Books - नव निर्माण की पृष्ठभूमि
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Language: HINDI
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संगीत की उपेक्षा न हो
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कोई समय था जब कि लोक सेवियों का ज्ञान तप और प्रयास एक से एक ऊंचे स्तर के रहते थे। उनके सम्पर्क-सान्निध्य-सत्संग की जन जन प्रतीक्षा किया करता था। वे जहां जायें, वहीं भावनाशीलों की भीड़ लग जाती थी। अनायास ही सत्संग चल पड़ता था। इस आधार पर मिली हुई प्रेरणाओं को लोग श्रद्धा पूर्वक हृदयंगम करते थे। तीर्थ स्थिर होते थे, पर सन्तों के द्वारा जागृत तीर्थों की आवश्यकता पूर्ण होती थी। तीर्थ सेवन के लिए लोगों को उन तक चलकर पहुंचना पड़ता था, पर जागृत अर्थात् ‘जंगम तीर्थ’ स्वयं चलकर बादलों की तरह जहां-तहां पहुंचते और घटा-टोप जलधारा की वर्षा करते थे। खेत चलने में समर्थ नहीं होते पर सुयोग्य किसान उन तक बीज, खाद, पानी आदि पहुंचाने की आवश्यकता पूरी करा देता है।
यह पुराने समय की, सतयुग की बात थी। वह सच्चे साधु ब्राह्मणों का युग था। उन्हीं के पुण्य प्रताप से जन-जन को देवत्व के अवगाहन का लाभ मिलता था। समूचा वातावरण सुख शान्ति से भरा पूरा रहता था। न कहीं दुष्प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती थी न अभाव, दरिद्र और पतन का वातावरण पनपता था। वह स्थिति अब नहीं रही। साधु ब्राह्मण का वेष और वंश ही बचा है। यदि वह जीवन्त और प्राणवान रहा होता तो जन मानस की उत्कृष्टता का स्तर गिरने जैसा संकट कहीं दीख ही न पड़ता। जो सामने है उसी से काम चलाना पड़ेगा। कभी एकाकी महापुरुषों का व्यक्तित्त्व ही इतना चुम्बकत्त्व से भरा पूरा होता था, कि उनके पहुंचते ही वातावरण महकने लगता था और जिनमें उसके प्रति थोड़ी भी संवेदना होती थी, वे लौह कण की भांति चुम्बकत्व के आकर्षण से खिंचे चले जाते थे। अब वैसा संभव नहीं रहा। इसलिए लोक शिक्षण के लिए लोगों को एकत्रित, आकर्षित करने के लिए दूसरे माध्यम ढूंढ़ने पड़ेंगे। अकेले ही जन चेतना को आकर्षित कर सकने योग्य व्यक्तित्व तत्काल न बन सकने के कारण दूसरा उपाय यही रह जाता है कि जन समुदाय को आकर्षित करने वाली मण्डलियां गठित की जाय। इस सन्दर्भ में संगीत मण्डलियों का माध्यम सबसे सरल और सबसे उपयुक्त दीख पड़ता है। उनके निर्वाह का सुयोग इस प्रकार बिठाया जा सकता है कि या तो कोई संगठित तंत्र उनकी अर्थ व्यवस्था करे, या फिर स्थानीय लोग ही मिल-जुल कर उस भार को वहन करे।
