Books - चेतना की प्रचण्ड क्षमता-एक दर्शन
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Language: HINDI
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सुविकसित संतान के लिए वैज्ञानिक प्रयास
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मनुष्य शरीर इतना विलक्षण और अद्भुत है कि विज्ञान के द्वारा बड़ी-बड़ी गुत्थियों को सुलझा लेने तथा रहस्यों को समझ लेने के बाद भी मनुष्य शरीर को पूरी तरह नहीं समझा जा सका है। अपनी काया को ही लिया जाय—हम जानते हैं कि हमारी काया का स्थूल भाग—अन्नमय कोश—छोटी-छोटी कोशिकाओं (सैल्स) से बना है। इन कोशिकाओं के अन्दर एक द्रव ‘साइटोप्लाज्म’ (वसामय पीला सा द्रव पदार्थ) भरा रहता है। इसके बीच में अवस्थित होता है, कोशिका का नाभिक अथवा केन्द्रक (न्यूक्लियस)। पुरुष की शुक्राणु कोशिका अथवा नारी की अण्डाणु या डिम्बाणु कोशिका के नाभिक में छोटे-छोटे धागे जैसे गुण सूत्र (क्रोमोसोम) होते हैं। एक नाभिक में इसके 23 या 24 जोड़े होते हैं। इन्हीं से लाखों की संख्या में ‘जीन्स’ चिपके रहते हैं। नये मनुष्य शरीर के निर्माण तथा उनमें अनुवांशिकीय गुण धर्मों का विकास इन्हीं पर निर्भर करता है।
यह जीन्स क्या हैं? कैसे यह अपनी आश्चर्यजनक भूमिका पूरी करते हैं? इस रहस्य पर से विज्ञान अभी पर्दा उठा नहीं सका है। उनके सम्बन्ध में बड़ी तेजी से शोध कार्य चल रहे हैं, बहुत से रहस्य खुले भी हैं, फिर भी वह नहीं के बराबर हैं।
अभी तक के अध्ययन के आधार पर ‘जीन्स’ छोटे-से विद्युतमय पुटपाक या पुड़ियां (पैकेट) हैं। माना जाता है कि इनकी रचना कई तरह के न्यूक्लियस अम्लों के संयोग से हुई है। उसमें से अभी केवल दो के बारे में जाना जा सका है। वे हैं (1) डी.एन.ए. (डीआक्सी राइबो न्यूक्लिक एसिड) (2) आर.एन.ए. (राइबो न्यूक्लिक एसिड)। जीन्स की संरचना के बारे में अभी तक नहीं जाना जा सका है, किन्तु यह जानकारियां निश्चित रूप से हो गई हैं कि शरीर के अंग-प्रत्यंग की विशिष्ट रचना से लेकर अनेक परम्परागत स्वभावों, रोगों तथा गुणों के विकास की आश्चर्यजनक क्षमता इनमें है। इनके गुणों और कार्य-कलापों को कैसे नियन्त्रित किया जाय यह पता विज्ञान अभी नहीं लगा सका है, किन्तु यह माना जाने लगा है कि यदि ‘जीन्स’ के गुणों और कार्य-प्रणाली को प्रभावित किया जा सके, तो आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त हो सकती हैं। यह अन्नमय कोष के छोटे-से घटक एक कोशिका के नाभिक में रहने वाले नगण्य आकार वाले विद्युतमय पैकेट मनुष्य के आस-पास के वातावरण से लेकर उसके विचारों और भावनात्मक विशेषताओं के संस्कार ग्रहण करने में समर्थ हैं।
मनुष्य के विकास के सम्बन्ध में भारतीय मान्यता यह रही है कि उस पर अनुवांशिकता के साथ-साथ बाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। पहले इस मान्यता के प्रति उपेक्षा बरती जाने लगी थी।
यह स्पष्ट हो गया है कि अपने वातावरण तथा अपनी चेष्टाओं द्वारा व्यक्ति जिन स्वभाव-गुणों को अर्जित करता है, वे वंशानुक्रम से प्राप्त नहीं होते और न ही कोई व्यक्ति उन अर्जित विशेषताओं को वंशानुक्रम द्वारा अपने बच्चों को प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति ने अनेक भाषाएं सीखी हैं, तो वह उस भाषा-ज्ञान को अपने बच्चों को वंशानुक्रम द्वारा नहीं दे सकता। बच्चों को भी भाषा-ज्ञान की प्रचलित विधियों को ही अपनाना होगा तथा मेहनत करनी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यह भी स्पष्ट हो गया है कि वंशानुक्रम का निश्चित प्रभाव सन्तान पर पड़ता है। आनुवंशिकी (जनेटिक्स) का सारा ढांचा ही इसी आधार पर खड़ा है। यह सही है कि कोई भी व्यक्ति जंगली बेर के बीज बोकर उनसे गुलाब के फूलों की आशा नहीं कर सकता। गौरैया के अण्डों को सेकर उनमें से मोर के बच्चे कौन निकाल सकता है? लेकिन जिन पौधों के बीज बोये जाते हैं, उनसे उन्हीं जैसे पौधे आखिर क्यों उगते हैं? चूहों से चूहों और बिल्ली से बिल्ली ही क्यों पैदा होती है? इसका उत्तर है आनुवंशिकता अर्थात् नियमित वंश परम्परा, जिसके कारण ही ऐसा होता है। जो वस्तु जिस वंश की होगी, उसका बीज डाले जाने पर वैसा ही फल होगा। आनुवंशिकता में काम करने का ढंग भी शामिल है और चीजों का कद तथा रंग भी। उदाहरण के लिये वया पक्षी को बढ़िया लटकने वाला घोंसला बनाना किसी को सिखाना नहीं पड़ता है।
आनुवंशिकता अपने पूर्वजों से मिलने वाली विशेषताओं का ही दूसरा नाम है। वैज्ञानिक जानते हैं कि जीवों में जो विशेषताएं होती हैं, वे उन्हें अपने माता-पिता से अत्यन्त सूक्ष्म कणों के रूप में मिलती हैं। इन सूक्ष्म कणों को ‘जीन’ कहा जाता है। हमारा शरीर बहुत-सी कोशिकाओं से मिलकर बना है। ‘जीन’ कोशिका का ही एक भाग है। अगर किसी वट-वृक्ष की शाखा को कहीं उसके अनुकूल स्थान में लो जाकर बो दिया जाये तो वह भी मूल पेड़ की तरह ही फलने-फूलने लगेगी। उसकी कोशिकाओं के ‘जीन’ अपने पहले के पेड़ की ही भांति होंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह किसी स्पंज के टुकड़े में वैसे ही छिद्र होते हैं जैसे उस स्पंज में थे जिसमें से कि टुकड़े को तोड़ा गया है।
अधिकांश पौधों और जीवों की उत्पत्ति नर और मादा से होती है। कुछ ‘जीन’ नर से और कुछ मादा से मिलते हैं। झरबेरी झाड़ी के बीज गुलाब तो नहीं, लेकिन ऐसा पौधा अवश्य उगा सकते हैं, जिसमें एक की बजाय दो तरह के फूल हों। काली बिल्ली का बच्चा एकदम सफेद हो सकता है। यदि कोई पौधा या जानवर दो तरह की विशेषता के ‘‘जीन’’ आनुवंशिकता द्वारा प्राप्त करता है, और दोनों का प्रभाव बराबर रहता है तो दोनों के मिलने से तीसरी विशेषता उत्पन्न होती है। अगर लाल गाय और सफेद रंग का सांड़ हो तो उनका बछड़ा न तो सफेद होगा और न लाल। वह भूरा, यानी दोनों के बीच के रंग का हो सकता है। ऐसा हो जाने के नियम की वैज्ञानिक व्याख्या आनुवंशिकता के सिद्धान्त के आधार पर की जाती है। ‘जीन’ ही इस आनुवंशिकता के वाहक हैं और आनुवंशिकता की बुनियादी इकाई हैं। अभी तक किये गये परीक्षणों से यही जाना जा सका है कि व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएं जैसे रंग, रूप, नेत्र, त्वचा, खून का प्रकार लम्बाई ठिगनापन आदि सब ही आनुवंशिक और पित्रागत होते हैं। ये शारीरिक गुण भी मात्र माता-पिता से नहीं प्राप्त होते, वरन् वे दादा, परदादा तथा अन्य पूर्वजों से क्रमशः संक्रमित होकर आते हैं। वंशानुगत गुणों में माता-पिता का दाय प्रत्येक गुण में आधा होता है। यानी मां का एक चौथाई और पिता का एक चौथाई। उसके पूर्व के चार पितरों में प्रत्येक का दाय प्रत्येक गुण का सोलहवां भाग होता है अर्थात् चारों पितरों का कुल दाय एक चौथाई भाग होता है। शेष 1 चौथाई और पुरानी पीढ़ियों से आते हैं।
व्यक्ति के संस्कार तो उसके जन्म-जन्मान्तरों की संचित सम्पदाएं और साधन हैं। किन्तु उसके उपयुक्त उपकरण-अन्नमयकोश के निर्माण के घटक जीन्स-क्रोमोसोम्स का भी स्वरूप-निर्धारण कितनी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं के आधार पर होता है, यह आनुवंशिकी की आधुनिक खोजों द्वारा भी स्पष्ट होता है। भारतीय मनीषी इन सूक्ष्मताओं से परिचित थे तभी वे सुसन्तति के लिए माता-पिता का चरित्रगत, तपस्वी-संयमी होना अनिवार्य बतलाते थे। इस प्रकार व्यवस्थित कर व्यक्ति न केवल सुयोग्य सन्तति के जनक जननी बनने की क्षमता से, अपितु उन अनेक विशिष्ट क्षमताओं, विभूतियों से सम्पन्न बनता है, जिनसे मनुष्य शरीर की सार्थकता और गरिमा है।
आनुवंशिकता का प्रभाव बिल्कुल सीधा और स्थूल नहीं होता। उदाहरण के लिए किसी माता-पिता में से दोनों को या किसी एक को टी.बी. रोग (क्षय रोग) हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को जन्म से ही टी.बी. (क्षय रोग) हो, अपितु इसका यह अर्थ है कि बच्चे के शरीर में ऐसी वृत्ति या तत्परता विद्यमान है कि क्षय रोग के कीटाणु शरीर में पहुंचते ही वहां जड़ पकड़ लेंगे।
