Books - गायत्री उपनिषद्
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सर्वसम्मत, सर्वश्रेष्ठ साधना
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तत्वदर्शियों ने गायत्री उपासना को सदैव सर्वश्रेष्ठ ठहराया है। अन्य प्रसंगों में भिन्न-भिन्न विचारकों के मतों में भिन्नता मिलती है, किन्तु गायत्री के सम्बन्ध में सभी एक स्वर से एक मत होकर उसकी महत्ता स्वीकार करते रहे हैं। कुछ महत्वपूर्ण चिन्तकों के निष्कर्ष यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
भगवान् मनु का कथन है—ब्रह्माजी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मन्त्र निकाला। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मन्त्र नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री जप करता है वह ईश्वर को प्राप्त करता है। जो द्विज दोनों संध्याओं में गायत्री जपता है वह वेद पढ़ने के फल को प्राप्त होता है। अन्य कोई साधना करे या न करे केवल गायत्री जप से भी सिद्धि पा सकता है। नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है, जैसे केंचुली से सर्प छूट जाता है। जो द्विज गायत्री की उपासना नहीं करता वह निन्दा का पात्र है।
योगिराज याज्ञवलक्य कहते हैं—‘गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तोला गया। एक ओर षट अंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री, तो गायत्री का पलड़ा भारी रहा। वेदों का सार उपनिषद् है, उपनिषद् का सार गायत्री को माना, व्याहृतियों समेत गायत्री। गायत्री वेदों की जननी है, पापों का नाश करने वाली है, इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, गायत्री से श्रेष्ठ मन्त्र न हुआ न आगे होगा। गायत्री जान लेने वाला समस्त विद्याओं का वेत्ता, श्रेय और श्रोत्रिय हो जाता है। जो द्विज गायत्री परायण नहीं वह वेदों का पारंगत होते हुए भी शूद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है। जो गायत्री नहीं जानता ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता है।
पाराशर जी कहते हैं—समस्त जप सूक्तों तथा वेद मन्त्रों में गायत्री मन्त्र परम श्रेष्ठ है। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है। भक्ति पूर्वक गायत्री का जप करने वाला मुक्त होकर पवित्र बन जाता है। वेद, शास्त्र, पुराण इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिए।
शंख ऋषि का मत है—नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है। उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है। गायत्री का ज्ञाता निस्संदेह स्वर्ग को प्राप्त करता है।
अत्रि मुनि कहते हैं—‘‘गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है। उसके प्रताप से कठिन दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है। जो मनुष्य गायत्री तत्व को भली प्रकार समझ लेता है उसके लिये इस संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता।’’
महर्षि व्यासजी कहते हैं—‘जिस प्रकार पुष्प का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है। सिद्धि की हुई गायत्री कामधेनु के समान है। गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्म-गंगा से आत्मा पवित्र होती है। जो गायत्री छोड़कर अन्य उपासनायें करता है, वह पकवान छोड़कर भिक्षा मांगने वाले के समान मूर्ख है। काम्य सफलता तथा तप की वृद्धि के लिये गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।’
भारद्वाज ऋषि कहते हैं—‘ब्रह्मा आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं, वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है। अनुचित काम करने वालों के दुर्गुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं। गायत्री से रहित व्यक्ति शूद्र से भी अपवित्र है।’
चरक ऋषि कहते हैं—‘जो ब्रह्मचर्य पूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आंवले के ताजे फलों का सेवन करता है वह दीर्घजीवी होता है।’
नारदजी की उक्ति है—‘गायत्री भक्ति का ही स्वरूप है। जहां भक्ति रूपी गायत्री है, वहां श्री नारायण का निवास होने में कोई संदेह नहीं करना चाहिये।’
वशिष्ठजी का मत है—‘मन्दमति, कुमार्गगामी और अस्थिरमति भी गायत्री के प्रभाव से उच्च पद को प्राप्त करते हैं, फिर सद्गति होना निश्चित है। जो पवित्रता और स्थिरतापूर्वक गायत्री की उपासना करते हैं वे आत्म लाभ प्राप्त करते हैं।’