उलटी दिशा में बहने वाले लोक प्रवाह को किसी प्रकार उलट कर सीधा करने के लिए प्रभावी प्रेरणाओं का सरंजाम जुटाना आवश्यक है। इस प्रयोजन के लिए अभिनय मंच खड़े न किये जा सकें, तो कम से कम संगीत मंडली का प्रबंध तो होना ही चाहिए। यह कार्य हर क्षेत्र का हर गांव का प्रबुद्ध वर्ग मिल-जुल कर सम्पन्न करे। हर गांव की एक संगीत मण्डली होनी चाहिए। उसका अभ्यास बराबर चलता रहना चाहिए; ताकि प्रतिभावानों का इस क्षेत्र में पदार्पण बना रहे और कौशल में अभिवृद्धि होती रहे। उन्हें संगीत के माध्यम से जन चेतना जगाने की कला में कुशल बनाया जाना चाहिए।
मुख्य उद्देश्य है व्यक्तित्व में, दृष्टिकोण में मानवी गरिमा के अनुरूप उत्कृष्टता के अभिवर्धन का। उसके लिए तेजस्वी धर्म प्रचारकों के गांव-गांव तक पहुंच सकने के अभाव में संगीत मंडलियों द्वारा उस अभाव की आंशिक पूर्ति की जानी चाहिए। मनस्वी युग सृजेताओं को यह आन्दोलन अपनी सूझ-बूझ और प्रयत्नशीलता के आधार पर चलाना चाहिए। जिसमें गायन वादन की थोड़ी भी प्रतिभा दृष्टिगोचर हो, उन्हें इस कला कौशल के माध्यम से स्वार्थ और परमार्थ का दुहरा लाभ सधने की बात बतायी जाय। उनके गर्व गौरव को उभारा जाय तो सहज ही ऐसी संगीत टोलियां हर क्षेत्र में खड़ी हो सकती हैं। प्रयत्न करने पर उनके प्रशिक्षण वाले ऐसे सत्र भी शिविर भी जगह-जगह लगाए-चलाए जा सकते हैं, जिनके सहारे योग्यता अभिवर्धन का सिलसिला चलता रहे और बात आगे बढ़ती रहे।
महिलाएं अपने समुदाय के लिए अपनी मण्डलियां अलग गठित कर सकती हैं। उनमें सुविधा से पर्व त्योहारों, संस्कारों एवं ऋतुओं आदि के अनुरूप गीत-वाद्यों के आयोजन होते रह सकते हैं। अनिवार्यता इस बात की होनी चाहिए कि उनमें से सभी प्रगतिशीलता के, आदर्शवादिता के पक्षधर हों। ऐसे गीतों की आवश्यकता सभी क्षेत्रों में है। शहरों, कस्बों में मनोरंजन के साधन तो खड़े हो गये हैं; परन्तु उनमें संस्कारों के स्थान पर विकार ही अधिक भरे रहते हैं। वहां भी स्वस्थ दिशा दे सकने वाले मनोरंजन चाहिए। ग्रामीण क्षेत्र में जहां दो तिहाई भारत रहता है, वहां तो इस तरह के प्रयासों की अत्यधिक आवश्यकता है। असली भारत जो आर्थिक दृष्टि से ही नहीं सांस्कृतिक दृष्टि से भी पिछड़ा हुआ है, चिन्ता उसी की करनी है, व्यवस्था उसी की बनानी है।
इस संदर्भ में एक महती आवश्यकता इस बात की है, कि थोड़ी-थोड़ी दर पर बदल जाने वाली ग्राम्य भाषाओं में, वहां की प्रचलित शैली व धुनों में लोक गीत रचे जायें। वे भी ऐसे ही हों जो उस क्षेत्र के प्रचलनों में प्रगतिशीलता लाने की दृष्टि से समय के अनुरूप बैठते हों। स्थानीय कवि शुद्ध हिन्दी की ऐसी नयी प्रेरक रचनाओं का क्षेत्रीय बोली में सरस अनुवाद कर सकते हैं। उन्हें छपवाने और लागत मूल्य पर जन जन तक पहुंचाने की व्यवस्था भी की जाय। यह भी एक कार्य है जिसके सहारे गायक मण्डली का अभ्यास बढ़े और जन गायन चलते फिरते गुनगुनाते रहने की प्रथा चल पड़े।