इसी प्रकार मान लीजिए कि कोई बढ़ई है, जो अपने काम में बड़ा दक्ष है। यह कार्यदक्षता बच्चे में जन्मजात रूप से नहीं उत्पन्न होती। अपितु यदि बच्चे को भी कुशल बढ़ई बनाना है, तो उसे बढ़ईगीरी का काम सिखाना ही होगा। हां, उस बच्चे के हाथ ऐसे ही हो सकते हैं, जिनके द्वारा कि उन औजारों का अधिक अच्छा उपयोग सम्भव हो, जो बढ़ईगीरी के काम आते हैं।
इसीलिए आनुवंशिकता और पर्यावरण दोनों को समान महत्व दिया जाता है। आनुवंशिकता द्वारा अर्जित गुण नहीं प्राप्त होते। कुछ जन्मजात गुणों का आधार ही आनुवंशिकता को माना जाता है। ये जन्मजात गुण वंशानुक्रम के लक्षण कहे जाते हैं। वंशानुक्रम के लक्षण क्रोमोसोमों के आधार पर प्राप्त होते हैं। क्रोमोसोमों में होते हैं—जीन, जो व्यक्ति के ‘‘करेक्टरिस्टिक्स’’ का निर्माण करते हैं।
‘जीन’ का व्यवहार या आचरण में सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जीन शरीर के उत्तक तथा अंगों के विकास को निर्देशित नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार वे शरीर की क्रियाशीलता को भी नियन्त्रित करते हैं। शरीर की ये क्रियाएं स्पष्टतः व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं और उस रूप में जीन्स का सम्बन्ध व्यवहार से भी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वंशानुक्रम से छोटी टांगें, ठूंठदार अंगुलियां या बहरे कान प्राप्त करता है तो निश्चय ही कुछ क्षेत्रों में उसकी योग्यता सीमित हो जायगी इसी प्रकार शारीरिक क्रियाओं में भाग लेने वाले हजारों रासायनिक तत्व भी जीन्स द्वारा ही निर्धारित होते हैं। जैसे दृष्टि के लिए प्रकाश संवेदी तत्व याकि रक्त के जमने में कई रासायनिक तत्व योग देते हैं। इन तत्वों की उपस्थिति सशक्तता या दुर्बलता का सम्बन्ध जीन से ही होता है। ऐसे अनेक लक्षण वंशानुक्रम से सम्बन्धित होते हैं।
वंशानुक्रम के आधारभूत घटकों, जीन्स और क्रोमोसोम्स के अध्ययनों के निष्कर्ष इस तथ्य के द्योतक हैं कि संतति निर्माण का सूक्ष्म आधार कितना व्यापक और जटिल होता है। पौष्टिक भोजन मात्र से ही शरीर सुदृढ़ नहीं हो जाता। इसके विपरीत उसकी सुदृढ़ता ही भोजन के रस-परिपाक का कारण व आधार बनती है। बढ़िया खाने-पहनने की चिन्ता करते रहने को ही जीवन का पुरुषार्थ मान बैठने वाले अन्नमय कोष के निर्माण के आधारों से अनभिज्ञ रहकर उसे अस्त-व्यस्त और दूषित, विकृत बनाते रहते हैं और भावी सन्ततियों को भी उस विकृति का अभिशाप दें जाते हैं।
एक जीन, युग्म शरीर के किसी विशेष ‘करेक्टरिस्टिक’ के विकास का निर्देश करता है। आंखें, भूरी हैं, या नीली, बाल घने काले हैं या हल्के स्वर्णिम हैं अथवा लाल, घुंघराले हैं या सीधे, सामान्य बाल हैं या गंजापन है, दृष्टि सामान्य है, या रतौंधी ज्यादा होने की सम्भावना है श्रवण-शक्ति सामान्य है या जन्मजात बहरापन है, रक्त सामान्य है या कि ‘‘हेमोफीलिया’’ का दोष है, रंग-बोध स्पष्ट है या वर्णान्धता दोष है, उंगलियों या अंगूठों की संख्या सामान्य है या कम-अधिक है, किसी जोड़ में कोई उंगली छोटी-बड़ी तो नहीं है, सभी अवयव सामान्य हैं या कुछ अवयव विरूप हैं, आदि सभी शारीरिक ‘करेक्टरिस्टिक्स’ जीन-युग्मों पर ही निर्भर करते हैं।
फ्रान्सीसी दार्शनिक मान्टेन को 45 वर्ष की आयु में पथरी की बीमारी हुई। उनके पिता को यह रोग 25 वर्ष की आयु में आरम्भ हुआ। जबकि मान्टेन को जन्म के समय उनके पिता सिर्फ इक्कीस वर्ष के थे। उस समय उन्हें यह रोग नहीं था। लेकिन उनके जीन्स में इस रोग के आधार विद्यमान थे। मान्टेन की पित्ताशय की पथरी की बीमारी कई पीढ़ियों से चली आ रही थी।
बालकों का ‘गैलेक्टो सीमियां’ रोग जीन्स से ही सम्बन्धित होता है। वह जीन, जब ‘‘यूरी डायल ट्रान्सफरे एन्जाइम’’ नहीं बनने देता, तो बच्चे दूध में रहने वाली मिठास—गैलेक्टोस—को पचा नहीं पाते। फलतः वह खून में जमा होती रहती है और जिगर में इकट्ठी होकर बच्चे का पेट खराब कर देती है तथा मृत्यु का भी कारण बन बैठती है। ‘‘एक्रोडमे टाइटिस ऐटेरोपैथिका’’ नामक रोग का कारण भी मुख्यतः जीन्स की विकृतियां ही होती हैं। आंख का केन्सर-रेटीनो ब्लास्टीमा—जीन्स-दोष का ही परिणाम है। जीन्स की ‘एक्रोड्रोप्लासिया’—विकृति के कारण बच्चे अविकसित रह जाते हैं। वे जल्दी मरते हैं। बच गये तो भी वंश-वृद्धि में असमर्थ होते हैं। वे जल्दी मरते हैं। बच गये तो भी वंश-वृद्धि में असमर्थ होते हैं। ऐसे दोष वाली महिलाएं गर्भवती होने पर स्वयं की भी प्राण-रक्षा नहीं कर पातीं, बच्चे की जान तो खतरे में होती ही है।
भावी पीढ़ी का निर्माण
अच्छा बीज अच्छी जमीन में बोया जाय तो उससे मजबूत पौधा उगेगा और उस पर बढ़िया फल-फूल आवेंगे। इस तथ्य से क्या शिक्षित, क्या अशिक्षित सभी परिचित हैं? जिन्हें कृषि एवं उद्यान से अच्छा प्रतिफल पाने की आकांक्षा है वे इस तथ्य पर आरम्भ से ही ध्यान रखते हैं कि उत्पादन के मूलभूत आधारों को सतर्कता के साथ जुटाया जाय और उनका स्तर ऊंचा रखा जाय।
यों विवाह एक निजी मामला समझा जाता है और संतानोत्पादक को भी व्यक्तिगत क्रिया-कलाप की परिधि में सम्मिलित करते हैं। पर वस्तुतः यह एक सार्वजनिक सामाजिक एवं सार्वभौम प्रश्न है। क्योंकि भावी पीढ़ियों के निर्माण की आधारशिला यही है। राष्ट्र और विश्व का भविष्य उज्ज्वल एवं सुसम्पन्न बनाने की प्रक्रिया धन समृद्धि पर टिकी हुई नहीं है, वरन् इस बात पर निर्भर है कि भावी नागरिकों का शारीरिक, बौद्धिक एवं चारित्रिक स्तर कैसा होगा? धातुएं, इमारतें या हथियार नहीं, किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा वहां के नागरिक ही होते हैं। वे जैसे भी भले या बुरे होंगे, उसी स्तर का समाज, समय एवं वातावरण बनेगा। इसलिए भावी प्रगति की बात सोचने में हमें सुसन्तति के निर्माण की व्यवस्था जुटाने की बात भी ध्यान में रखनी चाहिए।
घरेलू पशुओं यहां तक कि पालतू कुत्ते, बिल्लियों तक के बारे में हमारे प्रयास यह होते हैं कि उनकी सन्तानें उपयुक्त स्तर की हों। जिन्हें इस उद्देश्य को पूरा करने में रुग्ण, दुर्बल अथवा अयोग्य समझते हैं उनका प्रजनन प्रतिबन्धित कर देते हैं। इस प्रतिबन्धन प्रोत्साहन में उचित वंशवृद्धि की बात ही सामने रखी जाती है। क्या मानव प्राणी की नस्लें ऐसे ही अस्त-व्यस्त बनने दी जानी चाहिए, जैसी कि इन दिनों बन रही हैं? क्या इस सन्दर्भ में कुछ देख-भाल करना या सोचना-विचारना समाज का कर्त्तव्य नहीं है? क्या बच्चे मात्र माता-पिता की ही सम्पत्ति हैं? क्या उनका स्तर समाज को प्रभावित नहीं करता? इस बातों पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि किसी राष्ट्र या समाज का भविष्य उसकी भावी पीढ़ियों पर निर्भर है। यदि सुयोग्य नागरिकों की जरूरत हो तो भोजन, चिकित्सा अथवा शिक्षा का प्रबन्ध भर कर देने से काम नहीं चलेगा। इस सुधार का क्रम सुयोग्य जनक-जननी द्वारा सुविकसित सन्तान उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व निवाहने से होगा। यह तैयारी विवाह के दिन से ही आरम्भ हो जाती है। यदि पति-पत्नी को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति सुयोग्य सन्तान के उत्पादन तथा भरण-पोषण से उपयुक्त नहीं है तो उनके द्वारा की जाने वाली वंशवृद्धि अवांछनीय स्तर की ही बनेगी और उसका दुष्परिणाम समस्त समाज को भुगतान पड़ेगा।
वंशानुक्रम विज्ञान की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। जनन रस में पाये जाने वाले गुण-सूत्रों को भावी पीढ़ियों के निर्माण का सारा श्रेय दिया जा रहा है। इन जीव कणों में हेर-फेर करके ऐसे उपाय ढूंढ़े जा रहे हैं जिनके आधार पर मन चाहे आकार-प्रकार की सन्तानों को जन्म दिया जा सके। इस अत्युत्साह में अभी तक आंशिक सफलता ही मिली है। क्योंकि गुण सूत्रों ने आकृति तक में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत नहीं किया फिर प्रकृति के परिवर्तन की तो बात ही क्या की जाय?
