Books - गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि
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प्रज्ञा आलोक पाएँ भी- बाँटे भी
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सूर्य का आलोक चन्द्रमा को प्राप्त होता है। चन्द्रमा उसे मात्र
अपने लिए ही प्रयुक्त नहीं करता वरन् उपलब्ध आलोक को पृथ्वी के
प्राणियों तक पहुँचाता और उन्हें रात्रि में चाँदनी तथा शीतलता
से लाभान्वित होने का अवसर देता है। समुद्र के दिये अनुदानों को
बादल स्वयं ही नहीं पचा जाते वरन् अनुदान में उपलब्ध उस सम्पदा
को तृषित भूखण्डों
पर बरसाते रहने में ही अपने सौभाग्य की सार्थकता समझते हैं।
वृक्ष वनस्पतियों से लेकर नदी सरोवरों तक की यही परम्परा है कि
ईश्वर प्रदत्त अनुग्रह को अपने तक सीमित न रखा जाय उन्हें
अन्यान्यों के लिए वितरित करके आदान- प्रदान का क्रम जारी रखा
जाय।
परिवार की क्रम व्यवस्था इसी आधार पर चलती है कि कमाऊ व्यक्ति अपने पुरुषार्थ एवं कौशल से जो पाते हैं उसका लाभ सभी परिजनों को प्रदान करते हैं। जो कमाया उसे अपने लिए ही सीमित रखा जाय तो फिर परिवार की गाड़ी आगे ही न चल सकेगी। आश्रयदाता और आश्रितों के बीच आदान- प्रदान का उपक्रम ही वह आधार है जो उन्हें परस्पर जोड़ता और घनिष्ठ बनाता है। धुरी के टूट जाने पर पहियों का विलग होना और गतिगमन रूक जाना स्वाभाविक है। अध्यात्म उपलब्धियों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे जिन्हें मिलें वे अन्यान्यों को वितरित करें इसी में उनकी सार्थकता है।
गुरू अपने शिष्य को पढ़ाता है। शिष्ट बड़ा होने पर उस ज्ञान सम्पदा का लाभ अपने से छोटों को देता है। वे छोटे भी जब बड़े होते हैं तो उस उपार्जन से दूसरों को लाभान्वित करते हैं। बाप ने बेटे को पढ़ाया, बेटा, अपने बेटे को पढ़ाता है। माँ अपने बच्चों का भरण- पोषण करती है। वे बड़े होकर अपने बालकों का लालन- पालन करते हैं। आध्यात्मिक उपलब्धियाँ जिन्हें मिलें वे उन्हें दूसरों को वितरित करने का प्रयत्न करें। अग्नि ने दीपक को प्रकाशित किया अब दीपक का उत्तरदायित्व यह है कि अपने क्षेत्र को प्रकाशित करे। जो मिला है उसे अपने तक सीमित सुरक्षित रखे तो समझना चाहिए कि गति चक्र रूकता और उससे अहित ही अहित होता है। मध्यकाल में अति महत्त्वपूर्ण विधाओं को छिपाकर रखने की संकीर्णता पनपी फलतः उपयोगी ज्ञान का लोप हो गया। निष्णात व्यक्ति उन्हें अपने साथ ही लेकर मर गये। कृपणों का धन भूमि में गढ़ा रह जाता है और किसी के काम का नहीं आता। सार्थकता उसी सम्पदा की है जिसका परिभ्रमण होता है और अनेकों को आजीविका उपार्जन का अवसर मिलता है।
गायत्री ज्ञान के सम्बन्ध में भी यही नीति बरतनी चाहिए। यह आलोक जिन्हें भी उपलब्ध हो वे उससे स्वयं भी लाभान्वित हों और उसके लिए भी प्रयत्न करें कि दूसरे भी उससे लाभ उठायें। किसान के खेत का उपार्जन उसी के घर में रखा नहीं रह जाता वरन् अन्य अनेकों की क्षुधा निवारण का निमित्त बनता है। उद्योग में जो उत्पादन होता है उससे मालिक भी लाभ उठाते हैं साथ ही दूसरों को भी उसकी सुविधा मिलती है। यह उदार सहकारिता ही प्रगति क्रम की आधारशिला है। जब हर क्षेत्र में यह उपक्रम चलता है तो अध्यात्म क्षेत्र में ही उसका अवरोध क्यों होना चाहिए? साधको कों अपनी साधना परायणता का स्वाद दूसरों को क्यों नहीं चखाना चाहिए?
