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Books - गायत्री उपनिषद्

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Language: HINDI
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षट् कर्म व्याख्या

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बतलाया जा चुका है कि कर्मकाण्ड में प्राण संचार अपनी श्रद्धा भावना के अनुपात में होता है। कर्मकांड यन्त्र की तरह न किये जावें। क्रियाओं के साथ-साथ उनसे सम्बन्धित भावनाओं को अन्तःकरण में जागृत करना चाहिये। संक्षेप में हर क्रिया से सम्बन्धित भावों का उल्लेख यहां किया जा रहा है। इन्हें पढ़कर, हृदयंगम कर लेने से क्रिया कांड के साथ समुचित भावनायें उभरने लगती हैं।
आत्म शुद्धि के षट्कर्म प्रख्यात हैं। देव पूजन आरम्भ करने से पूर्व इन उपचारों को सम्पन्न किया जाता है। किसी श्रेष्ठ सत्ता को बुलाने और बिठाने से पूर्व उसके लिए उपयुक्त स्वच्छता उत्पन्न करना आवश्यक है। गुरुजनों, महामानवों को, राजनेताओं को घर बुलाना होता है तो उनके लिए आवश्यक सफाई करानी पड़ती है और स्वच्छ उपकरण एकत्रित करने पड़ते हैं। दिवाली पर लक्ष्मी के आगमन की सम्भावना देखकर लोग सबसे अधिक ध्यान घर की सफाई पर देते हैं ताकि स्वच्छ वातावरण में उनको प्रसन्नता मिले और वह ठहर सकें। सर्वविदित है कि गन्दे स्थान में ठहरना किसी को पसन्द नहीं—गन्दे लोगों के साथ सम्बन्ध रखने—उनके पास जाने तथा बुलाने में सामान्य लोगों को भी रुचि नहीं होती, फिर देव शक्तियां तो उसके लिये तैयार होंगी ही क्यों? झूठे और मैले बर्तन में बहुमूल्य भोजन परसने से भी खाने वाले को घृणा ही उत्पन्न होती है। साधक की पवित्रता एवं पात्रता का चुम्बकत्व ही देव शक्तियों के अनुग्रह को अपनी ओर आकर्षित करता है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए साधना विज्ञान के ज्ञाताओं ने सर्वप्रथम आत्म शोधन की ओर ध्यान देने का विधान बनाया है। प्रस्तुत कर्मकांडों के सहारे जीवन में परिष्कार की ओर अधिकाधिक तत्परता बरतने के लिए उत्साह उत्पन्न किया जाता है।
1. पवित्रीकरण—साधना के लिए साधक यथासाध्य शुद्ध होकर ही बैठता है, किन्तु फिर भी जो कमी रह गयी हो उसे दिव्य सहयोग द्वारा पूरी करने के लिए यह कृत्य किया जाता है। मात्र क्रिया से वह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। अभिमन्त्रित जल को समस्त शरीर पर छिड़का जाय और यह भावना की जाय कि इस मंत्रपूत जल के साथ विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त पवित्रता तत्व की हमारे ऊपर वर्षा हो रही है और फुहारें के नीचे बैठ कर स्नान करने की तरह उस अमृत वर्षण का आनन्द लिया जा रहा है। पवित्रता शरीर के भीतर प्रवेश होकर समस्त चेतना को, भाव संस्थान को, पवित्र बनाती चली जा रही है।
2. आचमन—तीन आचमनों का तात्पर्य काया—विचारणा और भावना इन तीन चेतना के केन्द्रों में शांत, शीतल, सात्विकता का समावेश करना है। प्रथम आचमन काया में सच्चरित्रता, सात्विकता और वाणी में सदाशयता की स्थापना करने के लिये है। वाणी की विशेष पवित्रता इसलिए है कि उसके द्वारा उच्चारित जप प्रार्थना भगवान तक पहुंच सके। अनीति उपार्जित अन्न खाने वाली और असत्य, विक्षोभकारी वचन बोलने वाली वाणी का तेज नष्ट हो जाता है और उसके उच्चारण-मन्त्र शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकते। इस तथ्य को स्मृति में जमाये रहने के लिये प्रथम आचमन है।
