Books - गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि
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Language: HINDI
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गायत्री मंत्र लेखन - एक महान साधना
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गायत्री साधना मनुष्य मात्र के लिए सुलभ है और यह है भी अन्य
सभी उपासनाओं में श्रेष्ठ और शीघ्र फलदायी। शब्द विज्ञान, स्वर शास्त्र
की सूक्ष्म धारायें गायत्री महामंत्र में जिस विज्ञान सम्मत ढंग
से मिली हुई हैं, वैसा संगम अन्य किसी मंत्र में नहीं हुआ है।
साधनारत योगियों और तपस्वियों ने अपने प्रयोग परीक्षणों और
अनुभवों के आधार पर जो तुलनात्मक उत्कृष्टता देखी है उसी से
प्रभावित होकर उन्होंने इस महाशक्ति की सर्वोपरि स्थिति बताई है।
यह निष्कर्ष अभी भी जहाँ का तहाँ है। मात्र जप पूजन से तो
नहीं, अभीष्ट साधना प्रक्रिया अपनाते हुए कभी भी कोई इस साधना को
कर सके तो उसका निजी अनुभव शास्त्र प्रतिपादित सर्वश्रेष्ठता का समर्थन ही करेगा। शास्त्रों में पग- पग पर गायत्री महामंत्र की महत्ता प्रतिपादित है।
देव्युपनिषद, स्कन्द पुराण, ब्रह्म सन्ध्या भाष्य, उशनः संहिता, विश्वामित्र कल्प के पन्ने गायत्री जप की महिमा से भरे पड़े हैं, देवी भागवत् में तो एकमेव भगवती गायत्री की माया का सुविस्तृत वर्णन है। गायत्री जप से सांसारिक कष्टों से मुक्ति तो मिलती ही है गायत्री की सिद्धियाँ मनुष्य को अनेक प्रकार की भौतिक और दैवी सम्पदाओं से विभूषित कर देती हैं।
जहाँ उसका इतना महत्त्व और पुण्य प्रभाव है वहाँ कुछ नियम बन्धन और मर्यादायें भी है। जिसका अर्थ है- ‘दो प्रहरों के सन्धिकाल में की गयी उपासना’ अर्थात् गायत्री उपासना के परिणाम सुनिश्चित करने के लिए नियमबद्ध जप, उपासना भी आवश्यक है। आज की परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि हर किसी को प्रातः सायं का समय जप के लिए मिल जाये यह आवश्यक नहीं। रात को ड्यूटी करने वालों, महिलाओं, देर तक बैठने की जिनकी स्थिति नहीं उनके लिए नियमित उपासना की सुविधा कैसे हो सकती है? इसका अर्थ हुआ कि ऐसे लोगों का माँ के अनुग्रह से वंचित रहना। मनीषियों ने उस कठिनाई के समाधान के लिये मंत्र लेखन साधना का मार्ग निकाला। जिन्हंद वेश- भूषा, आजीविका के बन्धनों के कारण या ऐसे ही किन्हीं अपरिहार्य कारणों से जप की व्यवस्था न हो सके वे गायत्री मंत्र लेखन अपना कर आत्म कल्याण का मार्ग ठीक उसी तरह प्रशस्त कर सकते हैं। इसके लिए पृथक् उपासना गृह, वेश- भूषा स्थान वाली मर्यादाओं में भी छूट रखी गयी है। पवित्रता के आधार का परित्याग तो नहीं किया जा सकता पर स्वच्छता पूर्वक कहीं भी किसी भी समय बैठकर कोई भी मंत्र लेखन साधना वैसी ही शास्त्र सम्मत और फलप्रद बताई गयी है।
मानवो लभते सिद्धि कारणाद्विजपस्यवे ।।
जपनो मन्त्र लेखस्य महत्वं तु विशिष्यते ॥
अर्थात्- जप करने से मनुष्यों को सिद्धि प्राप्त होती है किन्तु जप से भी मन्त्र लेखन का विशेष महत्त्व है।
यज्ञात्प्राण स्थितिमंत्रे जपन्मंत्रस्यजागृति ।।
अति प्रकाशवांश्चैव, मन्त्रोभवतिलेखनात् ॥
अर्थात्- यज्ञ से मन्त्रों में प्राण आते हैं, जप से मंत्र जाग्रत होता है और लेखन से मंत्र की शक्ति आत्मा में प्रकाशित होती है।
सिद्धेमार्गो अनेकस्यु साधनायास्तु सिद्धये ।।
मंत्रणांलेखनं चैव तत्र श्रेष्ठं विशेषतः ॥
साधना से सिद्धि के अनेक मार्ग हैं इसमें भी मंत्र लेखन ही विशेष श्रेष्ठ है।
श्रद्धया यदि वै शुद्धं क्रियतंमंत्र लेखनम् ।।
फल तहिं भवेतस्यजपत् दशाः गुणाधिकम् ॥
अर्थ- यदि श्रद्धा पूर्वक शुद्ध मंत्र लिखे जायें तो जप से दस गुना फल देते हैं।
गायत्री मंत्र लेखस्य विधानाच्छ्रद्धयाऽन्वहम् ।।
सम्प्रसीदति गायत्री वेद माता हि साधके ॥
प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक गायत्री मंत्र के लिखने से वेदमाता गायत्री साधक पर अति प्रसन्न होती है।