उपरोक्त अभिमतों से मिलते-जुलते अभिमत प्रायः सभी ऋषियों के हैं। वर्तमान शताब्दी के आध्यात्मिक तथा दार्शनिक महापुरुषों ने भी गायत्री के महत्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्वदर्शी ऋषियों ने किया था। उनमें से कुछ के विचार देखिये—
महात्मा गांधी कहते हैं—‘गायत्री मन्त्र का निरन्तर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्मा की उन्नति के लिये उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शान्त हृदय से किया हुआ जप आपत्तिकाल के संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है।’
लोकमान्य तिलक कहते हैं—‘जिस बहुमुखी दासता के बन्धनों में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है उसका अन्त राजनैतिक संघर्ष करने मात्र से न हो जायगा। उसके लिये आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिए, जिससे सत् और असत् का विवेक हो। कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले, गायत्री मन्त्र में यही भावना विद्यमान है।’
महात्मा मदनमोहन मालवीयजी ने कहा था—‘ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिये हैं उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री है। गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है। ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है। इस प्रकाश से असंख्यों आत्माओं को भव बन्धन से त्राण मिला है। गायत्री में ईश्वर परायणता के भाव उत्पन्न होने की शक्ति है। साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है। गायत्री की उपासना ब्राह्मणों के लिये तो अत्यन्त आवश्यक है। जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता वह अपने कर्त्तव्य धर्म को छोड़ने का अपराधी होता है।’
कवीन्द्र-रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं—‘भारतवर्ष को जगाने वाला जो मन्त्र है वह इतना सरल है कि एक ही श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है। वह है—गायत्री मन्त्र। इस पुनीत मन्त्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक उहापोह, किसी प्रकार के मतभेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजाइश नहीं है।’
योगी अरविन्द ने कई जगह गायत्री जप करने का निर्देश किया है। उन्होंने बताया कि गायत्री में ऐसी शक्ति सन्निहित है जो महत्वपूर्ण-काय कर सकती है। उन्होंने कइयों को साधना के तौर पर गायत्री का जप बतलाया है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उपदेश है—‘मैं लोगों से कहता हूं कि लम्बे साधन करने की उतनी जरूरत नहीं है। इस छोटी-सी गायत्री की साधना करके देखो। गायत्री का जप करने से बड़ी-बड़ी सिद्धियां मिल जाती हैं। यह मन्त्र छोटा है पर इसकी शक्ति बड़ी भारी है।’
स्वामी विवेकानन्द का कथन है—‘राजा से वही वस्तु मांगी जानी चाहिये जो उसके गौरव के अनुकूल हो। परमात्मा से मांगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है। जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत् कर्म से सब प्रकार के सुख मिलते हैं। जो सत् की ओर बढ़ रहा है उसे किसी प्रकार के सुख की कमी नहीं रहती। गायत्री सद्बुद्धि का मन्त्र है। इसलिये उसे मन्त्रों का मुकुटमणि कहा है।’
जगद्गुरु शंकराचार्य जी का कथन है—‘गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर है। बुद्धि का होना इतना बड़ा कार्य है जिसकी समता संसार के और किसी काम से नहीं हो सकती। आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की दिव्य दृष्टि जिस बुद्धि से प्राप्त होती है, उसकी प्रेरणा गायत्री द्वारा होती है। गायत्री आदि-मन्त्र है। उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और रित के अभिवर्धन के लिये हुआ है।’
स्वामी रामतीर्थ ने कहा—‘राम को प्राप्त करना सबसे बड़ा काम है। गायत्री का अभिप्राय बुद्धि को काम-रुचि से हटाकर राम-रुचि में लगा देना है। जिसकी बुद्धि पवित्र होगी वही राम को प्राप्त कर सकेगा। गायत्री पुकारती है कि बुद्धि में इतनी पवित्रता होनी चाहिए कि वह राम को काम से बढ़कर समझे।’
महर्षि रमण का उपदेश है—‘योग-विद्या के अन्तर्गत मंत्र-विद्या बड़ी प्रबल है। मन्त्रों की शक्ति से उद्भूत सफलतायें मिलती हैं। गायत्री ऐसा मन्त्र है, जिससे आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं।’
