Books - गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि
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Language: HINDI
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गुरू वन्दना
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गुरू वन्दना
गुरू परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरू के रूप में पूज्य गुरूदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरू आह्वान निम्न मंत्रोच्चार के साथ करें ।।
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूदेव महेश्वरः ।।
गुरूदेव परब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः ॥
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।।
तत्पदंदर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवै नमः ॥
ॐश्री गुरूवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि ।।
माँ गायत्री व गुरूसत्ता के आह्वान व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापना हेतु पंचोपचार किये जाते हैं। इन्हें विधिवत् सम्पन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प धूप- दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक- एक करके छोटी- तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है नम्रता- सहृदयता। अक्षत का अर्थ है- प्रसन्नता, आंतरिक उल्लास। धूप- दीप का अर्थ है सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य- परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है- स्वभाव व व्यवहार में मधुरता, शालीनता का समावेश। ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है।
जप
गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाय। अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम। होंठ, कण्ठ मुख हिलते रहें या आवाज इतनी मंद हो कि दूसरे उच्चारण को सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय- कल्मषों, कुसंस्कारों को धोने के लिए पूरी की जाती है।
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाये एवं भावना की जाये कि निरन्तर हम पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है। पंचकोषों का विनियोग करने के पश्चात् एवं जप करने से पूर्व चित्त को प्रमाद, उदासीनता, उद्वेग, अस्थिरता आदि दोषों से बचने के लिए सावधान किया जाता है। यदि ऐसी स्थिति कभी आने लगे तो उसे रोकने और हटाने के लिए सजग रहना चाहिए। चित्त वृत्तियों के घट जाने, शिथिल पड़ जाने, चंचल या उद्विग्न रहने से जप का प्रयोजन सफल नहीं होता है। प्रेरणा और ग्रहण शक्ति के बिना जप का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए सावधान हो जाना चाहिए कि चित्त में अवसाद न आने पावे और साधना में प्रीति उन्नति मात्र में बनी रहे।