प्रयोगशालाओं में ऐसी विधि-व्यवस्था सोची जा रही है जिससे अभीष्ट स्तर की सन्तान पैदा की जा सके। इस दिशा में जी तोड़ प्रयत्न हो रहे हैं और सोचा जा रहा है कि बिना माता का स्तर सुधारे अथवा बिना वातावरण की चिन्ता किये वैज्ञानिक विद्या के आधार पर सुसंतति उत्पादन की व्यवस्था यान्त्रिक क्रिया-कलाप द्वारा सम्पन्न करली जायगी।
रासायनिक संयोग में हेर-फेर करके कोशाओं के स्वरूप में परिवर्तन करके मनुष्य का वर्तमान स्तर बदला जा सकेगा ऐसा पिछले बहुत दिनों से सोचा जा रहा है। इस सन्दर्भ में गुण सूत्रों और जीन्स की खोज खबर ली जा रही थी अब एक नये चरण में विज्ञान ने प्रवेश किया है और माना है कि यदि कोशाओं के स्तर में कुछ परिवर्तन करना हो तो वह रासायनिक हेर-फेर से नहीं विद्यमान विद्युत प्रवाह में ही कुछ उलट-पुलट करके सम्भव हो सकेगा। अब रसायन मुख्य नहीं रहे—उनका स्थान विद्युत ने ले लिया है। यह समझा जाता रहा है कि पिता के शुक्राणु लगभग वैसी आकृति के होते हैं जैसे कि पानी के पूंछदार कीड़े दिखाई पड़ते हैं। वर्गीकरण की दृष्टि से उनके दो भाग किये जा सकते हैं एक शिर दूसरा पूंछ। शुक्राणु का नाभिक शिर भाग में होता है, पूंछ उसके चलने, दौड़ने में गति प्रदान करती है। पूंछ अक्सर हिलती रहती है जिससे शुक्र कीट आगे बढ़ता है और निषेचन के समय दौड़ कर डिम्ब अणु के साथ जाकर मिल जाता है। यह एकाकार होने की स्थिति ही गर्भ धारण है। एक नया प्राणी इस सुयोग संयोग से उत्पन्न होता है।
शुक्राणु और डिम्बाणु की उपरोक्त व्याख्या स्थूल है। उनके भीतर भी बहुत बारीक कण होते हैं। क्रोमोसोम—उनसे भी सूक्ष्म जीन्स को प्रजनन शक्ति का उत्तरदायी कहा जा सकता है। जीन्स में भी प्रोटीन की कुछ मात्रा और डी.एन.ए. (डी. ओक्सी वाओन्यूक्लिक एसिड) नामक पदार्थ रहता है। इसी क्षेत्र में वंश परम्परा की शारीरिक और मानसिक विशेषताएं समाविष्ट रहती हैं। वे विशेषताएं केवल माता-पिता की ही नहीं होतीं वरन् वे भी मातृ पक्ष और पितृ पक्ष की पीढ़ी-दर-पीढ़ी से जुड़ी हुई चली आती हैं। उनमें भी संयोग-वियोग के आधार पर हुए परम्परागत और कुछ समन्वयात्मक विशेषताएं उभरती रहती हैं। इसी उथल-पुथल के कारण सभी भाई-बहिन एक जैसे आकार प्रकार के नहीं बन पाते यद्यपि उनमें बहुत-सी विशेषताएं एक जैसी भी बनी रहती हैं।
‘दि व्रेव न्यू वर्ल्ड’ नामक ग्रन्थ में जीव विज्ञानी एडलस हक्सले ने डिम्ब और शुक्र कीटों के क्रिया-कलाप का मात्र रासायनिक संयोग नहीं माना है वे उन्हें ‘अल्फा’ ‘बीटा’ और ‘गामा’ किरणों का उत्पादन मानते हैं।
पूर्वजों के जीन्स अपने साथ जिन विशेषताओं को लपेटे चलते हैं उनमें बहुत सी अच्छी होती हैं और बहुत सी बुरी। परम्परागत बीमारियों का लिपटा हुआ कुचक्र परिधान निश्चित रूप से बुरा है।
अफ्रीका महाद्वीप के कांगो देश में तीन चार फुट ऊंचे बौनों की बड़ी संख्या है वे शिकार पर निर्वाह करते हैं और आदिवासी यायावरों की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान में अपने डेरे डालते रहते हैं। पेरू के जंगलों में यूस जाति के ऐसे आदिवासी पाये गये हैं जिनकी ऊंचाई तीन फुट से अधिक ऊंची नहीं बढ़ती वरन् कुछ नीची ही रह जाती है। माल्योनैटों के रोम कैथलिक चर्च द्वारा प्रकाशित ‘रीजन फ्राम दी जंगल’ पुस्तक में उन बौनी जातियों की वंश परम्परा पर अधिक प्रकाश डाला गया है। इन ‘यूस’ जाति के बौनों की अधिक संख्या ब्राजील, बोलीलिया तथा क्यूरा नदी के तट पर पाई जाती है। यह लोग 20 कबीलों में बंटे हुए हैं।
बेंगलोर में वी.एन. थिम्मया नामक एक नाई के घर ऐसा बालक जन्मा था जो जन्म के समय तो केवल 5.14 पौण्ड का था पर कुछ दिन बाद तेजी से उसका शरीर फैलने फूलने लगा। 11 वर्ष की उम्र पर पहुंचने तक वह 162 पौण्ड भारी और 50 इंच ऊंचा हो गया। इतना ही नहीं उसकी छाती 46 इंच की हो गई। लगभग फुटबाल जैसा गोल-मटोल वह दिखाई पड़ने लगा। बढ़ोतरी इस तेजी से हुई कि हर महीने पुराने कपड़े रद्द करना और नये बनवाना उस गरीब आदमी के लिए अत्यन्त कठिन हो गया। अच्छा इतना ही रहा कि खुराक साधारण स्तर के बालकों जितनी ही बनी रही।
न्यूयार्क विश्व-विद्यालय के तत्वावधान में बफेले नगर की प्रयोगशाला ने इस असम्भव समझे जाने वाले कार्य को सम्भव करके दिखाया है। विश्व-विद्यालय के अनुसंधान सम्बन्धी उपाध्याक्ष डा. रेमण्ड इवेल तथा जीव विज्ञान केन्द्र के निर्देशक जेक्स डेनिमाली द्वारा इस शोध निष्कर्ष की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वंश परम्परा से चली आ रही आकृति-प्रकृति तथा शारीरिक, मानसिक स्थिति में अब आमूल-चूल परिवर्तन कर सकना सम्भव हो सकेगा। वंश परम्परा की बीमारियों पर काबू प्राप्त किया जा सकेगा। सूक्ष्म कोषों की शल्य क्रिया करना उनमें दूसरे कोषों के आंशिक पैबन्ध लगा सकना सम्भव होने से यह भी शक्य हो जायगा कि इच्छानुरूप विशिष्टताओं वाले बच्चे पैदा किये जा सकें। सन् 1967 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विज्ञानी डा. आर्थर कारन बर्ग ने कैलीफोर्निया के स्टेन फोर्ड विश्व-विद्यालय में जीवकोषों का ‘डी.एन.ए.’ खोजा था। अब उस खोज ने इतनी प्रगति करली है कि जीव कोषों की स्थिति में इच्छानुसार एवं आवश्यकतानुसार फेर बदल किया जा सके।
न केवल वंश परम्परा की दृष्टि से वरन् मनुष्य की ‘रोग मुक्ति’ बलवृद्धि तथा दीर्घजीवन की दृष्टि से इन कोशा कणों की स्थिति में सुधार परिवर्तन अपेक्षित है। यह कार्य दवादारू के आधार पर अथवा आहार-विहार के मोटे परिवर्तनों से भी सम्भव नहीं हो सकता। मनुष्य का शरीर भावन जिन ईंटों से चुना गया है उन्हें कोशा या सैल कहते हैं। इन्हीं के बनने-बिगड़ने का क्रम हमें जीवित और स्वस्थ रखता है और रुग्ण, दुर्बल बनाते हुए मृत्यु के मुख में धकेल देता है।
नित्य निरन्तर कायाकल्प
सामान्यता यह कोशाएं टूटकर बंटती रहती हैं और नई कोशाओं को जनम देती रहती हैं। चमड़ी की कोशाएं प्रायः 4-5 दिन में पुरानी से बदल कर नई हो जाती हैं जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली बदलता है, उसी प्रकार हम भी अपनी चमड़ी हर चौथे पांचवे दिन बदल देते हैं। यों यह बात आश्चर्य जैसी लगती है, पर वस्तुतः होता यही रहता है। जिन्दगी भर में हमें हजारों बाद चमड़ी की केंचुली बदलनी पड़ती है। यही हाल शरीर के भीतर काम करने वाले प्रमुख रसायन प्रोटीन का है। वह भी प्रायः 80 दिन में पूरी तरह बदल कर नया आ जाता है। यह परिवर्तन अपनी पूर्वज कोशाओं के अनुरूप ही होता है अस्तु अन्तर न पड़ने में यह प्रतीत नहीं होता कि पुरानी के चले जाने और नई के स्थानापन्न होने जैसा कुछ परिवर्तन हुआ है।
इस परिवर्तन क्रम को चलाने की सीमा हर अवयव की अलग-अलग है। किसी अवयव का काया-कल्प जल्दी-जल्दी होता है किसी का देर-देर में। इसी प्रकार उनके काम करने की—सक्षम रहने की अवधि भी भिन्न-भिन्न है। डा. केनिव रासले की पर्यवेक्षण रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य के गुर्दे 200 वर्ष तक, हृदय 300 वर्ष तक, चमड़ी 1000 वर्ष तक, फेफड़े 1400 वर्ष तक और हड्डियां 4000 वर्ष तक जीवित रह सकने योग्य मसाले से बनी हैं। यदि उन्हें सम्भाल कर रखा जाय तो वे इतने समय तक अपना अस्तित्व भली प्रकार बनाये रह सकती हैं। इनके जल्दी खराब होने का कारण यह ही है—उनसे लगातार काम लिया जाना और बीच-बीच में मरम्मत का अवसर न मिलना। यदि इसकी व्यवस्था बन पड़े तो निश्चित रूप से मनुष्य की वर्तमान जीवन अवधि में कई गुनी वृद्धि हो सकती है।
न्यूयार्क युनिवर्सिटी के डा. मिलन कोपेक और तकफेलर इन्स्टीट्यूट के डा ऐलोक्सिस कैरलन द्वारा किये गये प्रयोगों से एक ही निष्कर्ष निकला है कि कोशाएं जब तक अपनी वंश वृद्धि करने में सक्षम रहती हैं तब तक बुढ़ापा किसी प्रकार छाने नहीं पाता, पर जैसे-जैसे वे नई पौध उगाने की क्रिया शिथिल करती हैं वैसे ही वैसे अवयव कठोर और निष्क्रिय होते चले जाते हैं और अन्ततः मृत्यु के मुख में जा घुसते हैं। यदि इन कोशाओं की क्षमता घटने न दी जाय और उन्हें उत्पादन की अपनी स्वाभाविक संरचना अवधि तक क्रिया शील रहने का उपाय ढूंढ़ निकाला जाय तो शरीर को अमर न सही उसे दीर्घायुषी तो बनाया ही जा सकता है।