द्वितीय आचमन विचारणा में चिंतन की शीतल सात्विकता स्थापित करने के लिये है। अशुद्ध, अपराधी, दुष्ट, दुर्बुद्धि के कारण यदि मस्तिष्क में अशांति के आंधी, तूफान उठते रहेंगे तो उसमें मनस्विता एवं तेजस्विता उपयुक्त न हो सकेगी, बहुमूल्य विचारशक्ति ऐसे ही अवांछनीय छिद्रों में होकर नष्ट होती रहेगी और खोखले मनःक्षेत्र में—ब्रह्मलोक में—दिव्य सत्ता का अवतरण न हो सकेगा। मानसिक पवित्रता को साधना की सफलता के लिए नितांत आवश्यक माना जाय इस मान्यता को सुदृढ़ बनाने की बात ध्यान में बनी रहे यह उद्देश्य दूसरे आचमन का है।
तीसरा आचमन भावशुद्धि के लिये है। जीवनोद्देश्य के प्रति उच्चस्तरीय निष्ठा और चिंतन एवं कर्तृत्व की श्रेष्ठता बनाये रहने वाली आस्था ही भावनिष्ठा है। प्रपंच, प्रलोभनों के आकर्षणों में व्यस्त निरर्थक अनर्थ भरा पतनोन्मुख जीवन जीने वाले लोग आत्मबल सम्पादित नहीं कर पाते। आकांक्षाओं का स्तर ऊंचा रहना ही भाव शुद्धि है। यह तथ्य सदा स्मरण बना रहे इसलिये तीसरा आचमन किया जाता है।
जैसे बालक माता का दूध पीकर उसके गुणों और शक्तियों को अपने में धारण करता है और परिपुष्ट होता है, उसी प्रकार साधक मंत्र बल से आचमन के जल को गायत्री माता के दूध के समान बना लेता है और उसका पान करके अपने आत्मबल को बढ़ाता है। इस आचमन से उसे त्रिविध ह्रीं, श्रीं, क्लीं शक्ति से युक्त आत्म-बल मिलता है, तदनुसार उसको आत्मिक पवित्रता, सांसारिक समृद्धि को सुदृढ़ बनाने वाली शक्ति प्राप्त होती है।
3. शिखा बन्धन—शिखा भारतीय संस्कृति की धर्म ध्वजा है। सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी गायत्री की प्रतीक है। भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठावान हर व्यक्ति शरीर के सर्वोच्च स्थल पर उसे स्थापित करता है। यह मस्तिष्क पर, विचारों पर, चिंतन पर, सद्-विचारणा-सद्बुद्धि के नियंत्रण की घोषणा है। इस दिव्य प्रतीक की दिव्य प्रेरणाओं का स्मरण तथा उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए यह कृत्य किया जाता है।
शिखा जिस स्थान पर रखी जाती है वहां सूक्ष्म शक्तियों से सम्पर्क करने वाले विशेष केन्द्र होते हैं। जल के स्पर्श तथा भावना के प्रभाव से उपासना काल में उसे विशेष रूप से सक्रिय बनाया जाता है ताकि दिव्य आदान-प्रदान का विशेष लाभ प्राप्त किया जा सके।
4. प्राणायाम—संध्या का तीसरा कोष है प्राणायाम अथवा प्राणाकर्षण। गायत्री की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए पूर्व पृष्ठों में यह बताया जा चुका है कि सृष्टि दो प्रकार की है—(1) जड़ अर्थात् परमाणुमयी (2) चैतन्य अर्थात् प्राणमयी। निखिल विश्व में जिस प्रकार परमाणुओं के संयोग-वियोग से विविध प्रकार के दृश्य उपस्थित होते रहते हैं, उसी प्रकार चैतन्य जगत् की विधि घटनायें घटित होती हैं। जैसे वायु अपने क्षेत्र में सर्वत्र भरी हुई है, उसी प्रकार वायु से भी असंख्य गुना सूक्ष्म चैतन्य प्राणत्व सर्वत्र व्याप्त है। इस तत्व की न्यूनाधिकता से हमारा मानस-क्षेत्र बलवान् तथा निर्मल होता है। इस प्राणतत्व को जो जितनी मात्रा में आकर्षित कर लेता है, धारण कर लेता है, उसकी आंतरिक स्थिति उतनी ही बलवान् हो जाती