प्राचीनकाल के ऋषि मनीषियों ने अपनी साधन तपश्चर्या से जो जो महान उपार्जन किया उससे समस्त जन समाज को लाभान्वित किया। इस देश के नागरिक देव मानव बने और फिर उन्होंने सर्वत्र सतयुग का स्वर्गीय वातावरण बनाने का अथक प्रयत्न किया। ऋषियों को यह पुण्य परम्परा ही महान भारती संस्कृति की रीढ़ है। इसी ने अपने देश समाज को जगद्गुरू चक्रवर्ती, एवं विपुल सम्पदाओं का अधिपति बनाया। यदि ऋषियों को कृपणता घेर ले तो और वे मात्र अपने लिए ही स्वर्ग, मुक्ति या सिद्धि की बात सोचते रहते तो निजी रूप में वे भले ही चमत्कारी रहते उन्हें जो अनन्त लोक श्रद्धा उपलब्ध हुयी उसकी कोई संभावना न बनती। चमत्कारी तो जादूगर बाजीगर भी होते हैं। उनका कौतुक कौतूहल देखकर मनोरंजन कई लोग करते हैं पर उनके प्रति श्रद्धा किसी की नहीं जगती। सार्थकता उन्हीं सिद्धियों की है जो जन- जन के काम आयें निजी लाभ के लिए चाहें सम्पत्ति कमाई जाय या सिद्धि उससे चर्चा भर हो सकती है अभ्यर्थना नहीं ।।
ब्राह्मण और साधु वर्ग को मानव समाज की उत्कृष्टता का प्रतीक माना जाता है। उन्हें भूसुर- पृथ्वी का देवता कहा जाता है। इसका कारण उनका जप तप ज्ञान अध्ययन नहीं वरन् लोक मंगल के लिए समर्पित जीवन ही माना जाता है। वे आत्मिक पवित्रता, सेवा की उत्कृष्टता, लोक मंगल की क्षमता के लिए जप- तप करते थे। जो सार्थकता एवं विशिष्टता उन्हें उपलब्ध होती थी उससे जन- जन को लाभान्वित करने के लिए परिभ्रमण करते और घर- घर अलख जगाने की प्रक्रिया अपनाते थे। तीर्थयात्रा इसी कारण पुण्य परमार्थ में गिनी जाती थी कि उसके द्वारा धर्म प्रचारक जन सम्पर्क साधते और उत्कृष्टता अपनाने की प्रेरणा देते थे। इस आधार पर मानव समाज को जो लाभ होता था, उसी को देखते हुए तीर्थयात्रा को, तीर्थ यात्रियों को सम्मान मिला। अन्यथा पर्यटन तो विशुद्ध मनोरंजन है। उसके लिए तो लाखों की भीड़ उधर से इधर मारी- मारी फिरती ही रहती है पर्यटकों को, यायावरों को किसी की श्रद्धा सहानुभूति कहाँ प्राप्त होती है? हिरन इधर से उधर दौड़ते और पक्षी इधर- उधर उड़ते रहते हैं। इसे तीर्थयात्रा थोड़े ही कहा जायगा ??
प्राचीन काल में ब्रह्मभोज की- ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देने की जो परम्परा थी उसका एक ही कारण था कि साधु ब्राह्मण का वर्ग समुदाय निरन्तर लोग मंगल में प्रवृत्त रहता था। आजीविका उपार्जन को वे प्रस्तुत परमार्थ की तुलना में महत्त्व ही नहीं देते थे। फलतः समाज के लिए यह कर्तव्य के लिए हो जाता था कि उनके निर्वाह की श्रद्धा सिक्त व्यवस्था करें। उस समय का साधु ब्राह्मण का जीवन क्रम विशुद्ध रूप में एक सार्वजनिक संस्था होती थी। लोग उन्हें दान देकर निश्चिन्त हो जाते थे कि सामयिक आवश्यकता और उपयोगिता को देखते हुए वे लोग उस धरोहर का ठीक प्रकार उपयोग कर लेंगे। ब्राह्मण को दान प्रकारान्तर से श्रेष्ठ सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के लिए दिया गया अनुदान ही होता था। दान दक्षिणा की परम्परा, समर्थ व्यक्तियों को मुफ्त में पैसा देने जैसी आज जो दीखती है, प्राचीन काल में उसका स्वरूप वैसा न था। वंश और वेश की कोई गरिमा नहीं हो सकती ।। परमार्थ प्रयोजन तो वह आधार है जिसके लिए सम्मान और सहयोग मिलने की बात नैतिक एवं बुद्धि- संगत मानी जा सकती है।
