Books - गायत्री उपनिषद्
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आत्म जागरण के लिए ध्यान योग
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मनुष्य जीवन ईश्वर का अनुपम उपहार है। इससे बड़ा अनुदान उसके पास ऐसा और कोई नहीं है जो प्राणी को दिया जा सके। इसकी विशेषताएं और सम्भावनायें इतनी अद्भुत हैं जिनका स्वरूप सामने आने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह उपहार ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक बनने की भूमिका निवाहने के लिए मिला है। किन्तु दुर्भाग्यवश हम अपने स्वरूप, ईश्वर के अनुग्रह—जीवन के महत्व एवं लक्ष्य की बात को एक प्रकार से पूरी तरह भुला बैठे हैं। न हमें अपनी सत्ता का ज्ञान है, न ईश्वर का ध्यान और न लक्ष्य का ज्ञान। अज्ञानान्धकार की भूल-भुलैयों में बेतरह भटक रहे हैं। यह भुलक्कड़पन विचित्र है। लोग वस्तुओं को तो अक्सर भूल जाते हैं, सुनी, पढ़ी बातों को भूल जाने की घटनायें भी होती रहती हैं। कभी के परिचित भी विस्मृत होने से अपरिचित बन जाते हैं। पर ऐसा कदाचित ही होता है कि अपने आपे को ही भुला दिया जाय। हम अपने को शरीर मात्र मानते हैं। उसी के स्वार्थों को अपना स्वार्थ, उसी की आवश्यकताओं को अपनी आवश्यकता मानते हैं। शरीर और मन वह दोनों ही साधन जीवन रथ के दो पहिये मात्र हैं, पर घटित कुछ विलक्षण हुआ है। हम आत्मसत्ता को सर्वथा भुला बैठे हैं। यों शरीर और आत्मा की पृथकता की बात कही-सुनी तो अक्सर जाती है। पर वैसा भान जीवन भर में कदाचित ही कभी होता हो। यदि होता भी है तो बहुत ही धुंधला। यदि वस्तु स्थिति समझ ली जाती है और जीवन सत्ता तथा उसके उपकरणों की पृथकता का स्वरूप चेतना में उभर आता है तो आत्मकल्याण की बात प्रमुख बन जाती है और वाहनों के लिए उतना ही ध्यान दिया जाता जितना कि उनके लिये आवश्यक था। आज तो ‘हम’ नंगे पैर फिर रहे हैं और वाहनों को स्वर्ण आभूषणों से सजा रहे हैं। ‘हम’ भूखे मर रहे हैं और वाहनों को घी पिलाया जा रहा है। ‘हम’ से मतलब है आत्मा और वाहन से मतलब है शरीर और मन। स्वामी सेवकों की सेवकाई में लगा है और अपने उत्तरदायित्वों को सर्वथा भुला बैठा है यह विचित्र स्थिति है।
आत्म लक्ष्य की पूर्ति—
जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। यह पूर्णता—ईश्वरीय स्तर की ही हो सकती है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिये उस लक्ष्य पर ध्यान का एकाग्र करना आवश्यक है। महत्वपूर्ण इमारतें बनाने से पूर्व उनके नक्शे, छापे एवं मॉडल बनाये जाते हैं। इंजीनियर, कारीगर उसी को देख-देख कर अपना निर्माण कार्य चलाते हैं और समयानुसार इमारत बन कर तैयार हो जाती है। भगवान का स्वरूप और गुण, कर्म, स्वभाव कैसा हो इसकी ध्यान प्रतिमा विनिर्मित की जाती है और फिर उसके साथ समीपता, एकता—तादात्म्यता स्थापित करते हुए उसी स्तर का बनाने के लिये प्रयत्न किया जाता है। ध्यान प्रक्रिया का यही स्वरूप है।
ध्यानयोग का उद्देश्य अपनी मूलभूत स्थिति के बारे में, अपने स्वरूप के बारे में सोच-विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापिस लौटाना है। यदि किसी प्रकार वह वापिस लौट सके तो लम्बा सपना देखकर डरे हुए व्यक्ति जैसी अन्तःस्थिति हुए बिना नहीं रह सकती। तब प्रतीत होगा कि मेले में खोये हुए बच्चे से—आत्म विस्मृत मानसिक रोगियों से—अपनी स्थिति भिन्न नहीं रही है। इस व्यथा से ग्रसित लोग स्वयं घाटे में रहते हैं और अपने सम्बन्धियों को दुःखी करते हैं। हम आत्म बोध को खोकर भेड़ों के झुंड में रहने वाले सिंह की तरह दयनीय स्तर का जीवन-यापन कर रहे हैं और अपनी माता—परमात्म-सत्ता को कष्ट दे रहे हैं—रुष्ट कर रहे हैं।
