Books - गायत्री उपनिषद्
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Language: HINDI
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वेदमाता गायत्री का स्वरूप
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वेद कहते हैं ज्ञान को। ज्ञान के चार भेद हैं—ऋक्, यजु, साम और अथर्व। कल्याण, प्रभु प्राप्ति, ईश्वर-दर्शन, दिव्यत्व, आत्म शान्ति, ब्रह्म-निर्माण, धर्म भावना, कर्त्तव्य-पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार, उदारता, सेवा आदि ‘ऋक’ के अन्तर्गत आते हैं। पराक्रम, पुरुषार्थ, साहस, वीरता, रक्षा, आक्रमण, नेतृत्व, यश, विजय, पद, प्रतिष्ठा यह सब ‘यजुः’ के अन्तर्गत हैं। क्रीड़ा, विनोद, मनोरंजन, संगीत कला, साहित्य, स्पर्श, इन्द्रियों के स्थूल भोग तथा उन भोगों का चिन्तन, प्रिय कल्पना, खेल, गतिशीलता, रुचि, तृप्ति आदि को ‘साम’ के अन्तर्गत लिया जाता है। धन वैभव, वस्तुओं का संग्रह, शास्त्र, औषधि, अन्न, वस्त्र, धातु, गृह, वाहन आदि सुख-साधनों की सामग्रियां ‘अथर्व’ की परिधि में आती हैं।
किसी भी जीवित प्राणधारी लीजिये, उसकी सूक्ष्म और स्थूल, बाहरी और भीतरी क्रियाओं और कल्पनाओं का गम्भीर एवं वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिये, प्रतीत होगा कि इन्हें चार क्षेत्रों के अन्तर्गत उसकी समस्त चेतना परिभ्रमण कर रही हैं। (1) ऋक्-कल्याण (2) यजु-पौरुष (3) साम-क्रीड़ा (4) अथर्व-अर्थ-इन चार दिशाओं के अतिरिक्त प्राणियों की ज्ञान-धारा और किसी ओर प्रवाहित नहीं होती। ऋक् को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। यही चार ब्रह्माजी के मुख हैं। ब्रह्मा को चतुर्मुख इसलिए कहा गया है कि वे एकमुख होते हुए भी चार प्रकार की ज्ञान-धारा का निष्क्रमण करते हैं। वेद शब्द का अर्थ है—‘ज्ञान’ इस प्रकार वह एक है। परन्तु एक होते हुए भी वह प्राणियों के अन्तःकरण में चार प्रकार का दिखाई देता है। इसलिए एक वेद को सुविधा के लिए चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। भगवान् विष्णु की चार भुजायें भी यही हैं। इन चार विभागों को स्वेच्छापूर्वक करने के लिए चार आश्रम और चार वर्णों की व्यवस्था की गई है।
यह चारों प्रकार के ज्ञान उस चैतन्य शक्ति के ही प्रस्फुरण हैं जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने उत्पन्न की और जिसे शास्त्रकारों ने गायत्री नाम से सम्बोधित किया है। इस प्रकार चार वेदों की माता गायत्री हुई। इसी से उसे वेदमाता भी कहा जाता है। जिस प्रकार जल तत्व को बर्फ, भाप (बादल, ओस, कुहरा आदि), वायु (हाइड्रोजन ऑक्सीजन) तथा पतले पानी के चार रूपों में देखा जाता है जिस प्रकार अग्नि-तत्व को ज्वलन, गर्मी, प्रकाश तथा गति के रूप में देखा जाता है उसी प्रकार एक ‘ज्ञान-गायत्री’ के चार वेदों के चार रूपों में दर्शन होते हैं। गायत्री माता है तो चार वेद उसके पुत्र हैं।
