Books - नव निर्माण की पृष्ठभूमि
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सद्विचार प्रगति का मेरुदण्ड
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कोई समय था जब मनुष्य जीवन का दायरा बहुत सीमित था। रोटी कपड़ा और मकान तक का स्तर साधारण और कम खर्च वाला था। समस्याएं भी उतनी नहीं थीं। कृषि और पशु पालन निर्वाह के प्रधान साधन थे। अन्य आवश्यकताएं जुलाहा, बढ़ई, लुहार, तेली जैसे छोटे कुटीर उद्योगों से पूरी हो जाती थी। छोटे गांवों में एक दो दुकानों से जरूरत की चीजें मिल जाती थीं। कहीं दूर जाना हो तो घोड़े, बैलगाड़ी जैसे साधन पर्याप्त होते थे। न तो महत्वाकांक्षाएं थीं न प्रतिस्पर्धाएं। सादगी का सीधा सादा जीवन सरलता से चल जाता था। अमीर गरीब सब एक परिवार के सदस्य की तरह रहते थे। इसलिए ईर्ष्या, द्वेष, चोरी बदमाशी की गुंजाइश ही नहीं थी।
सोचने के लिए भी स्वार्थ परमार्थ का दायरा सीमित था। भौतिक जीवन प्रचलित प्रभा परम्पराओं के आधार पर चल जाता था। कभी कोई गुत्थी उलझी, तो पंच लोग मिल बैठकर सुलझा देते थे। न कुरीतियां पनप पाती थीं न दुष्प्रवृत्तियां। चिन्तन में परलोक की बात भी सीधी सादी थी। थोड़े से पूजा उपचार के सहारे, भक्ति भावना के उभार से, आत्म शोधन का क्रम चलता रहता था। धर्म के नाम से जो नैतिकता सामाजिकता निभायी जाती थी, वह भी थोड़ी सी थी। ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ जैसे छोटे सूत्रों से ही सज्जनता की दिशा देना काफी होता था।
उस समय विज्ञान का इतना विस्तार नहीं हुआ था और बुद्धिवाद की इतनी शाखा प्रशाखाएं भी नहीं थीं। जनसंख्या थोड़ी थी, भूमि पर्याप्त थी। वृक्ष वनस्पतियों से निर्वाह सहज ही हो जाता था। सीधा सादा, सौम्य जीवन जीने में किसी को कठिनाई नहीं होती थी। परिपाटियां ऐसी थीं कि लोग एक दूसरे से प्रेरणा लेते हुए अच्छा भला सहकारी जीवन जी लेते थे। शिक्षा भले ही कम रही हो, पर भ्रान्तियां और विकृतियां दीख नहीं पड़ती थीं। कथा पुराणों के माध्यम से मनोरंजन के साथ ऊंचे आदर्शों की शिक्षा दी जाती थी। जो कुछ था उससे लोग संतुष्ट थे।
इन दिनों वह बात नहीं रह गयी है। परिस्थितियां बुरी तरह उलट पुलट हो गयी हैं। जनसंख्या बढ़ी, कल कारखाने और तेज गति के वाहन बढ़ गए। एक ओर अमीरी बढ़ी दूसरी ओर गरीबी। इससे लोक जीवन का संतुलन बिगड़ गया है। महत्वाकांक्षाएं और विलासिताएं हद दर्जे तक बढ़ गई हैं। श्रम से होने वाली कमाई काफी नहीं लगती इसलिए चोरी बेईमानी स्तर के तरीके कमाई के लिए अपनाए जाने लगे हैं। इसीलिए अवरोधों की बाढ़ आने लगती है। दुष्प्रवृत्तियां स्वभाव में आ गयी हैं। व्यसन और व्यभिचार तो शालीनता की सभा मर्यादायें तोड़ मरोड़ कर रख देना चाहते हैं।
