Books - गायत्री उपनिषद्
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Language: HINDI
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उपासना की मर्यादाएं
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कुछ कार्य ऐसे हैं जिनका नित्य करना मनुष्य का आवश्यक कर्त्तव्य है, ऐसे कर्मों को नित्यकर्म कहते हैं। नित्यकर्मों के उद्देश्य हैं, 1—आवश्यक तत्त्वों का संचय। 2—अनावश्यक तत्त्वों का त्याग। शरीर को प्रायः नित्य ही कुछ न कुछ नई आवश्यकता होती है। प्रत्येक गतिशील वस्तु अपनी गति को कायम रखने के लिए कहीं न कहीं से नई शक्ति प्राप्त करती है, यदि वह न मिले तो उसका अन्त हो जाता है। रेल के लिए कोयला-पानी, मोटर के लिए पेट्रोल, तार के लिए बैटरी इंजन के लिए तेल, सिनेमा के लिए बिजली की जरूरत पड़ती है। पौधों का जीवन खाद-पानी पर निर्भर रहता है। पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मनुष्य आदि सभी प्राणियों को भूख-प्यास लगती है। अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अन्न, जल, वायु लेकर वे जीवन धारण करते हैं। यदि आहार न मिले तो शरीर यात्रा असम्भव है। कोई भी गतिशील वस्तु चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, अपनी गतिशीलता को कायम रखने के लिये आहार अवश्य चाहेगी।
इसी प्रकार प्रत्येक गतिशील पदार्थ में प्रतिक्षण कुछ न कुछ मल बनता रहता है, जिसे जल्दी-जल्दी साफ करने की आवश्यकता पड़ती है। रेल में कोयले की राख, मशीनों में तेल की चीकट जमती है। शरीर में प्रतिक्षण मल बनता है और वह गुदा, शिश्न, नाक, मुख, कान, आंख, त्वचा आदि के छिद्रों द्वारा निकलता रहता है। यदि मल की सफाई न हो तो देह में इतना विष एकत्रित हो जायगा कि दो-चार दिन में ही जीवन-संकट उपस्थित हुए बिना न रहेगा। मकान में बुहारी न लगाई जाय, कपड़ों को न धोया जाय, बर्तनों को न मला जाय, शरीर को स्नान न कराया जाय तो एक दो दिन में ही मैल चढ़ जायगा और गंदगी, कुरूपता, बदबू, मलीनता तथा विकृति उत्पन्न हो जायगी।
आत्मिक साधना में आहार-प्राप्ति और मल विसर्जन के दोनों महत्वपूर्ण कार्य समान रूप से होते हैं। आत्मिक भावना विचारधारा और अवस्थित को बलवान् चैतन्य एवं क्रियाशील बनाने वाली पद्धति को साधना कहते हैं। यह साधना इन विकारों, मलों एवं विषों की भी सफाई करती है, जो सांसारिक विषयों और उलझनों के कारण चित्त पर बुरे रूप से सदा ही जमते रहते हैं। शरीर को बार-बार स्नान कराना, दो बार शौच जाना आवश्यक समझा जाता है। आत्मा के लिये भी यह क्रियायें होनी आवश्यक हैं, इसी को संध्या कहते हैं। शरीर से आत्मा का महत्व अधिक होने के कारण त्रिकाल संध्या की साधना का शास्त्रों में वर्णन है। तीन बार न बन पड़े तो प्रातः सायं दो बार से काम चलाया जा सकता है। जिनकी रुचि इधर बहुत ही कम हैं वे एक बार तो कम से कम यह समझ कर करें कि संध्या हमारा आवश्यक नित्यकर्म है, धार्मिक कर्तव्य है। उसे न करने से पाप विकारों का जमाव होता रहता है और भूखी आत्मा निर्बल होती चलती है, यह दोनों ही बातें पाप कर्मों में शुमार हैं, अतएव पातक भार से बचने के लिए भी संध्या को हमारे आवश्यक नित्यकर्मों में स्थान मिलना उचित है।
उपासना के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उसमें केवल पूजापरक कर्मकाण्ड ही काफी नहीं वरन् साथ में भावनात्मक समावेश भी होना चाहिये। ज्यों-त्यों पूजा-पत्री कर देने, थोड़ा जप कर लेने या कुछ पाठ कर लेने मात्र से काम नहीं चलेगा। आमतौर से लोग इतना ही करते हैं और समझ लेते हैं कि उनकी उपासना पूर्ण हो गई। कर्म-काण्ड पूजा का एक महत्वपूर्ण अंग तो है पर उतने मात्र से उसमें पूर्णता नहीं आ सकती। उपासना के हर कर्मकाण्ड के साथ आवश्यक भावनाओं का समन्वय रहे तभी उसमें प्रखरता आयेगी।
श्रद्धा में विश्वास का समुचित पुट रहना चाहिये। उपेक्षा, अवज्ञा और कौतुहल की तरह विधि-विधान की लकीर पीट लेने से काम नहीं चल सकता। शारीरिक क्रियाओं के साथ-साथ आत्मिक उद्गारों का समन्वय भी अभीष्ट है। उसी आधार पर उपासना प्राणवान बनती है।
उपासना का उपचार सम्पन्न करते हुए—जप, पूजन, वन्दन, अर्चन, स्तवन, ध्यान करते हुए—हमें यह अनुभूति भी करनी चाहिये कि इष्टदेव हमारे अति निकटवर्ती सज्जन, सम्बन्धी, मित्र, कुटुम्बी एवं आत्मीय हैं। ऐसे रिश्तों में माता का सम्बन्ध सबसे बड़ा, सबसे सरल और सबसे भावपूर्ण है। गायत्री उपासना में भगवान् को माता के रूप में माना गया है। माता के प्रति बालक का प्रेम सबसे सरल और स्वाभाविक है। क्या मनुष्य, क्या मनुष्येत्तर, पशु-पक्षी, कीट-पतंगें सभी अपने बच्चों को प्यार करते हैं। माता में तो वह प्यार और भी अधिक होता है। अन्य योनियों में तो बहुधा माता ही एकमात्र शिशु की संरक्षक एवं स्नेह भोजन होती है। अन्य रिश्तों में प्रेम का आधार गुण-दोष एवं लाभ-हानि होती है, पर माता का स्नेह इन सबसे ऊंचा, परम निःस्वार्थ और त्याग बलिदानों से भरा पूरा होता है। हम भगवान को अपनी माता मानें और उसी प्रकार भगवान हमें अपना पुत्र मानते हुए अत्यन्त वात्सल्य की वर्षा करें तो यह भावनात्मक आदान-प्रदान प्रेम परम्परा का एक महान् घटक बन जाता है। ईश्वर को माता मानकर एक मातृ-प्रतिमा की अथवा ध्यान-छवि की स्थापना के पश्चात् उपासना पथ पर प्रगति में गतिशीलता उत्पन्न होती है। भावनात्मक आदान-प्रदान के लिए इस प्रकार की स्थापना आवश्यक है।
इसके उपरान्त हमारी अनुभूति में दूसरी स्थापना यह होनी चाहिये कि इष्टदेव सर्वव्यापी और न्यायमूर्ति हैं। घट-घट में, कण-कण में समाये हैं। अपने रोम-रोम में भीतर और बाहर उन्हीं की सत्ता ओत-प्रोत है। तिल भर भी ऐसी जगह नहीं जहां वे न हों। हर जड़ चेतन पदार्थ में, अपने समीपवर्ती और दूरवर्ती वातावरण में—उन्हीं का प्रकाश जगमगा रहा है। उन्हें हर जगह हम देख सकते हैं और वे हर पदार्थ में से अपनी सहस्रों आंखों द्वारा हमारे बाह्य और अन्तरंग स्तर को बारीकी से देखते रहते हैं। हमारा कोई कृत्य, कोई विचार, कोई भाव उनसे छिपा नहीं रहता।
उपासक की मनोभूमि में यदि उपरोक्त अनुभूति हो तो भगवान् की समीपता का आनन्द उपलब्ध होने में कुछ कठिनाई न रहेगी। तब केवल प्रेम भावना का समावेश शेष रह जाता है। यह तत्व जितना-जितना जप-ध्यान के साथ-साथ घुलता जायगा, उसी क्रम से उपासना में आनन्द की अभिवृद्धि होती चलेगी। प्रभु की समीपता सदा सुखद होती है। भगवान् को यदि अपना प्रेमपात्र बना लिया गया है, उसे माता, गुरु या सखा के रूप में वरण कर लिया गया है, तो निःसन्देह उसके साथ रहने की भावना अति सुखद होगी और उस अवसर पर मन खूब लगेगा। मन का स्वभाव यह है कि वह प्रेमपात्र के पास, प्रिय वस्तु के साथ, प्रिय कल्पना के सान्निध्य में रहना पसन्द करता है। दौड़-दौड़कर वहां जाता है। यदि हम ईश्वर को अपना प्रिय पात्र बना लें तो मन फिर कहीं भागेगा-दौड़ेगा नहीं, वरन् जब भी ध्यान-धारणा में संलग्न होंगे, मन वहीं रमण करता रहेगा और चाहेगा कि उसी सुखद सन्दर्भ में अधिक से अधिक समय बिताने का अवसर मिले। तब मन न लगने का—जी उचटने का—चित्त न लगने का प्रश्न ही उपस्थित न होगा। मन को वश में करने—चित्त प्रवृत्तियों को एकाग्र करने की गुत्थी सुलझ सकती है, जब हम ईश्वर को अपना प्रिय सम्बन्धी बनालें और उसके साथ रहने में वैसा ही सुख अनुभव करें, जैसा कि किसी परम प्रिय परिजन के साथ रहने पर अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त मन को वश में करने तथा चित्त को एकाग्र करने का कोई और रास्ता है ही नहीं।
आत्मिक प्रगति के दो प्रधान आधार
गो. तुलसीदास ने रामचरितमानस का शुभारम्भ करते हुए भवानी और शंकर की वन्दना की है। ये दोनों क्या हैं, इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा है- ‘भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ’ भवानी को उन्होंने श्रद्धा और शंकर को विश्वास के रूप में उल्लेख किया है। बात सोलह आने सच है। भवानी और शंकर में जो शक्ति हो सकती है, वह सारी की सारी, ज्यों की त्यों, श्रद्धा और विश्वास में विद्यमान है। अध्यात्म तत्वज्ञान का सारा आधार इन्हीं दोनों पर है। दृश्य जगत के आधार पर पंचतत्व हैं।
