Books - नव निर्माण की पृष्ठभूमि
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Language: HINDI
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अकेले अपने बूते बन पड़ने वाला धर्म प्रचार
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पिछले पृष्ठों पर यह स्पष्ट किया जा चुका है, कि आज की बदली हुई परिस्थितियों में, समस्याओं के समाधान और प्रगति की रुकावटें हटाने के लिए, सद्ज्ञान प्रसार ही एकमात्र उपाय है। साधन सुविधायें तो पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गयी है, परन्तु शान्ति संतोष घटते चले गये हैं। सुख की तरह शान्ति भी मनुष्य की मूल आवश्यकता है। इस लिए आज की सब से बड़ी आवश्यकता यही है- मनुष्य शान्ति कैसे पाये, उसे वह कैसे मिले? रोज के जीवन में उलझी हुई इन समस्याओं का समाधान करना, निश्चित रूप से इस युग का धर्म कहा जा सकता है।
यह कार्य सद्ज्ञान प्रचार से ही सम्भव है। समाधान थोड़े समय के लिए नहीं, स्थाई निकालने होंगे। इसलिए दूरदर्शी विवेकशीलता को अपनाने के लिए लोगों पर इतना प्रभाव डाला जाना है, कि वे वैसा करने के लिए बाध्य हो जायें।
इसके लिए धर्म तंत्र के साथ जुड़ी भाव संवेदना का उपयोग तो करना होगा; परन्तु उसका स्वरूप बदलना होगा। पौराणिक काल में आज की समस्यायें थी नहीं, इसलिए समाधान के लिए उस समय के सूत्रों को ज्यों का त्यों प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। जिन कथा प्रसंगों की आज से संगति नहीं बैठती, उन्हें धर्म चर्चा में लाना एक प्रकार से खिलवाड़ करने जैसा ही है। सद्ज्ञान प्रचारकों को कुछ ऐसी रीति-नीति अपनानी होगी, जिसके आधार पर भावनायें उभारते हुए उन्हें आज के संदर्भ में प्रयुक्त किया जा सके।
इस संदर्भ में पहली जरूरत ऐसे युग साहित्य की थी, जिसके आधार पर लोक चिन्तन की आज की सच्चाई के साथ जोड़ा जा सके। इस दिशा में अधिक तो नहीं बन पड़ा, पर काम चलाऊ प्रयास युग निर्माण योजना के प्रकाशन तंत्र ने आरम्भ किया और एक सीमा तक आगे बढ़ाया है। ऐसा साहित्य, व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म सिद्धान्तों को सम्मिलित करने योग्य विचारों से भरा पूरा होना चाहिए। उसमें कवियों जैसी उड़ाने कम और यथार्थता का पुट गहरा होना चाहिए। इतना ही नहीं उसका मूल्य भी इतना सस्ता होना चाहिए, जिसे पिछड़ा और निर्धन वर्ग भी आसानी से खरीद सके। इसके लिए लेखकों और प्रकाशकों के मन से मोटा लाभ कमाने की बात हटानी पड़ेगी। बड़े ग्रन्थ छापने की अपेक्षा सस्ता साहित्य प्रस्तुत करना होगा। बिना लाभ और बिना हानि का सिद्धान्त अपनाकर ही युग साहित्य जन साधारण के हाथों में पहुंचाया जा सकता है। इस सिद्धान्त को युग निर्माण योजना ने अक्षरशः अपनाया और पूरी तरह पालन किया है।