विस्मरण का निवारण—आत्म-बोध की भूमिका में जागरण—यही है ध्यानयोग का लक्ष्य। उसमें ईश्वर का स्मरण किया जाता है—अपने स्वरूप का भी अनुभव किया जाता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की स्मृति फिर से ताजा की जाती है और यह अनुभव किया जाता है कि जिस दिव्य सत्ता से एक तरह सम्बन्ध विच्छेद कर रखा गया है, यही हमारी जननी और परम शुभचिंतक है। इतना ही नहीं वह कामधेनु की तरह इतनी सशक्त भी है कि उसका पय-पान करने देवोपम स्तर का लाभ ले सकें। कल्प-वृक्ष की छाया में बैठकर सब कुछ पाया जा सकता है, ईश्वरीय सत्ता से सम्पर्क, सान्निध्य, घनिष्ठता बना लेने के बाद भी ऐसा कुछ शेष नहीं रहता जिसे अभाव, दारिद्रय अथवा शोक-संताप कहा जा सके। ध्यान-योग हमें इसी लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है।
एकाग्रता—
शक्ति को उपलब्ध करना पड़ी बात नहीं, उसे बिखराव के निरर्थक एवं अपव्यय की अनर्थ मूलक बर्बादी से भी बचाया जाना चाहिए। शक्ति की उपलब्धि का लाभ तभी मिलता है जब उसे संग्रहीत रखने और सत्प्रयोजन में लगाने की व्यवस्था बन पड़े।
धूप, गर्मी से ढेरों पानी समुद्र तालाबों में से भाप बन कर उड़ता रहता है, चूल्हों से कितनी ही भाप उत्पन्न होती और उड़ती है। इसका कोई उपयोग नहीं।किन्तु इंजन में थोड़ा-सा पानी भाप बनाया जाता है। उस भाप को हवा में उड़ जाने से बचाकर एक टंकी में एकत्रित किया जाता है और फिर उसका कति प्रवाह एक छोटे छेद में होकर पिस्टन तक पहुंचा दिया जाता है। इतने मात्र से रेलगाड़ी का इंजन चलने लगता है। चलता ही नहीं दौड़ता भी है। उसकी दौड़ इतनी सामर्थ्ययुक्त होती है कि अपने साथ-साथ बहुत भारी लदी रेलगाड़ी के दर्जनों डिब्बे घसीटता चला जाता है।
सेरों बारूद यदि जमीन पर फैला कर माचिस से जलाई जाय तो थोड़ी-सी चमक दिखा कर भक् से जल जायगी। उसका कुछ भी उपयोगी परिणाम न निकलेगा न कोई आवाज होगी। किन्तु यदि उसे बन्दूक की छोटी-सी नली के भीतर कड़े खोल वाले कारतूस में बन्द कर दिया जाय और घोड़ा दबाकर नन्हीं-सी चिनगारी से स्पर्श कराया जाय तो वह एक तोले से भी कम वजन की बारूद गजब ढाती है। सनसनाती हुई एक दिशा विशेष की ओर प्रचंड गति से दौड़ती है। अपने साथ लोहे की गोली और छर्रों को भी घसीटती ले जाती है और जहाँ टकराती है, वहाँ सफाया उड़ा देती है। बिखरी हुई बारूद की निरर्थकता और उसकी संग्रहीत शक्ति को दिशा विशेष में प्रयुक्त किये जाने की सार्थकता में कितना अन्तर होता है इसे सहज ही समझा जा सकता है।
सूर्य की किरणें सुविस्तृत क्षेत्र में बिखरी पड़ी रहती हैं। रोज ही सूर्य निकलता और अस्त होता है। धूप थोड़ी-सी गर्मी, रोशनी पैदा करने जितना ही काम कर पाती है। पर यदि उन किरणों के एक दो इंच के बिखराव को आतिशी-शीशे द्वारा एक केन्द्र पर केन्द्रित कर लिया जाय तो देखते-देखते आग जलने लगेगी और उसे किसी बड़े जंगल में डाल दिया जाय तो दावानल बनकर भयंकर विनाश लीला प्रस्तुत कर सकती है।
द्रौपदी स्वयंवर में चक्र पर चढ़ी हुई नकली मछली की तीर से आंख भर वेद देना विजेता होने की शर्त थी। द्रोणाचार्य उसका पूर्व अभ्यास अपने शिष्यों को करा रहे थे। निशान पर तीर छोड़ने से पूर्व वे छात्रों से पूछते तुम्हें क्या दीखता है? शिष्यगण मछली के आस-पास का क्षेत्र तथा उसका पूरा शरीर देखने की बात कहते। द्रोणाचार्य उनकी असफलता पहले से ही घोषित कर देते थे। जब अर्जुन की बारी आई तो उसने प्रश्न के उत्तर में कहा—मुझे मात्र मछली की आंख दीखती है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। गुरुदेव ने उसके सफल होने की पूर्ण घोषणा कर दी और सचमुच वही स्वयंवर में मत्स्य वेध की शर्त पूरी करके द्रौपदी विवाह का अधिकारी बन सका।