उपर्युक्त शास्त्र वचनों के आधार पर गायत्री मंत्र लेखन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधना विधि है। इसमें स्त्री , पुरूष, बाल, वृद्ध सभी प्रसन्नतापूर्वक भाग ले सकते हैं। इसमें कोई विशेष प्रतिबन्ध नहीं है। जब भी समय मिले, मंत्र लेखन किया जा सकता है। जप की अपेक्षा मंत्र लेखन पुण्य दस गुना अधिक माना गया है। इस प्रकार २४ हजार जप के अनुष्ठान की भाँति ही २४ सौ मंत्र लेखन का एक अनुष्ठान माना जाता है।
मंत्र जप के समय हाथ की माला के मनके फिराने वाली उँगलियाँ और उच्चारण करने वाली जिह्वा ही प्रयुक्त होती है किन्तु मन्त्र लेखन में हाथ, आँख, मन, मस्तिष्क आदि अवयव व्यस्त रहने से चित्त वृत्तियाँ अधिक एकाग्र रहती हैं तथा मन भटकने की सम्भावनायें अपेक्षाकृत कम होती हैं। मन को वश में करके चित्त को एकाग्र करके मंत्रलेखन किया जाय तो अनुपम लाभ मिलता है। इसी कारण मंत्र लेखन को बहुत महत्त्व मिला है।
मंत्र लेखन के लिए गायत्री तपोभूमि, मथुरा द्वारा १००० मंत्र लेखन की सुन्दर पुस्तिकाएँ विशेष रूप से तैयार कराई गयी हैं। सस्ते मूल्य की यह पुस्तिकायें वहाँ से मँगाई जा सकती हैं। या फिर बाजार में मिलने वाली कापियों का प्रयोग भी किया जा सकता है। गायत्री तपोभूमि से एक या दो पुस्तिकायें मँगाने में डाक- खर्च अधिक लगता है। अतएव ऐसे कई लोग मिलकर इकट्ठे पच्चीस- पचास प्रतियाँ मँगायें। यज्ञायोजकों को भी अपेक्षित संख्या में मंत्र लेखन पुस्तिकायें स्वयं मँगाकर मंत्र साधना के इच्छुक भागीदारों को वितरित करनी चाहिए।
मंत्र लिखी पुस्तिकायें प्राण प्रतिष्ठा हुई मूर्ति की तरह हैं जिन्हें किसी भी अपवित्र स्थान में नहीं फेंक देना चाहिए। यह न केवल श्रद्धा का अपमान है, अपितु एक प्रकार की उपेक्षा भी है। प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियों को भी विधिवत् पवित्र तीर्थ स्थलों में प्रवाहित करने का विधान है। वही सम्मान इन पुस्तिकाओं को दिया जाता है। जिनके यहाँ इन्हें स्थापित करने के उपयुक्त पवित्र स्थान न हों यह पुस्तिकायें गायत्री तपोभूमि मथुरा भेज देना चाहिए। वहाँ इन मंत्र लेखनों का प्रतिदिन प्रातः सायं विधिवत् आरती पूजन सम्पन्न करने की व्यवस्था है।
मंत्र लेखन साधना में जप की अपेक्षा कुछ सुविधा रहती है। इसमें षट्कर्म आदि नहीं करने पड़ते। किये जायें तो विशेष लाभ होता है, किन्तु किसी भी स्वच्छ स्थान पर हाथ मुँह धोकर, धरती पर तखत या मेज- कुर्सी पर बैठ कर भी मंत्र लेखन का क्रम चलाया जा सकता है। स्थूल रूप कुछ भी बने पर किया जाना चाहिए परिपूर्ण श्रद्धा के साथ। पूजा स्थली पर आसन पर बैठ कर मंत्र लेखन जप की तरह करना सबसे अच्छा है। मंत्र लेखन की कॉपी की तरह यदि उस कार्य के लिए कलम भी पूज उपकरण की तरह अलग रखी जाय तो अच्छा है। सामान्य क्रम भी लाभकारी तो होता ही है।
संक्षेप में गायत्री मंत्र लेखन के नियम निम्न प्रकार हैं-
१. गायत्री मंत्र लेखन करते समय गायत्री मंत्र के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।
२. मंत्र लेखन में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।
३. स्पष्ट व शुद्ध मंत्र लेखन करना चाहिए।
४. मंत्र लेखन पुस्तिका को स्वच्छता में रखना चाहिए। साथ ही उपयुक्त स्थान पर ही रखना चाहिए।
५. मंत्र लेखन किसी भी समय किसी भी स्थिति में व्यस्त एवं अस्वस्थ व्यक्ति भी कर सकते हैं।
गायत्री मंत्र लेखन से लाभ-
१. मंत्र् लेखन में हाथ, मन, आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं। जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है।
२. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की तन्मयता पैदा होती है इससे मन की उच्छृंखलता समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है।
३. मंत्र के माध्यम से ईश्वर के असंख्य आघात होने से मन पर चिर स्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है।
४. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है।
५. मानसिक अशान्ति चिन्तायें मिट कर शान्ति का द्वार स्थायी रूप से खुलता है।
६. मंत्र योग का यह प्रकार मंत्र जप की अपेक्षा सुगम है। इससे मंत्र सिद्धि में अग्रसर होने में सफलता मिलती है।