‘न कुछ से कुछ होना अच्छा’ की नीति सभी मानते हैं। युग साहित्य के प्रसार को समय की समस्याओं के समाधान के लिए, महत्वपूर्ण मानकर चलना चाहिए। इसमें शिक्षितों को पढ़ाने और अशिक्षितों को सुनाने की विधा अपनायी जानी चाहिए। इस दिशा में रुचि कम होने के कारण लोग इस साहित्य को खरीद कर पढ़ेंगे, यह आशा नहीं करनी चाहिए। पुस्तक विक्रेताओं को मोटा कमीशन न मिलने की दशा में, वे भी इस झंझट में न पड़ेंगे। यह कार्य प्राणवान परिजनों को ही करना पड़ेगा। वे बीस पैसा रोज या एक मुट्ठी अन्न ज्ञान यज्ञ के लिए नियमित रूप से निकालते रहने का व्रत लें। उस राशि से हर महीने नया प्रकाशित होने वाला युग साहित्य खरीदें। कम से कम एक घण्टा समय अपने सम्पर्क क्षेत्र में इस साहित्य के पढ़ाने और वापिस लेने के लिए निकालें। लक्ष्य यह रहे कि अपने सम्पर्क क्षेत्र में हर शिक्षित को नियमित रूप से, बिना मूल्य, युग साहित्य पढ़ाया जाय। पढ़ने वाले अपने निकटवर्ती कम से कम पांच अशिक्षितों को उसे सुनाते रहें। इसी आधार पर युगान्तरीय चेतना का आलोक जन जन तक पहुंच सकेगा। यह झोला पुस्तकालय योजना है। युग क्रान्ति के प्रत्येक पक्षधर को इसके लिए अपना समय दान-अंशदान नियमित रूप से निकालते रहने और उसमें लगाते रहने का व्रत लेना चाहिए। यह प्रयास देखने में छोटा अवश्य प्रतीत होता है, पर है प्रभावकारी।
ज्ञान दान के इस सर्वसुलभ और सर्वोपरि महत्व के कार्य के अतिरिक्त और कुछ ऐसे कार्य है, जिन्हें लोक मानस की दिशा धारा बदलने के लिए प्रभावी ढंग से कार्यान्वित किया जा सकता है। इनमें एक कार्य दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखना है। जहां भी दीवारें खाली मिलें जिस रास्ते पर अधिक लोग आते जाते हों, उन पर अच्छे अक्षरों में पक्की स्याही से मिशन के निर्धारित आदर्श वाक्य लिखे जा सकते हैं। यह कार्य स्वयं किया जा सकता है, या पैसा देकर दूसरों से कराया जा सकता है।
इस प्रसंग में एक और भी कार्य है ‘‘स्टीकर चिपकाना’’। दुकानों, घरों, दफ्तर, कारखानों के प्रमुख द्वारों पर इन्हें चिपकाया जा सकता है। कुछ महंगे तो पड़ते हैं, पर वे सुन्दर दिखते भी हैं। और टिकाऊ भी होते हैं। इन्हें हरिद्वार एवं मथुरा के आश्रमों में बनाया जाता है। जो लोग स्वयं ही बनवाना चाहें वे प्रसन्नता पूर्वक बनवाकर चिपकवा सकते हैं।
जन मानस को एक विशेष दिशा में ढालने का यह सस्ता किन्तु प्रभावी तरीका है। बार बार पढ़ने से जहां तहां एक ही प्रेरणा अंकित दीखने से, व्यक्ति बदले हुए वातावरण का अनुभव करता है। अचेतन मन पर वह विचार-संस्कार बनकर जड़ जमाते हैं। पढ़ने वालों को यह सोचने का अवसर मिलता है कि जमाने की हवा किस दिशा में बहने लगी? उसे भी अपनी प्रगतिशीलता इसी प्रवाह के साथ जोड़नी चाहिए। कोई मनस्वी चाहे तो अपने सारे इलाके के वाहनों, दरवाजों, फर्नीचरों, हैण्ड बैगों, बस स्टैण्डों आदि को इस प्रकार के स्टीकरों से भर सकता है। धर्मशालाएं, होटलों, स्टेशनों, बस स्टैण्डों आदि सार्वजनिक आवागमन के स्थानों को इस ढंग से चेतना का सहज प्रचारक बनाया जा सकता है।
