्य कोष मां के शरीर से पोषण ले लेकर प्रत्येक कोष के लिये शारीरिक प्रकृति (साइटोप्लाज्मा) भाग जुटाता रहता है, जब अनेक कोष एकत्र हो जाते हैं तो फिर सुषुम्ना शीर्षक (स्पाइनल कार्ड) बनना प्रारम्भ होता है और इस तरह नीचे का शरीर बनता हुआ चला जाता है। यह कोष प्रत्येक स्थान की परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप मुड़ते, सीधे होते, कड़े और कोमल होते चले जाते हैं और इस प्रकार नौ महीने की अवधि में एक विकसित बच्चा बन जाता है। आठ, दस पौण्ड वजन का बालक सौ पौण्ड के मनुष्य में बदल जाता है। कुछ ईश्वर की लीला ऐसी ही विचित्र है अन्यथा जो चेतनता इस मनुष्य शरीर में है, वही उस एक मूल कोष (स्पर्म) में थी और वह अपने आप में एक पूर्ण संसार था। मनुष्याकृति में एक विस्तृत और वैज्ञानिक क्षमताओं से परिपूर्ण शरीर देने का उद्देश्य तो यही था कि मनुष्य स्थूल और सूक्ष्म-ज्ञान और अज्ञान, यथार्थ और अयथार्थ के लक्ष्य को अच्छी तरह समझेगा, किन्तु दुर्भाग्य मनुष्य का है कि वह शरीर के साथ अपनी आत्मिक चेतना को भी स्थूल बनाता चला जाता है। इस तरह उसकी शक्तियां भी अपवित्रता के अन्धकार में छुपती चली आती हैं और जीवन मुक्ति, शाश्वत लक्ष्य प्राप्ति जैसे लक्ष्य से वह वंचित होता हुआ चला जाता है।
चेतना मनुष्य शरीर के रूप में विकसित होकर परमाणु से भी बड़ी दिखाई देने लगी, यह उसका महत्तम रूप है और परमात्मा ने यह किसी विशेष हेतु से किया है। हम सब आनन्द की खोज में हैं, उस आनन्द की परिभाषा कर पाना दूसरे जीवों के लिये कठिन है, क्योंकि उनमें बुद्धि-विवेक की ऐसी क्षमता नहीं, जैसी मनुष्य में। मनुष्य चाहे तो इस शरीर की विज्ञानमय शक्तियों का प्रयोग करके अपने महत्तम रूप और सौभाग्य, को विश्वात्मा, विराट् शरीर में विकसित कर सकता है। यही स्थिति जिसमें मनुष्य को न तो कोई अभाव हो, न अज्ञान, अशक्ति हो, न अक्षमता, सबसे अधिक आनन्द-उल्लास और सामर्थ्य से परिपूर्ण हो सकती है।
मनुष्य की क्षमता सामर्थ्य
मनुष्य गया-गुजरा उस स्थिति में—जब अपनी सामर्थ्य को पहचानने और उसका उपयोग करने में उपेक्षा बरतें। महान् और असाधारण उस स्थिति में—जब वह अपनी गरिमा को समझे और असीम क्षमता पर विश्वास करे। साधारणतया यह आत्म-विश्वास की कमी ही वह कठिनाई है जिसके कारण हेय स्थिति में रहना पड़ता है।
मनुष्य की क्षमता का एक छोटा उदाहरण उसकी आरम्भिक स्थिति ‘भ्रूणवस्था’ की गतिविधियों का पर्यवेक्षण करते हुए सहज ही किया जा सकता है। अपनी सत्ता के प्रकटीकरण अवसर पर साधन रहित स्थिति में यदि इतना अधिक पुरुषार्थ किया जा सकता है, तो साधन सम्पन्न और विकसित स्थिति में अपेक्षाकृत और भी अधिक पराक्रम कर सकना सम्भव होना चाहिए। किन्तु देखा यह जाता है कि श्री गणेश का उपक्रम पीछे चल कर शिथिलता की दिशा में बढ़ने लगता है और क्रमशः ठंडा होता चला जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। अन्यथा कोई कारण नहीं कि आरम्भ में जिस स्तर की सक्रियता अपनाई गई थी, उसमें शिथिलता आने लगे। यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि आरम्भ में विशेष क्षमता होती है और वह पीछे स्वयमेव घट जाती है। बीज से अंकुर निकलते समय, अंकुर को पौधा बनते समय जो प्रगति क्रम दृष्टिगोचर होता है वह पीछे समाप्त या शिथिल कहां होता है? उस विकास प्रक्रिया में क्रमशः अभिवृद्धि ही होती चलती है; फिर कोई कारण नहीं कि प्रथम चरण में मनुष्य द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ आगे चलकर अधिकाधिक तीव्र होता चले। यदि इसी क्रमिक विकास की प्रक्रिया को अपनाये रहा जाय, उसमें शिथिलता न आने दी जाय तो मनुष्य देव या दैत्य स्तर के बढ़े-चढ़े काम करता रह सकता है।
पिता के शरीर से निकला हुआ शुक्राणु इतना छोटा होता है कि आलपिन की नोंक पर उसके हजारों भाई बैठ सकते हैं। उसे बिना शक्तिशाली सूक्ष्म-दर्शी यन्त्र के खुली आंखों से तो देखा तक नहीं जा सकता। रतिक्रिया से जो मंथन क्रिया होती है। उससे यौन संस्थान में तीव्र विद्युत स्पन्दन उठने आरम्भ हो जाते हैं। उन्हीं की उत्तेजना से वह शान्त पड़ा जीव उत्तेजित हो उठता है और अपनी स्वतन्त्र सत्ता का निर्माण करने के लिए सहयोगी की तलाश में द्रुतगति से परिभ्रमण करता है। उस समय उसके हाथ, पैर, आंख आदि कुछ नहीं होते, तो भी अपनी आन्तरिक आकांक्षा से प्रेरित होकर अभीष्ट साथी को खोजने के लिए इसी तेजी से दौड़ता है कि हिरन, चीते की दौड़ से भी उसका अनुपात बढ़ा-चढ़ा रहता है।
शुक्राणु को डिम्बाणु तक पहुंचने में—अपने आकार और स्था की दूरी के अनुपात से उतनी लम्बी यात्रा करनी पड़ती है जितनी कि उसे मनुष्य के बराबर आकार का होने पर पूरी पृथ्वी की दूरी नापनी पड़ती। इस यात्रा पर स्खलन के समय लाखों शुक्राणु अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति के लिए निकलते हैं। इसे डर्वी की घुड़ दौड़ के समतुल्य प्रतिस्पर्धा माना जा सकता है। प्रकृति सबल को सफलता देने की नीति अपनाती है। जो उस लम्बी और कष्ट साध्य यात्रा में अन्त तक प्रबल पुरुषार्थ नहीं कर पाते, बीच में ही थक कर बैठ जाते हैं, वे दम तोड़ देते हैं। जो अणु प्राणपण का साहस करता है वही सफल होता है और भ्रूण बनने का—प्रगति पथ पर अग्रसर होने का श्रेय प्राप्त करता है। शुक्र और डिम्ब का मिल कर बना हुआ ‘कलल’ बिजली की नेगेटिव और पाजेटिव दो दो धाराओं के सम्मिलन से उत्पन्न शक्ति प्रवाह की तरह सक्रिय हो उठता है। गंगा यमुना का यह मिलता तीर्थराज संगम बनता है। सहयोग और सहकारिता का—मैत्री और सघन आत्मीयता का—जीवन के पहले ही दिन जो पाठ पढ़ा जाता है; उसका सत्परिणाम तत्काल देखने को मिलता है। यह सहकारिता यदि आगे भी जारी रखी गई होती, उसका महत्व भुला न दिया गया होता तो मनुष्य प्रगति करते-करते न जाने कहां से कहां जा पहुंचा होता।