आवश्यक नहीं कि महंगे और बड़े बाजारों में मिलने वाले, देर में सीखे जा सकने वाले वाद्य यन्त्रों को ही प्रयोग में लाया जाय। स्थानीय प्रचलन के अनुरूप कितने ही प्राचीन परम्परा के वाद्य यन्त्र अभी भी गांव में मिल ही जाते हैं। उनका निर्माण भी स्थानीय लोग ही अपने सीमित साधनों से कर लेते हैं। उनकी टूट-फूट की मरम्मत भी वहां हो जाती है। अस्तु लागत की दृष्टि से भी स्थानीय वाद्य यन्त्र सस्ते पड़ते हैं। इस गायन वादन को अपनाए जाने पर, सहज ही मानवी अन्तरात्मा में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हुई कला सम्वेदना को उल्लसित होने का अवसर मिल सकता है। साथ ही संगीत का प्रवाह भी उत्कृष्टता की दिशा में मुड़ जाने पर, इस साधारण से प्रयास द्वारा अशिक्षितों या पिछड़ों में सदाशयता, सद्भावनायें जगाने के लिए एक आवश्यक आधार खड़ा हो सकता है। इस उत्पादन को किन्हीं मधुर फलों की फसल हस्तगत होने जैसी बहुमूल्य उपलब्धि कहा जा सकता है।
जानकार जानते हैं कि संगीत में न केवल भाव सम्वेदना में कोमलता के तत्व उगाने की क्षमता है, वरन् शारीरिक, मानसिक स्तर को अक्षुण्य रखने से लेकर सुधारने तक की क्षमता विद्यमान है। पशु, पक्षियों, वनस्पतियों पर भी उसका उपयोगी प्रभाव पड़ता देखा गया है। वातावरण में सरस संवेदनाओं का संचार होता है। यह असामान्य लाभ है। इन दिनों इनकी आवश्यकता आपत्तिकालीन युग धर्म के निर्वाह का उद्देश्य हाथ में लेकर सामने आयी है। लोक चिन्तन में विकृतियों की भरमार घुस पड़ने के कारण, जन साधारण का दृष्टिकोण गड़बड़ा गया है। फलतः दुष्प्रवृत्तियां बरसाती नदियों की तरह उबल पड़ी हैं। इनके निराकरण के लिए किसी कानून का दबाव और संगठित समुदाय का प्रभाव भी किसी सीमा तक ही अपना काम कर पाता है। लेखनी और वाणी में उत्कृष्टता का तत्व दर्शन संजो कर ही बहुत कुछ किया जा सकता है। सत्ता तन्त्र के-रेडियो, टेलीविजन जैसे में सशक्त माध्यम काम आ सकते हैं। शिक्षित वर्ग में पत्र पत्रिकाओं तोका भी अपना स्थान है। सभी वर्ग अपने ढंग से अपने-अपने क्षेत्र चेतना उभारने के लिए कुछ न कुछ करते रहने की साध संजोये, मानवी गरिमा के पुनर्जीवन की दिशा में बहुत कुछ हो सकता है।
जो कार्य प्रमुखता पूर्वक हाथ में लिया जाना चाहिए, वह है लोक संगीत। उसका सृजन, संगठन, शिक्षण तो आवश्यक है ही, इनमें भी प्रमुखता प्रचलन को मिलनी चाहिए। ऐसे प्रयास किये जाने चाहिए, जिनमें गायकों को अपनी कला प्रदर्शित करने और श्रोताओं को उससे लाभ उठाने का अवसर जल्दी-जल्दी मिल सके। यह शिक्षितों और अशिक्षितों के लिए, बाल-वृद्ध और नर-नारियों के लिए, समग्र रूप से आकर्षक एवं प्रेरणाप्रद हो सकता है। विशेष अवसरों पर विशेष संगीत आयोजन होते रहें; परन्तु पर्व त्योहारों पर तो उनकी अनिवार्य व्यवस्था रहनी ही चाहिए। देवालओं के संचालक को, मंदिरों इस विद्या के विकास का केन्द्र बना सकते हैं। अन्य स्वयं सेवी संगठन भी लोक मंगल के प्रयोजनों में इन विद्याओं को विशेष महत्त्व दे सकते हैं। गांवों मुहल्लों की महिलायें इस दिशा में विशेष रूप से सहयोग कर सकती हैं। लोक क्रान्ति के इस अजस्र और अभीष्ट माध्यम को प्रमुखता मिलनी ही चाहिए, जिससे कि जन-जन तक उसका संदेश पहुंचाया जा सके।
