Books - प्रज्ञा पुराण भाग-2
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Language: HINDI
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॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-1
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प्रभाते पुण्यवेलायां प्रारब्ध: सत्समागम:। नैमिषारण्यगां वातावृत्तिं पूतां भृशं पुन:॥१॥ ज्ञानालोकेन कुर्वंश्च प्रखरां समशोभत। आगन्तारश्च सर्वेऽपि मुनयस्ते मनीषिणः॥२॥ ज्ञानगडावगाहेन श्रमे भ्रान्तेर्गते भृशम्। अन्वभूवन्नुदास्ते धर्मात्मान: प्रसन्नताम्॥३॥ गतिशील: प्रसंगोंऽभूदवलम्ब्य कथं नर:। धर्मस्य धारणां दिव्यां सर्वसाधारणादपि॥४॥ जीवनादधिगन्तुं च महामानवतामिह। अर्हतीति कथं तिष्ठन् सामान्ये नरविग्रहे॥५॥ देवजीवनजं प्राप्तुमानन्दं संभवेदिति। मार्गदर्शननमस्याऽऽसीत् सत्रस्य प्रतिपादनम्॥६॥ आरुणि: प्रशनकर्त्ता च पप्रच्छ विनयानत:। सत्राध्यक्षं च स्त्रेऽस्मिन् दिव्ये सोऽद्यतनो मुनि:॥७॥ धर्मस्य धारणायाश्च भगवन् विषये शुभे। ब्रूतां युग्मस्य तुर्यस्य सौजनस्य तथैव च॥८॥ पराक्रमस्य सम्बध: वर्तते क: परस्परम्। धर्माधारौ कथं प्रोक्तावुभावपि बुधैरिह॥९॥
टीका-प्रंभात की पुण्यवेला में नित्य चलने वाला संत-समागम नैमिषारण्य के पुनीत वातावरण को और भी अधिक प्रकाश-प्रखरता से भर रहा था। आगन्तुक उदार धर्मात्मा, मुनि-मनीषी इस ज्ञानगंगा का नित्य अवगाहन करते हुए भ्रांति की थकान दूर हो जाने से अतीव प्रसन्नता अनुभव रहे थे। प्रंसग गतिशील था। धर्म-धारणा का अवलम्बन करके किस प्रकार सर्वसाधारण से महामानव बनने का सुयोग मिल सकता है, किस प्रकार सामान्य मनुष्य कलेवर में रहते हुए भी देव जीवन का आनंद लिया जा सकता है, इसका मार्गदर्शन इससत्र का विशेष विषय था । आज के प्रश्नकर्त्ता आरुणि ने विनयावनत होकर सत्राध्यक्ष से पूछा-हे भगवन्! धर्म धारणा के चतुर्थ युग्म 'सौजन्य और पराक्रम' के संबंध में प्रकाश डालने का अनुग्रह करें । बताएँ कि उनका परस्पर क्या संबंध है और उनको धर्म का आधार क्यों कहा गया है?॥१-९॥
आश्वलायन उवाच-
उपस्थिता जना: सर्वे शृण्वन्त्ववदधत्वपि। धर्म: शब्दान्तरेणाऽत्र मन्तव्य: शुभकर्मता॥१०॥ कर्तव्यमिदमेवास्ति मानवानां तथैव च। आत्मपूर्णत्यमेवाथ विश्वकल्याणमप्युत॥११॥ उभयं प्रयोजनं सिद्धयेदनेन विधिना स्वत:। सादर्शां दृढतां प्राप्तुमर्ज्याश्च क्षमता: शूभाः॥१२॥ एतासु प्रथमं युक्तं स्नेहसौजन्यमेव तु । तत्परत्वं समग्रं च द्वितीयमभिमन्यताम्॥१३॥
टीका-आश्वलायन ने कहा-प्रश्नकर्त्ता समेत सभी उपीस्थतजन! ध्यान से सुनें। धर्म को दूसरे शब्दों में सत्कर्म समझें । यही मनुष्य का कर्तव्य है । आत्मिक पूर्णता और विश्व कल्याण का उभयपक्षीय प्रयोजन भी इसी से पूर्ण होता है । इस आदर्शवादी दृढ़ता को प्राप्त करने के लिए कुछ प्रमुख क्षमताएँ अनिवार्य रूप से अर्जित करनी होती हैं। इनमें एक है-स्नेह-सौजन्य और दूसरी है-समग्र तत्परता ॥१०-१३॥