कहते हैं कि भृंग नाम का उड़ने वाला कीड़ा झींगुर पकड़ लाता है और उसके सामने निरन्तर गुंजन करता रहता है। उस गुंजन को सुनने और छवि देखते रहने में झींगुर की मनःस्थिति भृंग जैसी हो जाती है। वह अपने को भृंग समझने लगता है अस्तु धीरे-धीरे उसका शरीर ही भृंग रूप में बदल जाता है। कीट विज्ञानी इस किंवदन्ती पर सन्देह कर सकते हैं, पर यह तथ्य सुनिश्चित है कि एकाग्रतापूर्वक जिस भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति का देर तक चिंतन करते रहा जाय, मनुष्य की सत्ता उसी ढांचे में ढलने लगती है। रूप, यौवन पर ध्यान केन्द्रित रखने से वेश्यायें ढलती आयु में भी सुन्दर बनी रहती हैं और विपत्ति एवं मृत्यु की बात सोचने वाले लोग भरी जवानी में बूढ़े होते और मौत के मुंह में घुसते देखे गये हैं। यह सब इच्छा या अनिच्छा से किसी केन्द्र बिंदु पर अपने चिंतन को केन्द्रित करने का परिणाम है।
बिखराव को रोकने की—उपलब्ध शक्ति को संग्रहीत रख कर अभीष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त कर सकने की कुशलता को आध्यात्मिक एकाग्रता कहते हैं। अध्यात्म शास्त्र में मनोनिग्रह अथवा चित्त निरोध इसी को कहते हैं। ‘मेडीटेशन’ की योग-प्रक्रिया में बहुत चर्चा होती है। इसे एकाग्र हो सकने की कुशलता भर ही समझना चाहिए। सुनने, समझने में यह सफलता नगण्य जैसी मालूम पड़ती है, पर वस्तुतः वह बहुत ही बड़ी बात है। इस प्रयोग में प्रवीण होने पर मनुष्य अपनी बिखरी चेतना को एकत्रित करके किसी एक कार्य में लगा देने पर जादू जैसी सफलताएं—उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है।
बांधों में पानी भरा रहता है। पर जब उसे एक छोटे छेद में होकर निकाला जाता है तो पानी के दबाव से वह धारा बड़ी तेजी से निकलती है। इस धारा में असाधारण शक्ति होती है, उसके प्रहार से अनेक मशीनों के पहिये घुमाये जाते हैं और उनके घूमते ही कई प्रकार के यन्त्र चलने लगते हैं। बड़े-बड़े बिजली घरों का निर्माण बंधे हुए जलाशय बांधों पर ही होता है। इंजन या मोटर चलाकर बिजली पैदा करना महंगा होता है पर बांध के सहारे तो यह उत्पादन काफी सस्ता पड़ता है। छोटे-छोटे जल प्रपातों से भी पनचक्की जैसी उपयोगी मशीनें चल पड़ती हैं। यह जलधार की—झरनों की नहीं एकाग्रता की शक्ति है। फैले क्षेत्र को छोटा कर देने से सहज ही उसकी प्रखरता बढ़ जाती है।
ध्यानयोग का उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोक कर एक चिंतन बिंदु पर केन्द्रित कर सकने की प्रवीणता प्राप्त करना है। इस प्रयोग में जिसे जितनी सफलता मिलती जाती है उसकी अन्तःचेतना में उसी अनुपात से वेधक प्रचंडता उत्पन्न होती जाती है। शब्दवेधी वाण की तरह लक्ष्यवेध कर सकना उसके लिए सरल हो जाता है। यदि अध्यात्म उसका लक्ष्य होगा तो उस क्षेत्र में आशाजनक प्रगति होगी और विभूतियों से—दिव्य ऋद्धि-सिद्धियों से उसका व्यक्तित्व भरा-पूरा दिखाई पड़ेगा। यह लक्ष्य भौतिक उन्नति है तो भी इस एकाग्रता का समुचित लाभ मिलेगा और अभीष्ट प्रयोजनों में आशाजनक सफलता मिलती चली जायगी। शक्ति का जब—जिस भी दिशा में प्रयोग किया जायगा उसी में सत्परिणाम प्रस्तुत होते चले जायेंगे।
एकाग्रता मस्तिष्क में उत्पन्न होते रहने वाली विचार तरंगों के निरर्थक बिखराव को निग्रहीत करना है। छोटे से बरसाती नाले का पानी रोककर बांध बना लिए जाते हैं और उसके पीछे सुविस्तृत जलाशय बन जाता है। इस जलराशि से नहरें निकालकर दूर-दूर तक क्षेत्र हरा-भरा बनाया जाता है। वही नाला जब उच्छृंखल रहता है तो किनारों को तोड़-फोड़ कर इधर-उधर बहता है और उस बाढ़ से भारी बर्बादी होती है। मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारधारा को किसी विशालकाय विद्युत् निर्माण कारखाने से कम नहीं आंका जाना चाहिए। बिजली घरों की शक्ति सीमित होती है और वे अपनी परिधि के छोटे से क्षेत्र को ही बिजली दे पाते हैं, पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसकी आज की क्षमता अगले दिनों अनेक गुनी हो सकती और प्रभाव क्षेत्र, जो आज घर परिवार तक सीमित है, वह कल विश्व-व्यापी बन सकता है।
