Books - प्रज्ञा पुराण भाग-2
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Language: HINDI
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।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -6
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निर्मातव्यं जगत्सर्वं महामानवरूपिभि: । कल्पवृक्षै: सुपूर्णं तन्नंन्दनं वनमुत्तमम् ।। ७६ ।। साधुविप्रस्तरा देवपुरुषा निर्वहन्तु च । उपार्जनस्य दायित्यमेतन्मर्त्यशुभावहम् ।। ७७ ।। एतदर्थं व्यवस्थास्यात् स्वाध्यायस्याथ सन्ततम् । सत्संगस्य तथा सेवासाधानासंयमादिका: ।। ७८ ।। क्रियान्विता भवन्त्वत्र सत्प्रवृत्तय एव च । धर्मस्यात्र महत्वं च बोध्यं बोध्या: परेऽपि च ।। ७१ ।। प्रत्यक्षा: परिणामाश्चेत्तस्य तर्कप्रमाणकै: । शक्या: कर्तुं प्रबुद्धैश्चेन्नराणां हृदयंगमा: ।। ८० ।।
टीका-संसार को महामानवों के कल्पवृक्षों से हरा-भरा नंदन वन बनाया जाना चाहिए। इस उपार्जन का मंगलमय उत्तरदायित्व साधु-ब्राह्मण स्तर के देव- पुरुषों को उठाते रहना चाहिए । इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था बनी रहनी चाहिए । साधना, संयम और सेवा की सत्प्रवृत्तियों को नियमित रूप से कार्यान्वित होते रहना चाहिए । धर्म का महत्व समझा और समझाया जाना चाहिए। उसके प्रत्यक्ष परिणामों के आधार पर हृदयंगम कराया जा सके, तो उसे सहज ही लोग अपनाने लगेंगे ।। ७६ -८०।।
दुर्बल क्षमा के पात्र हैं
भगवान बुद्ध ने तो बुद्ध बनने से पूर्व २४ अवतार इसी तरह लेकर महानता विकसित करने का पुण्य कमाया । बुद्ध जातक के नाम से उनके यह अनेक जन्मों के संस्मरण बहुत मार्मिक है-एक बार भगवान बुद्ध किसी जन्म में जंगली भैंसा बनकर रहे थे । उस जंगल में एक नटखट बंदर रहता था, जो पीठ पर चढ़ जाता और उन्हें तरह-तरह से हैरान करता। वे शांत रहते, अथवा सिर हिला कर भगा देते ।
देवता बोधिसत्व को पहचानते थे । उनने कहा-''आप इस दुष्ट बंदर को मजा क्यों नहीं चखा देते ?'' भैंसे की काया में रहने वाले तथागत ने कहा-''अपने से बलिष्ठ को दंड देना चाहिए । दुर्बल हो तो उसे क्षमा करना ही उचित है ।''
महापुरुषों को देवदूत भी कहा जाता है, अर्थात् वे परमात्मा का काम करने आते है।
हजरत मुसा और भगवान
हजरत मूसा बीमार पडे़ । उनने अल्लाह से स्वास्थ्य के लिए दुआ माँगी । अल्लाह ने उनकी दुआ सुनी अच्छा कर दिया । मूसा फिर बीमार पड़े और उनने फिर दुआ माँगी । अब की बार अल्लाह ने संदेश भेजा कि हकीम 'बु अली सोना' के पास जा और उससे इलाज करा । मूसा गिड़गिड़ाये और कहने लगे-''आप सर्वशक्तिमान है । आप ही अच्छा क्यों नहीं कर देते ।'' अल्लाह ने कहा-''मैं समर्थ हूँ इसीलिए मरीज ठीक करने की जगह, बीमारी ठीक करने वालों को बनाने का काम अपने जिम्मे लिया है ।''
पादरी की सीख
कहने-समझाने का ढंग लोगों को अपमानित करने वाला न होकर संतों जैसा हो । एक शराबी ने पादरी से कहा-''हम खजूर के साथ पानी का शर्बत बनाकर पियें, तो क्या धर्म विरुद्ध सीख है ?'' पादरी ने कहा-''नहीं ।''
शराबी उत्साहित होकर बोला-''फिर उसमें जरा- सा खमीर पड़ जाने पर आप क्यों उसे पीने से रोकते है ?''