इन सभी तथ्यों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट है कि आध्यात्मिक साधनाओं को मात्र पूजा उपचारों के क्रिया कृत्यों तक सीमित नहीं रखा जा सकता उनके साथ परमार्थ प्रयोजन का जुड़ा रहना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
कथा है कि रामानुज स्वामी को कोई चमत्कारी मन्त्र प्राप्त हुआ। उन्होंने उसकी सिद्धि की। मंत्र दीक्षा लेते समय गुरू से यह कहा था कि वे उसे किसी अन्य को नहीं बतायेंगे अन्यथा नरक में जाना पड़ेगा। सिद्धि की सार्थकता देखकर रामानुज स्वामी के मन में आया कि ऐसे उपयोगी तथ्य से जन- जन को परिचित कराया जाय। अतएव वे घर- घर जाकर उसका प्रचार करने लगे। गुरू को पता चला तो उन्होंने नाराजी प्रकट की। इस पर स्वामी जी का उत्तर था प्रतिबन्ध उल्लंघन करने के कारण उन्हें नरक जाना स्वीकार है पर इतने उपयोगी तथ्य से जन- जन को लाभान्वित करने का लोभ संवरण करना उनके वश की बात नहीं है।
गायत्री आत्मा की भूख और प्यास बुझा कर उसे परितृप्त परिपुष्ट करने वाली वह अमृत उपलब्धि है जिसे पाकर न व्यथा रहती है न वेदना, न दरिद्रता रहती है न कृपणता। देवत्व प्रदान करने वाली देवमाता- सद्ज्ञान का अजस्र अनुदान देने वाली वेदमाता, व्यापक व्यवस्था को सुरम्य बनाने वाली विश्व माता का अंचल पकड़ने वाला न अभाव सहता है न संकट सहता है। यह भूलोक की कामधेनु है जिसका पय- पान करने वाले न जरा- जीर्ण होते हैं, न कुरूप, न मृतक मूर्छित। जिसका प्रहार अनौचित्य पर वज्र की तरह टूटता है। उस ब्रह्मास्त्र से सम्पन्न व्यक्ति को किसी से परास्त नहीं होना पड़ता। उद्दण्डता पर अंकुश लगाने की क्षमता से सम्पन्न होने के कारण वह ब्रह्मदण्ड है। अनुशासन और नियंत्रण रखने के लिए उसका असाधारण उपयोग होता है।
ऐसी आद्य शक्ति गायत्री का तत्व ज्ञान और साधन विधान जानना और अपनाना प्रत्येक दूरदर्शी का कर्तव्य है। इस कर्तव्य का निर्वाह इस आलोक को अपने तक ही सीमित रखने से नहीं हो जाता वरन् उसे व्यापक बनाने का उत्तरदायित्व भी कंधे पर आता है। स्वयं भक्त बनना एक बात है और नारद की तरह अनेकों को भगवद् भक्त बनाना दूसरी। स्वयं खाते रहने का मजा उड़ाना एक बात है और दूसरों को खिलाने का आनन्द लेना दूसरी अध्यात्म का प्रतिफल है- देवत्त्व में पवित्रता और प्रखरता के दोनों तत्व जुड़े हैं। निजी जीवन में अधिकाधिक पवित्रता बढ़ाने के लिए जप तप करना उसका पूर्वार्द्ध है। अपनी क्षमता को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित कराना उत्तरार्द्ध दोनों के मिलने से ही एक समग्र प्रक्रिया बनती है। पक्षी दो पंखों से उड़ता है, गाड़ी दो पहियों से कम की नहीं बनती, प्रगति पथ पर लम्बी यात्रा पूरी करने के लिए दोनों टाँगें सही सलामत होनी चाहिए। आत्म निर्माण एक धारा है और लोक निर्माण दूसरी। गंगा यमुना का मिलना एक तीसरी उपलब्धि है, सिद्धि सरस्वती का नया उद्भव करता है। फलतः त्रिवेणी संगम में स्नान करने पर काया कल्प होने की अलंकारिक फलश्रुति का प्रत्यक्ष दर्शन होता है।
गायत्री परिवार के हर साधक से अपेक्षा की जाती है कि वह उपासना के जप पक्ष को पूरा करने भर से सन्तुष्ट न हो। इस तत्वज्ञान का आधार, स्वरूप विधान एवं प्रगति क्रम भी समझे। इसलिए जप ध्यान से प्रक्रिया आरम्भ करने कराने का प्रयोग तो चलता है पर साथ ही उसका विज्ञान समझने समझाने के लिए स्वाध्याय, सत्संग एवं मनन, चिन्तन के सहारे तथ्यों की गहराई तक पहुँचाने का प्रयत्न भी होना चाहिए। जिन्होंने अपनी उपासना पद्धति में इन तथ्यों का समावेश किया है उनकी समग्र साधना फलवती होती रही है। ऐसे समग्र साधनारत नैष्ठिकों को एक मत से अपना अनुभव इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते देखा गया है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। माता का आंचल पकड़ने वाले का कल्याण ही होता है।