स्वामी शिवानन्द जी कहते हैं—‘ब्रह्म मुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और हृदय में निर्मलता आती है। शरीर निरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूर-दर्शिता बढ़ता है और स्मरण शक्ति का विकास होता है। कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दैवी सहायता मिलती है। उसके द्वारा आत्म-दर्शन हो सकता है।’
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आत्मज्ञानी टी. सुव्वाराव कहते हैं—‘सविता नारायण की दैवी प्रकृति को गायत्री कहते हैं। आदि-शक्ति होने के कारण इसको गायत्री कहते हैं। गीता में इसका वर्णन ‘आदित्य वर्ण’ कहकर किया गया है। गायत्री की उपासना करना योगा का सबसे प्रथम अंग है।’
श्री स्वामी करपात्रीजी का कथन है—‘जो गायत्री के अधिकारी हैं उन्हें नित्य नियमित रूप से जप करना चाहिए। द्विजों के लिये गायत्री का जप अत्यन्त आवश्यक धर्मकृत्य है।’
गीता धर्म के व्याख्याता श्री स्वामी विद्यानन्द कहते हैं—‘गायत्री बुद्धि को पवित्र करती है। बुद्धि की पवित्रता से बढ़कर जीवन में दूसरा लाभ नहीं है इसलिये गायत्री एक बहुत बड़े लाभ की जननी है।’
सर राधाकृष्णन कहते हैं—‘यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें तो हमें मालूम होगा कि यह वास्तव में कितना ठोस लाभ देती है। गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है।’
प्रसिद्ध आर्यसमाजी महात्मा सर्वदानन्द जी का कथन है—‘गायत्री मन्त्र द्वारा प्रभु का पूजन सदा से आर्यों की रीति रही है। ऋषि दयानन्द ने भी उसी शैली का अनुसरण करके संध्या का विधान तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रयत्न करना बताया है। ऐसा करने से अन्तःकरण की शुद्धि तथा बुद्धि निर्मल होकर मनुष्य का जीवन अपने तथा दूसरों के लिये हितकर हो जाता है। जितना ही इस शुभ कर्म में श्रद्धा और विश्वास हो उतना ही अविद्या आदि क्लेशों का ह्रास होता है। जो जिज्ञासु गायत्री मन्त्र का प्रेम और नियम पूर्वक उच्चारण करते हैं, उनके लिये यह संसार-सागर में तरने की नाव और आत्म-प्राप्ति की सड़क है।’
आर्य समाज के जन्मदाता श्री स्वामी दयानन्द गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे। ग्वालियर के राजासाहब से स्वामीजी ने कहा कि भागवत्-सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण अधिक श्रेष्ठ है। जयपुर में सच्चिदानन्द, हीरालाल रावल, घोड़लसिंह आदि को गायत्री जप की विधि सिखाई थी। मुलतान में उपदेश के समय स्वामीजी ने गायत्री मंत्र का उच्चारण किया और कहा कि यह मन्त्र सबसे श्रेष्ठ है। चारों वेदों का मूल यही गुरुमंत्र है। आदि काल से सभी ऋषि मुनि इसी का जप किया करते थे। स्वामीजी ने कई स्थानों पर गायत्री अनुष्ठानों का आयोजन कराया था, जिसमें चालीस तक की संख्या में विद्वान् ब्राह्मण बुलाये गये थे। यह जप पन्द्रह दिन तक चले थे।
थियोसोफिकल सोसाइटी के एक वरिष्ठ सदस्य प्रो. आर. श्रीनिवास का कथन है—‘‘हिन्दू धार्मिक विचारधारा में गायत्री को सबसे अधिक शक्तिशाली मन्त्र माना गया है। उसका अर्थ भी बड़ा दूरगामी और गूढ़ है। इस मन्त्र के अनेक अर्थ होते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार की चित्तवृत्ति वाले व्यक्तियों पर इसका प्रभाव भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। इसमें दृष्ट और अदृष्ट, उच्च और नीच, मानव और देव सबको किसी रहस्यमय तन्तु द्वारा एकत्रित कर लेने की शक्ति पाई जाती है। जब इस मन्त्र का अधिकारी व्यक्ति गायत्री के अर्थ और रहस्य, मन और हृदय को एकाग्र करके उसका शुद्ध उच्चारण करता है, तब उसका सम्बन्ध दृश्य सूर्य में अन्तर्निहित महान् चैतन्य शक्ति से स्थापित हो जाता है। वह मनुष्य कहीं भी मन्त्रोच्चारण करता हो पर उसके ऊपर तथा आस-पास के वातावरण में विराट् ‘आध्यात्मिक प्रभाव’ उत्पन्न हो जाता है। यही प्रभाव एक महान् आध्यात्मिक आशीर्वाद है। इन्हीं कारणों से हमारे पूर्वजों ने गायत्री मन्त्र की अनुपम शक्ति के लिये उसकी स्तुतियां की हैं।