यह तो हुआ सूक्ष्म गायत्री का, सूक्ष्म वेदमाता का स्वरूप। अब उसके स्थूल रूप पर विचार करेंगे। ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पूर्व चौबीस अक्षर वाले गायत्री मन्त्र की रचना की। इस एक मन्त्र के एक-एक अक्षर में सूक्ष्म तत्व आधारित किये गये हैं जिनके पल्लवित होने पर चारों वेदों की शाखा-प्रशाखायें तथा त्रुटियां उद्भूत हो गईं। एक वट बीज के गर्भ में महान् वट वृक्ष छिपा होता है। जब यह बीज के रूप में उगता है, वृक्ष के रूप में बड़ा होता है तो उसमें असंख्य शाखायें, टहनियां, पत्ते, फूल, फल लद जाते हैं। इन सब का इतना बड़ा विस्तार होता है-जो उस मूल वट बीज की अपेक्षा करोड़ों-अरबों गुना बड़ा होता है। गायत्री के चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं, जो प्रस्फुटित होकर वेदों के महाविस्तार के रूप में अवस्थित हो गये हैं।
भारतीय दार्शनिक मान्यता है कि अनादि परमात्मा तत्व ने, ब्रह्मा से यह सब कुछ उत्पन्न किया। सृष्टि उत्पन्न का विचार उठते ही ब्रह्मा में एक स्फुरणा उत्पन्न हुई, जिसका नाम है—शक्ति! शक्ति के द्वारा दो प्रकार की सृष्टि हुई—एक जड़ दूसरी चैतन्य। जड़ सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति प्रकृति और चैतन्य सृष्टि को उत्पन्न करने वाली शक्ति का नाम सावित्री है।
जड़ चेतन सृष्टि के निर्माण में ब्रह्माजी की दो शक्तियां काम कर रही हैं—(1) संकल्प शक्ति (2) परमाणु शक्ति। इन दोनों में प्रथम संकल्प शक्ति की आवश्यकता हुई, क्योंकि बिना उसके चैतन्य न आविर्भाव नहीं होता और बिना चैतन्य के परमाणु का उपयोग किसलिये होगा। अचैतन्य सृष्टि तो अपने में अचैतन्य थी क्योंकि न तो उसका किसी को ज्ञान होता और न उसका कोई उपयोग होता है। ‘चैतन्य’ के प्रकटीकरण की सुविधा के लिए उसकी साधन-सामग्री के रूप में ‘जड़’ का उपयोग होता है।
इस चेतना, इच्छा, स्फुरणा या शक्ति को ही ब्रह्म पत्नी कहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म एक से दो हो गया। अब उसे लक्ष्मीनारायण, सीताराम, राधेश्याम, उमा-महेश, शक्ति-शिव, माया-ब्रह्म, प्रकृति-परमेश्वर आदि नामों से पुकारने लगे।
इस शक्ति के द्वारा अनेक पदार्थों तथा प्राणियों का निर्माण होना था, इसलिये उसे भी तीन भोगों में अपने को विभाजित कर देना पड़ा ताकि अनेक प्रकार से सम्मिश्रण तैयार हो सके और विविध गुण, कर्म, स्वभाव वाले जड़, चेतन पदार्थ बन सकें। ब्रह्म शक्ति के यह तीन टुकड़े—(1) सत्, (2) रज, (3) तम। इन तीन नामों से पुकारे जाते हैं। सत् का अर्थ है—ईश्वर का दिव्य तत्व। तम का अर्थ है—निर्जीव पदार्थों में परमाणुओं का अस्तित्व। रज का अर्थ है—जड़ पदार्थों और विपरीत दिव्य तत्व के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई आनन्ददायक चैतन्यता, यह तीन तत्व स्थूल सृष्टि के मूल कारण हैं। इनके उपरान्त स्थूल उपादान के रूप में मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि, आकाश—ये पांच स्थूल तत्व और उत्पन्न हुये। इन तत्वों के परमाणुओं तथा उनकी शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तन्मात्राओं द्वारा दृश्य सृष्टि का सारा कार्य चलता है। प्रकृति के दो भाग हैं—सूक्ष्म प्रकृति जो शक्ति प्रवाह के रूप में, प्राण संचार के रूप में कार्य करती है। वह सत्, रज, तममयी है। स्थूल प्रकृति जिससे दृश्य पदार्थों का निर्माण एवं उपयोग होता है, परमाणु मयी है। यह मिट्टी, पानी, हवा आदि स्थूल पंच तत्वों के आधार पर अपनी गति विधि जारी रखती है।