मध्यकालीन सन्त, संगीत को धर्म धारणा के लिए प्रधान रूप से अपनी कार्य पद्धति में सम्मिलित रखते थे। देवता भी इस काम में पीछे न थे। शंकर का डमरू, कृष्ण की वंशी, सरस्वती की वीणा, नारद का मृदंग सर्वविदित है। चैतन्य महाप्रभु, कबीर, सूर, दादू, नामदेव, मीरा आदि ने संगीत मण्डलियां गठित की थी और वे अपने प्रभाव क्षेत्र में जाकर भक्तजनों को अभीष्ट शिक्षा संगीत के माध्यम से दिया करते थे। उनने अन्य प्रान्तों में जाकर भी इस प्रकार के लोक शिक्षण की प्रक्रिया सफलता पूर्वक सम्पन्न की थी। आर्य समाज ने भी अपने प्रचार आयोजनों में संगीत को प्रमुखता दी है। विचार क्रान्ति अभियान में आयोजनों की, विचार गोष्ठियों की धूम रहेगी। उनमें प्रचार के अन्यान्य माध्यमों का भी भरपूर प्रयोग किया जाना है। जहां अभिनय का समावेश संभव हो सके, वहां उसके लिए भी प्रयत्नशील रहने की महती आवश्यकता है। कवि सम्मेलनों की भी लोकप्रियता है। उनमें वे कवि बुलाये जाते हैं, जिनने कवितायें रची हैं। यह खर्चीला उपक्रम है। इसका सस्ता और सरल तरीका यह हो सकता है कि किन्हीं भी कवियों की चुनी हुई आदर्शवादी कविताएं सुनाने के लिए कविता सम्मेलन स्कूलों में कहीं भी सुविधानुसार समय-समय पर किये जा सकते हैं। मधुर स्वर वाले बालकों-व्यक्तियों द्वारा उपयुक्त हावभाव सहित उन्हें प्रस्तुत किया-कराया जाय। उनमें साजों की जरूरत भी नहीं पड़ती। जिनके कंठ मधुर हो उन्हें गायन की प्रतियोगिताओं में सम्मिलित करके प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस प्रकार कविता सम्मेलनों और संगीत टोलियों का विवेक पूर्वक उपयोग करके युग प्रेरणायें जन-जन तक पहुंचाने में असाधारण सफलता पायी जा सकती है।
यह पुराने समय की, सतयुग की बात थी। वह सच्चे साधु ब्राह्मणों का युग था। उन्हीं के पुण्य प्रताप से जन-जन को देवत्व के अवगाहन का लाभ मिलता था। समूचा वातावरण सुख शान्ति से भरा पूरा रहता था। न कहीं दुष्प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती थी न अभाव, दरिद्र और पतन का वातावरण पनपता था। वह स्थिति अब नहीं रही। साधु ब्राह्मण का वेष और वंश ही बचा है। यदि वह जीवन्त और प्राणवान रहा होता तो जन मानस की उत्कृष्टता का स्तर गिरने जैसा संकट कहीं दीख ही न पड़ता। जो सामने है उसी से काम चलाना पड़ेगा। कभी एकाकी महापुरुषों का व्यक्तित्त्व ही इतना चुम्बकत्त्व से भरा पूरा होता था, कि उनके पहुंचते ही वातावरण महकने लगता था और जिनमें उसके प्रति थोड़ी भी संवेदना होती थी, वे लौह कण की भांति चुम्बकत्व के आकर्षण से खिंचे चले जाते थे। अब वैसा