भ्रूण कलल आरम्भ में बाल की नोंक की बराबर होता है; किन्तु वह एक महीने के भीतर ही इतनी प्रगति करता है कि आकार में 50 गुना और वजन में 8000 गुना बढ़ जाता है। जो पहले दिन चिपचिपे जल बिन्दु के अतिरिक्त और कुछ नहीं था वही एक महीने में चौथाई इंच का बुलबुला बन जाता है। उसे परीक्षण, विश्लेषण की मेज पर रखा जाय तो स्थिति को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा। उसके सिर और धड़ को देखा जा सकता है। पैर पूंछ की तरह होते हैं। हाथ तो स्पष्ट नहीं होते, पर हृदय धड़कता हुआ और नसों में रक्त चक्कर लगाता हुआ देखा जा सकता है। जीव की सृजनात्मक गति का यह अद्भुत परिचय है। निर्माण का संकल्प जब कार्य रूप में परिणत होने के लिए आतुर हो उठे तो सहयोग, साधन और परिस्थितियां किस प्रकार अनुकूल होती चली जाती हैं; इसका यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। एक महीने मात्र—स्वल्प समय में किया गया कार्य—निर्माण का कार्य कितनी प्रगति कर लेता है; इसे देखते हुए जीव की अद्भुत सृजनात्मक शक्ति पर सन्देह करने का कोई कारण शेष नहीं रहता।
माता के शरीर में असीम मात्रा में पोषक पदार्थ भरे रहते हैं। उसे इच्छानुसार मात्रा में प्राप्त करने में भ्रूण पर कोई रोकथाम नहीं होती, पर वह सही विकास के सिद्धान्त को समझता है कि निर्वाह मात्र के लिए न्यूनतम लिया जाय, अन्यथा अनावश्यक संग्रह उसके लिए अन्ततः भार बनेगा और विपत्ति उत्पन्न करेगा। ‘त्येनत्युक्ते भुंजीथा’ का पाठ प्रत्येक प्रगतिशील को पढ़ना पड़ा है। भ्रूण भी उस सनातन सिद्धान्त से अपरिचित नहीं होता। उसे अपने शरीर के चारों ओर एक परत चढ़ानी पड़ती है। जो गर्भाशय में उपलब्ध सामग्री में से छना हुआ उपयुक्त पोषक पदार्थ ही भ्रूण तक जाने देती हैं। इसे संयम और मर्यादा का आवरण कह सकते हैं। शरीर-शास्त्र की दृष्टि से इस झिल्ली को ‘ट्रोफोब्लास्ट’ कहते हैं। सम्पत्ति के समुद्र में से मात्र उपयुक्त निर्वाह स्वीकार करने की व्यवस्था यह झिल्ली ही बनाती है। ऑक्सीजन और रसायन मिश्रित भ्रूण का उपयोगी आहार उसके शरीर में इसी झिल्ली द्वारा छनकर भीतर पहुंचता है। बात इतने से ही समाप्त नहीं होती। भ्रूण के शरीर से मल भी बनता है। उसे बाहर निकालना आवश्यक है। यह झिल्ली ही उस मल को बाहर लाती है और माता के रक्त में धकेल देती है। उसकी सफाई माता के रक्त को अपनी निज की सफाई के साथ-साथ ही करनी पड़ती है। उपलब्धि की तरह परित्याग का सिद्धान्त अपनाया जाना कितना आवश्यक है। इसे हृदयंगम करने पर ही भ्रूण कलल की सुरक्षा और अभिवृद्धि सम्भव होती है। हम तथाकथित ‘बुद्धिमान’ लोग दोनों हाथों से अनावश्यक संग्रह में जुटते हैं और स्वेच्छा परित्याग के लिए कृपणता वश साहस ही नहीं जुटाते। फलतः उस भार संग्रह की विषाक्तता जीवन की नाव को बीच मझधार में डुबो देने का कारण बनती है।
अनुदानों के लिए लालायित रहने वाले लोग सोचते हैं कि दूसरों के अनुग्रह से मिली सामग्री से ही काम चल सकता है। पर यह कुकल्पना सर्वथा निरर्थक ही सिद्ध होती है। लोग सम्भवतः यही मानते हैं कि माता का रक्त ही भ्रूण की नसों में घूमता है किन्तु वास्तविकता वैसी है नहीं। बच्चे का अपना स्वतन्त्र रक्त होता है। यह बात अलग है कि उसके निर्माण की साधन सामग्री माता के शरीर से उपलब्ध होती है।
दूसरे महीने में भ्रूण के ऊपर एक रक्षा कवच—जलीय जाकेट के रूप में धारण कर लेता है। वह जानता है कि हर समर्थ को सुरक्षा संग्राम में उतरना पड़ता है। जीवन एक खुला संघर्ष है। जो इस रण क्षेत्र में उतरने से डरता है—सुविधाओं की वर्षा होते रहने के सपने देखता है, वह पाता कुछ नहीं खोता बहुत है। संकटों से जूझने में जितने मरते हैं उसकी तुलना में उनसे डरने के कारण, बेमौत मरने वाले कायरों की संख्या कहीं अधिक होती है। भ्रूण की शरीर सम्पदा बढ़ती है तो साथ ही खतरा भी बढ़ता है। बाल की नोंक या चना मटर जितने शरीर को पेट में कुछ विशेष खतरा नहीं था, पर जब आकार बढ़ेगा तो खतरे की आशंका भी रहेगी ही। बच्चे के बढ़े हुए शरीर पर माता के पेट का दबाव बढ़ता है। साथ ही उसके चलने-फिरने, उलटने-पलटने की क्रिया भी भ्रूण को प्रभावित करती है। ऐसी दिशा में यह सुरक्षा-कवच आवश्यक है। सुरक्षात्मक जीवन संघर्ष के क्षेत्र में भ्रूण को कवच धारण करके उतरना पड़ता है और उसकी आवश्यकता मृत्यु पर्यन्त बनी ही रहती है। स्वावलम्बन की—सतर्कता पूर्वक आत्म-रक्षा की—प्रगति के लिए अपने पैरों खड़े होने की जो शिक्षा प्रथम मास के कार्य-काल में कार्यान्वित की गई थी, उसे यदि भविष्य में भी अपनाये रहा जा सके तो प्रगति की असीम सम्भावनाएं मूर्तिमान होती चलती हैं।
एक महीने का भ्रूण एक इंच के दसवें भाग की बराबर लम्बा होता है। तभी से उसके हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े और आंतें बनना शुरू हो जाती हैं। गुर्दे बनाने में तो जीव को भारी उखाड़-पछाड़ करनी पड़ती है। आरम्भिक गुर्दा मछली के गुर्दे से मिलता-जुलता होता है। पीछे वह मेंढक जैसा बनता है। फिर उसकी आकृति छोटे पशुओं के समतुल्य होती है सम्भवतः यह विकास परम्परा का क्रम है। शरीर की मूल-सत्ता आदिम स्मृतियों को धारण किये रहती है और अपना काम वहीं से आरम्भ करती है। किन्तु विकसित जीव उससे अपना काम चलता नहीं देखता। फलतः वह अपनी मर्जी के गठन में जुटता है। गुर्दों के परिवर्तन में देखी जाने वाली प्रवृत्ति यदि आगे भी चलती रहे तो पशु-प्रवृत्तियों से लड़-झगड़कर उन्हें खदेड़ देना और आत्म-गौरव के अनुरूप उच्चस्तरीय प्रकृति ढाल लेना और प्रवृत्ति अपना लेना कुछ भी कठिन न रह जायगा। पहले महीने में भ्रूण की जो स्थिति होती है। दूसरे महीने में उसका क्रम बढ़ता ही चला जाता है। पहले महीने की तुलना में उसकी लम्बाई छह गुनी और वजन 500 गुना बढ़ता है। ज्ञानेन्द्रियों के निशान-रीढ़ की हड्डी—अस्थियों का ढांचा—तन्त्रिकाओं का जाल-इसी अवधि में विनिर्मित होने आरम्भ हो जाते हैं।