७. इससे ध्यान करने का अभ्यास सुगम हो जाता है।
८. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है।
साधारण कापी और साधारण कलम स्याही से गायत्री मंत्र लिखने का नियम उसी प्रकार बनाया जा सकता है जैसा कि दैनिक जप एवं अनुष्ठान का व्रत लिया जाता है। सरलता यह है कि नियत समय पर- नियत मात्रा में करने का उसमें बन्धन नहीं है और न यही नियम है कि इसे स्नान करने के उपरान्त ही किया जाय। इन सरलताओं के कारण कोई भी व्यक्ति अत्यन्त सरलता पूर्वक इस साधना को करता रह सकता है।
यों विशिष्टता का समावेश तो हर कार्य में किया जा सकता है। भोजन करना यों एक दैनिक जीवन की सामान्य क्रिया है पर यदि उसी में उच्च स्तरीय उत्कृष्टता का समावेश कर दिया जाय तो पिपल्लाद- कणाद आदि की तरह उसे भी एक तप साधन बनाया जा सकता है और आहार साधना करते रहने भर से भी उच्च मन, उच्च अन्तःकरण प्राप्त करते हुए आत्मिक प्रगति की उच्चतम स्थिति तक पहुँचा जा सकता है। ब्रह्मचर्य का स्तर जब जननेन्द्रिय संयम से ऊँचा उठकर नेत्र और मस्तिष्क क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो जाता है तो वह साधना भी परब्रह्म के मिलन तक पहुँचा देती है। यदि कुदृष्टि और अश्लील चिन्तन मिट सके और बौद्धिक एवं भावनात्मक ब्रह्मचर्य की अन्तःकरणों में प्राण प्रतिष्ठा हो सके तो वह तप भी परम सिद्धिदायक हो सकता है। ठीक इसी प्रकार गायत्री मंत्र लेखन में भी उत्कृष्टता का समावेश हो सकता है और उसे भी सामान्य से असामान्य बनाकर असाधारण फलदायक बनाया जा सकता है।
अनार की लकड़ी से बनी कलम का, रक्त चंदन में केशर मिलाकर बनाई गई स्याही का, भोजपत्र अथवा हाथ के बने कागज का विशेष महत्त्व माना गया है। स्याही में गंगाजल का प्रयोग हो। लिखते समय मौन रहा जाय। पद्मासन या सिद्धासन पर बैठा जाय। स्नान एवं शुद्ध वस्त्र धारण का ध्यान रखा जाय। दिन में लिखना हो तो सूर्य के सम्मुख, रात्रि में लिखना हो तो गौर घृत से जलने वाले दीपक के प्रकाश में लिखा जाय। उपवास- ब्रह्मचर्य आदि तपश्चर्याओं का समावेश हो। ऐसे- ऐसे विशेष नियमों का पालन करते हुए मंत्र लेखन की साधना भी तप साधनों के साथ किये गये पुरश्चरणों की गणना में ही आते हैं।
यह उच्चस्तरीय विधान की चर्चा हुई। प्रसंग सर्व- साधारण के लिए अति सरल साधना के रूप में गायत्री मंत्र लेखन का था। उस कसौटी पर इसे सर्वसुलभ कहा जा सकता है। इसमें किसी प्रकार का प्रावधान न होना एक बहुत बड़ी बात है। कई व्यक्ति उपासना के इच्छुक होते हुए भी स्नान, स्थान, समय, विधान आदि में कठिनाई अनुभव करते हैं और असमंजस के कारण जो कर सकते थे उतना भी नहीं कर पाते। ऐसे लोगों के लिए मंत्र लेखन साधना ही सबसे सुगम और सर्वथा असमंजस रहित सिद्ध होती है। इसे किसी भी सुविधा के समय में किया जा सकता है। शुद्धता का यथा संभव ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए पर वैसा न बन पड़े तो इसमें किसी अशुभ की आशंका की आवश्यकता नहीं है। बीमार लोग उसे चारपाई पर बैठे- बैठे भी करते रह सकते हैं। रोग शय्या पर पड़े- पड़े कितने ही लोग मंत्र लेखन अनुष्ठान पूरे कर लेते हैं और उसके आत्मिक तथा सांसारिक सत्परिणाम प्राप्त करते हैं।
जप साधना में मंत्रोच्चार शुद्ध होना आवश्यक है। अनुष्ठानों में मार्गदर्शक एवं संरक्षक की आवश्यकता पड़ती है। साधना में कही हुई त्रुटियों का निराकरण करने के लिए या तो स्वयं तर्पण मार्जन करना पड़ता है या फिर दोष परिमार्जन का उत्तरदायित्व किसी उपयुक्त संरक्षक पर छोड़ना पड़ता है। इन्हीं कारणों से गायत्री की विशिष्ट एवं सफल साधना के लिए तपस्वी एवं अनुभवी गुरू की तलाश करनी पड़ती है। वह व्यवस्था न बन पड़े तो अभीष्ट सत्परिणाम में भी कमी रह जाती है। मंत्र लेखन में वैसी कोई आवश्यकता नहीं है। उसका शुभारम्भ बिना किसी मार्गदर्शक या गुरू की सहायता के स्वेच्छापूर्वक किया जा सकता है। इसमें नर- नारी, बाल- वृद्ध, रोगी- निरोग, जाति, वंश जैसा कोई बन्धन उन रूढ़िवादी लोगों की दृष्टि से भी नहीं है जो इस महामंत्र पर तरह- तरह के प्रतिबन्ध लगाते हैं। विवेकशीलता की दृष्टि से तो गायत्री मंत्र मनुष्य मात्र का है और उसकी साधना सभी के लिए उपयुक्त है।