अपने समय में कई यन्त्र माध्यम भी ऐसे निकल पड़े हैं, जो निर्जीव होते हुए भी सजीव प्रचारकों का काम कर सकते हैं। इस संदर्भ में संगीत एवं प्रवचन वाले टेपों को सुनाकर कहीं भी एक ज्ञान गोष्ठी का आयोजन किया जा सकता है। आमतौर से कुछ दिखाने सुनाने के लिए लोगों को इकट्ठे करने का प्रबन्ध करना पड़ता है। लोग न आयें तो प्रचार व्यवस्था रखी रह जाती है। इस कठिनाई से बचने का सस्ता तरीका यह है कि जहां किसी कारण भी लोग इकट्ठे होते हों वहीं पहुंचा जाय और लोगों का जितना समय खाली दीखे उतने समय तक अपना टेपरिकॉर्डर चालू कर दिया जाय। अधिक व्यक्तियों को अधिक ऊंची आवाज में सुनाने के लिए टेपरिकार्डरों में छोटा लाउड स्पीकर भी लगाया जा सकता है, जो दो सौ की भीड़ तक भली प्रकार आवाज पहुंचा सके।
संगीत और प्रवचनों वाले टेप हरिद्वार में लागत कीमत पर बाजार से कहीं सस्ते मिल जाते हैं। इनके माध्यम से कोई भी ऐसा व्यक्ति, जिसके पास छोटा लाउड स्पीकर हों, टेपरिकॉर्डर हों, स्वयं एक अच्छे खासे गायक एवं वक्ता की भूमिका निभाता रह सकता है। थकने का कोई कारण नहीं। संभव हो तो उसे पूरे समय एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेज कर, विचार गोष्ठियों का सिलसिला लगातार जारी रखा जा सकता है। एक दिन में हजारों लोगों तक युग चेतना का संदेश पहुंचाया जा सकता है।
टेप, कैसेट, लाउडस्पीकर वाले टेपरिकॉर्डर और दर्जनों प्रकार के टेपों का सारा सरंजाम प्रायः एक हजार की पूंजी से जुट जाता है। इसका प्रबन्ध कोई एकाकी व्यक्ति भी कर सकता है। टेपरिकॉर्डर किसी मित्र से इस कार्य के लिए मांग कर भी काम चल सकता है। वह प्रबन्ध यदि बन पड़े तो गायन, प्रवचन की निजी योग्यता न होने पर भी इस यंत्र के माध्यम से, युग धर्म के अनुरूप प्रचार प्रक्रिया को निरंतर जारी रखा जा सकता है।
इसी से मिलता जुलता एक और भी यांत्रिक प्रचार माध्यम है ‘‘स्लाइड प्रदर्शन’’। इसे प्रकाश यंत्र से प्रदर्शित किया जा सकता है। बिजली या बैटरी से इसे घरेलू सिनेमा की तरह घर-घर दिखाया जा सकता है। रात्रि के अन्धकार में रंगीन प्रकाश चित्र बहुत भले दीख पड़ते हैं। इस सस्ती मशीन से भी दो चार सौ व्यक्ति भली प्रकार देख सकते हैं। अनेक विषयों पर अनेक स्लाइड सेट उपलब्ध हो सकते हैं। चित्रों की व्याख्या मौखिक रूप से करनी पड़ती है। नोट्स पहले से ही छपे मिल जाते हैं। इस आधार पर जहां दर्शकों को युग चेतना से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है; वहां वक्ता का भाषण कला का अभ्यास भी दिन-दिन निरखता चलता है। कितने ही लोग इस माध्यम से प्रतिभावान वक्ता बने हैं। स्लाइड प्रोजेक्टर की कीमत 300 रुपये के लगभग हैं। स्लाइडों के सेट एक रुपयों प्रति स्लाइड के हिसाब से मिलते रहते हैं। यह घरेलू सिनेमा लोक रंजन और लोक मंगल के उभय पक्षीय कार्य भली प्रकार करते रह सकते हैं। यह सभी ऐसे हैं जिन्हें एक प्रचारक, मात्र अपनी निजी प्रतिभा के बल पर भली प्रकार चलाता रह सकता है। अपने समयदान और अंशदान से यह गाड़ी अपनी पटरी पर भली प्रकार लुढ़कती रहती है।