है। आत्म-तेज शूरता दृढ़ता पुरुषार्थ विशालता, महानता, सहनशीलता, धैर्य, स्थिरता सरीखे गुण प्राणशक्ति के परिचायक हैं। जिनमें प्राण कम होता है, वे शरीर से स्थूल भले ही हों पर डरपोक दब्बू झेंपने वाले कायर, अस्थिर मति संकीर्ण अनुदार, स्वार्थी, अपराधी मनोवृत्ति के घबराने वाले अधीर, तुच्छ नीच विचारों में ग्रस्त एवं चंचल मनोवृत्ति के होते हैं। इतने दुर्गुणों के होते हुए कोई व्यक्ति महान् नहीं बन सकता। इसलिये साधक को प्राण शक्ति अधिक मात्रा में अपने अन्दर धारण करने की आवश्यकता होती है। जिसे क्रिया द्वारा विश्वव्यापी प्राणतत्व में से खींचकर अधिक मात्रा में प्राणशक्ति को हम अपने अन्दर धारण करते हैं उसे प्राणायाम कहा जाता है।
प्राणायाम के चार भाग हैं (1) सांस भीतर ले जाने की क्रिया को पूरक (2) भीतर रोकने को अन्तः कुम्भक (3) बाहर निकालने को रेचक (4) बाहर रोके रहने को बाह्य कुम्भक कहते हैं। जब श्वांस क्रिया आरम्भ की जाय तो सांस खींचते समय भावना करनी चाहिए के निखिल आकाश में वायुतत्त्व के साथ घुला हुआ चेतन प्राणतत्व सांस के साथ हमारे भीतर प्रवेश करते हुये दिव्य शक्ति भर रहा है। रोकते समय भावना करनी चाहिए कि उस दिव्य शक्ति को शरीर के अवयवों, रक्तकणों एवं चेतना संस्थानों द्वारा सोखा और सदा−सर्वदा के लिये भीतर धारण किया जा रहा है। सांस निकालते समय भावना करनी चाहिये कि सूक्ष्म, स्थूल और कारण शरीरों के मल आवरण, विक्षेप, शेष, विकार बाहर निकले जा रहे हैं। बाहर सांस रोकने के समय भावना करनी चाहिये कि निकाले हुए विकारों को वापिस न लौटने के लिये सदा−सर्वदा के लिये द्वार बन्द कर दिया गया है। ऐसे तीन प्राणायाम किये जाने चाहिए।
5. न्यास—न्यास कहते हैं—धारण करने को। अंग-प्रत्यंगों गायत्री की सतोगुणी शक्ति को धारण करने, स्थापित करने, भरने, ओत-प्रोत करने के लिये न्यास किया जाता है। गायत्री के प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण मर्म-स्थलों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैसे सितार के अमुक राग में, अमुक आघात के साथ उंगली का आघात लगाने से अमुक ध्वनि के स्वर निकलते हैं, उसी प्रकार शरीर वीणा को सन्ध्याकाल में उंगलियों के सहारे दिव्य भाव से झंकृत किया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि स्वभावतः अपवित्र रहने वाले शरीर दैवी सान्निध्य ठीक प्रकार से नहीं हो सकता इसलिये उसके प्रमुख स्थानों में दैवी पवित्रता स्थापित करके उसमें इतनी मात्रा दैवी तत्व की स्थापित कर ली जाती है, कि वह दैवी-साधना का अधिकारी बन जावे।
न्यास के साथ जिन अंगों का स्पर्श किया जाता है उनमें सारे शरीर में ईश्वरीय दिव्य चेतना के संचार का ध्यान किया जाता है। दिव्य चेतना के संचार से वे पवित्र, बलिष्ठ एवं सक्षम होते हैं। भावना करनी चाहिए कि जिस दिव्य सत्ता के अनुदान से यह तेजस्वी बन रहे हैं, उसके गौरव के अनुरूप श्रेष्ठ कार्यों में ही इनका उपयोग हो। मस्तिष्क श्रेष्ठ चिंतन में लगे, नेत्र सद् दर्शन, कान सद् श्रवण, मुंह सात्विक आहार, कण्ठ शुभ वाणी, हृदय सद्भाव, नाभि प्रदेश में प्राण ऊर्जा एवं हाथ पैर सत् कार्य, सत् प्रयोजनों के लिये ही नियोजित हों।