दिखाई देने वाले समस्त जड़ पदार्थ—मिट्टी, पानी, हवा, गर्मी और आकार द्वारा विनिर्मित है। इसी प्रकार अध्यात्मिक जगत् का समस्त विस्तार श्रद्धा और विश्वास पर रखा हुआ है। यदि इन आधार पर भूत तत्त्वों की कमी रहेगी, तो किसी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।
जिस प्रकार जड़ जगत् में पंचतत्वों को सुनिश्चित आधार है, इन्हीं के हेर-फेर से विभिन्न वस्तुएं उत्पन्न होती, बढ़ती और जराजीर्ण होकर नष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रद्धा विश्वास के आधार पर भावनाओं का निर्माण होता है। यह भावनाएं और मान्यताएं ही चेतन जगत् में विविध-विधि सृजनात्मक ताने-बाने बुनती हैं। श्रद्धा और विश्वास अपने आप में सृष्टि के महत्तम शक्ति-स्रोत हैं। इन्हीं के आधार पर शक्ति और पदार्थों के साथ हमारे सम्बन्ध जुड़े हुए हैं। आशा और उत्साह इन्हीं पर निर्भर है। सृजनात्मक प्रेरणा यही उत्पन्न करते हैं। भविष्य का निर्माण और निर्धारण इन्हीं के आधार पर सम्भव होता है। यदि दोनों तत्त्व चेतना क्षेत्र से अलग हटा दिये जायें तो फिर यही जीवन—जीवन कहलाने योग्य ही न रह जायगा।
श्रद्धा से बनी भूत की कल्पना प्राणघातक दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। भय और आशंकाओं से आतंकित लोग अपना अच्छा-खासा स्वास्थ्य खो बैठते हैं। आत्म-विश्वास और मनोबल के आधार पर चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न किये जाते हैं। यह सारे खेल श्रद्धा के ही हैं। साधना के सत्परिणामों की एक विशाल श्रृंखला है। अगणित साधक, अगणित प्रकार के सत्परिणाम साधना प्रयोगों के आधार पर प्राप्त करते हैं। इसके मूल में उनकी श्रद्धा की शक्ति ही सन्निहित होती है। साधक अपने ही नाम रूप की साधना करके, अपने ही जैसा एक ‘छाया पुरुष’ निर्मित और सिद्ध कर लेते हैं। यह मनुष्य आकृति का देव बड़े-बड़े अनोखे काम करता है।
यह रचना हमारी श्रद्धा द्वारा ही की गई होती है। अनेक देवताओं का सृजन इसी प्रकार होता है। अन्तःकरण में कौन दिव्य शक्ति कितनी, कहां कैसी है यह प्रश्न अलग है। यहां तो यह कहा-समझा जा रहा है कि हमारी श्रद्धा—अपनी सामर्थ्य से अपनी मान्यता, आकृति, रुचि और प्रयोजन का एक स्वतन्त्र देव विनिर्मित कर सकती है। यह देवता उतने ही समर्थ होते हैं, जितनी हमारी श्रद्धा उन्हें बल प्रदान करती है। दुर्बल श्रद्धा से बने देव केवल आकृति मात्र का दर्शन देने में समर्थ होते हैं। वे कुछ अधिक सहायता नहीं कर सकते। पर जितनी श्रद्धा प्रबल है, उनके देव भी अद्भुत पराक्रम प्रस्तुत करते देखे जाते हैं।
श्रद्धा और विश्वास का सम्बल लेकर ही हमें अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिये। ‘ईश्वर है। उसकी सत्ता विद्यमान है। उसका सान्निध्य प्राप्त किया जा सकता है और उसका प्रकाश मिल सकता है।’ यह विश्वास जितना ही प्रखर एवं स्पष्ट होगा, उतनी ही सफलता हमारी साधना प्रस्तुत करेगी। कितना जप करने से, कितने दिन में, ईश्वर की कितनी कृपा मिल सकती है? इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व यह भी जानना होगा कि साधक की श्रद्धा में कितनी प्रखरता है? यदि अश्रद्धा और अविश्वास से, उदास मन से बेगार भुगतने की तरह कुछ पूजा-पाठ किया जा रहा है तो उसका परिणाम भी लंगड़े-लूले जैसा होगा। बहुत दिन में थोड़ा-सा लाभ दिखाई देगा। छोटे से दीपक की लौ से जल भी बहुत देर में गरम होगा, किन्तु यदि आग तीव्र हो तो थोड़ी ही देर में पानी खौलने लगेगा। उपासना का क्रिया-कृत्य पूरा कर लेना अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकता। आवश्यकता श्रद्धा के समन्वय की भी है। यह समावेश जितना अधिक और जितना प्रखर होगा, सत्परिणाम उतनी ही बड़ी भाषा में और उतना ही शीघ्र दृष्टिगोचर होगा।
नियमित उपासना के लिए पूजा-स्थली की स्थापना आवश्यक है। घर में एक ऐसा स्थान तलाश करना चाहिये जहां अपेक्षाकृत एकान्त रहता हो, आवागमन और कोलाहल कम से कम हो। ऐसे स्थान पर एक छोटी चौकी को पीत वस्त्र से सुसज्जित कर उस पर कांच से मढ़ा हुआ भगवान का सुन्दर चित्र स्थापित करना चाहिए। गायत्री की उपासना सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। इसलिये उसकी स्थापना को प्रमुखता देनी चाहिये। यदि किसी का दूसरे देवता के लिये आग्रह हो तो उस देवता का चित्र भी रखा जा सकता है। शास्त्रों में गायत्री के बिना अन्य सब साधनाओं का निष्फल होना लिखा है। इसलिये अन्य देवता को इष्ट माना जाय और उसकी प्रतिमा स्थापित की जाय तो भी गायत्री का चित्र प्रत्येक दशा में साथ रहना ही चाहिये।
अच्छा तो यह है कि एक ही इष्ट गायत्री महाशक्ति को माना जाय और एक ही चित्र स्थापित किया जाय। उससे एकाग्रता का लाभ होता है। यदि अन्य देवताओं की स्थापना का भी आग्रह हो तो उनकी संख्या कम से कम रखनी चाहिये। जितने देवता स्थापित किये जायेंगे, जितनी प्रतिमाएं बढ़ाई जायेंगी—निष्ठा उसी अनुपात से विभाजित होती जायेगी। इसलिए यथासंभव एक अन्यथा कम से कम छवियां पूजा स्थली पर प्रतिष्ठापित करनी चाहिए।
पूजा-स्थली के पास उपयुक्त व्यवस्था के साथ पूजा के उपकरण रखने चाहिये अगरबत्ती, पचपात्र, चमची, धूपबत्ती, आरती, जल गिराने की तश्तरी, चन्दन, रोली, अक्षत, दीपक, नैवेद्य, घी, दियासलाई आदि उपकरण यथास्थान डिब्बों में रखनी चाहिये। आसन कुशानों का उत्तम है। चटाई से काम चल सकता है। आवश्यकतानुसार मोटा या गुदगुदा आसन भी रखा जा सकता है। माला चन्दन या तुलसी की उत्तम है। शंख, सीपी, मूंगा जैसी जीव शरीरों से बनने वाली मालायें निषिद्ध हैं। इसी प्रकार किसी पशु का चमड़ा भी आसन के स्थान पर प्रयोग नहीं करना चाहिये। प्राचीनकाल में अपनी मौत से मरे हुए पशुओं का चर्म वनवासी सन्त सामयिक आवश्यकता के अनुरूप प्रयोग करते होंगे। पर आज तो हत्या करके मारे हुए पशुओं का चमड़ा ही उपलब्ध है। इसका प्रयोग उपासना की सात्विकता को नष्ट करता है।
नियमित उपासना, नियत समय पर नियत संख्या में, नियत स्थान पर होनी चाहिये। इस नियमितता से वह स्थान संस्कारित हो जाता है और मन भी ठीक तरह लगता है। जिस प्रकार नियम समय पर सिगरेट आदि की ‘भड़क’ उठती है, उसी तरह पूजा के लिए भी मन में उत्साह जगता है। जिस स्थान पर प्रसन्न चित्त से सो रहे हैं, उस स्थान पर नींद ठीक आती है। नई जगह पर अक्सर नींद में अड़चन पड़ती है। इसी प्रकार पूजा का नियम स्थान ही उपयुक्त रहता है। व्यायाम की सफलता तब है जब दण्ड-बैठक आदि को नियत संख्या में नियम समय पर किया जाय। कभी बहुत कम, कभी बहुत ज्यादा, कभी सवेरे, कभी दोपहर को व्यायाम करने से लाभ नहीं मिलता।
इसी प्रकार दवा की मात्रा भी समय और तौल को ध्यान में न रखकर मनमाने समय और परिमाण में सेवन की जाय तो उससे उपयुक्त लाभ न होगा। यही बात अस्थिर संख्या की उपासना के बारे में कही जा सकती है। यथा-सम्भव नियमितता ही बरतनी चाहिये। रेलवे की रनिंग ड्यूटी करने वाले, यात्रा में रहने वाले, फौजी, पुलिस वाले जिन्हें अक्सर समय-कुसमय यहां-वहां जाना पड़ता है, उनकी बात दूसरी है। वे मजबूरी में अपना क्रम जब भी, जितना भी बन पड़े, रख सकते हैं। न कुछ से कुछ अच्छा। पर जिन्हें ऐसी असुविधा नहीं उन्हें यथा-सम्भव नियमितता ही बरतनी चाहिये। कभी मजबूरी की स्थिति आ पड़े तो तब वैसा हेर-फेर किया जा सकता है।
सर्वांगपूर्ण सुगम साधना विधि