क्रमिक गति से—स्थूल से सूक्ष्म के क्षेत्र में प्रवेश करता हुआ विज्ञान अब रासायनिक पदार्थों की परिधि लांघ कर उस गहराई तक जा पहुंचा है जहां शक्ति-शक्ति का ही साम्राज्य शेष रह जाता है। शरीर एवं मन के प्रयोजनों में लगी इस धारा को विज्ञान में मानवी विद्युत नाम दिया है।
वैज्ञानिक भी इसी मानवी विद्युत के प्रयोग द्वारा भावी पीढ़ी को सुविकसित बनाने और उसका स्तर सुधारने के लिए प्रयत्नशील हैं। मानवी काया के निर्माण में बीज भूमिका निभाने वाले जनन-रस में पाये जाने वाले गुण-सूत्र में एक व्यक्त रूप—डामिनेंट है। दूसरा अव्यक्त रूप है—रिसेसिव। व्यक्त भाग को भौतिक माध्यमों से प्रभावित किया जा सकता है और उस सीमा तक भले या बुरे प्रभाव सन्तान में उत्पन्न किये जा सकते हैं। पर अव्यक्त स्तर को केवल जीव को निजी इच्छा-शक्ति ही प्रभावित कर सकती है। महत्वपूर्ण परिवर्तन इस चेतनात्मक परिधि में ही हो सकते हैं इसके लिए रासायनिक अथवा चुम्बकीय माध्यमों से काम नहीं चल सकता। इनके लिए चिन्तन को बदलने वाली अन्तःस्फुरणा अथवा दबाव भरी परिस्थितियां होनी चाहिए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह सोचा जाने लगा है कि माता-पिता का स्तर सुधारे बिना सुसन्तति की समस्या प्रयोगशालाओं द्वारा हल न हो सकेगी। वनस्पति अथवा पशुओं में सुधार उत्पादन सरल है, पर मनुष्यों में पाये जाने वाले चिन्तन तत्व में उत्कृष्टता भरने की आवश्यकता यान्त्रिक पद्धति कदाचित ही पूरी कर सकेगी।
गुण-सूत्रों में हेर-फेर करके तत्काल जिस नई पीढ़ी का स्वप्न इन दिनों देखा जा रहा है, उसे म्यूटेशन-आकस्मिक परिवर्तन प्रक्रिया कहा जा सकता है। म्यूटेशन के सन्दर्भ में पिछले दिनों पैवलव, मैकडुगल, मारगन, मुलर, प्रकृति जीव विज्ञानियों ने अनेक माध्यमों और उपकरणों से विविध प्रयोग किये हैं। जनन रस को प्रभावित करने के लिए उनने विद्युतीय और रासायनिक उपाय अपनाये। सोचा यह गया था कि उससे अभीष्ट शारीरिक और मानसिक क्षमता सम्पन्न पीढ़ियां उत्पन्न होंगी, पर उनसे मात्र शरीर की ही दृष्टि से थोड़ा हेर-फेर हुआ। विशेषतया बिगाड़ प्रयोजन में ही सफलता अधिक मिली, सुधार की गति अति मन्द रही। गुणों में पूर्वजों की अपेक्षा कोई अतिरिक्त सम्भव न हो सका।
एक जाति के जीवों में दूसरे जाति के जीवों की कलमें लगाई गईं और वर्णशंकर सन्तानें उत्पन्न की गईं। यह प्रयोग उसी जीवधारी तक अपना प्रभाव दिखाने में सफल हुए। अधिक से अधिक एक पीढ़ी कुछ बदली-बदली सी जन्मी इसके बाद वह क्रम समाप्त हो गया। घोड़ी और गधे के संयोग से उत्पन्न होने वाले खच्चर अगली पीढ़ियों को जन्म देने में असमर्थ रहते हैं।
वर्णशंकर सन्तान उत्पन्न करके पूर्वजों की अपेक्षा अधिक सशक्त और समर्थ पीढ़ियां उपजाने का उत्साह अब क्रमशः घटता चला जा रहा है। इस सन्दर्भ में प्रथम आवश्यकता तो यही रहती है कि प्रकृति एक ही जाति के जीवों में संकरण स्वीकार करती है। मात्र उपजातियों से ही प्रत्यारोपण सफल हो सकता है। यदि शरीर रचना में विशेष अन्तर होगा तो संकरण प्रयोगों में सफलता न मिलेगी, दूसरी बात यह है कि काया की दृष्टि से थोड़ा सुधार इस प्रक्रिया में हो भी सकता है। गुणों में नहीं। वर्णशंकर गायें मोटी, तगड़ी तो हुईं, पर अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक दुधारू न बन सकीं। इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला है कि उत्कृष्टता जीव के अपने विकास-क्रम के साथ जुड़ी हुई है, वह बाहरी उलट-पुलट करके विकसित नहीं की जा सकती।
सुसन्तति के सम्बन्ध में वैज्ञानिक प्रयोग अधिक से अधिक डडडडडडड कर सकते हैं कि रासायनिक हेर-फेर करके शारीरिक दृष्टि से अपेक्षाकृत थोड़ी मजबूत पीढ़ियां तैयारी करदें, पर उनमें नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक उत्कृष्टता भी होगी इसकी गारण्टी नहीं दी जा सकती। ऐसी दशा में उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकने वाले नागरिकों का सर्वतोमुखी सृजन कहां सम्भव होगा?
उस अत्युत्साह से अब वंशानुक्रम लगभग हतोत्साहित हो चला है और सोचा जा रहा है कि अभिभावकों को ही सुयोग्य बनाने पर ध्यान दिया जाय। एक ओर अयोग्य व्यक्तियों को अवांछनीय उत्पादन से रोका जाय, दूसरी ओर सुयोग्य, सुसंस्कृत एवं समुन्नत लोगों को प्रजनन के लिए प्रोत्साहित किया जाय। विवाह निजी मामला न रहे, वरन् सामाजिक नियन्त्रण इस बात का स्थापित किया जाय कि शारीरिक ही नहीं अन्य दृष्टियों से भी सुयोग्य और समर्थ व्यक्तियों को विवाह बन्धन में बंधने और सन्तानोत्पादन के लिए स्वीकृति दी जाय।
जर्मनी के तीन प्रसिद्ध जीव विज्ञानियों ने वंशानुक्रम विज्ञान पर एक संयुक्त ग्रन्थ प्रकाशित कराया है नाम है—‘ह्यूमन हैरेड़िटी’। लेखकों के नाम हैं डा. आरवेन वेवर, डा. अयोजिन फिशर और डा. फ्रिट्ज लेंज। उन्होंने वासना के उभार में चल रहे अन्धाधुन्ध विवाह सम्बन्धों के कारण सन्तान पर होने वाले दुष्प्रभाव को मानवी भविष्य के लिए चिन्ताजनक बताया है। लेखकों का संयुक्त मत है कि—‘अनियन्त्रित’ विवाह प्रथा के कारण पीढ़ियों का स्तर बेतरह गिरता जा रहा है, उनने इस बात को भी दुःखद बताया है कि निम्न वर्ग की सन्तानें बढ़ रही हैं और उच्चस्तर के लोगों की संख्या तथा सन्तानें घटती चली जा रही हैं।
पीढ़ियों में आकस्मिक परिवर्तन म्यूटेशन—के विशेष शोधकर्त्ता टर्नियर का निष्कर्ष यह है कि मानसिक दुर्बलता के कारण गुण सूत्रों में ऐसी अशक्तता आती है जिसके कारण पीढ़ियां गई-गुजरी बनती हैं। इसके विपरीत मनोबल सम्पन्न व्यक्तियों की आन्तरिक स्फुरणा उनके जनन रस में ऐसा परिवर्तन कर सकती है जिससे तेजस्वी और गुणवान ही नहीं शारीरिक दृष्टि से भी परिपुष्ट संतानें उत्पन्न हों। वंश परम्परा से जुड़े हुए कुष्ट, उपदंश, क्षय, दमा, मधुमेह आदि रोगों की तरह विधेयात्मक पक्ष यह भी है कि मनोबल के आधार पर उत्पन्न चेतनात्मक सार्थकता पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़े और उसका सत्परिणाम शरीर, मन अथवा दोनों पर प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो सके। चमत्कारी आनुवंशिक परिवर्तन इसी आधार पर सम्भव है मात्र रासायनिक परिवर्तनों के लिए भौतिक प्रयास इस प्रयोजन की पूर्ति नहीं कर सकते। यह तथ्य हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि जिस प्रकार परिवार नियोजन के द्वारा अवांछनीय उत्पादन रोकने का प्रयास किया जाता है उसी प्रकार समर्थ और सुयोग्य सन्तानोत्पादन के लिए आवश्यक ज्ञान, आधार-साधन एवं प्रोत्साहन उपलब्ध कराया जाय।
अनियन्त्रित विवाह व्यवस्था के सम्बन्ध में दूरदर्शी विचारशील व्यक्ति भारी चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं और यह सोच रहे हैं कि इस सम्बन्ध में विवेक सम्मत नियन्त्रण व्यवस्था किये बिना काम नहीं चलेगा। हिन्दू समाज में इन दिनों विवाह व्यवस्था कितनी भोंड़ी क्यों न हो गई हो उस पर समाज का कंधा-सीधा नियन्त्रण अवश्य है। नियन्त्रण का स्वरूप क्या हो, यह अलग प्रश्न है, पर भौतिक समस्या का हल हिन्दू समाज में अभी भी विद्यमान है कि विवाह प्रक्रिया पर समाज का नियन्त्रण होना चाहिए। इस भारतीय परम्परा की ओर विश्व के विचारशील वर्ग का ध्यान गया है और यह सोचा जा रहा है कि विवाह पर सामाजिक नियन्त्रण का अनुकरण समस्त संसार में किया जाना चाहिए।