उपासना की सफलता के लिए साधना का बीजारोपण करने के साथ ही उसके उगने और बढ़ने की व्यवस्था भी बनानी चाहिए। उसके लिए खाद भी आवश्यक है और पानी भी। इनका प्रबन्ध न हो सका तो समर्थ बीज कठिनाई से अंकुरित भर हो सकेगा उसे बढ़ने और फलने फूलने का अवसर न मिलेगा। खाद का अर्थ है- परमार्थ की प्रखरता। दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश आवश्यक है और आचरण में आदर्शवादिता का। आदर्शवादिता में स्वार्थ सिद्धि को सीमित करने और परमार्थ परायणता को आगे बढ़ाने की प्रेरणा भरी हुई है ।उपासना का उद्देश्य इष्ट के समीप बैठना और क्रमशः तदनुरूप बनते ढलते जाना है। चंदन के निकट उगे हुए झाड़ झंखाड़ भी सुगन्धित होते हैं और यह लाभ प्राप्त करने के उपरान्त उसकी लकड़ी के टुकड़े बन कर नहीं रह जाते मूल चन्दन से उपलब्ध सुगन्धि को निरन्तर बखेरते हैं। सदाशयता का यह विस्तार ही सच्ची भगवद् भक्ति है।
भगवान की समीपता से आलोक तो भक्त को मिलता है किन्तु उसका विस्तार किये बिना वह रह ही नहीं सकता। सम्पर्क में आने वालों को वह सदा भक्ति की गरिमा बताने और भक्त बनने की प्रेरणा देने में लगा रहता है। सन्त भक्तों ने असंख्यों को अपने अनुरूप, अपनी- अपनी आस्था के अनुकूल बनाया है वे अपने प्रयास आत्म कल्याण तक ही सीमित करके नहीं बैठे। छोटा- सा दीपक जब आलोक को उपलब्ध करने भर से संतुष्ट नहीं होता प्रकाश के वितरण में मरते दम तक लगा रहता है तो फिर भक्त ही कैसे ‘स्व’ तक सीमा बद्ध रहकर स्वार्थी कहलाने की लोक भर्त्सना और आत्म प्रताड़ना सह सकता है। विस्तार किये बिना उसे भी चैन नहीं पड़ता। लकड़ी, आग के समीप जाकर गरम होती है। अधिक समीपता घनिष्ठता होने पर अग्नि रूप से हो जाती है। प्रसंग यहीं समाप्त नहीं हो जाता। अग्नि रूप हुई लकड़ी, अपने इष्ट के प्रति समर्पित होकर तद्रुप हो गई, यह सफलता पूर्वार्ध है। उत्तरार्ध इस रूप में है कि वह जलती लकड़ी अपने सम्पर्क क्षेत्र को गरम करती है और जो कुछ निकट आता है उसी को अपने समान ज्वलन्त बनाने का प्रयत्न करती है। यही देव परम्परा है- भक्तजनों को- साधकों को इसी का अनुसरण करना पड़ता है।
गायत्री उपासकों में से प्रत्येक को अपनी साधनाचर्या में यह तथ्य सम्मिलित करके रखना चाहिए कि उनका एक कर्तव्य उत्तरदायित्व यह भी है कि अपने उपास्य आराध्य को सुविस्तृत करने का पुरूषार्थ करें और उस प्रयास के उपचार प्रयोग में आने वाले साधनों एवं विधानों की तरह ही आवश्यक समझें। जो पाया जाय उसे संग्रह न किया जाय वरन् वितरण भी किया जाय। बच्चा थोड़ा सा बड़ा होते ही माता का थोड़ा सा हाथ भी बटाने लगता है। अभिभावकों के अनुदान के बदले उनकी कुछ सहायता करने की बात बाल बुद्धि भी स्वीकार करती है फिर भक्ति भावन में वैसी उत्पन्न न हो यह तो हो नहीं सकता। आलोक वितरण एक बड़ा काम है। उत्पादन की तरह ही वितरण का भी महत्त्व है। व्यवसायी जानते हैं कि फैक्टरी में जो बनता है, खेत में जो उगता है वह उत्पादक के भण्डार में ही भरा नहीं रहता उसे आगे धकेलने, वितरण करने का प्रबन्ध भी उसी तत्परता से करना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाय तो नये उत्पादन का नई उपलब्धियों का गति चक्र ही टूट जायेगा। बिक्री न होगी तो स्टोर भरते चले जायेंगे। नये उत्पादन के लिए जगह ही नहीं बचेगी। पूँजी का परिभ्रमण रूक जाने से कच्चा माल खरीदने के लिए पैसा ही न बचेगा। डायनेमो घूमता है तो बैटरी चलती है। सेवा साधना के सहारे ही आत्मबल बढ़ता है और भक्ति- भावना परिपुष्ट होती है। इस सन्दर्भ में कृपणता बरतने वाले जिस संकीर्ण स्वार्थपरता का परिचय देते हैं। उससे उन्हें लाभ कम और घाटा अधिक होता है।