पादरी ने प्रत्युत्तर में उसी ढंग से प्रश्न किया-''आप पर एक किलो रेत और पानी मिलाकर पानी ऊपर से डालें, आपको कोई हानि होगी ?'' शराबी ने कहा-''नहीं।"
पादरी ने पुन: पूछा-''उसके साथ थोड़ा- सा सीमेंट मिलाकर रख दें, फिर ऊपर से छोड़ दें, फिर तो डेढ़ किलो का पत्थर मेरा सिर फोड़ देगा ।''
पादरी हँसे, बोले-''अब समझ में आया है। खमीर मिलने के बाद खजूर का शर्बत पीने पर क्यों रोक है ।'' लोगों को तर्क और तथ्यों से समझाया जाय ।
भगवद् प्राप्ति के तीन अवलंबन
एक अमीर ने किसी संत की बहुत सेवा की । संत का जी भर आया और वे वहाँ से चलने लगे । अमीर ने प्रार्थना की कुछ ऐसी सौगात देते जाइये, जिसके सहारे मैं भगवान तक पहुँच सकूँ । संत ने उसे तीन चीजें दीं- (१) के, (२) सुई, (३) थोड़े से बाल, और कहा इन्हें गाँठ में बाँध लो । अमीर ने इस चीजों को देखा और अचंभे से पूछा-''इनके सहारे मैं कैसे भगवान से मिल सकूँगा ?''
संत ने कहा-''मोमबत्ती की तरह खुद जलो और दूसरों के लिए रोशनी पैदा करो। सुई की तरह अपने को उघारा रखो पर दूसरों के छेद बंद कर दो। बालों की तरह मुलायम और लचीले रही । यह तीन ही सहारे भगवान तक पहुँचने के हैं, सो इन्हें गिरह बाँध लो, इनके सहारे भगवान तक पहुँच जाओगे।"
अञ्जसैव तदा धर्ममनुयास्यान्ति तं जना: । धर्मात्मान: स्वमाचारं प्रस्तुवन्तु नृसस्मुखे ।। ८१ ।। उत्तमं चेज्जना: सर्वेऽप्यनुयास्यान्ति तं सदा। आचरन्ति च यच्छेष्ठा: सामान्या अनुयान्ति तम् ।। ८२ ।।
टीका-धर्मात्मा अपना आचरण- उदारहण लोगों के सम्मुख रखें तो लोग उसका अनुकरण करने लगेंगे । प्रतिभाशाली जो करते हैं, उसी का अनुकरण- अनुगमन होने लगता है ।। ८१-८२ ।।
अर्थ- प्रारंभ में थोड़े ही लोगों पर प्रभाव पड़े, तो भी हर्ज वहीं । हर व्यक्ति अपनी बात मान ले, यह आवश्यक नहीं ।
ईसा का उपदेश
ईसा शिष्य मंडली के बीच विराजमान थे । उस दिन उनने एक किसान के बीज बोने की कथा सुनाई; जिसमें से थोड़े ही उगे और सब नष्ट हो गए ।
कुछ दानों को चिड़ियों ने चुग लिया । कुछ कड़ी धूप में झुलस गए । कुछ कीचड़ में सड़े और कुछ झाड़ियों के बीच पड़ने से धूप-रोशनी न मिलने से उगे ही नहीं । थोड़े से वे पौधे ही बड़े और फले जो उपयुक्त भूमि पर बोये और सावधानी के साथ सींचे गए थे ।
ईसा ने कहा-''उपदेश और पूजा भी तभी फलित होती है जब साधक का चरित्र और चिंतन भी उपयुक्त स्थिति में रहे और अनुकूलता उत्पन्न करने में योगदान करे।"
उपहास सुनने का समय कहाँ
भगवान बुद्ध ने प्रशिक्षित, धर्म प्रचारकों को कार्यक्षेत्र में भेजने से पूर्व निकट बुलाया और पूछा-"यदि लोग तुम्हारी बात न सुनें, उपहास या तिरस्कार करें, तो क्या करोगे ।''
