Books - गायत्री उपनिषद्
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गायत्री साधना का उद्देश्य
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नये विचारों से पुराने विचार बदल जाते हैं। कोई व्यक्ति किसी बात को गलत रूप से समझ रहा हो तो उसे तर्क, प्रमाण और उदाहरणों के आधार पर नई बात समझाई जा सकती हैं। यदि वह अत्यन्त ही दुराचारी, मूढ़, उत्तेजित या मदान्ध नहीं है, तो प्रायः सही बात को समझने में विशेष कठिनाई नहीं होती। सही बात समझ जाने पर प्रायः गलत मान्यता बदल जाती है। स्वार्थ या मान रक्षा के कारण कोई अपनी पूर्व मान्यता की वकालत करता रहे यह बात दूसरी है, पर मान्यता और विश्वास क्षेत्र में उसका विचार परिवर्तन अवश्य हो जाता है। ज्ञान द्वारा अज्ञान को हटा दिया जाना कुछ विशेष कठिन नहीं है।
परन्तु स्वभाव, रुचि, इच्छा, भावना और प्रकृति के बारे में यह बात नहीं है, इन्हें साधारण रीति से नहीं बदला जा सकता है। यह जिस स्थान पर जमी होती हैं वहां से आसानी से नहीं हटती। चूंकि मनुष्य चौरासी लाख कीट-पतंगों, जीव जन्तुओं की क्षुद्र योनियों में भ्रमण करता हुआ नर-देह में आता है, इसलिए स्वभावतः उसके पिछले जन्म-जन्मान्तरों के पाशविक नीच संस्कार बड़ी दृढ़ता से अपनी जड़ मनोभूमि में जमाये होते हैं। मस्तिष्क में नाना प्रकार के विचार आते और जाते हैं, उनमें परिवर्तन होता रहता है, पर उसका विशेष प्रभाव इस मनोभूमि पर नहीं पड़ता। अच्छे उपदेश सुनने, अच्छी पुस्तकें पढ़ने एवं गम्भीरतापूर्वक स्वयं आत्म-चिन्तन करने में मनुष्य भलाई और बुराई के धर्म-अधर्म के अन्तर को भली प्रकार समझ जाता है। उसे अपनी भूलें बुराइयां और कमजोरियां भली प्रकार प्रतीत हो जाती हैं। बौद्धिक स्तर पर वह सोचता है और चाहता है कि इन बुराइयों से उसे छुटकारा मिल जाय, कई बार तो वह अपनी काफी भर्त्सना भी करता है। इतने पर भी वह अपनी चिर संचित कुप्रवृत्तियों से, बुरी आदतों से अपने को अलग नहीं कर पाता।
उपरोक्त पंक्तियों का तात्पर्य यह नहीं है कि विचारशक्ति निरर्थक वस्तु है और उसके द्वारा कुसंस्कारों को जीतने में सहायता नहीं मिलती। इन पंक्तियों में यह कहा जा रहा है कि साधारण मनोबल की सदिच्छायें मनोभूमि का परिमार्जन करने में बहुत अधिक समय में मन्द प्रगति से धीरे-धीरे आगे बढ़ती है, अनेकों बार उन्हें निराशा और असफलता का मुंह देखना पड़ता है। इस पर भी यदि सद्विचारों का कार्य जारी रहे तो अवश्य ही कालान्तर में कुसंस्कारों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। अध्यात्म विद्या के आचार्य इतने आवश्यक कार्य को इतने विलम्ब तक पड़ा रहने देना नहीं चाहते। इसलिये उन्होंने इस सम्बन्ध में अत्यधिक गम्भीरता, सूक्ष्म दृष्टि और मनोयोगपूर्वक विचार करके मानव अन्तःकरण में रहने वाले पाशविक संस्कारों का पारदर्शी विश्लेषण किया है और वे इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि मनःक्षेत्र के जिस स्तर पर विचारों के कम्पन क्रियाशील रहते हैं, उससे कहीं अधिक गहरे स्तर पर संस्कारों की जड़ें होती हैं।
जैसे कुआं खोदने पर जमीन में विभिन्न जाति की मिट्टियों के पर्त निकलते हैं वैसे ही मनोभूमि के भी कितने ही पर्त है, उनके कार्य, गुण और क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं। ऊपर वाले दो पर्त (1) मन (2) बुद्धि