गायत्री का तत्त्वज्ञान अधिकाधिक होना चाहिए। यह सामूहिक उत्थान और व्यक्तिगत अभ्युदय दोनों ही दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। दूसरों के हाथों पर मेंहदी लगाने के लिए जो हाथ उन पत्तियों को पीसते हैं वे अनायास ही रंगते रचते चले जाते हैं। आद्य शक्ति के आलोक का वितरण हर साधक को अपने पवित्र उत्तरदायित्व में सम्मिलित रखना चाहिए। उसे साधना उपचार की तरह ही फलप्रद माननी चाहिए और उसके लिए जो भी अवसर सामने दीखे, उसे चूकना नहीं चाहिए।
परिवार की क्रम व्यवस्था इसी आधार पर चलती है कि कमाऊ व्यक्ति अपने पुरुषार्थ एवं कौशल से जो पाते हैं उसका लाभ सभी परिजनों को प्रदान करते हैं। जो कमाया उसे अपने लिए ही सीमित रखा जाय तो फिर परिवार की गाड़ी आगे ही न चल सकेगी। आश्रयदाता और आश्रितों के बीच आदान- प्रदान का उपक्रम ही वह आधार है जो उन्हें परस्पर जोड़ता और घनिष्ठ बनाता है। धुरी के टूट जाने पर पहियों का विलग होना और गतिगमन रूक जाना स्वाभाविक है। अध्यात्म उपलब्धियों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे जिन्हें मिलें वे अन्यान्यों को वितरित करें इसी में उनकी सार्थकता है।
गुरू अपने शिष्य को पढ़ाता है। शिष्ट बड़ा होने पर उस ज्ञान सम्पदा का लाभ अपने से छोटों को देता है। वे छोटे भी जब बड़े होते हैं तो उस उपार्जन से दूसरों को लाभान्वित करते हैं। बाप ने बेटे को पढ़ाया, बेटा, अपने बेटे को पढ़ाता है। माँ अपने बच्चों का भरण- पोषण करती है। वे बड़े होकर अपने बालकों का लालन- पालन करते हैं। आध्यात्मिक उपलब्धियाँ जिन्हें मिलें वे उन्हें दूसरों को वितरित करने का प्रयत्न करें। अग्नि ने दीपक को प्रकाशित किया अब दीपक का उत्तरदायित्व यह है कि अपने क्षेत्र को प्रकाशित करे। जो मिला है उसे अपने तक सीमित सुरक्षित रखे तो समझना चाहिए कि गति चक्र रूकता और उससे अहित ही अहित होता है। मध्यकाल में अति महत्त्वपूर्ण विधाओं को छिपाकर रखने की संकीर्णता पनपी फलतः उपयोगी ज्ञान का लोप हो गया। निष्णात व्यक्ति उन्हें अपने साथ ही लेकर मर गये। कृपणों का धन भूमि में गढ़ा रह जाता है और किसी के काम का नहीं आता। सार्थकता उसी सम्पदा की है जिसका परिभ्रमण होता है और अनेकों को आजीविका उपार्जन का अवसर मिलता है।
गायत्री ज्ञान के सम्बन्ध में भी यही नीति बरतनी चाहिए। यह आलोक जिन्हें भी उपलब्ध हो वे उससे स्वयं भी लाभान्वित हों और उसके लिए भी प्रयत्न करें कि दूसरे भी उससे लाभ उठायें। किसान के खेत का उपार्जन उसी के घर में रखा नहीं रह जाता वरन् अन्य अनेकों की क्षुधा निवारण का निमित्त बनता है। उद्योग में जो उत्पादन होता है उससे मालिक भी लाभ उठाते हैं साथ ही दूसरों को भी उसकी सुविधा मिलती है। यह उदार सहकारिता ही प्रगति क्रम की आधारशिला है। जब हर क्षेत्र में यह उपक्रम चलता है तो अध्यात्म क्षेत्र में ही उसका अवरोध क्यों होना चाहिए? साधको कों अपनी साधना परायणता का स्वाद दूसरों को क्यों नहीं चखाना चाहिए?