6. पृथ्वी पूजन—धरती माता–मातृभूमि–को प्रत्यक्ष देवी मानकर उसका अभिसिंचन अभिवन्दन करने की भावना से उपलब्ध अनुदानों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए जल, अक्षत, पुष्प, चंदन, पूजन किया जाय। मातृभूमि के लिये समस्त जड़ चेतन जगत द्वारा मिले लाभों के प्रत्युपकार में बढ़-चढ़ कर त्याग बलिदान करने की भावनायें जगाना इस ‘पृथ्वी पूजन’ प्रक्रिया का उद्देश्य है। इसे आसन पवित्रीकरण भी कहते हैं। आसन का अर्थ है आधार। हम जिस आधार जिस उद्देश्य से, जिन साधनों के माध्यम से साधना करें उनकी पवित्रता पर भी ध्यान दें। धरती माता-की गोद में बैठ कर साधक साधना का केवल कल्याणकारी प्रयोग ही कर सकता है। मां की गोद में बैठ कर किसी के अकल्याण की कल्पना भी सम्भव नहीं।
आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली योग साधना के पथ पर अग्रसर होने की दिशा में प्रथम कक्षा साकार उपासना की है। उसे आकृति सहित परमात्मा की कल्पना करनी पड़ती है। उसे उच्चस्तरीय श्रेष्ठताओं से सम्पन्न माना जाता है, समीप उपस्थित अनुभव किया जाता है, सघन श्रद्धा का आरोपण करते हैं, गहरी प्रेम भावना उमगाते हैं और उसके साथ घनिष्ठता बनाते हैं। इसी कृत्य के अन्तर्गत आने वाले विविध उपचार भक्ति साधना कहे जाते हैं। ‘लय’ प्रक्रिया का यह प्रथम सोपान है। अचिन्त्य चिन्तन में असमर्थ—स्थूल भूमिका की मनःस्थिति के लिए यही कृत्य सरल पड़ता है और चेतना का स्तर आगे बढ़ाने में सहायता करता है। प्रतीक उपासना का सारा ढांचा इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ समझा जाना चाहिए।
सार्वजनिक मन्दिरों में अथवा व्यक्तिगत पूजा कक्षों में—भगवान के विविध प्रतीकों की स्थापना करके उनका महामानव गुरुजनों जैसा स्वागत, सत्कार किया जाता है। पंचोपचार, षोडशोपचार के विधान उसी के लिये बनाये गये हैं। जितनी देर प्रतिमा सामने रहती है, उतने समय ईश्वर के सान्निध्य का अनुभव होता है—उसका बड़प्पन स्वीकारा जाता है और श्रद्धाभिव्यक्ति से उन्हें सम्मानित करने वाले शिष्टाचारों का प्रदर्शन किया जाता है। पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, पुष्प, चंदन, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, आरती, नमस्कार आदि के विधि कृत्य समीपता और श्रद्धा की अनुभूति को विकसित करने में सहायता करते हैं। निष्ठा की परिपक्वता के लिए कल्पित देव प्रतिमाओं को यथार्थ मानने की मनःस्थिति उत्पन्न की जाती है।
इससे आगे की सूक्ष्म प्रतीक पूजा वह है जिससे आंखें बन्द करके अथवा अधखुली रखकर इष्टदेव की प्रतिमा का ध्यान किया जाता है और श्रद्धा, समीपता एवं एकता की वैसी ही भावना की जाती है, जैसी कि मूर्तिपूजा में स्थूल प्रतिमा की। अन्तर इतना ही रहता है कि मूर्तिपूजा में प्रतीक उपकरणों की प्रत्यक्ष आवश्यकता पड़ती है और जबकि ध्यान में वह सारे कार्य मात्र कल्पना के सहारे ही पूरे हो जाते हैं। ध्यान में इष्टदेव को हंसता, मुसकाता और श्रद्धा समर्पण के अनुरूप प्रत्युत्तर देता हुआ सोचा जा सकता है। यह स्थिति अधिक उत्साहवर्धक होती है और एकाग्रता का लाभ भी अधिक देती है। इसलिए इस मानस पूजा की भावनाशील, कल्पनाशील साधकों के लिए प्रयुक्त होने वाली उपासना का अगला ऊंचा चरण माना गया है।