हैं। मन में इच्छायें, वासनायें, कामनायें पैदा होती हैं, बुद्धि का काम विचार करना, मार्ग ढूंढ़ना और निर्णय करना है। यह दोनों पर्त मनुष्य के निकट सम्पर्क में हैं इन्हें स्थूल मनः क्षेत्र कहते हैं। समझने से तथा परिस्थिति के परिवर्तन से इनमें आसानी से हेर-फेर हो जाता है।
इस स्थूल क्षेत्र के गहरे पर्त को सूक्ष्म मनःक्षेत्र कहते हैं। इसके प्रमुख भाग दो हैं—(1) चित्त (2) अहंकार। चित्त में संस्कार, आदत, रुचि, स्वभाव, गुण की जड़ें रहती हैं। अहंकार ‘अपने सम्बन्ध में मान्यता’ को कहते हैं। अपने को जो व्यक्ति धनी-दरिद्र, ब्राह्मण-शूद्र, पापी-पूण्यात्मा, अभागा-सौभाग्यशाली, स्त्री-पुरुष, मूर्ख-बुद्धिमान, तुच्छ-महान्, जीव-ब्रह्म, बद्ध-मुक्त आदि जैसा भी कुछ मान लेता है वह वैसे ही अहंकार वाला माना जाता है। आत्मा के अहम् के सम्बन्ध में मान्यता का नाम ही अहंकार है। इन मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अनेकों भेद-उपभेद हैं और उनके गुण कर्म अलग-अलग हैं, उनका वर्णन इन पंक्तियों में नहीं किया जा सकता। यहां तो उनका संक्षिप्त परिचय देना इसलिए आवश्यक हुआ कि कुसंस्कारों के निवारण के बारे में कुछ बातें भली प्रकार जानने में पाठकों को सुविधा हो।
जैसे मन और बुद्धि का जोड़ा है, वैसे ही चित्त और अहंकार का जोड़ा है। मन में नाना प्रकार की इच्छायें, कामनायें रहती हैं पर बुद्धि उनका निर्णय करती है कि कौन सी इच्छा प्रकट करने योग्य है, कौन-सी दवा देने योग्य है? इसे बुद्धि जानती है और वह सभ्यता, लोकाचार, समाजिक नियम, धर्म, कर्त्तव्य, असम्भव आदि का ध्यान रखते हुए अनुपयुक्त इच्छाओं को भीतर दबाती रहती है। जो इच्छा कार्य रूप में लाये जाने योग्य जंचती है, उन्हीं के लिए बुद्धि अपना प्रयत्न आरम्भ करती है। इस प्रकार यह दोनों मिलकर मस्तिष्क क्षेत्र में अपना ताना-बाना बुनते रहते हैं।
अन्तःकरण क्षेत्र में चित्त और अहंकार का जोड़ा अपना कार्य करता है। जीवात्मा अपने को जिस श्रेणी का, जिस स्तर का अनुभव करता है चित्त में उस श्रेणी के उसी स्तर के, पूर्व संस्कार सक्रिय और परिपुष्ट रहते हैं। कोई व्यक्ति अपने को शराबी, पाप वाला, कसाई, अछूत समाज के निम्न वर्ग का मानता है, तो उसका यह अहंकार उसके चित्त को उसी जाति के संस्कारों की जड़ जमाने और स्थिर रखने के लिए प्रस्तुत रखेगा। जो गुण, कर्म, स्वभाव इस श्रेणी के लोगों में होते हैं, वे सभी उसके चित्त में संस्कार रूप से जड़ जमाकर बैठ जायेंगे। यदि उसका अहंकार अपराधी या शराबी की मान्यता का परित्याग कर के लोक सेवी, महात्मा सच्चरित्र एवं उच्च होने की अपनी मान्यता स्थिर कर ले तो अतिशीघ्र उसकी पुरानी आदतें, आकांक्षायें, अभिलाषायें बदल जायेंगी और वह वैसा ही बन जायगा जैसा कि अपने सम्बन्ध में उसका विश्वास है।
अहंकार तक सीधी पहुंच साधना के अतिरिक्त और किसी मार्ग से नहीं हो सकती। मन और बुद्धि को शांत, मूर्छित, तन्द्रित अवस्था में छोड़कर सीधे अहंकार तक प्रवेश पाना ही साधना का उद्देश्य है। गायत्री-साधना का विधान भी इसी प्रकार का है। उसका सीधा प्रभाव अहंकार पर पड़ता है। ‘‘मैं ब्राह्मी-शक्ति का आधार हूं, ईश्वरी स्फुरणा गायत्री मेरे रोम रोम में ओत-प्रोत हो रही है, मैं उसे अधिकाधिक मात्रा में अपने अन्दर धारण करके ब्राह्मी-भूत हो रहा हूं।’’ यह मान्यताएं मानवीय अहंकार को पाशविक स्तर से बहुत ऊंचा उठा ले जाती हैं और उसे देवभाव में अवस्थित करती हैं। मान्यता कोई साधारण वस्तु नहीं है। गीता कहती है—‘वी यच्छ्रदः स एव सः’ जो अपने सम्बन्ध में जैसी श्रद्धा, मान्यता रखता है, वस्तुतः वैसा ही होता है। गायत्री-साधना अपने साधक में दैवी आत्म-विश्वास, ईश्वरीय अहंकार प्रदान करती है और वह कुछ ही समय में वस्तुतः वैसा ही हो जाता है। जिस स्तर पर उसकी आत्म-मान्यता है उसी स्तर पर चित्त-प्रवृत्तियां रहेंगी। वैसी ही आदतें, इच्छायें, रुचियां, प्रवृत्तियां, क्रियायें उसमें दीख पड़ेंगी। जो दिव्य मान्यता से ओत-प्रोत है, निश्चय ही उसकी इच्छायें, आदतें और क्रियायें वैसी ही होंगी। यह साधना प्रक्रिया मानव अन्तःकरण का कायाकल्प कर देती है। जिस आत्मसुधार के लिये उपदेश सुनना और पुस्तक पढ़ना विशेष सफल नहीं होता था वह कार्य साधना द्वारा सुविधापूर्वक पूरा हो जाता है। यही साधना का रहस्य है।
उच्च मनः क्षेत्र (सुपर मेण्टल) ही ईश्वरीय दिव्य शक्तियों के अवतरण का उपयुक्त स्थान है। हवाई जहाज वहीं उतरता है, वहां अड्डा होता है। ईश्वरीय दिव्य शक्ति मानव प्राणी के इसी उच्च मनःक्षेत्र में उतरती हैं। यदि वह साधना द्वारा निर्मल नहीं बना लिया गया है तो अति सूक्ष्म दिव्य शक्तियों को अपने में नहीं उतारा जा सकता। साधना, साधक के उच्च मनःक्षेत्र को उपयुक्त हवाई अड्डा बनाती है जहां वह दैवी शक्ति उतर सके।
गायत्री द्वारा सतोगुण वृद्धि के दिव्य लाभ
गायत्री सद्बुद्धि दायक मन्त्र है। वह साधक के मन को अन्तःकरण को, मस्तिष्क को, विचारों को, सन्मार्ग की ओर प्रेरित करती है। सत्-तत्व की वृद्धि करना उसका प्रधान कार्य है। साधक जब इस महामन्त्र के अर्थ पर विचार करता है तो वह समझ जाता है कि संसार की सर्वोपरि समृद्धि और जीवन की सबसे बड़ी सफलता सद्बुद्धि को प्राप्त करना है। यह मान्यता सुदृढ़ होने पर उसकी इच्छा शक्ति इसी तत्व को प्राप्त करने के लिए लालायित होती है। यह आकांक्षा मनःलोक में एक प्रकार का चुम्बकत्व उत्पन्न करती है उस चुम्बक की आकर्षण शक्ति से निखिल आकाश के ईथर तत्व में भ्रमण करने वाली सतोगुणी विचार धारायें भावनायें और प्रेरणायें खिंच-खिंच कर उस स्थान पर जमा होने लगती हैं। विचारों की चुम्बक शक्ति का विज्ञान सर्वविदित है। एक जाति के विचार अपने सजातीय विचारों को आकाश से खींचते हैं फलस्वरूप संसार के मृत और जीवित सत्पुरुषों के फैलाये हुए अविनाशी संकल्प जो शून्य में सदैव भ्रमण करते रहते हैं गायत्री साधक के पास दैवी वरदान की तरह अनायास ही आकर जमा होते रहते हैं और संचित पूंजी की भांति उनका एक बड़ा भण्डार जमा हो जाता है।
शरीर में सत् तत्व की अभिवृद्धि होने से शरीरचर्या की गतिविधि में काफी हेर-फेर हो जाता है। इन्द्रियों के भोगों में भटकने की गति मन्द हो जाती है। चटोरपन, तरह-तरह के स्वादों के पदार्थ खाने के लिये मन ललचाते रहना, बार-बार खाने की इच्छा होना, अधिक मात्रा में खा जाना, भक्षाभक्ष का विचार न रहना, सात्विक पदार्थों में अरुचि और चटपटे, मीठे, गरिष्ठ पदार्थों में रुचि, जैसी बुरी आदत धीरे-धीरे कम होने लगती है। हल्के, सुपाच्य, सरस, सात्विक भोजनों से उसे तृप्ति मिलती है और राजसी, तामसी खाद्यों से घृणा हो जाती है। इसी प्रकार कामेन्द्रिय की उत्तेजना सतोगुणी विचारों के कारण संयमित हो जाती है। कुमार्ग में, व्यभिचार, वासना में मन कम दौड़ता है, ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा बढ़ती है। फलस्वरूप वीर्य-रक्षा का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। कामेन्द्रिय और स्वादेन्द्रिय दो ही इन्द्रियां प्रधान हैं। इनका संयम होना स्वास्थ्य-रक्षा और शरीर-वृद्धि का प्रधान हेतु है। इनके साथ-साथ परिश्रम, स्नान, निद्रा, सोना जागना, सफाई, सादगी और अन्य दिनचर्याएं भी सतोगुणी हो जाती हैं, जिनके कारण आरोग्य और दीर्घजीवन की जड़ें मजबूत होती हैं।