परिव्राजकों के प्रमुख ने कहा-''हम बादलों की तरह बरसने, हवा की तरह सरसने, सूर्य की तरह प्रकाश बाँटने, चंद्रमा की तरह चाँदनी बिखेरने के लिए चले हैं । कर्तव्य पालन के आनंद में हीं इतने रसविभोर रहेंगे कि किसी का उपहास- तिरस्कार सुनने-समझने की ही गुंजायश न रहेगी ।''
बुद्ध ने उनकी भाव-प्रखरता को समझा और आशीर्वाद देकर प्रयाण के लिए विदा किया । ऐसे ही लोगों का प्रभाव पड़ता है।
धार्मिका धर्ममाख्यान्तु परं तेन सहैव च । आचरन्तोऽपि निष्ठां स्वामादर्शे प्रस्तुवन्तु च ।। ८३ ।। आचरन्ति जना एवं येऽपि ते वस्तुत: समे । धर्ममुत्तमरीत्याऽत्र सेवन्ते सत्यसंश्रया: ।। ८४ ।। लभन्ते पुण्यमेतेऽत्र जना धर्मप्रचारगम् । तस्य सेवाविधेश्चपि साधनाया उताऽपि च ।। ८५ ।। धर्मस्य चर्चया किञ्चित्सिद्ध्येन्नैव प्रयोजनम् । वाचालयोपदेशस्य भाररूपतया भुवि ।। ८६ ।।
टीका-धर्म प्रेमी, धर्म का बखान-विवेचन भी करें; किन्तु साथ-साथ उसका आचरण करते हुए आदर्श के प्रति अपनी निष्ठा का प्रमाण-परिचय भी प्रस्तुत करें । जो ऐसा करते हैं, वे धर्म की सखी सेवा करते हैं । धर्म प्रसार की महती सेवा-साधना का पुण्य और श्रेय ऐसों को ही मिलता है । धर्म की चर्चा करने मात्र से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती । वाचालतापूर्ण उपदेश भाररूप ही होते है ।।८३ -८६ ।।
अर्थ- अतीतकालीन इतिहास महान धर्म प्रेमियों, सधे धर्म सेवियों से भरा पड़ा है ।
चाणक्य का देश-प्रेम
विशाल भारत के महामंत्री चाणक्य थे । वे फूस की झोपड़ी में रहते, चटाई पर सोते और मिट्टी के बर्तनों में भोजन करते ।
प्रात:काल उनकी प्रार्थना होती-''हे भगवान! कभी आप कुपित हों, तो यह तीनों साधन ले लेना; पर धर्म अनुगामिनी बुद्धि में कोई कमी न आने देना ।''
अभावग्रस्तता मार्ग का रोड़ा नहीं बनी
पारसी भारत के संस्थापक जरथुस्त के बारे में अधिक प्रमाण इस बात के मिले हैं कि वे तूरान में नहीं जन्मे; वरन् भारत में उनने जन्म लिया था ।
वे राजकुमार थे । सब भाइयों की पैतृक सम्पत्ति का बँटवारा हुआ; पर उनने उसमें से कोई हिस्सा नहीं लिया । कमर में फेंटा और सिर पर पगड़ी-यही उनकी पोशाक थी । धर्म प्रचार के लिए भारत के इर्द- गिर्द लगे देशों में, विशेषतया मध्य-पूर्व में निरंतर भ्रमण करते रहे । धन पास न रखने के कारण कितनी ही बार उन्हें अन्न-वस्त्र की भी कठिनाई सहन करनी पड़ती थी, फिर भी वे अपनी कठिनाई की बात किसी से कहते न थे ।
अपने जीवन काल में ही उनके लाखों अनुयायी बन गए । पीछे मध्य- पूर्व में धार्मिक उथल-पुथल होते रहने के कारण उनके अनुयायियों की संख्या पर भी प्रभाव पड़ा । फिर भी पारसी सम्प्रदाय जहाँ कहीं भी है, सम्पन्नता और सभ्यता की दृष्टि से प्रतिष्ठा प्राप्त है ।