समाज में वर्ग भेद बढ़ गया है। भाषा, सम्प्रदाय, क्षेत्र वाद के विग्रह जगह-जगह खड़े हो गये हैं। नर-नारी और जाति-पांति के भेद ने समता एकता के संतुलन पर कुठाराघात कर दिया है। आहार विहार की मर्यादाएं नहीं रहीं। असंयम को बड़प्पन की निशानी समझा जाने लगा है। राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में उठने वाले तूफानों ने अनेकवाद और दर्शन पैदा कर दिए हैं। प्रत्यक्षवाद और तर्कवाद ने भ्रान्तियों के ऐसे जंजाल खड़े कर दिए हैं कि क्या सही क्या गलत, यह निर्णय करना कठिन हो गया है। अपने-अपने दल और अपने अपने धर्म के पक्ष में बौद्धिक प्रतिपादन इतने तर्क देते हैं कि क्या सुनें क्या न सुनें, यह समझ नहीं पड़ता। जो धर्म, जो दल जब अपना पक्ष प्रस्तुत करने लगता है तो उसी की बात सर्वथा उचित लगने लगती है। परन्तु एक के समाप्त होते ही दूसरे का प्रतिपादन उससे भी अधिक जोरदार ढंग से आता है। पिछले प्रतिपादनों के धुर्रे बिखेरता हुआ वह पक्ष अपना औचित्य सिद्ध करता है।
जन सामान्य में वह विवेक नहीं होता कि इन तर्कों के बीच रास्ता चुन सके। कोई पक्ष अपना मत प्रगट करके रह जाय तो भी ताल मेल बिठाया जा सकता है। परन्तु इतने भर से संतोष नहीं होता। दूसरे पक्ष भी उसी पैनेपन से प्रत्याक्रमण करते हैं। विचार विभिन्नता से बात शुरू होती है और उत्तेजना जनक प्रदर्शन से होती हुई, खून खराबे तक जा पहुंचती है। धार्मिक-राजनैतिक मान्यताओं के नाम पर कितना रक्तपात हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। हर गुट अपने मत के समर्थन और दूसरे गुट के दमन को पुण्य मानने लगता है। व्यक्तिगत स्वार्थ और द्वेष भी सार्वजनिक बना दिये जाते हैं। इन सब के तहत शील अपहरण, आक्रमण, अनाचार और अपराध सभी अपने-अपने ढंग से विस्तार पाते रहते हैं।
आश्चर्य यह होता है कि विचारशील कहलाने वालों में विवेकशीलता नहीं दिखाई पड़ती। एक ही सूत्र है, हमारा पक्ष पूरी तरह सही और दूसरे गलत हैं। निष्पक्ष रूप से समीक्षा, विश्लेषण वर्गीकरण कोई करता नहीं दीखता। नीर क्षीर विवेक स्तर के प्रयास लुप्त जैसे हो गये हैं। यह संभव रहा होता तो अनुपयुक्त दुराग्रहों में कमी आती, लोग सत्य के निकट पहुंचते, उसे अंगीकार करते और विग्रह की जड़ें कट जाती। औचित्य अपनाते ही गुटबाजी और अनेक समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाती हैं।
इन्हीं सब कारणों से सामाजिक जीवन अनीतियों, कुरीतियों अवांछनीयताओं का भंडार बन जाता रहा है। असंतोष, आशंका, आतंक और अविश्वास का बोल बाला हो रहा है। समाज में रहते हुए लोग अपना दम घुटता हुआ सा अनुभव करते हैं। सहकारिता सद्भावना और आत्मीयता के आधार पर जो सुखद वातावरण बन सकता था, उसकी संभावना दिन-दिन कम होती जा रही है।