विज्ञानी, दार्शनिक, कलाकार, विद्वान, शिल्पी, साहित्यकार, व्यवस्थापक, संयोजक, नेता जैसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निवाहने वाले व्यक्ति भी प्रायः सामान्य लोगों के जैसे ही होते हैं। न उनके शरीर में कोई अतिरिक्त कलपुर्जा होता है और न मस्तिष्क में जादू की छड़ी गढ़ी होती है। अन्य लोगों से भिन्नता और श्रेष्ठता का जितना कुछ चमत्कार दीखता है वह उसकी उस आन्तरिक विशेषता का परिणाम है जिसका प्रथम चरण एकाग्रता और दूसरा लक्ष्य निष्ठा कहा जा सकता है। मस्तिष्कीय ऊर्जा हर किसी में प्रचुर परिमाण में होती है—यहां तक कि मन्द बुद्धि समझे जाने वाले लोगों में भी मूल प्रतिभा की कमी नहीं होती। अन्तर प्रसुप्त और जागृत स्थिति के परिमाण का होता है। सोती हुई स्थिति में बुद्धिमान मनुष्य भी अर्धमृतक की स्थिति में पड़ा रहता है। किन्तु जागने पर अपना वर्चस्व सिद्ध करता है। यही बात मस्तिष्क के सम्बन्ध में है। परिस्थितिवश किन्हीं-किन्हीं के मस्तिष्कीय कण प्रसुप्त स्थिति में पड़े होते हैं और वे मन्द बुद्धि जैसे लगते हैं किन्तु यदि उन्हें प्रयत्नपूर्वक जागृत किया जाय तो वे न केवल प्रतिभाशाली लोगों की पंक्ति में जा बैठते हैं, वरन् कई बार तो उनसे भी आगे निकल जाते हैं।
कच्चे धागे मिलकर मजबूत रस्सी और कमजोर सींकें इकट्ठी होने से बुहारी बनने की बात सभी को मालूम है। बूंद-बूंद जोड़ने से घड़ा भरता है। यह उदाहरण मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर विचार तरंगों को एक केन्द्र पर निग्रहीत करने पर लागू होता है। अस्त-व्यस्त, अनियन्त्रित निरुद्देश्य चिंतन से मानसिक शक्ति की कितनी बर्बादी होती है और उन्हें एकाग्र करके दिशा विशेष में निरत कर देने पर कितने चमत्कार उत्पन्न होते हैं इस तथ्य को पग-पग पर परखा और सही पाया जा सकता है।
एकाग्रता को विकसित करके समुद्र तल में गहरा गोता मारने वाले पनडुब्बों की तरह वैज्ञानिक, योगी, मनीषी बहुमूल्य रत्नराशि खोजकर लाते हैं। समुद्र तल पर तैरते फिरने वालों के हाथ कुछ नहीं पड़ता, पर जो गहरे उतरते हैं वे बड़ी उपलब्धियां प्राप्त करते हैं। उथला चिंतन हवा में उड़ते रहने वाले तिनकों की तरह हैं और एकाग्रता पूर्वक चिंतन को केन्द्रीभूत करके किसी विशेष प्रयोजन में लगा देना ऐसे शब्दवेधी बाण की तरह है जिसका सुनिश्चित परिणाम होकर ही रहता है।
समर्पण योग कस संपुट
उपासना के अन्त में प्रार्थना एवं सूर्यार्घ्यदान का भी अपना महत्व है। उपासना मार्ग में अहंकार बड़ा बाधक सिद्ध होता है। बहुधा साधक सांसारिक अहंकार तो छोड़ देते हैं, किन्तु साधना का ही अहंकार उन्हें हो जाता है। जप, ध्यान आदि के समय जो अनुभूतियां होती हैं, कच्चा बालक मन उन्हें सहसा हजम नहीं कर पाता। फलस्वरूप अनेक विकृत कल्पनायें तथा महत्वाकांक्षा में जागृत होने लगती है। इसका निवारण न किया गया तो साधक भटक जाता है। ऊपर से सब ठीक दीखते हुए भी भीतर भीतर अनेक विकृतियां पनप जाती हैं।
इस अहं का निवारण कोरे ज्ञान से बड़ा कठिन होता है। भक्ति भावना के संयोग से विवेक उसे आसानी से निरस्त कर लेता है। उपासना के बाद इष्ट के प्रति विनम्र भाव से कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिये। जो कुछ मिला, मिल रहा है, मिलेगा वह उसकी सहृदयता का प्रसाद है। अपनी विशेषता है तो मात्र इतनी कि हम उसके महत्व को समझ रहे हैं तथा उसकी शक्तियों, विभूतियों को उसी के हाथों में सोपने में कंजूसी अथवा प्रमाद नहीं कर रहे हैं। कोई स्तोत्र पढ़ा जाय या न पढ़ा जाय, यह भाव उमड़ता रहे, विनम्रता तथा कृतज्ञता का संचार होता रहे तो प्रार्थना सार्थक माननी चाहिए।
इसी प्रकार दिव्य सम्पदायें पाकर भी मोहवश मनुष्य छोटी सीमाओं में बंधकर रह जाता है। स्वार्थ की सीमाओं में ही उन्हें प्रयुक्त करना चाहता है।