भार स्वरूप वाचाल, उपदेशमय धर्मचर्या से कुछ प्रयोजन नहीं सधता, आचरण अनिवार्य है ।
पद का अहंकार नहीं सहयोग पर गर्व
अमेरिका में उन दिनों सुरक्षा दुर्ग की एक इमारत बन रही थी । सैनिक उस काम में जुटे थे । एक भारी लट्ठा ऊपर चढ़ाया जाना था । नायक दूर खड़ा- खड़ा 'जोर लगाओ' का आदेश दे रहा था; पर लट्ठा उठ नहीं पा रहा था ।
एक घुड़सवार उधर से निकला, रुका और असफलता का दृश्य देखा । उसने पेडू से घोड़ा बाँधा, कोट उतारा और जोर लगाने वाले सैनिकों के साथ जुट कर उन्हें भी उत्साहित करने लगा ।
अबकी बार लट्ठा उठ गया; घुड़सवार चलने लगा, तो उस सहायता के लिए नायक ने उसे धन्यवाद दिया । सवार ने कहा-''महोदय, ऐसी ही कोई कठिनाई फिर सामने हो, तो मुझे याद करना । स्वयं जुट कर आपका काम आसान करा दिया करूँगा ।''
नायक ने नाम पूछा, तो सवार ने जबाव दिया-''जॉर्ज वाशिंगटन, प्रधान सेनापति और अमेरिका का राष्ट्रपति, साथ ही वह व्यक्ति, जो स्व्यं उदाहरण प्रस्तुत करके साथियों में उत्साह भरने का अभ्यस्त रहा।''
कर्मणो वचनस्यात्र भिन्नत्यादुपहास्यताम् । उपदेष्टा ब्रजत्यत्राऽविश्वासो वर्द्धतेऽपि च ।। ८७ ।। महामानवतां यातुं थर्मस्याचरणं तथा । धर्मबिस्तरजं कार्यविधिं चोभयपक्षगम् ।। ८८ ।। श्रुत्याऽस्य स्यीकृतेर्दिव्य: परामर्श: सुखावह: । श्रोतृणां तत्र सोऽभूच्च भविष्यत्समये समै: ।। ८९ ।। अत्र कार्य विधौ ध्यानं दातुं चाऽधिकमेव तु। निश्चितं स्वप्रयासे च क्रमो नव्य: सुयोजित: ।।९०।। आरण्यक स्वकं दिव्यं सर्वे स्थापयितुं तथा। प्रयोजनमिदं कृत्वा तीर्थयात्राऽभिनिर्गमे ।। ९१ ।। उपक्रमाय सोत्साहं योजना विस्तृता निजे । चित्ते निर्मातुमारब्धा व्यधु: स्फुरितचेतना: ।।९२ ।।
टीका-वचन और कर्म की भिन्नता रखने पर उपहास होता है, अविश्वास बढ़ता है । महामानव बनने के लिए धर्माचरण और धर्म विस्तार की उभयपक्षीय कार्यविधि अपनाने का परामर्श सभी श्रोता-जनों को बहुत सुहाया । उनने भविष्य में इस ओर अधिकाधिक ध्यान देने और प्रयास करने का निश्चय किया । इस संबंध में अब तक के अपने प्रयास में नई तत्परता के समावेश का नया कार्यक्रम बनाया । वे आरण्यक चलाने और तीर्थयात्रा पर इस प्रयोजन के लिए निकलने की उत्साहपूर्वक तैयारी के लिए सुविस्तृत योजनाएँ अपने- अपने मन में बनाने लगे; क्योंकि उनकी चेतना जग गई थी ।। ८७ - ९२ ।।
समये च समाप्तेऽयं सत्संगोऽद्यतनस्तत: । वातावृतौ शभोत्साहपूर्णायां विधिपूर्वकम् ।। ९३ ।। समाप्तस्तेऽन्वभवन् सर्व महामानवतैव च । लब्धव्या पुरुषैरेवं भवेत्स्वर्ग: स्वयं धरा ।। ९४ ।।
