Books - नव निर्माण की पृष्ठभूमि
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Language: HINDI
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सद्ज्ञान संवर्धन की श्रेष्ठ साधना
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तेजाब जहां भी पड़ेगा, वहां जलाने या गलाने का क्रम चलायेगा। इसके विपरीत इत्र जहां भी रहेगा वहां सुगन्ध फैलायेगा। कुविचार तेजाब की तरह है। वे जिस किसी के भी मन मस्तिष्क में अड्डा जमा पाते हैं, उसी के लिए नये-नये जंजाल खड़े कर देते हैं। कहीं राग, कहीं रोष, कहीं छल-कपट, हर जगह तनाव, भय, अहंकार का वातावरण बना देते हैं। रंगीन चश्मा पहनने से सभी चीजें उसी रंग की दिखती है, परन्तु वास्तव में वैसी होती नहीं है। चश्मा उतारते ही या चश्मा का रंग बदलते ही नजारे बदल जाते हैं। इत्र माहौल को सुगंधित बना देता है, वहीं कोई तीव्र दुर्गन्ध रख दें तो माहौल दुर्गन्ध युक्त हो जायेगा।
परिस्थितियां सुधारने के प्रयास किये जाते हैं, किए जाने चाहिए भी। परन्तु उनकी जड़ तो विचारणा के साथ जुड़ी होती है। जड़ें ठीक हों तो एक टहनी तोड़ते ही दूसरी उपजने लगती है। खेत में अधिक पानी भरा हो तो कहीं न कहीं से फूट कर निकलता है। बुरे विचार देखते देखते बुरी प्रवृत्तियों-बुरे अभ्यास के रूप में बाहर निकलते हैं। उनके कारण नये-नये विग्रह और संकट पैदा होते रहते हैं। इसके विपरीत जो लोग अपने भाव संस्थान में, मान्यता और विचारों में सुधार लाने की साध संजोये रहते हैं, उनकी कार्य करने की प्रवृत्तियां भी सुधरती, संवरती रहती है। वे कठिन परिस्थितियों में भी चलते रहने का रास्ता बना लेते हैं। पैरों में जूते पहन लेने पर कांटों कंकड़ों से भरे रास्ते पर भी चलने में कठिनाई नहीं होती।
संसार की सभी समस्याओं का हल एक ही आधार पर हो सकता है, वह है चिन्तन में मानवीय गौरव-गरिमा के अनुरूप उत्कृष्टता का समावेश। उसी के अनुसार अपने व्यक्तित्व में आदर्शवादी शालीनता का विकास। इतना बन पड़े तो मनुष्य हर स्थिति में अपने लिए अनुकूलता का रास्ता बना लेता है। संसार का इतिहास साक्षी है कि जिसने भी अपने आप को इस ढंग से ढाल लिया, उनके लिये बड़ी से बड़ी अड़चने भी सरल हो गयीं। लोग देख सुनकर आश्चर्य करते हैं कि ऐसी खराब, अभाव भरी स्थिति में वे कैसे आगे बढ़ने, ऊंचे उठने में सफल हो सके? परन्तु गहराई में जाने पर यही पता लगता है कि यह चमत्कार उनके उस आदर्श चिन्तन का था, जो उनके स्वभाव और अभ्यास का अंग बनकर चरित्र और व्यवहार में प्रकट होने लगा।