मानसिक क्षेत्र में सद्गुणों की वृद्धि के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, स्वार्थ, आलस्य, व्यसन, व्यभिचार, छल, झूंठ, पाखंड, चिन्ता, भय, शोक, कदर्य सरीखे दोष कम होने लगते हैं। इनकी कमी से संयम, नियम, त्याग, समता, निरहंकारिता, सादगी, निष्कपटता, सत्यनिष्ठा, निर्भयता, निश्चिन्तता, निरालस्यता, शौर्य, विवेक, साहस, धैर्य, दया, प्रेम, सेवा, उदारता, कर्तव्य-परायणता, आस्तिकता सरीखे सद्गुण बढ़ने लगते हैं। इस मानसिक कायाकल्प का परिणाम यह होता है कि दैनिक जीवन में प्रायः नित्य ही आते रहने वाले अनेकों दुःखों का सहज ही समाधान हो जाता है। इन्द्रिय संयम और दिनचर्या के कारण शारीरिक रोगों का बड़ा निराकरण हो जाता है। विवेक जागृत होते ही अज्ञानजन्य चिन्ता, शोक, भय, आशंका, मोह, ममता हानि आदि के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। ईश्वर-विश्वास के कारण मति स्थिर रहती है और भावी जीवन के बारे में निश्चिंतता बनी रहती है। धर्म-प्रवृत्ति के कारण पाप, अन्याय, अनाचार नहीं बन पड़ते। फलस्वरूप राजदण्ड समाज-दण्ड, आत्म-दण्ड और ईश्वर दण्ड की चोटों से पीड़ित नहीं होना पड़ता। सेवा, नम्रता, उदारता, दान, ईमानदारी, लोकहित आदि गुणों के कारण दूसरों को लाभ पहुंचता है, हानि की आशंका नहीं रहती। इससे प्रायः सभी लोग उनके कृतज्ञ, प्रशंसक, सहायक, भक्त एवं रक्षक होते हैं। पारस्परिक सद्भावनाओं के परिवर्तन से आत्मा की तृप्ति करने वाले प्रेम और सन्तोष नामक रस दिन-दिन अधिक मात्रा में उपलब्ध होकर जीवन को आनन्दमय बनाते चलते हैं। इस प्रकार शारीरिक और मानसिक क्षेत्रों में सत्व-तत्व की वृद्धि होने से दोनों ओर आनन्द का स्रोत उमड़ता है और गायत्री का साधक उसमें निमग्न रहकर आत्म-सन्तोष का, परमानन्द का रसास्वादन करता है।
आत्मा ईश्वर का अंश होने से उन सब शक्तियों को बीज रूप से अन्दर छिपाये रहता है जो ईश्वर में होती हैं। वे शक्तियां सुप्तावस्था में रहती हैं और मानसिक तापों के, विषय विकारों के, दोष-दुर्गुणों के ढेर में दबी हुई अज्ञान रूप से पड़ी रहती है। लोग समझते हैं कि हम दीन-हीन-तुच्छ और अशक्त हैं पर जो साधक मनोविकारों का पर्दा हटाकर निर्मल आत्म-ज्योति के दर्शन करने में समर्थ होते हैं, वे जानते हैं कि सर्वशक्तिमान् ईश्वरीय ज्योति उनकी आत्मा में मौजूद है और वे परमात्मा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। अग्नि के ऊपर से राख हटा दी जाय तो फिर दहकता हुआ अंगार प्रकट हो जाता है। वह अंगार छोटा होते हुए भी भयंकर अग्निकांडों की सम्भावना से युक्त होता है। यह पर्दा फटते ही तुच्छ मनुष्य महान आत्मा (महात्मा) बन जाता है। चूंकि आत्मा में अनेकों ज्ञान, विज्ञान, साधारण, असाधारण अद्भुत, आश्चर्यजनक शक्ति के भण्डार छिपे पड़े हैं, वे खुल जाते हैं और वह सिद्ध योगी के रूप में दिखाई पड़ता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिये बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता, किसी देव दानव की कृपा की जरूरत नहीं पड़ती केवल अन्तःकरण पर पड़े हुए आवरणों को हटाना पड़ता है। गायत्री की सतोगुणी साधना का सूर्य तामसिक अन्धकार के पर्दे को हटा देता है और आत्मा का सहज ईश्वरीय रूप प्रकट हो जाता है। आत्मा का यह निर्मल रूप सभी ऋद्धि-सिद्धियों से परिपूर्ण होता है।