इस प्रकार वर्तमान शताब्दी के अनेकों गण्यमान्य बुद्धिवादी महापुरुषों के अभिमत हमारे पास संग्रहीत हैं। उन पर विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि गायत्री उपासना कोई अन्ध विश्वास, अन्ध परम्परा नहीं है वरन् उसके पीछे आत्मोन्नति करने वाले ठोस तत्वों का बल है। इस महान् शक्ति को अपनाने का जिसने भी प्रयत्न किया है उसे लाभ मिलता है। गायत्री साधना कभी निष्फल नहीं जाती।
भगवान् मनु का कथन है—ब्रह्माजी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मन्त्र निकाला। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मन्त्र नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री जप करता है वह ईश्वर को प्राप्त करता है। जो द्विज दोनों संध्याओं में गायत्री जपता है वह वेद पढ़ने के फल को प्राप्त होता है। अन्य कोई साधना करे या न करे केवल गायत्री जप से भी सिद्धि पा सकता है। नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है, जैसे केंचुली से सर्प छूट जाता है। जो द्विज गायत्री की उपासना नहीं करता वह निन्दा का पात्र है।
योगिराज याज्ञवलक्य कहते हैं—‘गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तोला गया। एक ओर षट अंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री, तो गायत्री का पलड़ा भारी रहा। वेदों का सार उपनिषद् है, उपनिषद् का सार गायत्री को माना, व्याहृतियों समेत गायत्री। गायत्री वेदों की जननी है, पापों का नाश करने वाली है, इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, गायत्री से श्रेष्ठ मन्त्र न हुआ न आगे होगा। गायत्री जान लेने वाला समस्त विद्याओं का वेत्ता, श्रेय और श्रोत्रिय हो जाता है। जो द्विज गायत्री परायण नहीं वह वेदों का पारंगत होते हुए भी शूद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है। जो गायत्री नहीं जानता ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता है।
पाराशर जी कहते हैं—समस्त जप सूक्तों तथा वेद मन्त्रों में गायत्री मन्त्र परम श्रेष्ठ है। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है। भक्ति पूर्वक गायत्री का जप करने वाला मुक्त होकर पवित्र बन जाता है। वेद, शास्त्र, पुराण इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिए।
शंख ऋषि का मत है—नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है। उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है। गायत्री का ज्ञाता निस्संदेह स्वर्ग को प्राप्त करता है।
अत्रि मुनि कहते हैं—‘‘गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है। उसके प्रताप से कठिन दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है। जो मनुष्य गायत्री तत्व को भली प्रकार समझ लेता है उसके लिये इस संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता।’’
महर्षि व्यासजी कहते हैं—‘जिस प्रकार पुष्प का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है। सिद्धि की हुई गायत्री कामधेनु के समान है। गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्म-गंगा से आत्मा पवित्र होती है। जो गायत्री छोड़कर अन्य उपासनायें करता है, वह पकवान छोड़कर भिक्षा मांगने वाले के समान मूर्ख है। काम्य सफलता तथा तप की वृद्धि के लिये गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।’
भारद्वाज ऋषि कहते हैं—‘ब्रह्मा आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं, वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है। अनुचित काम करने वालों के दुर्गुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं। गायत्री से रहित व्यक्ति शूद्र से भी अपवित्र है।’
चरक ऋषि कहते हैं—‘जो ब्रह्मचर्य पूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आंवले के ताजे फलों का सेवन करता है वह दीर्घजीवी होता है।’
नारदजी की उक्ति है—‘गायत्री भक्ति का ही स्वरूप है। जहां भक्ति रूपी गायत्री है, वहां श्री नारायण का निवास होने में कोई संदेह नहीं करना चाहिये।’
वशिष्ठजी का मत है—‘मन्दमति, कुमार्गगामी और अस्थिरमति भी गायत्री के प्रभाव से उच्च पद को प्राप्त करते हैं, फिर सद्गति होना निश्चित है। जो पवित्रता और स्थिरतापूर्वक गायत्री की उपासना करते हैं वे आत्म लाभ प्राप्त करते हैं।’
उपरोक्त अभिमतों से मिलते-जुलते अभिमत प्रायः सभी ऋषियों के हैं। वर्तमान शताब्दी के आध्यात्मिक तथा दार्शनिक महापुरुषों ने भी गायत्री के महत्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्वदर्शी ऋषियों ने किया था। उनमें से कुछ के विचार देखिये—