उपरोक्त पंक्तियों से पाठक समझ गये होंगे कि पहले एक ब्रह्म था, उसकी स्फुरणा से आदि शक्ति का आविर्भाव हुआ। इस आदि शक्ति का नाम ही गायत्री है। जैसे ब्रह्म ने अपने तीन भाग कर लिये—(1) सत—जिसे ‘ह्रीं’ या सरस्वती कहते हैं, (2) रज—जिसे ‘श्रीं’ या लक्ष्मी कहते हैं, (3) तम—जिसे ‘क्लीं’ या काली कहते हैं। वस्तुतः सत् और तम दो ही विभाग हुए थे, इन दोनों के मिलने से जो धारा उत्पन्न हुई वह रज कहलाती है। जैसे गंगा, यमुना जहां मिलती हैं, वहां उनकी मिश्रित धारा को सरस्वती कहते हैं। सरस्वती वैसे कोई पृथक नदी नहीं है। जैसे इन दो नदियों के मिलने से सरस्वती हुई वैसे ही सत् और तम के योग से रज उत्पन्न हुआ और यह त्रिधा प्रकृति कहलाई।
अद्वैतवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद का बहुत झगड़ा सुना जाता है, वस्तुतः यह समझने का अन्तर मात्र है। ब्रह्म, जीव, प्रकृति यह तीनों ही अस्तित्व में हैं। पहले एक ब्रह्म था यह ठीक है, इसलिये अद्वैतवाद भी ठीक है। पीछे ब्रह्म और शक्ति (प्रकृति) दो हो गये, इसलिये द्वैतवाद भी ठीक है। प्रकृति और परमेश्वर के सम्पर्क से भी रसानुभूति और चैतन्यता मिश्रित रज सत्ता उत्पन्न हुई, वह जीव कहलाई। इस प्रकार त्रैतवाद भी ठीक है। मुक्ति होने पर जीव सत्ता नष्ट हो जाती है। इससे भी स्पष्ट है कि जीवधारी की जो वर्तमान सत्ता मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के ऊपर आधारित है, एक मिश्रण मात्र है।
तत्व-दर्शन के गम्भीर विषय में प्रवेश करके आत्मा के सूक्ष्म विषयों पर प्रकाश डालने का यहां अवसर नहीं है। इन पंक्तियों में तो स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का भेद बताना था, क्योंकि विज्ञान के दो भाग यहीं से होते हैं, मनुष्यों की द्विधा प्रकृति यहीं से बनती है। पंच-तत्वों द्वारा काम करने वाली स्थूल प्रकृति का अन्वेषण करने वाले मनुष्य भौतिक विज्ञानी कहलाते हैं। उन्होंने अपने बुद्धि बल से पंच तत्वों के भेद-उपभेदों को जानकर उनसे अनेक लाभदायक साधन प्राप्त किये। रसायन, कृषि, विद्युत, वाष्प, शिल्प, संगीत, भाषा, साहित्य, वाहन, गृह-निर्माण, चिकित्सा, शासन, खगोल विद्या, शास्त्र, अस्त्र, दर्शन, भू-परिशोध आदि अनेक प्रकार के सुख-साध्य खोज निकाले और रेल, मोटर, तार, डाक, रेडियो, टेलीविजन, फोटो आदि विविध वस्तुयें बनाने के बड़े-बड़े यन्त्र निर्माण किये। धन, सुख सुविधा और आराम के साधन सुलभ हुए। इस मार्ग से जो लाभ मिलता है उसे शास्त्रीय भाषा में ‘प्रेय’ या ‘भोग’ कहते हैं। यह विज्ञान भौतिक विज्ञान कहलाता है। यह स्थूल प्रकृति के उपयोग की विद्या है।