प्रतीक साधना की मूर्ति पूजा एवं इष्टदेव के साकार ध्यान की दो कक्षाएं हैं। मूर्ति पूजा को प्राइमरी शिक्षा और इष्ट ध्यान को हाईस्कूल स्तर की पढ़ाई कह सकते हैं। इसके आगे की कालेज कक्षा है। उसे निराकार साधना कह सकते हैं। उसमें भगवान को मनुष्य रूप में कल्पित नहीं किया जाता और न व्यक्ति के लिए किये जाने वाले स्वागत सत्कारों की आवश्यकता पड़ती है। यों चिर अभ्यास को बनाये रहने के लिए नित्य कर्म में उसे रहना भी आवश्यक है। इससे संग्रहीत श्रद्धा परिपुष्ट होती रहती है। उच्चस्तरीय स्थिति पर पहुंचे हुए साधक भी नित्य कर्म में प्रतीक पूजा को छोड़ते नहीं वरन् आस्था को परिपक्व करने के लिए उसे भी पूर्ववत् अपनाये रहते हैं।
हर व्यक्ति नये क्षेत्र में प्रवेश करते समय बालक ही होता है चाहे वह अन्य विषयों में कितना ही सुयोग्य क्यों न हो? कोई अच्छा वकील अपने विषय का विशेषज्ञ हो सकता है, पर उसे नया शिल्प सीखते समय बाल कक्षा के छात्र की तरह ही आरम्भ करना होगा। उपासना जिनका विषय नहीं रहा है वे अन्य विषयों के विद्वान होते हुए भी इस क्षेत्र में नौसिखियों की तरह ही प्रवेश करते हैं। अस्तु उन्हें ध्यान-प्रक्रिया का अभ्यास करने के लिए प्रतीक पूजा का आश्रय लेना सुविधाजनक ही रहता है। निराकारवादी व्यक्तिरूप में न सही अन्य किसी प्रतीक को माध्यम बनाकर अपना काम चलाते हैं। नमाज पढ़ते समय कावा की तरह मुंह किया जाता है। कावा अर्थवत् ईश्वरीय शक्ति का विशेष प्रतिनिधित्व करने वाली इमारत है। दूसरे लोग सूर्य आदि के प्रकाश ज्योति को आधार बनाते हैं। कुण्डलिनी जागरण, चक्र बेधन आदि योगाभ्यासों में भी अमुक स्थानों को दिव्य शक्ति का केन्द्र मानकर वहां अपनी इच्छा शक्ति नियोजित करनी पड़ती है। यह भी ध्यान के ही रूप हैं और इनमें आकृति का सहारा लेना होता है।
संसार में कई सम्प्रदाय साकारवादी और कई निराकारवादी हैं। अपना विचार व्यापक क्षेत्र में प्रयोग हो सकने वाली ऐसी साधन पद्धति का विकास उपासना सन्दर्भ में जो विवाद चलता है, उसे साकार निराकार का रूप न देकर प्रतीक को व्यक्त आकृति का मानने न मानने की उलझन कहना ठीक है। पूर्ण निराकार का ध्यान तो नादयोग तथा दूसरी सम्वेदनाओं में भी नहीं हो सकता। शंख, घड़ियाल, बादल आदि की ध्वनियां सुनने का अभ्यास करते समय स्वभावतः उनके स्रोत की छवि मस्तिष्क में घूम जाती है। शंखनाद तो सुना जाय, पर प्रश्न है शंख की आकृति ध्यान करने का, जो आगे चलकर सार्वभौम, सर्वजनीन-बन सके। इसलिए ध्यान प्रतीक में इन दोनों ही पक्षों का समन्वय करने की बात ध्यान में रखी गई है। निराकारवादी अन्तर्मुखी होकर ‘दिव्यज्योति’ के रूप में परमात्मसत्ता का दर्शन करते हैं। आमतौर से यह छोटा-बड़ा प्रकाश बिन्दु ही होता है। इसे सूर्य का प्रतीक मानते हैं। वस्तुतः यह ‘ज्ञान ज्योति’ है। मात्र चमक या गर्मी नहीं। अध्यात्म साधना में अग्निपिंड सूर्य की प्रतिभा भर माना गया है, उसकी मूल सत्ता ‘दिव्य ज्ञान’ कही गई है। निराकार ‘प्रज्ञा’ तत्व का साकार रूप ‘सविता’ है। सविता अर्थात् सद्ज्ञान को अन्तःकरण में आलोकित करने वाला प्रकाशवान परब्रह्म। ध्यान करते समय सूर्य पर एकाग्रता तो करनी चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिये कि यह ‘दिव्य आलोक’ का—सद्ज्ञान रूपी प्रकाश का प्रतीक मात्र है। मात्र जड़ पिंड नहीं।