संभव नहीं रहा। इसलिए लोक शिक्षण के लिए लोगों को एकत्रित, आकर्षित करने के लिए दूसरे माध्यम ढूंढ़ने पड़ेंगे। अकेले ही जन चेतना को आकर्षित कर सकने योग्य व्यक्तित्व तत्काल न बन सकने के कारण दूसरा उपाय यही रह जाता है कि जन समुदाय को आकर्षित करने वाली मण्डलियां गठित की जाय। इस सन्दर्भ में संगीत मण्डलियों का माध्यम सबसे सरल और सबसे उपयुक्त दीख पड़ता है। उनके निर्वाह का सुयोग इस प्रकार बिठाया जा सकता है कि या तो कोई संगठित तंत्र उनकी अर्थ व्यवस्था करे, या फिर स्थानीय लोग ही मिल-जुल कर उस भार को वहन करे।
उलटी दिशा में बहने वाले लोक प्रवाह को किसी प्रकार उलट कर सीधा करने के लिए प्रभावी प्रेरणाओं का सरंजाम जुटाना आवश्यक है। इस प्रयोजन के लिए अभिनय मंच खड़े न किये जा सकें, तो कम से कम संगीत मंडली का प्रबंध तो होना ही चाहिए। यह कार्य हर क्षेत्र का हर गांव का प्रबुद्ध वर्ग मिल-जुल कर सम्पन्न करे। हर गांव की एक संगीत मण्डली होनी चाहिए। उसका अभ्यास बराबर चलता रहना चाहिए; ताकि प्रतिभावानों का इस क्षेत्र में पदार्पण बना रहे और कौशल में अभिवृद्धि होती रहे। उन्हें संगीत के माध्यम से जन चेतना जगाने की कला में कुशल बनाया जाना चाहिए।
मुख्य उद्देश्य है व्यक्तित्व में, दृष्टिकोण में मानवी गरिमा के अनुरूप उत्कृष्टता के अभिवर्धन का। उसके लिए तेजस्वी धर्म प्रचारकों के गांव-गांव तक पहुंच सकने के अभाव में संगीत मंडलियों द्वारा उस अभाव की आंशिक पूर्ति की जानी चाहिए। मनस्वी युग सृजेताओं को यह आन्दोलन अपनी सूझ-बूझ और प्रयत्नशीलता के आधार पर चलाना चाहिए। जिसमें गायन वादन की थोड़ी भी प्रतिभा दृष्टिगोचर हो, उन्हें इस कला कौशल के माध्यम से स्वार्थ और परमार्थ का दुहरा लाभ सधने की बात बतायी जाय। उनके गर्व गौरव को उभारा जाय तो सहज ही ऐसी संगीत टोलियां हर क्षेत्र में खड़ी हो सकती हैं। प्रयत्न करने पर उनके प्रशिक्षण वाले ऐसे सत्र भी शिविर भी जगह-जगह लगाए-चलाए जा सकते हैं, जिनके सहारे योग्यता अभिवर्धन का सिलसिला चलता रहे और बात आगे बढ़ती रहे।
महिलाएं अपने समुदाय के लिए अपनी मण्डलियां अलग गठित कर सकती हैं। उनमें सुविधा से पर्व त्योहारों, संस्कारों एवं ऋतुओं आदि के अनुरूप गीत-वाद्यों के आयोजन होते रह सकते हैं। अनिवार्यता इस बात की होनी चाहिए कि उनमें से सभी प्रगतिशीलता के, आदर्शवादिता के पक्षधर हों। ऐसे गीतों की आवश्यकता सभी क्षेत्रों में है। शहरों, कस्बों में मनोरंजन के साधन तो खड़े हो गये हैं; परन्तु उनमें संस्कारों के स्थान पर विकार ही अधिक भरे रहते हैं। वहां भी स्वस्थ दिशा दे सकने वाले मनोरंजन चाहिए। ग्रामीण क्षेत्र में जहां दो तिहाई भारत रहता है, वहां तो इस तरह के प्रयासों की अत्यधिक आवश्यकता है। असली भारत जो आर्थिक दृष्टि से ही नहीं सांस्कृतिक दृष्टि से भी पिछड़ा हुआ है, चिन्ता उसी की करनी है, व्यवस्था उसी की बनानी है।