कहा गया है कि अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है। इस भ्रम जंजाल भरे समय में ऐसे व्यक्ति मिलते नहीं, जिन्हें देख कर लोग आदर्शों की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा पा सकें। एक नशेबाज या व्यभिचारी के प्रभाव से अनेक व्यक्ति उस धारा में खिंच जाते हैं। इसी प्रकार एक व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति, ढेरों व्यक्तियों को सदाचारी और सेवा भावी बनाने में सफल हो सकता है। यह क्रम चक्रवृद्धि ब्याज के ढंग से चलता है। महामानव अकेले ही अपने चुम्बकत्व से आकर्षित करके, लोगों को कल्याण पथ पर चला देते हैं। बुद्ध, ईसा, महावीर विवेकानन्द, विनोबा आदि नाम इसी श्रेणी में आते हैं। ऐसे उदाहरण हर देश और हर समय में प्रकट होते रहते हैं। बुराई की आसुरी शक्ति की क्षमता को झुठलाया नहीं जा सकता; किन्तु भलाई की शक्ति को भी हमेशा रोके रहना संभव नहीं होता। संकल्पवान, दृढ़ चरित्र व्यक्तियों ने अनेक बार गिरते हुए मनुष्य समाज को सत्प्रवृत्तियों से जोड़ कर उन्हें सुख शान्ति और प्रगति का अधिकारी बनाया है।
इस युग को अन्धकार युग कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। निकृष्ट चिन्तन और दुष्प्रवृत्तियों ने, आम रीति रिवाजों का रूप ले लिया है। आदतें ऐसी बन गयी हैं, कि लोग तात्कालिक लाभ के लिए अनाचार का- पशुता का रास्ता भी अपना लेते हैं। उन दुष्परिणामों पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता, जो अपने और अनेकों के लिए भयानक प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। उस दूरदर्शी विवेक का कहीं अता पता ही नहीं दीखता, जो शालीनता को महत्व देता है, उसे अपनाता है। विवेक के बिना कुप्रथाओं की चुनौती स्वीकार करते हुए आत्मविश्वास के बलबूते सन्मार्ग पर अकेले चल पड़ने का निर्णय कौन करे?
यही है आज की मनोदशा का संक्षिप्त किन्तु सार भरा विश्लेषण। इसका प्रतिफल भी सामने है। हर किसी को संकीर्ण स्वार्थपरता, अस्वस्थता, मानसिक उद्विग्नता और आर्थिक अभावों से घिरा हुआ देखा जा सकता है। मर्यादाएं टूट रही हैं। न करने योग्य करने में शर्म के स्थान पर गौरव का अनुभव किया जाता है। इन्हीं हीनताओं ने, बढ़ी हुई सम्पत्ति और शिक्षा से मिलने वाले लाभों को निगल लिया है। जिसे देखो वही असंतुष्ट, खिन्न उद्विग्न भयभीत, शंकाशील है। सभी अनिश्चय और अविश्वास की आग में जल रहे हैं। भूतकाल डरावना, वर्तमान निराशा से भरा और भविष्य अंधकारमय दिखता है। इन विपन्नताओं से भरे जीवन को प्रत्यक्ष नरक भी कहा जा सकता है। विज्ञान के कारण बढ़ती सम्पन्नता, शिक्षा और सुविधा सामग्री के होते हुए भी, ऐसा हीन जीवन जीना पड़े तो इसे विचित्र विडम्बना ही कहा जा सकता है।
शिकायतें करने और दुर्भाग्य का रोना रोने से काम नहीं चलेगा। उपाय-उपचार सोचना पड़ेगा। इससे कम में काम चलने वाला नहीं है। देर करने से सर्वनाश के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। काम बेशक बड़ा और व्यापक है; फिर भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना भी तो उचित नहीं है। बड़े काम बड़ों को करने चाहिए। वे अपनी विशिष्टता और वरिष्ठता का परिचय दें तथा दूसरों के लिए मार्ग बनाएं और राह दिखाएं। बड़े