तीसरे महीने में यों शरीर के अन्य अवयव भी स्पन्दन, ऐंठन और हलचल करते देखे जाते हैं, पर सबसे अधिक उथल-पुथल आंतों में होती है। वे होतीं तो अनगढ़ रस्सी की तरह हैं, पर उनकी मन्थन क्रिया देखते ही बनती है। पूर्ण मनुष्य की आंतें जितना जिस गति से काम करती हैं, उसकी तुलना में भ्रूण की आंतें प्रायः हजार गुना अधिक पुरुषार्थ कर रही होती हैं। जीव चेतना की मूलभूत क्षमता का यह प्रारम्भिक परिचय है इससे उसकी तात्विक सामर्थ्य का पता चलता है। यदि इसे कुंठित न किया जाय तो पेट की पाचन शक्ति अद्भुत स्तर तक अपनी क्रियाशीलता का परिचय देती रह सकती है।
शरीर में अत्यधिक महत्वपूर्ण अवयव दो हैं। एक मस्तिष्क दूसरा हृदय। तीसरे महीने इनका विकास आरम्भ हो जाता है। बुद्धि और भावना की दो क्षमताएं ही ऐसी हैं जो मनुष्य को अभीष्ट गति और उपयुक्त दिशा देती हैं। विकास साधनों के आधार पर नहीं, इन्हीं दो अवयवों, दो विभूतियों के आधार पर होता है। सफलताएं और उपलब्धियां तो इन दो तत्वों की प्रतिक्रिया मन्त्र हैं। गर्भस्थ शिशु इन्हें विकसित करने की आवश्यकता समझता है और किसी योग्य हो सकने की स्थिति में आने के लिए दो महीने की अवधि पूरी होते ही वह इन दो अति महत्वपूर्ण केन्द्रों के विकसित करने में जुट जाता है। उन दिनों इन पर जितना श्रम होता है उतना ही यदि जन्मकाल के उपरान्त भी किया जा सके तो मनुष्य की ज्ञान सम्पदा और भावविभूति की चरम उन्नति हो सकती है। ऐसा मनुष्य देवात्मा स्तर का आलोकमय जीवनयापन कर सकता है। लिंग भेद की पृथकता तीसरे महीने से प्रारम्भ होती है। उससे पूर्व भ्रूण में उभय-लिंगी लक्षण होते हैं। दोनों में से जीव किसका चुनाव करता है यह उसकी अपनी चेतनात्मक प्रकृति पर निर्भर है। जीव की पसन्दगी के आधार पर ही उसका प्रिय एवं अभ्यस्त लिंग विकसित होने लगता है। प्रकृति ने दोनों ही अनुदान उसके सामने खुले रखे हैं। जिसे भी जीव चुनना चाहे स्वेच्छापूर्वक उसमें से एक को स्वीकार और दूसरे को अस्वीकार कर सकता है।
जन्म लेते ही बालक जीवन संघर्ष के लिए भयंकर मल्ल-युद्ध आरम्भ करता है। भीतर और बाहर की परिस्थितियों में भारी अन्तर होता है। उदर के सुरक्षित वर्ग में उसे बाहरी खतरों का सामना नहीं करना पड़ता था। पर बाहर तो ऋतु प्रभाव से लेकर घातक विकिरणों से भरा हुआ नया एवं अपरिचित संसार होता है। आहार विश्राम, मलत्याग आदि का सर्वथा नई परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इस परिवर्तन को ऐसा ही माना जा सकता है जैसे एक लोक के प्राणी को दूसरे लोक में बसने के समय हो सकता है। स्थिति का सामना करने के लिए बहुमुखी समर्थता चाहिए। यह अनुदान कोई और नहीं दे सकता। जीव को अपने ही बलबूते उपार्जित करना पड़ता है। जन्म लेते ही वह अपने शरीर को नई परिस्थितियों से टक्कर लेने, योग्य बनाने के लिए प्रचण्ड प्रयास करता है। इसको जन्म काल में बालक की विचित्र गतिविधियों के रूप में देखा जा सकता है। नवजात शिशु जन्म लेते ही हांफता है, कांपता है, चिल्लाता है, हाथ-पैर पीटता है, यह सब क्या है? इसे उसका सामर्थ्य सम्पादन प्रयत्न ही कहा जा सकता है गर्भ रज्जु कटते ही उसे उसे स्वावलम्बन का उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ता है। तब माता उसके विकास में सीमित सहयोग ही दे पाती है। इस संसार का यही नियम है कि जीव को अपने बलबूते निर्वाह और प्रगति के साधन जुटाने पड़ते हैं। सहयोग तो आदान-प्रदान के सिद्धान्त पर ही टिकता है। उदर अनुदान तो क्रमशः घटते ही जाते हैं? माता की सहायता गर्भकाल जितनी कहां मिलती है। उसका अनुपात क्रमशः घटता ही जाता है। बालक इस कमी को अपने स्वावलम्बी प्रयासों से पूरी करता है।
पेट से बाहर आने में कष्ट तो माता को होता है, पर उसके बाहर आने की प्रक्रिया में प्रबल चेष्टा और अदम्य आकांक्षा शिशु की ही काम कर रही होती है। गर्भस्थ शिशु अतिशय दुर्बल हो तो वह माता की कितनी ही इच्छा होने पर भी बाहर न आ सकेगा। उसे माता का पेट चीर कर ही बाहर निकालना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि जन्मने के तुरन्त बाद बालक रोये, चिल्लाये नहीं हाथ पैर न पीटे तो उसका जीवित रहना कठिन हो जायगा। ऐसी स्थिति होने पर चतुर दाइयां ठंडे पानी के छींटे देकर या दूसरे कृत्रिम उपायों से बच्चे को रोने, चिल्लाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। कहावत है कि बिना रोये माता दूध नहीं पिलाती। प्रकृति भी समर्थता का उपहार बालक को तभी देती है जब वह इसके लिए भारी उत्कंठा प्रकट करे। रोने चिल्लाने में इसी मांग की प्रचण्डता का आभास मिलता है।
जीव को जन्म लेने के उपरान्त नये लोक में पहुंच कर नये उत्तरदायित्व सम्भालने, नये लोगों के साथ तालमेल बिठाने, नई परिस्थितियों को समझने, नये साधन उपयोग करने की तरह हर स्तर की नवीनता से परिचित ही नहीं अभ्यस्त भी होना पड़ता है। इसके लिए क्या कुछ सीखना और क्या कुछ करना पड़ता है इसकी कल्पना तक इस समय तो अपने लिए कठिन ही है।
जीव को प्रसुप्ति से जागृति में आने और तज्जनित परिस्थितियों का सामना करने में कितने प्रबल पुरुषार्थ और कितनी अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता पड़ती है इसे देखकर उसकी मौलिक गरिमा का अनुमान लगाया जा सकता है।
आत्मा की सामर्थ्य का मूल स्रोत परमात्मा है। परमात्मा अनन्त समर्थता का पुंज है। फिर उससे अविच्छिन्न सम्बन्ध सूत्रों के साथ जुड़ा हुआ आत्मा ही क्यों किसी प्रकार अभावग्रस्त हो सकता है? अन्नमय कोश काय-कलेवर हाड़ मांस का पिटारा नहीं है। उसके रोम-रोम में आत्म सत्ता ओत-प्रोत है। अपने आरम्भिक दिनों में जीव अपने घरौंदे को जिस प्रबल पुरुषार्थ के सहारे विकसित करता है वह समर्थता उसमें सदैव बनी रहती है। उसे विस्मृत और उपेक्षित पड़े रहने देने से ही हमें हेय और दुर्बल स्थिति का सामना करना पड़ता है।