टीका-समय समाप्त होने पर आज का सत्संग उत्साह भरे वातावरण में विधिवत् समाप्त हो गया । सभी ने अनुभव किया कि महामानव बनना मनुष्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है, उसी से पृथ्वी स्वयं स्वर्ग बन जायेगी ।। ९३ - ९४ ।।
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो: युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणो:, श्रीआश्वलायन- मौद्गल्य ऋषिसम्वादे ''धर्मविवेचन'' इति प्रकरणो जाम द्धितीयोऽध्याय: ।। २ ।।
टीका-संसार को महामानवों के कल्पवृक्षों से हरा-भरा नंदन वन बनाया जाना चाहिए। इस उपार्जन का मंगलमय उत्तरदायित्व साधु-ब्राह्मण स्तर के देव- पुरुषों को उठाते रहना चाहिए । इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था बनी रहनी चाहिए । साधना, संयम और सेवा की सत्प्रवृत्तियों को नियमित रूप से कार्यान्वित होते रहना चाहिए । धर्म का महत्व समझा और समझाया जाना चाहिए। उसके प्रत्यक्ष परिणामों के आधार पर हृदयंगम कराया जा सके, तो उसे सहज ही लोग अपनाने लगेंगे ।। ७६ -८०।।
दुर्बल क्षमा के पात्र हैं
भगवान बुद्ध ने तो बुद्ध बनने से पूर्व २४ अवतार इसी तरह लेकर महानता विकसित करने का पुण्य कमाया । बुद्ध जातक के नाम से उनके यह अनेक जन्मों के संस्मरण बहुत मार्मिक है-एक बार भगवान बुद्ध किसी जन्म में जंगली भैंसा बनकर रहे थे । उस जंगल में एक नटखट बंदर रहता था, जो पीठ पर चढ़ जाता और उन्हें तरह-तरह से हैरान करता। वे शांत रहते, अथवा सिर हिला कर भगा देते ।
देवता बोधिसत्व को पहचानते थे । उनने कहा-''आप इस दुष्ट बंदर को मजा क्यों नहीं चखा देते ?'' भैंसे की काया में रहने वाले तथागत ने कहा-''अपने से बलिष्ठ को दंड देना चाहिए । दुर्बल हो तो उसे क्षमा करना ही उचित है ।''
महापुरुषों को देवदूत भी कहा जाता है, अर्थात् वे परमात्मा का काम करने आते है।
हजरत मुसा और भगवान
हजरत मूसा बीमार पडे़ । उनने अल्लाह से स्वास्थ्य के लिए दुआ माँगी । अल्लाह ने उनकी दुआ सुनी अच्छा कर दिया । मूसा फिर बीमार पड़े और उनने फिर दुआ माँगी । अब की बार अल्लाह ने संदेश भेजा कि हकीम 'बु अली सोना' के पास जा और उससे इलाज करा । मूसा गिड़गिड़ाये और कहने लगे-''आप सर्वशक्तिमान है । आप ही अच्छा क्यों नहीं कर देते ।'' अल्लाह ने कहा-''मैं समर्थ हूँ इसीलिए मरीज ठीक करने की जगह, बीमारी ठीक करने वालों को बनाने का काम अपने जिम्मे लिया है ।''
पादरी की सीख
कहने-समझाने का ढंग लोगों को अपमानित करने वाला न होकर संतों जैसा हो । एक शराबी ने पादरी से कहा-''हम खजूर के साथ पानी का शर्बत बनाकर पियें, तो क्या धर्म विरुद्ध सीख है ?'' पादरी ने कहा-''नहीं ।''
शराबी उत्साहित होकर बोला-''फिर उसमें जरा- सा खमीर पड़ जाने पर आप क्यों उसे पीने से रोकते है ?''