काम में बड़े साधन भी लगते हैं। यह सब ठीक है। पर यदि वैसा सुयोग न बन पड़े तो भी काम रुकने नहीं दिया जाना चाहिए। उस हालत में जीवन्त लोगों को, अपने सीमित साधनों से समस्या का हल करने के लिए, युग धर्म की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, आगे कदम बढ़ाना चाहिए। समर्थों और साधनों की प्रतीक्षा में बैठे रहने की अपेक्षा यही उचित है। टिटहरी की कथा प्रसिद्ध है, जिसने समुद्र को अपने अण्डे वापिस करने को मजबूर किया था। गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाने वाले भगीरथ एकाकी ही तो घर से बाहर निकले थे। गांधी, बुद्ध, दयानन्द आदि का प्रयास मात्र अपने संकल्प बल को लेकर ही आरम्भ हुआ था। अनेक वैज्ञानिकों समाज सुधारकों और महान निर्माताओं ने, अपनी धुन का धनी होकर ही कार्य हाथों में लिया था और लगन के बल पर समयानुसार सफलता के लक्ष्य तक पहुंचे थे। अंधेरी रात में एकाकी दीपक की तरह हमें जलना, चलना चाहिए और अपने प्रभाव क्षेत्र में उजाला उत्पन्न करने का उदाहरण बनना चाहिए। हो सकता है कि आगे चलकर दीपावली की रात्रि में जगमगाने वाली दीप मालिका की परम्परा चल पड़े और आप अग्रणी माने जायें। जब सूर्य चन्द्र छिप जाते हैं तो टिमटिमाने वाले तारे भी तो इतना प्रकाश उत्पन्न कर देते हैं, जिससे पथिकों को राह दीख पड़े और उन्हें अंधेरे में ठोकरें न खानी पड़ें। ऐसे प्राणवानों की वंश परम्परा अभी सर्वथा नष्ट नहीं हुई है। इस पंक्तियों के पाठकों में से भी कितने ऐसे हो सकते हैं जो अपने को जीवित, जागृत और प्राणवान प्रतिभाओं की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर सकें। एक से अनेक होने का सिद्धान्त अविश्वसनीय नहीं है। परमात्मा एक से अनेक बना है। एक बीज से सौ बीज उत्पन्न होने की कहावत असत्य नहीं है। प्राणवानों में से प्रत्येक ने समय-समय पर यही कर दिखाया है।
अपने लिए काम चुनने में, इस प्रसंग में हमें पत्ती और टहनियों को सींचने के लिए नहीं भटकना चाहिए। निश्चय पूर्वक जड़ सींचने और उसे सुरक्षित रखने की योजना बनानी चाहिए। एक ही प्रयास को सर्वोपरी महत्व का और नितान्त सामयिक मानना चाहिए। वह है विचार क्रान्ति अभियान- ज्ञान यज्ञ, लोकमानस का परिष्कार। इस उक्ति को हमें गिरह में बांध लेनी चाहिए कि ‘‘एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’’।
अस्पताल खुलवाने, धर्मशाला बनवाने, मन्दिरों का निर्माण करने, सदावर्त चलाने, प्याऊ लगाने जैसे अनेकों कार्यों की परमार्थ में गणना होती है। पर ध्यान रखने योग्य बात एक ही है कि इन माध्यमों से जिसकी सहायता की जाती हैं, उनकी तात्कालिक थोड़ी सी सहायता ही बन पड़ती है। वह लाभ देर तक रहता नहीं। कुछ ही समय बाद सुविधा समाप्त हो जाती है। दूसरों की प्रत्यक्ष भौतिक सहायता की एक हानि यह भी है कि लेने वाले को उपकृत होना पड़ता है। उसे आत्म हीनता घेरती है और ऋणी