वेदमाता का आंचल पकड़ना हर दृष्टि से लाभप्रद है यह समझ कर हर व्यक्ति को नियमित गायत्री उपासना अविलम्ब प्रारम्भ कर देनी चाहिये। उपासना के लिए समय न मिलने की बात आत्म प्रवंचना युक्त है। हर व्यक्ति को प्रतिदिन पूरे 24 घंटे का समय मिलता है। उसका उपयोग महत्वपूर्ण कार्यों में ही करना समझदारी है। महत्वपूर्ण कार्यों के लिए अन्य कम महत्व के कार्यों में कटौती करके सभी लोग समय निकाल सकते हैं। यदि आलस्य अवसाद में नष्ट होने वाले समय को ही बचा लिया जाय, तो भी पर्याप्त समय निकल सकता है।
सर्वांगपूर्ण साधना पद्धति अपनाने के लिए साधक को लगभग 45 मिनट का समय लगाना चाहिए। उसमें 30 मिनट का जप एवं ध्यान के लिए तथा शेष समय आगे पीछे के अन्य कर्मकाण्डों के लिए निर्धारित रखना चाहिए। प्रारम्भ में जिनसे इतना न बन पड़े वे न्यूनतम 10 मिनट से भी शुरुआत कर सकते हैं। उसमें केवल एक माला जप के लिए 6 मिनट तथा शेष 4 मिनट में षट्कर्म आदि कृत्य पूरे किए जा सकते हैं।
उपासना आरम्भ करने से पूर्व नित्य कर्म से निवृत्त होना—शरीर, वस्त्र और स्नान उपकरणों की अधिकाधिक स्वच्छता के लिये तत्परता बरतना—आवश्यक है। स्नान और धुले वस्त्र बदलने से मन में पवित्रता का संचार होता है। चित्त प्रफुल्ल रहता है। आलस्यवश मलीनता को लादे रहने से मन भारी रहता है और उपासना से जी उचटता है। जंभाई आती है। ऊब लगती है और अधिक बैठना भारी पड़ता है। स्थान और पूजा उपकरणों की मलीनता से मन में अरुचि उत्पन्न होती है और उत्साह घटता है। अस्तु उपासना स्थल को—पूजा के पात्र उपकरण प्रतीक आदि को—स्वच्छ कर लेने की बात को महत्व ही दिया जाना चाहिए। अधिक ठण्ड, बीमारी, पानी का अभाव, स्थान की असुविधा जैसी कठिनाइयां उत्पन्न हो जाने पर तो बिना स्थान के—हाथ मुंह धोकर भी पूजा पर बैठा जा सकता है, पर सामान्य स्थिति में आलस्यवश ऐसी उपेक्षा नहीं बरती जानी चाहिए। रुग्णता की या अन्य विवशता की परिस्थितियों में, सफल में, मानसिक उपासना बिना कुछ क्रियाकृत्य किये भी की जा सकती है।
पूजा की चौकी पर पीला वस्त्र बिछाया जाय और उस पर गायत्री मां का, मन्त्र का—चित्र स्थापित किया जाय। उसके आगे एक कोने पर छोटी लुटिया में ढका हुआ जल कलश और दूसरे कोने पर जलती अगरबत्ती को रखा जाय। जहां शुद्ध घी उपलब्ध है वहां धूप दीप भी जलाया जा सकता है, अन्यथा उसके अभाव में अगरबत्ती से भी काम चल सकता है।
आसन कुशाओं का या चटाई का लेना चाहिए। चौकी या पट्टा बिछाया जा सकता है। सूती या ऊनी आसन इसी शर्त पर बिछाये जा सकते हैं कि उनके धोने या सुखाने का प्रबन्ध होता रहे। पशुओं के चमड़े आजकल वधकर्म द्वारा ही प्राप्त होते हैं इसलिए मृगचर्म आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। पूजा स्थान में यथा संभव स्वच्छ वायु का आवागमन होना चाहिए। सीलन, घुटन या घिच-पिच के वे स्थान जहां खाना-पीना, सोना, आना-जाना बना रहता है चित्त में विक्षेप उत्पन्न करते हैं। यथा सम्भव एकान्त स्थान ही तलाश करना चाहिए। खुली छत पर या बरामदे में बैठना भी अच्छा है।
भारतीय धर्म में त्रिकाल संध्या का विधान है। प्रातः सूर्योदय के समय, सायं सूर्यास्त के समय, मध्याह्न 12 बजे यह मध्यवर्ती समय है। थोड़ा आगे-पीछे होना हो तो वैसा भी हो सकता है। जिन्हें सुविधा हो वे त्रिकाल उपासना करें। अन्यथा प्रातः सायं दो बार से भी काम चल सकता है। अत्यन्त व्यस्त व्यक्तियों को भी प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर एक बार तो उपासना करने के लिए समय निकाल ही लेना चाहिए। प्रयत्न यह करना चाहिये कि आधा घन्टे से लेकर एक घन्टे तक का समय उपासना के लिए मिल सके। निःसन्देह इस प्रयोजन में लगा हुआ समय हर दृष्टि से सार्थक होता है। उपासना से आत्मिक प्रगति, उसके फलस्वरूप व्यक्ति का समग्र विकास, उसके द्वारा सर्वतोमुखी समृद्धि की सम्भावना, यह चक्र ऐसा है, जिससे इस कृत्य में लगाया गया समय सार्थक ही सिद्ध होता है।
उपासना काम में हर घड़ी यही अनुभूति रहनी चाहिए कि हम भगवान के अति निकट बैठे हैं और साधक तथा साध्य के बीच सघन आदान-प्रदान हो रहा है। साधक अपने समग्र व्यक्तित्व को भगवान् को होम रहा है और वे उसे अपने समतुल्य बनाने की अनुकम्पा प्रदान कर रहे हैं।
अस्वस्थता की दशा में, सफर में, विधिवत् उपासना कृत्य करने की स्थिति न हो तो आत्म शुद्धि, देवपूजन तथा जप, ध्यान आदि सारे कृत्य मानसिक उपासना के रूप में ध्यान प्रक्रिया के सहारे—उन कृत्यों को करने की कल्पना करते हुए भी किये जा सकते हैं। उपासना में नागा करने की अपेक्षा इस प्रकार की मानसिक पूजा कर लेना भी उत्तम है। उससे संकल्पित साधना प्रक्रिया को किसी न किसी रूप में अनवरत चलती हुई तो रखा ही जा सकता है।
दैनिक साधना क्रम है—
(1) ब्रह्म संध्या (2) पूजा (3) जप एवं ध्यान (4) प्रार्थना (5) सूर्यार्घ्यदान। आसन पर बैठकर अपने शरीर और मन को पवित्र बनाने के लिए, देहगत पांच तत्वों को शुद्ध करने के लिए, भूतशुद्धि की जाती है, इसे ही ब्रह्म-संध्या कहते हैं। संध्या में 6 कृत्य करने पड़ते हैं—
(1) पवित्री करण, (2) आचमन, (3) शिखा वन्दन, (4) प्राणायाम, (5) न्यास, (6) पृथ्वी पूजन। इनका विधान बहुत सरल है।
1. पवित्रीकरण—बाएं हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से गायत्री मन्त्र पढ़कर उस जल को शिर तथा सारे शरीर पर छिड़कें।
2. आचमन—जल से भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर तीन बार आचमन करें। प्रत्येक आचमन के पहले 5 गायत्री मन्त्र पढ़ें। हाथ का स्पर्श मुख से न हो। हो जाय तो उसे ठीक से धुलें।
3. शिखा-बन्धन—आचमन के पश्चात् शिखा को जल से गीला करके उसमें ऐसी गांठ लगानी चाहिए जो सिरा खींचने से खुल जाय, इसे आधी गांठ कहते हैं। गांठ लगाते समय गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते जाना चाहिए। शिखा-बन्धन का प्रयोजन ब्रह्मरन्ध्र में स्थित शतदल चक्र की सूक्ष्म शक्तियों का जागरण करना है। जिसके शिखा स्थान पर बाल न हों, वे महिलायें जल से उस स्थान को स्पर्श कर लें।
4. प्राणायाम—तीसरा नियम प्राणायाम है। वह इस प्रकार करना चाहिए।
(अ) स्वस्थ चित्त से मेरुदण्ड सीधा करके बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिए, नेत्रों को बन्द या अधखुला रखिये। अब सांस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिये, ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ इस मन्त्र का मन ही मन उच्चारण करते चलिये। भावना कीजिए कि विश्व-व्यापी दुःख नाशक सुख स्वरूप, ब्रह्म की चैतन्य प्राण-शक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूं, इस भावना और इस मन्त्र के साथ धीरे-धीरे सांस और जितना वायु भीतर भर सकें, भरिये।
(ब) अब सांस को भीतर रोकिये और ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ इस मन्त्र भाग का जप कीजिये। साथ ही भावना कीजिए कि ‘नासिका द्वारा खींचा हुआ प्राण श्रेष्ठ है। सूर्य के समान तेजस्वी उसका तेज मेरे अंग-प्रत्यंग में भरा जा रहा है।’ इस भावना के साथ पहले की अपेक्षा आधे समय तक वायु को रोके रखें।
(स) सब नासिका द्वारा वायु को धीरे-धीरे निकालना आरम्भ कीजिए और ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ इस मन्त्र भाग को जपिए तथा यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है, ऐसा मनन कीजिए। वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगाना चाहिए जितना खींचने में लगा था।
(द) जब भीतर की वायु बाहर निकल जावे तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था उतनी ही देर बाहर रोक रखें अर्थात् बिना सांस लिए रहें और ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ इस मन्त्र भाग को जपते रहें, साथ ही भावना करें कि ‘भगवती वेदमाता गायत्री हमारी सद्बुद्धि को जागृत कर रही हैं।’
यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए, जिससे काया के, वाणी के, मन के विविध पापों का संहार हो सके।