व्यक्तिगत जीवन की हालत भी बद से बदतर होती जा रही है। बढ़ते असंयम के कारण स्वास्थ्य खोखले हो रहे हैं। बुरे चिन्तन ने मानसिक संतुलन डगमगा दिया है। अपव्यय ने हर किसी को अभावों में ठेल दिया है। आलस्य-प्रमाद, कर्तव्यों की उपेक्षा और अधिकारों के प्रति अति आग्रह ने, विग्रह पैदा कर दिया है। थोड़ा मतभेद दिखते ही मित्र भी शत्रु जैसा लगने लगता है। दूसरे की स्थिति में अपने को रखकर देखने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। अपने साथ हम जैसा व्यवहार चाहते हैं, उससे बिल्कुल भिन्न व्यवहार दूसरों के साथ करते हैं।
आवश्यकताएं बढ़ रही हैं। ललक और लिप्साएं आसमान छू रही हैं। महत्वाकांक्षाओं का कोई ठिकाना नहीं। हर व्यक्ति अपने गर्व और घमंड में दबा जा रहा है। इसके लिए वह दूसरे को नीचा दिखाने में जरा भी नहीं झिझकता। बड़प्पन पाना तो कठिन है, उसके झूठे प्रदर्शन के लिए हर कहीं अधीरता, आतुरता दिखती है। ऐसी स्थिति में न तो कोई स्वयं चैन पा सकता है और न आसपास वालों को चैन से बैठने दे सकता है। अशान्ति से अशान्ति और अविश्वास से अविश्वास बढ़ रहा है। आग में ईंधन पड़ने से वह और भड़कती है। इन दिनों ऐसा ही हो रहा है।
देखने से तो ऐसा ही लगता है कि इन सब बेचैनियों का कारण परिस्थितियों का प्रतिकूल होना ही है। परन्तु वास्तव में यह बात है नहीं। विचार ही क्रिया-कलाप के बीज हैं। मनःस्थितियां ही परिस्थितियों को गढ़ती हैं। विचार कार्यों का रूप धारण करते हैं, वही अनुकूल या प्रतिकूल वातावरण पैदा कर देते हैं। ऊपर से देखने में तो उलझने अनेक आधार वाली दिखती हैं, परन्तु असल में उनके पीछे मुख्य कारण चिन्तन में घुसी हुई भ्रान्तियां विकृतियां ही होती है। वास्तविक संकट या विग्रहों को तो बुद्धिमानी से सरलता पूर्वक सुलझाया जा सकता है। बाहर से आने वाली विपत्तियां उतनी भयंकर नहीं होती जितनी भीतर से उपजने वाली। वे भीतर से उभर कर सारे क्षेत्र को घेर लेती है।
समय के बढ़ते दबाव ने मनुष्य के निजी और सामाजिक जीवन में अगणित समस्याएं खड़ी कर दी हैं। तमाम संकट और विग्रह पैदा कर दिए हैं। यह सभी विचार संकट के कारण ही हैं। भ्रांतियों-विकृतियों का निवारण इसी उपाय से हो सकता है, कि सद्प्रवृत्तियों को जन्म देने वाले सद्विचारों का बीजारोपण किया जाय, उन्हें अंकुरित विकसित होने का अवसर दिया जाय। परिवर्तन का क्रम विचार क्षेत्र से ही आरंभ किया जाता है। मनुष्य का शरीर, मन सभी कुछ विचार चालित ही है। उसी पर उसका वर्तमान और भविष्य टिका रहता है।
पेड़ कोई भी क्यों न हो, उसका आधार जड़ें ही होती हैं। जड़ों की पोषण करने की शक्ति समाप्त हो जाय, या उनमें दीमक लग जाये, तो उसके सूखने उखड़ने में देरी नहीं लगती। इसी प्रकार जीवन की जड़ों में, विचार संस्थान में विकृतियों का दीमक लग जाये, उसकी सद्विचार ग्रहण करने की शक्ति समाप्त हो जाय, तो जीवन वृक्ष सूखने की स्थिति में ही पहुंच जाता है। सामूहिक चिन्तन में विकृतियां घुसते ही समाज का पतन होने लगता है।