होने जैसा मानस बनता है। देने वाला अहंकार प्रदर्शित करता है। यह अहंता प्रकारान्तर से आत्मिक पतन का निमित्त कारण बनती है। इस प्रकार दुर्घटनाओं, या नितान्त असमर्थता जैसे यदा कदा आने वाले अवसरों को छोड़कर, सही रीति से परमार्थ सम्पादन करने का एक ही तरीका है, कि जन मानस के परिष्कार का जो भी उपाय बन पड़े उसे करने में हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिए। कुछ लोग बड़प्पन के अहंकार में, किसी दूसरे की सलाह सुनने में भी अपना अपमान अनुभव करते हैं। उन्हें अपने से बड़े लोगों के लिए छोड़कर, उस समुदाय को ज्ञानदान की सेवा के लिए चुनना चाहिए, जो मानसिक दृष्टि से सद्विचारों को सुनने की मनःस्थिति में हों। तलाश करने पर ऐसे लोग हर किसी को बड़ी संख्या में मिल सकते हैं। शंकर भगवान अपने सहचर उस वर्ग के लोगों को बनाए हुए हैं, जो गयी गुजरी स्थिति में है। यही नीति हर सद्ज्ञान प्रचारक को अपनानी चाहिए। अहंता और व्यस्तता की बात हर समय कहने वालों के साथ अपना समय बर्बाद न किया जाय तो ठीक है।
उत्कृष्टता और आदर्शवादिता के पक्षधर विचारों का प्रचार विस्तार करना, मनुष्य की- समस्त विश्व की सबसे बड़ी सेवा है। उस उच्च कोटि का परमार्थ भी कह सकते हैं। यह वह बीजारोपण है, जिसे जहां भी बोया, उगाया-बढ़ाया जायगा, वहीं हर स्तर की प्रसन्नता और सुव्यवस्था ही उत्पन्न होगी। हम मनुष्यों का अन्तराल इस स्तर का बना हुआ है कि यदि उसमें तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरण समेत युगधर्म की फसल उगायी जा सके, तो उस आधार पर बढ़ी हुई समृद्धि, सबके लिए सब प्रकार से कल्याण कारक ही होगी। दानों में महादान यही है। साधु और ब्राह्मण प्राचीन काल में इसी प्रयोजन के लिए समर्पित भाव से लगे रहते थे। इसी आधार पर वे मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का उद्देश्य पूरा करते रहे हैं।
साधन दान, यदि कुपात्रों के हाथ चला जाय, तो वह मुफ्तखोरी की अनैतिकता बढ़ावेगा। उससे आलस्य प्रमाद पनपेगा। उस आधार पर उपलब्ध सुविधा यदि कुकर्मों की दिशा में बढ़ चली हो, तो उससे मात्र अनर्थ ही उत्पन्न होगा। ऐसी दशा में देने वाला और पाने वाला, दोनों ही पाप के भागी बनेंगे। किन्तु सद्ज्ञान के कल्पवृक्ष का आरोपण ऐसा है, जिसमें व्यक्ति और समाज का सब प्रकार सर्वतोमुखी हित साधन ही होता है।
परिस्थितियां सुधारने के प्रयास किये जाते हैं, किए जाने चाहिए भी। परन्तु उनकी जड़ तो विचारणा के साथ जुड़ी होती है। जड़ें ठीक हों तो एक टहनी तोड़ते ही दूसरी उपजने लगती है। खेत में अधिक पानी भरा हो तो कहीं न कहीं से फूट कर निकलता है। बुरे विचार देखते देखते बुरी प्रवृत्तियों-बुरे अभ्यास के रूप में बाहर निकलते हैं। उनके कारण नये-नये विग्रह और संकट पैदा होते रहते हैं। इसके विपरीत जो लोग अपने भाव संस्थान में, मान्यता और विचारों में सुधार लाने की साध संजोये रहते हैं, उनकी कार्य करने की प्रवृत्तियां भी सुधरती, संवरती रहती है। वे कठिन परिस्थितियों में भी चलते रहने का रास्ता बना लेते हैं। पैरों में जूते पहन लेने पर कांटों कंकड़ों से भरे रास्ते पर भी चलने में कठिनाई नहीं होती।