उच्चारण की शुद्धता में स्वर तन्त्र का सही होना और किस अक्षर को किस प्रकार बोला जाय यह अभ्यास करना आवश्यक है। दीक्षा में यही शुद्धि कराई जाती है। उच्चारण की शुद्धि का अभ्यास कराना साधना गुरू का उत्तरदायित्व है। उसके लिए उपयुक्त अभ्यासी और अनुभवी गुरू ढूँढ़ना पड़ता है। किन्तु मंत्र लेखन में उस प्रकार की आवश्यकता नहीं है। लेखन में अक्षर शुद्ध हैं या नहीं यह तो ध्यान रखना पड़ता है। इसके अतिरिक्त और कोई झंझट उसमें नहीं है। अक्षरों की अशुद्धि न होने पावे इसके लिए छपी मंत्र लेखन कापियों में ऊपर की पंक्ति सही छपी होती है। उसकी नकल करते चलने में अक्षरों की अशुद्धि की भी आशंका नहीं रह जाती ।।
मंत्र लेखन में सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि उसमें सब ओर से ध्यान एकाग्र रहने की व्यवस्था रहने से अधिक लाभ होता है। जप में केवल जिह्वा का ही उपयोग होता है और यदि माला जपनी है तो उंगलियों को काम करना होता है। ध्यान साथ- साथ न चल रहा हो तो पन इधर- उधर भटकने लगता है ।। किन्तु मंत्र लेखन से सहज ही कई इन्द्रियों का संयम निग्रह बन पड़ता है ।। हाथों से लिखना पड़ता है। आंखें लेखन पर टिकी रहती हैं। मस्तिष्क का उपयोग भी इस क्रिया में होता है। ध्यान न रहेगा तो पंक्तियाँ टेढ़ी एवं अक्षर सघन विरत एवं नीचे- ऊँचे, छोटे- बड़े होने का डर रहेगा। ध्यान न टिकेगा तो मंत्र अशुद्ध लिखा जाने लगेगा। अक्षर कुछ से कुछ बनने लगेंगे। लेखन में सहज ही ध्यान का समावेश अधिक होने लगता है। जप और ध्यान के समन्वय से ही उपासना का समुचित फल मिलने की बात कही गई है। यह प्रयोजन मंत्र लिखने में अनायास ही पूरा होता रहता है।
मंत्र लेखन की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जिस स्थान पर यह कापियाँ स्थापित की जाती हैं जहाँ इनका नित्य पूजन होता है। वह स्थान एक विशेष आध्यात्म- शक्ति से सम्पन्न बना जाता है। गायत्री तपोभूमि में १२५ करोड़ हस्तलिखित गायत्री मन्त्र रखे हुए हैं, यह हजारों वर्षों तक सुसज्जित रूप से सुरक्षित रखे रहेंगे। इनका नित्य पूजन होता रहेगा। इन मंत्रों को प्रति वर्ष लाखों तीर्थ यात्री देखते और प्रकाश एवं प्रेरणा प्राप्त करते रहेंगे। इन मन्त्र लेखन कापियों के पन्नों में साधकों की आंतरिक श्रद्धा एवं तपस्या लिपटी रहती है। इसलिए वे कागज सूक्ष्म सतोगुणी शक्ति सम्पन्न एवं प्रकाश पुंज बनकर जहाँ उन्हें स्थापित किया जाय, उस स्थान के वातावरण को बड़ा ही प्रभावशाली एवं शुद्ध बनाते हैं। उस स्थापना स्थान में प्रवेश करने वाला, निवास करने वाला व्यक्ति तुरन्त ही एक असाधारण शक्ति उसी प्रकार प्राप्त करता है जैसे गर्मी से सताया हुआ व्यक्ति बर्फखाने में घुसकर और सर्दी से काँपता हुआ व्यक्ति जलती हुई भट्ठी के पास बैठकर प्रसन्न होता है।
गायत्री तपोभूमि में जो लोग गये हैं और वहाँ ठहरे हैं, उन्हें वहाँ के सूक्ष्म वातावरण की पवित्रता एवं दिव्य प्रभाव शक्ति का अनुभव निश्चय ही होता है। इसका बहुत कुछ श्रेय १२५ करोड़ गायत्री मंत्र लेखन की स्थापना को है। साधारण जप से भी लाभ है पर मंत्र लेखन की यह विशेषता सब से बड़ी है कि जहाँ उनकी स्थापना की जाती है, उस स्थान का वातावरण चिरकाल तक आत्म- शक्ति से प्रभावित रहता है और उसका उपयोग अनेकों लोगों की मानसिक स्थिति को सुधारने में होता रहता है।
गायत्री मंत्र लेखन के नियम बहुत सरल हैं, इसमें किसी प्रकार का कोई बन्धन या प्रतिबन्ध नहीं है। कोई भी व्यक्ति, बाल, वृद्ध, स्त्री - पुरूष इस पुनीत साधना को कर सकता है। स्कूल साइज की कापी पर स्याही से शुद्धता पूर्वक अपनी सुविधा के समय में मंत्र लिखे जा सकते हैं। कम से कम २४०० मंत्र लिखने चाहिए। अधिक कितने ही लिखे जा सकते हैं। प्रतिदिन नियत समय और नियत संख्या में लेखन कार्य नियमित रूप से किया जाय तो अधिक उत्तम है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
