Books - नव निर्माण की पृष्ठभूमि
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Language: HINDI
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सद्ज्ञान—सबसे बड़ा दान-पुण्य
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दानों में विद्यादान को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। वस्तुओं का दान कुछ समय के लिए ही राहत दे पाता है, कुछ समय में उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। अन्नदान से एक समय की भूख बुझ जाती है, परन्तु कुछ ही घण्टों बाद फिर से भूख जाग जाती है और बुभुक्षित स्थिति में पहुंचना पड़ता है। वस्त्रदान का भी यही हाल है। वे कुछ ही समय में फट जाते हैं। सर्दी के कपड़े गर्मी में और गर्मी के सर्दी में काम नहीं आते। औषधि दान नीरोगी के लिए भी बेकार हैं, तथा जिस पर उसका प्रभाव न हो उसके लिए भी। कुआं, बावड़ी, देवालय आदि का लाभ भी स्थान विशेष पर ही मिलता है। धन दान से भी अच्छे परिणाम तब निकलते हैं, जब वह सत्पात्र के हाथों पड़े और सदुपयोग में लगे। दुरुपयोग होने पर तो वह पाने वाले और दाता दोनों के लिए पाप-पतन का कारण बनता जाता है।
पुण्य मिलता है परमार्थ के आधार पर। दी गयी वस्तु का सदुपयोग बन पड़े तो पुण्य और दुरुपयोग होने पर पाप होता है। दुरुपयोग से दुष्प्रवृत्तियां बढ़ती हैं। भिक्षा व्यवसाय अपनाकर स्वार्थ साधने वाले लोग सामाजिक परम्पराओं को, मानवी गरिमा को नीचे गिराते हैं। ऐसी दशा में यह बार-बार सोचना पड़ता है कि उदारता और सहृदयता का विकास करने वाले दान धर्म को व्यवहार में लाते समय क्या-क्या सावधानियां बरती जायें?
ऐसे में यही कहा जा सकता है कि दुर्घटनाग्रस्तों, अपंगों आदि की सहायता उस सीमा तक की जानी चाहिए जहां तक वे अपने पैरों खड़े होने योग्य बन सकें। तात्कालिक प्रयोग में आने योग्य दयाधर्म, विपत्ति से उबारना हो सकता है। इसमें इतना ही ध्यान रखना चाहिए कि पाने वाला हीनता, याचक प्रवृत्ति अपनाकर अपना पतन न करने लगे। दाता को अहंकार दिखाने और पाखण्डी बनने का अवसर न मिलने लगे। यह दोनों क्रम, दोनों पक्षों को नीचा गिराते हैं, जबकि दान का उद्देश्य दोनों पक्षों को ऊंचा उठाने का होता है। इसलिए आर्थिक दान के क्रम में इस प्रकार की जांच पड़ताल विशेष रूप से की जानी चाहिए।
ज्ञान दान उन सभी असमंजसों से बचा हुआ है। उसकी महत्ता और उपयोगिता असंदिग्ध है। सद्ज्ञान यदि अन्तःकरण में प्रवेश कर जाय तो उसका प्रभाव जीवन भर ही नहीं, जन्म-जन्मान्तरों तक बना रहता है। पाने वाला उसका लाभ जब तक प्राप्त करता रहता है, तब तक दाता को भी पुण्य प्राप्त होता रहता है। अन्नदान, सुविधादान आदि के लाभ किसी योनि में मिल सकते हैं; परन्तु ज्ञान दान का प्रतिफल तो मनुष्य योनि में ही मिल सकता है। कोई दुष्कर्म बन पड़ने पर दण्ड स्वरूप अन्य प्रकार के कष्ट मिल सकते हैं, किन्तु ज्ञान दान करने वाले को उसका परिणाम पाने के लिए मनुष्य जन्म तो मिलेगा ही। यही लाभ इतना बड़ा है, जिसकी बराबरी किसी और से नहीं की जा सकती। ज्ञान दान के अतिरिक्त और कोई परमार्थ इतनी उच्चकोटि के प्रतिफल देने वाला सिद्ध नहीं हो सकता।