संसार की सभी समस्याओं का हल एक ही आधार पर हो सकता है, वह है चिन्तन में मानवीय गौरव-गरिमा के अनुरूप उत्कृष्टता का समावेश। उसी के अनुसार अपने व्यक्तित्व में आदर्शवादी शालीनता का विकास। इतना बन पड़े तो मनुष्य हर स्थिति में अपने लिए अनुकूलता का रास्ता बना लेता है। संसार का इतिहास साक्षी है कि जिसने भी अपने आप को इस ढंग से ढाल लिया, उनके लिये बड़ी से बड़ी अड़चने भी सरल हो गयीं। लोग देख सुनकर आश्चर्य करते हैं कि ऐसी खराब, अभाव भरी स्थिति में वे कैसे आगे बढ़ने, ऊंचे उठने में सफल हो सके? परन्तु गहराई में जाने पर यही पता लगता है कि यह चमत्कार उनके उस आदर्श चिन्तन का था, जो उनके स्वभाव और अभ्यास का अंग बनकर चरित्र और व्यवहार में प्रकट होने लगा।
कहा गया है कि अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है। इस भ्रम जंजाल भरे समय में ऐसे व्यक्ति मिलते नहीं, जिन्हें देख कर लोग आदर्शों की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा पा सकें। एक नशेबाज या व्यभिचारी के प्रभाव से अनेक व्यक्ति उस धारा में खिंच जाते हैं। इसी प्रकार एक व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति, ढेरों व्यक्तियों को सदाचारी और सेवा भावी बनाने में सफल हो सकता है। यह क्रम चक्रवृद्धि ब्याज के ढंग से चलता है। महामानव अकेले ही अपने चुम्बकत्व से आकर्षित करके, लोगों को कल्याण पथ पर चला देते हैं। बुद्ध, ईसा, महावीर विवेकानन्द, विनोबा आदि नाम इसी श्रेणी में आते हैं। ऐसे उदाहरण हर देश और हर समय में प्रकट होते रहते हैं। बुराई की आसुरी शक्ति की क्षमता को झुठलाया नहीं जा सकता; किन्तु भलाई की शक्ति को भी हमेशा रोके रहना संभव नहीं होता। संकल्पवान, दृढ़ चरित्र व्यक्तियों ने अनेक बार गिरते हुए मनुष्य समाज को सत्प्रवृत्तियों से जोड़ कर उन्हें सुख शान्ति और प्रगति का अधिकारी बनाया है।
इस युग को अन्धकार युग कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। निकृष्ट चिन्तन और दुष्प्रवृत्तियों ने, आम रीति रिवाजों का रूप ले लिया है। आदतें ऐसी बन गयी हैं, कि लोग तात्कालिक लाभ के लिए अनाचार का- पशुता का रास्ता भी अपना लेते हैं। उन दुष्परिणामों पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता, जो अपने और अनेकों के लिए भयानक प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। उस दूरदर्शी विवेक का कहीं अता पता ही नहीं दीखता, जो शालीनता को महत्व देता है, उसे अपनाता है। विवेक के बिना कुप्रथाओं की चुनौती स्वीकार करते हुए आत्मविश्वास के बलबूते सन्मार्ग पर अकेले चल पड़ने का निर्णय कौन करे?