इस संसार में प्रकृति की तीन शक्तियां भरी पड़ी हैं। इन्हीं की प्रेरणा से विभिन्न जड़—अपने-अपने ढंग की विविध हलचलें करते दिखाई पड़ते हैं इन तीन शक्तियों का नाम है—(1) विद्युत (2) ताप (3) प्रकाश। अगणित क्षेत्रों में अगणित प्रकार के क्रिया कृत्यों का संचार इन्हीं के द्वारा होता है। शरीर में भी यह तीन शक्तियां विद्यमान हैं और अपनी स्थिति के अनुरूप विभिन्न अवयवों में विभिन्न प्रकार के कार्य करती हैं।
स्नायु मण्डल में ‘विद्युत धारा’ का संचार रहता है मस्तिष्क उसका केन्द्र है। इन्द्रिय केन्द्रों पर उसी का आधिपत्य है। ज्ञान तन्तुओं के द्वारा केन्द्र तक सूचना पहुंचाना और वहां से मिले निर्देशों को अवयवों के द्वारा सम्पन्न कराना इसी शक्ति का काम है। मनःसंस्थान की समस्त गतिविधियां इसी के द्वारा संचारित होती हैं। विकास से सम्बन्धित समस्त हलचलें प्रकाश तरंगों द्वारा सम्पन्न होती हैं। सूर्य की प्रकाश किरणें वनस्पतियों की अभिवृद्धि एवं प्राणियों में प्राण संचार का प्रयोजन पूरा करती हैं और भी बहुत कुछ उनके द्वारा होता है। आयु के साथ होने वाली अभिवृद्धि को यह प्रकाश तत्व ही संजोता है।
आध्यात्मिक अलंकारों में विद्युत को ब्रह्मा, प्रकाश को विष्णु और ताप को शिव माना गया है। मनःक्षेत्र में इनकी हलचलें भावना, इच्छा और क्रिया के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। ब्रह्माण्ड भी विराट् पुरुष का एक सुविस्तृत शरीर ही है। इसमें विद्युत तत्व सत, प्रकाश रज और ताप को तम रूप में प्रतिपादित किया गया है।
आन्तरिक स्थिति में हेर-फेर करके बाहर की स्थिति बदली जा सकती है। सभी जानते हैं कि मनःस्थिति ही भली-बुरी परिस्थितियां उत्पन्न करती है। अन्तरंग को बदलने पर बहिरंग सहज ही बदला जा सकता है। शारीरिक स्थिति में सुधार परिवर्तन करना हो तो उस उपकरण के अन्तराल में काम कर रही सूक्ष्म क्षमताओं को देखना सम्भालना होगा। कारखाने की मशीनें ठप्प हों तो समझना चाहिए कि विद्युत धारा या भाप ताप के शक्ति स्रोतों में कहीं कुछ अड़चन उत्पन्न हो गई है। मशीनों की देखभाल करना भी उचित है।, पर आधार तो शक्ति स्रोतों पर निर्भर है। शरीरगत दुर्बलता, रुग्णता को दूर करने के लिए आहार-विहार की गड़बड़ियां सुधारना और चिकित्सा उपचार पर ध्यान देना आवश्यक है, पर काम इतने से ही नहीं चल सकता। देखना यह भी होगा कि अवयवों के संचार करने के लिए उत्तरदायी सूक्ष्म शक्तियों की प्रवाह धारा ठीक प्रकार चल रही है या नहीं। शरीर ‘तीन फेस’ पर चलने वाली मोटर है। इन सभी तारों का ठीक स्थिति में होना आवश्यक है। जिससे शक्ति संचार में अवरोध उत्पन्न न होने पाये। अवयवों को कई प्रकार की बुरी आदतें घेर लेती हैं—इन्द्रियों को उच्छृंखलता बरतने का अभ्यास पड़ जाता है—दुर्व्यसनों को इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत लिया जा सकता है। आलस्य में अवयवों की अशक्तता का दोष कम और आन्तरिक स्फूर्ति की न्यूनता का कारण अधिक काम कर रहा होता है। इन दोष दुर्गुणों को ठीक करने के लिए मात्र शारीरिक अवयवों को दोष देना अथवा उसी की ठोंक पीट करना पर्याप्त न होगा। शरीर में संव्याप्त अन्तःचेतना की भी देखभाल करनी होगी। यही स्थूल शरीर का अध्यात्म विज्ञान है। यदि स्तर की गहराई तक पहुंचा जा सके और वहां सुधारने उभारने का कौशल प्राप्त हो सके तो शरीरगत दोष दुर्गुणों, दुर्बलता एवं रुग्णता को—निरस्त कर सकना सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है।
स्त्री के प्रजनन क्षेत्र में भी विशेष प्रकार के जननेन्द्रिय कोष (ओवम) पाये जाते हैं। प्रत्येक पन्द्रहवें दिन दायें या बायें ओर स्त्री के काम-अवयव (सेक्स-आर्गन) जिसे ‘ओवरी’ कहते हैं, में एक जननेन्द्रिय कोष प्रकट होता है। वहां से निकलकर ‘फिम्रिएटेड एण्ड’ जो एक पंजे की शक्ल का अवयव होता है, उसमें चला जाता है यहां से चलकर वह गर्भाशय की भीतरी दीवाल से चिपक जाता है, जब तक कामेच्छा नहीं होती, मासिक धर्म के साथ ओवम-कोष धुलकर बाहर निकल जाता है, किन्तु यदि काम की इच्छा हो और स्त्री को पुरुष का संयोग मिले तो यह सम्भव है कि पुरुष का एक वीर्य-कोष (स्पर्म) गर्भाशय में जाकर ओवम से मिल जाये। ओवम और स्पर्म का मिलना ही गर्भाधान कहलाता है।
पुरुष शरीर का वीर्य-कोष (स्पर्म) मछली के बच्चे जैसी आकृति का होता है, किन्तु उसे नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। परमाणु का सैद्धान्तिक व्यास 0.000001 मिलीमीटर होता है, जबकि उसके नाभिक का व्यास 0.000000000001 मिलीमीटर होता है। इनका ही अध्ययन करने के लिये शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों (माइक्रोस्कोप) की आवश्यकता होती है तो इनसे भी लघुतम आकार के मानव प्रजनन कोषों को तो बिना न्यूक्लियर माइक्रोस्कोप को देख पाना भी सम्भव नहीं। लघुतम होकर भी वीर्य-कोष का सुनिश्चित आकार होता है। सबसे ऊपर त्रिपार्श्व, फिर एक अण्डाकार पिण्ड और उसमें भी पूंछ। यह है, मनुष्य शरीर का आधार। कितना लघुतम रूप पर कितनी शक्तिशाली सत्ता। एक मुर्दा परमाणु में 24 लाख किलो कैलोरी ऊर्जा हो सकती है, तब इस जीवन परमाणु की शक्ति का तो कहना ही क्या। यदि मनुष्य इस लघुता का चिन्तन कर सका होता तो वह शक्ति की एक अत्यन्त शुद्ध और विशाल अवस्था में होता। अज्ञानता का दम्भ और अहंकार तो स्वयं उसी के लिये कष्टदायक सिद्ध होता है। अहंकार के वशवर्ती मनुष्य अपने घर, पास-पड़ोस वालों से भी मैत्री बनाये नहीं रख पाता। यदि वह अपनी इस सूक्ष्मता का चिन्तन कर सका होता, तब उसे सृष्टि के छोटे से छोटे जीव और जर्रे-जर्रे में अपनी ही प्रतिच्छाया दिखाई देती, तब न किसी के साथ द्वेष होता न दुर्भाव। शक्ति, क्रियाशीलता, संतोष और आनन्द की विभूतियों से आच्छादित हो गया होता।