कभी स्वार्थवश ऐसा सोचता है तो कभी अपनी नगण्य विभूतियों को देखकर व्यापक क्षेत्र में नियोजित करने से हिचकिचाता है। कुछ भी है, प्रतिक्रिया दोनों की एक सी ही होती है—व्यक्ति संकुचित जीवन में आबद्ध रह जाता है। वह भूल जाता है कि विभूतियां अनन्त हैं, सतपात्र के माध्यम से वह प्रवाहित मात्र होती हैं। संकुचित होना अपनी पात्रता पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा देना है।
सूर्यार्घ्य में साधक सूर्य के सामने छोटे से पात्र से जल चढ़ाता है। छोटे से पात्र से सीमित जल-सूर्य के प्रभाव से छोटी सी सीमा से निकल कर समग्र व्योम में फैल जाता है। अपने काय कलेवर की सीमा में कैद अपनी विभूतियों-शक्ति सामर्थ्यों के सम्बन्ध में भी यही सोचना चाहिये। अर्घ्यदान के साथ यह भावना प्रभाव उभरता चाहिए कि हम संकुचित न रहकर व्यापक बनें। ऐसा करते हुए अनुभव करना चाहिए कि इस आत्मिक संकल्प की सत्यता के अनुपात में ही परमात्म सत्ता का स्नेह अनुदान अपने ऊपर बरस रहा है। इस प्रकार प्रार्थना एवं सूर्यार्घ्यदान को अहंकार निवारण एवं समर्पण योग की साधना के रूप में क्रमशः प्रखरतार बनाते चलता चाहिए।
आत्म लक्ष्य की पूर्ति—
जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। यह पूर्णता—ईश्वरीय स्तर की ही हो सकती है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिये उस लक्ष्य पर ध्यान का एकाग्र करना आवश्यक है। महत्वपूर्ण इमारतें बनाने से पूर्व उनके नक्शे, छापे एवं मॉडल बनाये जाते हैं। इंजीनियर, कारीगर उसी को देख-देख कर अपना निर्माण कार्य चलाते हैं और समयानुसार इमारत बन कर तैयार हो जाती है। भगवान का स्वरूप और गुण, कर्म, स्वभाव कैसा हो इसकी ध्यान प्रतिमा विनिर्मित की जाती है और फिर उसके साथ समीपता, एकता—तादात्म्यता स्थापित करते हुए उसी स्तर का बनाने के लिये प्रयत्न किया जाता है। ध्यान प्रक्रिया का यही स्वरूप है।
ध्यानयोग का उद्देश्य अपनी मूलभूत स्थिति के बारे में, अपने स्वरूप के बारे में सोच-विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापिस लौटाना है। यदि किसी प्रकार वह वापिस लौट सके तो लम्बा सपना देखकर डरे हुए व्यक्ति जैसी अन्तःस्थिति हुए बिना नहीं रह सकती। तब प्रतीत होगा कि मेले में खोये हुए बच्चे से—आत्म विस्मृत मानसिक रोगियों से—अपनी स्थिति भिन्न नहीं रही है। इस व्यथा से ग्रसित लोग स्वयं घाटे में रहते हैं और अपने सम्बन्धियों को दुःखी करते हैं। हम आत्म बोध को खोकर भेड़ों के झुंड में रहने वाले सिंह की तरह दयनीय स्तर का जीवन-यापन कर रहे हैं और अपनी माता—परमात्म-सत्ता को कष्ट दे रहे हैं—रुष्ट कर रहे हैं।
विस्मरण का निवारण—आत्म-बोध की भूमिका में जागरण—यही है ध्यानयोग का लक्ष्य। उसमें ईश्वर का स्मरण किया जाता है—अपने स्वरूप का भी अनुभव किया जाता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की स्मृति फिर से ताजा की जाती है और यह अनुभव किया जाता है कि जिस दिव्य सत्ता से एक तरह सम्बन्ध विच्छेद कर रखा गया है, यही हमारी जननी और परम शुभचिंतक है। इतना ही नहीं वह कामधेनु की तरह इतनी सशक्त भी है कि उसका पय-पान करने देवोपम स्तर का लाभ ले सकें। कल्प-वृक्ष की छाया में बैठकर सब कुछ पाया जा सकता है, ईश्वरीय सत्ता से सम्पर्क, सान्निध्य, घनिष्ठता बना लेने के बाद भी ऐसा कुछ शेष नहीं रहता जिसे अभाव, दारिद्रय अथवा शोक-संताप कहा जा सके। ध्यान-योग हमें इसी लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है।
एकाग्रता—
शक्ति को उपलब्ध करना पड़ी बात नहीं, उसे बिखराव के निरर्थक एवं अपव्यय की अनर्थ मूलक बर्बादी से भी बचाया जाना चाहिए। शक्ति की उपलब्धि का लाभ तभी मिलता है जब उसे संग्रहीत रखने और सत्प्रयोजन में लगाने की व्यवस्था बन पड़े।