सूर्य पर ध्यान करते हुए यह अनुभूति विकसित की जाती है कि वह आलोक साधक के शरीर, मन और अन्तरात्मा में—स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में सक्रियता, सद्ज्ञान एवं सद्भाव बनकर प्रकाशवान हो रहा है। इन दोनों क्षेत्रों को आलोकित हुए मानते हुए उत्तेजित, विकसित, परिष्कृत हुआ भी अनुभव किया जाता है। इस प्रकार सूर्य को न केवल आलोक प्रदर्शन की दिव्य प्रक्रिया मात्र मानकर बात समाप्त कर दी जाती है, वरन् उसकी आभा से आत्मसत्ता को पूरी तरह प्रकाशित एवं प्रभावित भी देखा जाता है। वस्तुतः यह ध्यान अपनी वर्तमान स्थिति को भविष्य में अधिक समुन्नत स्थिति में देखने की आस्था भर है। यह जितनी ही गहरी होगी, इसी अनुपात से साधक को लाभ मिलता चला जायगा।
साकार उपासना में नर और नारी की दोनों ही आकृतियों में परब्रह्म की प्रतिमा बनाई जाती रही है। दोनों में पवित्रता, कोमलता, उदारता, सेवा, समर्पण, स्नेह, वात्सल्य जैसी दिव्य भावनाओं के आधार पर देखना हो तो नारी की गरिमा अधिक बैठती है। नारी दानी है और नर उपकृत। ईश्वर की प्रतिमा को किस रूप में माना जाय? इस दृष्टि से विवेक का सहज झुकाव नारी के पक्ष में जाता है। पुरुष की अपनी विशेषताएं हैं—उनमें पुरुषार्थ, पराक्रम की प्रधानता है। यह गुण भौतिक सफलताओं में अधिक और आत्मिक प्रगति में कम काम आता है। अधिक अच्छा यही लगता है कि परब्रह्म को नारी रूप में—मातृ सत्ता का प्रतीक मानकर चला जाय।
गायत्री माता के रूप में परब्रह्म की स्थापना सर्वोपयोगी है। उसके सान्निध्य में माता की गोदी में खेलने वाले बालक को मिलने वाले वात्सल्य एवं पय-पान जैसे सूक्ष्म स्थूल लाभों की अनुभूति होती है। नारी के प्रति अचिन्त्य चिन्तन का जो प्रवाह इन दिनों चल पड़ा है, उसे रोकने और भाव भरी दिव्य श्रद्धा की, प्रतिमा उसे मानने की, जन चेतना उत्पन्न करने की दृष्टि से भी यह स्थापना अतीव उपयोगी है। मानवता की, सद्बुद्धि की, सत्प्रवृत्तियों की प्रतिमा भी उसे माना जा सकता है।
गायत्री माता का वाहन हंस माना गया है। हंस अर्थात् स्वच्छ धवल कलेवर, नीर-क्षीर विवेक का प्रतिनिधि-मोती चुगने या लंघन करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ। यह गुण पक्षी हंस में नहीं होते-यह परिभाषा आध्यात्मिक हंस की है। संकेत यह है कि परमात्मा की दिव्य शक्ति को धारण करने के लिए साधक को अपनी उत्कृष्टता हंस स्तर की विकसित करनी चाहिये। उसे क्रियात्मक स्थूल जीवन में धर्म परायण, विचारात्मक सूक्ष्म जीवन में विवेकवान और आस्था परक अन्तः प्रदेश में—सद्भाव सम्पन्न होना चाहिये। व्यक्तित्व के इस समय परिष्कार के साथ ही ईश्वरीय दिव्य शक्ति के अवतरण की संभावना जुड़ी हुई है।
आद्य शक्ति गायत्री माता की अथवा अपने विश्वास के आधार पर कोई अन्य प्रतिमा—एक छोटे किन्तु सुसज्जित सिंहासन पर स्थापित रहनी चाहिए। जब भी पूजा करनी हो तब उसी के सामने बैठ कर करनी चाहिए। जिस स्थान पर जो कार्य बहुत समय तक किया जाता रहता है वहां अनायास ही ऐसी विशेषता उत्पन्न हो जाती है जिससे प्रेरित होकर उन कार्यों की पुनरावृत्ति के लिए मन चलने लगता है। चाहे जहां—चाहे जब बैठकर—भजन करने पर मन लगा लेना कठिन है, पर नियत स्थान पर नियत समय पर, पूजा स्थल पर बैठते ही मन स्वभावतः उस अभ्यस्त क्रियाओं को स्वेच्छापूर्वक दुहराने लग जायगा—इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नियत स्थान पर पूजा कक्ष का स्थापित करना और नियत समय पर नियत विधि से उपासना कृत्य को क्रियान्वित करना ही उपयुक्त रहता है।