बीमा कम्पनियां इस बात की पूरी पूछ-ताछ करती हैं कि बीमा कराने वाले के पूर्वज किस आयु में मरे थे क्योंकि अन्वेषण से यही पाया गया है कि पूर्वजों की आयु से मिलती-जुलती अवधि तक ही सामान्यतः उनकी पीढ़ियां भी जिया करती हैं। डा. रेमण्ड पर्ल ने बहुत शोधों के उपरान्त इस बात पर जोर दिया है कि सन्तान का दीर्घजीवन यदि अभीष्ट हो तो उसका प्रयोग जनक जननी को पहले अपने ऊपर से प्रारम्भ करना चाहिए।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जे.वी. हाल्डेन ने आशा व्यक्त की है कि अगले दो सौ वर्षों के भीतर योरोप और अमेरिका में भी हिन्दुओं की तरह वर्ण व्यवस्था स्थापित होगी और विवाहों के सन्दर्भ में उसका विशेष रूप से ध्यान रखा जायगा।
मानस जाति के उज्ज्वल भविष्य का प्रश्न बहुत कुछ सुसन्तति निर्माण की प्रक्रिया पर निर्भर है। इसके विभिन्न पक्षों पर विचार करना पड़ेगा और आवश्यक आधार जुटाना पड़ेगा। उपयुक्त जोड़े ही विवाह बन्धन में बंधे और उपयोगी उत्पादन करें। इस सन्दर्भ में विवाह पद्धति पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक नियन्त्रण रहना चाहिए। यौन विनोद के लिए विवाह की छूट और अयोग्य उत्पादन की स्वतन्त्रता को अवरुद्ध करने के लिए भी कुछ तो करना ही पड़ेगा।
यह जीन्स क्या हैं? कैसे यह अपनी आश्चर्यजनक भूमिका पूरी करते हैं? इस रहस्य पर से विज्ञान अभी पर्दा उठा नहीं सका है। उनके सम्बन्ध में बड़ी तेजी से शोध कार्य चल रहे हैं, बहुत से रहस्य खुले भी हैं, फिर भी वह नहीं के बराबर हैं।
अभी तक के अध्ययन के आधार पर ‘जीन्स’ छोटे-से विद्युतमय पुटपाक या पुड़ियां (पैकेट) हैं। माना जाता है कि इनकी रचना कई तरह के न्यूक्लियस अम्लों के संयोग से हुई है। उसमें से अभी केवल दो के बारे में जाना जा सका है। वे हैं (1) डी.एन.ए. (डीआक्सी राइबो न्यूक्लिक एसिड) (2) आर.एन.ए. (राइबो न्यूक्लिक एसिड)। जीन्स की संरचना के बारे में अभी तक नहीं जाना जा सका है, किन्तु यह जानकारियां निश्चित रूप से हो गई हैं कि शरीर के अंग-प्रत्यंग की विशिष्ट रचना से लेकर अनेक परम्परागत स्वभावों, रोगों तथा गुणों के विकास की आश्चर्यजनक क्षमता इनमें है। इनके गुणों और कार्य-कलापों को कैसे नियन्त्रित किया जाय यह पता विज्ञान अभी नहीं लगा सका है, किन्तु यह माना जाने लगा है कि यदि ‘जीन्स’ के गुणों और कार्य-प्रणाली को प्रभावित किया जा सके, तो आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त हो सकती हैं। यह अन्नमय कोष के छोटे-से घटक एक कोशिका के नाभिक में रहने वाले नगण्य आकार वाले विद्युतमय पैकेट मनुष्य के आस-पास के वातावरण से लेकर उसके विचारों और भावनात्मक विशेषताओं के संस्कार ग्रहण करने में समर्थ हैं।
मनुष्य के विकास के सम्बन्ध में भारतीय मान्यता यह रही है कि उस पर अनुवांशिकता के साथ-साथ बाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। पहले इस मान्यता के प्रति उपेक्षा बरती जाने लगी थी।
यह स्पष्ट हो गया है कि अपने वातावरण तथा अपनी चेष्टाओं द्वारा व्यक्ति जिन स्वभाव-गुणों को अर्जित करता है, वे वंशानुक्रम से प्राप्त नहीं होते और न ही कोई व्यक्ति उन अर्जित विशेषताओं को वंशानुक्रम द्वारा अपने बच्चों को प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति ने अनेक भाषाएं सीखी हैं, तो वह उस भाषा-ज्ञान को अपने बच्चों को वंशानुक्रम द्वारा नहीं दे सकता। बच्चों को भी भाषा-ज्ञान की प्रचलित विधियों को ही अपनाना होगा तथा मेहनत करनी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यह भी स्पष्ट हो गया है कि वंशानुक्रम का निश्चित प्रभाव सन्तान पर पड़ता है। आनुवंशिकी (जनेटिक्स) का सारा ढांचा ही इसी आधार पर खड़ा है। यह सही है कि कोई भी व्यक्ति जंगली बेर के बीज बोकर उनसे गुलाब के फूलों की आशा नहीं कर सकता। गौरैया के अण्डों को सेकर उनमें से मोर के बच्चे कौन निकाल सकता है? लेकिन जिन पौधों के बीज बोये जाते हैं, उनसे उन्हीं जैसे पौधे आखिर क्यों उगते हैं? चूहों से चूहों और बिल्ली से बिल्ली ही क्यों पैदा होती है? इसका उत्तर है आनुवंशिकता अर्थात् नियमित वंश परम्परा, जिसके कारण ही ऐसा होता है। जो वस्तु जिस वंश की होगी, उसका बीज डाले जाने पर वैसा ही फल होगा। आनुवंशिकता में काम करने का ढंग भी शामिल है और चीजों का कद तथा रंग भी। उदाहरण के लिये वया पक्षी को बढ़िया लटकने वाला घोंसला बनाना किसी को सिखाना नहीं पड़ता है।
आनुवंशिकता अपने पूर्वजों से मिलने वाली विशेषताओं का ही दूसरा नाम है। वैज्ञानिक जानते हैं कि जीवों में जो विशेषताएं होती हैं, वे उन्हें अपने माता-पिता से अत्यन्त सूक्ष्म कणों के रूप में मिलती हैं। इन सूक्ष्म कणों को ‘जीन’ कहा जाता है। हमारा शरीर बहुत-सी कोशिकाओं से मिलकर बना है। ‘जीन’ कोशिका का ही एक भाग है। अगर किसी वट-वृक्ष की शाखा को कहीं उसके अनुकूल स्थान में लो जाकर बो दिया जाये तो वह भी मूल पेड़ की तरह ही फलने-फूलने लगेगी। उसकी कोशिकाओं के ‘जीन’ अपने पहले के पेड़ की ही भांति होंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह किसी स्पंज के टुकड़े में वैसे ही छिद्र होते हैं जैसे उस स्पंज में थे जिसमें से कि टुकड़े को तोड़ा गया है।
अधिकांश पौधों और जीवों की उत्पत्ति नर और मादा से होती है। कुछ ‘जीन’ नर से और कुछ मादा से मिलते हैं। झरबेरी झाड़ी के बीज गुलाब तो नहीं, लेकिन ऐसा पौधा अवश्य उगा सकते हैं, जिसमें एक की बजाय दो तरह के फूल हों। काली बिल्ली का बच्चा एकदम सफेद हो सकता है। यदि कोई पौधा या जानवर दो तरह की विशेषता के ‘‘जीन’’ आनुवंशिकता द्वारा प्राप्त करता है, और दोनों का प्रभाव बराबर रहता है तो दोनों के मिलने से तीसरी विशेषता उत्पन्न होती है। अगर लाल गाय और सफेद रंग का सांड़ हो तो उनका बछड़ा न तो सफेद होगा और न लाल। वह भूरा, यानी दोनों के बीच के रंग का हो सकता है। ऐसा हो जाने के नियम की वैज्ञानिक व्याख्या आनुवंशिकता के सिद्धान्त के आधार पर की जाती है। ‘जीन’ ही इस आनुवंशिकता के वाहक हैं और आनुवंशिकता की बुनियादी इकाई हैं। अभी तक किये गये परीक्षणों से यही जाना जा सका है कि व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएं जैसे रंग, रूप, नेत्र, त्वचा, खून का प्रकार लम्बाई ठिगनापन आदि सब ही आनुवंशिक और पित्रागत होते हैं। ये शारीरिक गुण भी मात्र माता-पिता से नहीं प्राप्त होते, वरन् वे दादा, परदादा तथा अन्य पूर्वजों से क्रमशः संक्रमित होकर आते हैं। वंशानुगत गुणों में माता-पिता का दाय प्रत्येक गुण में आधा होता है। यानी मां का एक चौथाई और पिता का एक चौथाई। उसके पूर्व के चार पितरों में प्रत्येक का दाय प्रत्येक गुण का सोलहवां भाग होता है अर्थात् चारों पितरों का कुल दाय एक चौथाई भाग होता है। शेष 1 चौथाई और पुरानी पीढ़ियों से आते हैं।
व्यक्ति के संस्कार तो उसके जन्म-जन्मान्तरों की संचित सम्पदाएं और साधन हैं। किन्तु उसके उपयुक्त उपकरण-अन्नमयकोश के निर्माण के घटक जीन्स-क्रोमोसोम्स का भी स्वरूप-निर्धारण कितनी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं के आधार पर होता है, यह आनुवंशिकी की आधुनिक खोजों द्वारा भी स्पष्ट होता है। भारतीय मनीषी इन सूक्ष्मताओं से परिचित थे तभी वे सुसन्तति के लिए माता-पिता का चरित्रगत, तपस्वी-संयमी होना अनिवार्य बतलाते थे। इस प्रकार व्यवस्थित कर व्यक्ति न केवल सुयोग्य सन्तति के जनक जननी बनने की क्षमता से, अपितु उन अनेक विशिष्ट क्षमताओं, विभूतियों से सम्पन्न बनता है, जिनसे मनुष्य शरीर की सार्थकता और गरिमा है।
आनुवंशिकता का प्रभाव बिल्कुल सीधा और स्थूल नहीं होता। उदाहरण के लिए किसी माता-पिता में से दोनों को या किसी एक को टी.बी. रोग (क्षय रोग) हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को जन्म से ही टी.बी. (क्षय रोग) हो, अपितु इसका यह अर्थ है कि बच्चे के शरीर में ऐसी वृत्ति या तत्परता विद्यमान है कि क्षय रोग के कीटाणु शरीर में पहुंचते ही वहां जड़ पकड़ लेंगे।