शिक्षा और विद्या यह दो अंग हैं ज्ञान के। शिक्षा में साक्षरता से लेकर सामान्य ज्ञान बढ़ाने वाले और धन पैदा करने का द्वार खोलने वाले सभी कौशल गिने जाते हैं। इनका लाभ ऐसी योग्यतायें पैदा करना है, जो जीवन में कई प्रकार की सुविधायें प्रदान कर सकें। इस उपार्जन का लाभ शरीर को और उससे सम्बन्धित लोगों को मिलता है। इसलिए पहले कदम के रूप में शिक्षा की आवश्यकता भी स्वीकारी गयी है। स्कूल कॉलेज इसीलिए खुलते हैं। कृषि, उद्योग, कला, शिल्प आदि की योग्यता पाने के लिए बहुत कुछ पढ़ा और पढ़ाया जाता है। उसके लाभ भी मिलते हैं। कुशलता के बल पर अन्यों की तुलना में प्रशंसा प्रतिष्ठा भी अधिक प्राप्त होती है। इन प्रत्यक्ष लाभों के कारण शिक्षकों, शालाओं और शिक्षार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह उचित भी है और आवश्यक भी। शर्त एक ही है कि इस प्रकार बढ़ी जानकारियों, उभरी प्रतिभाओं का दुरुपयोग न होने लगे।
ज्ञान का दूसरा पक्ष है विद्या। बोल चाल की भाषा में इसे अध्यात्म तत्व ज्ञान और धर्म धारणा के नाम से भी जाना जाता है। चिन्तन चरित्र और व्यवहार में शालीनता विद्या के माध्यम से ही आती है। व्यक्तित्व के परिष्कार, देव मानव बनने तथा प्रामाणिकता और प्रखरता पाने की सम्भावना इसी के साथ जुड़ी है। जीवन का उत्थान और पतन इसी पर पूरी तरह आधारित है।
अशिक्षा को अभिशाप कहा गया है। अनपढ़ व्यक्ति हर दृष्टि से पिछड़े रहते हैं और उस कारण तरह-तरह की परेशानियां झेलते हैं। अभाव उन्हें घेरे रहते हैं और दुर्व्यसन पीछा नहीं छोड़ते। फूहड़पन और असफलताओं का साथ बना ही रहता है। परिस्थितियों, से पैदा हुई कठिनाइयां असल में मनःस्थिति के पिछड़ेपन के कारण उत्पन्न होती हैं। एक बार उनका उपचार हो जाय, तो कदम कदम पर होने वाली भूलों के कारण फिर से घेर लेती हैं।
धनी लोग अपना पैसा पुण्य प्रयोजनों में खर्च कर सकते हैं, परन्तु जो इच्छा या अनिच्छा से निर्धन हैं, वह यह सुयोग कैसे पायें? साधु और ब्राह्मण तो स्वभाव से ही अपरिग्रही होते हैं, वे धन दान कैसे कर पायें? संत सुधारक और शहीद, धन दान न कर सके तो भी धरती के देवता कहे जाते हैं। इसका कारण यह है कि उनसे अनेकों को प्रकाश मिलता है। उनसे लोग आत्मसुधार में अपने कुसंस्कारों से जूझते हुए उन्हें उलट देने में समर्थ होते हैं।