अब तुलसी की माला दाहिने हाथ में लेकर जप आरम्भ करना चाहिए। तर्जनी उँगली को अलग रखना चाहिए। अनामिका, मध्यमा और अंगूठे की सहायता से जप किया जाता है। एक माला पूरी हो जाने पर मालाको मस्तक से लगाकर प्रणाम करना चाहिए और बीच की केन्द्र मणी सुमेरू को छोड़कर दूसरा क्रम आरंभ करना चाहिए।लगातार केन्द्रमणि को भी जपते हुए सुमेरू का उल्लंघन करते हुए जप करना ठीक नहीं सुमेरू को मस्तक पर लगाने के उपरान्त प्रारम्भ वाला दाना फेरना आरम्भ कर देना चाहिए। चाहिए। कई जप करने वाले सुमेरू पर से माला को वापिस लौटा देते हैं और एक बार सीधी दूसरी बार उलटी इस क्रम से जपते रहते हैं पर वह क्रम ठीक नहीं। जैसे रस्सी को एक बार सीधी बाँटा जाय और दूसरी बार उलटी बाँटा जाय तो उसकी ऐंठ एक बार लगती है दूसरी बार खुल जाती है यह प्रयत्न बहुत देर जारी रखा जाय तो भी रस्सी बँटने का उद्देश्य सफल नहीं होता। अधिक माला जितनी हो सके उतनी ठीक, पर एक माला तो कम से कम नित्य जपनी चाहिए। इस जप को निरन्तर जारी रखना चाहिए क्योंकि निरन्तर प्रयत्न से साधना में सफलता मिलती है वह कभी करने कभी न करने की अनियमितता में नहीं मिल सकती। जप के समय चित्त को प्रयोजनीय विषय पर लगाये रखने के लिए ध्यान करना आवश्यक है। चित्त के एक स्थान पर केन्द्रीभूत होने से एक विशिष्ट आध्यात्मिक शक्ति का उद्भव होता है। ध्यान द्वारा मानसिक शक्तियों पर एक स्थान पर केन्द्रित किया जाता है। इससे चित्त वृत्तियों का निरोध होता है, आत्म निग्रह होता है और मंत्र पर काबू प्राप्त किया जाता है। मनः शास्त्र के ज्ञाता जानते हैं कि विचारों में एक चुम्बकत्व होता है, एक प्रकार के विचार अपनी जाति के अन्य विचारों को आकाश मार्ग में से खींचते हैं और अपने पास उसी जाति के विचारों का एक भारी भण्डार जमा कर लेते हैं। मनुष्य जो कुछ सोचता है उसकी सूक्ष्म तरंगें विश्वव्यापी आकाश (ईथर) तत्व में उत्पन्न होती हैं और सारी पृथ्वी पर फैल जाती हेैं, इनका कभी नाश नहीं होता है वरन् किसी न किसी रूप में उनका अस्तित्व सदा बना रहता है। जब कोई व्यक्ति उसी प्रकार के विचार करता है तो उसकी चुम्बक शक्ति से वे विविध व्यक्तियों द्वारा विविध समयों पर छोड़े हुए विचार आकाश मार्ग में से खिंच- खिंच कर उसके पास जमा होते रहते हैं। इस प्रक्रिया के अनुसार गायत्री साधक को प्राचीनकाल के अनुभवों का लाभ अनायास ही होता रहता है। ध्यान करने वाला मस्तिष्क को एक स्थान पर केन्द्रीभूत करता है तो उसकी चुम्बक शक्ति विशेष रूप से प्रबल हो जाती है और उसके आकर्षण से पूर्ण काल के अनेक साधकों के अनुभव खिंच- खिंच कर जमा होते हैं और उसके ऊपर अध्यात्म धन की वर्षा करके आत्म समृद्धि से सम्पन्न कर देते हैं।
मनुष्य जिस प्रकार के विचार करता है उसी ढाँचे में ढलता है। भृंग और कीट का उच्चारण प्रसिद्ध है ।। भृंग की गुंजार को तन्मयता से सुनने के कारण कीड़े का मस्तिष्क ही नहीं शरीर भी बदल कर भृंग के समान बन जाता है। संगति की महिमा किसी से छिपी नहीं है, जिस प्रकार की विचारधारा के वातावरण के बीच हम रहते हैं उसी प्रकार के हम स्वयं भी बन जाते हैं। ध्यान करते समय जो भाव हमारे मन में होते हैं, उसके अनुसार हमारे मस्तिष्क, शरीर और स्वभाव का निर्माण आरम्भ हो जाता है और कुछ ही दिनों में सचमुच वैसे ही बन जाते हैं। पहले पहल कोई बात मस्तिष्क में आती है कुछ दिनों लगातार मन में घूमते रहने से वह संस्कार की प्रेरणा में वैसी ही क्रिया होने लग जाती है। इस प्रकार विचार केवल विचार न रह कर थोड़े से समय में कार्य बन जाता है।