महात्मा गांधी कहते हैं—‘गायत्री मन्त्र का निरन्तर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्मा की उन्नति के लिये उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शान्त हृदय से किया हुआ जप आपत्तिकाल के संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है।’
लोकमान्य तिलक कहते हैं—‘जिस बहुमुखी दासता के बन्धनों में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है उसका अन्त राजनैतिक संघर्ष करने मात्र से न हो जायगा। उसके लिये आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिए, जिससे सत् और असत् का विवेक हो। कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले, गायत्री मन्त्र में यही भावना विद्यमान है।’
महात्मा मदनमोहन मालवीयजी ने कहा था—‘ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिये हैं उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री है। गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है। ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है। इस प्रकाश से असंख्यों आत्माओं को भव बन्धन से त्राण मिला है। गायत्री में ईश्वर परायणता के भाव उत्पन्न होने की शक्ति है। साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है। गायत्री की उपासना ब्राह्मणों के लिये तो अत्यन्त आवश्यक है। जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता वह अपने कर्त्तव्य धर्म को छोड़ने का अपराधी होता है।’
कवीन्द्र-रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं—‘भारतवर्ष को जगाने वाला जो मन्त्र है वह इतना सरल है कि एक ही श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है। वह है—गायत्री मन्त्र। इस पुनीत मन्त्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक उहापोह, किसी प्रकार के मतभेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजाइश नहीं है।’
योगी अरविन्द ने कई जगह गायत्री जप करने का निर्देश किया है। उन्होंने बताया कि गायत्री में ऐसी शक्ति सन्निहित है जो महत्वपूर्ण-काय कर सकती है। उन्होंने कइयों को साधना के तौर पर गायत्री का जप बतलाया है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उपदेश है—‘मैं लोगों से कहता हूं कि लम्बे साधन करने की उतनी जरूरत नहीं है। इस छोटी-सी गायत्री की साधना करके देखो। गायत्री का जप करने से बड़ी-बड़ी सिद्धियां मिल जाती हैं। यह मन्त्र छोटा है पर इसकी शक्ति बड़ी भारी है।’
स्वामी विवेकानन्द का कथन है—‘राजा से वही वस्तु मांगी जानी चाहिये जो उसके गौरव के अनुकूल हो। परमात्मा से मांगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है। जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत् कर्म से सब प्रकार के सुख मिलते हैं। जो सत् की ओर बढ़ रहा है उसे किसी प्रकार के सुख की कमी नहीं रहती। गायत्री सद्बुद्धि का मन्त्र है। इसलिये उसे मन्त्रों का मुकुटमणि कहा है।’
जगद्गुरु शंकराचार्य जी का कथन है—‘गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर है। बुद्धि का होना इतना बड़ा कार्य है जिसकी समता संसार के और किसी काम से नहीं हो सकती। आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की दिव्य दृष्टि जिस बुद्धि से प्राप्त होती है, उसकी प्रेरणा गायत्री द्वारा होती है। गायत्री आदि-मन्त्र है। उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और रित के अभिवर्धन के लिये हुआ है।’
स्वामी रामतीर्थ ने कहा—‘राम को प्राप्त करना सबसे बड़ा काम है। गायत्री का अभिप्राय बुद्धि को काम-रुचि से हटाकर राम-रुचि में लगा देना है। जिसकी बुद्धि पवित्र होगी वही राम को प्राप्त कर सकेगा। गायत्री पुकारती है कि बुद्धि में इतनी पवित्रता होनी चाहिए कि वह राम को काम से बढ़कर समझे।’
महर्षि रमण का उपदेश है—‘योग-विद्या के अन्तर्गत मंत्र-विद्या बड़ी प्रबल है। मन्त्रों की शक्ति से उद्भूत सफलतायें मिलती हैं। गायत्री ऐसा मन्त्र है, जिससे आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं।’