यह निश्चित हो गया है कि जीवन प्रणाली नाभिक में ही है और वह शक्ति रूप में है। उसका कोई आकार नहीं है एक अमीबा का नाभिक साइटोप्लाज्मा (नाभिक के अतिरिक्त कोष में जलवायु, गैस खनिज आदि जो भी है, सब साइटोप्लाज्मा कहलाता है) का कुछ अंश लेकर दो अमीबाओं में बदल जाता है, दोनों की आकृति स्वभाव भिन्न-भिन्न हो जाते हैं, लगता है वे दोनों अलग-अलग विचार प्रणाली के रूप में जन्मे हों। एक ही विचार प्रणाली या केन्द्रीभूत सत्ता का अनेक रूपों विभक्त होना ऐसा ही है। वस्तुतः चेतना सारे विश्व में एक ही है। उस विश्व-व्यापी चेतना को जब हम एक महत् इकाई के रूप में देखते हैं तो वही सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी ईश्वर के रूप में दिखाई देने लगता है। सविता के रूप में वही आत्मा मनुष्य और कीड़े-मकोड़ों के जीवन में वही जीव कहलाता है। तीनों अवस्थायें विराट् से सूक्ष्म और सूक्ष्म से विराट्। इसी विद्या का अवगाहन कर हम भारतीय भी योगी, दृष्टा, ऋषि और महर्षि हो गये थे। ज्ञान के पुंज थे, शक्ति के पुंज थे हम, और उसका एक मात्र आधार यह तत्त्व-दर्शन ही था जिसने हमें ससीम से असीम बना दिया था।
जिस प्रकार एक अमीबा उपरोक्त विधि द्वारा अनेक अमीबाओं में बदल सकता है, उसी प्रकार स्त्री के गर्भाशय में पहुंचा हुआ, आत्म-चेतना कण या वीर्य-कोष अपना विस्तार प्रारम्भ करता है। एक वीर्य-कोष टूट कर दो हो जाते हैं। इस क्रिया में कोष की अन्तःप्रेरणा काम करती है। फिर दो कोष विभक्त होकर चार बन जाते हैं। चार-आठ, आठ-सोलह, सोलह-बत्तीस। इस क्रम में यह कोष (सेल्स) ही बढ़ते और पकते रहते हैं। प्रारम्भ में इनकी स्थिति शहतूत के फल (मोरुला) की सी होती है। फिर एक प्लेट और प्लेट से ट्यूब की शक्ल बनती है, यह ट्यूब आकृति ही तीन स्थानों से मुड़कर मस्तिष्क के तीन भाग (1) अग्रभाग (फोरब्रेन), (2) मध्य मस्तिष्क (मिडब्रेन), (3) पिछला मस्तिष्क (विहाइडब्रेन) बन जाते हैं।
कोषों का बनना अभी भी जारी रहता है, मुख्य कोष मां के शरीर से पोषण ले लेकर प्रत्येक कोष के लिये शारीरिक प्रकृति (साइटोप्लाज्मा) भाग जुटाता रहता है, जब अनेक कोष एकत्र हो जाते हैं तो फिर सुषुम्ना शीर्षक (स्पाइनल कार्ड) बनना प्रारम्भ होता है और इस तरह नीचे का शरीर बनता हुआ चला जाता है। यह कोष प्रत्येक स्थान की परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप मुड़ते, सीधे होते, कड़े और कोमल होते चले जाते हैं और इस प्रकार नौ महीने की अवधि में एक विकसित बच्चा बन जाता है। आठ, दस पौण्ड वजन का बालक सौ पौण्ड के मनुष्य में बदल जाता है। कुछ ईश्वर की लीला ऐसी ही विचित्र है अन्यथा जो चेतनता इस मनुष्य शरीर में है, वही उस एक मूल कोष (स्पर्म) में थी और वह अपने आप में एक पूर्ण संसार था। मनुष्याकृति में एक विस्तृत और वैज्ञानिक क्षमताओं से परिपूर्ण शरीर देने का उद्देश्य तो यही था कि मनुष्य स्थूल और सूक्ष्म-ज्ञान और अज्ञान, यथार्थ और अयथार्थ के लक्ष्य को अच्छी तरह समझेगा, किन्तु दुर्भाग्य मनुष्य का है कि वह शरीर के साथ अपनी आत्मिक चेतना को भी स्थूल बनाता चला जाता है। इस तरह उसकी शक्तियां भी अपवित्रता के अन्धकार में छुपती चली आती हैं और जीवन मुक्ति, शाश्वत लक्ष्य प्राप्ति जैसे लक्ष्य से वह वंचित होता हुआ चला जाता है।
चेतना मनुष्य शरीर के रूप में विकसित होकर परमाणु से भी बड़ी दिखाई देने लगी, यह उसका महत्तम रूप है और परमात्मा ने यह किसी विशेष हेतु से किया है। हम सब आनन्द की खोज में हैं, उस आनन्द की परिभाषा कर पाना दूसरे जीवों के लिये कठिन है, क्योंकि उनमें बुद्धि-विवेक की ऐसी क्षमता नहीं, जैसी मनुष्य में। मनुष्य चाहे तो इस शरीर की विज्ञानमय शक्तियों का प्रयोग करके अपने महत्तम रूप और सौभाग्य, को विश्वात्मा, विराट् शरीर में विकसित कर सकता है। यही स्थिति जिसमें मनुष्य को न तो कोई अभाव हो, न अज्ञान, अशक्ति हो, न अक्षमता, सबसे अधिक आनन्द-उल्लास और सामर्थ्य से परिपूर्ण हो सकती है।
मनुष्य की क्षमता सामर्थ्य
मनुष्य गया-गुजरा उस स्थिति में—जब अपनी सामर्थ्य को पहचानने और उसका उपयोग करने में उपेक्षा बरतें। महान् और असाधारण उस स्थिति में—जब वह अपनी गरिमा को समझे और असीम क्षमता पर विश्वास करे। साधारणतया यह आत्म-विश्वास की कमी ही वह कठिनाई है जिसके कारण हेय स्थिति में रहना पड़ता है।
मनुष्य की क्षमता का एक छोटा उदाहरण उसकी आरम्भिक स्थिति ‘भ्रूणवस्था’ की गतिविधियों का पर्यवेक्षण करते हुए सहज ही किया जा सकता है। अपनी सत्ता के प्रकटीकरण अवसर पर साधन रहित स्थिति में यदि इतना अधिक पुरुषार्थ किया जा सकता है, तो साधन सम्पन्न और विकसित स्थिति में अपेक्षाकृत और भी अधिक पराक्रम कर सकना सम्भव होना चाहिए। किन्तु देखा यह जाता है कि श्री गणेश का उपक्रम पीछे चल कर शिथिलता की दिशा में बढ़ने लगता है और क्रमशः ठंडा होता चला जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। अन्यथा कोई कारण नहीं कि आरम्भ में जिस स्तर की सक्रियता अपनाई गई थी, उसमें शिथिलता आने लगे। यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि आरम्भ में विशेष क्षमता होती है और वह पीछे स्वयमेव घट जाती है। बीज से अंकुर निकलते समय, अंकुर को पौधा बनते समय जो प्रगति क्रम दृष्टिगोचर होता है वह पीछे समाप्त या शिथिल कहां होता है? उस विकास प्रक्रिया में क्रमशः अभिवृद्धि ही होती चलती है; फिर कोई कारण नहीं कि प्रथम चरण में मनुष्य द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ आगे चलकर अधिकाधिक तीव्र होता चले। यदि इसी क्रमिक विकास की प्रक्रिया को अपनाये रहा जाय, उसमें शिथिलता न आने दी जाय तो मनुष्य देव या दैत्य स्तर के बढ़े-चढ़े काम करता रह सकता है।