सूक्ष्म प्रकृति वह है, जो आद्य शक्ति गायत्री से उत्पन्न होकर सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा में बंटती है। यह सर्वव्यापिनी शक्ति-निर्झरिणी पंच तत्वों से कहीं अधिक सूक्ष्म है। जैसे नदियों के प्रवाह में जल की लहरों पर वायु के आघात होने के कारण ‘कलकल’ से मिलती-जुलती ध्वनियां उठा करती हैं, वैसे ही सूक्ष्म प्रकृति की शक्ति-धाराओं से तीन प्रकार की शब्द-ध्वनियां उठती हैं। सत् प्रवाह में ‘ह्रीं’, रज प्रवाह में ‘श्रीं’ और तम प्रवाह में ‘क्लीं’ शब्द से मिलती-जुलती ध्वनि उत्पन्न होती है। उससे भी सूक्ष्म ब्रह्म का ऊंकार ध्वनि प्रवाह है। नादयोग की साधना करने वाले ध्यान मग्न होकर इन ध्वनियों को पकड़ते हैं और उसका सहारा पकड़ते हुए सूक्ष्म प्रकृति को पार करते हुए ब्रह्म सायुज्य तक जा पहुंचते हैं।
किसी भी जीवित प्राणधारी लीजिये, उसकी सूक्ष्म और स्थूल, बाहरी और भीतरी क्रियाओं और कल्पनाओं का गम्भीर एवं वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिये, प्रतीत होगा कि इन्हें चार क्षेत्रों के अन्तर्गत उसकी समस्त चेतना परिभ्रमण कर रही हैं। (1) ऋक्-कल्याण (2) यजु-पौरुष (3) साम-क्रीड़ा (4) अथर्व-अर्थ-इन चार दिशाओं के अतिरिक्त प्राणियों की ज्ञान-धारा और किसी ओर प्रवाहित नहीं होती। ऋक् को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। यही चार ब्रह्माजी के मुख हैं। ब्रह्मा को चतुर्मुख इसलिए कहा गया है कि वे एकमुख होते हुए भी चार प्रकार की ज्ञान-धारा का निष्क्रमण करते हैं। वेद शब्द का अर्थ है—‘ज्ञान’ इस प्रकार वह एक है। परन्तु एक होते हुए भी वह प्राणियों के अन्तःकरण में चार प्रकार का दिखाई देता है। इसलिए एक वेद को सुविधा के लिए चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। भगवान् विष्णु की चार भुजायें भी यही हैं। इन चार विभागों को स्वेच्छापूर्वक करने के लिए चार आश्रम और चार वर्णों की व्यवस्था की गई है।
यह चारों प्रकार के ज्ञान उस चैतन्य शक्ति के ही प्रस्फुरण हैं जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने उत्पन्न की और जिसे शास्त्रकारों ने गायत्री नाम से सम्बोधित किया है। इस प्रकार चार वेदों की माता गायत्री हुई। इसी से उसे वेदमाता भी कहा जाता है। जिस प्रकार जल तत्व को बर्फ, भाप (बादल, ओस, कुहरा आदि), वायु (हाइड्रोजन ऑक्सीजन) तथा पतले पानी के चार रूपों में देखा जाता है जिस प्रकार अग्नि-तत्व को ज्वलन, गर्मी, प्रकाश तथा गति के रूप में देखा जाता है उसी प्रकार एक ‘ज्ञान-गायत्री’ के चार वेदों के चार रूपों में दर्शन होते हैं। गायत्री माता है तो चार वेद उसके पुत्र हैं।
यह तो हुआ सूक्ष्म गायत्री का, सूक्ष्म वेदमाता का स्वरूप। अब उसके स्थूल रूप पर विचार करेंगे। ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पूर्व चौबीस अक्षर वाले गायत्री मन्त्र की रचना की। इस एक मन्त्र के एक-एक अक्षर में सूक्ष्म तत्व आधारित किये गये हैं जिनके पल्लवित होने पर चारों वेदों की शाखा-प्रशाखायें तथा त्रुटियां उद्भूत हो गईं। एक वट बीज के गर्भ में महान् वट वृक्ष छिपा होता है। जब यह बीज के रूप में उगता है, वृक्ष के रूप में बड़ा होता है तो उसमें असंख्य शाखायें, टहनियां, पत्ते, फूल, फल लद जाते हैं। इन सब का इतना बड़ा विस्तार होता है-जो उस मूल वट बीज की अपेक्षा करोड़ों-अरबों गुना बड़ा होता है। गायत्री के चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं, जो प्रस्फुटित होकर वेदों के महाविस्तार के रूप में अवस्थित हो गये हैं।