यही शुद्ध मंत्र लिखना चाहिए।
यदि २४०० ही मंत्र लिखने हैं तो पूरे होने पर और यदि मंत्र लेखन साधना को नियमित चलाना है तो आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों तक जितने मंत्र लिख जायें उतने मथुरा भेज देने चाहिए। मथुरा में गायत्री संस्था की जो दिव्य गायत्री तपोभूमि है उसमें हस्तलिखित मन्त्रों की गायत्री मन्दिर में स्थापना कर दी जाती है और उनका नित्य पूजन होता रहता है। इनका दर्शन करके प्रतिवर्ष लाखों यात्री प्रसन्नता तथा प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
देव्युपनिषद, स्कन्द पुराण, ब्रह्म सन्ध्या भाष्य, उशनः संहिता, विश्वामित्र कल्प के पन्ने गायत्री जप की महिमा से भरे पड़े हैं, देवी भागवत् में तो एकमेव भगवती गायत्री की माया का सुविस्तृत वर्णन है। गायत्री जप से सांसारिक कष्टों से मुक्ति तो मिलती ही है गायत्री की सिद्धियाँ मनुष्य को अनेक प्रकार की भौतिक और दैवी सम्पदाओं से विभूषित कर देती हैं।
जहाँ उसका इतना महत्त्व और पुण्य प्रभाव है वहाँ कुछ नियम बन्धन और मर्यादायें भी है। जिसका अर्थ है- ‘दो प्रहरों के सन्धिकाल में की गयी उपासना’ अर्थात् गायत्री उपासना के परिणाम सुनिश्चित करने के लिए नियमबद्ध जप, उपासना भी आवश्यक है। आज की परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि हर किसी को प्रातः सायं का समय जप के लिए मिल जाये यह आवश्यक नहीं। रात को ड्यूटी करने वालों, महिलाओं, देर तक बैठने की जिनकी स्थिति नहीं उनके लिए नियमित उपासना की सुविधा कैसे हो सकती है? इसका अर्थ हुआ कि ऐसे लोगों का माँ के अनुग्रह से वंचित रहना। मनीषियों ने उस कठिनाई के समाधान के लिये मंत्र लेखन साधना का मार्ग निकाला। जिन्हंद वेश- भूषा, आजीविका के बन्धनों के कारण या ऐसे ही किन्हीं अपरिहार्य कारणों से जप की व्यवस्था न हो सके वे गायत्री मंत्र लेखन अपना कर आत्म कल्याण का मार्ग ठीक उसी तरह प्रशस्त कर सकते हैं। इसके लिए पृथक् उपासना गृह, वेश- भूषा स्थान वाली मर्यादाओं में भी छूट रखी गयी है। पवित्रता के आधार का परित्याग तो नहीं किया जा सकता पर स्वच्छता पूर्वक कहीं भी किसी भी समय बैठकर कोई भी मंत्र लेखन साधना वैसी ही शास्त्र सम्मत और फलप्रद बताई गयी है।
मानवो लभते सिद्धि कारणाद्विजपस्यवे ।।
जपनो मन्त्र लेखस्य महत्वं तु विशिष्यते ॥
अर्थात्- जप करने से मनुष्यों को सिद्धि प्राप्त होती है किन्तु जप से भी मन्त्र लेखन का विशेष महत्त्व है।
यज्ञात्प्राण स्थितिमंत्रे जपन्मंत्रस्यजागृति ।।
अति प्रकाशवांश्चैव, मन्त्रोभवतिलेखनात् ॥
अर्थात्- यज्ञ से मन्त्रों में प्राण आते हैं, जप से मंत्र जाग्रत होता है और लेखन से मंत्र की शक्ति आत्मा में प्रकाशित होती है।
सिद्धेमार्गो अनेकस्यु साधनायास्तु सिद्धये ।।
मंत्रणांलेखनं चैव तत्र श्रेष्ठं विशेषतः ॥
साधना से सिद्धि के अनेक मार्ग हैं इसमें भी मंत्र लेखन ही विशेष श्रेष्ठ है।
श्रद्धया यदि वै शुद्धं क्रियतंमंत्र लेखनम् ।।
फल तहिं भवेतस्यजपत् दशाः गुणाधिकम् ॥
अर्थ- यदि श्रद्धा पूर्वक शुद्ध मंत्र लिखे जायें तो जप से दस गुना फल देते हैं।
गायत्री मंत्र लेखस्य विधानाच्छ्रद्धयाऽन्वहम् ।।
सम्प्रसीदति गायत्री वेद माता हि साधके ॥
प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक गायत्री मंत्र के लिखने से वेदमाता गायत्री साधक पर अति प्रसन्न होती है।
उपर्युक्त शास्त्र वचनों के आधार पर गायत्री मंत्र लेखन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण साधना विधि है। इसमें स्त्री , पुरूष, बाल, वृद्ध सभी प्रसन्नतापूर्वक भाग ले सकते हैं। इसमें कोई विशेष प्रतिबन्ध नहीं है। जब भी समय मिले, मंत्र लेखन किया जा सकता है। जप की अपेक्षा मंत्र लेखन पुण्य दस गुना अधिक माना गया है। इस प्रकार २४ हजार जप के अनुष्ठान की भाँति ही २४ सौ मंत्र लेखन का एक अनुष्ठान माना जाता है।