स्वामी शिवानन्द जी कहते हैं—‘ब्रह्म मुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और हृदय में निर्मलता आती है। शरीर निरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूर-दर्शिता बढ़ता है और स्मरण शक्ति का विकास होता है। कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दैवी सहायता मिलती है। उसके द्वारा आत्म-दर्शन हो सकता है।’
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आत्मज्ञानी टी. सुव्वाराव कहते हैं—‘सविता नारायण की दैवी प्रकृति को गायत्री कहते हैं। आदि-शक्ति होने के कारण इसको गायत्री कहते हैं। गीता में इसका वर्णन ‘आदित्य वर्ण’ कहकर किया गया है। गायत्री की उपासना करना योगा का सबसे प्रथम अंग है।’
श्री स्वामी करपात्रीजी का कथन है—‘जो गायत्री के अधिकारी हैं उन्हें नित्य नियमित रूप से जप करना चाहिए। द्विजों के लिये गायत्री का जप अत्यन्त आवश्यक धर्मकृत्य है।’
गीता धर्म के व्याख्याता श्री स्वामी विद्यानन्द कहते हैं—‘गायत्री बुद्धि को पवित्र करती है। बुद्धि की पवित्रता से बढ़कर जीवन में दूसरा लाभ नहीं है इसलिये गायत्री एक बहुत बड़े लाभ की जननी है।’
सर राधाकृष्णन कहते हैं—‘यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें तो हमें मालूम होगा कि यह वास्तव में कितना ठोस लाभ देती है। गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है।’
प्रसिद्ध आर्यसमाजी महात्मा सर्वदानन्द जी का कथन है—‘गायत्री मन्त्र द्वारा प्रभु का पूजन सदा से आर्यों की रीति रही है। ऋषि दयानन्द ने भी उसी शैली का अनुसरण करके संध्या का विधान तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रयत्न करना बताया है। ऐसा करने से अन्तःकरण की शुद्धि तथा बुद्धि निर्मल होकर मनुष्य का जीवन अपने तथा दूसरों के लिये हितकर हो जाता है। जितना ही इस शुभ कर्म में श्रद्धा और विश्वास हो उतना ही अविद्या आदि क्लेशों का ह्रास होता है। जो जिज्ञासु गायत्री मन्त्र का प्रेम और नियम पूर्वक उच्चारण करते हैं, उनके लिये यह संसार-सागर में तरने की नाव और आत्म-प्राप्ति की सड़क है।’
आर्य समाज के जन्मदाता श्री स्वामी दयानन्द गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे। ग्वालियर के राजासाहब से स्वामीजी ने कहा कि भागवत्-सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण अधिक श्रेष्ठ है। जयपुर में सच्चिदानन्द, हीरालाल रावल, घोड़लसिंह आदि को गायत्री जप की विधि सिखाई थी। मुलतान में उपदेश के समय स्वामीजी ने गायत्री मंत्र का उच्चारण किया और कहा कि यह मन्त्र सबसे श्रेष्ठ है। चारों वेदों का मूल यही गुरुमंत्र है। आदि काल से सभी ऋषि मुनि इसी का जप किया करते थे। स्वामीजी ने कई स्थानों पर गायत्री अनुष्ठानों का आयोजन कराया था, जिसमें चालीस तक की संख्या में विद्वान् ब्राह्मण बुलाये गये थे। यह जप पन्द्रह दिन तक चले थे।
थियोसोफिकल सोसाइटी के एक वरिष्ठ सदस्य प्रो. आर. श्रीनिवास का कथन है—‘‘हिन्दू धार्मिक विचारधारा में गायत्री को सबसे अधिक शक्तिशाली मन्त्र माना गया है। उसका अर्थ भी बड़ा दूरगामी और गूढ़ है। इस मन्त्र के अनेक अर्थ होते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार की चित्तवृत्ति वाले व्यक्तियों पर इसका प्रभाव भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। इसमें दृष्ट और अदृष्ट, उच्च और नीच, मानव और देव सबको किसी रहस्यमय तन्तु द्वारा एकत्रित कर लेने की शक्ति पाई जाती है। जब इस मन्त्र का अधिकारी व्यक्ति गायत्री के अर्थ और रहस्य, मन और हृदय को एकाग्र करके उसका शुद्ध उच्चारण करता है, तब उसका सम्बन्ध दृश्य सूर्य में अन्तर्निहित महान् चैतन्य शक्ति से स्थापित हो जाता है। वह मनुष्य कहीं भी मन्त्रोच्चारण करता हो पर उसके ऊपर तथा आस-पास के वातावरण में विराट् ‘आध्यात्मिक प्रभाव’ उत्पन्न हो जाता है। यही प्रभाव एक महान् आध्यात्मिक आशीर्वाद है। इन्हीं कारणों से हमारे पूर्वजों ने गायत्री मन्त्र की अनुपम शक्ति के लिये उसकी स्तुतियां की हैं।
इस प्रकार वर्तमान शताब्दी के अनेकों गण्यमान्य बुद्धिवादी महापुरुषों के अभिमत हमारे पास संग्रहीत हैं। उन पर विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि गायत्री उपासना कोई अन्ध विश्वास, अन्ध परम्परा नहीं है वरन् उसके पीछे आत्मोन्नति करने वाले ठोस तत्वों का बल है। इस महान् शक्ति को अपनाने का जिसने भी प्रयत्न किया है उसे लाभ मिलता है। गायत्री साधना कभी निष्फल नहीं जाती।