जप के समय साथ- साथ वेद माता गायत्री का ध्यान करना चाहिए। हृदयाकाश में ज्योति स्वरूप गायत्री की शक्तिमयी किरणोंका अपने अन्दर प्रसार होने की भावना करना एक श्रेष्ठ ध्यान है। अपने हृदय को नील आकाश के समान विस्तृत शून्य लोक मान कर इनमें ऐसी भावना करनी चाहिए कि ज्ञान की ज्योति सूर्य के समान तेज वाली, अंगूठे के बराबर आकार वाली, दीपक की लौ के समान नीचे से मोटी और ऊपर को पतली प्रकाश प्रभा का ध्यान करना चाहिए। जैसे सूर्य या दीपक में से प्रकाश किरणें निकल कर चारों ओर फैलती हैं वैसे ही हृदयाकाश में स्थित ज्ञान ज्योति गायत्री में से ज्ञान शक्ति और समृद्धि प्रदान करने वाली किरणें निकल कर शरीर के समस्त अंग प्रत्यंगों में फैल रही हैं, ऐसा ध्यान करना चाहिए और इस ध्यान के साथ- साथ जप चालू रखना चाहिए।
थोड़े ही दिनों में इस ध्यान के समय साधक को विचित्र अनुभव आने लगते हैं। श्वेत वर्ण की ज्योति में कई रंगों की झांकी होती है। प्रधानतः नील, पीत और रक्त वर्ण की आभा उस ज्योति में तथा किरणों में दृष्टिगोचर होती है। अपने अन्दर जिन तत्वों की वृद्धि होती है उनका आवरण उस ज्योति के ऊपर आता है, फलस्वरूप उसके अन्दर वैसे ही रंग दिखाई देने लगते हैं, आत्म ज्ञान की वृद्धि होने से पीत वर्ण की सम्पन्नता समृद्धि और सौभाग्य की वृद्धि होने से गुलाबी या लाल रंग की छाया होती है। कई बार दो तीन रंग थोड़े करके दिखाई देते हैं और कई बार मिश्रित रंगों की झांकी होती है। उनका कारण उन सभी दिशाओं में प्रगति होना है जिनका प्रतिनिधित्व वे रंग करते हैं। मूल रंग ये तीन ही हैं इनके मिश्रण से अन्य रंग बनते हैं। पीला और नीला मिलने से मिलने से हरा, पीला और लाल मिलने से नारंगी, नीला और लाल मिलने से बैंगनी रंग बनता है। इस मिश्रण की छाया दृष्टिगोचर होने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे अन्दर किन तत्त्वों की वृद्धि हुई है। जैसे हरे रंग की किरणें प्रतिभाषित हो तो पीले और नीले रंग के प्रतिनिधि शशि तथा ज्ञान की मिश्रित अभिवृद्धि का लक्षण समझना चाहिए।
आरंभ में तरह- तरह के रंग तथा हिलती- डुलती, घटती- बढ़ती ज्योति के दर्शन होते हैं यह प्रारम्भिक उतार- चढ़ाव हैं। कालान्तर में जब पूर्णता प्राप्त होती है तो ज्योति का वर्ण शुभ्र होता है और वह निश्चल रहती है ।। उस स्थिरता के साथ समाधि का अनुभव होता है। सांसारिक ज्ञान विलुप्त होने लगता है और साधक अपने अस्त को उस ज्योति में निमग्न- अभिन्न अनुभव करता है उसे लगता है कि मैं स्वयं ही ज्योति स्वरूप हो गया हूँ। इस अभिन्नता को आत्म दर्शन अथवा ईश्वर मिलन भी कह सकते हैं। इन क्षणों में जो अनन्त आध्यात्मिक आनन्द आता है उसकी तुलना ने तो संसार के किसी आनन्द से हो सकती है और न लिख कर बताई जा सकती है वह गूँगे द्वारा खाये हुए गुड़ तरह प्रकट नहीं हो सकती वरन् अनुभव में ही लाई जा सकती है। इस प्रकार आत्मदर्शन करने वाला गायत्री का साधक, भगवान की आद्य शक्तिमय हो जाता है, उसका जीव भाव, ब्रह्म भूत हो जाता है इसे ही ब्रह्म विदीर्ण भी कहते हैं।