उपासना का ध्यान अनिवार्य अंग है। जप के साथ उसका जुड़ा रहना नितान्त आवश्यक है। अन्यथा मन यहां-वहां भागता रहेगा। ध्यान, शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की पांच तन्मात्राओं में से किसी न किसी का आश्रय लिये बिना सम्भव नहीं हो सकता। यह तन्मात्राएं क्रमशः आकाश, अग्नि, जल, पृथ्वी और वायु इन जड़ पंच तत्वों की हैं। जड़ का आश्रय लिये बिना अपनी अन्तःचेतना के लिए निराकार को पकड़ना तो दूर उसे समझने में भी समर्थ नहीं हो सकती। मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले भी प्रकारांतर से किसी न किसी पदार्थ में देव भावना करते हैं। यज्ञाग्नि, संगे असवद, क्रूस, राष्ट्रध्वज, सूर्य, तस्वीरें यह सभी एक प्रकार की मूर्तियां हैं। इनमें दिव्य भावना रखना एक प्रकार से मूर्तिपूजा ही हो जाता है। गांधीजी की समाधि हो अथवा लेनिन का सुरक्षित शव, इनमें से किसी के प्रति भी श्रद्धावनत हो जाना प्रकारान्तर से मूर्ति पूजा ही है।
पूज्य गुरुजनों की तरह उनके प्रथम दर्शन पर सम्मान, शिष्टाचार प्रदर्शित किया जाता है। उपासना के समय प्रतीक में देव शक्ति का आह्वान करने के उपरान्त उसका सम्मानोपचार किया जाना चाहिये। इससे भाव निष्ठा में और भी अधिक परिपक्वता उत्पन्न होने का अवसर मिलता है। इस प्रयोजन के लिए ही पूजन की परम्परा प्रचलित है। पंचोपचार में (1) जल (2) चावल-नैवेद्य (3) पुष्प (4) धूप-दीप (5) चन्दन-रोली को गिना जाता है। इन्हें एक तश्तरी में रखना चाहिए और क्रमशः एक-एक को पास में रखी दूसरी तश्तरी में श्रद्धा, सम्मान की अभिव्यक्ति के लिये छोड़ते जाना चाहिए। यही दो ईश्वरीय शक्तियां लीला कर रही हैं। प्रकृति का प्रतीक जल और पुरुष का प्रतीक अग्नि को माना गया है। यह भी एक प्रकार से चित्र स्थापना ही है।
उपचार के इन उपकरणों के पीछे जीवन के दिव्य निर्माण की प्रेरणा है। इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वर का विराट् रूप माना जाना चाहिए और लोक-मंगल की क्रिया-प्रक्रिया द्वारा उसकी यथार्थ पूजा में संलग्न रहा जाना चाहिए। यह इस दिशा में पहला चरण अपने आपको अधिक पवित्र, संयत एवं आदर्श बनाकर ही बढ़ाया जा सकता है। आत्म-निर्माण और विश्व-निर्माण की उभय-पक्षीय जीवन साधना सम्पन्न करने के लिए किन आदर्शों को सामने रखा जाय इसी का दिशा निर्देश इस पंचोपचार पूजा में प्रयुक्त होने वाले पदार्थों के साथ जुड़ा हुआ है।
(1) जल—शीतलता, शान्ति, नम्रता, विनय सज्जनता का प्रतीक है—सत्प्रयोजनों के लिए हमें समय लगाना एवं श्रम बिन्दुओं का समर्पण करना है। उसी से श्रेष्ठ सत्कर्म बन पड़ते हैं। पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान के लिए चार चम्मच इसीलिए चढ़ाए जाते हैं कि हम अपना श्रम, मनोयोग, प्रभाव एवं धन इन चारों उपलब्धियों का यथा सम्भव अधिकाधिक भाग ईश्वरीय प्रयोजन के लिए समर्पित करेंगे।
(2) अक्षत—उपार्जित अन्न, धन, वैभव का प्रतीक है। अपनी कमाई को आप ही खाते रहने वाले अनुदार स्वार्थी को शास्त्रकारों ने ‘चोर’ कहा है। उपार्जन को अपने तथा परिवार के उपयोग भर में सीमित नहीं किया जाना चाहिए वरन् उसमें देश, धर्म, समाज, संस्कृति का भी भाग स्वीकार करना चाहिए। ईश्वर अर्थात् साकार रूप में विराट् विश्व एवं निराकार रूप में सद्भाव, सदुद्देश्य। इनके लिए अपनी कमाई का एक बड़ा अंश नियमित रूप से निकाला जाय यह अक्षत समर्पण की प्रेरणा है।
