Books - नव निर्माण की पृष्ठभूमि
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Language: HINDI
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समय के साथ विचार भी बदलने होंगे
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कोई भी आचरण क्रिया में उतरने से पहले विचार क्षेत्र में प्रवेश करता है। बीज बोना, पेड़ पैदा करने की पहली सीढ़ी है। इसी प्रकार महानता की पहली सीढ़ी है, ‘उत्कृष्टता का पक्ष लेने वाले विचारों के साथ गहरा सम्बन्ध बनाना। चिन्तन कर्म का बीज है। इसी आधार पर लोग सत्कर्म और दुष्कर्म करते हैं। अपने को क्षुद्र या महान बनाते हैं, पतन के गर्त में गिरते या स्वर्ग की ऊंचाइयों तक पहुंचते हैं। इसलिए सद्ज्ञान पाना, शरीर निर्वाह और साधन जुटाने से भी अधिक आवश्यक माना गया है। पेट भूखा रहने पर केवल शरीर को ही नुकसान होता है, परन्तु ज्ञान के अभाव में तो नर पशु से लेकर नर पिशाच तक की अन्धी गलियों में जीवन भर भटकना पड़ता है। इस तथ्य को ध्यान में रख कर माता-पिता अपने बच्चों को गुरुकुलों में भेजा करते थे। वहां उन्हें सांसारिक व्यवहार और कौशल सिखाने के साथ ही गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से सुसंस्कारवान बनाया जाता था।
सद्ज्ञान को पारस कहा गया है। इसे हृदय में बिठाने पर लोहे जैसा सामान्य व्यक्तित्व भी सोने जैसा सुन्दर और मूल्यवान बन जाता है। यह न होने पर, बिना आंख वाले की तरह मनुष्य सच्चाई को देख समझ नहीं पाता। यों चतुराई से उत्पन्न कौशल को भी ज्ञान कहा जाता है, परन्तु वह सस्ती वाहवाही, सम्पन्नता के क्षणिक लाभ दिलाने के अलावा और कुछ दे नहीं पाता। ज्ञान की वास्तविकता और गंभीरता बताने वाली कसौटी यह है, कि वह व्यक्ति को सद्गुणों से सम्पन्न और विवेकवान बनाये। उसमें ऐसी रीति नीति अपनाने की प्रेरणा भरे जो आत्म परिष्कार और लोक मंगल के लिए लगातार उत्साहित करती रहे। वह जानकारियां प्रदान करे जो समय की सभी समस्याओं के समाधान सुझाये तथा अपनाने का साहस बढ़ाये।
समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं। इस बदलाव के अनुसार समाधान भी अलग से निकलते हैं। कई बार तो उनका स्वरूप पहले की अपेक्षा बिल्कुल विपरीत होता है। श्री राम ने भ्रातृप्रेम के निर्वाह पर बहुत बल दिया और उस आदर्श की स्थापना के लिए ढेरों कष्ट सहे। ठीक इसके विपरीत श्री कृष्ण ने पाण्डवों को अपने भाइयों-कौरवों से संघर्ष कराया। उनकी इच्छा न होते हुए भी उन्हें उकसाया तथा उस घोर कर्म में अपना सक्रिय सहयोग भी दिया। उपरोक्त दो अवतारों की श्रेष्ठता-निकृष्टता की विवेचना, उनके इन विपरीत दिखने वाले कार्यों के आधार पर नहीं की जा सकती। इसे परिस्थितियों की भिन्नता या वक्त का तकाजा ही कहा जा सकता है। युग धर्म के रूप में भी इस अन्तर को समझाया जा सकता है। बदलते हुए संसार में समयानुसार रीति नीति बदलनी ही पड़ती है।
स्मृतियां 24 हैं। वे सब अपने समय से सम्बन्धित हैं। भगवत् गीता के स्तर की 24 गीताएं मिलती हैं। इन स्मृतियों और गीताओं के प्रतिपादनों में भिन्नता तो है ही, कई स्थानों पर तो वे प्रतिकूल भी हैं। ऐसी स्थिति में उन प्रतिपादन करने वालों पर दोष नहीं लगाया जाना चाहिए, बल्कि उन्हें समय की बदलती हुई परिस्थितियों की देन मानना चाहिए।