समाधि की पूर्णावस्था प्राप्त होने से पूर्व किसी- किसी को पूर्व लक्षण के रूप में उस ज्योति के अन्तर्गत भगवती के अस्तित्व का ,, प्रसन्नता का चिन्ह परिलक्षित होता है। यह शब्द, रूप, रस गंध, स्पर्श, में से कोई एक या कई एक का सम्मिश्रण हो सकता है। किसी को इस हृदयाकाश में दिव्य शब्द अथवा संदेश सुनाई पड़ते हैं, किसी को उनके मंगलमय स्वरूप की झांकी होती है, अथवा विचित्र दृश्य दिखाई पड़ते हैं। किसी को स्वादिष्ट भोजनों जैसा अथवा अन्य किसी प्रकार का रस आता है। किसी को अपने भीतर बाहर चारों और गुलाब, खस, कदम्ब, केतकी आदि की सुगंधियां व्याप्त प्रतीत होती हैं, किसी को स्पर्श, आलिंगन, पुलकन, रोमांच, स्खलन, जैसे अनुभव होते हैं। यह अनुभव साधना की सफलता के प्रतीक अथवा अपने में गायत्री तत्त्व की सुगढ़ स्थिति के चिन्ह हैं। इन अनुभवों का वर्णन विश्वस्त व्यक्तियों के सिवाय हर कि सी से न करना चाहिए।
इस ध्यान युक्त की साधना से योग के अन्तिम चारों चरण सिद्ध होते हैं। अवांछनीय दिशाओं से मन को रोकना ‘प्रत्याहार’ कहलाता है। जब ध्यान में मन लगा तो प्रत्याहार स्वयं ही हो गया है। गायत्री का ज्योतिर्मय ध्यान एक श्रेष्ठ ध्यान है ।। इस ध्यान से सूक्ष्म तत्त्वों की अपने में धारणा होती है और उस धारणा के फलस्वरूप समाधि की सफलता मिलती है। राजयोग की आरंभिक चार- चार सीढ़ियों पर इससे पूर्व ही साधक का पदार्पण हो जाता है। यम- नियम, संयम, सदाचार और् उद्यता के लिए गायत्री की प्रेरणा स्वतः होती है। आसन और प्राणायाम का पंच कोषों में प्रधान स्थान हैं ही। इस प्रकार इस ब्रह्म सन्ध्या में राजयोग के आठ अंगों की यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की साधना एक साथ होती चलती है और राजयोग का, विषयों का पाठ्यक्रम ब्रह्म सन्ध्या की छोटी से साधना से ही पूरा हो जाता है। नित्य प्रति नियमानुसार ब्रह्म संध्या करने वाले एक प्रकार के योग साधक ही हैं और साधना के पकने पर उन्हें समुचित फल प्राप्त होता है।
गुरू परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरू के रूप में पूज्य गुरूदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरू आह्वान निम्न मंत्रोच्चार के साथ करें ।।
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूदेव महेश्वरः ।।
गुरूदेव परब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः ॥
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।।
तत्पदंदर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवै नमः ॥
ॐश्री गुरूवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि ।।
माँ गायत्री व गुरूसत्ता के आह्वान व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापना हेतु पंचोपचार किये जाते हैं। इन्हें विधिवत् सम्पन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प धूप- दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक- एक करके छोटी- तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है नम्रता- सहृदयता। अक्षत का अर्थ है- प्रसन्नता, आंतरिक उल्लास। धूप- दीप का अर्थ है सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य- परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है- स्वभाव व व्यवहार में मधुरता, शालीनता का समावेश। ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है।
जप
गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाय। अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम। होंठ, कण्ठ मुख हिलते रहें या आवाज इतनी मंद हो कि दूसरे उच्चारण को सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय- कल्मषों, कुसंस्कारों को धोने के लिए पूरी की जाती है।
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाये एवं भावना की जाये कि निरन्तर हम पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है। पंचकोषों का विनियोग करने के पश्चात् एवं जप करने से पूर्व चित्त को प्रमाद, उदासीनता, उद्वेग, अस्थिरता आदि दोषों से बचने के लिए सावधान किया जाता है। यदि ऐसी स्थिति कभी आने लगे तो उसे रोकने और हटाने के लिए सजग रहना चाहिए। चित्त वृत्तियों के घट जाने, शिथिल पड़ जाने, चंचल या उद्विग्न रहने से जप का प्रयोजन सफल नहीं होता है। प्रेरणा और ग्रहण शक्ति के बिना जप का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए सावधान हो जाना चाहिए कि चित्त में अवसाद न आने पावे और साधना में प्रीति उन्नति मात्र में बनी रहे।
अब तुलसी की माला दाहिने हाथ में लेकर जप आरम्भ करना चाहिए। तर्जनी उँगली को अलग रखना चाहिए। अनामिका, मध्यमा और अंगूठे की सहायता से जप किया जाता है। एक माला पूरी हो जाने पर मालाको मस्तक से लगाकर प्रणाम करना चाहिए और बीच की केन्द्र मणी सुमेरू को छोड़कर दूसरा क्रम आरंभ करना चाहिए।लगातार केन्द्रमणि को भी जपते हुए सुमेरू का उल्लंघन करते हुए जप करना ठीक नहीं सुमेरू को मस्तक पर लगाने के उपरान्त प्रारम्भ वाला दाना फेरना आरम्भ कर देना चाहिए। चाहिए। कई जप करने वाले सुमेरू पर से माला को वापिस लौटा देते हैं और एक बार सीधी दूसरी बार उलटी इस क्रम से जपते रहते हैं पर वह क्रम ठीक नहीं। जैसे रस्सी को एक बार सीधी बाँटा जाय और दूसरी बार उलटी बाँटा जाय तो उसकी ऐंठ एक बार लगती है दूसरी बार खुल जाती है यह प्रयत्न बहुत देर जारी रखा जाय तो भी रस्सी बँटने का उद्देश्य सफल नहीं होता। अधिक माला जितनी हो सके उतनी ठीक, पर एक माला तो कम से कम नित्य जपनी चाहिए। इस जप को निरन्तर जारी रखना चाहिए क्योंकि निरन्तर प्रयत्न से साधना में सफलता मिलती है वह कभी करने कभी न करने की अनियमितता में नहीं मिल सकती। जप के समय चित्त को प्रयोजनीय विषय पर लगाये रखने के लिए ध्यान करना आवश्यक है। चित्त के एक स्थान पर केन्द्रीभूत होने से एक विशिष्ट आध्यात्मिक शक्ति का उद्भव होता है। ध्यान द्वारा मानसिक शक्तियों पर एक स्थान पर केन्द्रित किया जाता है। इससे चित्त वृत्तियों का निरोध होता है, आत्म निग्रह होता है और मंत्र पर काबू प्राप्त किया जाता है। मनः शास्त्र के ज्ञाता जानते हैं कि विचारों में एक चुम्बकत्व होता है, एक प्रकार के विचार अपनी जाति के अन्य विचारों को आकाश मार्ग में से खींचते हैं और अपने पास उसी जाति के विचारों का एक भारी भण्डार जमा कर लेते हैं। मनुष्य जो कुछ सोचता है उसकी सूक्ष्म तरंगें विश्वव्यापी आकाश (ईथर) तत्व में उत्पन्न होती हैं और सारी पृथ्वी पर फैल जाती हेैं, इनका कभी नाश नहीं होता है वरन् किसी न किसी रूप में उनका अस्तित्व सदा बना रहता है। जब कोई व्यक्ति उसी प्रकार के विचार करता है तो उसकी चुम्बक शक्ति से वे विविध व्यक्तियों