पादरी ने प्रत्युत्तर में उसी ढंग से प्रश्न किया-''आप पर एक किलो रेत और पानी मिलाकर पानी ऊपर से डालें, आपको कोई हानि होगी ?'' शराबी ने कहा-''नहीं।"
पादरी ने पुन: पूछा-''उसके साथ थोड़ा- सा सीमेंट मिलाकर रख दें, फिर ऊपर से छोड़ दें, फिर तो डेढ़ किलो का पत्थर मेरा सिर फोड़ देगा ।''
पादरी हँसे, बोले-''अब समझ में आया है। खमीर मिलने के बाद खजूर का शर्बत पीने पर क्यों रोक है ।'' लोगों को तर्क और तथ्यों से समझाया जाय ।
भगवद् प्राप्ति के तीन अवलंबन
एक अमीर ने किसी संत की बहुत सेवा की । संत का जी भर आया और वे वहाँ से चलने लगे । अमीर ने प्रार्थना की कुछ ऐसी सौगात देते जाइये, जिसके सहारे मैं भगवान तक पहुँच सकूँ । संत ने उसे तीन चीजें दीं- (१) के, (२) सुई, (३) थोड़े से बाल, और कहा इन्हें गाँठ में बाँध लो । अमीर ने इस चीजों को देखा और अचंभे से पूछा-''इनके सहारे मैं कैसे भगवान से मिल सकूँगा ?''
संत ने कहा-''मोमबत्ती की तरह खुद जलो और दूसरों के लिए रोशनी पैदा करो। सुई की तरह अपने को उघारा रखो पर दूसरों के छेद बंद कर दो। बालों की तरह मुलायम और लचीले रही । यह तीन ही सहारे भगवान तक पहुँचने के हैं, सो इन्हें गिरह बाँध लो, इनके सहारे भगवान तक पहुँच जाओगे।"
अञ्जसैव तदा धर्ममनुयास्यान्ति तं जना: । धर्मात्मान: स्वमाचारं प्रस्तुवन्तु नृसस्मुखे ।। ८१ ।। उत्तमं चेज्जना: सर्वेऽप्यनुयास्यान्ति तं सदा। आचरन्ति च यच्छेष्ठा: सामान्या अनुयान्ति तम् ।। ८२ ।।
टीका-धर्मात्मा अपना आचरण- उदारहण लोगों के सम्मुख रखें तो लोग उसका अनुकरण करने लगेंगे । प्रतिभाशाली जो करते हैं, उसी का अनुकरण- अनुगमन होने लगता है ।। ८१-८२ ।।
अर्थ- प्रारंभ में थोड़े ही लोगों पर प्रभाव पड़े, तो भी हर्ज वहीं । हर व्यक्ति अपनी बात मान ले, यह आवश्यक नहीं ।
ईसा का उपदेश
ईसा शिष्य मंडली के बीच विराजमान थे । उस दिन उनने एक किसान के बीज बोने की कथा सुनाई; जिसमें से थोड़े ही उगे और सब नष्ट हो गए ।
कुछ दानों को चिड़ियों ने चुग लिया । कुछ कड़ी धूप में झुलस गए । कुछ कीचड़ में सड़े और कुछ झाड़ियों के बीच पड़ने से धूप-रोशनी न मिलने से उगे ही नहीं । थोड़े से वे पौधे ही बड़े और फले जो उपयुक्त भूमि पर बोये और सावधानी के साथ सींचे गए थे ।
ईसा ने कहा-''उपदेश और पूजा भी तभी फलित होती है जब साधक का चरित्र और चिंतन भी उपयुक्त स्थिति में रहे और अनुकूलता उत्पन्न करने में योगदान करे।"
उपहास सुनने का समय कहाँ
भगवान बुद्ध ने प्रशिक्षित, धर्म प्रचारकों को कार्यक्षेत्र में भेजने से पूर्व निकट बुलाया और पूछा-"यदि लोग तुम्हारी बात न सुनें, उपहास या तिरस्कार करें, तो क्या करोगे ।''
परिव्राजकों के प्रमुख ने कहा-''हम बादलों की तरह बरसने, हवा की तरह सरसने, सूर्य की तरह प्रकाश बाँटने, चंद्रमा की तरह चाँदनी बिखेरने के लिए चले हैं । कर्तव्य पालन के आनंद में हीं इतने रसविभोर रहेंगे कि किसी का उपहास- तिरस्कार सुनने-समझने की ही गुंजायश न रहेगी ।''