5. न्यास—न्यास कहते हैं धारण करने को, अंग-प्रत्यंग में गायत्री की सतोगुणी शक्ति धारण करने, भरने, स्थापित करने, ओत-प्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है। बांये हाथ में गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए जल लें। पांचों उंगलियों को मिलाकर उन्हें हर बार जल में डुबोते हुए विभिन्न अंगों का स्पर्श इस भावना से करना चाहिए कि मेरे यह अंग गायत्री शक्ति से पवित्रतम एवं बलवान हो रहे हैं। नीचे लिखे अनुसार मन्त्र बोलते हुए, उनसे सम्बन्धित अंगों का स्पर्श पहले बांयी ओर फिर दायीं और का स्पर्श किया जाना चाहिए।
1. ॐ भूर्भुवः स्वः [मस्तक को] 2. तत्सवितु [नेत्रों को] 3. वरेण्यं [कानों को] 4. भर्गो [मुख को] 5. देवस्य [कण्ठ को] 6. धीमहि [हृदय को] 7. धियो योनः [नाभि को] 8. प्रचोदयात् [हाथ पैरों को] 9. शेष जल गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए सारे शरीर पर छिड़क लें।
6. पृथ्वी पूजन—गायत्री माता की तरह ही धरती माता- मातृभूमि भी पूजनीय है। जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन से उसकी पूजा के लिए भूमि पर अथवा उपचार सामग्री की तश्तरी में अर्पित करें। मातृभूमि के लिये—विश्व मानवता के लिये बढ़-चढ़ कर त्याग बलिदान करने की भावना इस कृत्य के साथ रहनी चाहिए।
यह आत्म शोधन कृत्य पूर्ण हुआ। अब देवपूजन कर्म आरम्भ करना है।
देव पूजन—एक छोटी चौकी पर पूजा पीठ की स्थापना की जाय। पीले रंग का कपड़ा बिछाया जाय। उस पर मध्य में गायत्री महाशक्ति का प्रतीक चित्र स्थापित किया जाय। दाहिनी ओर ढकी हुई छोटी लुटिया में जल कलश और बांई ओर अगरबत्ती अथवा दीपक जलाया जाय। बीच में पूजा वस्तुएं अर्पित करने के लिये एक छोटी तश्तरी रखी जाय, पूजा उपचार की वस्तुयें उसी में छोड़ी जायं ताकि कपड़ा खराब न हो।
जल कलश को शांतिदायक धर्म संस्थापक रचनात्मक देव शक्तियों का संयुक्त प्रतीक माना गया है। दीपक या अगरबत्तियों में जलने वाली अग्नि अधर्म उन्मूलन सुधार संघर्ष की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। कलश नर तत्व और अग्नि नारी तत्व है। अवांछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों की स्थापना एक ही पूर्ण प्रक्रिया के दो अविच्छिन्न अंग माने गये हैं। भगवान ने अपने अवतरण का उद्देश्य अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य.......’’ श्लोक में बताया है। साधक को व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक क्षेत्र में इन दोनों ही प्रवृत्तियों को कार्यान्वित करना है। इस भावना को जीवन्त रखने के लिये जल देवता और अग्नि देवता को साक्षी रूप में पूजा पीठ पर स्थापित किया जाता है।
आरम्भ में देवसत्ता के आह्वान की भावना करते हुए गायत्री मन्त्र सहित हाथ जोड़ कर मस्तक नवाया जाय। इसके पश्चात् क्रमशः एक चमची जल, थोड़े से अक्षत, नैवेद्य, चंदन या रोली, पुष्प आदि समर्पित किये जायें। प्रत्येक अर्पण के साथ गायत्री मन्त्र मन ही मन बोल जाय।
जप एवं ध्यान—आधा घण्टा गायत्री जप के लिये रखा गया है। माला या घड़ी से काल गणना की जा सकती है। नियत स्थान, नियत समय और नियत संख्या के तीनों तथ्यों का समन्वय रहने से हर साधना अधिक सफल होती है। जप में कण्ठ, होठ, जीभ आदि सभी स्वर यन्त्र चलते रहें, पर उच्चारण इतना धीमा हो कि उसे समीप बैठे व्यक्ति भी ठीक तरह समझ न सकें। माला का उपयोग हो रहा हो तो तर्जनी काम में नहीं लानी चाहिये। अंगूठा, मध्यमा और अनामिका उंगलियों के सहारे ही दाने खिसकाने चाहिए। बड़े मध्य दाने का उल्लंघन नहीं करते। जब 108 दाने पूरे हो जाते हैं तो माला को उलट देते हैं।
जप के साथ-साथ प्रभाव कालीन अरुणाभ सूर्य का प्रभा पुंज सविता देवता का ध्यान करना चाहिये। पूर्व दिशा से पीत वर्ण सूर्य निकल रहा है, उसकी दिव्य किरणें हमारी समूची सत्ता में ‘एक्सरेज’ की तरह प्रवेश कर रही हैं। तीन शरीरों के तीन विशिष्ट केन्द्र हैं इनमें होकर यह सविता देवता का प्रकाश उन शरीरों में प्रवेश करता है।
स्थूल शरीर का केन्द्र नाभि है—यहां रुद्र ग्रन्थि मानी जाती है। प्रज्ञापुंज सविता देवता की किरणें इस रुद्र केन्द्र में होकर रक्त मांस से बने शरीर के प्रत्येक जीवाणु में प्रवेश करती हैं और शक्ति, सक्रियता एवं सच्चरित्रता की प्रचुर मात्रा भर देती हैं।
सूक्ष्म शरीर का केन्द्र मस्तिष्क है। उसकी विष्णु ग्रन्थि भ्रू-मध्य भाग में है। इसी को आज्ञाचक्र कहते हैं। इसमें होकर सविता देवता का तेजस् प्रवेश करता है और समूचे विचार संस्थान को आच्छादित कर लेता है। विवेक शीलता, बुद्धिमत्ता एवं सृजनात्मक सद्विचारों की बहुलता यह तीन अनुदान सविता देव अपने सूक्ष्म शरीर को प्रदान करते हैं।
कारण शरीर का केन्द्र दोनों पसलियों के जोड़ पर आमाशय स्थान पर अवस्थित ‘हृदय’ केन्द्र में है। यह आध्यात्मिक ‘हृदय’—शरीर में धड़कने वाले रक्त के थैले से भिन्न है। इसे विष्णु ग्रन्थि अथवा सूर्य चक्र कहते हैं। यहां होकर प्रज्ञापुंज सविता देवता कारण शरीर में प्रवेश करते हैं और उच्चस्तरीय आदर्शवादी आस्था—आत्मज्ञान से प्रभावित देव उमंगें—आत्मीयता, करुणा, उदारता जैसी सद्भावनाएं-अनुदान रूप में प्रदान करते हैं।
अपनी सारी सत्ता सूर्य पिंड जैसी ज्योतिर्मय हो रही है। अज्ञानांधकार मिट रहा है। उसके साथ रहने वाली अनेकों कुत्सायें, कुंठायें पलायन कर रही हैं। भीतर सद्भावनाओं की और बाहर सत्प्रवृत्तियों की हिलोरें उठ रही है। ज्योतिर्मय आत्मसत्ता अपने आलोक से सारे वातावरण को प्रकाशवान बना रही है।
जप के साथ-साथ उपरोक्त ध्यान करने से मन उसी चिंतन धारा में बहने लगता है और एकाग्रता का वह अभ्यस्त हो जाता है जिसे धारा प्रवाह कहते हैं। मन का एक केंद्र बिन्दु पर केन्द्रीभूत रहना बहुत आगे की—लगभग समाधि स्थिति पर पहुंची हुई तुरीयावस्था है। आरम्भिक साधनों को उस समय साध्य सफलता के लिए आतुर नहीं होना चाहिए, प्रारम्भिक प्रयास में इतनी ही एकाग्रता पर्याप्त है कि मनःसंस्थान की विचार शक्ति एक निर्धारित धारा प्रवाह में बहने लगे। गायत्री माता की गोदी में छोटे बच्चे की तरह खेलना पय-पान करना—सूर्य रूपी अग्नि कुण्ड में आत्म सत्ता को हविष्य के रूप में होम देना—दीपक पर पतंगें का आत्मार्पण जैसे ध्यान चित्र भी इसी भाव प्रवाह के अंग हैं। जिन्हें इसका अभ्यास बन गया हो वे उन्हें भी अपनाये रह सकते हैं अन्यथा सर्वश्रेष्ठ प्रज्ञापुंज सविता देवता की नाभि, भ्रूमध्य भाग हृदय में होकर तीनों शरीरों में दिव्य प्रकाश की तरह प्रवेश करना और रोम-रोम में कर्तव्यनिष्ठा, विवेकशीलता एवं आदर्शवादिता को ओत-प्रोत कर देने वाला ध्यान ही समझा जाय और उसी को अपनाया जाय। ध्यान के समय आंखें लगभग बन्द ही रखी जायें। अधखुले नेत्र में भी पुतली ऊपर ही रखनी पड़ती हैं ताकि बाहर के दृश्य ध्यान में बाधा उत्पन्न न करें।
प्रार्थना—जप एवं ध्यान की समाप्ति पर प्रार्थना करें। गायत्री का कोई स्तोत्र, गायत्री चालीसा अथवा सामान्य भाषा में ही भावपूर्वक मां के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाय।
सूर्यार्घ्यदान—पूर्व दिशा में मुंह करके पूजा स्थान पर रखे हुए देव शक्तियों के सम्मिलित स्वरूप जल कलश को सूर्य भगवान के निमित्त धार बांध कर चढ़ाना चाहिए। सूर्य दर्शन सम्भव हो तो ठीक अन्यथा उनका ध्यान करते हुए यह जल चढ़ाया जाय। पानी गन्दी जगह पर न बहने पाये, पैरों के नीचे न कुचलने पाये—इसका ध्यान रखा जाय और तुलसी अथवा अन्य किसी पौधे के गमले में ही उसे गिराया जाय। गमला न हो तो पानी को थाली में गिरा लिया जाय और उसे किसी वृक्ष की जड़ में लगाने के लिये भेज दिया जाय।
जलधार चढ़ाते समय भावना की जाय कि सूर्य अर्थात् विश्वात्मा—जलधार अर्थात् जीवन रस। जीवन को परमात्मा के चरणों में समर्पित किया जा रहा है अर्थात् जल कलश को सूर्य नारायण के चरणों में चढ़ाया जा रहा है। सूर्य जल को भाप बनाकर सुविस्तृत वायुमंडल में बखेर देता है। भावना की जानी चाहिए कि हमारे जीवन रस को, आन्तरिक और भौतिक वैभव को विश्व सम्पदा बना दिया जायगा। भाव, ओस-बिंदु बन कर पौधों का पोषण करती है। अपनी जीवन संपत्ति भी—विश्व सम्पदा बन कर अनेकों का सिंचन कर सके। इसी भावना का प्रतीक यह सूर्य अर्घ्यदान है।