द्वारा विविध समयों पर छोड़े हुए विचार आकाश मार्ग में से खिंच- खिंच कर उसके पास जमा होते रहते हैं। इस प्रक्रिया के अनुसार गायत्री साधक को प्राचीनकाल के अनुभवों का लाभ अनायास ही होता रहता है। ध्यान करने वाला मस्तिष्क को एक स्थान पर केन्द्रीभूत करता है तो उसकी चुम्बक शक्ति विशेष रूप से प्रबल हो जाती है और उसके आकर्षण से पूर्ण काल के अनेक साधकों के अनुभव खिंच- खिंच कर जमा होते हैं और उसके ऊपर अध्यात्म धन की वर्षा करके आत्म समृद्धि से सम्पन्न कर देते हैं।
मनुष्य जिस प्रकार के विचार करता है उसी ढाँचे में ढलता है। भृंग और कीट का उच्चारण प्रसिद्ध है ।। भृंग की गुंजार को तन्मयता से सुनने के कारण कीड़े का मस्तिष्क ही नहीं शरीर भी बदल कर भृंग के समान बन जाता है। संगति की महिमा किसी से छिपी नहीं है, जिस प्रकार की विचारधारा के वातावरण के बीच हम रहते हैं उसी प्रकार के हम स्वयं भी बन जाते हैं। ध्यान करते समय जो भाव हमारे मन में होते हैं, उसके अनुसार हमारे मस्तिष्क, शरीर और स्वभाव का निर्माण आरम्भ हो जाता है और कुछ ही दिनों में सचमुच वैसे ही बन जाते हैं। पहले पहल कोई बात मस्तिष्क में आती है कुछ दिनों लगातार मन में घूमते रहने से वह संस्कार की प्रेरणा में वैसी ही क्रिया होने लग जाती है। इस प्रकार विचार केवल विचार न रह कर थोड़े से समय में कार्य बन जाता है।
जप के समय साथ- साथ वेद माता गायत्री का ध्यान करना चाहिए। हृदयाकाश में ज्योति स्वरूप गायत्री की शक्तिमयी किरणोंका अपने अन्दर प्रसार होने की भावना करना एक श्रेष्ठ ध्यान है। अपने हृदय को नील आकाश के समान विस्तृत शून्य लोक मान कर इनमें ऐसी भावना करनी चाहिए कि ज्ञान की ज्योति सूर्य के समान तेज वाली, अंगूठे के बराबर आकार वाली, दीपक की लौ के समान नीचे से मोटी और ऊपर को पतली प्रकाश प्रभा का ध्यान करना चाहिए। जैसे सूर्य या दीपक में से प्रकाश किरणें निकल कर चारों ओर फैलती हैं वैसे ही हृदयाकाश में स्थित ज्ञान ज्योति गायत्री में से ज्ञान शक्ति और समृद्धि प्रदान करने वाली किरणें निकल कर शरीर के समस्त अंग प्रत्यंगों में फैल रही हैं, ऐसा ध्यान करना चाहिए और इस ध्यान के साथ- साथ जप चालू रखना चाहिए।
थोड़े ही दिनों में इस ध्यान के समय साधक को विचित्र अनुभव आने लगते हैं। श्वेत वर्ण की ज्योति में कई रंगों की झांकी होती है। प्रधानतः नील, पीत और रक्त वर्ण की आभा उस ज्योति में तथा किरणों में दृष्टिगोचर होती है। अपने अन्दर जिन तत्वों की वृद्धि होती है उनका आवरण उस ज्योति के ऊपर आता है, फलस्वरूप उसके अन्दर वैसे ही रंग दिखाई देने लगते हैं, आत्म ज्ञान की वृद्धि होने से पीत वर्ण की सम्पन्नता समृद्धि और सौभाग्य की वृद्धि होने से गुलाबी या लाल रंग की छाया होती है। कई बार दो तीन रंग थोड़े करके दिखाई देते हैं और कई बार मिश्रित रंगों की झांकी होती है। उनका कारण उन सभी दिशाओं में प्रगति होना है जिनका प्रतिनिधित्व वे रंग करते हैं। मूल रंग ये तीन ही हैं इनके मिश्रण से अन्य रंग बनते हैं। पीला और नीला मिलने से मिलने से हरा, पीला और लाल मिलने से नारंगी, नीला और लाल मिलने से बैंगनी रंग बनता है। इस मिश्रण की छाया दृष्टिगोचर होने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे अन्दर किन तत्त्वों की वृद्धि हुई है। जैसे हरे रंग की किरणें प्रतिभाषित हो तो पीले और नीले रंग के प्रतिनिधि शशि तथा ज्ञान की मिश्रित अभिवृद्धि का लक्षण समझना चाहिए।