गायत्री द्वारा हुई सतोगुणों की वृद्धि अनेक प्रकार की आध्यात्मिक और सांसारिक समृद्धियों की जननी है, शरीर और मन की शुद्धि सांसारिक जीवन को अनेक दृष्टियों से सुख-शांतिमय बनाती है। आत्मा में विवेक और आत्मबल की मात्रा बढ़ जाने से अनेक ऐसी कठिनाइयां जो दूसरों को पर्वत के समान भारी मालूम पड़ती हैं उस आत्मवान् व्यक्ति के लिए तिनके के समान हल्की बन जाती हैं। उसका कोई काम रुका नहीं रहता। या तो उसकी इच्छा के अनुसार परिस्थिति बदल जाती है या परिस्थिति के अनुसार अपनी इच्छाओं को बदल लेता है। क्लेश का कारण इच्छा और परिस्थिति के बीच प्रतिकूलता का होना ही तो है। विवेकवान इन दोनों में से किसी को अपनाकर उस संघर्ष को टाल देता है और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। उसके लिये इस पृथ्वी पर भी स्वर्गीय आनन्द की सुरसरि बहने लगती है।
वास्तव में सुख और आनन्द का आधार किसी बाहरी साधन-सामग्री पर नहीं किन्तु मनुष्य की मनःस्थिति पर रहता है। मन की साधना से जो मनुष्य एक समय राजसी भोजनों और रेशमी गद्दे तकिये से भी सन्तुष्ट नहीं होता वह किसी संत के उपदेश से त्याग और संन्यासी व्रत ग्रहण कर लेने पर जंगल की भूमि को ही सबसे उत्तम शैया और वन के कन्दमूल फलों को सर्वोत्तम आहार समझने लगता है। यह सब अन्तर मनोभाव और विचार धारा के बदल जाने से ही पैदा हो जाता है। गायत्री बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी है और उससे हम सद्बुद्धि की याचना किया करते हैं। अतएव यदि गायत्री की उपासना के परिणाम-स्वरूप हमारे विचारों का स्तर ऊंचा उठ जाय और मानव जीवन की वास्तविकता को समझ कर अपनी वर्तमान स्थिति में ही आनन्द का अनुभव करने लगें तो इसमें कुछ भी असम्भव नहीं है।
निश्चित फलदायी साधना—
गायत्री की उपासना चाहे निष्काम भाव से की जाय चाहे सकाम भाव से, पर उसका फल अवश्य मिलता है। भोजन चाहे सकाम भाव से किया जाय, चाहे निष्काम भाव से, उससे भूख शान्त होने और रक्त बनने का परिणाम अवश्य होगा। गीता आदि सत्शास्त्रों में निष्काम कर्म करने पर इसलिए जोर दिया गया है कि उचित रीति से सत्कर्म करने पर भी यह निश्चित नहीं कि हम जो फल चाहते हैं वह निश्चित रूप से मिल ही जायगा। कई बार देखा गया है कि पूरी सावधानी और तत्परता से करने पर भी वह काम पूरा नहीं होता जिसकी इच्छा से यह सब किया गया था। ऐसी असफलता के अवसर पर साधक खिन्न, निराश अश्रद्धालु न हो जाय और श्रेष्ठ साधना मार्ग से उदासीन न हो जाय, इसलिये शास्त्रकारों ने निष्काम कर्म को, निष्काम साधना को अधिक श्रेष्ठ माना है और उसी पर अधिक जोर दिया है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि साधना का श्रम निरर्थक चला जाता है या साधना प्रणाली ही संदिग्ध है। उसकी प्रामाणिकता और विश्वस्तता में सन्देह करने की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। इस दिशा में किये गये प्रयत्न का एक क्षण भी निरर्थक नहीं जाता। आज तक जिसने भी इस दिशा में कदम बढ़ाये हैं, उसे अपने श्रम का भरपूर प्रतिफल अवश्य मिला है। केवल एक अड़चन है कि सदा अभीष्ट मनोवांछा पूर्ण हो जाय यह सुनिश्चित नहीं है।