झोला पुस्तकालय का एक विकसित रूप है ज्ञान-रथ। यह एक सुन्दर छोटी सी रबड़ के पहियों वाली आदर्श वाक्यों से सजी हुई सुसज्जित गाड़ी है, जिसमें युग साहित्य सजाकर रखा जा सकता है। धकेलने में अत्यन्त सरल है, जिसे छोटा बच्चा भी बिना किसी दबाव के दूर-दूर तक लाने और ले जाने का काम कर सकता है। इसके अध्ययन से शिक्षितों को पढ़ाने का सिलसिला चल सकता है। पुस्तकें देने और वापिस लेने का झोला पुस्तकालय वाला कार्य तो सधता ही है, साथ ही विक्रय कार्य भी चलता रह सकता है। जिन्हें वे पुस्तकें पसंद आवे, वे उन्हें खरीद भी सकते हैं।
ज्ञान रथ में यदि लाउड स्पीकर समेत टेपरिकॉर्डर लगा दिया जाय, तो वह मिशन की तथा पुस्तकों की, ऊंचे स्वर में जानकारी देता रह सकता है। इसमें मशीन बोलती है, इसलिए प्रचारक को न तो अभ्यास करना पड़ता है और न लगातार बोलने का दबाव ही पड़ता है। बैटरी से चलने वाला यह टेपरिकॉर्डर, ज्ञान रथ में फिट हो जाता है। जिधर से भी निकलता है, उधर के लोगों को अपना उद्देश्य बताते हुए, उधर से गुजरने वालों का ध्यान आकर्षित करता है। जिन्हें मिशन के इस प्राणवान साहित्य की जानकारी नहीं है, उन्हें यह अनायास ही मिल जाती है। इस आकर्षण से लोग दौड़े आते हैं। प्रस्तुत पुस्तकों को ध्यान पूर्वक देखते हैं, उलटते पलटते हैं और जिनकी रुचि होती है, वे उनमें से खरीद भी लेते हैं। यह खरीदने का क्रम पूरे समय चलता रहता है। फलतः पुस्तकों पर मिलने वाले कमीशन से प्रचारक का खर्च भली प्रकार निकल जाता है। इस प्रयोग से आजीविका चलने और प्रचार प्रयोजन पूरा करने का दुहरा लाभ होता है। यह समूची व्यवस्था दो हजार के लगभग खर्च में बन जाती है। इतनी पूंजी से मजेदार धर्म प्रचार का प्रयोग बनता है। यह कुछ अधिक महंगा नहीं है।
यह कार्य सद्ज्ञान प्रचार से ही सम्भव है। समाधान थोड़े समय के लिए नहीं, स्थाई निकालने होंगे। इसलिए दूरदर्शी विवेकशीलता को अपनाने के लिए लोगों पर इतना प्रभाव डाला जाना है, कि वे वैसा करने के लिए बाध्य हो जायें।
इसके लिए धर्म तंत्र के साथ जुड़ी भाव संवेदना का उपयोग तो करना होगा; परन्तु उसका स्वरूप बदलना होगा। पौराणिक काल में आज की समस्यायें थी नहीं, इसलिए समाधान के लिए उस समय के सूत्रों को ज्यों का त्यों प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। जिन कथा प्रसंगों की आज से संगति नहीं बैठती, उन्हें धर्म चर्चा में लाना एक प्रकार से खिलवाड़ करने जैसा ही है। सद्ज्ञान प्रचारकों को कुछ ऐसी रीति-नीति अपनानी होगी, जिसके आधार पर भावनायें उभारते हुए उन्हें आज के संदर्भ में प्रयुक्त किया जा सके।
