Books - गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि
Language: HINDI
माता से वार्तालाप करने की साधना
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गायत्री उपासना की सुनिश्चित प्रतिक्रिया यह होती है कि साधक का अन्तःकरण सद्भावनाओं में, मस्तिष्क संस्थान सद् विचारणाओं में और शरीर सत्प्रवृत्तियों में अधिकाधिक रूचि लेने लगता है और अपने अनुकूल गतिविधियों का अभ्यास बढ़ने लगता है। यही देवत्व की दिशा में प्रगति है। इस दिशा में जितना ही आगे बढ़ा जायेगा उसी अनुपात से साधक में दैवी तत्त्व की मात्रा का विस्तार होगा। चुम्बकत्व बढ़ने से सजातीय पदार्थों को अपनी ओर खींच बुलाने का क्रम अनायास ही चलने लगता है। आध्यात्मिक चुम्बकत्व बढ़ाने का प्रतिफल यह होता है कि जगतद्धात्री विश्वशक्ति- ऋतम्भरा प्रज्ञा- गायत्री माता का सान्निध्य बढ़ता जाता है और इस प्रगति क्रम पर चलते हुए स्थिति यहाँ तक जा पहुँचती है कि उस दिव्य शक्ति के साथ परामर्श विचार विनिमय एवं आदान- प्रदान का क्रम चल पड़े।
माता से वार्तालाप उस तरह तो नहीं होता जैसा कि दो मनुष्यों के बीच चलता है पर अन्तर्ध्वनि की प्रतिध्वनि इस प्रकार होने लगती है जिससे यह पता चले कि प्रश्न का उत्तर दूसरी ओर से आ रहा है। यह सांकेतिक भाषा है जिसे समझना हर किसी के लिए संभव नहीं होता मात्र वे ही समझ सकते हैं जो गायत्री महातत्त्व के अधिक निकट पहुँच चुके हैं और उसके सजातीय बन चुके हैं। पानी में हवा मिली होती है पर उसे हर प्राणी नहीं खींच सकता। मछली जैसे जलचरों के लिए ही यह संभव होता है कि वे अपनी विशेष बनावट के आधार पर पानी में से हवा का आवश्यक अंश खींच कर अपनी आवश्यकता पूरी करते रहें। गायत्री तत्त्व की निकटता एवं घनिष्ठता के अभ्यास से ऐसी स्थिति आ जाती है जब आध्यात्म की समस्त गुत्थियों के समाधान ध्वनि- प्रतिध्वनि की भाषा में उपलब्ध होने लगते हैं। यह उत्तर अपने अन्तराल में से ही उठते हैं। साधारणतया उमंगें ऐसी उठा करती हैं जिन्हें वैयक्तिक अति उत्साह कहा जा सकता है। ऐसे उभार विवेक के आधार पर नियन्त्रित करने पड़ते हैं, उन्हें उचित अनुचित की कसौटी पर कसना पड़ता है अन्यथा वे उमंगें अनर्थ उत्पन्न कर सकती हैं। गायत्री उपासना की स्थिति इससे भिन्न होती है। पवित्र अन्तःकरणों में प्रायः नैतिक एवं उच्चस्तरीय आकांक्षाएँ ही उठती हैं। किसी के सही उत्तर भी दूसरे पक्ष से मिलते हैं।
साधना की दिव्य ज्योति जैसे- जैसे अधिक प्रकाशित होती चलती है, वैसे ही वैसे अन्तरात्मा की ग्रहण शक्ति बढ़ती चलती है। रेडियो यन्त्र के भीतर बल्ब लगे होते हैं, बिजली का संचार होने से वे जलने लगते हैं। प्रकाश होते ही यन्त्र की ध्वनि पकड़ने वाला भाग जाग्रत हो जाता है और ईथर तत्त्व में भ्रमण करती हुई सूक्ष्म शब्द- तरंगों को पकड़ने लगता है, इसी क्रिया को ‘रेडियो बजना’ कहते हैं। साधना एक बिजली है, जिससे मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के बल्ब दिव्य ज्योति से जगमगाने लगते हैं। इस प्रकाश का सीधा प्रभाव अन्तरात्मा पर पड़ता है, जिससे उसकी सूक्ष्म चेतना जाग्रत हो जाती है और दिव्य सन्देशों को, ईश्वरीय आदेशों को, प्रकृति के गुप्त रहस्यों को समझने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार साधक का अन्तःकरण रेडियो का उदाहरण बन जाता है और उसके द्वारा सूक्ष्म जगत की बड़ी- बड़ी रहस्यमय बातों का प्रकटीकरण होने लगता है।
दर्पण जितना ही स्वच्छ निर्मल होगा, उतनी ही उसमें प्रतिच्छाया स्पष्ट दिखाई देगी। मैला दर्पण धुँधला होता है उसमें चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ता। साधना से अन्तरात्मा निर्मल हो जाती है और उसमें दैवी तत्त्वों का, ईश्वरीय संकेतों का अनुभव स्पष्ट रूप से होता है। अँधेरे में क्या हो रहा है, यह जानना कठिन है, पर दीपक जला देने पर क्षण भर पहले के अन्धकार में छिपी हुई सारी बातें प्रकट हो जाती हैं और पहले का रहस्य भली प्रकार प्रत्यक्ष हो जाता है।
गायत्री- साधकों की मनोभूमि साफ हो जाती है, उसमें अनेक गुप्त बातों के रहस्य अपने आप स्पष्ट होने लगते हैं। इसी तथ्य को गायत्री- दर्शन या वार्तालाप भी कह सकते हैं। साधना क स्वप्नावस्था में तो स्वप्न में या जाग्रत अवस्था में भगवती के दर्शन करने का दिव्य चक्षुओं को लाभ मिलता है और उसके सन्देश सुनने का दिव्य कानों को सौभाग्य प्राप्त होता है। किसी को प्रकाशमयी ज्योति के रूप में, किसी को अलौकिक दैवी रूप में, किसी को सम्बन्धित किसी स्नेहमयी नारी के रूप में दर्शन होते हैं। कोई उसके सन्देश प्रत्यक्ष वार्तालाप जैसे प्राप्त करते हैं, किसी को किसी बहाने घुमा- फिराकर बात सुनाई या समझाई गई प्रतीत होती है। किन्हीं को आकाशवाणी की तरह स्पष्ट शब्दों में आदेश होता है। यह साधकों की विशेष मनोभूमि पर निर्भर है। हर एक को इस प्रकार के अनुभव नहीं हो सकते ।।
परन्तु एक प्रकार से हर एक साधक माता के समीप पहुँच सकता है और उससे अपनी आत्मिक स्थिति के अनुरूप स्पष्ट या अस्पष्ट उत्तर प्राप्त कर सकता है। वह तरीका यह है कि एकान्त स्थान में शान्त चित्त होकर आराम से शरीर को ढीला करके बैठें, चित्त को चिन्ता से रहित रखें, शरीर और वस्त्र शुद्ध हों। नेत्र बन्द करके प्रकाश ज्योति या हंसवाहिनी के रूप में हृदय स्थान पर गायत्री शक्ति का ध्यान करें और मन ही मन अपने प्रश्न का भगवती के सम्मुख बार- बार दुहरावें। यह ध्यान दस मिनट करने के उपरान्त तीन लम्बे श्वास इस प्रकार खींचे मानो अखिल वायुमण्डल में व्याप्त महाशक्ति साँस द्वारा प्रवेश करके अन्तःकरण के कण- कण में व्याप्त हो गई है। अब ध्यान बन्द कर दीजिए, मन को सब प्रकार के विचारों से बिलकुल शून्य कर दीजिए। अपनी ओर से कोई भी विचार न उठावें। मन और हृदय सर्वथा विचार- शून्य हो जाना चाहिए।