प्राचीनकाल के ऋषि मनीषियों ने अपनी साधन तपश्चर्या से जो जो महान उपार्जन किया उससे समस्त जन समाज को लाभान्वित किया। इस देश के नागरिक देव मानव बने और फिर उन्होंने सर्वत्र सतयुग का स्वर्गीय वातावरण बनाने का अथक प्रयत्न किया। ऋषियों को यह पुण्य परम्परा ही महान भारती संस्कृति की रीढ़ है। इसी ने अपने देश समाज को जगद्गुरू चक्रवर्ती, एवं विपुल सम्पदाओं का अधिपति बनाया। यदि ऋषियों को कृपणता घेर ले तो और वे मात्र अपने लिए ही स्वर्ग, मुक्ति या सिद्धि की बात सोचते रहते तो निजी रूप में वे भले ही चमत्कारी रहते उन्हें जो अनन्त लोक श्रद्धा उपलब्ध हुयी उसकी कोई संभावना न बनती। चमत्कारी तो जादूगर बाजीगर भी होते हैं। उनका कौतुक कौतूहल देखकर मनोरंजन कई लोग करते हैं पर उनके प्रति श्रद्धा किसी की नहीं जगती। सार्थकता उन्हीं सिद्धियों की है जो जन- जन के काम आयें निजी लाभ के लिए चाहें सम्पत्ति कमाई जाय या सिद्धि उससे चर्चा भर हो सकती है अभ्यर्थना नहीं ।।
ब्राह्मण और साधु वर्ग को मानव समाज की उत्कृष्टता का प्रतीक माना जाता है। उन्हें भूसुर- पृथ्वी का देवता कहा जाता है। इसका कारण उनका जप तप ज्ञान अध्ययन नहीं वरन् लोक मंगल के लिए समर्पित जीवन ही माना जाता है। वे आत्मिक पवित्रता, सेवा की उत्कृष्टता, लोक मंगल की क्षमता के लिए जप- तप करते थे। जो सार्थकता एवं विशिष्टता उन्हें उपलब्ध होती थी उससे जन- जन को लाभान्वित करने के लिए परिभ्रमण करते और घर- घर अलख जगाने की प्रक्रिया अपनाते थे। तीर्थयात्रा इसी कारण पुण्य परमार्थ में गिनी जाती थी कि उसके द्वारा धर्म प्रचारक जन सम्पर्क साधते और उत्कृष्टता अपनाने की प्रेरणा देते थे। इस आधार पर मानव समाज को जो लाभ होता था, उसी को देखते हुए तीर्थयात्रा को, तीर्थ यात्रियों को सम्मान मिला। अन्यथा पर्यटन तो विशुद्ध मनोरंजन है। उसके लिए तो लाखों की भीड़ उधर से इधर मारी- मारी फिरती ही रहती है पर्यटकों को, यायावरों को किसी की श्रद्धा सहानुभूति कहाँ प्राप्त होती है? हिरन इधर से उधर दौड़ते और पक्षी इधर- उधर उड़ते रहते हैं। इसे तीर्थयात्रा थोड़े ही कहा जायगा ??
प्राचीन काल में ब्रह्मभोज की- ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देने की जो परम्परा थी उसका एक ही कारण था कि साधु ब्राह्मण का वर्ग समुदाय निरन्तर लोग मंगल में प्रवृत्त रहता था। आजीविका उपार्जन को वे प्रस्तुत परमार्थ की तुलना में महत्त्व ही नहीं देते थे। फलतः समाज के लिए यह कर्तव्य के लिए हो जाता था कि उनके निर्वाह की श्रद्धा सिक्त व्यवस्था करें। उस समय का साधु ब्राह्मण का जीवन क्रम विशुद्ध रूप में एक सार्वजनिक संस्था होती थी। लोग उन्हें दान देकर निश्चिन्त हो जाते थे कि सामयिक आवश्यकता और उपयोगिता को देखते हुए वे लोग उस धरोहर का ठीक प्रकार उपयोग कर लेंगे। ब्राह्मण को दान प्रकारान्तर से श्रेष्ठ सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के लिए दिया गया अनुदान ही होता था। दान दक्षिणा की परम्परा, समर्थ व्यक्तियों को मुफ्त में पैसा देने जैसी आज जो दीखती है, प्राचीन काल में उसका स्वरूप वैसा न था। वंश और वेश की कोई गरिमा नहीं हो सकती ।। परमार्थ प्रयोजन तो वह आधार है जिसके लिए सम्मान और सहयोग मिलने की बात नैतिक एवं बुद्धि- संगत मानी जा सकती है।
इन सभी तथ्यों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट है कि आध्यात्मिक साधनाओं को मात्र पूजा उपचारों के क्रिया कृत्यों तक सीमित नहीं रखा जा सकता उनके साथ परमार्थ प्रयोजन का जुड़ा रहना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