मंत्र जप के समय हाथ की माला के मनके फिराने वाली उँगलियाँ और उच्चारण करने वाली जिह्वा ही प्रयुक्त होती है किन्तु मन्त्र लेखन में हाथ, आँख, मन, मस्तिष्क आदि अवयव व्यस्त रहने से चित्त वृत्तियाँ अधिक एकाग्र रहती हैं तथा मन भटकने की सम्भावनायें अपेक्षाकृत कम होती हैं। मन को वश में करके चित्त को एकाग्र करके मंत्रलेखन किया जाय तो अनुपम लाभ मिलता है। इसी कारण मंत्र लेखन को बहुत महत्त्व मिला है।
मंत्र लेखन के लिए गायत्री तपोभूमि, मथुरा द्वारा १००० मंत्र लेखन की सुन्दर पुस्तिकाएँ विशेष रूप से तैयार कराई गयी हैं। सस्ते मूल्य की यह पुस्तिकायें वहाँ से मँगाई जा सकती हैं। या फिर बाजार में मिलने वाली कापियों का प्रयोग भी किया जा सकता है। गायत्री तपोभूमि से एक या दो पुस्तिकायें मँगाने में डाक- खर्च अधिक लगता है। अतएव ऐसे कई लोग मिलकर इकट्ठे पच्चीस- पचास प्रतियाँ मँगायें। यज्ञायोजकों को भी अपेक्षित संख्या में मंत्र लेखन पुस्तिकायें स्वयं मँगाकर मंत्र साधना के इच्छुक भागीदारों को वितरित करनी चाहिए।
मंत्र लिखी पुस्तिकायें प्राण प्रतिष्ठा हुई मूर्ति की तरह हैं जिन्हें किसी भी अपवित्र स्थान में नहीं फेंक देना चाहिए। यह न केवल श्रद्धा का अपमान है, अपितु एक प्रकार की उपेक्षा भी है। प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियों को भी विधिवत् पवित्र तीर्थ स्थलों में प्रवाहित करने का विधान है। वही सम्मान इन पुस्तिकाओं को दिया जाता है। जिनके यहाँ इन्हें स्थापित करने के उपयुक्त पवित्र स्थान न हों यह पुस्तिकायें गायत्री तपोभूमि मथुरा भेज देना चाहिए। वहाँ इन मंत्र लेखनों का प्रतिदिन प्रातः सायं विधिवत् आरती पूजन सम्पन्न करने की व्यवस्था है।
मंत्र लेखन साधना में जप की अपेक्षा कुछ सुविधा रहती है। इसमें षट्कर्म आदि नहीं करने पड़ते। किये जायें तो विशेष लाभ होता है, किन्तु किसी भी स्वच्छ स्थान पर हाथ मुँह धोकर, धरती पर तखत या मेज- कुर्सी पर बैठ कर भी मंत्र लेखन का क्रम चलाया जा सकता है। स्थूल रूप कुछ भी बने पर किया जाना चाहिए परिपूर्ण श्रद्धा के साथ। पूजा स्थली पर आसन पर बैठ कर मंत्र लेखन जप की तरह करना सबसे अच्छा है। मंत्र लेखन की कॉपी की तरह यदि उस कार्य के लिए कलम भी पूज उपकरण की तरह अलग रखी जाय तो अच्छा है। सामान्य क्रम भी लाभकारी तो होता ही है।
संक्षेप में गायत्री मंत्र लेखन के नियम निम्न प्रकार हैं-
१. गायत्री मंत्र लेखन करते समय गायत्री मंत्र के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।
२. मंत्र लेखन में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।
३. स्पष्ट व शुद्ध मंत्र लेखन करना चाहिए।
४. मंत्र लेखन पुस्तिका को स्वच्छता में रखना चाहिए। साथ ही उपयुक्त स्थान पर ही रखना चाहिए।
५. मंत्र लेखन किसी भी समय किसी भी स्थिति में व्यस्त एवं अस्वस्थ व्यक्ति भी कर सकते हैं।
गायत्री मंत्र लेखन से लाभ-
१. मंत्र् लेखन में हाथ, मन, आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं। जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है।
२. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की तन्मयता पैदा होती है इससे मन की उच्छृंखलता समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है।
३. मंत्र के माध्यम से ईश्वर के असंख्य आघात होने से मन पर चिर स्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है।
४. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है।
५. मानसिक अशान्ति चिन्तायें मिट कर शान्ति का द्वार स्थायी रूप से खुलता है।
६. मंत्र योग का यह प्रकार मंत्र जप की अपेक्षा सुगम है। इससे मंत्र सिद्धि में अग्रसर होने में सफलता मिलती है।
७. इससे ध्यान करने का अभ्यास सुगम हो जाता है।
८. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है।
साधारण कापी और साधारण कलम स्याही से गायत्री मंत्र लिखने का नियम उसी प्रकार बनाया जा सकता है जैसा कि दैनिक जप एवं अनुष्ठान का व्रत लिया जाता है। सरलता यह है कि नियत समय पर- नियत मात्रा में करने का उसमें बन्धन नहीं है और न यही नियम है कि इसे स्नान करने के उपरान्त ही किया जाय। इन सरलताओं के कारण कोई भी व्यक्ति अत्यन्त सरलता पूर्वक इस साधना को करता रह सकता है।