इन सब तथ्यों पर ध्यान देने से सद्ज्ञान दान की श्रेष्ठता स्वीकार करनी ही पड़ती है। इसलिए हर समझदार को एक निष्ठ भाव से, सद्ज्ञान प्रसार को सर्वश्रेष्ठ आधार मानते हुए, उसको जन-जन के हृदय में बिठाने के लिए प्रयास करने चाहिए। आज इसी प्रयास की आवश्यकता सबसे अधिक है। आस्था संकट आज सबसे बड़ा अभिशाप है, प्रगति की सबसे बड़ी रुकावट है। इसी एक विकृति ने हर क्षेत्र में ढेरों समस्यायें और उलझने पैदा की है। भयानक मुसीबतें इसी के कारण से उमड़ घुमड़ कर आती हैं। सद्ज्ञान का अर्थ उन भाव सम्वेदनाओं से है, जो व्यक्तित्व को निखारती है, उसकी प्रामाणिकता और प्रखरता बढ़ाती है। वह ही गुण कर्म स्वभाव के क्षेत्र में मनुष्य को आदर्शवादी और ऊंचे स्तर का बनाती है। इस प्रकार के ज्ञान दान करने का अधिकारी वही व्यक्ति होता है, जो अपने आप को ऐसे ढांचे में ढाल लेता है कि स्वभाव, संस्कारों और क्रिया-कलापों से दूसरों को गहरी प्रेरणा मिल सके। आमतौर से आदर्शों को केवल कहने सुनने तक ही सीमित रखा जाता है। उसे अव्यावहारिक कह कर इस कान से सुना और उस कान से निकाल दिया जाता है। धर्म धारणा के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। चर्चा प्रसंगों में तो लोग रस लेते हैं; परन्तु जब उन आदर्शों को जीवन में उतारने-कार्य रूप में लाने की बात आती है, तो वे बगलें झांकने लगते हैं। वैसा कुछ करने का साहस नहीं जुटा पाते।
इस अटपटेपन का कारण यह है, कि मान लिया गया है कि आदर्शों को अपनाना सामान्य व्यक्तियों के बस की बात नहीं, उन्हें तो कोई संत, मनीषी, विरक्त एकान्तवासी रह कर ही निभा सकते हैं। यह भ्रान्ति जन-जन के मनों में जड़ जमाये हुए है। ऐसी दशा में मान लिया गया है कि धर्म चर्चा को सुन भर लेने से पुण्य फल मिल जाता है। कथा सत्संग सुनने का महत्त्व इसलिए था कि उससे कुछ करने की प्रेरणा मिलती है। परन्तु अब सुने को करने की संगति को नकार दिया गया है। मन बहलाने वाली चित्र विचित्र चर्चाओं को सुनकर पुण्य मिल जाने की मान्यता ने कर्मनिष्ठा-सदाचार का आधार ही एक प्रकार से समाप्त कर दिया है।
इन भ्रान्तियों को दूर करने का एक ही ढंग हो सकता है। वह यह कि आदर्शवादी व्यक्तित्वों के कुछ नमूने सामने रहें; ताकि यह विश्वास किया जा सके कि सिद्धान्तों का पालन संभव है- असंभव नहीं। प्रत्यक्ष उदाहरणों से ही यह विश्वास दिलाया जा सकता है, कि सन्मार्ग पर चलना सरल है- कठिन नहीं। सत्कर्मों का लाभ परलोक में ही नहीं, इस लोक में भी मिलता है। आदर्शवाद नगद धर्म है। इसके बदले आत्म संतोष लोक सम्मान और देव अनुग्रह जैसे अनेक चमत्कारी लाभ हाथोंहाथ मिलते हैं। मनुष्य अनुकरण प्रिय है। वह जैसा होते देखता है वैसा करने की प्रेरणा उभरती है। जन-जन में आदर्शवादी, मानवी गरिमा के अनुकूल जीवन जीने की उमंग पैदा करने के लिए उसकी उपयोगिता प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध करनी होगी। प्रत्यक्ष उदाहरण स्वाध्याय सत्संग की अपेक्षा अधिक प्रभाव डालने वाले सिद्ध होते हैं। प्राचीन काल में धर्मोपदेशकों का प्रभाव इसी लिए गहरा पड़ता था, कि वे अपनी कथनी और करनी एक जैसी रखते थे। आज उच्चस्तरीय सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारने वाले उदाहरण लोगों को अपने आस पास दिखायी नहीं देते, इसलिए वे उन्हें कठिन समझते हैं और अपनाने का साहस नहीं कर पाते।
यह कठिनाई दूर की जानी चाहिए। आज धर्मोपदेशकों को वक्ता ही नहीं, श्रेष्ठ साधक भी बनाना होगा। लोभ, मोह और अहंकार से बचने के लिए संयम साधना पूरी तरह अपनानी होगी। धर्म और अध्यात्म में जिस आदर्शवादिता का उल्लेख है, वह जन साधारण के लिए सरल और व्यावहारिक है, इसे अपने प्राणवान और प्रामाणिक व्यक्तित्व से सिद्ध करना होगा। इसी विशेषता के कारण प्राचीन समय में साधु ब्राह्मण, लोक मानस में श्रद्धा संचार करने में सफल होते थे।
जन समस्यायें सुलझाने के लिए सद्ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। शिक्षा सभ्यता और सम्पन्नता, दिनों दिन बढ़ने पर भी लोग रोग, शोक, कलह, उद्वेग, दरिद्रता और आशंकाओं से घिरे हुए हैं। शायद कोई विरला ही उनसे बचा हो? इस विडम्बना का कारण साधनों का अभाव नहीं, सही दृष्टिकोण अपनाकर सौभाग्य भरा जीवन जी सकने की जानकारी न होना ही है। लोगों की जानकारियां बहुत बढ़ गयी हैं, पर वे इस सम्बन्ध में अनजान ही बने हुए हैं कि जीवन का मूल्य और सदुपयोग क्या हो सकता है? जीवन को पतन के खड्डे में गिरने से रोक कर उसे किस प्रकार हर दिशा में प्रगतिशील बनाया जा सकता है? जियो और जीने दो का सिद्धान्त अपनाकर किस प्रकार सुख शान्ति भरा वातावरण बन सकता है? यह सब समाधान ज्ञान दान द्वारा ही पाये और दिलाये जा सकते हैं।
रात्रि के फैले अन्धकार का अन्त सूर्योदय पर ही होता है। जीवन का अन्धकार सद्ज्ञान से ही मिटता है। शिल्प, व्यवसाय, कला, साहित्य आदि की जानकारी देने को ज्ञान दान मानना बचकानी बात है। वास्तविक ज्ञान जीवन के महत्त्व और सदुपयोग समझने और उसके योग्य साहस जुटाने में सहायक होता है। सद्ज्ञान केवल जानकारी को नहीं कहते, उसके साथ वह प्राणवान प्रखरता भी जुड़ी होती है, जो व्यक्तित्व की हर धारा को आदर्शों से ओतप्रोत कर सके।
पुण्य मिलता है परमार्थ के आधार पर। दी गयी वस्तु का सदुपयोग बन पड़े तो पुण्य और दुरुपयोग होने पर पाप होता है। दुरुपयोग से दुष्प्रवृत्तियां बढ़ती हैं। भिक्षा व्यवसाय अपनाकर स्वार्थ साधने वाले लोग सामाजिक परम्पराओं को, मानवी गरिमा को नीचे गिराते हैं। ऐसी दशा में यह बार-बार सोचना पड़ता है कि उदारता और सहृदयता का विकास करने वाले दान धर्म को व्यवहार में लाते समय क्या-क्या सावधानियां बरती जायें?