कारण यह है कि प्रारब्ध कर्मों का परिपाक होकर जो प्रारब्ध बन चुकी है, उन कर्म रेखाओं को मेटना कठिन होता है। यह रेखायें, कई बार तो साधारण होती है और प्रयत्न करने से उनमें हेर-फेर हो जाता है और कई बार वे भोग इतने प्रबल और सुनिश्चित होते हैं कि उनका टालना सम्भव नहीं होता। ऐसे कठिन प्रारब्धों के बन्धन में बड़े-बड़ों को बन्धन और उनकी यातनाओं को भुगतना पड़ा है।
यहां यह सन्देह उत्पन्न हो सकता है कि जब प्रारब्ध ही प्रबल है, तो प्रयत्न करने से क्या लाभ? ऐसा सन्देह करने वालों को समझना चाहिए कि जीवन के सभी कार्य प्रारब्ध पर निर्भर नहीं होते। कोई विशेष होतव्यतायें ही ऐसी होती हैं जो टल न सकें। जीवन का अधिकांश भाग ऐसा होता है जिसमें तात्कालिक कर्मों का फल प्राप्त होता रहता है, क्रिया का परिणाम अधिकतर हाथों हाथ मिलता जाता है।
गायत्री की सकाम साधना जहां अधिकतम अभीष्ट प्रयोजनों में सफलता प्रदान करती है वहां कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वैसा न हो, प्रयत्न निष्फल दीख पड़े या विपरीत परिणाम हो। ऐसे अवसरों पर अकाट्य प्रारब्ध की प्रबलता ही समझनी चाहिए।
अभीष्ट फल भी न मिले तो भी गायत्री साधना का श्रम खाली नहीं जाता, उससे दूसरे प्रकार के लाभ तो प्राप्त हो ही जाते हैं। जैसे कोई नवयुवक किसी दूसरे नवयुवक को कुश्ती पछाड़ने के लिए व्यायाम और पौष्टिक भोजन द्वारा अपने शरीर को सुदृढ़ बनाने की उत्साहपूर्वक तैयारी करता है। पूरी तैयारी के बाद भी कदाचित वह कुश्ती पछाड़ने में असफल रहता है तो ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि उसकी तैयारी निरर्थक चली गई। वह तो अपना लाभ दिखावेगी ही, शरीर की सुदृढ़ता, चेहरे की कान्ति, अंगों की सुडौलता, फेफड़ों की मजबूती, बल वीर्य की अधिकता, नीरोगिता, दीर्घ जीवन, कार्य क्षमता, बलवान् सन्तान आदि अनेकों लाभ उस बढ़ी हुई तन्दुरुस्ती से प्राप्त होकर रहेंगे। कुश्ती की सफलता से वंचित रहना पड़ा, ठीक है शरीर की बल-बुद्धि द्वारा प्राप्त होने वाले अन्य लाभों से उसे कोई वंचित नहीं कर सकता, गायत्री साधक अपने काम्य प्रयोजन में सफल न हो सके तो भी उसे अन्य-अन्य अनेकों मार्गों में से ऐसे-ऐसे लाभ मिलेंगे, जिनकी आशा बिना साधना के नहीं की जा सकती थी।
वहां एक बात और ध्यान में रखी जाय, माता अपने किसी बच्चे को खिलौने और मिठाई देकर दुलार करती है और किसी को अस्पताल में आपरेशन की कठोर पीड़ा दिलाने ले जाती है एवं कड़वी दवा पिलाती हैं। बालक इस व्यवहार को माता का पक्षपात, अन्याय, निर्दयता या जो चाहे कह सकता है पर माता के हृदय को खोलकर देखा जाय तो उसके अन्तःकरण में दोनों बालकों के लिये समान प्यार होता है। बालक जिस कार्य को अपने साथ अन्याय या शत्रुता समझता है, माता की दृष्टि में वही दुलार का सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है। हमारी असफलतायें, हानियां तथा यातनायें भी कई बार हमारे लाभ के लिए होती हैं। माता हमारी भारी आपत्तियों को उस छोटे कष्ट द्वारा निकाल देना चाहती है। उसकी दृष्टि विशाल है, उसका हृदय बुद्धिमत्तापूर्ण है, क्योंकि उसी