कथा है कि रामानुज स्वामी को कोई चमत्कारी मन्त्र प्राप्त हुआ। उन्होंने उसकी सिद्धि की। मंत्र दीक्षा लेते समय गुरू से यह कहा था कि वे उसे किसी अन्य को नहीं बतायेंगे अन्यथा नरक में जाना पड़ेगा। सिद्धि की सार्थकता देखकर रामानुज स्वामी के मन में आया कि ऐसे उपयोगी तथ्य से जन- जन को परिचित कराया जाय। अतएव वे घर- घर जाकर उसका प्रचार करने लगे। गुरू को पता चला तो उन्होंने नाराजी प्रकट की। इस पर स्वामी जी का उत्तर था प्रतिबन्ध उल्लंघन करने के कारण उन्हें नरक जाना स्वीकार है पर इतने उपयोगी तथ्य से जन- जन को लाभान्वित करने का लोभ संवरण करना उनके वश की बात नहीं है।
गायत्री आत्मा की भूख और प्यास बुझा कर उसे परितृप्त परिपुष्ट करने वाली वह अमृत उपलब्धि है जिसे पाकर न व्यथा रहती है न वेदना, न दरिद्रता रहती है न कृपणता। देवत्व प्रदान करने वाली देवमाता- सद्ज्ञान का अजस्र अनुदान देने वाली वेदमाता, व्यापक व्यवस्था को सुरम्य बनाने वाली विश्व माता का अंचल पकड़ने वाला न अभाव सहता है न संकट सहता है। यह भूलोक की कामधेनु है जिसका पय- पान करने वाले न जरा- जीर्ण होते हैं, न कुरूप, न मृतक मूर्छित। जिसका प्रहार अनौचित्य पर वज्र की तरह टूटता है। उस ब्रह्मास्त्र से सम्पन्न व्यक्ति को किसी से परास्त नहीं होना पड़ता। उद्दण्डता पर अंकुश लगाने की क्षमता से सम्पन्न होने के कारण वह ब्रह्मदण्ड है। अनुशासन और नियंत्रण रखने के लिए उसका असाधारण उपयोग होता है।
ऐसी आद्य शक्ति गायत्री का तत्व ज्ञान और साधन विधान जानना और अपनाना प्रत्येक दूरदर्शी का कर्तव्य है। इस कर्तव्य का निर्वाह इस आलोक को अपने तक ही सीमित रखने से नहीं हो जाता वरन् उसे व्यापक बनाने का उत्तरदायित्व भी कंधे पर आता है। स्वयं भक्त बनना एक बात है और नारद की तरह अनेकों को भगवद् भक्त बनाना दूसरी। स्वयं खाते रहने का मजा उड़ाना एक बात है और दूसरों को खिलाने का आनन्द लेना दूसरी अध्यात्म का प्रतिफल है- देवत्त्व में पवित्रता और प्रखरता के दोनों तत्व जुड़े हैं। निजी जीवन में अधिकाधिक पवित्रता बढ़ाने के लिए जप तप करना उसका पूर्वार्द्ध है। अपनी क्षमता को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित कराना उत्तरार्द्ध दोनों के मिलने से ही एक समग्र प्रक्रिया बनती है। पक्षी दो पंखों से उड़ता है, गाड़ी दो पहियों से कम की नहीं बनती, प्रगति पथ पर लम्बी यात्रा पूरी करने के लिए दोनों टाँगें सही सलामत होनी चाहिए। आत्म निर्माण एक धारा है और लोक निर्माण दूसरी। गंगा यमुना का मिलना एक तीसरी उपलब्धि है, सिद्धि सरस्वती का नया उद्भव करता है। फलतः त्रिवेणी संगम में स्नान करने पर काया कल्प होने की अलंकारिक फलश्रुति का प्रत्यक्ष दर्शन होता है।
गायत्री परिवार के हर साधक से अपेक्षा की जाती है कि वह उपासना के जप पक्ष को पूरा करने भर से सन्तुष्ट न हो। इस तत्वज्ञान का आधार, स्वरूप विधान एवं प्रगति क्रम भी समझे। इसलिए जप ध्यान से प्रक्रिया आरम्भ करने कराने का प्रयोग तो चलता है पर साथ ही उसका विज्ञान समझने समझाने के लिए स्वाध्याय, सत्संग एवं मनन, चिन्तन के सहारे तथ्यों की गहराई तक पहुँचाने का प्रयत्न भी होना चाहिए। जिन्होंने अपनी उपासना पद्धति में इन तथ्यों का समावेश किया है उनकी समग्र साधना फलवती होती रही है। ऐसे समग्र साधनारत नैष्ठिकों को एक मत से अपना अनुभव इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते देखा गया है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। माता का आंचल पकड़ने वाले का कल्याण ही होता है।