मनुष्य को भगवान ने सर्वांगपूर्ण बनाया है। उसके साथ प्रगति की, समृद्धि और सुख शान्ति की सभी संभावनाएं जुड़ी हैं। यदि चिन्तन का क्रम ठीक प्रकार चलता रहे, तो कोई कारण नहीं कि पतन का, दुख का मुंह देखना पड़े। चिन्तन जिस दिशा को भी चल पड़ता है, उसी दिशा में प्रयास चल पड़ता है। जीवन उसी दिशा में गति पाने लगता है। अस्वस्थता, मूर्खता, निर्धनता, अपमान, असफलता आदि और कुछ नहीं, विचारों में आये विकारों की ही प्रतिक्रियाएं हैं। नहीं तो भगवान का राज कुमार मनुष्य स्वयं अपने लिए तो सुख शान्ति की व्यवस्था कर ही सकता है, अपनी नाव में बिठाकर असंख्यों को भी पार कर सकता है। स्वयं हंसी खुशी का जीवन जीते हुए, इस विश्व वाटिका को भी हरा भरा, सुन्दर बना कर रखने की भूमिका निभा सकता है।
आजकल परिस्थितियां सुधारने के लिए काफी कुछ सोचा और किया जा रहा है। परन्तु उसके लिए केवल साधन सुविधाएं बढ़ाने को काफी मानकर चला जा रहा है। इतने भर से सुयोग सौभाग्य मिलने की अपेक्षा की जाती है। विचार परिष्कार के पक्ष की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है जितना दिया जाना चाहिए। यह समझना आवश्यक है कि सद्विचार ही वह दैवी अनुग्रह है, जिनकी मात्रा के अनुसार ही मनुष्य गौरव और संतोष पाता है।
आवश्यक हो गया है कि हर व्यक्ति अपने जीवन में सुख शान्ति और प्रगति लाने के लिए, सुलझे हुए श्रेष्ठ विचारों को अपने अंतराल में बिठाने के लिए नियमित प्रयास करता रहे। जो पुण्य परमार्थ करना चाहते हैं, दूसरों को विपत्तियों से बचाना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि अपने सम्पर्क क्षेत्र में सद्विचारों को फैलाने-स्थापित करने के लिए प्रयास करें। प्रगतिशील विचार जहां भी रहेंगे वहां सुख शान्ति की कमी नहीं रहेगी। सम्पन्नता और सफलता किसी भी स्तर की हो, ध्यान से देखने पर उनके पीछे विचारों का सुलझा हुआ क्रम ही मिलेगा। इसीलिए कहा जाता है कि सद्विचारों का प्रसार ब्रह्मदान है। उससे बढ़कर कोई पुण्य परमार्थ और हो ही नहीं सकता।
सोचने के लिए भी स्वार्थ परमार्थ का दायरा सीमित था। भौतिक जीवन प्रचलित प्रभा परम्पराओं के आधार पर चल जाता था। कभी कोई गुत्थी उलझी, तो पंच लोग मिल बैठकर सुलझा देते थे। न कुरीतियां पनप पाती थीं न दुष्प्रवृत्तियां। चिन्तन में परलोक की बात भी सीधी सादी थी। थोड़े से पूजा उपचार के सहारे, भक्ति भावना के उभार से, आत्म शोधन का क्रम चलता रहता था। धर्म के नाम से जो नैतिकता सामाजिकता निभायी जाती थी, वह भी थोड़ी सी थी। ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ जैसे छोटे सूत्रों से ही सज्जनता की दिशा देना काफी होता था।
उस समय विज्ञान का इतना विस्तार नहीं हुआ था और बुद्धिवाद की इतनी शाखा प्रशाखाएं भी नहीं थीं। जनसंख्या थोड़ी थी, भूमि पर्याप्त थी। वृक्ष वनस्पतियों से निर्वाह सहज ही हो जाता था। सीधा सादा, सौम्य जीवन जीने में किसी को कठिनाई नहीं होती थी। परिपाटियां ऐसी थीं कि लोग एक दूसरे से प्रेरणा लेते हुए अच्छा भला सहकारी जीवन जी लेते थे। शिक्षा भले ही कम रही हो, पर भ्रान्तियां और विकृतियां दीख नहीं पड़ती थीं। कथा पुराणों के माध्यम से मनोरंजन के साथ ऊंचे आदर्शों की शिक्षा दी जाती थी। जो कुछ था उससे लोग संतुष्ट थे।