ऐसे में यही कहा जा सकता है कि दुर्घटनाग्रस्तों, अपंगों आदि की सहायता उस सीमा तक की जानी चाहिए जहां तक वे अपने पैरों खड़े होने योग्य बन सकें। तात्कालिक प्रयोग में आने योग्य दयाधर्म, विपत्ति से उबारना हो सकता है। इसमें इतना ही ध्यान रखना चाहिए कि पाने वाला हीनता, याचक प्रवृत्ति अपनाकर अपना पतन न करने लगे। दाता को अहंकार दिखाने और पाखण्डी बनने का अवसर न मिलने लगे। यह दोनों क्रम, दोनों पक्षों को नीचा गिराते हैं, जबकि दान का उद्देश्य दोनों पक्षों को ऊंचा उठाने का होता है। इसलिए आर्थिक दान के क्रम में इस प्रकार की जांच पड़ताल विशेष रूप से की जानी चाहिए।
ज्ञान दान उन सभी असमंजसों से बचा हुआ है। उसकी महत्ता और उपयोगिता असंदिग्ध है। सद्ज्ञान यदि अन्तःकरण में प्रवेश कर जाय तो उसका प्रभाव जीवन भर ही नहीं, जन्म-जन्मान्तरों तक बना रहता है। पाने वाला उसका लाभ जब तक प्राप्त करता रहता है, तब तक दाता को भी पुण्य प्राप्त होता रहता है। अन्नदान, सुविधादान आदि के लाभ किसी योनि में मिल सकते हैं; परन्तु ज्ञान दान का प्रतिफल तो मनुष्य योनि में ही मिल सकता है। कोई दुष्कर्म बन पड़ने पर दण्ड स्वरूप अन्य प्रकार के कष्ट मिल सकते हैं, किन्तु ज्ञान दान करने वाले को उसका परिणाम पाने के लिए मनुष्य जन्म तो मिलेगा ही। यही लाभ इतना बड़ा है, जिसकी बराबरी किसी और से नहीं की जा सकती। ज्ञान दान के अतिरिक्त और कोई परमार्थ इतनी उच्चकोटि के प्रतिफल देने वाला सिद्ध नहीं हो सकता।
शिक्षा और विद्या यह दो अंग हैं ज्ञान के। शिक्षा में साक्षरता से लेकर सामान्य ज्ञान बढ़ाने वाले और धन पैदा करने का द्वार खोलने वाले सभी कौशल गिने जाते हैं। इनका लाभ ऐसी योग्यतायें पैदा करना है, जो जीवन में कई प्रकार की सुविधायें प्रदान कर सकें। इस उपार्जन का लाभ शरीर को और उससे सम्बन्धित लोगों को मिलता है। इसलिए पहले कदम के रूप में शिक्षा की आवश्यकता भी स्वीकारी गयी है। स्कूल कॉलेज इसीलिए खुलते हैं। कृषि, उद्योग, कला, शिल्प आदि की योग्यता पाने के लिए बहुत कुछ पढ़ा और पढ़ाया जाता है। उसके लाभ भी मिलते हैं। कुशलता के बल पर अन्यों की तुलना में प्रशंसा प्रतिष्ठा भी अधिक प्राप्त होती है। इन प्रत्यक्ष लाभों के कारण शिक्षकों, शालाओं और शिक्षार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह उचित भी है और आवश्यक भी। शर्त एक ही है कि इस प्रकार बढ़ी जानकारियों, उभरी प्रतिभाओं का दुरुपयोग न होने लगे।
ज्ञान का दूसरा पक्ष है विद्या। बोल चाल की भाषा में इसे अध्यात्म तत्व ज्ञान और धर्म धारणा के नाम से भी जाना जाता है। चिन्तन चरित्र और व्यवहार में शालीनता विद्या के माध्यम से ही आती है। व्यक्तित्व के परिष्कार, देव मानव बनने तथा प्रामाणिकता और प्रखरता पाने की सम्भावना इसी के साथ जुड़ी है। जीवन का उत्थान और पतन इसी पर पूरी तरह आधारित है।