यही है आज की मनोदशा का संक्षिप्त किन्तु सार भरा विश्लेषण। इसका प्रतिफल भी सामने है। हर किसी को संकीर्ण स्वार्थपरता, अस्वस्थता, मानसिक उद्विग्नता और आर्थिक अभावों से घिरा हुआ देखा जा सकता है। मर्यादाएं टूट रही हैं। न करने योग्य करने में शर्म के स्थान पर गौरव का अनुभव किया जाता है। इन्हीं हीनताओं ने, बढ़ी हुई सम्पत्ति और शिक्षा से मिलने वाले लाभों को निगल लिया है। जिसे देखो वही असंतुष्ट, खिन्न उद्विग्न भयभीत, शंकाशील है। सभी अनिश्चय और अविश्वास की आग में जल रहे हैं। भूतकाल डरावना, वर्तमान निराशा से भरा और भविष्य अंधकारमय दिखता है। इन विपन्नताओं से भरे जीवन को प्रत्यक्ष नरक भी कहा जा सकता है। विज्ञान के कारण बढ़ती सम्पन्नता, शिक्षा और सुविधा सामग्री के होते हुए भी, ऐसा हीन जीवन जीना पड़े तो इसे विचित्र विडम्बना ही कहा जा सकता है।
शिकायतें करने और दुर्भाग्य का रोना रोने से काम नहीं चलेगा। उपाय-उपचार सोचना पड़ेगा। इससे कम में काम चलने वाला नहीं है। देर करने से सर्वनाश के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। काम बेशक बड़ा और व्यापक है; फिर भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना भी तो उचित नहीं है। बड़े काम बड़ों को करने चाहिए। वे अपनी विशिष्टता और वरिष्ठता का परिचय दें तथा दूसरों के लिए मार्ग बनाएं और राह दिखाएं। बड़े काम में बड़े साधन भी लगते हैं। यह सब ठीक है। पर यदि वैसा सुयोग न बन पड़े तो भी काम रुकने नहीं दिया जाना चाहिए। उस हालत में जीवन्त लोगों को, अपने सीमित साधनों से समस्या का हल करने के लिए, युग धर्म की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, आगे कदम बढ़ाना चाहिए। समर्थों और साधनों की प्रतीक्षा में बैठे रहने की अपेक्षा यही उचित है। टिटहरी की कथा प्रसिद्ध है, जिसने समुद्र को अपने अण्डे वापिस करने को मजबूर किया था। गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाने वाले भगीरथ एकाकी ही तो घर से बाहर निकले थे। गांधी, बुद्ध, दयानन्द आदि का प्रयास मात्र अपने संकल्प बल को लेकर ही आरम्भ हुआ था। अनेक वैज्ञानिकों समाज सुधारकों और महान निर्माताओं ने, अपनी धुन का धनी होकर ही कार्य हाथों में लिया था और लगन के बल पर समयानुसार सफलता के लक्ष्य तक पहुंचे थे। अंधेरी रात में एकाकी दीपक की तरह हमें जलना, चलना चाहिए और अपने प्रभाव क्षेत्र में उजाला उत्पन्न करने का उदाहरण बनना चाहिए। हो सकता है कि आगे चलकर दीपावली की रात्रि में जगमगाने वाली दीप मालिका की परम्परा चल पड़े और आप अग्रणी माने जायें। जब सूर्य चन्द्र छिप जाते हैं तो टिमटिमाने वाले तारे भी तो इतना प्रकाश उत्पन्न कर देते हैं, जिससे पथिकों को राह दीख पड़े और उन्हें अंधेरे में ठोकरें न खानी पड़ें। ऐसे प्राणवानों की वंश परम्परा अभी सर्वथा नष्ट नहीं हुई है। इस पंक्तियों के पाठकों में से भी कितने ऐसे हो सकते हैं जो अपने को जीवित, जागृत और प्राणवान प्रतिभाओं की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर सकें। एक से अनेक होने का सिद्धान्त अविश्वसनीय नहीं है। परमात्मा एक से अनेक बना है। एक बीज से सौ बीज उत्पन्न होने की कहावत असत्य नहीं है। प्राणवानों में से प्रत्येक ने समय-समय पर यही कर दिखाया है।