आरंभ में तरह- तरह के रंग तथा हिलती- डुलती, घटती- बढ़ती ज्योति के दर्शन होते हैं यह प्रारम्भिक उतार- चढ़ाव हैं। कालान्तर में जब पूर्णता प्राप्त होती है तो ज्योति का वर्ण शुभ्र होता है और वह निश्चल रहती है ।। उस स्थिरता के साथ समाधि का अनुभव होता है। सांसारिक ज्ञान विलुप्त होने लगता है और साधक अपने अस्त को उस ज्योति में निमग्न- अभिन्न अनुभव करता है उसे लगता है कि मैं स्वयं ही ज्योति स्वरूप हो गया हूँ। इस अभिन्नता को आत्म दर्शन अथवा ईश्वर मिलन भी कह सकते हैं। इन क्षणों में जो अनन्त आध्यात्मिक आनन्द आता है उसकी तुलना ने तो संसार के किसी आनन्द से हो सकती है और न लिख कर बताई जा सकती है वह गूँगे द्वारा खाये हुए गुड़ तरह प्रकट नहीं हो सकती वरन् अनुभव में ही लाई जा सकती है। इस प्रकार आत्मदर्शन करने वाला गायत्री का साधक, भगवान की आद्य शक्तिमय हो जाता है, उसका जीव भाव, ब्रह्म भूत हो जाता है इसे ही ब्रह्म विदीर्ण भी कहते हैं।
समाधि की पूर्णावस्था प्राप्त होने से पूर्व किसी- किसी को पूर्व लक्षण के रूप में उस ज्योति के अन्तर्गत भगवती के अस्तित्व का ,, प्रसन्नता का चिन्ह परिलक्षित होता है। यह शब्द, रूप, रस गंध, स्पर्श, में से कोई एक या कई एक का सम्मिश्रण हो सकता है। किसी को इस हृदयाकाश में दिव्य शब्द अथवा संदेश सुनाई पड़ते हैं, किसी को उनके मंगलमय स्वरूप की झांकी होती है, अथवा विचित्र दृश्य दिखाई पड़ते हैं। किसी को स्वादिष्ट भोजनों जैसा अथवा अन्य किसी प्रकार का रस आता है। किसी को अपने भीतर बाहर चारों और गुलाब, खस, कदम्ब, केतकी आदि की सुगंधियां व्याप्त प्रतीत होती हैं, किसी को स्पर्श, आलिंगन, पुलकन, रोमांच, स्खलन, जैसे अनुभव होते हैं। यह अनुभव साधना की सफलता के प्रतीक अथवा अपने में गायत्री तत्त्व की सुगढ़ स्थिति के चिन्ह हैं। इन अनुभवों का वर्णन विश्वस्त व्यक्तियों के सिवाय हर कि सी से न करना चाहिए।
इस ध्यान युक्त की साधना से योग के अन्तिम चारों चरण सिद्ध होते हैं। अवांछनीय दिशाओं से मन को रोकना ‘प्रत्याहार’ कहलाता है। जब ध्यान में मन लगा तो प्रत्याहार स्वयं ही हो गया है। गायत्री का ज्योतिर्मय ध्यान एक श्रेष्ठ ध्यान है ।। इस ध्यान से सूक्ष्म तत्त्वों की अपने में धारणा होती है और उस धारणा के फलस्वरूप समाधि की सफलता मिलती है। राजयोग की आरंभिक चार- चार सीढ़ियों पर इससे पूर्व ही साधक का पदार्पण हो जाता है। यम- नियम, संयम, सदाचार और् उद्यता के लिए गायत्री की प्रेरणा स्वतः होती है। आसन और प्राणायाम का पंच कोषों में प्रधान स्थान हैं ही। इस प्रकार इस ब्रह्म सन्ध्या में राजयोग के आठ अंगों की यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की साधना एक साथ होती चलती है और राजयोग का, विषयों का पाठ्यक्रम ब्रह्म सन्ध्या की छोटी से साधना से ही पूरा हो जाता है। नित्य प्रति नियमानुसार ब्रह्म संध्या करने वाले एक प्रकार के योग साधक ही हैं और साधना के पकने पर उन्हें समुचित फल प्राप्त होता है।