यों विशिष्टता का समावेश तो हर कार्य में किया जा सकता है। भोजन करना यों एक दैनिक जीवन की सामान्य क्रिया है पर यदि उसी में उच्च स्तरीय उत्कृष्टता का समावेश कर दिया जाय तो पिपल्लाद- कणाद आदि की तरह उसे भी एक तप साधन बनाया जा सकता है और आहार साधना करते रहने भर से भी उच्च मन, उच्च अन्तःकरण प्राप्त करते हुए आत्मिक प्रगति की उच्चतम स्थिति तक पहुँचा जा सकता है। ब्रह्मचर्य का स्तर जब जननेन्द्रिय संयम से ऊँचा उठकर नेत्र और मस्तिष्क क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो जाता है तो वह साधना भी परब्रह्म के मिलन तक पहुँचा देती है। यदि कुदृष्टि और अश्लील चिन्तन मिट सके और बौद्धिक एवं भावनात्मक ब्रह्मचर्य की अन्तःकरणों में प्राण प्रतिष्ठा हो सके तो वह तप भी परम सिद्धिदायक हो सकता है। ठीक इसी प्रकार गायत्री मंत्र लेखन में भी उत्कृष्टता का समावेश हो सकता है और उसे भी सामान्य से असामान्य बनाकर असाधारण फलदायक बनाया जा सकता है।
अनार की लकड़ी से बनी कलम का, रक्त चंदन में केशर मिलाकर बनाई गई स्याही का, भोजपत्र अथवा हाथ के बने कागज का विशेष महत्त्व माना गया है। स्याही में गंगाजल का प्रयोग हो। लिखते समय मौन रहा जाय। पद्मासन या सिद्धासन पर बैठा जाय। स्नान एवं शुद्ध वस्त्र धारण का ध्यान रखा जाय। दिन में लिखना हो तो सूर्य के सम्मुख, रात्रि में लिखना हो तो गौर घृत से जलने वाले दीपक के प्रकाश में लिखा जाय। उपवास- ब्रह्मचर्य आदि तपश्चर्याओं का समावेश हो। ऐसे- ऐसे विशेष नियमों का पालन करते हुए मंत्र लेखन की साधना भी तप साधनों के साथ किये गये पुरश्चरणों की गणना में ही आते हैं।
यह उच्चस्तरीय विधान की चर्चा हुई। प्रसंग सर्व- साधारण के लिए अति सरल साधना के रूप में गायत्री मंत्र लेखन का था। उस कसौटी पर इसे सर्वसुलभ कहा जा सकता है। इसमें किसी प्रकार का प्रावधान न होना एक बहुत बड़ी बात है। कई व्यक्ति उपासना के इच्छुक होते हुए भी स्नान, स्थान, समय, विधान आदि में कठिनाई अनुभव करते हैं और असमंजस के कारण जो कर सकते थे उतना भी नहीं कर पाते। ऐसे लोगों के लिए मंत्र लेखन साधना ही सबसे सुगम और सर्वथा असमंजस रहित सिद्ध होती है। इसे किसी भी सुविधा के समय में किया जा सकता है। शुद्धता का यथा संभव ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए पर वैसा न बन पड़े तो इसमें किसी अशुभ की आशंका की आवश्यकता नहीं है। बीमार लोग उसे चारपाई पर बैठे- बैठे भी करते रह सकते हैं। रोग शय्या पर पड़े- पड़े कितने ही लोग मंत्र लेखन अनुष्ठान पूरे कर लेते हैं और उसके आत्मिक तथा सांसारिक सत्परिणाम प्राप्त करते हैं।
जप साधना में मंत्रोच्चार शुद्ध होना आवश्यक है। अनुष्ठानों में मार्गदर्शक एवं संरक्षक की आवश्यकता पड़ती है। साधना में कही हुई त्रुटियों का निराकरण करने के लिए या तो स्वयं तर्पण मार्जन करना पड़ता है या फिर दोष परिमार्जन का उत्तरदायित्व किसी उपयुक्त संरक्षक पर छोड़ना पड़ता है। इन्हीं कारणों से गायत्री की विशिष्ट एवं सफल साधना के लिए तपस्वी एवं अनुभवी गुरू की तलाश करनी पड़ती है। वह व्यवस्था न बन पड़े तो अभीष्ट सत्परिणाम में भी कमी रह जाती है। मंत्र लेखन में वैसी कोई आवश्यकता नहीं है। उसका शुभारम्भ बिना किसी मार्गदर्शक या गुरू की सहायता के स्वेच्छापूर्वक किया जा सकता है। इसमें नर- नारी, बाल- वृद्ध, रोगी- निरोग, जाति, वंश जैसा कोई बन्धन उन रूढ़िवादी लोगों की दृष्टि से भी नहीं है जो इस महामंत्र पर तरह- तरह के प्रतिबन्ध लगाते हैं। विवेकशीलता की दृष्टि से तो गायत्री मंत्र मनुष्य मात्र का है और उसकी साधना सभी के लिए उपयुक्त है।
उच्चारण की शुद्धता में स्वर तन्त्र का सही होना और किस अक्षर को किस प्रकार बोला जाय यह अभ्यास करना आवश्यक है। दीक्षा में यही शुद्धि कराई जाती है। उच्चारण की शुद्धि का अभ्यास कराना साधना गुरू का उत्तरदायित्व है। उसके लिए उपयुक्त अभ्यासी और अनुभवी गुरू ढूँढ़ना पड़ता है। किन्तु मंत्र लेखन में उस प्रकार की आवश्यकता नहीं है। लेखन में अक्षर शुद्ध हैं या नहीं यह तो ध्यान रखना पड़ता है। इसके अतिरिक्त और कोई झंझट उसमें नहीं है। अक्षरों की अशुद्धि न होने पावे इसके लिए छपी मंत्र लेखन कापियों में ऊपर की पंक्ति सही छपी होती है। उसकी नकल करते चलने में अक्षरों की अशुद्धि की भी आशंका नहीं रह जाती ।।