इतना सब कृत्य पूरा कर लेने के बाद पूजा स्थल पर आकर विदाई का करबद्ध नत मस्तक नमस्कार किया जाय और सब वस्तुओं को समेट कर यथा स्थान रख दिया जाय। पूजा में प्रयुक्त अक्षतों को चिड़ियों को डाल दिया जाय। नैवेद्य को प्रसाद रूप स्वयं ले लिया जाय। पानी पौधों के गमले में डाला जाय। अगरबत्ती में आग हो तो उसके कारण कोई दुर्घटना न होने पाये ऐसी व्यवस्था कर दी जाय।
इसी प्रकार प्रत्येक गतिशील पदार्थ में प्रतिक्षण कुछ न कुछ मल बनता रहता है, जिसे जल्दी-जल्दी साफ करने की आवश्यकता पड़ती है। रेल में कोयले की राख, मशीनों में तेल की चीकट जमती है। शरीर में प्रतिक्षण मल बनता है और वह गुदा, शिश्न, नाक, मुख, कान, आंख, त्वचा आदि के छिद्रों द्वारा निकलता रहता है। यदि मल की सफाई न हो तो देह में इतना विष एकत्रित हो जायगा कि दो-चार दिन में ही जीवन-संकट उपस्थित हुए बिना न रहेगा। मकान में बुहारी न लगाई जाय, कपड़ों को न धोया जाय, बर्तनों को न मला जाय, शरीर को स्नान न कराया जाय तो एक दो दिन में ही मैल चढ़ जायगा और गंदगी, कुरूपता, बदबू, मलीनता तथा विकृति उत्पन्न हो जायगी।
आत्मिक साधना में आहार-प्राप्ति और मल विसर्जन के दोनों महत्वपूर्ण कार्य समान रूप से होते हैं। आत्मिक भावना विचारधारा और अवस्थित को बलवान् चैतन्य एवं क्रियाशील बनाने वाली पद्धति को साधना कहते हैं। यह साधना इन विकारों, मलों एवं विषों की भी सफाई करती है, जो सांसारिक विषयों और उलझनों के कारण चित्त पर बुरे रूप से सदा ही जमते रहते हैं। शरीर को बार-बार स्नान कराना, दो बार शौच जाना आवश्यक समझा जाता है। आत्मा के लिये भी यह क्रियायें होनी आवश्यक हैं, इसी को संध्या कहते हैं। शरीर से आत्मा का महत्व अधिक होने के कारण त्रिकाल संध्या की साधना का शास्त्रों में वर्णन है। तीन बार न बन पड़े तो प्रातः सायं दो बार से काम चलाया जा सकता है। जिनकी रुचि इधर बहुत ही कम हैं वे एक बार तो कम से कम यह समझ कर करें कि संध्या हमारा आवश्यक नित्यकर्म है, धार्मिक कर्तव्य है। उसे न करने से पाप विकारों का जमाव होता रहता है और भूखी आत्मा निर्बल होती चलती है, यह दोनों ही बातें पाप कर्मों में शुमार हैं, अतएव पातक भार से बचने के लिए भी संध्या को हमारे आवश्यक नित्यकर्मों में स्थान मिलना उचित है।
उपासना के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उसमें केवल पूजापरक कर्मकाण्ड ही काफी नहीं वरन् साथ में भावनात्मक समावेश भी होना चाहिये। ज्यों-त्यों पूजा-पत्री कर देने, थोड़ा जप कर लेने या कुछ पाठ कर लेने मात्र से काम नहीं चलेगा। आमतौर से लोग इतना ही करते हैं और समझ लेते हैं कि उनकी उपासना पूर्ण हो गई। कर्म-काण्ड पूजा का एक महत्वपूर्ण अंग तो है पर उतने मात्र से उसमें पूर्णता नहीं आ सकती। उपासना के हर कर्मकाण्ड के साथ आवश्यक भावनाओं का समन्वय रहे तभी उसमें प्रखरता आयेगी।
श्रद्धा में विश्वास का समुचित पुट रहना चाहिये। उपेक्षा, अवज्ञा और कौतुहल की तरह विधि-विधान की लकीर पीट लेने से काम नहीं चल सकता। शारीरिक क्रियाओं के साथ-साथ आत्मिक उद्गारों का समन्वय भी अभीष्ट है। उसी आधार पर उपासना प्राणवान बनती है।
उपासना का उपचार सम्पन्न करते हुए—जप, पूजन, वन्दन, अर्चन, स्तवन, ध्यान करते हुए—हमें यह अनुभूति भी करनी चाहिये कि इष्टदेव हमारे अति निकटवर्ती सज्जन, सम्बन्धी, मित्र, कुटुम्बी एवं आत्मीय हैं। ऐसे रिश्तों में माता का सम्बन्ध सबसे बड़ा, सबसे सरल और सबसे भावपूर्ण है। गायत्री उपासना में भगवान् को माता के रूप में माना गया है। माता के प्रति बालक का प्रेम सबसे सरल और स्वाभाविक है। क्या मनुष्य, क्या मनुष्येत्तर, पशु-पक्षी, कीट-पतंगें सभी अपने बच्चों को प्यार करते हैं। माता में तो वह प्यार और भी अधिक होता है। अन्य योनियों में तो बहुधा माता ही एकमात्र शिशु की संरक्षक एवं स्नेह भोजन होती है। अन्य रिश्तों में प्रेम का आधार गुण-दोष एवं लाभ-हानि होती है, पर माता का स्नेह इन सबसे ऊंचा, परम निःस्वार्थ और त्याग बलिदानों से भरा पूरा होता है। हम भगवान को अपनी माता मानें और उसी प्रकार भगवान हमें अपना पुत्र मानते हुए अत्यन्त वात्सल्य की वर्षा करें तो यह भावनात्मक आदान-प्रदान प्रेम परम्परा का एक महान् घटक बन जाता है। ईश्वर को माता मानकर एक मातृ-प्रतिमा की अथवा ध्यान-छवि की स्थापना के पश्चात् उपासना पथ पर प्रगति में गतिशीलता उत्पन्न होती है। भावनात्मक आदान-प्रदान के लिए इस प्रकार की स्थापना आवश्यक है।
इसके उपरान्त हमारी अनुभूति में दूसरी स्थापना यह होनी चाहिये कि इष्टदेव सर्वव्यापी और न्यायमूर्ति हैं। घट-घट में, कण-कण में समाये हैं। अपने रोम-रोम में भीतर और बाहर उन्हीं की सत्ता ओत-प्रोत है। तिल भर भी ऐसी जगह नहीं जहां वे न हों। हर जड़ चेतन पदार्थ में, अपने समीपवर्ती और दूरवर्ती वातावरण में—उन्हीं का प्रकाश जगमगा रहा है। उन्हें हर जगह हम देख सकते हैं और वे हर पदार्थ में से अपनी सहस्रों आंखों द्वारा हमारे बाह्य और अन्तरंग स्तर को बारीकी से देखते रहते हैं। हमारा कोई कृत्य, कोई विचार, कोई भाव उनसे छिपा नहीं रहता।
उपासक की मनोभूमि में यदि उपरोक्त अनुभूति हो तो भगवान् की समीपता का आनन्द उपलब्ध होने में कुछ कठिनाई न रहेगी। तब केवल प्रेम भावना का समावेश शेष रह जाता है। यह तत्व जितना-जितना जप-ध्यान के साथ-साथ घुलता जायगा, उसी क्रम से उपासना में आनन्द की अभिवृद्धि होती चलेगी। प्रभु की समीपता सदा सुखद होती है। भगवान् को यदि अपना प्रेमपात्र बना लिया गया है, उसे माता, गुरु या सखा के रूप में वरण कर लिया गया है, तो निःसन्देह उसके साथ रहने की भावना अति सुखद होगी और उस अवसर पर मन खूब लगेगा। मन का स्वभाव यह है कि वह प्रेमपात्र के पास, प्रिय वस्तु के साथ, प्रिय कल्पना के सान्निध्य में रहना पसन्द करता है। दौड़-दौड़कर वहां जाता है। यदि हम ईश्वर को अपना प्रिय पात्र बना लें तो मन फिर कहीं भागेगा-दौड़ेगा नहीं, वरन् जब भी ध्यान-धारणा में संलग्न होंगे, मन वहीं रमण करता रहेगा और चाहेगा कि उसी सुखद सन्दर्भ में अधिक से अधिक समय बिताने का अवसर मिले। तब मन न लगने का—जी उचटने का—चित्त न लगने का प्रश्न ही उपस्थित न होगा। मन को वश में करने—चित्त प्रवृत्तियों को एकाग्र करने की गुत्थी सुलझ सकती है, जब हम ईश्वर को अपना प्रिय सम्बन्धी बनालें और उसके साथ रहने में वैसा ही सुख अनुभव करें, जैसा कि किसी परम प्रिय परिजन के साथ रहने पर अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त मन को वश में करने तथा चित्त को एकाग्र करने का कोई और रास्ता है ही नहीं।
आत्मिक प्रगति के दो प्रधान आधार
गो. तुलसीदास ने रामचरितमानस का शुभारम्भ करते हुए भवानी और शंकर की वन्दना की है। ये दोनों क्या हैं, इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा है- ‘भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ’ भवानी को उन्होंने श्रद्धा और शंकर को विश्वास के रूप में उल्लेख किया है। बात सोलह आने सच है। भवानी और शंकर में जो शक्ति हो सकती है, वह सारी की सारी, ज्यों की त्यों, श्रद्धा और विश्वास में विद्यमान है। अध्यात्म तत्वज्ञान का सारा आधार इन्हीं दोनों पर है। दृश्य जगत के आधार पर पंचतत्व हैं।
दिखाई देने वाले समस्त जड़ पदार्थ—मिट्टी, पानी, हवा, गर्मी और आकार द्वारा विनिर्मित है। इसी प्रकार अध्यात्मिक जगत् का समस्त विस्तार श्रद्धा और विश्वास पर रखा हुआ है। यदि इन आधार पर भूत तत्त्वों की कमी रहेगी, तो किसी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।