इन दिनों वह बात नहीं रह गयी है। परिस्थितियां बुरी तरह उलट पुलट हो गयी हैं। जनसंख्या बढ़ी, कल कारखाने और तेज गति के वाहन बढ़ गए। एक ओर अमीरी बढ़ी दूसरी ओर गरीबी। इससे लोक जीवन का संतुलन बिगड़ गया है। महत्वाकांक्षाएं और विलासिताएं हद दर्जे तक बढ़ गई हैं। श्रम से होने वाली कमाई काफी नहीं लगती इसलिए चोरी बेईमानी स्तर के तरीके कमाई के लिए अपनाए जाने लगे हैं। इसीलिए अवरोधों की बाढ़ आने लगती है। दुष्प्रवृत्तियां स्वभाव में आ गयी हैं। व्यसन और व्यभिचार तो शालीनता की सभा मर्यादायें तोड़ मरोड़ कर रख देना चाहते हैं।
समाज में वर्ग भेद बढ़ गया है। भाषा, सम्प्रदाय, क्षेत्र वाद के विग्रह जगह-जगह खड़े हो गये हैं। नर-नारी और जाति-पांति के भेद ने समता एकता के संतुलन पर कुठाराघात कर दिया है। आहार विहार की मर्यादाएं नहीं रहीं। असंयम को बड़प्पन की निशानी समझा जाने लगा है। राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में उठने वाले तूफानों ने अनेकवाद और दर्शन पैदा कर दिए हैं। प्रत्यक्षवाद और तर्कवाद ने भ्रान्तियों के ऐसे जंजाल खड़े कर दिए हैं कि क्या सही क्या गलत, यह निर्णय करना कठिन हो गया है। अपने-अपने दल और अपने अपने धर्म के पक्ष में बौद्धिक प्रतिपादन इतने तर्क देते हैं कि क्या सुनें क्या न सुनें, यह समझ नहीं पड़ता। जो धर्म, जो दल जब अपना पक्ष प्रस्तुत करने लगता है तो उसी की बात सर्वथा उचित लगने लगती है। परन्तु एक के समाप्त होते ही दूसरे का प्रतिपादन उससे भी अधिक जोरदार ढंग से आता है। पिछले प्रतिपादनों के धुर्रे बिखेरता हुआ वह पक्ष अपना औचित्य सिद्ध करता है।
जन सामान्य में वह विवेक नहीं होता कि इन तर्कों के बीच रास्ता चुन सके। कोई पक्ष अपना मत प्रगट करके रह जाय तो भी ताल मेल बिठाया जा सकता है। परन्तु इतने भर से संतोष नहीं होता। दूसरे पक्ष भी उसी पैनेपन से प्रत्याक्रमण करते हैं। विचार विभिन्नता से बात शुरू होती है और उत्तेजना जनक प्रदर्शन से होती हुई, खून खराबे तक जा पहुंचती है। धार्मिक-राजनैतिक मान्यताओं के नाम पर कितना रक्तपात हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। हर गुट अपने मत के समर्थन और दूसरे गुट के दमन को पुण्य मानने लगता है। व्यक्तिगत स्वार्थ और द्वेष भी सार्वजनिक बना दिये जाते हैं। इन सब के तहत शील अपहरण, आक्रमण, अनाचार और अपराध सभी अपने-अपने ढंग से विस्तार पाते रहते हैं।