भिन्न-भिन्न युगों में परिस्थितियां और वातावरण भिन्न-भिन्न रहे हैं। उनसे मान्यताएं और प्रथाएं भी प्रभावित होती रही हैं। हर परिवर्तन क्रम में तौर तरीके बदलने के लिए चिन्तन के आधार बदलने पड़े हैं। प्रचलन और पूर्वाग्रह गहरी जड़ जमा चुके हों तो सुधार की गति धीमी करनी पड़ती है। परिस्थितियों से ताल -मेल बिठाते हुए आगे बढ़ने का क्रम अपनाना पड़ता है। इसी को युग धर्म कहते हैं। वे समय के साथ बदलते रहते हैं। बदलने चाहिए भी। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का शाश्वत सत्य तो सदा एक सा रहता है। वह तो हर समय, हर स्थान और हर वर्ग के लिए समान है। फिर भी उसका व्यावहारिक स्वरूप तो सामयिक परिस्थितियों को साथ जोड़ते हुए ही बनाना पड़ता है। इसके बिना गाड़ी बिल्कुल रुक ही जाती है।
सर्दियों गर्मियों के रहन सहन, खान-पान, पहनावे आदि में भारी हेर फेर करना पड़ता है। इसी प्रकार समय के अनुसार दृष्टिकोण, जीवनचर्या विधि व्यवस्था आदि में बदलाव लाना ही पड़ता है। किसी समय भारत में रंग-बिरंगी पगडंडियां बांधी जाती थीं। बाल विवाह, छुआ-छूत, जाति-पांति का बोल बाला था। आज उनका समर्थन किसी भी रूप में नहीं किया जा सकता।
विज्ञान ने अनेक सुविधाएं पैदा कर दी हैं और पिछले उपचारों को पीछे छोड़ दिया है। मकान और रास्ते बनाने की नयी विधियां चल पड़ी हैं। रोशनी के लिए बिजली, यात्रा के लिए तेज गति के वाहन, समाचार लेने देने के लिए डाक तार, टेलीफोन आदि के विकास ने पुराने ढंगों का स्थान ले लिया है। पूर्वजों के तौर तरीके छूटते जा रहे हैं। उन्होंने तो रेडियो, टेलीविजन की कल्पना भी नहीं की थी। सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स, चुंगियों आदि का पहले अस्तित्व नहीं था। उनको इस आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि वे पूर्वजों के समय प्रचलित नहीं थे। इस आधार पर ट्रैक्टरों और सिंचाई के साधनों की उपेक्षा कोई नहीं करता। गरदन तोड़ बुखार और एड्स जैसे रोग पहले नहीं होते थे, पर अब वे हैं, और उनसे बचाव के लिए साधन भी सोचने ही पड़ेंगे। परिवार नियोजन, अणु आयुधों से बचाव, प्रक्षेपास्त्रों से रक्षा आदि इसी युग की आवश्यकताएं हैं। इन्हें नकारा कैसे जा सकता है? इस प्रस्तुत समस्याओं से जन जन की रक्षा के कार्य को कर्तव्यों में शामिल होने से कैसे रोका जा सकता है?
ऊपर यह नमूने के उदाहरण इसलिए दिये गये हैं कि जो नयी नयी समस्याएं या आवश्यकताएं जीवन के साथ जुड़ गयी हैं, उनके बारे में हमें नये सिरे से सोचना ही होगा। उनके गुण दोषों पर नये सिरे से विचार करना होगा कि उन दोषों की हानियों से कैसे बचें तथा उनके लाभ पाने के लिए क्या नये निर्धारण किए जायें? इस प्रकार के प्रसंगों को युग समस्याएं कह सकते हैं। उनके सम्बन्ध में विचार करने के लिए हमें सामयिक बनना होगा। रूढ़िवादी चिन्तन तथा पुराणों के पन्ने पलट कर हल निकालने के प्रयास कारगर होना कठिन है। जो कठिनाइयां और आवश्यकताएं उस समय थीं ही नहीं, उनके बारे में कोई शास्त्रकार प्रकाश डालता भी कैसे?