उपासना की सफलता के लिए साधना का बीजारोपण करने के साथ ही उसके उगने और बढ़ने की व्यवस्था भी बनानी चाहिए। उसके लिए खाद भी आवश्यक है और पानी भी। इनका प्रबन्ध न हो सका तो समर्थ बीज कठिनाई से अंकुरित भर हो सकेगा उसे बढ़ने और फलने फूलने का अवसर न मिलेगा। खाद का अर्थ है- परमार्थ की प्रखरता। दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश आवश्यक है और आचरण में आदर्शवादिता का। आदर्शवादिता में स्वार्थ सिद्धि को सीमित करने और परमार्थ परायणता को आगे बढ़ाने की प्रेरणा भरी हुई है ।उपासना का उद्देश्य इष्ट के समीप बैठना और क्रमशः तदनुरूप बनते ढलते जाना है। चंदन के निकट उगे हुए झाड़ झंखाड़ भी सुगन्धित होते हैं और यह लाभ प्राप्त करने के उपरान्त उसकी लकड़ी के टुकड़े बन कर नहीं रह जाते मूल चन्दन से उपलब्ध सुगन्धि को निरन्तर बखेरते हैं। सदाशयता का यह विस्तार ही सच्ची भगवद् भक्ति है।
भगवान की समीपता से आलोक तो भक्त को मिलता है किन्तु उसका विस्तार किये बिना वह रह ही नहीं सकता। सम्पर्क में आने वालों को वह सदा भक्ति की गरिमा बताने और भक्त बनने की प्रेरणा देने में लगा रहता है। सन्त भक्तों ने असंख्यों को अपने अनुरूप, अपनी- अपनी आस्था के अनुकूल बनाया है वे अपने प्रयास आत्म कल्याण तक ही सीमित करके नहीं बैठे। छोटा- सा दीपक जब आलोक को उपलब्ध करने भर से संतुष्ट नहीं होता प्रकाश के वितरण में मरते दम तक लगा रहता है तो फिर भक्त ही कैसे ‘स्व’ तक सीमा बद्ध रहकर स्वार्थी कहलाने की लोक भर्त्सना और आत्म प्रताड़ना सह सकता है। विस्तार किये बिना उसे भी चैन नहीं पड़ता। लकड़ी, आग के समीप जाकर गरम होती है। अधिक समीपता घनिष्ठता होने पर अग्नि रूप से हो जाती है। प्रसंग यहीं समाप्त नहीं हो जाता। अग्नि रूप हुई लकड़ी, अपने इष्ट के प्रति समर्पित होकर तद्रुप हो गई, यह सफलता पूर्वार्ध है। उत्तरार्ध इस रूप में है कि वह जलती लकड़ी अपने सम्पर्क क्षेत्र को गरम करती है और जो कुछ निकट आता है उसी को अपने समान ज्वलन्त बनाने का प्रयत्न करती है। यही देव परम्परा है- भक्तजनों को- साधकों को इसी का अनुसरण करना पड़ता है।
गायत्री उपासकों में से प्रत्येक को अपनी साधनाचर्या में यह तथ्य सम्मिलित करके रखना चाहिए कि उनका एक कर्तव्य उत्तरदायित्व यह भी है कि अपने उपास्य आराध्य को सुविस्तृत करने का पुरूषार्थ करें और उस प्रयास के उपचार प्रयोग में आने वाले साधनों एवं विधानों की तरह ही आवश्यक समझें। जो पाया जाय उसे संग्रह न किया जाय वरन् वितरण भी किया जाय। बच्चा थोड़ा सा बड़ा होते ही माता का थोड़ा सा हाथ भी बटाने लगता है। अभिभावकों के अनुदान के बदले उनकी कुछ सहायता करने की बात बाल बुद्धि भी स्वीकार करती है फिर भक्ति भावन में वैसी उत्पन्न न हो यह तो हो नहीं सकता। आलोक वितरण एक बड़ा काम है। उत्पादन की तरह ही वितरण का भी महत्त्व है। व्यवसायी जानते हैं कि फैक्टरी में जो बनता है, खेत में जो उगता है वह उत्पादक के भण्डार में ही भरा नहीं रहता उसे आगे धकेलने, वितरण करने का प्रबन्ध भी उसी तत्परता से करना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाय तो नये उत्पादन का नई उपलब्धियों का गति चक्र ही टूट जायेगा। बिक्री न होगी तो स्टोर भरते चले जायेंगे। नये उत्पादन के लिए जगह ही नहीं बचेगी। पूँजी का परिभ्रमण रूक जाने से कच्चा माल खरीदने के लिए पैसा ही न बचेगा। डायनेमो घूमता है तो बैटरी चलती है। सेवा साधना के सहारे ही आत्मबल बढ़ता है और भक्ति- भावना परिपुष्ट होती है। इस सन्दर्भ में कृपणता बरतने वाले जिस संकीर्ण स्वार्थपरता का परिचय देते हैं। उससे उन्हें लाभ कम और घाटा अधिक होता है।
गायत्री का तत्त्वज्ञान अधिकाधिक होना चाहिए। यह सामूहिक उत्थान और व्यक्तिगत अभ्युदय दोनों ही दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। दूसरों के हाथों पर मेंहदी लगाने के लिए जो हाथ उन पत्तियों को पीसते हैं वे अनायास ही रंगते रचते चले जाते हैं। आद्य शक्ति के आलोक का वितरण हर साधक को अपने पवित्र उत्तरदायित्व में सम्मिलित रखना चाहिए। उसे साधना उपचार की तरह ही फलप्रद माननी चाहिए और उसके लिए जो भी अवसर सामने दीखे, उसे चूकना नहीं चाहिए।