इस संदर्भ में पहली जरूरत ऐसे युग साहित्य की थी, जिसके आधार पर लोक चिन्तन की आज की सच्चाई के साथ जोड़ा जा सके। इस दिशा में अधिक तो नहीं बन पड़ा, पर काम चलाऊ प्रयास युग निर्माण योजना के प्रकाशन तंत्र ने आरम्भ किया और एक सीमा तक आगे बढ़ाया है। ऐसा साहित्य, व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म सिद्धान्तों को सम्मिलित करने योग्य विचारों से भरा पूरा होना चाहिए। उसमें कवियों जैसी उड़ाने कम और यथार्थता का पुट गहरा होना चाहिए। इतना ही नहीं उसका मूल्य भी इतना सस्ता होना चाहिए, जिसे पिछड़ा और निर्धन वर्ग भी आसानी से खरीद सके। इसके लिए लेखकों और प्रकाशकों के मन से मोटा लाभ कमाने की बात हटानी पड़ेगी। बड़े ग्रन्थ छापने की अपेक्षा सस्ता साहित्य प्रस्तुत करना होगा। बिना लाभ और बिना हानि का सिद्धान्त अपनाकर ही युग साहित्य जन साधारण के हाथों में पहुंचाया जा सकता है। इस सिद्धान्त को युग निर्माण योजना ने अक्षरशः अपनाया और पूरी तरह पालन किया है।
‘न कुछ से कुछ होना अच्छा’ की नीति सभी मानते हैं। युग साहित्य के प्रसार को समय की समस्याओं के समाधान के लिए, महत्वपूर्ण मानकर चलना चाहिए। इसमें शिक्षितों को पढ़ाने और अशिक्षितों को सुनाने की विधा अपनायी जानी चाहिए। इस दिशा में रुचि कम होने के कारण लोग इस साहित्य को खरीद कर पढ़ेंगे, यह आशा नहीं करनी चाहिए। पुस्तक विक्रेताओं को मोटा कमीशन न मिलने की दशा में, वे भी इस झंझट में न पड़ेंगे। यह कार्य प्राणवान परिजनों को ही करना पड़ेगा। वे बीस पैसा रोज या एक मुट्ठी अन्न ज्ञान यज्ञ के लिए नियमित रूप से निकालते रहने का व्रत लें। उस राशि से हर महीने नया प्रकाशित होने वाला युग साहित्य खरीदें। कम से कम एक घण्टा समय अपने सम्पर्क क्षेत्र में इस साहित्य के पढ़ाने और वापिस लेने के लिए निकालें। लक्ष्य यह रहे कि अपने सम्पर्क क्षेत्र में हर शिक्षित को नियमित रूप से, बिना मूल्य, युग साहित्य पढ़ाया जाय। पढ़ने वाले अपने निकटवर्ती कम से कम पांच अशिक्षितों को उसे सुनाते रहें। इसी आधार पर युगान्तरीय चेतना का आलोक जन जन तक पहुंच सकेगा। यह झोला पुस्तकालय योजना है। युग क्रान्ति के प्रत्येक पक्षधर को इसके लिए अपना समय दान-अंशदान नियमित रूप से निकालते रहने और उसमें लगाते रहने का व्रत लेना चाहिए। यह प्रयास देखने में छोटा अवश्य प्रतीत होता है, पर है प्रभावकारी।
ज्ञान दान के इस सर्वसुलभ और सर्वोपरि महत्व के कार्य के अतिरिक्त और कुछ ऐसे कार्य है, जिन्हें लोक मानस की दिशा धारा बदलने के लिए प्रभावी ढंग से कार्यान्वित किया जा सकता है। इनमें एक कार्य दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखना है। जहां भी दीवारें खाली मिलें जिस रास्ते पर अधिक लोग आते जाते हों, उन पर अच्छे अक्षरों में पक्की स्याही से मिशन के निर्धारित आदर्श वाक्य लिखे जा सकते हैं। यह कार्य स्वयं किया जा सकता है, या पैसा देकर दूसरों से कराया जा सकता है।