प्रेस जैसी सुविधा साधनों ने भला बुरा सब कुछ बड़ी मात्रा में छापना शुरू कर दिया है। वह सस्ता भी है और सर्वसुलभ भी। उसका असर अच्छा भी पड़ता है और बुरा भी। इस सम्बन्ध में सतर्कता कैसे बरती जाय, यह आज सोचने की बात है। प्राचीन काल में ग्रन्थ हाथ से लिखे जाते थे। उन्हें तैयार करने और खरीदने में विचारक मनीषियों का ही हाथ रहता था। इसलिए विचार तंत्र पर उनका पूरा अधिकार था। सामान्य जनता तक विचार, संतों पुरोहितों के कथा प्रवचनों के माध्यम से ही पहुंचते थे। उन्हें शास्त्र कथन मानकर लोग सहज स्वीकार कर भी लेते थे। परन्तु अब तो साहित्य क्षेत्र में हर किसी का प्रवेश बिना रोक-टोक के हो गया है। इसलिए यह प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ है कि कुविचारों को भड़काने वाले साहित्य से कैसे बचा जाय? कैसे उसके कुप्रभाव को रोका जाय? भूतकाल में यह समस्या थी ही नहीं इसलिए उस पर क्या विचार किया जाता? क्यों विचार किया जाता?
समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं और उसी के अनुसार नये निर्धारण, परिवर्तन करने पड़ते हैं। वर्षा आते ही धरती पर हरियाली छा जाती है। मक्खी-मच्छर जैसे कीड़े मकोड़ों की बाढ़ सी आ जाती है। खेतों रास्तों में पानी फैला-फैला फिरता है। उस अचानक हुए परिवर्तन में क्या क्रम अपनाया जाय, इसे सोच समझ कर लोग अपनी रीति-नीति बना लेते हैं। पतझड़ के दौरान पेड़ों के नीचे पत्तों के डेर लग जाते हैं। उसका क्या किया जाय, यह व्यवस्था उस क्षेत्र के लोग बना लेते हैं। वसंत में फूल खिलते हैं, सब जगह रंग बिरंगी बहार छा जाती है। उसकी खुशी मनाने के लिए तितलियां, मोरों, कोयलों जैसे प्राणी उभर आते हैं। वसंतोत्सवों की धूम मच जाती है। परिस्थितियां अपने अनुरूप बदलने के लिए मार्ग सुझाती और प्रेरणा देती हैं।
ऋषियों ने अपने समय की बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप स्मृतियां बनायी हैं। शेष तो पुरानी पड़ गयी, पर याज्ञवल्क्य स्मृति अभी भी हिन्दू कानून का आधार बनी हुई है। भारत का संविधान जब बना था तब उसे पूर्ण माना गया था। परन्तु समय की आवश्यकताओं ने उसकी अनेक धाराओं में परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया। कई परिवर्तन संशोधन किए जा चुके हैं। आगे चलकर उसमें और हेर फेर न करना पड़ेगा इसकी गारन्टी कौन दे सकता है?
हर युग की अपनी समस्याएं होती हैं। उनके समाधान अपने अपने समय के युग द्रष्टा-मनीषी निकालते रहे हैं। उस निर्धारण के अनुसार नये सूत्रों से जन साधारण को परिचित कराया जाता था। कुम्भ जैसे महापर्वों पर उनकी घोषणा की जाती थी।
इन दिनों वह कार्य लोक सभाओं—विधान सभाओं पर आ पड़ा है। सामाजिक और धार्मिक संगठनों को भी बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप निर्धारण करने होते हैं। पुराने रीति-रिवाज जब समय की दौड़ में पिछड़ जाते हैं, तब उन्हें बदलने के लिए सामाजिक और धार्मिक क्रान्तियों के उफान आते हैं। वे समय की मांग के अनुरूप अपने प्रयोजन पूरे करते हैं। ईसाई धर्म में प्रोटेस्टेन्ट, हिन्दू धर्म में बुद्धवाद—आर्य समाज आदि ने यही कार्य किया था। दुराग्रही तब भी हठ करते रहे होंगे, परन्तु विचारशीलों ने हमेशा ऐसे परिवर्तनों की आवश्यकता स्वीकार की है।