इस शून्यावस्था में स्तब्धता को भंग करती हुई अन्तःकरण में स्फुरणा होती है, जिसमें अनायास ही कोई अचिन्त्य भाव उपज पड़ता है। यकायक कोई विचार अन्तरात्मा में इस प्रकार उद्भूत होता है मानो किसी अज्ञात शक्ति न यह उत्तर सुझाया हो। पवित्र हृदय जब उपयुक्त साधना द्वारा और भी अधिक दिव्य पवित्रता से परिपूर्ण हो जाता है तो सूक्ष्म दैवी शक्ति जो व्यष्टि अन्तरात्मा और समष्टि परमात्मा में समान रूप से व्याप्त है, उस पवित्र हृदय पटल पर अपना कार्य करना आरम्भ कर देती है और कई ऐसे प्रश्नों, संदेहों और शंकाओं का उत्तर मिल जाता है जो पहले बहुत विवादास्पद, सन्देहयुक्त एवं रहस्यमय बने हुये थे। इस प्रक्रिया से भगवती वेदमाता गायत्री साधक से वार्तालाप करती है और उसकी अनेकों जिज्ञासाओं का समाधान करती है। यह क्रम व्यवस्थापूर्वक यदि आगे बढ़ता रहे तो आगे चलकर उस शरीर रहित दिव्य माता से उसी प्रकार वार्तालाप करना सम्भव हो सकता है जैसा कि जन्म देने वाली नर- तनधारी माता से बातें करना सम्भव और सुगम होता है।
माता से वार्तालाप का विषय अपनी निम्न कोटि की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में न होना चाहिए। विशेषतः आर्थिक प्रश्नों को माध्यम न बनाना चाहिए, क्योंकि ऐसे प्रश्नों के साथ- साथ मन में लोभ, स्वार्थ, सांसारिकता आदि के अन्य अनेक मलीन भाव उठ आते हैं और अन्तःकरण की उस पवित्रता का नष्ट कर देते हैं, जो कि माता से वार्तालाप करने के सम्बन्ध में आवश्यक है। चोरी में गई वस्तु, जमीन में गढ़ा धन, तेजी- मन्दी, सट्टा, लाटरी, हार- जीत, आयु, सन्तान, स्त्री, मुकदमा, नौकरी, लाभ, हानि जैसे प्रश्नों को माध्यम बनाकर जो लोग उस दैवी शक्ति से वार्तालाप करना चाहते हैं, वे माता की दृष्टि में इस योग्य ऐसे अधिकारी नहीं समझे जाते, जिनके साथ उसे वार्तालाप करना चाहिये। ऐसे अनाधिकारी लोगों के प्रयत्न प्रायः असफल रहते हैं। उनकी मनोभूमि में प्रायः कोई दैवी सन्देश आते ही नहीं, यदि आते हैं तो वे माता के शब्द न होकर अन्य स्रोतों से उद्भूत हुए होते हैं। फलस्वरूप उनकी सत्यता और विश्वस्तता सन्दिग्ध होती है।
माता से वार्तालाप आध्यात्मिक, धार्मिक, आत्मकल्याणकारी, जनहितकारी, परमार्थिक, लोकहित के प्रश्नों को लेकर करना चाहिए। कर्तव्य और अकर्तव्य की गुत्थियों को, विवादास्पद विचारों, विश्वासों और मान्यताओं को लेकर यह वार्तालाप आरम्भ होना चाहिए।
इस प्रकार के वार्तालाप में अपने तथा दूसरे मनुष्यों के पूर्व जन्मों, पूर्व सम्बन्धों के बारे में भी कई महत्त्वपूर्ण बातें प्रकाश में आती हैं। जीवन- निर्माण के सुझाव मिलते है तथा ऐसे संकेत मिलते हैं, जिनके अनुसार कार्य करने पर इसी जीवन में आशाजनक सफलताएँ प्राप्त होती हैं। सद्गुणों का, सात्विकता का, मनोबल का, दूरदर्शिता का, बुद्धिमता का तथा आन्तरिक शान्ति का उद्भव तो अवश्य होता है। इस प्रकार माता का वार्तालाप साधक के लिए सब प्रकार कल्याणकारक ही सिद्ध होता है।