में हमारा हित समाया हुआ होता है। दुःख, दारिद्र, रोग, हानि, क्लेश, अपमान, शोक, वियोग आदि देकर भी वह हमारे ऊपर अपनी महत्ती कृपा का प्रदर्शन करती है। इन कड़वी दवाओं को पिलाकर वह हमारे अन्दर छिपी हुई भयंकर व्याधियों का शमन करके भविष्य के लिए पूर्ण नीरोग बनाने में लगी रहती है। यदि ऐसा अवसर आवे तो गायत्री साधकों को अपना धैर्य न छोड़ना चाहिए और न निराश होना चाहिए क्योंकि जो माता की गोदी में अपने को डाल कर निश्चिन्त हो चुका है, वह घाटे में नहीं रहता। निष्काम भावना से साधना करने वाला भी सकाम साधना वालों से कम लाभ में नहीं रहता। माता से यह छिपा नहीं है कि उसके पुत्र को वस्तुतः किस वस्तु की आवश्यकता है। जो आवश्यकता उसकी दृष्टि में उचित है, उससे वह अपने किसी बालक को वंचित नहीं रहने देती।
अच्छा हो कि हम निष्काम साधना करें और चुपचाप देखते रहें कि हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण में वह आद्य शक्ति किस प्रकार सहायता कर रही है। श्रद्धा और विश्वास के साथ जिसने माता का आश्रय लिया है वह अपने सिर पर एक दैवी छत्रछाया का अस्तित्व प्रतिक्षण अनुभव करेगा और अपनी उचित आवश्यकताओं से कभी भी वंचित नहीं रहेगा। यह मान्य तथ्य है कि कभी किसी की गायत्री-साधना निष्फल नहीं जाती।
इन साधनाओं में अनिष्ट का कोई भय नहीं
मन्त्रों की साधना की एक विशेष विधि-व्यवस्था होती है। नित्य साधना-पद्धति से निर्धारित कर्मकाण्ड के अनुसार मन्त्रों का अनुष्ठान साधन, पुरश्चरण करना होता है। आमतौर से अविधिपूर्वक किया गया अनुष्ठान साधक के लिए हानिकारक सिद्ध होता है और लाभ के स्थान पर उससे अनिष्ट की सम्भावना रहती है।
अन्य वेद-मन्त्रों की भांति गायत्री का भी शुद्ध सस्वर उच्चारण होना और विधिपूर्वक साधन होना उचित है। विधिपूर्वक किये हुए साधन सदा शीघ्र सिद्ध होते हैं और उत्तम परिणाम उपस्थित करते हैं। इतना होते हुए भी वेदमाता गायत्री में एक विशेषता है कि कोई भूल होने पर उसका हानिकारक फल नहीं होता। जिस प्रकार दयालु, उदार और बुद्धिमती माता अपने बालकों का सदा हितचिंतन करती है, उसी प्रकार गायत्री शक्ति द्वारा भी साधक का हित सम्पादन होता है। माता के प्रति बालक गलतियां भी करते रहते हैं, उसके सम्मान में बालक से त्रुटि भी रह जाती है और कई बार तो वे उल्टा आचरण कर बैठते हैं। इतने पर भी माता न तो उनके प्रति दुर्भाव मन में लाती है और न उन्हें किसी प्रकार की हानि पहुंचाती है। जब साधारण मातायें इतनी दयालुता और क्षमा प्रदर्शित करती हैं तो जगत् जननी वेदमाता, सतोगुण की दिव्य सुरसरी गायत्री से और भी अधिक आशा की जा सकती है। वह अपने बालकों की अपने प्रति श्रद्धा भावना को देखकर प्रभावित हो जाती है, बालक की भक्ति भावना को देखकर माता का हृदय उमड़ पड़ता है। उसके वात्सल्य की अमृत निर्झरिणी फूट पड़ती है, जिसके दिव्य प्रवाह में साधना की छोटी-मोटी भूलें कर्म-काण्ड में अज्ञानवश हुई त्रुटियां तिनके के समान बह जाती हैं।
सतोगुणी साधना का विपरीत फल न होने का विश्वास भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में दिखाया है—
नेहाभिक्तम् नाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतोभयात् ।।
अर्थात्—सत्कार्य के आरम्भ का नाश नहीं होता—वह गिरता पड़ता, आगे बढ़ता चलता है। उससे उल्टा फल कभी नहीं निकलता। ऐसा कभी नहीं होता, कि सत् इच्छा से किया हुआ कार्य असत् हो जाय और उसका शुभ परिणाम न निकले। थोड़ा भी धर्म कार्य बड़े भयों से रक्षा करता है।