इसी प्रकार मान लीजिए कि कोई बढ़ई है, जो अपने काम में बड़ा दक्ष है। यह कार्यदक्षता बच्चे में जन्मजात रूप से नहीं उत्पन्न होती। अपितु यदि बच्चे को भी कुशल बढ़ई बनाना है, तो उसे बढ़ईगीरी का काम सिखाना ही होगा। हां, उस बच्चे के हाथ ऐसे ही हो सकते हैं, जिनके द्वारा कि उन औजारों का अधिक अच्छा उपयोग सम्भव हो, जो बढ़ईगीरी के काम आते हैं।
इसीलिए आनुवंशिकता और पर्यावरण दोनों को समान महत्व दिया जाता है। आनुवंशिकता द्वारा अर्जित गुण नहीं प्राप्त होते। कुछ जन्मजात गुणों का आधार ही आनुवंशिकता को माना जाता है। ये जन्मजात गुण वंशानुक्रम के लक्षण कहे जाते हैं। वंशानुक्रम के लक्षण क्रोमोसोमों के आधार पर प्राप्त होते हैं। क्रोमोसोमों में होते हैं—जीन, जो व्यक्ति के ‘‘करेक्टरिस्टिक्स’’ का निर्माण करते हैं।
‘जीन’ का व्यवहार या आचरण में सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जीन शरीर के उत्तक तथा अंगों के विकास को निर्देशित नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार वे शरीर की क्रियाशीलता को भी नियन्त्रित करते हैं। शरीर की ये क्रियाएं स्पष्टतः व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं और उस रूप में जीन्स का सम्बन्ध व्यवहार से भी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वंशानुक्रम से छोटी टांगें, ठूंठदार अंगुलियां या बहरे कान प्राप्त करता है तो निश्चय ही कुछ क्षेत्रों में उसकी योग्यता सीमित हो जायगी इसी प्रकार शारीरिक क्रियाओं में भाग लेने वाले हजारों रासायनिक तत्व भी जीन्स द्वारा ही निर्धारित होते हैं। जैसे दृष्टि के लिए प्रकाश संवेदी तत्व याकि रक्त के जमने में कई रासायनिक तत्व योग देते हैं। इन तत्वों की उपस्थिति सशक्तता या दुर्बलता का सम्बन्ध जीन से ही होता है। ऐसे अनेक लक्षण वंशानुक्रम से सम्बन्धित होते हैं।
वंशानुक्रम के आधारभूत घटकों, जीन्स और क्रोमोसोम्स के अध्ययनों के निष्कर्ष इस तथ्य के द्योतक हैं कि संतति निर्माण का सूक्ष्म आधार कितना व्यापक और जटिल होता है। पौष्टिक भोजन मात्र से ही शरीर सुदृढ़ नहीं हो जाता। इसके विपरीत उसकी सुदृढ़ता ही भोजन के रस-परिपाक का कारण व आधार बनती है। बढ़िया खाने-पहनने की चिन्ता करते रहने को ही जीवन का पुरुषार्थ मान बैठने वाले अन्नमय कोष के निर्माण के आधारों से अनभिज्ञ रहकर उसे अस्त-व्यस्त और दूषित, विकृत बनाते रहते हैं और भावी सन्ततियों को भी उस विकृति का अभिशाप दें जाते हैं।
एक जीन, युग्म शरीर के किसी विशेष ‘करेक्टरिस्टिक’ के विकास का निर्देश करता है। आंखें, भूरी हैं, या नीली, बाल घने काले हैं या हल्के स्वर्णिम हैं अथवा लाल, घुंघराले हैं या सीधे, सामान्य बाल हैं या गंजापन है, दृष्टि सामान्य है, या रतौंधी ज्यादा होने की सम्भावना है श्रवण-शक्ति सामान्य है या जन्मजात बहरापन है, रक्त सामान्य है या कि ‘‘हेमोफीलिया’’ का दोष है, रंग-बोध स्पष्ट है या वर्णान्धता दोष है, उंगलियों या अंगूठों की संख्या सामान्य है या कम-अधिक है, किसी जोड़ में कोई उंगली छोटी-बड़ी तो नहीं है, सभी अवयव सामान्य हैं या कुछ अवयव विरूप हैं, आदि सभी शारीरिक ‘करेक्टरिस्टिक्स’ जीन-युग्मों पर ही निर्भर करते हैं।
फ्रान्सीसी दार्शनिक मान्टेन को 45 वर्ष की आयु में पथरी की बीमारी हुई। उनके पिता को यह रोग 25 वर्ष की आयु में आरम्भ हुआ। जबकि मान्टेन को जन्म के समय उनके पिता सिर्फ इक्कीस वर्ष के थे। उस समय उन्हें यह रोग नहीं था। लेकिन उनके जीन्स में इस रोग के आधार विद्यमान थे। मान्टेन की पित्ताशय की पथरी की बीमारी कई पीढ़ियों से चली आ रही थी।
बालकों का ‘गैलेक्टो सीमियां’ रोग जीन्स से ही सम्बन्धित होता है। वह जीन, जब ‘‘यूरी डायल ट्रान्सफरे एन्जाइम’’ नहीं बनने देता, तो बच्चे दूध में रहने वाली मिठास—गैलेक्टोस—को पचा नहीं पाते। फलतः वह खून में जमा होती रहती है और जिगर में इकट्ठी होकर बच्चे का पेट खराब कर देती है तथा मृत्यु का भी कारण बन बैठती है। ‘‘एक्रोडमे टाइटिस ऐटेरोपैथिका’’ नामक रोग का कारण भी मुख्यतः जीन्स की विकृतियां ही होती हैं। आंख का केन्सर-रेटीनो ब्लास्टीमा—जीन्स-दोष का ही परिणाम है। जीन्स की ‘एक्रोड्रोप्लासिया’—विकृति के कारण बच्चे अविकसित रह जाते हैं। वे जल्दी मरते हैं। बच गये तो भी वंश-वृद्धि में असमर्थ होते हैं। वे जल्दी मरते हैं। बच गये तो भी वंश-वृद्धि में असमर्थ होते हैं। ऐसे दोष वाली महिलाएं गर्भवती होने पर स्वयं की भी प्राण-रक्षा नहीं कर पातीं, बच्चे की जान तो खतरे में होती ही है।
भावी पीढ़ी का निर्माण
अच्छा बीज अच्छी जमीन में बोया जाय तो उससे मजबूत पौधा उगेगा और उस पर बढ़िया फल-फूल आवेंगे। इस तथ्य से क्या शिक्षित, क्या अशिक्षित सभी परिचित हैं? जिन्हें कृषि एवं उद्यान से अच्छा प्रतिफल पाने की आकांक्षा है वे इस तथ्य पर आरम्भ से ही ध्यान रखते हैं कि उत्पादन के मूलभूत आधारों को सतर्कता के साथ जुटाया जाय और उनका स्तर ऊंचा रखा जाय।
यों विवाह एक निजी मामला समझा जाता है और संतानोत्पादक को भी व्यक्तिगत क्रिया-कलाप की परिधि में सम्मिलित करते हैं। पर वस्तुतः यह एक सार्वजनिक सामाजिक एवं सार्वभौम प्रश्न है। क्योंकि भावी पीढ़ियों के निर्माण की आधारशिला यही है। राष्ट्र और विश्व का भविष्य उज्ज्वल एवं सुसम्पन्न बनाने की प्रक्रिया धन समृद्धि पर टिकी हुई नहीं है, वरन् इस बात पर निर्भर है कि भावी नागरिकों का शारीरिक, बौद्धिक एवं चारित्रिक स्तर कैसा होगा? धातुएं, इमारतें या हथियार नहीं, किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा वहां के नागरिक ही होते हैं। वे जैसे भी भले या बुरे होंगे, उसी स्तर का समाज, समय एवं वातावरण बनेगा। इसलिए भावी प्रगति की बात सोचने में हमें सुसन्तति के निर्माण की व्यवस्था जुटाने की बात भी ध्यान में रखनी चाहिए।
घरेलू पशुओं यहां तक कि पालतू कुत्ते, बिल्लियों तक के बारे में हमारे प्रयास यह होते हैं कि उनकी सन्तानें उपयुक्त स्तर की हों। जिन्हें इस उद्देश्य को पूरा करने में रुग्ण, दुर्बल अथवा अयोग्य समझते हैं उनका प्रजनन प्रतिबन्धित कर देते हैं। इस प्रतिबन्धन प्रोत्साहन में उचित वंशवृद्धि की बात ही सामने रखी जाती है। क्या मानव प्राणी की नस्लें ऐसे ही अस्त-व्यस्त बनने दी जानी चाहिए, जैसी कि इन दिनों बन रही हैं? क्या इस सन्दर्भ में कुछ देख-भाल करना या सोचना-विचारना समाज का कर्त्तव्य नहीं है? क्या बच्चे मात्र माता-पिता की ही सम्पत्ति हैं? क्या उनका स्तर समाज को प्रभावित नहीं करता? इस बातों पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि किसी राष्ट्र या समाज का भविष्य उसकी भावी पीढ़ियों पर निर्भर है। यदि सुयोग्य नागरिकों की जरूरत हो तो भोजन, चिकित्सा अथवा शिक्षा का प्रबन्ध भर कर देने से काम नहीं चलेगा। इस सुधार का क्रम सुयोग्य जनक-जननी द्वारा सुविकसित सन्तान उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व निवाहने से होगा। यह तैयारी विवाह के दिन से ही आरम्भ हो जाती है। यदि पति-पत्नी को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति सुयोग्य सन्तान के उत्पादन तथा भरण-पोषण से उपयुक्त नहीं है तो उनके द्वारा की जाने वाली वंशवृद्धि अवांछनीय स्तर की ही बनेगी और उसका दुष्परिणाम समस्त समाज को भुगतान पड़ेगा।
वंशानुक्रम विज्ञान की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। जनन रस में पाये जाने वाले गुण-सूत्रों को भावी पीढ़ियों के निर्माण का सारा श्रेय दिया जा रहा है। इन जीव कणों में हेर-फेर करके ऐसे उपाय ढूंढ़े जा रहे हैं जिनके आधार पर मन चाहे आकार-प्रकार की सन्तानों को जन्म दिया जा सके। इस अत्युत्साह में अभी तक आंशिक सफलता ही मिली है। क्योंकि गुण सूत्रों ने आकृति तक में अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत नहीं किया फिर प्रकृति के परिवर्तन की तो बात ही क्या की जाय?