धूप, गर्मी से ढेरों पानी समुद्र तालाबों में से भाप बन कर उड़ता रहता है, चूल्हों से कितनी ही भाप उत्पन्न होती और उड़ती है। इसका कोई उपयोग नहीं।किन्तु इंजन में थोड़ा-सा पानी भाप बनाया जाता है। उस भाप को हवा में उड़ जाने से बचाकर एक टंकी में एकत्रित किया जाता है और फिर उसका कति प्रवाह एक छोटे छेद में होकर पिस्टन तक पहुंचा दिया जाता है। इतने मात्र से रेलगाड़ी का इंजन चलने लगता है। चलता ही नहीं दौड़ता भी है। उसकी दौड़ इतनी सामर्थ्ययुक्त होती है कि अपने साथ-साथ बहुत भारी लदी रेलगाड़ी के दर्जनों डिब्बे घसीटता चला जाता है।
सेरों बारूद यदि जमीन पर फैला कर माचिस से जलाई जाय तो थोड़ी-सी चमक दिखा कर भक् से जल जायगी। उसका कुछ भी उपयोगी परिणाम न निकलेगा न कोई आवाज होगी। किन्तु यदि उसे बन्दूक की छोटी-सी नली के भीतर कड़े खोल वाले कारतूस में बन्द कर दिया जाय और घोड़ा दबाकर नन्हीं-सी चिनगारी से स्पर्श कराया जाय तो वह एक तोले से भी कम वजन की बारूद गजब ढाती है। सनसनाती हुई एक दिशा विशेष की ओर प्रचंड गति से दौड़ती है। अपने साथ लोहे की गोली और छर्रों को भी घसीटती ले जाती है और जहाँ टकराती है, वहाँ सफाया उड़ा देती है। बिखरी हुई बारूद की निरर्थकता और उसकी संग्रहीत शक्ति को दिशा विशेष में प्रयुक्त किये जाने की सार्थकता में कितना अन्तर होता है इसे सहज ही समझा जा सकता है।
सूर्य की किरणें सुविस्तृत क्षेत्र में बिखरी पड़ी रहती हैं। रोज ही सूर्य निकलता और अस्त होता है। धूप थोड़ी-सी गर्मी, रोशनी पैदा करने जितना ही काम कर पाती है। पर यदि उन किरणों के एक दो इंच के बिखराव को आतिशी-शीशे द्वारा एक केन्द्र पर केन्द्रित कर लिया जाय तो देखते-देखते आग जलने लगेगी और उसे किसी बड़े जंगल में डाल दिया जाय तो दावानल बनकर भयंकर विनाश लीला प्रस्तुत कर सकती है।
द्रौपदी स्वयंवर में चक्र पर चढ़ी हुई नकली मछली की तीर से आंख भर वेद देना विजेता होने की शर्त थी। द्रोणाचार्य उसका पूर्व अभ्यास अपने शिष्यों को करा रहे थे। निशान पर तीर छोड़ने से पूर्व वे छात्रों से पूछते तुम्हें क्या दीखता है? शिष्यगण मछली के आस-पास का क्षेत्र तथा उसका पूरा शरीर देखने की बात कहते। द्रोणाचार्य उनकी असफलता पहले से ही घोषित कर देते थे। जब अर्जुन की बारी आई तो उसने प्रश्न के उत्तर में कहा—मुझे मात्र मछली की आंख दीखती है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। गुरुदेव ने उसके सफल होने की पूर्ण घोषणा कर दी और सचमुच वही स्वयंवर में मत्स्य वेध की शर्त पूरी करके द्रौपदी विवाह का अधिकारी बन सका।
कहते हैं कि भृंग नाम का उड़ने वाला कीड़ा झींगुर पकड़ लाता है और उसके सामने निरन्तर गुंजन करता रहता है। उस गुंजन को सुनने और छवि देखते रहने में झींगुर की मनःस्थिति भृंग जैसी हो जाती है। वह अपने को भृंग समझने लगता है अस्तु धीरे-धीरे उसका शरीर ही भृंग रूप में बदल जाता है। कीट विज्ञानी इस किंवदन्ती पर सन्देह कर सकते हैं, पर यह तथ्य सुनिश्चित है कि एकाग्रतापूर्वक जिस भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति का देर तक चिंतन करते रहा जाय, मनुष्य की सत्ता उसी ढांचे में ढलने लगती है। रूप, यौवन पर ध्यान केन्द्रित रखने से वेश्यायें ढलती आयु में भी सुन्दर बनी रहती हैं और विपत्ति एवं मृत्यु की बात सोचने वाले लोग भरी जवानी में बूढ़े होते और मौत के मुंह में घुसते देखे गये हैं। यह सब इच्छा या अनिच्छा से किसी केन्द्र बिंदु पर अपने चिंतन को केन्द्रित करने का परिणाम है।
बिखराव को रोकने की—उपलब्ध शक्ति को संग्रहीत रख कर अभीष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त कर सकने की कुशलता को आध्यात्मिक एकाग्रता कहते हैं। अध्यात्म शास्त्र में मनोनिग्रह अथवा चित्त निरोध इसी को कहते हैं। ‘मेडीटेशन’ की योग-प्रक्रिया में बहुत चर्चा होती है। इसे एकाग्र हो सकने की कुशलता भर ही समझना चाहिए। सुनने, समझने में यह सफलता नगण्य जैसी मालूम पड़ती है, पर वस्तुतः वह बहुत ही बड़ी बात है। इस प्रयोग में प्रवीण होने पर मनुष्य अपनी बिखरी चेतना को एकत्रित करके किसी एक कार्य में लगा देने पर जादू जैसी सफलताएं—उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है।