पिता के शरीर से निकला हुआ शुक्राणु इतना छोटा होता है कि आलपिन की नोंक पर उसके हजारों भाई बैठ सकते हैं। उसे बिना शक्तिशाली सूक्ष्म-दर्शी यन्त्र के खुली आंखों से तो देखा तक नहीं जा सकता। रतिक्रिया से जो मंथन क्रिया होती है। उससे यौन संस्थान में तीव्र विद्युत स्पन्दन उठने आरम्भ हो जाते हैं। उन्हीं की उत्तेजना से वह शान्त पड़ा जीव उत्तेजित हो उठता है और अपनी स्वतन्त्र सत्ता का निर्माण करने के लिए सहयोगी की तलाश में द्रुतगति से परिभ्रमण करता है। उस समय उसके हाथ, पैर, आंख आदि कुछ नहीं होते, तो भी अपनी आन्तरिक आकांक्षा से प्रेरित होकर अभीष्ट साथी को खोजने के लिए इसी तेजी से दौड़ता है कि हिरन, चीते की दौड़ से भी उसका अनुपात बढ़ा-चढ़ा रहता है।
शुक्राणु को डिम्बाणु तक पहुंचने में—अपने आकार और स्था की दूरी के अनुपात से उतनी लम्बी यात्रा करनी पड़ती है जितनी कि उसे मनुष्य के बराबर आकार का होने पर पूरी पृथ्वी की दूरी नापनी पड़ती। इस यात्रा पर स्खलन के समय लाखों शुक्राणु अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति के लिए निकलते हैं। इसे डर्वी की घुड़ दौड़ के समतुल्य प्रतिस्पर्धा माना जा सकता है। प्रकृति सबल को सफलता देने की नीति अपनाती है। जो उस लम्बी और कष्ट साध्य यात्रा में अन्त तक प्रबल पुरुषार्थ नहीं कर पाते, बीच में ही थक कर बैठ जाते हैं, वे दम तोड़ देते हैं। जो अणु प्राणपण का साहस करता है वही सफल होता है और भ्रूण बनने का—प्रगति पथ पर अग्रसर होने का श्रेय प्राप्त करता है। शुक्र और डिम्ब का मिल कर बना हुआ ‘कलल’ बिजली की नेगेटिव और पाजेटिव दो दो धाराओं के सम्मिलन से उत्पन्न शक्ति प्रवाह की तरह सक्रिय हो उठता है। गंगा यमुना का यह मिलता तीर्थराज संगम बनता है। सहयोग और सहकारिता का—मैत्री और सघन आत्मीयता का—जीवन के पहले ही दिन जो पाठ पढ़ा जाता है; उसका सत्परिणाम तत्काल देखने को मिलता है। यह सहकारिता यदि आगे भी जारी रखी गई होती, उसका महत्व भुला न दिया गया होता तो मनुष्य प्रगति करते-करते न जाने कहां से कहां जा पहुंचा होता।
भ्रूण कलल आरम्भ में बाल की नोंक की बराबर होता है; किन्तु वह एक महीने के भीतर ही इतनी प्रगति करता है कि आकार में 50 गुना और वजन में 8000 गुना बढ़ जाता है। जो पहले दिन चिपचिपे जल बिन्दु के अतिरिक्त और कुछ नहीं था वही एक महीने में चौथाई इंच का बुलबुला बन जाता है। उसे परीक्षण, विश्लेषण की मेज पर रखा जाय तो स्थिति को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा। उसके सिर और धड़ को देखा जा सकता है। पैर पूंछ की तरह होते हैं। हाथ तो स्पष्ट नहीं होते, पर हृदय धड़कता हुआ और नसों में रक्त चक्कर लगाता हुआ देखा जा सकता है। जीव की सृजनात्मक गति का यह अद्भुत परिचय है। निर्माण का संकल्प जब कार्य रूप में परिणत होने के लिए आतुर हो उठे तो सहयोग, साधन और परिस्थितियां किस प्रकार अनुकूल होती चली जाती हैं; इसका यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। एक महीने मात्र—स्वल्प समय में किया गया कार्य—निर्माण का कार्य कितनी प्रगति कर लेता है; इसे देखते हुए जीव की अद्भुत सृजनात्मक शक्ति पर सन्देह करने का कोई कारण शेष नहीं रहता।
माता के शरीर में असीम मात्रा में पोषक पदार्थ भरे रहते हैं। उसे इच्छानुसार मात्रा में प्राप्त करने में भ्रूण पर कोई रोकथाम नहीं होती, पर वह सही विकास के सिद्धान्त को समझता है कि निर्वाह मात्र के लिए न्यूनतम लिया जाय, अन्यथा अनावश्यक संग्रह उसके लिए अन्ततः भार बनेगा और विपत्ति उत्पन्न करेगा। ‘त्येनत्युक्ते भुंजीथा’ का पाठ प्रत्येक प्रगतिशील को पढ़ना पड़ा है। भ्रूण भी उस सनातन सिद्धान्त से अपरिचित नहीं होता। उसे अपने शरीर के चारों ओर एक परत चढ़ानी पड़ती है। जो गर्भाशय में उपलब्ध सामग्री में से छना हुआ उपयुक्त पोषक पदार्थ ही भ्रूण तक जाने देती हैं। इसे संयम और मर्यादा का आवरण कह सकते हैं। शरीर-शास्त्र की दृष्टि से इस झिल्ली को ‘ट्रोफोब्लास्ट’ कहते हैं। सम्पत्ति के समुद्र में से मात्र उपयुक्त निर्वाह स्वीकार करने की व्यवस्था यह झिल्ली ही बनाती है। ऑक्सीजन और रसायन मिश्रित भ्रूण का उपयोगी आहार उसके शरीर में इसी झिल्ली द्वारा छनकर भीतर पहुंचता है। बात इतने से ही समाप्त नहीं होती। भ्रूण के शरीर से मल भी बनता है। उसे बाहर निकालना आवश्यक है। यह झिल्ली ही उस मल को बाहर लाती है और माता के रक्त में धकेल देती है। उसकी सफाई माता के रक्त को अपनी निज की सफाई के साथ-साथ ही करनी पड़ती है। उपलब्धि की तरह परित्याग का सिद्धान्त अपनाया जाना कितना आवश्यक है। इसे हृदयंगम करने पर ही भ्रूण कलल की सुरक्षा और अभिवृद्धि सम्भव होती है। हम तथाकथित ‘बुद्धिमान’ लोग दोनों हाथों से अनावश्यक संग्रह में जुटते हैं और स्वेच्छा परित्याग के लिए कृपणता वश साहस ही नहीं जुटाते। फलतः उस भार संग्रह की विषाक्तता जीवन की नाव को बीच मझधार में डुबो देने का कारण बनती है।
अनुदानों के लिए लालायित रहने वाले लोग सोचते हैं कि दूसरों के अनुग्रह से मिली सामग्री से ही काम चल सकता है। पर यह कुकल्पना सर्वथा निरर्थक ही सिद्ध होती है। लोग सम्भवतः यही मानते हैं कि माता का रक्त ही भ्रूण की नसों में घूमता है किन्तु वास्तविकता वैसी है नहीं। बच्चे का अपना स्वतन्त्र रक्त होता है। यह बात अलग है कि उसके निर्माण की साधन सामग्री माता के शरीर से उपलब्ध होती है।