प्रयोगशालाओं में ऐसी विधि-व्यवस्था सोची जा रही है जिससे अभीष्ट स्तर की सन्तान पैदा की जा सके। इस दिशा में जी तोड़ प्रयत्न हो रहे हैं और सोचा जा रहा है कि बिना माता का स्तर सुधारे अथवा बिना वातावरण की चिन्ता किये वैज्ञानिक विद्या के आधार पर सुसंतति उत्पादन की व्यवस्था यान्त्रिक क्रिया-कलाप द्वारा सम्पन्न करली जायगी।
रासायनिक संयोग में हेर-फेर करके कोशाओं के स्वरूप में परिवर्तन करके मनुष्य का वर्तमान स्तर बदला जा सकेगा ऐसा पिछले बहुत दिनों से सोचा जा रहा है। इस सन्दर्भ में गुण सूत्रों और जीन्स की खोज खबर ली जा रही थी अब एक नये चरण में विज्ञान ने प्रवेश किया है और माना है कि यदि कोशाओं के स्तर में कुछ परिवर्तन करना हो तो वह रासायनिक हेर-फेर से नहीं विद्यमान विद्युत प्रवाह में ही कुछ उलट-पुलट करके सम्भव हो सकेगा। अब रसायन मुख्य नहीं रहे—उनका स्थान विद्युत ने ले लिया है। यह समझा जाता रहा है कि पिता के शुक्राणु लगभग वैसी आकृति के होते हैं जैसे कि पानी के पूंछदार कीड़े दिखाई पड़ते हैं। वर्गीकरण की दृष्टि से उनके दो भाग किये जा सकते हैं एक शिर दूसरा पूंछ। शुक्राणु का नाभिक शिर भाग में होता है, पूंछ उसके चलने, दौड़ने में गति प्रदान करती है। पूंछ अक्सर हिलती रहती है जिससे शुक्र कीट आगे बढ़ता है और निषेचन के समय दौड़ कर डिम्ब अणु के साथ जाकर मिल जाता है। यह एकाकार होने की स्थिति ही गर्भ धारण है। एक नया प्राणी इस सुयोग संयोग से उत्पन्न होता है।
शुक्राणु और डिम्बाणु की उपरोक्त व्याख्या स्थूल है। उनके भीतर भी बहुत बारीक कण होते हैं। क्रोमोसोम—उनसे भी सूक्ष्म जीन्स को प्रजनन शक्ति का उत्तरदायी कहा जा सकता है। जीन्स में भी प्रोटीन की कुछ मात्रा और डी.एन.ए. (डी. ओक्सी वाओन्यूक्लिक एसिड) नामक पदार्थ रहता है। इसी क्षेत्र में वंश परम्परा की शारीरिक और मानसिक विशेषताएं समाविष्ट रहती हैं। वे विशेषताएं केवल माता-पिता की ही नहीं होतीं वरन् वे भी मातृ पक्ष और पितृ पक्ष की पीढ़ी-दर-पीढ़ी से जुड़ी हुई चली आती हैं। उनमें भी संयोग-वियोग के आधार पर हुए परम्परागत और कुछ समन्वयात्मक विशेषताएं उभरती रहती हैं। इसी उथल-पुथल के कारण सभी भाई-बहिन एक जैसे आकार प्रकार के नहीं बन पाते यद्यपि उनमें बहुत-सी विशेषताएं एक जैसी भी बनी रहती हैं।
‘दि व्रेव न्यू वर्ल्ड’ नामक ग्रन्थ में जीव विज्ञानी एडलस हक्सले ने डिम्ब और शुक्र कीटों के क्रिया-कलाप का मात्र रासायनिक संयोग नहीं माना है वे उन्हें ‘अल्फा’ ‘बीटा’ और ‘गामा’ किरणों का उत्पादन मानते हैं।
पूर्वजों के जीन्स अपने साथ जिन विशेषताओं को लपेटे चलते हैं उनमें बहुत सी अच्छी होती हैं और बहुत सी बुरी। परम्परागत बीमारियों का लिपटा हुआ कुचक्र परिधान निश्चित रूप से बुरा है।
अफ्रीका महाद्वीप के कांगो देश में तीन चार फुट ऊंचे बौनों की बड़ी संख्या है वे शिकार पर निर्वाह करते हैं और आदिवासी यायावरों की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान में अपने डेरे डालते रहते हैं। पेरू के जंगलों में यूस जाति के ऐसे आदिवासी पाये गये हैं जिनकी ऊंचाई तीन फुट से अधिक ऊंची नहीं बढ़ती वरन् कुछ नीची ही रह जाती है। माल्योनैटों के रोम कैथलिक चर्च द्वारा प्रकाशित ‘रीजन फ्राम दी जंगल’ पुस्तक में उन बौनी जातियों की वंश परम्परा पर अधिक प्रकाश डाला गया है। इन ‘यूस’ जाति के बौनों की अधिक संख्या ब्राजील, बोलीलिया तथा क्यूरा नदी के तट पर पाई जाती है। यह लोग 20 कबीलों में बंटे हुए हैं।
बेंगलोर में वी.एन. थिम्मया नामक एक नाई के घर ऐसा बालक जन्मा था जो जन्म के समय तो केवल 5.14 पौण्ड का था पर कुछ दिन बाद तेजी से उसका शरीर फैलने फूलने लगा। 11 वर्ष की उम्र पर पहुंचने तक वह 162 पौण्ड भारी और 50 इंच ऊंचा हो गया। इतना ही नहीं उसकी छाती 46 इंच की हो गई। लगभग फुटबाल जैसा गोल-मटोल वह दिखाई पड़ने लगा। बढ़ोतरी इस तेजी से हुई कि हर महीने पुराने कपड़े रद्द करना और नये बनवाना उस गरीब आदमी के लिए अत्यन्त कठिन हो गया। अच्छा इतना ही रहा कि खुराक साधारण स्तर के बालकों जितनी ही बनी रही।
न्यूयार्क विश्व-विद्यालय के तत्वावधान में बफेले नगर की प्रयोगशाला ने इस असम्भव समझे जाने वाले कार्य को सम्भव करके दिखाया है। विश्व-विद्यालय के अनुसंधान सम्बन्धी उपाध्याक्ष डा. रेमण्ड इवेल तथा जीव विज्ञान केन्द्र के निर्देशक जेक्स डेनिमाली द्वारा इस शोध निष्कर्ष की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वंश परम्परा से चली आ रही आकृति-प्रकृति तथा शारीरिक, मानसिक स्थिति में अब आमूल-चूल परिवर्तन कर सकना सम्भव हो सकेगा। वंश परम्परा की बीमारियों पर काबू प्राप्त किया जा सकेगा। सूक्ष्म कोषों की शल्य क्रिया करना उनमें दूसरे कोषों के आंशिक पैबन्ध लगा सकना सम्भव होने से यह भी शक्य हो जायगा कि इच्छानुरूप विशिष्टताओं वाले बच्चे पैदा किये जा सकें। सन् 1967 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विज्ञानी डा. आर्थर कारन बर्ग ने कैलीफोर्निया के स्टेन फोर्ड विश्व-विद्यालय में जीवकोषों का ‘डी.एन.ए.’ खोजा था। अब उस खोज ने इतनी प्रगति करली है कि जीव कोषों की स्थिति में इच्छानुसार एवं आवश्यकतानुसार फेर बदल किया जा सके।
न केवल वंश परम्परा की दृष्टि से वरन् मनुष्य की ‘रोग मुक्ति’ बलवृद्धि तथा दीर्घजीवन की दृष्टि से इन कोशा कणों की स्थिति में सुधार परिवर्तन अपेक्षित है। यह कार्य दवादारू के आधार पर अथवा आहार-विहार के मोटे परिवर्तनों से भी सम्भव नहीं हो सकता। मनुष्य का शरीर भावन जिन ईंटों से चुना गया है उन्हें कोशा या सैल कहते हैं। इन्हीं के बनने-बिगड़ने का क्रम हमें जीवित और स्वस्थ रखता है और रुग्ण, दुर्बल बनाते हुए मृत्यु के मुख में धकेल देता है।
नित्य निरन्तर कायाकल्प
सामान्यता यह कोशाएं टूटकर बंटती रहती हैं और नई कोशाओं को जनम देती रहती हैं। चमड़ी की कोशाएं प्रायः 4-5 दिन में पुरानी से बदल कर नई हो जाती हैं जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली बदलता है, उसी प्रकार हम भी अपनी चमड़ी हर चौथे पांचवे दिन बदल देते हैं। यों यह बात आश्चर्य जैसी लगती है, पर वस्तुतः होता यही रहता है। जिन्दगी भर में हमें हजारों बाद चमड़ी की केंचुली बदलनी पड़ती है। यही हाल शरीर के भीतर काम करने वाले प्रमुख रसायन प्रोटीन का है। वह भी प्रायः 80 दिन में पूरी तरह बदल कर नया आ जाता है। यह परिवर्तन अपनी पूर्वज कोशाओं के अनुरूप ही होता है अस्तु अन्तर न पड़ने में यह प्रतीत नहीं होता कि पुरानी के चले जाने और नई के स्थानापन्न होने जैसा कुछ परिवर्तन हुआ है।
इस परिवर्तन क्रम को चलाने की सीमा हर अवयव की अलग-अलग है। किसी अवयव का काया-कल्प जल्दी-जल्दी होता है किसी का देर-देर में। इसी प्रकार उनके काम करने की—सक्षम रहने की अवधि भी भिन्न-भिन्न है। डा. केनिव रासले की पर्यवेक्षण रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य के गुर्दे 200 वर्ष तक, हृदय 300 वर्ष तक, चमड़ी 1000 वर्ष तक, फेफड़े 1400 वर्ष तक और हड्डियां 4000 वर्ष तक जीवित रह सकने योग्य मसाले से बनी हैं। यदि उन्हें सम्भाल कर रखा जाय तो वे इतने समय तक अपना अस्तित्व भली प्रकार बनाये रह सकती हैं। इनके जल्दी खराब होने का कारण यह ही है—उनसे लगातार काम लिया जाना और बीच-बीच में मरम्मत का अवसर न मिलना। यदि इसकी व्यवस्था बन पड़े तो निश्चित रूप से मनुष्य की वर्तमान जीवन अवधि में कई गुनी वृद्धि हो सकती है।
न्यूयार्क युनिवर्सिटी के डा. मिलन कोपेक और तकफेलर इन्स्टीट्यूट के डा ऐलोक्सिस कैरलन द्वारा किये गये प्रयोगों से एक ही निष्कर्ष निकला है कि कोशाएं जब तक अपनी वंश वृद्धि करने में सक्षम रहती हैं तब तक बुढ़ापा किसी प्रकार छाने नहीं पाता, पर जैसे-जैसे वे नई पौध उगाने की क्रिया शिथिल करती हैं वैसे ही वैसे अवयव कठोर और निष्क्रिय होते चले जाते हैं और अन्ततः मृत्यु के मुख में जा घुसते हैं। यदि इन कोशाओं की क्षमता घटने न दी जाय और उन्हें उत्पादन की अपनी स्वाभाविक संरचना अवधि तक क्रिया शील रहने का उपाय ढूंढ़ निकाला जाय तो शरीर को अमर न सही उसे दीर्घायुषी तो बनाया ही जा सकता है।
क्रमिक गति से—स्थूल से सूक्ष्म के क्षेत्र में प्रवेश करता हुआ विज्ञान अब रासायनिक पदार्थों की परिधि लांघ कर उस गहराई तक जा पहुंचा है जहां शक्ति-शक्ति का ही साम्राज्य शेष रह जाता है। शरीर एवं मन के प्रयोजनों में लगी इस धारा को विज्ञान में मानवी विद्युत नाम दिया है।