जिस प्रकार जड़ जगत् में पंचतत्वों को सुनिश्चित आधार है, इन्हीं के हेर-फेर से विभिन्न वस्तुएं उत्पन्न होती, बढ़ती और जराजीर्ण होकर नष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रद्धा विश्वास के आधार पर भावनाओं का निर्माण होता है। यह भावनाएं और मान्यताएं ही चेतन जगत् में विविध-विधि सृजनात्मक ताने-बाने बुनती हैं। श्रद्धा और विश्वास अपने आप में सृष्टि के महत्तम शक्ति-स्रोत हैं। इन्हीं के आधार पर शक्ति और पदार्थों के साथ हमारे सम्बन्ध जुड़े हुए हैं। आशा और उत्साह इन्हीं पर निर्भर है। सृजनात्मक प्रेरणा यही उत्पन्न करते हैं। भविष्य का निर्माण और निर्धारण इन्हीं के आधार पर सम्भव होता है। यदि दोनों तत्त्व चेतना क्षेत्र से अलग हटा दिये जायें तो फिर यही जीवन—जीवन कहलाने योग्य ही न रह जायगा।
श्रद्धा से बनी भूत की कल्पना प्राणघातक दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। भय और आशंकाओं से आतंकित लोग अपना अच्छा-खासा स्वास्थ्य खो बैठते हैं। आत्म-विश्वास और मनोबल के आधार पर चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न किये जाते हैं। यह सारे खेल श्रद्धा के ही हैं। साधना के सत्परिणामों की एक विशाल श्रृंखला है। अगणित साधक, अगणित प्रकार के सत्परिणाम साधना प्रयोगों के आधार पर प्राप्त करते हैं। इसके मूल में उनकी श्रद्धा की शक्ति ही सन्निहित होती है। साधक अपने ही नाम रूप की साधना करके, अपने ही जैसा एक ‘छाया पुरुष’ निर्मित और सिद्ध कर लेते हैं। यह मनुष्य आकृति का देव बड़े-बड़े अनोखे काम करता है।
यह रचना हमारी श्रद्धा द्वारा ही की गई होती है। अनेक देवताओं का सृजन इसी प्रकार होता है। अन्तःकरण में कौन दिव्य शक्ति कितनी, कहां कैसी है यह प्रश्न अलग है। यहां तो यह कहा-समझा जा रहा है कि हमारी श्रद्धा—अपनी सामर्थ्य से अपनी मान्यता, आकृति, रुचि और प्रयोजन का एक स्वतन्त्र देव विनिर्मित कर सकती है। यह देवता उतने ही समर्थ होते हैं, जितनी हमारी श्रद्धा उन्हें बल प्रदान करती है। दुर्बल श्रद्धा से बने देव केवल आकृति मात्र का दर्शन देने में समर्थ होते हैं। वे कुछ अधिक सहायता नहीं कर सकते। पर जितनी श्रद्धा प्रबल है, उनके देव भी अद्भुत पराक्रम प्रस्तुत करते देखे जाते हैं।
श्रद्धा और विश्वास का सम्बल लेकर ही हमें अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिये। ‘ईश्वर है। उसकी सत्ता विद्यमान है। उसका सान्निध्य प्राप्त किया जा सकता है और उसका प्रकाश मिल सकता है।’ यह विश्वास जितना ही प्रखर एवं स्पष्ट होगा, उतनी ही सफलता हमारी साधना प्रस्तुत करेगी। कितना जप करने से, कितने दिन में, ईश्वर की कितनी कृपा मिल सकती है? इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व यह भी जानना होगा कि साधक की श्रद्धा में कितनी प्रखरता है? यदि अश्रद्धा और अविश्वास से, उदास मन से बेगार भुगतने की तरह कुछ पूजा-पाठ किया जा रहा है तो उसका परिणाम भी लंगड़े-लूले जैसा होगा। बहुत दिन में थोड़ा-सा लाभ दिखाई देगा। छोटे से दीपक की लौ से जल भी बहुत देर में गरम होगा, किन्तु यदि आग तीव्र हो तो थोड़ी ही देर में पानी खौलने लगेगा। उपासना का क्रिया-कृत्य पूरा कर लेना अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकता। आवश्यकता श्रद्धा के समन्वय की भी है। यह समावेश जितना अधिक और जितना प्रखर होगा, सत्परिणाम उतनी ही बड़ी भाषा में और उतना ही शीघ्र दृष्टिगोचर होगा।
नियमित उपासना के लिए पूजा-स्थली की स्थापना आवश्यक है। घर में एक ऐसा स्थान तलाश करना चाहिये जहां अपेक्षाकृत एकान्त रहता हो, आवागमन और कोलाहल कम से कम हो। ऐसे स्थान पर एक छोटी चौकी को पीत वस्त्र से सुसज्जित कर उस पर कांच से मढ़ा हुआ भगवान का सुन्दर चित्र स्थापित करना चाहिए। गायत्री की उपासना सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। इसलिये उसकी स्थापना को प्रमुखता देनी चाहिये। यदि किसी का दूसरे देवता के लिये आग्रह हो तो उस देवता का चित्र भी रखा जा सकता है। शास्त्रों में गायत्री के बिना अन्य सब साधनाओं का निष्फल होना लिखा है। इसलिये अन्य देवता को इष्ट माना जाय और उसकी प्रतिमा स्थापित की जाय तो भी गायत्री का चित्र प्रत्येक दशा में साथ रहना ही चाहिये।
अच्छा तो यह है कि एक ही इष्ट गायत्री महाशक्ति को माना जाय और एक ही चित्र स्थापित किया जाय। उससे एकाग्रता का लाभ होता है। यदि अन्य देवताओं की स्थापना का भी आग्रह हो तो उनकी संख्या कम से कम रखनी चाहिये। जितने देवता स्थापित किये जायेंगे, जितनी प्रतिमाएं बढ़ाई जायेंगी—निष्ठा उसी अनुपात से विभाजित होती जायेगी। इसलिए यथासंभव एक अन्यथा कम से कम छवियां पूजा स्थली पर प्रतिष्ठापित करनी चाहिए।
पूजा-स्थली के पास उपयुक्त व्यवस्था के साथ पूजा के उपकरण रखने चाहिये अगरबत्ती, पचपात्र, चमची, धूपबत्ती, आरती, जल गिराने की तश्तरी, चन्दन, रोली, अक्षत, दीपक, नैवेद्य, घी, दियासलाई आदि उपकरण यथास्थान डिब्बों में रखनी चाहिये। आसन कुशानों का उत्तम है। चटाई से काम चल सकता है। आवश्यकतानुसार मोटा या गुदगुदा आसन भी रखा जा सकता है। माला चन्दन या तुलसी की उत्तम है। शंख, सीपी, मूंगा जैसी जीव शरीरों से बनने वाली मालायें निषिद्ध हैं। इसी प्रकार किसी पशु का चमड़ा भी आसन के स्थान पर प्रयोग नहीं करना चाहिये। प्राचीनकाल में अपनी मौत से मरे हुए पशुओं का चर्म वनवासी सन्त सामयिक आवश्यकता के अनुरूप प्रयोग करते होंगे। पर आज तो हत्या करके मारे हुए पशुओं का चमड़ा ही उपलब्ध है। इसका प्रयोग उपासना की सात्विकता को नष्ट करता है।
नियमित उपासना, नियत समय पर नियत संख्या में, नियत स्थान पर होनी चाहिये। इस नियमितता से वह स्थान संस्कारित हो जाता है और मन भी ठीक तरह लगता है। जिस प्रकार नियम समय पर सिगरेट आदि की ‘भड़क’ उठती है, उसी तरह पूजा के लिए भी मन में उत्साह जगता है। जिस स्थान पर प्रसन्न चित्त से सो रहे हैं, उस स्थान पर नींद ठीक आती है। नई जगह पर अक्सर नींद में अड़चन पड़ती है। इसी प्रकार पूजा का नियम स्थान ही उपयुक्त रहता है। व्यायाम की सफलता तब है जब दण्ड-बैठक आदि को नियत संख्या में नियम समय पर किया जाय। कभी बहुत कम, कभी बहुत ज्यादा, कभी सवेरे, कभी दोपहर को व्यायाम करने से लाभ नहीं मिलता।
इसी प्रकार दवा की मात्रा भी समय और तौल को ध्यान में न रखकर मनमाने समय और परिमाण में सेवन की जाय तो उससे उपयुक्त लाभ न होगा। यही बात अस्थिर संख्या की उपासना के बारे में कही जा सकती है। यथा-सम्भव नियमितता ही बरतनी चाहिये। रेलवे की रनिंग ड्यूटी करने वाले, यात्रा में रहने वाले, फौजी, पुलिस वाले जिन्हें अक्सर समय-कुसमय यहां-वहां जाना पड़ता है, उनकी बात दूसरी है। वे मजबूरी में अपना क्रम जब भी, जितना भी बन पड़े, रख सकते हैं। न कुछ से कुछ अच्छा। पर जिन्हें ऐसी असुविधा नहीं उन्हें यथा-सम्भव नियमितता ही बरतनी चाहिये। कभी मजबूरी की स्थिति आ पड़े तो तब वैसा हेर-फेर किया जा सकता है।
सर्वांगपूर्ण सुगम साधना विधि
वेदमाता का आंचल पकड़ना हर दृष्टि से लाभप्रद है यह समझ कर हर व्यक्ति को नियमित गायत्री उपासना अविलम्ब प्रारम्भ कर देनी चाहिये। उपासना के लिए समय न मिलने की बात आत्म प्रवंचना युक्त है। हर व्यक्ति को प्रतिदिन पूरे 24 घंटे का समय मिलता है। उसका उपयोग महत्वपूर्ण कार्यों में ही करना समझदारी है। महत्वपूर्ण कार्यों के लिए अन्य कम महत्व के कार्यों में कटौती करके सभी लोग समय निकाल सकते हैं। यदि आलस्य अवसाद में नष्ट होने वाले समय को ही बचा लिया जाय, तो भी पर्याप्त समय निकल सकता है।
सर्वांगपूर्ण साधना पद्धति अपनाने के लिए साधक को लगभग 45 मिनट का समय लगाना चाहिए। उसमें 30 मिनट का जप एवं ध्यान के लिए तथा शेष समय आगे पीछे के अन्य कर्मकाण्डों के लिए निर्धारित रखना चाहिए। प्रारम्भ में जिनसे इतना न बन पड़े वे न्यूनतम 10 मिनट से भी शुरुआत कर सकते हैं। उसमें केवल एक माला जप के लिए 6 मिनट तथा शेष 4 मिनट में षट्कर्म आदि कृत्य पूरे किए जा सकते हैं।