बांधों में पानी भरा रहता है। पर जब उसे एक छोटे छेद में होकर निकाला जाता है तो पानी के दबाव से वह धारा बड़ी तेजी से निकलती है। इस धारा में असाधारण शक्ति होती है, उसके प्रहार से अनेक मशीनों के पहिये घुमाये जाते हैं और उनके घूमते ही कई प्रकार के यन्त्र चलने लगते हैं। बड़े-बड़े बिजली घरों का निर्माण बंधे हुए जलाशय बांधों पर ही होता है। इंजन या मोटर चलाकर बिजली पैदा करना महंगा होता है पर बांध के सहारे तो यह उत्पादन काफी सस्ता पड़ता है। छोटे-छोटे जल प्रपातों से भी पनचक्की जैसी उपयोगी मशीनें चल पड़ती हैं। यह जलधार की—झरनों की नहीं एकाग्रता की शक्ति है। फैले क्षेत्र को छोटा कर देने से सहज ही उसकी प्रखरता बढ़ जाती है।
ध्यानयोग का उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोक कर एक चिंतन बिंदु पर केन्द्रित कर सकने की प्रवीणता प्राप्त करना है। इस प्रयोग में जिसे जितनी सफलता मिलती जाती है उसकी अन्तःचेतना में उसी अनुपात से वेधक प्रचंडता उत्पन्न होती जाती है। शब्दवेधी वाण की तरह लक्ष्यवेध कर सकना उसके लिए सरल हो जाता है। यदि अध्यात्म उसका लक्ष्य होगा तो उस क्षेत्र में आशाजनक प्रगति होगी और विभूतियों से—दिव्य ऋद्धि-सिद्धियों से उसका व्यक्तित्व भरा-पूरा दिखाई पड़ेगा। यह लक्ष्य भौतिक उन्नति है तो भी इस एकाग्रता का समुचित लाभ मिलेगा और अभीष्ट प्रयोजनों में आशाजनक सफलता मिलती चली जायगी। शक्ति का जब—जिस भी दिशा में प्रयोग किया जायगा उसी में सत्परिणाम प्रस्तुत होते चले जायेंगे।
एकाग्रता मस्तिष्क में उत्पन्न होते रहने वाली विचार तरंगों के निरर्थक बिखराव को निग्रहीत करना है। छोटे से बरसाती नाले का पानी रोककर बांध बना लिए जाते हैं और उसके पीछे सुविस्तृत जलाशय बन जाता है। इस जलराशि से नहरें निकालकर दूर-दूर तक क्षेत्र हरा-भरा बनाया जाता है। वही नाला जब उच्छृंखल रहता है तो किनारों को तोड़-फोड़ कर इधर-उधर बहता है और उस बाढ़ से भारी बर्बादी होती है। मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारधारा को किसी विशालकाय विद्युत् निर्माण कारखाने से कम नहीं आंका जाना चाहिए। बिजली घरों की शक्ति सीमित होती है और वे अपनी परिधि के छोटे से क्षेत्र को ही बिजली दे पाते हैं, पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसकी आज की क्षमता अगले दिनों अनेक गुनी हो सकती और प्रभाव क्षेत्र, जो आज घर परिवार तक सीमित है, वह कल विश्व-व्यापी बन सकता है।
विज्ञानी, दार्शनिक, कलाकार, विद्वान, शिल्पी, साहित्यकार, व्यवस्थापक, संयोजक, नेता जैसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निवाहने वाले व्यक्ति भी प्रायः सामान्य लोगों के जैसे ही होते हैं। न उनके शरीर में कोई अतिरिक्त कलपुर्जा होता है और न मस्तिष्क में जादू की छड़ी गढ़ी होती है। अन्य लोगों से भिन्नता और श्रेष्ठता का जितना कुछ चमत्कार दीखता है वह उसकी उस आन्तरिक विशेषता का परिणाम है जिसका प्रथम चरण एकाग्रता और दूसरा लक्ष्य निष्ठा कहा जा सकता है। मस्तिष्कीय ऊर्जा हर किसी में प्रचुर परिमाण में होती है—यहां तक कि मन्द बुद्धि समझे जाने वाले लोगों में भी मूल प्रतिभा की कमी नहीं होती। अन्तर प्रसुप्त और जागृत स्थिति के परिमाण का होता है। सोती हुई स्थिति में बुद्धिमान मनुष्य भी अर्धमृतक की स्थिति में पड़ा रहता है। किन्तु जागने पर अपना वर्चस्व सिद्ध करता है। यही बात मस्तिष्क के सम्बन्ध में है। परिस्थितिवश किन्हीं-किन्हीं के मस्तिष्कीय कण प्रसुप्त स्थिति में पड़े होते हैं और वे मन्द बुद्धि जैसे लगते हैं किन्तु यदि उन्हें प्रयत्नपूर्वक जागृत किया जाय तो वे न केवल प्रतिभाशाली लोगों की पंक्ति में जा बैठते हैं, वरन् कई बार तो उनसे भी आगे निकल जाते हैं।