अपने लिए काम चुनने में, इस प्रसंग में हमें पत्ती और टहनियों को सींचने के लिए नहीं भटकना चाहिए। निश्चय पूर्वक जड़ सींचने और उसे सुरक्षित रखने की योजना बनानी चाहिए। एक ही प्रयास को सर्वोपरी महत्व का और नितान्त सामयिक मानना चाहिए। वह है विचार क्रान्ति अभियान- ज्ञान यज्ञ, लोकमानस का परिष्कार। इस उक्ति को हमें गिरह में बांध लेनी चाहिए कि ‘‘एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय’’।
अस्पताल खुलवाने, धर्मशाला बनवाने, मन्दिरों का निर्माण करने, सदावर्त चलाने, प्याऊ लगाने जैसे अनेकों कार्यों की परमार्थ में गणना होती है। पर ध्यान रखने योग्य बात एक ही है कि इन माध्यमों से जिसकी सहायता की जाती हैं, उनकी तात्कालिक थोड़ी सी सहायता ही बन पड़ती है। वह लाभ देर तक रहता नहीं। कुछ ही समय बाद सुविधा समाप्त हो जाती है। दूसरों की प्रत्यक्ष भौतिक सहायता की एक हानि यह भी है कि लेने वाले को उपकृत होना पड़ता है। उसे आत्म हीनता घेरती है और ऋणी होने जैसा मानस बनता है। देने वाला अहंकार प्रदर्शित करता है। यह अहंता प्रकारान्तर से आत्मिक पतन का निमित्त कारण बनती है। इस प्रकार दुर्घटनाओं, या नितान्त असमर्थता जैसे यदा कदा आने वाले अवसरों को छोड़कर, सही रीति से परमार्थ सम्पादन करने का एक ही तरीका है, कि जन मानस के परिष्कार का जो भी उपाय बन पड़े उसे करने में हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिए। कुछ लोग बड़प्पन के अहंकार में, किसी दूसरे की सलाह सुनने में भी अपना अपमान अनुभव करते हैं। उन्हें अपने से बड़े लोगों के लिए छोड़कर, उस समुदाय को ज्ञानदान की सेवा के लिए चुनना चाहिए, जो मानसिक दृष्टि से सद्विचारों को सुनने की मनःस्थिति में हों। तलाश करने पर ऐसे लोग हर किसी को बड़ी संख्या में मिल सकते हैं। शंकर भगवान अपने सहचर उस वर्ग के लोगों को बनाए हुए हैं, जो गयी गुजरी स्थिति में है। यही नीति हर सद्ज्ञान प्रचारक को अपनानी चाहिए। अहंता और व्यस्तता की बात हर समय कहने वालों के साथ अपना समय बर्बाद न किया जाय तो ठीक है।
उत्कृष्टता और आदर्शवादिता के पक्षधर विचारों का प्रचार विस्तार करना, मनुष्य की- समस्त विश्व की सबसे बड़ी सेवा है। उस उच्च कोटि का परमार्थ भी कह सकते हैं। यह वह बीजारोपण है, जिसे जहां भी बोया, उगाया-बढ़ाया जायगा, वहीं हर स्तर की प्रसन्नता और सुव्यवस्था ही उत्पन्न होगी। हम मनुष्यों का अन्तराल इस स्तर का बना हुआ है कि यदि उसमें तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरण समेत युगधर्म की फसल उगायी जा सके, तो उस आधार पर बढ़ी हुई समृद्धि, सबके लिए सब प्रकार से कल्याण कारक ही होगी। दानों में महादान यही है। साधु और ब्राह्मण प्राचीन काल में इसी प्रयोजन के लिए समर्पित भाव से लगे रहते थे। इसी आधार पर वे मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का उद्देश्य पूरा करते रहे हैं।
साधन दान, यदि कुपात्रों के हाथ चला जाय, तो वह मुफ्तखोरी की अनैतिकता बढ़ावेगा। उससे आलस्य प्रमाद पनपेगा। उस आधार पर उपलब्ध सुविधा यदि कुकर्मों की दिशा में बढ़ चली हो, तो उससे मात्र अनर्थ ही उत्पन्न होगा। ऐसी दशा में देने वाला और पाने वाला, दोनों ही पाप के भागी बनेंगे। किन्तु सद्ज्ञान के कल्पवृक्ष का आरोपण ऐसा है, जिसमें व्यक्ति और समाज का सब प्रकार सर्वतोमुखी हित साधन ही होता है।