एका सज्जनता प्रोक्ता तथा कर्मठताऽपरा । उभयोरपि सम्बन्ध: कथ्यते च पराक्रम: ॥१४॥ पराक्रमश्च देवानां बलविक्रम उच्यते । आधारमिममाश्रित्य स्थितिमुच्चां भजन्ति ते ॥१५॥ सर्वेषां प्राणिनां ते च कल्याणे मानवा: सदा । जायन्ते निरता: श्रेयो विन्दन्त्यपि च सन्ततम् ॥१६॥
टीका-सज्जनता और कर्मठता यह दोनों जब मिलते हैं, तो उनका समन्वय पराक्रम कहलाता है। इसी आधार पर वे उच्चतम स्थिति तक पहुँचते है, सबका कल्याण करने में निरत रहते हैं और श्रेय प्राप्त करतेहैं॥-१४-१६॥
अर्थ-धर्म की परिधि असीम है। परिभाषा सरल नहीं, अपितु बहुमुखी होने के कारण किंचित्-क्लिष्ट भी । धर्म कर्तव्यनिष्ठा का पर्यायवाची माना जा सकता है । श्रेष्ठता से अभिपूरित कार्यों में जो निरत हो, वही सच्चा धर्म कहा जा सकता है । मात्र अपनी मुक्ति नहीं, समष्टिगत हित की बात सोचने वाला ही प्रगति के पथ पर बढ़ सकता है । ऋषि श्रेष्ठ यहाँ धर्म के चौथे युग्म के रूप में पारस्परिक सेठ-सद्भाव एवं सर्वांगपूर्ण तत्परता की चर्चा कर रहे हैं। दोनों ही एक दूसरे के पूरक एवं आदर्श के पथ पर चलने वालों के लिए अनिवार्य हैं । विनम्रता जितनी अनिवार्य है, उद्देश्य के प्रति लगन-दृढनिष्ठा भी जीवन में उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है । ये दोनों जब मिलते हैं तब प्रखर-पराक्रम जन्म लेता है। इस प्रकार दृढ़ता से युक्त विनम्रता एवं जागरूकता का समनय उस गुण को जन्म देता है, जो जीवन व्यापार चलाने एवं ऊँचा उठाने के लिए सभी को अभीष्ट है ।
आत्मवत् सर्वभूतेषु
महावीर स्वामी उन दिनों जंगल में घोर तप कर रहे थे । जंगल के ग्वाले उन्हें समाधिस्थ देख उनका उपहास किया करते थे । कुछ दुष्ट तो लांछन लगाकर उन्हें तंग भी करने लगे । महावीर इन व्यवधानों से विचलित न हो तपस्या करते रहे।
तपस्या में विघ्न डालने की बात पास के व्यक्तियों तक पहुँची, वहाँ के धनिक लोग महावीर के पास आए और कहने लगे-"देव, आपको ये नादान व्यर्थ कष्ट देकर असुविधा में डाल रहे है, हमारा निवेदन है, हम आपके लिए एक भवन यहाँ बनवा दें तथा ऐसी सुरक्षा व्यवस्था करा दें, जिससे आप निश्चिंत हो तपस्या-साधना करते रहें।"
महावीर बोले-"ऐसा न कहें तात! यह तो अपने है । बच्चे प्यार से भी तो मुँह नोचने लगते हैं, इससे कोई अभिभावक उन्हें गोद में लेना तो बंद नहीं कर देते ।"
"इतनी-सी बात के लिए जो धन अनाश्रितों के काम आ सकता है, वह अपने लिए खर्च कराने का अभिशाप मैं नहीं ले सकता ।" उन्होंने भवन बनवाने से इन्कार कर दिया । ग्वालों को यह समाचार मिला तो वे अभिभूत होकर महावीर के चरणों में गिर पड़े ।