बुद्ध ने उनकी भाव-प्रखरता को समझा और आशीर्वाद देकर प्रयाण के लिए विदा किया । ऐसे ही लोगों का प्रभाव पड़ता है।
धार्मिका धर्ममाख्यान्तु परं तेन सहैव च । आचरन्तोऽपि निष्ठां स्वामादर्शे प्रस्तुवन्तु च ।। ८३ ।। आचरन्ति जना एवं येऽपि ते वस्तुत: समे । धर्ममुत्तमरीत्याऽत्र सेवन्ते सत्यसंश्रया: ।। ८४ ।। लभन्ते पुण्यमेतेऽत्र जना धर्मप्रचारगम् । तस्य सेवाविधेश्चपि साधनाया उताऽपि च ।। ८५ ।। धर्मस्य चर्चया किञ्चित्सिद्ध्येन्नैव प्रयोजनम् । वाचालयोपदेशस्य भाररूपतया भुवि ।। ८६ ।।
टीका-धर्म प्रेमी, धर्म का बखान-विवेचन भी करें; किन्तु साथ-साथ उसका आचरण करते हुए आदर्श के प्रति अपनी निष्ठा का प्रमाण-परिचय भी प्रस्तुत करें । जो ऐसा करते हैं, वे धर्म की सखी सेवा करते हैं । धर्म प्रसार की महती सेवा-साधना का पुण्य और श्रेय ऐसों को ही मिलता है । धर्म की चर्चा करने मात्र से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती । वाचालतापूर्ण उपदेश भाररूप ही होते है ।।८३ -८६ ।।
अर्थ- अतीतकालीन इतिहास महान धर्म प्रेमियों, सधे धर्म सेवियों से भरा पड़ा है ।
चाणक्य का देश-प्रेम
विशाल भारत के महामंत्री चाणक्य थे । वे फूस की झोपड़ी में रहते, चटाई पर सोते और मिट्टी के बर्तनों में भोजन करते ।
प्रात:काल उनकी प्रार्थना होती-''हे भगवान! कभी आप कुपित हों, तो यह तीनों साधन ले लेना; पर धर्म अनुगामिनी बुद्धि में कोई कमी न आने देना ।''
अभावग्रस्तता मार्ग का रोड़ा नहीं बनी
पारसी भारत के संस्थापक जरथुस्त के बारे में अधिक प्रमाण इस बात के मिले हैं कि वे तूरान में नहीं जन्मे; वरन् भारत में उनने जन्म लिया था ।
वे राजकुमार थे । सब भाइयों की पैतृक सम्पत्ति का बँटवारा हुआ; पर उनने उसमें से कोई हिस्सा नहीं लिया । कमर में फेंटा और सिर पर पगड़ी-यही उनकी पोशाक थी । धर्म प्रचार के लिए भारत के इर्द- गिर्द लगे देशों में, विशेषतया मध्य-पूर्व में निरंतर भ्रमण करते रहे । धन पास न रखने के कारण कितनी ही बार उन्हें अन्न-वस्त्र की भी कठिनाई सहन करनी पड़ती थी, फिर भी वे अपनी कठिनाई की बात किसी से कहते न थे ।
अपने जीवन काल में ही उनके लाखों अनुयायी बन गए । पीछे मध्य- पूर्व में धार्मिक उथल-पुथल होते रहने के कारण उनके अनुयायियों की संख्या पर भी प्रभाव पड़ा । फिर भी पारसी सम्प्रदाय जहाँ कहीं भी है, सम्पन्नता और सभ्यता की दृष्टि से प्रतिष्ठा प्राप्त है ।
भार स्वरूप वाचाल, उपदेशमय धर्मचर्या से कुछ प्रयोजन नहीं सधता, आचरण अनिवार्य है ।
पद का अहंकार नहीं सहयोग पर गर्व