भारतीय दार्शनिक मान्यता है कि अनादि परमात्मा तत्व ने, ब्रह्मा से यह सब कुछ उत्पन्न किया। सृष्टि उत्पन्न का विचार उठते ही ब्रह्मा में एक स्फुरणा उत्पन्न हुई, जिसका नाम है—शक्ति! शक्ति के द्वारा दो प्रकार की सृष्टि हुई—एक जड़ दूसरी चैतन्य। जड़ सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति प्रकृति और चैतन्य सृष्टि को उत्पन्न करने वाली शक्ति का नाम सावित्री है।
जड़ चेतन सृष्टि के निर्माण में ब्रह्माजी की दो शक्तियां काम कर रही हैं—(1) संकल्प शक्ति (2) परमाणु शक्ति। इन दोनों में प्रथम संकल्प शक्ति की आवश्यकता हुई, क्योंकि बिना उसके चैतन्य न आविर्भाव नहीं होता और बिना चैतन्य के परमाणु का उपयोग किसलिये होगा। अचैतन्य सृष्टि तो अपने में अचैतन्य थी क्योंकि न तो उसका किसी को ज्ञान होता और न उसका कोई उपयोग होता है। ‘चैतन्य’ के प्रकटीकरण की सुविधा के लिए उसकी साधन-सामग्री के रूप में ‘जड़’ का उपयोग होता है।
इस चेतना, इच्छा, स्फुरणा या शक्ति को ही ब्रह्म पत्नी कहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म एक से दो हो गया। अब उसे लक्ष्मीनारायण, सीताराम, राधेश्याम, उमा-महेश, शक्ति-शिव, माया-ब्रह्म, प्रकृति-परमेश्वर आदि नामों से पुकारने लगे।
इस शक्ति के द्वारा अनेक पदार्थों तथा प्राणियों का निर्माण होना था, इसलिये उसे भी तीन भोगों में अपने को विभाजित कर देना पड़ा ताकि अनेक प्रकार से सम्मिश्रण तैयार हो सके और विविध गुण, कर्म, स्वभाव वाले जड़, चेतन पदार्थ बन सकें। ब्रह्म शक्ति के यह तीन टुकड़े—(1) सत्, (2) रज, (3) तम। इन तीन नामों से पुकारे जाते हैं। सत् का अर्थ है—ईश्वर का दिव्य तत्व। तम का अर्थ है—निर्जीव पदार्थों में परमाणुओं का अस्तित्व। रज का अर्थ है—जड़ पदार्थों और विपरीत दिव्य तत्व के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई आनन्ददायक चैतन्यता, यह तीन तत्व स्थूल सृष्टि के मूल कारण हैं। इनके उपरान्त स्थूल उपादान के रूप में मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि, आकाश—ये पांच स्थूल तत्व और उत्पन्न हुये। इन तत्वों के परमाणुओं तथा उनकी शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तन्मात्राओं द्वारा दृश्य सृष्टि का सारा कार्य चलता है। प्रकृति के दो भाग हैं—सूक्ष्म प्रकृति जो शक्ति प्रवाह के रूप में, प्राण संचार के रूप में कार्य करती है। वह सत्, रज, तममयी है। स्थूल प्रकृति जिससे दृश्य पदार्थों का निर्माण एवं उपयोग होता है, परमाणु मयी है। यह मिट्टी, पानी, हवा आदि स्थूल पंच तत्वों के आधार पर अपनी गति विधि जारी रखती है।