उपासना आरम्भ करने से पूर्व नित्य कर्म से निवृत्त होना—शरीर, वस्त्र और स्नान उपकरणों की अधिकाधिक स्वच्छता के लिये तत्परता बरतना—आवश्यक है। स्नान और धुले वस्त्र बदलने से मन में पवित्रता का संचार होता है। चित्त प्रफुल्ल रहता है। आलस्यवश मलीनता को लादे रहने से मन भारी रहता है और उपासना से जी उचटता है। जंभाई आती है। ऊब लगती है और अधिक बैठना भारी पड़ता है। स्थान और पूजा उपकरणों की मलीनता से मन में अरुचि उत्पन्न होती है और उत्साह घटता है। अस्तु उपासना स्थल को—पूजा के पात्र उपकरण प्रतीक आदि को—स्वच्छ कर लेने की बात को महत्व ही दिया जाना चाहिए। अधिक ठण्ड, बीमारी, पानी का अभाव, स्थान की असुविधा जैसी कठिनाइयां उत्पन्न हो जाने पर तो बिना स्थान के—हाथ मुंह धोकर भी पूजा पर बैठा जा सकता है, पर सामान्य स्थिति में आलस्यवश ऐसी उपेक्षा नहीं बरती जानी चाहिए। रुग्णता की या अन्य विवशता की परिस्थितियों में, सफल में, मानसिक उपासना बिना कुछ क्रियाकृत्य किये भी की जा सकती है।
पूजा की चौकी पर पीला वस्त्र बिछाया जाय और उस पर गायत्री मां का, मन्त्र का—चित्र स्थापित किया जाय। उसके आगे एक कोने पर छोटी लुटिया में ढका हुआ जल कलश और दूसरे कोने पर जलती अगरबत्ती को रखा जाय। जहां शुद्ध घी उपलब्ध है वहां धूप दीप भी जलाया जा सकता है, अन्यथा उसके अभाव में अगरबत्ती से भी काम चल सकता है।
आसन कुशाओं का या चटाई का लेना चाहिए। चौकी या पट्टा बिछाया जा सकता है। सूती या ऊनी आसन इसी शर्त पर बिछाये जा सकते हैं कि उनके धोने या सुखाने का प्रबन्ध होता रहे। पशुओं के चमड़े आजकल वधकर्म द्वारा ही प्राप्त होते हैं इसलिए मृगचर्म आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। पूजा स्थान में यथा संभव स्वच्छ वायु का आवागमन होना चाहिए। सीलन, घुटन या घिच-पिच के वे स्थान जहां खाना-पीना, सोना, आना-जाना बना रहता है चित्त में विक्षेप उत्पन्न करते हैं। यथा सम्भव एकान्त स्थान ही तलाश करना चाहिए। खुली छत पर या बरामदे में बैठना भी अच्छा है।
भारतीय धर्म में त्रिकाल संध्या का विधान है। प्रातः सूर्योदय के समय, सायं सूर्यास्त के समय, मध्याह्न 12 बजे यह मध्यवर्ती समय है। थोड़ा आगे-पीछे होना हो तो वैसा भी हो सकता है। जिन्हें सुविधा हो वे त्रिकाल उपासना करें। अन्यथा प्रातः सायं दो बार से भी काम चल सकता है। अत्यन्त व्यस्त व्यक्तियों को भी प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर एक बार तो उपासना करने के लिए समय निकाल ही लेना चाहिए। प्रयत्न यह करना चाहिये कि आधा घन्टे से लेकर एक घन्टे तक का समय उपासना के लिए मिल सके। निःसन्देह इस प्रयोजन में लगा हुआ समय हर दृष्टि से सार्थक होता है। उपासना से आत्मिक प्रगति, उसके फलस्वरूप व्यक्ति का समग्र विकास, उसके द्वारा सर्वतोमुखी समृद्धि की सम्भावना, यह चक्र ऐसा है, जिससे इस कृत्य में लगाया गया समय सार्थक ही सिद्ध होता है।
उपासना काम में हर घड़ी यही अनुभूति रहनी चाहिए कि हम भगवान के अति निकट बैठे हैं और साधक तथा साध्य के बीच सघन आदान-प्रदान हो रहा है। साधक अपने समग्र व्यक्तित्व को भगवान् को होम रहा है और वे उसे अपने समतुल्य बनाने की अनुकम्पा प्रदान कर रहे हैं।
अस्वस्थता की दशा में, सफर में, विधिवत् उपासना कृत्य करने की स्थिति न हो तो आत्म शुद्धि, देवपूजन तथा जप, ध्यान आदि सारे कृत्य मानसिक उपासना के रूप में ध्यान प्रक्रिया के सहारे—उन कृत्यों को करने की कल्पना करते हुए भी किये जा सकते हैं। उपासना में नागा करने की अपेक्षा इस प्रकार की मानसिक पूजा कर लेना भी उत्तम है। उससे संकल्पित साधना प्रक्रिया को किसी न किसी रूप में अनवरत चलती हुई तो रखा ही जा सकता है।
दैनिक साधना क्रम है—
(1) ब्रह्म संध्या (2) पूजा (3) जप एवं ध्यान (4) प्रार्थना (5) सूर्यार्घ्यदान। आसन पर बैठकर अपने शरीर और मन को पवित्र बनाने के लिए, देहगत पांच तत्वों को शुद्ध करने के लिए, भूतशुद्धि की जाती है, इसे ही ब्रह्म-संध्या कहते हैं। संध्या में 6 कृत्य करने पड़ते हैं—
(1) पवित्री करण, (2) आचमन, (3) शिखा वन्दन, (4) प्राणायाम, (5) न्यास, (6) पृथ्वी पूजन। इनका विधान बहुत सरल है।
1. पवित्रीकरण—बाएं हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से गायत्री मन्त्र पढ़कर उस जल को शिर तथा सारे शरीर पर छिड़कें।
2. आचमन—जल से भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर तीन बार आचमन करें। प्रत्येक आचमन के पहले 5 गायत्री मन्त्र पढ़ें। हाथ का स्पर्श मुख से न हो। हो जाय तो उसे ठीक से धुलें।
3. शिखा-बन्धन—आचमन के पश्चात् शिखा को जल से गीला करके उसमें ऐसी गांठ लगानी चाहिए जो सिरा खींचने से खुल जाय, इसे आधी गांठ कहते हैं। गांठ लगाते समय गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते जाना चाहिए। शिखा-बन्धन का प्रयोजन ब्रह्मरन्ध्र में स्थित शतदल चक्र की सूक्ष्म शक्तियों का जागरण करना है। जिसके शिखा स्थान पर बाल न हों, वे महिलायें जल से उस स्थान को स्पर्श कर लें।
4. प्राणायाम—तीसरा नियम प्राणायाम है। वह इस प्रकार करना चाहिए।
(अ) स्वस्थ चित्त से मेरुदण्ड सीधा करके बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिए, नेत्रों को बन्द या अधखुला रखिये। अब सांस को धीरे-धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिये, ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ इस मन्त्र का मन ही मन उच्चारण करते चलिये। भावना कीजिए कि विश्व-व्यापी दुःख नाशक सुख स्वरूप, ब्रह्म की चैतन्य प्राण-शक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूं, इस भावना और इस मन्त्र के साथ धीरे-धीरे सांस और जितना वायु भीतर भर सकें, भरिये।
(ब) अब सांस को भीतर रोकिये और ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ इस मन्त्र भाग का जप कीजिये। साथ ही भावना कीजिए कि ‘नासिका द्वारा खींचा हुआ प्राण श्रेष्ठ है। सूर्य के समान तेजस्वी उसका तेज मेरे अंग-प्रत्यंग में भरा जा रहा है।’ इस भावना के साथ पहले की अपेक्षा आधे समय तक वायु को रोके रखें।
(स) सब नासिका द्वारा वायु को धीरे-धीरे निकालना आरम्भ कीजिए और ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ इस मन्त्र भाग को जपिए तथा यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है, ऐसा मनन कीजिए। वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगाना चाहिए जितना खींचने में लगा था।
(द) जब भीतर की वायु बाहर निकल जावे तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था उतनी ही देर बाहर रोक रखें अर्थात् बिना सांस लिए रहें और ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ इस मन्त्र भाग को जपते रहें, साथ ही भावना करें कि ‘भगवती वेदमाता गायत्री हमारी सद्बुद्धि को जागृत कर रही हैं।’
यह क्रिया तीन बार करनी चाहिए, जिससे काया के, वाणी के, मन के विविध पापों का संहार हो सके।
5. न्यास—न्यास कहते हैं धारण करने को, अंग-प्रत्यंग में गायत्री की सतोगुणी शक्ति धारण करने, भरने, स्थापित करने, ओत-प्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है। बांये हाथ में गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए जल लें। पांचों उंगलियों को मिलाकर उन्हें हर बार जल में डुबोते हुए विभिन्न अंगों का स्पर्श इस भावना से करना चाहिए कि मेरे यह अंग गायत्री शक्ति से पवित्रतम एवं बलवान हो रहे हैं। नीचे लिखे अनुसार मन्त्र बोलते हुए, उनसे सम्बन्धित अंगों का स्पर्श पहले बांयी ओर फिर दायीं और का स्पर्श किया जाना चाहिए।