गायत्री साधना ऐसा ही सात्विक सत्कर्म है। जिसे
एक बार आरंभ कर दिया जाय तो मन की प्रवृत्तियां उस ओर अवश्य ही आकर्षित होती हैं और बीच में किसी प्रकार छूट जाय तो फिर भी समय-समय पर बार-बार उस साधक को पुनः आरम्भ करने की इच्छा उठती रहती है। किसी स्वादिष्ट पदार्थ का एक बार स्वाद मिल जाता है तो बार-बार उसे प्राप्त करने की इच्छा हुआ करती है। ऐसा ही अमृतोपम स्वादिष्ट आध्यात्मिक आहार है, जिसे प्राप्त करने के लिये आत्मा बार-बार मचलती है, बार-बार चीख पुकार करती है। उसकी साधना में कोई भूल रह जाय तो भी उल्टा परिणाम नहीं निकलता, किसी विपत्ति, संकट, या अनिष्ट का सामना नहीं करना पड़ता। भूलों का त्रुटियों का परिणाम यह हो सकता है कि आशा से कम फल मिले या अधिक से अधिक यह कि वह निष्फल चला जाय। इस साधना को किसी थोड़े से भी रूप में प्रारम्भ कर देने से उसका फल हर दृष्टि से उत्तम होता है। उस फल के कारण उन भयों से मुक्ति मिल जाती है, जो अन्य उपायों से बड़ी कठिनाई से हटाये जा सकते हैं।
इस विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिये भागवत् के बारहवें स्कन्ध में नारद जी ने भगवान् नारायण से यही प्रश्न किया था कि आप कोई ऐसा उपाय बतलावें जिसे अल्प शक्ति के मनुष्य भी सहज में कर सकें और जिससे माता प्रसन्न होकर उनका कल्याण करे। क्योंकि सभी देवताओं की साधना में प्रायः आचार-विचार, विधि-विधान, त्याग-तपस्या के कठिन नियम बतलाये गये हैं, जिनको सामान्य श्रेणी और थोड़ी विद्या बुद्धि वाले व्यक्ति पूरा नहीं कर सकते। इस पर भगवान् ने कहा—‘हे नारद! मनुष्य अन्य कोई अनुष्ठान करें या न करें, पर एक मात्र गायत्री में ही जो दृढ़ निष्ठा रखते हैं, वे अपने जीवन को धन्य बना लेते हैं। हे महामुनि! जो संध्या में अर्ध्य देते हैं और प्रतिदिन गायत्री का तीन हजार जप करते हैं वे देवताओं द्वारा भी पूजने योग्य बन जाते हैं। जप करने से पहले उसका न्यास किया जाता है क्योंकि शास्त्रकारों का कथन है कि ‘देवोभूत्वा देव यजेत्’ अर्थात्—देव जैसा बनकर देवों का यजन करना।’ परन्तु किसी कठिनाई या प्रमाद से न्यास न कर सके और सच्चिदानन्द गायत्री का निष्कपट भाव से ध्यान करके केवल उसका ही जप करता रहे, तो भी पर्याप्त है। गायत्री का एक अक्षर सिद्ध हो जाने से भी उत्तम ब्राह्मण विष्णु-शंकर, ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र, अग्नि के साथ स्पर्धा करता है। जो साधक नियमानुसार गायत्री की उपासना करता है, वह उसी के द्वारा सब प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कर लेता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।’’ इस कथानक से विदित होता है कि इस युग में गायत्री की सात्विक और निष्काम साधना ही सर्वश्रेष्ठ है। उससे निश्चय रूप से आत्म-कल्याण होता है।
इन सब बातों पर विचार करते हुए साधकों को निर्भय मन से स्थिति आदि के कारण यदि अपने साधन न बन पड़े तो आदान-प्रदान के निर्दोष एवं सीधे-साधे नियम के आधार पर अन्य अधिकारी पात्रों से वह कार्य कराया जा सकता है। यह तरीका भी काफी प्रभावपूर्ण और लाभदायक सिद्ध होता है। ऐसे सत्पात्र एवं अधिकारी अनुष्ठानकर्त्ता तलाश करने में अखण्ड-ज्योति संस्था से सहायता ली जा सकती है।