(3) पुष्प—अर्थात् खिलने-खिलाने की, हंसने-हंसाने की, हल्की फुलकी जिन्दगी और सत्प्रवृत्ति। हम फूल जैसे कोमल रहें। भीतर और बाहर से सर्वांग सुन्दर बनें। इस विश्वोद्यान को शोभायमान बनाने वाला जीवन जीयें। अपनी गरदन नुचवाने और मर्मभेदी सुई का छेदा जाना स्वीकार करके प्रभु के गले का हार बनने की आकांक्षा रखें।
पूजा में पुष्प चढ़ाने का प्रचलन है। भगवान के चरणों पर, गले में, शिर पर तथा समस्त शरीर पर पुष्प अलंकार चढ़ाये जाते हैं। भगवान को पुष्प प्रिय हैं। इस संकेत में यही तथ्य है कि पुष्प जैसी हंसती-हंसाती कोमलता भगवान को प्रिय है। अपना जीवन पुष्प ऐसा ही खिलना चाहिए, ताकि ईश्वर का परमप्रिय बन सके।
(4) दीपक—स्नेह से, चिकनाई से भरा-पूरा—स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देने वाला—ऊपर को उठती हुई ज्योति दृष्टि। इन्हीं विशेषताओं के कारण दीपक को पूजा में स्थान मिला है। जिनके अन्तःकरण में असीम स्नेह, सद्भाव भरा है—जो परमार्थ के लिए बढ़-बढ़कर त्याग, बलिदान कर सकते हैं, कष्ट सह सकते हैं। जिनकी दृष्टि, महत्वाकांक्षा, ऊर्ध्वगामी है, वे उत्कृष्ट आदर्शवादी हैं वे जीवन दीप ज्योति कहे जा सकते हैं। अपने को इसी मार्ग का पथिक बनाकर हम ईश्वर के निकटवर्ती और अनुकम्पा अधिकारी बन सकते हैं। धूपबत्ती में अग्नि स्थापन भी प्रकारान्तर से दीपक की ही आवश्यकता पूर्ति करती है और यही उसकी प्रेरणा भी है।
(5) चंदन—वह वृक्ष जिसका कण-कण सुगन्धित है और जो समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ों को भी सुगन्धित करता है। अपनी शीतलता से सांप, बिच्छू जैसे विष दंश वालों तक को शान्ति प्रदान करता है। कहते हैं चंदन वृक्ष पर लिपटे हुए सर्प, बिच्छू शान्ति पाते हैं। उसकी छाया में बैठने वाले सुगन्ध भरी शीतलता प्राप्त करते हैं। उसकी लकड़ी काटने, बेचने वाले, पत्थर पर घिसने वाले कष्टदायक लोग भी बदले में प्रतिशोध नहीं उपकार ही पाते हैं। नष्ट होते-होते भी चंदन अपनी लकड़ी से भजन करने की माल, हवन सामग्री का चंदन चूरा दे जाता है। हमारी शक्ति, सामर्थ्य का उपयोग भी इसी प्रकार होना चाहिए।
इसी प्रकार जल को तरलता का, पवित्रता का, मिष्ठान-मधुर व्यवहार का प्रतीक मानना चाहिए। पूजा सामग्री देखकर मन में यह भाव उठें कि भगवान् ऐसे गुणवानों को ही अंगीकार करते हैं। हम भी अपनी विशेषताओं को विकसित करें। सामग्री चढ़ाते हुए अपने श्रेष्ठतम साधनों प्रवृत्तियों शक्तियों को प्रभु के लिए, प्रभु कार्य के लिए समर्पित करने का उल्लास जगे तो पूजन-प्रक्रिया सार्थक समझी जायेगी।
मनुष्य की आस्था अपने श्रद्धा, विश्वास के सहारे कोई समर्थ दिव्य सत्ता का सृजन कर सकती है और उसकी हलचलें उतनी ही सामर्थ्यवान हो सकती हैं जितनी कि इसकी श्रद्धा की गहराई। अनेक भक्तों की उनके उपास्य ने जो असाधारण सहायताएं की हैं और चमत्कार दिखाए हैं इनमें देवताओं का स्वतन्त्र अस्तित्व, बल एवं उपासनात्मक विधि-विधानों का अन्तर नहीं साधक के व्यक्तित्व की पवित्रता एवं उपास्य के प्रति गहन श्रद्धा को ही आधार भूत कारण मानना चाहिए। प्रतीक उपासना से इसी प्रयोजन की पूर्ति करनी होती है।
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