इस प्रसंग में एक और भी कार्य है ‘‘स्टीकर चिपकाना’’। दुकानों, घरों, दफ्तर, कारखानों के प्रमुख द्वारों पर इन्हें चिपकाया जा सकता है। कुछ महंगे तो पड़ते हैं, पर वे सुन्दर दिखते भी हैं। और टिकाऊ भी होते हैं। इन्हें हरिद्वार एवं मथुरा के आश्रमों में बनाया जाता है। जो लोग स्वयं ही बनवाना चाहें वे प्रसन्नता पूर्वक बनवाकर चिपकवा सकते हैं।
जन मानस को एक विशेष दिशा में ढालने का यह सस्ता किन्तु प्रभावी तरीका है। बार बार पढ़ने से जहां तहां एक ही प्रेरणा अंकित दीखने से, व्यक्ति बदले हुए वातावरण का अनुभव करता है। अचेतन मन पर वह विचार-संस्कार बनकर जड़ जमाते हैं। पढ़ने वालों को यह सोचने का अवसर मिलता है कि जमाने की हवा किस दिशा में बहने लगी? उसे भी अपनी प्रगतिशीलता इसी प्रवाह के साथ जोड़नी चाहिए। कोई मनस्वी चाहे तो अपने सारे इलाके के वाहनों, दरवाजों, फर्नीचरों, हैण्ड बैगों, बस स्टैण्डों आदि को इस प्रकार के स्टीकरों से भर सकता है। धर्मशालाएं, होटलों, स्टेशनों, बस स्टैण्डों आदि सार्वजनिक आवागमन के स्थानों को इस ढंग से चेतना का सहज प्रचारक बनाया जा सकता है।
अपने समय में कई यन्त्र माध्यम भी ऐसे निकल पड़े हैं, जो निर्जीव होते हुए भी सजीव प्रचारकों का काम कर सकते हैं। इस संदर्भ में संगीत एवं प्रवचन वाले टेपों को सुनाकर कहीं भी एक ज्ञान गोष्ठी का आयोजन किया जा सकता है। आमतौर से कुछ दिखाने सुनाने के लिए लोगों को इकट्ठे करने का प्रबन्ध करना पड़ता है। लोग न आयें तो प्रचार व्यवस्था रखी रह जाती है। इस कठिनाई से बचने का सस्ता तरीका यह है कि जहां किसी कारण भी लोग इकट्ठे होते हों वहीं पहुंचा जाय और लोगों का जितना समय खाली दीखे उतने समय तक अपना टेपरिकॉर्डर चालू कर दिया जाय। अधिक व्यक्तियों को अधिक ऊंची आवाज में सुनाने के लिए टेपरिकार्डरों में छोटा लाउड स्पीकर भी लगाया जा सकता है, जो दो सौ की भीड़ तक भली प्रकार आवाज पहुंचा सके।
संगीत और प्रवचनों वाले टेप हरिद्वार में लागत कीमत पर बाजार से कहीं सस्ते मिल जाते हैं। इनके माध्यम से कोई भी ऐसा व्यक्ति, जिसके पास छोटा लाउड स्पीकर हों, टेपरिकॉर्डर हों, स्वयं एक अच्छे खासे गायक एवं वक्ता की भूमिका निभाता रह सकता है। थकने का कोई कारण नहीं। संभव हो तो उसे पूरे समय एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेज कर, विचार गोष्ठियों का सिलसिला लगातार जारी रखा जा सकता है। एक दिन में हजारों लोगों तक युग चेतना का संदेश पहुंचाया जा सकता है।
टेप, कैसेट, लाउडस्पीकर वाले टेपरिकॉर्डर और दर्जनों प्रकार के टेपों का सारा सरंजाम प्रायः एक हजार की पूंजी से जुट जाता है। इसका प्रबन्ध कोई एकाकी व्यक्ति भी कर सकता है। टेपरिकॉर्डर किसी मित्र से इस कार्य के लिए मांग कर भी काम चल सकता है। वह प्रबन्ध यदि बन पड़े तो गायन, प्रवचन की निजी योग्यता न होने पर भी इस यंत्र के माध्यम से, युग धर्म के अनुरूप प्रचार प्रक्रिया को निरंतर जारी रखा जा सकता है।