दूसरे महीने में भ्रूण के ऊपर एक रक्षा कवच—जलीय जाकेट के रूप में धारण कर लेता है। वह जानता है कि हर समर्थ को सुरक्षा संग्राम में उतरना पड़ता है। जीवन एक खुला संघर्ष है। जो इस रण क्षेत्र में उतरने से डरता है—सुविधाओं की वर्षा होते रहने के सपने देखता है, वह पाता कुछ नहीं खोता बहुत है। संकटों से जूझने में जितने मरते हैं उसकी तुलना में उनसे डरने के कारण, बेमौत मरने वाले कायरों की संख्या कहीं अधिक होती है। भ्रूण की शरीर सम्पदा बढ़ती है तो साथ ही खतरा भी बढ़ता है। बाल की नोंक या चना मटर जितने शरीर को पेट में कुछ विशेष खतरा नहीं था, पर जब आकार बढ़ेगा तो खतरे की आशंका भी रहेगी ही। बच्चे के बढ़े हुए शरीर पर माता के पेट का दबाव बढ़ता है। साथ ही उसके चलने-फिरने, उलटने-पलटने की क्रिया भी भ्रूण को प्रभावित करती है। ऐसी दिशा में यह सुरक्षा-कवच आवश्यक है। सुरक्षात्मक जीवन संघर्ष के क्षेत्र में भ्रूण को कवच धारण करके उतरना पड़ता है और उसकी आवश्यकता मृत्यु पर्यन्त बनी ही रहती है। स्वावलम्बन की—सतर्कता पूर्वक आत्म-रक्षा की—प्रगति के लिए अपने पैरों खड़े होने की जो शिक्षा प्रथम मास के कार्य-काल में कार्यान्वित की गई थी, उसे यदि भविष्य में भी अपनाये रहा जा सके तो प्रगति की असीम सम्भावनाएं मूर्तिमान होती चलती हैं।
एक महीने का भ्रूण एक इंच के दसवें भाग की बराबर लम्बा होता है। तभी से उसके हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े और आंतें बनना शुरू हो जाती हैं। गुर्दे बनाने में तो जीव को भारी उखाड़-पछाड़ करनी पड़ती है। आरम्भिक गुर्दा मछली के गुर्दे से मिलता-जुलता होता है। पीछे वह मेंढक जैसा बनता है। फिर उसकी आकृति छोटे पशुओं के समतुल्य होती है सम्भवतः यह विकास परम्परा का क्रम है। शरीर की मूल-सत्ता आदिम स्मृतियों को धारण किये रहती है और अपना काम वहीं से आरम्भ करती है। किन्तु विकसित जीव उससे अपना काम चलता नहीं देखता। फलतः वह अपनी मर्जी के गठन में जुटता है। गुर्दों के परिवर्तन में देखी जाने वाली प्रवृत्ति यदि आगे भी चलती रहे तो पशु-प्रवृत्तियों से लड़-झगड़कर उन्हें खदेड़ देना और आत्म-गौरव के अनुरूप उच्चस्तरीय प्रकृति ढाल लेना और प्रवृत्ति अपना लेना कुछ भी कठिन न रह जायगा। पहले महीने में भ्रूण की जो स्थिति होती है। दूसरे महीने में उसका क्रम बढ़ता ही चला जाता है। पहले महीने की तुलना में उसकी लम्बाई छह गुनी और वजन 500 गुना बढ़ता है। ज्ञानेन्द्रियों के निशान-रीढ़ की हड्डी—अस्थियों का ढांचा—तन्त्रिकाओं का जाल-इसी अवधि में विनिर्मित होने आरम्भ हो जाते हैं।
तीसरे महीने में यों शरीर के अन्य अवयव भी स्पन्दन, ऐंठन और हलचल करते देखे जाते हैं, पर सबसे अधिक उथल-पुथल आंतों में होती है। वे होतीं तो अनगढ़ रस्सी की तरह हैं, पर उनकी मन्थन क्रिया देखते ही बनती है। पूर्ण मनुष्य की आंतें जितना जिस गति से काम करती हैं, उसकी तुलना में भ्रूण की आंतें प्रायः हजार गुना अधिक पुरुषार्थ कर रही होती हैं। जीव चेतना की मूलभूत क्षमता का यह प्रारम्भिक परिचय है इससे उसकी तात्विक सामर्थ्य का पता चलता है। यदि इसे कुंठित न किया जाय तो पेट की पाचन शक्ति अद्भुत स्तर तक अपनी क्रियाशीलता का परिचय देती रह सकती है।
शरीर में अत्यधिक महत्वपूर्ण अवयव दो हैं। एक मस्तिष्क दूसरा हृदय। तीसरे महीने इनका विकास आरम्भ हो जाता है। बुद्धि और भावना की दो क्षमताएं ही ऐसी हैं जो मनुष्य को अभीष्ट गति और उपयुक्त दिशा देती हैं। विकास साधनों के आधार पर नहीं, इन्हीं दो अवयवों, दो विभूतियों के आधार पर होता है। सफलताएं और उपलब्धियां तो इन दो तत्वों की प्रतिक्रिया मन्त्र हैं। गर्भस्थ शिशु इन्हें विकसित करने की आवश्यकता समझता है और किसी योग्य हो सकने की स्थिति में आने के लिए दो महीने की अवधि पूरी होते ही वह इन दो अति महत्वपूर्ण केन्द्रों के विकसित करने में जुट जाता है। उन दिनों इन पर जितना श्रम होता है उतना ही यदि जन्मकाल के उपरान्त भी किया जा सके तो मनुष्य की ज्ञान सम्पदा और भावविभूति की चरम उन्नति हो सकती है। ऐसा मनुष्य देवात्मा स्तर का आलोकमय जीवनयापन कर सकता है। लिंग भेद की पृथकता तीसरे महीने से प्रारम्भ होती है। उससे पूर्व भ्रूण में उभय-लिंगी लक्षण होते हैं। दोनों में से जीव किसका चुनाव करता है यह उसकी अपनी चेतनात्मक प्रकृति पर निर्भर है। जीव की पसन्दगी के आधार पर ही उसका प्रिय एवं अभ्यस्त लिंग विकसित होने लगता है। प्रकृति ने दोनों ही अनुदान उसके सामने खुले रखे हैं। जिसे भी जीव चुनना चाहे स्वेच्छापूर्वक उसमें से एक को स्वीकार और दूसरे को अस्वीकार कर सकता है।
जन्म लेते ही बालक जीवन संघर्ष के लिए भयंकर मल्ल-युद्ध आरम्भ करता है। भीतर और बाहर की परिस्थितियों में भारी अन्तर होता है। उदर के सुरक्षित वर्ग में उसे बाहरी खतरों का सामना नहीं करना पड़ता था। पर बाहर तो ऋतु प्रभाव से लेकर घातक विकिरणों से भरा हुआ नया एवं अपरिचित संसार होता है। आहार विश्राम, मलत्याग आदि का सर्वथा नई परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इस परिवर्तन को ऐसा ही माना जा सकता है जैसे एक लोक के प्राणी को दूसरे लोक में बसने के समय हो सकता है। स्थिति का सामना करने के लिए बहुमुखी समर्थता चाहिए। यह अनुदान कोई और नहीं दे सकता। जीव को अपने ही बलबूते उपार्जित करना पड़ता है। जन्म लेते ही वह अपने शरीर को नई परिस्थितियों से टक्कर लेने, योग्य बनाने के लिए प्रचण्ड प्रयास करता है। इसको जन्म काल में बालक की विचित्र गतिविधियों के रूप में देखा जा सकता है। नवजात शिशु जन्म लेते ही हांफता है, कांपता है, चिल्लाता है, हाथ-पैर पीटता है, यह सब क्या है? इसे उसका सामर्थ्य सम्पादन प्रयत्न ही कहा जा सकता है गर्भ रज्जु कटते ही उसे उसे स्वावलम्बन का उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ता है। तब माता उसके विकास में सीमित सहयोग ही दे पाती है। इस संसार का यही नियम है कि जीव को अपने बलबूते निर्वाह और प्रगति के साधन जुटाने पड़ते हैं। सहयोग तो आदान-प्रदान के सिद्धान्त पर ही टिकता है। उदर अनुदान तो क्रमशः घटते ही जाते हैं? माता की सहायता गर्भकाल जितनी कहां मिलती है। उसका अनुपात क्रमशः घटता ही जाता है। बालक इस कमी को अपने स्वावलम्बी प्रयासों से पूरी करता है।