उपरोक्त पंक्तियों से पाठक समझ गये होंगे कि पहले एक ब्रह्म था, उसकी स्फुरणा से आदि शक्ति का आविर्भाव हुआ। इस आदि शक्ति का नाम ही गायत्री है। जैसे ब्रह्म ने अपने तीन भाग कर लिये—(1) सत—जिसे ‘ह्रीं’ या सरस्वती कहते हैं, (2) रज—जिसे ‘श्रीं’ या लक्ष्मी कहते हैं, (3) तम—जिसे ‘क्लीं’ या काली कहते हैं। वस्तुतः सत् और तम दो ही विभाग हुए थे, इन दोनों के मिलने से जो धारा उत्पन्न हुई वह रज कहलाती है। जैसे गंगा, यमुना जहां मिलती हैं, वहां उनकी मिश्रित धारा को सरस्वती कहते हैं। सरस्वती वैसे कोई पृथक नदी नहीं है। जैसे इन दो नदियों के मिलने से सरस्वती हुई वैसे ही सत् और तम के योग से रज उत्पन्न हुआ और यह त्रिधा प्रकृति कहलाई।
अद्वैतवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद का बहुत झगड़ा सुना जाता है, वस्तुतः यह समझने का अन्तर मात्र है। ब्रह्म, जीव, प्रकृति यह तीनों ही अस्तित्व में हैं। पहले एक ब्रह्म था यह ठीक है, इसलिये अद्वैतवाद भी ठीक है। पीछे ब्रह्म और शक्ति (प्रकृति) दो हो गये, इसलिये द्वैतवाद भी ठीक है। प्रकृति और परमेश्वर के सम्पर्क से भी रसानुभूति और चैतन्यता मिश्रित रज सत्ता उत्पन्न हुई, वह जीव कहलाई। इस प्रकार त्रैतवाद भी ठीक है। मुक्ति होने पर जीव सत्ता नष्ट हो जाती है। इससे भी स्पष्ट है कि जीवधारी की जो वर्तमान सत्ता मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के ऊपर आधारित है, एक मिश्रण मात्र है।
तत्व-दर्शन के गम्भीर विषय में प्रवेश करके आत्मा के सूक्ष्म विषयों पर प्रकाश डालने का यहां अवसर नहीं है। इन पंक्तियों में तो स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का भेद बताना था, क्योंकि विज्ञान के दो भाग यहीं से होते हैं, मनुष्यों की द्विधा प्रकृति यहीं से बनती है। पंच-तत्वों द्वारा काम करने वाली स्थूल प्रकृति का अन्वेषण करने वाले मनुष्य भौतिक विज्ञानी कहलाते हैं। उन्होंने अपने बुद्धि बल से पंच तत्वों के भेद-उपभेदों को जानकर उनसे अनेक लाभदायक साधन प्राप्त किये। रसायन, कृषि, विद्युत, वाष्प, शिल्प, संगीत, भाषा, साहित्य, वाहन, गृह-निर्माण, चिकित्सा, शासन, खगोल विद्या, शास्त्र, अस्त्र, दर्शन, भू-परिशोध आदि अनेक प्रकार के सुख-साध्य खोज निकाले और रेल, मोटर, तार, डाक, रेडियो, टेलीविजन, फोटो आदि विविध वस्तुयें बनाने के बड़े-बड़े यन्त्र निर्माण किये। धन, सुख सुविधा और आराम के साधन सुलभ हुए। इस मार्ग से जो लाभ मिलता है उसे शास्त्रीय भाषा में ‘प्रेय’ या ‘भोग’ कहते हैं। यह विज्ञान भौतिक विज्ञान कहलाता है। यह स्थूल प्रकृति के उपयोग की विद्या है।
सूक्ष्म प्रकृति वह है, जो आद्य शक्ति गायत्री से उत्पन्न होकर सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा में बंटती है। यह सर्वव्यापिनी शक्ति-निर्झरिणी पंच तत्वों से कहीं अधिक सूक्ष्म है। जैसे नदियों के प्रवाह में जल की लहरों पर वायु के आघात होने के कारण ‘कलकल’ से मिलती-जुलती ध्वनियां उठा करती हैं, वैसे ही सूक्ष्म प्रकृति की शक्ति-धाराओं से तीन प्रकार की शब्द-ध्वनियां उठती हैं। सत् प्रवाह में ‘ह्रीं’, रज प्रवाह में ‘श्रीं’ और तम प्रवाह में ‘क्लीं’ शब्द से मिलती-जुलती ध्वनि उत्पन्न होती है। उससे भी सूक्ष्म ब्रह्म का ऊंकार ध्वनि प्रवाह है। नादयोग की साधना करने वाले ध्यान मग्न होकर इन ध्वनियों को पकड़ते हैं और उसका सहारा पकड़ते हुए सूक्ष्म प्रकृति को पार करते हुए ब्रह्म सायुज्य तक जा पहुंचते हैं।