आश्चर्य यह होता है कि विचारशील कहलाने वालों में विवेकशीलता नहीं दिखाई पड़ती। एक ही सूत्र है, हमारा पक्ष पूरी तरह सही और दूसरे गलत हैं। निष्पक्ष रूप से समीक्षा, विश्लेषण वर्गीकरण कोई करता नहीं दीखता। नीर क्षीर विवेक स्तर के प्रयास लुप्त जैसे हो गये हैं। यह संभव रहा होता तो अनुपयुक्त दुराग्रहों में कमी आती, लोग सत्य के निकट पहुंचते, उसे अंगीकार करते और विग्रह की जड़ें कट जाती। औचित्य अपनाते ही गुटबाजी और अनेक समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाती हैं।
इन्हीं सब कारणों से सामाजिक जीवन अनीतियों, कुरीतियों अवांछनीयताओं का भंडार बन जाता रहा है। असंतोष, आशंका, आतंक और अविश्वास का बोल बाला हो रहा है। समाज में रहते हुए लोग अपना दम घुटता हुआ सा अनुभव करते हैं। सहकारिता सद्भावना और आत्मीयता के आधार पर जो सुखद वातावरण बन सकता था, उसकी संभावना दिन-दिन कम होती जा रही है।
व्यक्तिगत जीवन की हालत भी बद से बदतर होती जा रही है। बढ़ते असंयम के कारण स्वास्थ्य खोखले हो रहे हैं। बुरे चिन्तन ने मानसिक संतुलन डगमगा दिया है। अपव्यय ने हर किसी को अभावों में ठेल दिया है। आलस्य-प्रमाद, कर्तव्यों की उपेक्षा और अधिकारों के प्रति अति आग्रह ने, विग्रह पैदा कर दिया है। थोड़ा मतभेद दिखते ही मित्र भी शत्रु जैसा लगने लगता है। दूसरे की स्थिति में अपने को रखकर देखने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। अपने साथ हम जैसा व्यवहार चाहते हैं, उससे बिल्कुल भिन्न व्यवहार दूसरों के साथ करते हैं।
आवश्यकताएं बढ़ रही हैं। ललक और लिप्साएं आसमान छू रही हैं। महत्वाकांक्षाओं का कोई ठिकाना नहीं। हर व्यक्ति अपने गर्व और घमंड में दबा जा रहा है। इसके लिए वह दूसरे को नीचा दिखाने में जरा भी नहीं झिझकता। बड़प्पन पाना तो कठिन है, उसके झूठे प्रदर्शन के लिए हर कहीं अधीरता, आतुरता दिखती है। ऐसी स्थिति में न तो कोई स्वयं चैन पा सकता है और न आसपास वालों को चैन से बैठने दे सकता है। अशान्ति से अशान्ति और अविश्वास से अविश्वास बढ़ रहा है। आग में ईंधन पड़ने से वह और भड़कती है। इन दिनों ऐसा ही हो रहा है।
देखने से तो ऐसा ही लगता है कि इन सब बेचैनियों का कारण परिस्थितियों का प्रतिकूल होना ही है। परन्तु वास्तव में यह बात है नहीं। विचार ही क्रिया-कलाप के बीज हैं। मनःस्थितियां ही परिस्थितियों को गढ़ती हैं। विचार कार्यों का रूप धारण करते हैं, वही अनुकूल या प्रतिकूल वातावरण पैदा कर देते हैं। ऊपर से देखने में तो उलझने अनेक आधार वाली दिखती हैं, परन्तु असल में उनके पीछे मुख्य कारण चिन्तन में घुसी हुई भ्रान्तियां विकृतियां ही होती है। वास्तविक संकट या विग्रहों को तो बुद्धिमानी से सरलता पूर्वक सुलझाया जा सकता है। बाहर से आने वाली विपत्तियां उतनी भयंकर नहीं होती जितनी भीतर से उपजने वाली। वे भीतर से उभर कर सारे क्षेत्र को घेर लेती है।