पेट से बाहर आने में कष्ट तो माता को होता है, पर उसके बाहर आने की प्रक्रिया में प्रबल चेष्टा और अदम्य आकांक्षा शिशु की ही काम कर रही होती है। गर्भस्थ शिशु अतिशय दुर्बल हो तो वह माता की कितनी ही इच्छा होने पर भी बाहर न आ सकेगा। उसे माता का पेट चीर कर ही बाहर निकालना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि जन्मने के तुरन्त बाद बालक रोये, चिल्लाये नहीं हाथ पैर न पीटे तो उसका जीवित रहना कठिन हो जायगा। ऐसी स्थिति होने पर चतुर दाइयां ठंडे पानी के छींटे देकर या दूसरे कृत्रिम उपायों से बच्चे को रोने, चिल्लाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। कहावत है कि बिना रोये माता दूध नहीं पिलाती। प्रकृति भी समर्थता का उपहार बालक को तभी देती है जब वह इसके लिए भारी उत्कंठा प्रकट करे। रोने चिल्लाने में इसी मांग की प्रचण्डता का आभास मिलता है।
जीव को जन्म लेने के उपरान्त नये लोक में पहुंच कर नये उत्तरदायित्व सम्भालने, नये लोगों के साथ तालमेल बिठाने, नई परिस्थितियों को समझने, नये साधन उपयोग करने की तरह हर स्तर की नवीनता से परिचित ही नहीं अभ्यस्त भी होना पड़ता है। इसके लिए क्या कुछ सीखना और क्या कुछ करना पड़ता है इसकी कल्पना तक इस समय तो अपने लिए कठिन ही है।
जीव को प्रसुप्ति से जागृति में आने और तज्जनित परिस्थितियों का सामना करने में कितने प्रबल पुरुषार्थ और कितनी अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता पड़ती है इसे देखकर उसकी मौलिक गरिमा का अनुमान लगाया जा सकता है।
आत्मा की सामर्थ्य का मूल स्रोत परमात्मा है। परमात्मा अनन्त समर्थता का पुंज है। फिर उससे अविच्छिन्न सम्बन्ध सूत्रों के साथ जुड़ा हुआ आत्मा ही क्यों किसी प्रकार अभावग्रस्त हो सकता है? अन्नमय कोश काय-कलेवर हाड़ मांस का पिटारा नहीं है। उसके रोम-रोम में आत्म सत्ता ओत-प्रोत है। अपने आरम्भिक दिनों में जीव अपने घरौंदे को जिस प्रबल पुरुषार्थ के सहारे विकसित करता है वह समर्थता उसमें सदैव बनी रहती है। उसे विस्मृत और उपेक्षित पड़े रहने देने से ही हमें हेय और दुर्बल स्थिति का सामना करना पड़ता है।
इस संसार में प्रकृति की तीन शक्तियां भरी पड़ी हैं। इन्हीं की प्रेरणा से विभिन्न जड़—अपने-अपने ढंग की विविध हलचलें करते दिखाई पड़ते हैं इन तीन शक्तियों का नाम है—(1) विद्युत (2) ताप (3) प्रकाश। अगणित क्षेत्रों में अगणित प्रकार के क्रिया कृत्यों का संचार इन्हीं के द्वारा होता है। शरीर में भी यह तीन शक्तियां विद्यमान हैं और अपनी स्थिति के अनुरूप विभिन्न अवयवों में विभिन्न प्रकार के कार्य करती हैं।
स्नायु मण्डल में ‘विद्युत धारा’ का संचार रहता है मस्तिष्क उसका केन्द्र है। इन्द्रिय केन्द्रों पर उसी का आधिपत्य है। ज्ञान तन्तुओं के द्वारा केन्द्र तक सूचना पहुंचाना और वहां से मिले निर्देशों को अवयवों के द्वारा सम्पन्न कराना इसी शक्ति का काम है। मनःसंस्थान की समस्त गतिविधियां इसी के द्वारा संचारित होती हैं। विकास से सम्बन्धित समस्त हलचलें प्रकाश तरंगों द्वारा सम्पन्न होती हैं। सूर्य की प्रकाश किरणें वनस्पतियों की अभिवृद्धि एवं प्राणियों में प्राण संचार का प्रयोजन पूरा करती हैं और भी बहुत कुछ उनके द्वारा होता है। आयु के साथ होने वाली अभिवृद्धि को यह प्रकाश तत्व ही संजोता है।
आध्यात्मिक अलंकारों में विद्युत को ब्रह्मा, प्रकाश को विष्णु और ताप को शिव माना गया है। मनःक्षेत्र में इनकी हलचलें भावना, इच्छा और क्रिया के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। ब्रह्माण्ड भी विराट् पुरुष का एक सुविस्तृत शरीर ही है। इसमें विद्युत तत्व सत, प्रकाश रज और ताप को तम रूप में प्रतिपादित किया गया है।
आन्तरिक स्थिति में हेर-फेर करके बाहर की स्थिति बदली जा सकती है। सभी जानते हैं कि मनःस्थिति ही भली-बुरी परिस्थितियां उत्पन्न करती है। अन्तरंग को बदलने पर बहिरंग सहज ही बदला जा सकता है। शारीरिक स्थिति में सुधार परिवर्तन करना हो तो उस उपकरण के अन्तराल में काम कर रही सूक्ष्म क्षमताओं को देखना सम्भालना होगा। कारखाने की मशीनें ठप्प हों तो समझना चाहिए कि विद्युत धारा या भाप ताप के शक्ति स्रोतों में कहीं कुछ अड़चन उत्पन्न हो गई है। मशीनों की देखभाल करना भी उचित है।, पर आधार तो शक्ति स्रोतों पर निर्भर है। शरीरगत दुर्बलता, रुग्णता को दूर करने के लिए आहार-विहार की गड़बड़ियां सुधारना और चिकित्सा उपचार पर ध्यान देना आवश्यक है, पर काम इतने से ही नहीं चल सकता। देखना यह भी होगा कि अवयवों के संचार करने के लिए उत्तरदायी सूक्ष्म शक्तियों की प्रवाह धारा ठीक प्रकार चल रही है या नहीं। शरीर ‘तीन फेस’ पर चलने वाली मोटर है। इन सभी तारों का ठीक स्थिति में होना आवश्यक है। जिससे शक्ति संचार में अवरोध उत्पन्न न होने पाये। अवयवों को कई प्रकार की बुरी आदतें घेर लेती हैं—इन्द्रियों को उच्छृंखलता बरतने का अभ्यास पड़ जाता है—दुर्व्यसनों को इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत लिया जा सकता है। आलस्य में अवयवों की अशक्तता का दोष कम और आन्तरिक स्फूर्ति की न्यूनता का कारण अधिक काम कर रहा होता है। इन दोष दुर्गुणों को ठीक करने के लिए मात्र शारीरिक अवयवों को दोष देना अथवा उसी की ठोंक पीट करना पर्याप्त न होगा। शरीर में संव्याप्त अन्तःचेतना की भी देखभाल करनी होगी। यही स्थूल शरीर का अध्यात्म विज्ञान है। यदि स्तर की गहराई तक पहुंचा जा सके और वहां सुधारने उभारने का कौशल प्राप्त हो सके तो शरीरगत दोष दुर्गुणों, दुर्बलता एवं रुग्णता को—निरस्त कर सकना सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है।