अमेरिका में उन दिनों सुरक्षा दुर्ग की एक इमारत बन रही थी । सैनिक उस काम में जुटे थे । एक भारी लट्ठा ऊपर चढ़ाया जाना था । नायक दूर खड़ा- खड़ा 'जोर लगाओ' का आदेश दे रहा था; पर लट्ठा उठ नहीं पा रहा था ।
एक घुड़सवार उधर से निकला, रुका और असफलता का दृश्य देखा । उसने पेडू से घोड़ा बाँधा, कोट उतारा और जोर लगाने वाले सैनिकों के साथ जुट कर उन्हें भी उत्साहित करने लगा ।
अबकी बार लट्ठा उठ गया; घुड़सवार चलने लगा, तो उस सहायता के लिए नायक ने उसे धन्यवाद दिया । सवार ने कहा-''महोदय, ऐसी ही कोई कठिनाई फिर सामने हो, तो मुझे याद करना । स्वयं जुट कर आपका काम आसान करा दिया करूँगा ।''
नायक ने नाम पूछा, तो सवार ने जबाव दिया-''जॉर्ज वाशिंगटन, प्रधान सेनापति और अमेरिका का राष्ट्रपति, साथ ही वह व्यक्ति, जो स्व्यं उदाहरण प्रस्तुत करके साथियों में उत्साह भरने का अभ्यस्त रहा।''
कर्मणो वचनस्यात्र भिन्नत्यादुपहास्यताम् । उपदेष्टा ब्रजत्यत्राऽविश्वासो वर्द्धतेऽपि च ।। ८७ ।। महामानवतां यातुं थर्मस्याचरणं तथा । धर्मबिस्तरजं कार्यविधिं चोभयपक्षगम् ।। ८८ ।। श्रुत्याऽस्य स्यीकृतेर्दिव्य: परामर्श: सुखावह: । श्रोतृणां तत्र सोऽभूच्च भविष्यत्समये समै: ।। ८९ ।। अत्र कार्य विधौ ध्यानं दातुं चाऽधिकमेव तु। निश्चितं स्वप्रयासे च क्रमो नव्य: सुयोजित: ।।९०।। आरण्यक स्वकं दिव्यं सर्वे स्थापयितुं तथा। प्रयोजनमिदं कृत्वा तीर्थयात्राऽभिनिर्गमे ।। ९१ ।। उपक्रमाय सोत्साहं योजना विस्तृता निजे । चित्ते निर्मातुमारब्धा व्यधु: स्फुरितचेतना: ।।९२ ।।
टीका-वचन और कर्म की भिन्नता रखने पर उपहास होता है, अविश्वास बढ़ता है । महामानव बनने के लिए धर्माचरण और धर्म विस्तार की उभयपक्षीय कार्यविधि अपनाने का परामर्श सभी श्रोता-जनों को बहुत सुहाया । उनने भविष्य में इस ओर अधिकाधिक ध्यान देने और प्रयास करने का निश्चय किया । इस संबंध में अब तक के अपने प्रयास में नई तत्परता के समावेश का नया कार्यक्रम बनाया । वे आरण्यक चलाने और तीर्थयात्रा पर इस प्रयोजन के लिए निकलने की उत्साहपूर्वक तैयारी के लिए सुविस्तृत योजनाएँ अपने- अपने मन में बनाने लगे; क्योंकि उनकी चेतना जग गई थी ।। ८७ - ९२ ।।
समये च समाप्तेऽयं सत्संगोऽद्यतनस्तत: । वातावृतौ शभोत्साहपूर्णायां विधिपूर्वकम् ।। ९३ ।। समाप्तस्तेऽन्वभवन् सर्व महामानवतैव च । लब्धव्या पुरुषैरेवं भवेत्स्वर्ग: स्वयं धरा ।। ९४ ।।
टीका-समय समाप्त होने पर आज का सत्संग उत्साह भरे वातावरण में विधिवत् समाप्त हो गया । सभी ने अनुभव किया कि महामानव बनना मनुष्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है, उसी से पृथ्वी स्वयं स्वर्ग बन जायेगी ।। ९३ - ९४ ।।
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो: युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणो:, श्रीआश्वलायन- मौद्गल्य ऋषिसम्वादे ''धर्मविवेचन'' इति प्रकरणो जाम द्धितीयोऽध्याय: ।। २ ।।