अशिक्षा को अभिशाप कहा गया है। अनपढ़ व्यक्ति हर दृष्टि से पिछड़े रहते हैं और उस कारण तरह-तरह की परेशानियां झेलते हैं। अभाव उन्हें घेरे रहते हैं और दुर्व्यसन पीछा नहीं छोड़ते। फूहड़पन और असफलताओं का साथ बना ही रहता है। परिस्थितियों, से पैदा हुई कठिनाइयां असल में मनःस्थिति के पिछड़ेपन के कारण उत्पन्न होती हैं। एक बार उनका उपचार हो जाय, तो कदम कदम पर होने वाली भूलों के कारण फिर से घेर लेती हैं।
धनी लोग अपना पैसा पुण्य प्रयोजनों में खर्च कर सकते हैं, परन्तु जो इच्छा या अनिच्छा से निर्धन हैं, वह यह सुयोग कैसे पायें? साधु और ब्राह्मण तो स्वभाव से ही अपरिग्रही होते हैं, वे धन दान कैसे कर पायें? संत सुधारक और शहीद, धन दान न कर सके तो भी धरती के देवता कहे जाते हैं। इसका कारण यह है कि उनसे अनेकों को प्रकाश मिलता है। उनसे लोग आत्मसुधार में अपने कुसंस्कारों से जूझते हुए उन्हें उलट देने में समर्थ होते हैं।
इन सब तथ्यों पर ध्यान देने से सद्ज्ञान दान की श्रेष्ठता स्वीकार करनी ही पड़ती है। इसलिए हर समझदार को एक निष्ठ भाव से, सद्ज्ञान प्रसार को सर्वश्रेष्ठ आधार मानते हुए, उसको जन-जन के हृदय में बिठाने के लिए प्रयास करने चाहिए। आज इसी प्रयास की आवश्यकता सबसे अधिक है। आस्था संकट आज सबसे बड़ा अभिशाप है, प्रगति की सबसे बड़ी रुकावट है। इसी एक विकृति ने हर क्षेत्र में ढेरों समस्यायें और उलझने पैदा की है। भयानक मुसीबतें इसी के कारण से उमड़ घुमड़ कर आती हैं। सद्ज्ञान का अर्थ उन भाव सम्वेदनाओं से है, जो व्यक्तित्व को निखारती है, उसकी प्रामाणिकता और प्रखरता बढ़ाती है। वह ही गुण कर्म स्वभाव के क्षेत्र में मनुष्य को आदर्शवादी और ऊंचे स्तर का बनाती है। इस प्रकार के ज्ञान दान करने का अधिकारी वही व्यक्ति होता है, जो अपने आप को ऐसे ढांचे में ढाल लेता है कि स्वभाव, संस्कारों और क्रिया-कलापों से दूसरों को गहरी प्रेरणा मिल सके। आमतौर से आदर्शों को केवल कहने सुनने तक ही सीमित रखा जाता है। उसे अव्यावहारिक कह कर इस कान से सुना और उस कान से निकाल दिया जाता है। धर्म धारणा के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। चर्चा प्रसंगों में तो लोग रस लेते हैं; परन्तु जब उन आदर्शों को जीवन में उतारने-कार्य रूप में लाने की बात आती है, तो वे बगलें झांकने लगते हैं। वैसा कुछ करने का साहस नहीं जुटा पाते।
इस अटपटेपन का कारण यह है, कि मान लिया गया है कि आदर्शों को अपनाना सामान्य व्यक्तियों के बस की बात नहीं, उन्हें तो कोई संत, मनीषी, विरक्त एकान्तवासी रह कर ही निभा सकते हैं। यह भ्रान्ति जन-जन के मनों में जड़ जमाये हुए है। ऐसी दशा में मान लिया गया है कि धर्म चर्चा को सुन भर लेने से पुण्य फल मिल जाता है। कथा सत्संग सुनने का महत्त्व इसलिए था कि उससे कुछ करने की प्रेरणा मिलती है। परन्तु अब सुने को करने की संगति को नकार दिया गया है। मन बहलाने वाली चित्र विचित्र चर्चाओं को सुनकर पुण्य मिल जाने की मान्यता ने कर्मनिष्ठा-सदाचार का आधार ही एक प्रकार से समाप्त कर दिया है।