समय के बढ़ते दबाव ने मनुष्य के निजी और सामाजिक जीवन में अगणित समस्याएं खड़ी कर दी हैं। तमाम संकट और विग्रह पैदा कर दिए हैं। यह सभी विचार संकट के कारण ही हैं। भ्रांतियों-विकृतियों का निवारण इसी उपाय से हो सकता है, कि सद्प्रवृत्तियों को जन्म देने वाले सद्विचारों का बीजारोपण किया जाय, उन्हें अंकुरित विकसित होने का अवसर दिया जाय। परिवर्तन का क्रम विचार क्षेत्र से ही आरंभ किया जाता है। मनुष्य का शरीर, मन सभी कुछ विचार चालित ही है। उसी पर उसका वर्तमान और भविष्य टिका रहता है।
पेड़ कोई भी क्यों न हो, उसका आधार जड़ें ही होती हैं। जड़ों की पोषण करने की शक्ति समाप्त हो जाय, या उनमें दीमक लग जाये, तो उसके सूखने उखड़ने में देरी नहीं लगती। इसी प्रकार जीवन की जड़ों में, विचार संस्थान में विकृतियों का दीमक लग जाये, उसकी सद्विचार ग्रहण करने की शक्ति समाप्त हो जाय, तो जीवन वृक्ष सूखने की स्थिति में ही पहुंच जाता है। सामूहिक चिन्तन में विकृतियां घुसते ही समाज का पतन होने लगता है।
मनुष्य को भगवान ने सर्वांगपूर्ण बनाया है। उसके साथ प्रगति की, समृद्धि और सुख शान्ति की सभी संभावनाएं जुड़ी हैं। यदि चिन्तन का क्रम ठीक प्रकार चलता रहे, तो कोई कारण नहीं कि पतन का, दुख का मुंह देखना पड़े। चिन्तन जिस दिशा को भी चल पड़ता है, उसी दिशा में प्रयास चल पड़ता है। जीवन उसी दिशा में गति पाने लगता है। अस्वस्थता, मूर्खता, निर्धनता, अपमान, असफलता आदि और कुछ नहीं, विचारों में आये विकारों की ही प्रतिक्रियाएं हैं। नहीं तो भगवान का राज कुमार मनुष्य स्वयं अपने लिए तो सुख शान्ति की व्यवस्था कर ही सकता है, अपनी नाव में बिठाकर असंख्यों को भी पार कर सकता है। स्वयं हंसी खुशी का जीवन जीते हुए, इस विश्व वाटिका को भी हरा भरा, सुन्दर बना कर रखने की भूमिका निभा सकता है।
आजकल परिस्थितियां सुधारने के लिए काफी कुछ सोचा और किया जा रहा है। परन्तु उसके लिए केवल साधन सुविधाएं बढ़ाने को काफी मानकर चला जा रहा है। इतने भर से सुयोग सौभाग्य मिलने की अपेक्षा की जाती है। विचार परिष्कार के पक्ष की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है जितना दिया जाना चाहिए। यह समझना आवश्यक है कि सद्विचार ही वह दैवी अनुग्रह है, जिनकी मात्रा के अनुसार ही मनुष्य गौरव और संतोष पाता है।
आवश्यक हो गया है कि हर व्यक्ति अपने जीवन में सुख शान्ति और प्रगति लाने के लिए, सुलझे हुए श्रेष्ठ विचारों को अपने अंतराल में बिठाने के लिए नियमित प्रयास करता रहे। जो पुण्य परमार्थ करना चाहते हैं, दूसरों को विपत्तियों से बचाना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि अपने सम्पर्क क्षेत्र में सद्विचारों को फैलाने-स्थापित करने के लिए प्रयास करें। प्रगतिशील विचार जहां भी रहेंगे वहां सुख शान्ति की कमी नहीं रहेगी। सम्पन्नता और सफलता किसी भी स्तर की हो, ध्यान से देखने पर उनके पीछे विचारों का सुलझा हुआ क्रम ही मिलेगा। इसीलिए कहा जाता है कि सद्विचारों का प्रसार ब्रह्मदान है। उससे बढ़कर कोई पुण्य परमार्थ और हो ही नहीं सकता।