कच्चे धागे मिलकर मजबूत रस्सी और कमजोर सींकें इकट्ठी होने से बुहारी बनने की बात सभी को मालूम है। बूंद-बूंद जोड़ने से घड़ा भरता है। यह उदाहरण मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर विचार तरंगों को एक केन्द्र पर निग्रहीत करने पर लागू होता है। अस्त-व्यस्त, अनियन्त्रित निरुद्देश्य चिंतन से मानसिक शक्ति की कितनी बर्बादी होती है और उन्हें एकाग्र करके दिशा विशेष में निरत कर देने पर कितने चमत्कार उत्पन्न होते हैं इस तथ्य को पग-पग पर परखा और सही पाया जा सकता है।
एकाग्रता को विकसित करके समुद्र तल में गहरा गोता मारने वाले पनडुब्बों की तरह वैज्ञानिक, योगी, मनीषी बहुमूल्य रत्नराशि खोजकर लाते हैं। समुद्र तल पर तैरते फिरने वालों के हाथ कुछ नहीं पड़ता, पर जो गहरे उतरते हैं वे बड़ी उपलब्धियां प्राप्त करते हैं। उथला चिंतन हवा में उड़ते रहने वाले तिनकों की तरह हैं और एकाग्रता पूर्वक चिंतन को केन्द्रीभूत करके किसी विशेष प्रयोजन में लगा देना ऐसे शब्दवेधी बाण की तरह है जिसका सुनिश्चित परिणाम होकर ही रहता है।
समर्पण योग कस संपुट
उपासना के अन्त में प्रार्थना एवं सूर्यार्घ्यदान का भी अपना महत्व है। उपासना मार्ग में अहंकार बड़ा बाधक सिद्ध होता है। बहुधा साधक सांसारिक अहंकार तो छोड़ देते हैं, किन्तु साधना का ही अहंकार उन्हें हो जाता है। जप, ध्यान आदि के समय जो अनुभूतियां होती हैं, कच्चा बालक मन उन्हें सहसा हजम नहीं कर पाता। फलस्वरूप अनेक विकृत कल्पनायें तथा महत्वाकांक्षा में जागृत होने लगती है। इसका निवारण न किया गया तो साधक भटक जाता है। ऊपर से सब ठीक दीखते हुए भी भीतर भीतर अनेक विकृतियां पनप जाती हैं।
इस अहं का निवारण कोरे ज्ञान से बड़ा कठिन होता है। भक्ति भावना के संयोग से विवेक उसे आसानी से निरस्त कर लेता है। उपासना के बाद इष्ट के प्रति विनम्र भाव से कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिये। जो कुछ मिला, मिल रहा है, मिलेगा वह उसकी सहृदयता का प्रसाद है। अपनी विशेषता है तो मात्र इतनी कि हम उसके महत्व को समझ रहे हैं तथा उसकी शक्तियों, विभूतियों को उसी के हाथों में सोपने में कंजूसी अथवा प्रमाद नहीं कर रहे हैं। कोई स्तोत्र पढ़ा जाय या न पढ़ा जाय, यह भाव उमड़ता रहे, विनम्रता तथा कृतज्ञता का संचार होता रहे तो प्रार्थना सार्थक माननी चाहिए।
इसी प्रकार दिव्य सम्पदायें पाकर भी मोहवश मनुष्य छोटी सीमाओं में बंधकर रह जाता है। स्वार्थ की सीमाओं में ही उन्हें प्रयुक्त करना चाहता है।
कभी स्वार्थवश ऐसा सोचता है तो कभी अपनी नगण्य विभूतियों को देखकर व्यापक क्षेत्र में नियोजित करने से हिचकिचाता है। कुछ भी है, प्रतिक्रिया दोनों की एक सी ही होती है—व्यक्ति संकुचित जीवन में आबद्ध रह जाता है। वह भूल जाता है कि विभूतियां अनन्त हैं, सतपात्र के माध्यम से वह प्रवाहित मात्र होती हैं। संकुचित होना अपनी पात्रता पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा देना है।
सूर्यार्घ्य में साधक सूर्य के सामने छोटे से पात्र से जल चढ़ाता है। छोटे से पात्र से सीमित जल-सूर्य के प्रभाव से छोटी सी सीमा से निकल कर समग्र व्योम में फैल जाता है। अपने काय कलेवर की सीमा में कैद अपनी विभूतियों-शक्ति सामर्थ्यों के सम्बन्ध में भी यही सोचना चाहिये। अर्घ्यदान के साथ यह भावना प्रभाव उभरता चाहिए कि हम संकुचित न रहकर व्यापक बनें। ऐसा करते हुए अनुभव करना चाहिए कि इस आत्मिक संकल्प की सत्यता के अनुपात में ही परमात्म सत्ता का स्नेह अनुदान अपने ऊपर बरस रहा है। इस प्रकार प्रार्थना एवं सूर्यार्घ्यदान को अहंकार निवारण एवं समर्पण योग की साधना के रूप में क्रमशः प्रखरतार बनाते चलता चाहिए।