इस संदर्भ में एक महती आवश्यकता इस बात की है, कि थोड़ी-थोड़ी दर पर बदल जाने वाली ग्राम्य भाषाओं में, वहां की प्रचलित शैली व धुनों में लोक गीत रचे जायें। वे भी ऐसे ही हों जो उस क्षेत्र के प्रचलनों में प्रगतिशीलता लाने की दृष्टि से समय के अनुरूप बैठते हों। स्थानीय कवि शुद्ध हिन्दी की ऐसी नयी प्रेरक रचनाओं का क्षेत्रीय बोली में सरस अनुवाद कर सकते हैं। उन्हें छपवाने और लागत मूल्य पर जन जन तक पहुंचाने की व्यवस्था भी की जाय। यह भी एक कार्य है जिसके सहारे गायक मण्डली का अभ्यास बढ़े और जन गायन चलते फिरते गुनगुनाते रहने की प्रथा चल पड़े।
आवश्यक नहीं कि महंगे और बड़े बाजारों में मिलने वाले, देर में सीखे जा सकने वाले वाद्य यन्त्रों को ही प्रयोग में लाया जाय। स्थानीय प्रचलन के अनुरूप कितने ही प्राचीन परम्परा के वाद्य यन्त्र अभी भी गांव में मिल ही जाते हैं। उनका निर्माण भी स्थानीय लोग ही अपने सीमित साधनों से कर लेते हैं। उनकी टूट-फूट की मरम्मत भी वहां हो जाती है। अस्तु लागत की दृष्टि से भी स्थानीय वाद्य यन्त्र सस्ते पड़ते हैं। इस गायन वादन को अपनाए जाने पर, सहज ही मानवी अन्तरात्मा में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हुई कला सम्वेदना को उल्लसित होने का अवसर मिल सकता है। साथ ही संगीत का प्रवाह भी उत्कृष्टता की दिशा में मुड़ जाने पर, इस साधारण से प्रयास द्वारा अशिक्षितों या पिछड़ों में सदाशयता, सद्भावनायें जगाने के लिए एक आवश्यक आधार खड़ा हो सकता है। इस उत्पादन को किन्हीं मधुर फलों की फसल हस्तगत होने जैसी बहुमूल्य उपलब्धि कहा जा सकता है।
जानकार जानते हैं कि संगीत में न केवल भाव सम्वेदना में कोमलता के तत्व उगाने की क्षमता है, वरन् शारीरिक, मानसिक स्तर को अक्षुण्य रखने से लेकर सुधारने तक की क्षमता विद्यमान है। पशु, पक्षियों, वनस्पतियों पर भी उसका उपयोगी प्रभाव पड़ता देखा गया है। वातावरण में सरस संवेदनाओं का संचार होता है। यह असामान्य लाभ है। इन दिनों इनकी आवश्यकता आपत्तिकालीन युग धर्म के निर्वाह का उद्देश्य हाथ में लेकर सामने आयी है। लोक चिन्तन में विकृतियों की भरमार घुस पड़ने के कारण, जन साधारण का दृष्टिकोण गड़बड़ा गया है। फलतः दुष्प्रवृत्तियां बरसाती नदियों की तरह उबल पड़ी हैं। इनके निराकरण के लिए किसी कानून का दबाव और संगठित समुदाय का प्रभाव भी किसी सीमा तक ही अपना काम कर पाता है। लेखनी और वाणी में उत्कृष्टता का तत्व दर्शन संजो कर ही बहुत कुछ किया जा सकता है। सत्ता तन्त्र के-रेडियो, टेलीविजन जैसे में सशक्त माध्यम काम आ सकते हैं। शिक्षित वर्ग में पत्र पत्रिकाओं तोका भी अपना स्थान है। सभी वर्ग अपने ढंग से अपने-अपने क्षेत्र चेतना उभारने के लिए कुछ न कुछ करते रहने की साध संजोये, मानवी गरिमा के पुनर्जीवन की दिशा में बहुत कुछ हो सकता है।