इसी से मिलता जुलता एक और भी यांत्रिक प्रचार माध्यम है ‘‘स्लाइड प्रदर्शन’’। इसे प्रकाश यंत्र से प्रदर्शित किया जा सकता है। बिजली या बैटरी से इसे घरेलू सिनेमा की तरह घर-घर दिखाया जा सकता है। रात्रि के अन्धकार में रंगीन प्रकाश चित्र बहुत भले दीख पड़ते हैं। इस सस्ती मशीन से भी दो चार सौ व्यक्ति भली प्रकार देख सकते हैं। अनेक विषयों पर अनेक स्लाइड सेट उपलब्ध हो सकते हैं। चित्रों की व्याख्या मौखिक रूप से करनी पड़ती है। नोट्स पहले से ही छपे मिल जाते हैं। इस आधार पर जहां दर्शकों को युग चेतना से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है; वहां वक्ता का भाषण कला का अभ्यास भी दिन-दिन निरखता चलता है। कितने ही लोग इस माध्यम से प्रतिभावान वक्ता बने हैं। स्लाइड प्रोजेक्टर की कीमत 300 रुपये के लगभग हैं। स्लाइडों के सेट एक रुपयों प्रति स्लाइड के हिसाब से मिलते रहते हैं। यह घरेलू सिनेमा लोक रंजन और लोक मंगल के उभय पक्षीय कार्य भली प्रकार करते रह सकते हैं। यह सभी ऐसे हैं जिन्हें एक प्रचारक, मात्र अपनी निजी प्रतिभा के बल पर भली प्रकार चलाता रह सकता है। अपने समयदान और अंशदान से यह गाड़ी अपनी पटरी पर भली प्रकार लुढ़कती रहती है।
झोला पुस्तकालय का एक विकसित रूप है ज्ञान-रथ। यह एक सुन्दर छोटी सी रबड़ के पहियों वाली आदर्श वाक्यों से सजी हुई सुसज्जित गाड़ी है, जिसमें युग साहित्य सजाकर रखा जा सकता है। धकेलने में अत्यन्त सरल है, जिसे छोटा बच्चा भी बिना किसी दबाव के दूर-दूर तक लाने और ले जाने का काम कर सकता है। इसके अध्ययन से शिक्षितों को पढ़ाने का सिलसिला चल सकता है। पुस्तकें देने और वापिस लेने का झोला पुस्तकालय वाला कार्य तो सधता ही है, साथ ही विक्रय कार्य भी चलता रह सकता है। जिन्हें वे पुस्तकें पसंद आवे, वे उन्हें खरीद भी सकते हैं।
ज्ञान रथ में यदि लाउड स्पीकर समेत टेपरिकॉर्डर लगा दिया जाय, तो वह मिशन की तथा पुस्तकों की, ऊंचे स्वर में जानकारी देता रह सकता है। इसमें मशीन बोलती है, इसलिए प्रचारक को न तो अभ्यास करना पड़ता है और न लगातार बोलने का दबाव ही पड़ता है। बैटरी से चलने वाला यह टेपरिकॉर्डर, ज्ञान रथ में फिट हो जाता है। जिधर से भी निकलता है, उधर के लोगों को अपना उद्देश्य बताते हुए, उधर से गुजरने वालों का ध्यान आकर्षित करता है। जिन्हें मिशन के इस प्राणवान साहित्य की जानकारी नहीं है, उन्हें यह अनायास ही मिल जाती है। इस आकर्षण से लोग दौड़े आते हैं। प्रस्तुत पुस्तकों को ध्यान पूर्वक देखते हैं, उलटते पलटते हैं और जिनकी रुचि होती है, वे उनमें से खरीद भी लेते हैं। यह खरीदने का क्रम पूरे समय चलता रहता है। फलतः पुस्तकों पर मिलने वाले कमीशन से प्रचारक का खर्च भली प्रकार निकल जाता है। इस प्रयोग से आजीविका चलने और प्रचार प्रयोजन पूरा करने का दुहरा लाभ होता है। यह समूची व्यवस्था दो हजार के लगभग खर्च में बन जाती है। इतनी पूंजी से मजेदार धर्म प्रचार का प्रयोग बनता है। यह कुछ अधिक महंगा नहीं है।