1. ॐ भूर्भुवः स्वः [मस्तक को] 2. तत्सवितु [नेत्रों को] 3. वरेण्यं [कानों को] 4. भर्गो [मुख को] 5. देवस्य [कण्ठ को] 6. धीमहि [हृदय को] 7. धियो योनः [नाभि को] 8. प्रचोदयात् [हाथ पैरों को] 9. शेष जल गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए सारे शरीर पर छिड़क लें।
6. पृथ्वी पूजन—गायत्री माता की तरह ही धरती माता- मातृभूमि भी पूजनीय है। जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन से उसकी पूजा के लिए भूमि पर अथवा उपचार सामग्री की तश्तरी में अर्पित करें। मातृभूमि के लिये—विश्व मानवता के लिये बढ़-चढ़ कर त्याग बलिदान करने की भावना इस कृत्य के साथ रहनी चाहिए।
यह आत्म शोधन कृत्य पूर्ण हुआ। अब देवपूजन कर्म आरम्भ करना है।
देव पूजन—एक छोटी चौकी पर पूजा पीठ की स्थापना की जाय। पीले रंग का कपड़ा बिछाया जाय। उस पर मध्य में गायत्री महाशक्ति का प्रतीक चित्र स्थापित किया जाय। दाहिनी ओर ढकी हुई छोटी लुटिया में जल कलश और बांई ओर अगरबत्ती अथवा दीपक जलाया जाय। बीच में पूजा वस्तुएं अर्पित करने के लिये एक छोटी तश्तरी रखी जाय, पूजा उपचार की वस्तुयें उसी में छोड़ी जायं ताकि कपड़ा खराब न हो।
जल कलश को शांतिदायक धर्म संस्थापक रचनात्मक देव शक्तियों का संयुक्त प्रतीक माना गया है। दीपक या अगरबत्तियों में जलने वाली अग्नि अधर्म उन्मूलन सुधार संघर्ष की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। कलश नर तत्व और अग्नि नारी तत्व है। अवांछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों की स्थापना एक ही पूर्ण प्रक्रिया के दो अविच्छिन्न अंग माने गये हैं। भगवान ने अपने अवतरण का उद्देश्य अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य.......’’ श्लोक में बताया है। साधक को व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक क्षेत्र में इन दोनों ही प्रवृत्तियों को कार्यान्वित करना है। इस भावना को जीवन्त रखने के लिये जल देवता और अग्नि देवता को साक्षी रूप में पूजा पीठ पर स्थापित किया जाता है।
आरम्भ में देवसत्ता के आह्वान की भावना करते हुए गायत्री मन्त्र सहित हाथ जोड़ कर मस्तक नवाया जाय। इसके पश्चात् क्रमशः एक चमची जल, थोड़े से अक्षत, नैवेद्य, चंदन या रोली, पुष्प आदि समर्पित किये जायें। प्रत्येक अर्पण के साथ गायत्री मन्त्र मन ही मन बोल जाय।
जप एवं ध्यान—आधा घण्टा गायत्री जप के लिये रखा गया है। माला या घड़ी से काल गणना की जा सकती है। नियत स्थान, नियत समय और नियत संख्या के तीनों तथ्यों का समन्वय रहने से हर साधना अधिक सफल होती है। जप में कण्ठ, होठ, जीभ आदि सभी स्वर यन्त्र चलते रहें, पर उच्चारण इतना धीमा हो कि उसे समीप बैठे व्यक्ति भी ठीक तरह समझ न सकें। माला का उपयोग हो रहा हो तो तर्जनी काम में नहीं लानी चाहिये। अंगूठा, मध्यमा और अनामिका उंगलियों के सहारे ही दाने खिसकाने चाहिए। बड़े मध्य दाने का उल्लंघन नहीं करते। जब 108 दाने पूरे हो जाते हैं तो माला को उलट देते हैं।
जप के साथ-साथ प्रभाव कालीन अरुणाभ सूर्य का प्रभा पुंज सविता देवता का ध्यान करना चाहिये। पूर्व दिशा से पीत वर्ण सूर्य निकल रहा है, उसकी दिव्य किरणें हमारी समूची सत्ता में ‘एक्सरेज’ की तरह प्रवेश कर रही हैं। तीन शरीरों के तीन विशिष्ट केन्द्र हैं इनमें होकर यह सविता देवता का प्रकाश उन शरीरों में प्रवेश करता है।
स्थूल शरीर का केन्द्र नाभि है—यहां रुद्र ग्रन्थि मानी जाती है। प्रज्ञापुंज सविता देवता की किरणें इस रुद्र केन्द्र में होकर रक्त मांस से बने शरीर के प्रत्येक जीवाणु में प्रवेश करती हैं और शक्ति, सक्रियता एवं सच्चरित्रता की प्रचुर मात्रा भर देती हैं।
सूक्ष्म शरीर का केन्द्र मस्तिष्क है। उसकी विष्णु ग्रन्थि भ्रू-मध्य भाग में है। इसी को आज्ञाचक्र कहते हैं। इसमें होकर सविता देवता का तेजस् प्रवेश करता है और समूचे विचार संस्थान को आच्छादित कर लेता है। विवेक शीलता, बुद्धिमत्ता एवं सृजनात्मक सद्विचारों की बहुलता यह तीन अनुदान सविता देव अपने सूक्ष्म शरीर को प्रदान करते हैं।
कारण शरीर का केन्द्र दोनों पसलियों के जोड़ पर आमाशय स्थान पर अवस्थित ‘हृदय’ केन्द्र में है। यह आध्यात्मिक ‘हृदय’—शरीर में धड़कने वाले रक्त के थैले से भिन्न है। इसे विष्णु ग्रन्थि अथवा सूर्य चक्र कहते हैं। यहां होकर प्रज्ञापुंज सविता देवता कारण शरीर में प्रवेश करते हैं और उच्चस्तरीय आदर्शवादी आस्था—आत्मज्ञान से प्रभावित देव उमंगें—आत्मीयता, करुणा, उदारता जैसी सद्भावनाएं-अनुदान रूप में प्रदान करते हैं।
अपनी सारी सत्ता सूर्य पिंड जैसी ज्योतिर्मय हो रही है। अज्ञानांधकार मिट रहा है। उसके साथ रहने वाली अनेकों कुत्सायें, कुंठायें पलायन कर रही हैं। भीतर सद्भावनाओं की और बाहर सत्प्रवृत्तियों की हिलोरें उठ रही है। ज्योतिर्मय आत्मसत्ता अपने आलोक से सारे वातावरण को प्रकाशवान बना रही है।
जप के साथ-साथ उपरोक्त ध्यान करने से मन उसी चिंतन धारा में बहने लगता है और एकाग्रता का वह अभ्यस्त हो जाता है जिसे धारा प्रवाह कहते हैं। मन का एक केंद्र बिन्दु पर केन्द्रीभूत रहना बहुत आगे की—लगभग समाधि स्थिति पर पहुंची हुई तुरीयावस्था है। आरम्भिक साधनों को उस समय साध्य सफलता के लिए आतुर नहीं होना चाहिए, प्रारम्भिक प्रयास में इतनी ही एकाग्रता पर्याप्त है कि मनःसंस्थान की विचार शक्ति एक निर्धारित धारा प्रवाह में बहने लगे। गायत्री माता की गोदी में छोटे बच्चे की तरह खेलना पय-पान करना—सूर्य रूपी अग्नि कुण्ड में आत्म सत्ता को हविष्य के रूप में होम देना—दीपक पर पतंगें का आत्मार्पण जैसे ध्यान चित्र भी इसी भाव प्रवाह के अंग हैं। जिन्हें इसका अभ्यास बन गया हो वे उन्हें भी अपनाये रह सकते हैं अन्यथा सर्वश्रेष्ठ प्रज्ञापुंज सविता देवता की नाभि, भ्रूमध्य भाग हृदय में होकर तीनों शरीरों में दिव्य प्रकाश की तरह प्रवेश करना और रोम-रोम में कर्तव्यनिष्ठा, विवेकशीलता एवं आदर्शवादिता को ओत-प्रोत कर देने वाला ध्यान ही समझा जाय और उसी को अपनाया जाय। ध्यान के समय आंखें लगभग बन्द ही रखी जायें। अधखुले नेत्र में भी पुतली ऊपर ही रखनी पड़ती हैं ताकि बाहर के दृश्य ध्यान में बाधा उत्पन्न न करें।
प्रार्थना—जप एवं ध्यान की समाप्ति पर प्रार्थना करें। गायत्री का कोई स्तोत्र, गायत्री चालीसा अथवा सामान्य भाषा में ही भावपूर्वक मां के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाय।
सूर्यार्घ्यदान—पूर्व दिशा में मुंह करके पूजा स्थान पर रखे हुए देव शक्तियों के सम्मिलित स्वरूप जल कलश को सूर्य भगवान के निमित्त धार बांध कर चढ़ाना चाहिए। सूर्य दर्शन सम्भव हो तो ठीक अन्यथा उनका ध्यान करते हुए यह जल चढ़ाया जाय। पानी गन्दी जगह पर न बहने पाये, पैरों के नीचे न कुचलने पाये—इसका ध्यान रखा जाय और तुलसी अथवा अन्य किसी पौधे के गमले में ही उसे गिराया जाय। गमला न हो तो पानी को थाली में गिरा लिया जाय और उसे किसी वृक्ष की जड़ में लगाने के लिये भेज दिया जाय।
जलधार चढ़ाते समय भावना की जाय कि सूर्य अर्थात् विश्वात्मा—जलधार अर्थात् जीवन रस। जीवन को परमात्मा के चरणों में समर्पित किया जा रहा है अर्थात् जल कलश को सूर्य नारायण के चरणों में चढ़ाया जा रहा है। सूर्य जल को भाप बनाकर सुविस्तृत वायुमंडल में बखेर देता है। भावना की जानी चाहिए कि हमारे जीवन रस को, आन्तरिक और भौतिक वैभव को विश्व सम्पदा बना दिया जायगा। भाव, ओस-बिंदु बन कर पौधों का पोषण करती है। अपनी जीवन संपत्ति भी—विश्व सम्पदा बन कर अनेकों का सिंचन कर सके। इसी भावना का प्रतीक यह सूर्य अर्घ्यदान है।
इतना सब कृत्य पूरा कर लेने के बाद पूजा स्थल पर आकर विदाई का करबद्ध नत मस्तक नमस्कार किया जाय और सब वस्तुओं को समेट कर यथा स्थान रख दिया जाय। पूजा में प्रयुक्त अक्षतों को चिड़ियों को डाल दिया जाय। नैवेद्य को प्रसाद रूप स्वयं ले लिया जाय। पानी पौधों के गमले में डाला जाय। अगरबत्ती में आग हो तो उसके कारण कोई दुर्घटना न होने पाये ऐसी व्यवस्था कर दी जाय।