मंत्र लेखन में सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि उसमें सब ओर से ध्यान एकाग्र रहने की व्यवस्था रहने से अधिक लाभ होता है। जप में केवल जिह्वा का ही उपयोग होता है और यदि माला जपनी है तो उंगलियों को काम करना होता है। ध्यान साथ- साथ न चल रहा हो तो पन इधर- उधर भटकने लगता है ।। किन्तु मंत्र लेखन से सहज ही कई इन्द्रियों का संयम निग्रह बन पड़ता है ।। हाथों से लिखना पड़ता है। आंखें लेखन पर टिकी रहती हैं। मस्तिष्क का उपयोग भी इस क्रिया में होता है। ध्यान न रहेगा तो पंक्तियाँ टेढ़ी एवं अक्षर सघन विरत एवं नीचे- ऊँचे, छोटे- बड़े होने का डर रहेगा। ध्यान न टिकेगा तो मंत्र अशुद्ध लिखा जाने लगेगा। अक्षर कुछ से कुछ बनने लगेंगे। लेखन में सहज ही ध्यान का समावेश अधिक होने लगता है। जप और ध्यान के समन्वय से ही उपासना का समुचित फल मिलने की बात कही गई है। यह प्रयोजन मंत्र लिखने में अनायास ही पूरा होता रहता है।
मंत्र लेखन की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जिस स्थान पर यह कापियाँ स्थापित की जाती हैं जहाँ इनका नित्य पूजन होता है। वह स्थान एक विशेष आध्यात्म- शक्ति से सम्पन्न बना जाता है। गायत्री तपोभूमि में १२५ करोड़ हस्तलिखित गायत्री मन्त्र रखे हुए हैं, यह हजारों वर्षों तक सुसज्जित रूप से सुरक्षित रखे रहेंगे। इनका नित्य पूजन होता रहेगा। इन मंत्रों को प्रति वर्ष लाखों तीर्थ यात्री देखते और प्रकाश एवं प्रेरणा प्राप्त करते रहेंगे। इन मन्त्र लेखन कापियों के पन्नों में साधकों की आंतरिक श्रद्धा एवं तपस्या लिपटी रहती है। इसलिए वे कागज सूक्ष्म सतोगुणी शक्ति सम्पन्न एवं प्रकाश पुंज बनकर जहाँ उन्हें स्थापित किया जाय, उस स्थान के वातावरण को बड़ा ही प्रभावशाली एवं शुद्ध बनाते हैं। उस स्थापना स्थान में प्रवेश करने वाला, निवास करने वाला व्यक्ति तुरन्त ही एक असाधारण शक्ति उसी प्रकार प्राप्त करता है जैसे गर्मी से सताया हुआ व्यक्ति बर्फखाने में घुसकर और सर्दी से काँपता हुआ व्यक्ति जलती हुई भट्ठी के पास बैठकर प्रसन्न होता है।
गायत्री तपोभूमि में जो लोग गये हैं और वहाँ ठहरे हैं, उन्हें वहाँ के सूक्ष्म वातावरण की पवित्रता एवं दिव्य प्रभाव शक्ति का अनुभव निश्चय ही होता है। इसका बहुत कुछ श्रेय १२५ करोड़ गायत्री मंत्र लेखन की स्थापना को है। साधारण जप से भी लाभ है पर मंत्र लेखन की यह विशेषता सब से बड़ी है कि जहाँ उनकी स्थापना की जाती है, उस स्थान का वातावरण चिरकाल तक आत्म- शक्ति से प्रभावित रहता है और उसका उपयोग अनेकों लोगों की मानसिक स्थिति को सुधारने में होता रहता है।
गायत्री मंत्र लेखन के नियम बहुत सरल हैं, इसमें किसी प्रकार का कोई बन्धन या प्रतिबन्ध नहीं है। कोई भी व्यक्ति, बाल, वृद्ध, स्त्री - पुरूष इस पुनीत साधना को कर सकता है। स्कूल साइज की कापी पर स्याही से शुद्धता पूर्वक अपनी सुविधा के समय में मंत्र लिखे जा सकते हैं। कम से कम २४०० मंत्र लिखने चाहिए। अधिक कितने ही लिखे जा सकते हैं। प्रतिदिन नियत समय और नियत संख्या में लेखन कार्य नियमित रूप से किया जाय तो अधिक उत्तम है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
यही शुद्ध मंत्र लिखना चाहिए।
यदि २४०० ही मंत्र लिखने हैं तो पूरे होने पर और यदि मंत्र लेखन साधना को नियमित चलाना है तो आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों तक जितने मंत्र लिख जायें उतने मथुरा भेज देने चाहिए। मथुरा में गायत्री संस्था की जो दिव्य गायत्री तपोभूमि है उसमें हस्तलिखित मन्त्रों की गायत्री मन्दिर में स्थापना कर दी जाती है और उनका नित्य पूजन होता रहता है। इनका दर्शन करके प्रतिवर्ष लाखों यात्री प्रसन्नता तथा प्रेरणा प्राप्त करते हैं।