जो कार्य प्रमुखता पूर्वक हाथ में लिया जाना चाहिए, वह है लोक संगीत। उसका सृजन, संगठन, शिक्षण तो आवश्यक है ही, इनमें भी प्रमुखता प्रचलन को मिलनी चाहिए। ऐसे प्रयास किये जाने चाहिए, जिनमें गायकों को अपनी कला प्रदर्शित करने और श्रोताओं को उससे लाभ उठाने का अवसर जल्दी-जल्दी मिल सके। यह शिक्षितों और अशिक्षितों के लिए, बाल-वृद्ध और नर-नारियों के लिए, समग्र रूप से आकर्षक एवं प्रेरणाप्रद हो सकता है। विशेष अवसरों पर विशेष संगीत आयोजन होते रहें; परन्तु पर्व त्योहारों पर तो उनकी अनिवार्य व्यवस्था रहनी ही चाहिए। देवालओं के संचालक को, मंदिरों इस विद्या के विकास का केन्द्र बना सकते हैं। अन्य स्वयं सेवी संगठन भी लोक मंगल के प्रयोजनों में इन विद्याओं को विशेष महत्त्व दे सकते हैं। गांवों मुहल्लों की महिलायें इस दिशा में विशेष रूप से सहयोग कर सकती हैं। लोक क्रान्ति के इस अजस्र और अभीष्ट माध्यम को प्रमुखता मिलनी ही चाहिए, जिससे कि जन-जन तक उसका संदेश पहुंचाया जा सके।
मध्यकालीन सन्त, संगीत को धर्म धारणा के लिए प्रधान रूप से अपनी कार्य पद्धति में सम्मिलित रखते थे। देवता भी इस काम में पीछे न थे। शंकर का डमरू, कृष्ण की वंशी, सरस्वती की वीणा, नारद का मृदंग सर्वविदित है। चैतन्य महाप्रभु, कबीर, सूर, दादू, नामदेव, मीरा आदि ने संगीत मण्डलियां गठित की थी और वे अपने प्रभाव क्षेत्र में जाकर भक्तजनों को अभीष्ट शिक्षा संगीत के माध्यम से दिया करते थे। उनने अन्य प्रान्तों में जाकर भी इस प्रकार के लोक शिक्षण की प्रक्रिया सफलता पूर्वक सम्पन्न की थी। आर्य समाज ने भी अपने प्रचार आयोजनों में संगीत को प्रमुखता दी है। विचार क्रान्ति अभियान में आयोजनों की, विचार गोष्ठियों की धूम रहेगी। उनमें प्रचार के अन्यान्य माध्यमों का भी भरपूर प्रयोग किया जाना है। जहां अभिनय का समावेश संभव हो सके, वहां उसके लिए भी प्रयत्नशील रहने की महती आवश्यकता है। कवि सम्मेलनों की भी लोकप्रियता है। उनमें वे कवि बुलाये जाते हैं, जिनने कवितायें रची हैं। यह खर्चीला उपक्रम है। इसका सस्ता और सरल तरीका यह हो सकता है कि किन्हीं भी कवियों की चुनी हुई आदर्शवादी कविताएं सुनाने के लिए कविता सम्मेलन स्कूलों में कहीं भी सुविधानुसार समय-समय पर किये जा सकते हैं। मधुर स्वर वाले बालकों-व्यक्तियों द्वारा उपयुक्त हावभाव सहित उन्हें प्रस्तुत किया-कराया जाय। उनमें साजों की जरूरत भी नहीं पड़ती। जिनके कंठ मधुर हो उन्हें गायन की प्रतियोगिताओं में सम्मिलित करके प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस प्रकार कविता सम्मेलनों और संगीत टोलियों का विवेक पूर्वक उपयोग करके युग प्रेरणायें जन-जन तक पहुंचाने में असाधारण सफलता पायी जा सकती है।