यह संसार न तो जड़ है और न स्थिर। यहां हर घड़ी जड़ और चेतन अपने-अपने ढंग से हलचल करते रहते हैं। सभी जगह पैदा होने, बढ़ने और बदलने का क्रम चलता रहता है। इसी को उद्भव, अभिवर्धन और परिवर्तन कहते हैं। बालकों, प्रौढ़ों और वृद्धों की आकृति, प्रकृति और आवश्यकताएं बदलती रहती हैं। इसलिए उन्हें अपने-अपने ढंग से उपक्रम तलाशने और तालमेल बिठाने पड़ते हैं। प्राणियों और पदार्थों में भी यह प्रक्रिया अपने ढंग से चलती रहती है। किसान और माली अंकुर उगते समय एक नीति अपनाते हैं, फसल बढ़ाने के लिए दूसरी और फसल पकने पर उससे बिल्कुल अलग प्रकार के ढंग अपनाते हैं। वे सब भिन्न भिन्न दिखने पर भी एक ही श्रृंखला के अनिवार्य अंग होते हैं।
चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के सम्बन्ध में भी यही है। उनके मूलभूत सिद्धान्त आदर्शवाद और उत्कृष्टता के रूप में अक्षय बने रहते हैं, परन्तु उनके प्रयोग और स्वरूप अनिवार्य रूप से बदलते रहते हैं। प्रगति के लिए, नव निर्माण के लिए, इस क्रम को विवेक पूर्वक हमेशा गतिशील रखना होता है। परिष्कृत विचारों का व्यापक चक्र चलाना आज भी अनिवार्य हो गया है।
सद्ज्ञान को पारस कहा गया है। इसे हृदय में बिठाने पर लोहे जैसा सामान्य व्यक्तित्व भी सोने जैसा सुन्दर और मूल्यवान बन जाता है। यह न होने पर, बिना आंख वाले की तरह मनुष्य सच्चाई को देख समझ नहीं पाता। यों चतुराई से उत्पन्न कौशल को भी ज्ञान कहा जाता है, परन्तु वह सस्ती वाहवाही, सम्पन्नता के क्षणिक लाभ दिलाने के अलावा और कुछ दे नहीं पाता। ज्ञान की वास्तविकता और गंभीरता बताने वाली कसौटी यह है, कि वह व्यक्ति को सद्गुणों से सम्पन्न और विवेकवान बनाये। उसमें ऐसी रीति नीति अपनाने की प्रेरणा भरे जो आत्म परिष्कार और लोक मंगल के लिए लगातार उत्साहित करती रहे। वह जानकारियां प्रदान करे जो समय की सभी समस्याओं के समाधान सुझाये तथा अपनाने का साहस बढ़ाये।
समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं। इस बदलाव के अनुसार समाधान भी अलग से निकलते हैं। कई बार तो उनका स्वरूप पहले की अपेक्षा बिल्कुल विपरीत होता है। श्री राम ने भ्रातृप्रेम के निर्वाह पर बहुत बल दिया और उस आदर्श की स्थापना के लिए ढेरों कष्ट सहे। ठीक इसके विपरीत श्री कृष्ण ने पाण्डवों को अपने भाइयों-कौरवों से संघर्ष कराया। उनकी इच्छा न होते हुए भी उन्हें उकसाया तथा उस घोर कर्म में अपना सक्रिय सहयोग भी दिया। उपरोक्त दो अवतारों की श्रेष्ठता-निकृष्टता की विवेचना, उनके इन विपरीत दिखने वाले कार्यों के आधार पर नहीं की जा सकती। इसे परिस्थितियों की भिन्नता या वक्त का तकाजा ही कहा जा सकता है। युग धर्म के रूप में भी इस अन्तर को समझाया जा सकता है। बदलते हुए संसार में समयानुसार रीति नीति बदलनी ही पड़ती है।
स्मृतियां 24 हैं। वे सब अपने समय से सम्बन्धित हैं। भगवत् गीता के स्तर की 24 गीताएं मिलती हैं। इन स्मृतियों और गीताओं के प्रतिपादनों में भिन्नता तो है ही, कई स्थानों पर तो वे प्रतिकूल भी हैं। ऐसी स्थिति में उन प्रतिपादन करने वालों पर दोष नहीं लगाया जाना चाहिए, बल्कि उन्हें समय की बदलती हुई परिस्थितियों की देन मानना चाहिए।
भिन्न-भिन्न युगों में परिस्थितियां और वातावरण भिन्न-भिन्न रहे हैं। उनसे मान्यताएं और प्रथाएं भी प्रभावित होती रही हैं। हर परिवर्तन क्रम में तौर तरीके बदलने के लिए चिन्तन के आधार बदलने पड़े हैं। प्रचलन और पूर्वाग्रह गहरी जड़ जमा चुके हों तो सुधार की गति धीमी करनी पड़ती है। परिस्थितियों से ताल -मेल बिठाते हुए आगे बढ़ने का क्रम अपनाना पड़ता है। इसी को युग धर्म कहते हैं। वे समय के साथ बदलते रहते हैं। बदलने चाहिए भी। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का शाश्वत सत्य तो सदा एक सा रहता है। वह तो हर समय, हर स्थान और हर वर्ग के लिए समान है। फिर भी उसका व्यावहारिक स्वरूप तो सामयिक परिस्थितियों को साथ जोड़ते हुए ही बनाना पड़ता है। इसके बिना गाड़ी बिल्कुल रुक ही जाती है।