वैज्ञानिक भी इसी मानवी विद्युत के प्रयोग द्वारा भावी पीढ़ी को सुविकसित बनाने और उसका स्तर सुधारने के लिए प्रयत्नशील हैं। मानवी काया के निर्माण में बीज भूमिका निभाने वाले जनन-रस में पाये जाने वाले गुण-सूत्र में एक व्यक्त रूप—डामिनेंट है। दूसरा अव्यक्त रूप है—रिसेसिव। व्यक्त भाग को भौतिक माध्यमों से प्रभावित किया जा सकता है और उस सीमा तक भले या बुरे प्रभाव सन्तान में उत्पन्न किये जा सकते हैं। पर अव्यक्त स्तर को केवल जीव को निजी इच्छा-शक्ति ही प्रभावित कर सकती है। महत्वपूर्ण परिवर्तन इस चेतनात्मक परिधि में ही हो सकते हैं इसके लिए रासायनिक अथवा चुम्बकीय माध्यमों से काम नहीं चल सकता। इनके लिए चिन्तन को बदलने वाली अन्तःस्फुरणा अथवा दबाव भरी परिस्थितियां होनी चाहिए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह सोचा जाने लगा है कि माता-पिता का स्तर सुधारे बिना सुसन्तति की समस्या प्रयोगशालाओं द्वारा हल न हो सकेगी। वनस्पति अथवा पशुओं में सुधार उत्पादन सरल है, पर मनुष्यों में पाये जाने वाले चिन्तन तत्व में उत्कृष्टता भरने की आवश्यकता यान्त्रिक पद्धति कदाचित ही पूरी कर सकेगी।
गुण-सूत्रों में हेर-फेर करके तत्काल जिस नई पीढ़ी का स्वप्न इन दिनों देखा जा रहा है, उसे म्यूटेशन-आकस्मिक परिवर्तन प्रक्रिया कहा जा सकता है। म्यूटेशन के सन्दर्भ में पिछले दिनों पैवलव, मैकडुगल, मारगन, मुलर, प्रकृति जीव विज्ञानियों ने अनेक माध्यमों और उपकरणों से विविध प्रयोग किये हैं। जनन रस को प्रभावित करने के लिए उनने विद्युतीय और रासायनिक उपाय अपनाये। सोचा यह गया था कि उससे अभीष्ट शारीरिक और मानसिक क्षमता सम्पन्न पीढ़ियां उत्पन्न होंगी, पर उनसे मात्र शरीर की ही दृष्टि से थोड़ा हेर-फेर हुआ। विशेषतया बिगाड़ प्रयोजन में ही सफलता अधिक मिली, सुधार की गति अति मन्द रही। गुणों में पूर्वजों की अपेक्षा कोई अतिरिक्त सम्भव न हो सका।
एक जाति के जीवों में दूसरे जाति के जीवों की कलमें लगाई गईं और वर्णशंकर सन्तानें उत्पन्न की गईं। यह प्रयोग उसी जीवधारी तक अपना प्रभाव दिखाने में सफल हुए। अधिक से अधिक एक पीढ़ी कुछ बदली-बदली सी जन्मी इसके बाद वह क्रम समाप्त हो गया। घोड़ी और गधे के संयोग से उत्पन्न होने वाले खच्चर अगली पीढ़ियों को जन्म देने में असमर्थ रहते हैं।
वर्णशंकर सन्तान उत्पन्न करके पूर्वजों की अपेक्षा अधिक सशक्त और समर्थ पीढ़ियां उपजाने का उत्साह अब क्रमशः घटता चला जा रहा है। इस सन्दर्भ में प्रथम आवश्यकता तो यही रहती है कि प्रकृति एक ही जाति के जीवों में संकरण स्वीकार करती है। मात्र उपजातियों से ही प्रत्यारोपण सफल हो सकता है। यदि शरीर रचना में विशेष अन्तर होगा तो संकरण प्रयोगों में सफलता न मिलेगी, दूसरी बात यह है कि काया की दृष्टि से थोड़ा सुधार इस प्रक्रिया में हो भी सकता है। गुणों में नहीं। वर्णशंकर गायें मोटी, तगड़ी तो हुईं, पर अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक दुधारू न बन सकीं। इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला है कि उत्कृष्टता जीव के अपने विकास-क्रम के साथ जुड़ी हुई है, वह बाहरी उलट-पुलट करके विकसित नहीं की जा सकती।
सुसन्तति के सम्बन्ध में वैज्ञानिक प्रयोग अधिक से अधिक डडडडडडड कर सकते हैं कि रासायनिक हेर-फेर करके शारीरिक दृष्टि से अपेक्षाकृत थोड़ी मजबूत पीढ़ियां तैयारी करदें, पर उनमें नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक उत्कृष्टता भी होगी इसकी गारण्टी नहीं दी जा सकती। ऐसी दशा में उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकने वाले नागरिकों का सर्वतोमुखी सृजन कहां सम्भव होगा?
उस अत्युत्साह से अब वंशानुक्रम लगभग हतोत्साहित हो चला है और सोचा जा रहा है कि अभिभावकों को ही सुयोग्य बनाने पर ध्यान दिया जाय। एक ओर अयोग्य व्यक्तियों को अवांछनीय उत्पादन से रोका जाय, दूसरी ओर सुयोग्य, सुसंस्कृत एवं समुन्नत लोगों को प्रजनन के लिए प्रोत्साहित किया जाय। विवाह निजी मामला न रहे, वरन् सामाजिक नियन्त्रण इस बात का स्थापित किया जाय कि शारीरिक ही नहीं अन्य दृष्टियों से भी सुयोग्य और समर्थ व्यक्तियों को विवाह बन्धन में बंधने और सन्तानोत्पादन के लिए स्वीकृति दी जाय।
जर्मनी के तीन प्रसिद्ध जीव विज्ञानियों ने वंशानुक्रम विज्ञान पर एक संयुक्त ग्रन्थ प्रकाशित कराया है नाम है—‘ह्यूमन हैरेड़िटी’। लेखकों के नाम हैं डा. आरवेन वेवर, डा. अयोजिन फिशर और डा. फ्रिट्ज लेंज। उन्होंने वासना के उभार में चल रहे अन्धाधुन्ध विवाह सम्बन्धों के कारण सन्तान पर होने वाले दुष्प्रभाव को मानवी भविष्य के लिए चिन्ताजनक बताया है। लेखकों का संयुक्त मत है कि—‘अनियन्त्रित’ विवाह प्रथा के कारण पीढ़ियों का स्तर बेतरह गिरता जा रहा है, उनने इस बात को भी दुःखद बताया है कि निम्न वर्ग की सन्तानें बढ़ रही हैं और उच्चस्तर के लोगों की संख्या तथा सन्तानें घटती चली जा रही हैं।
पीढ़ियों में आकस्मिक परिवर्तन म्यूटेशन—के विशेष शोधकर्त्ता टर्नियर का निष्कर्ष यह है कि मानसिक दुर्बलता के कारण गुण सूत्रों में ऐसी अशक्तता आती है जिसके कारण पीढ़ियां गई-गुजरी बनती हैं। इसके विपरीत मनोबल सम्पन्न व्यक्तियों की आन्तरिक स्फुरणा उनके जनन रस में ऐसा परिवर्तन कर सकती है जिससे तेजस्वी और गुणवान ही नहीं शारीरिक दृष्टि से भी परिपुष्ट संतानें उत्पन्न हों। वंश परम्परा से जुड़े हुए कुष्ट, उपदंश, क्षय, दमा, मधुमेह आदि रोगों की तरह विधेयात्मक पक्ष यह भी है कि मनोबल के आधार पर उत्पन्न चेतनात्मक सार्थकता पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़े और उसका सत्परिणाम शरीर, मन अथवा दोनों पर प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो सके। चमत्कारी आनुवंशिक परिवर्तन इसी आधार पर सम्भव है मात्र रासायनिक परिवर्तनों के लिए भौतिक प्रयास इस प्रयोजन की पूर्ति नहीं कर सकते। यह तथ्य हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि जिस प्रकार परिवार नियोजन के द्वारा अवांछनीय उत्पादन रोकने का प्रयास किया जाता है उसी प्रकार समर्थ और सुयोग्य सन्तानोत्पादन के लिए आवश्यक ज्ञान, आधार-साधन एवं प्रोत्साहन उपलब्ध कराया जाय।
अनियन्त्रित विवाह व्यवस्था के सम्बन्ध में दूरदर्शी विचारशील व्यक्ति भारी चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं और यह सोच रहे हैं कि इस सम्बन्ध में विवेक सम्मत नियन्त्रण व्यवस्था किये बिना काम नहीं चलेगा। हिन्दू समाज में इन दिनों विवाह व्यवस्था कितनी भोंड़ी क्यों न हो गई हो उस पर समाज का कंधा-सीधा नियन्त्रण अवश्य है। नियन्त्रण का स्वरूप क्या हो, यह अलग प्रश्न है, पर भौतिक समस्या का हल हिन्दू समाज में अभी भी विद्यमान है कि विवाह प्रक्रिया पर समाज का नियन्त्रण होना चाहिए। इस भारतीय परम्परा की ओर विश्व के विचारशील वर्ग का ध्यान गया है और यह सोचा जा रहा है कि विवाह पर सामाजिक नियन्त्रण का अनुकरण समस्त संसार में किया जाना चाहिए।
बीमा कम्पनियां इस बात की पूरी पूछ-ताछ करती हैं कि बीमा कराने वाले के पूर्वज किस आयु में मरे थे क्योंकि अन्वेषण से यही पाया गया है कि पूर्वजों की आयु से मिलती-जुलती अवधि तक ही सामान्यतः उनकी पीढ़ियां भी जिया करती हैं। डा. रेमण्ड पर्ल ने बहुत शोधों के उपरान्त इस बात पर जोर दिया है कि सन्तान का दीर्घजीवन यदि अभीष्ट हो तो उसका प्रयोग जनक जननी को पहले अपने ऊपर से प्रारम्भ करना चाहिए।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जे.वी. हाल्डेन ने आशा व्यक्त की है कि अगले दो सौ वर्षों के भीतर योरोप और अमेरिका में भी हिन्दुओं की तरह वर्ण व्यवस्था स्थापित होगी और विवाहों के सन्दर्भ में उसका विशेष रूप से ध्यान रखा जायगा।
मानस जाति के उज्ज्वल भविष्य का प्रश्न बहुत कुछ सुसन्तति निर्माण की प्रक्रिया पर निर्भर है। इसके विभिन्न पक्षों पर विचार करना पड़ेगा और आवश्यक आधार जुटाना पड़ेगा। उपयुक्त जोड़े ही विवाह बन्धन में बंधे और उपयोगी उत्पादन करें। इस सन्दर्भ में विवाह पद्धति पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक नियन्त्रण रहना चाहिए। यौन विनोद के लिए विवाह की छूट और अयोग्य उत्पादन की स्वतन्त्रता को अवरुद्ध करने के लिए भी कुछ तो करना ही पड़ेगा।