इन भ्रान्तियों को दूर करने का एक ही ढंग हो सकता है। वह यह कि आदर्शवादी व्यक्तित्वों के कुछ नमूने सामने रहें; ताकि यह विश्वास किया जा सके कि सिद्धान्तों का पालन संभव है- असंभव नहीं। प्रत्यक्ष उदाहरणों से ही यह विश्वास दिलाया जा सकता है, कि सन्मार्ग पर चलना सरल है- कठिन नहीं। सत्कर्मों का लाभ परलोक में ही नहीं, इस लोक में भी मिलता है। आदर्शवाद नगद धर्म है। इसके बदले आत्म संतोष लोक सम्मान और देव अनुग्रह जैसे अनेक चमत्कारी लाभ हाथोंहाथ मिलते हैं। मनुष्य अनुकरण प्रिय है। वह जैसा होते देखता है वैसा करने की प्रेरणा उभरती है। जन-जन में आदर्शवादी, मानवी गरिमा के अनुकूल जीवन जीने की उमंग पैदा करने के लिए उसकी उपयोगिता प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध करनी होगी। प्रत्यक्ष उदाहरण स्वाध्याय सत्संग की अपेक्षा अधिक प्रभाव डालने वाले सिद्ध होते हैं। प्राचीन काल में धर्मोपदेशकों का प्रभाव इसी लिए गहरा पड़ता था, कि वे अपनी कथनी और करनी एक जैसी रखते थे। आज उच्चस्तरीय सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारने वाले उदाहरण लोगों को अपने आस पास दिखायी नहीं देते, इसलिए वे उन्हें कठिन समझते हैं और अपनाने का साहस नहीं कर पाते।
यह कठिनाई दूर की जानी चाहिए। आज धर्मोपदेशकों को वक्ता ही नहीं, श्रेष्ठ साधक भी बनाना होगा। लोभ, मोह और अहंकार से बचने के लिए संयम साधना पूरी तरह अपनानी होगी। धर्म और अध्यात्म में जिस आदर्शवादिता का उल्लेख है, वह जन साधारण के लिए सरल और व्यावहारिक है, इसे अपने प्राणवान और प्रामाणिक व्यक्तित्व से सिद्ध करना होगा। इसी विशेषता के कारण प्राचीन समय में साधु ब्राह्मण, लोक मानस में श्रद्धा संचार करने में सफल होते थे।
जन समस्यायें सुलझाने के लिए सद्ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। शिक्षा सभ्यता और सम्पन्नता, दिनों दिन बढ़ने पर भी लोग रोग, शोक, कलह, उद्वेग, दरिद्रता और आशंकाओं से घिरे हुए हैं। शायद कोई विरला ही उनसे बचा हो? इस विडम्बना का कारण साधनों का अभाव नहीं, सही दृष्टिकोण अपनाकर सौभाग्य भरा जीवन जी सकने की जानकारी न होना ही है। लोगों की जानकारियां बहुत बढ़ गयी हैं, पर वे इस सम्बन्ध में अनजान ही बने हुए हैं कि जीवन का मूल्य और सदुपयोग क्या हो सकता है? जीवन को पतन के खड्डे में गिरने से रोक कर उसे किस प्रकार हर दिशा में प्रगतिशील बनाया जा सकता है? जियो और जीने दो का सिद्धान्त अपनाकर किस प्रकार सुख शान्ति भरा वातावरण बन सकता है? यह सब समाधान ज्ञान दान द्वारा ही पाये और दिलाये जा सकते हैं।
रात्रि के फैले अन्धकार का अन्त सूर्योदय पर ही होता है। जीवन का अन्धकार सद्ज्ञान से ही मिटता है। शिल्प, व्यवसाय, कला, साहित्य आदि की जानकारी देने को ज्ञान दान मानना बचकानी बात है। वास्तविक ज्ञान जीवन के महत्त्व और सदुपयोग समझने और उसके योग्य साहस जुटाने में सहायक होता है। सद्ज्ञान केवल जानकारी को नहीं कहते, उसके साथ वह प्राणवान प्रखरता भी जुड़ी होती है, जो व्यक्तित्व की हर धारा को आदर्शों से ओतप्रोत कर सके।