सर्दियों गर्मियों के रहन सहन, खान-पान, पहनावे आदि में भारी हेर फेर करना पड़ता है। इसी प्रकार समय के अनुसार दृष्टिकोण, जीवनचर्या विधि व्यवस्था आदि में बदलाव लाना ही पड़ता है। किसी समय भारत में रंग-बिरंगी पगडंडियां बांधी जाती थीं। बाल विवाह, छुआ-छूत, जाति-पांति का बोल बाला था। आज उनका समर्थन किसी भी रूप में नहीं किया जा सकता।
विज्ञान ने अनेक सुविधाएं पैदा कर दी हैं और पिछले उपचारों को पीछे छोड़ दिया है। मकान और रास्ते बनाने की नयी विधियां चल पड़ी हैं। रोशनी के लिए बिजली, यात्रा के लिए तेज गति के वाहन, समाचार लेने देने के लिए डाक तार, टेलीफोन आदि के विकास ने पुराने ढंगों का स्थान ले लिया है। पूर्वजों के तौर तरीके छूटते जा रहे हैं। उन्होंने तो रेडियो, टेलीविजन की कल्पना भी नहीं की थी। सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स, चुंगियों आदि का पहले अस्तित्व नहीं था। उनको इस आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि वे पूर्वजों के समय प्रचलित नहीं थे। इस आधार पर ट्रैक्टरों और सिंचाई के साधनों की उपेक्षा कोई नहीं करता। गरदन तोड़ बुखार और एड्स जैसे रोग पहले नहीं होते थे, पर अब वे हैं, और उनसे बचाव के लिए साधन भी सोचने ही पड़ेंगे। परिवार नियोजन, अणु आयुधों से बचाव, प्रक्षेपास्त्रों से रक्षा आदि इसी युग की आवश्यकताएं हैं। इन्हें नकारा कैसे जा सकता है? इस प्रस्तुत समस्याओं से जन जन की रक्षा के कार्य को कर्तव्यों में शामिल होने से कैसे रोका जा सकता है?
ऊपर यह नमूने के उदाहरण इसलिए दिये गये हैं कि जो नयी नयी समस्याएं या आवश्यकताएं जीवन के साथ जुड़ गयी हैं, उनके बारे में हमें नये सिरे से सोचना ही होगा। उनके गुण दोषों पर नये सिरे से विचार करना होगा कि उन दोषों की हानियों से कैसे बचें तथा उनके लाभ पाने के लिए क्या नये निर्धारण किए जायें? इस प्रकार के प्रसंगों को युग समस्याएं कह सकते हैं। उनके सम्बन्ध में विचार करने के लिए हमें सामयिक बनना होगा। रूढ़िवादी चिन्तन तथा पुराणों के पन्ने पलट कर हल निकालने के प्रयास कारगर होना कठिन है। जो कठिनाइयां और आवश्यकताएं उस समय थीं ही नहीं, उनके बारे में कोई शास्त्रकार प्रकाश डालता भी कैसे?
प्रेस जैसी सुविधा साधनों ने भला बुरा सब कुछ बड़ी मात्रा में छापना शुरू कर दिया है। वह सस्ता भी है और सर्वसुलभ भी। उसका असर अच्छा भी पड़ता है और बुरा भी। इस सम्बन्ध में सतर्कता कैसे बरती जाय, यह आज सोचने की बात है। प्राचीन काल में ग्रन्थ हाथ से लिखे जाते थे। उन्हें तैयार करने और खरीदने में विचारक मनीषियों का ही हाथ रहता था। इसलिए विचार तंत्र पर उनका पूरा अधिकार था। सामान्य जनता तक विचार, संतों पुरोहितों के कथा प्रवचनों के माध्यम से ही पहुंचते थे। उन्हें शास्त्र कथन मानकर लोग सहज स्वीकार कर भी लेते थे। परन्तु अब तो साहित्य क्षेत्र में हर किसी का प्रवेश बिना रोक-टोक के हो गया है। इसलिए यह प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ है कि कुविचारों को भड़काने वाले साहित्य से कैसे बचा जाय? कैसे उसके कुप्रभाव को रोका जाय? भूतकाल में यह समस्या थी ही नहीं इसलिए उस पर क्या विचार किया जाता? क्यों विचार किया जाता?
समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं और उसी के अनुसार नये निर्धारण, परिवर्तन करने पड़ते हैं। वर्षा आते ही धरती पर हरियाली छा जाती है। मक्खी-मच्छर जैसे कीड़े मकोड़ों की बाढ़ सी आ जाती है। खेतों रास्तों में पानी फैला-फैला फिरता है। उस अचानक हुए परिवर्तन में क्या क्रम अपनाया जाय, इसे सोच समझ कर लोग अपनी रीति-नीति बना लेते हैं। पतझड़ के दौरान पेड़ों के नीचे पत्तों के डेर लग जाते हैं। उसका क्या किया जाय, यह व्यवस्था उस क्षेत्र के लोग बना लेते हैं। वसंत में फूल खिलते हैं, सब जगह रंग बिरंगी बहार छा जाती है। उसकी खुशी मनाने के लिए तितलियां, मोरों, कोयलों जैसे प्राणी उभर आते हैं। वसंतोत्सवों की धूम मच जाती है। परिस्थितियां अपने अनुरूप बदलने के लिए मार्ग सुझाती और प्रेरणा देती हैं।
ऋषियों ने अपने समय की बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप स्मृतियां बनायी हैं। शेष तो पुरानी पड़ गयी, पर याज्ञवल्क्य स्मृति अभी भी हिन्दू कानून का आधार बनी हुई है। भारत का संविधान जब बना था तब उसे पूर्ण माना गया था। परन्तु समय की आवश्यकताओं ने उसकी अनेक धाराओं में परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया। कई परिवर्तन संशोधन किए जा चुके हैं। आगे चलकर उसमें और हेर फेर न करना पड़ेगा इसकी गारन्टी कौन दे सकता है?
हर युग की अपनी समस्याएं होती हैं। उनके समाधान अपने अपने समय के युग द्रष्टा-मनीषी निकालते रहे हैं। उस निर्धारण के अनुसार नये सूत्रों से जन साधारण को परिचित कराया जाता था। कुम्भ जैसे महापर्वों पर उनकी घोषणा की जाती थी।
इन दिनों वह कार्य लोक सभाओं—विधान सभाओं पर आ पड़ा है। सामाजिक और धार्मिक संगठनों को भी बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप निर्धारण करने होते हैं। पुराने रीति-रिवाज जब समय की दौड़ में पिछड़ जाते हैं, तब उन्हें बदलने के लिए सामाजिक और धार्मिक क्रान्तियों के उफान आते हैं। वे समय की मांग के अनुरूप अपने प्रयोजन पूरे करते हैं। ईसाई धर्म में प्रोटेस्टेन्ट, हिन्दू धर्म में बुद्धवाद—आर्य समाज आदि ने यही कार्य किया था। दुराग्रही तब भी हठ करते रहे होंगे, परन्तु विचारशीलों ने हमेशा ऐसे परिवर्तनों की आवश्यकता स्वीकार की है।
यह संसार न तो जड़ है और न स्थिर। यहां हर घड़ी जड़ और चेतन अपने-अपने ढंग से हलचल करते रहते हैं। सभी जगह पैदा होने, बढ़ने और बदलने का क्रम चलता रहता है। इसी को उद्भव, अभिवर्धन और परिवर्तन कहते हैं। बालकों, प्रौढ़ों और वृद्धों की आकृति, प्रकृति और आवश्यकताएं बदलती रहती हैं। इसलिए उन्हें अपने-अपने ढंग से उपक्रम तलाशने और तालमेल बिठाने पड़ते हैं। प्राणियों और पदार्थों में भी यह प्रक्रिया अपने ढंग से चलती रहती है। किसान और माली अंकुर उगते समय एक नीति अपनाते हैं, फसल बढ़ाने के लिए दूसरी और फसल पकने पर उससे बिल्कुल अलग प्रकार के ढंग अपनाते हैं। वे सब भिन्न भिन्न दिखने पर भी एक ही श्रृंखला के अनिवार्य अंग होते हैं।
चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के सम्बन्ध में भी यही है। उनके मूलभूत सिद्धान्त आदर्शवाद और उत्कृष्टता के रूप में अक्षय बने रहते हैं, परन्तु उनके प्रयोग और स्वरूप अनिवार्य रूप से बदलते रहते हैं। प्रगति के लिए, नव निर्माण के लिए, इस क्रम को विवेक पूर्वक हमेशा गतिशील रखना होता है। परिष्कृत विचारों का व्यापक चक्र चलाना आज भी अनिवार्य हो गया है।