धनिकों के मुँह से इतना ही निकला-" यहीं है सच्ची महानता जो आज देखने को मिल रही है ।"
जिनके मन में समाज के लिए प्यार और कर्तव्यनिष्ठा जागती हैं, वे अपने स्वार्थ की कल्पना नहीं करते । स्वतंत्रता संग्राम के सेनापतियों ने पग-पग पर उसके उदाहरण प्रस्तुत किये है।
शहीद डा मथुरा सिंह
भारत में क्रांतिकारी दल अपने पैर जमा रहा था । तब तक कोई जन आंदोलन उभर न सका था ।
क्रांतिकारियों ने कनाडा के 'कामा गाटा मारू' बंदरगाह से हथियारों से लैस एक जहाज भारत के लिए रवाना किया, उसमें देश के मूर्धन्य क्रांतिकारी भी थे । जिनमें झेलम जिले के डॉ० मथुरा सिंह को बडी जिम्मेदारियों सौपी गई थीं । यदि वह योजना सफल हो जाती तो अंग्रेजों को बहुत पहले ही बिस्तर गोल करने पड़ते ।
क्रांतिकारियों में से ही एक पुलिस का मुखबिर बन गया । लंबे समय से गुलामी ने देश का नैतिक स्तर जर्जर कर दिया था। इसी कारण क्रांतिकारी योजनाएँ असफल होती रहीं ।
जहाज पकड़ा गया । उस पर सवार लोग भी। डॉ० मथुरा सिंह रूस भागने की तैयारी में थे कि पुलिस ने उन्हें भी पकड़ लिया और उन्हें जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
समुद्र में कूद गए
वीर सावरकर ने भारत माता के बंधन काटने का निश्चय किया । उनने ऐसे ढेरों काम किए जिससे अंग्रेज सरकार का तख्ता हिलने लगा । उन पर ढेरों मुकदमे चले और फाँसी की सजा सुनाई गई । वे इंग्लैंड में थे। अत: यह निश्चय हुआ कि फाँसी भारत में दी जाय, ताकि वहाँ के लोगों को सबक मिले । वीर सावरकर को जहाज से लाया जा रहा था । उन्होंने विचार किया, कहीं देशवासी भयभीत न हो जायँ । सो उन्होंने चलते जहाज से ही समुद्र में छलांग लगा दी । इस शौर्यपूर्ण साहस ने देश में आग भड़का दी । सैकड़ों सावरकर पैदा कर दिए । फिर से मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई ।
पूरे ३० वर्ष उन्हें काले पानी रहना पड़ा। वे खतरनाक समझे जाते थे, इसलिए बंधन कड़े रखे गए । भारत होने पर वे जेल से स्वतंत्र छूटे।
लौटने पर उनका उत्साह तनिक भी शिथिल न हुआ । देश में लौटकर स्वतंत्रता को सार्थक बनाने के लिए वेशेष जीवन लगातार काम करते रहे । ऐसे देशभक्तों के कारण ही भारत माता धन्य हुईं ।
अभाव का सुख
एक संत थे । जो पाते उसे अपने से अधिक जरूरतमंदों को बाँट देते । इस उदारता से उन्हें कई बार स्वयं भूखा रहना पड़ता ।
कई दिन से भोजन न मिला था । श्मशान में उनने कुछ आटे के पिंड पड़े देखे और बचा हुआ ईंधन बिखरा पाया । सोचने लगे, इसी से रोटी पकाकर अपना पेट भर लें ।
शिव-पार्वती उधर से निकले । पार्वती जी ने भक्त की ऐसी दरिद्रता देखकर भगवान से कहा-"आप भक्तों पर दया नहीं करते? उनके अभाव दूर क्यों नहीं करते?" शिवजी ने कहा-"भक्तजन अभावग्रस्त, दरिद्र, कंगाल नहीं होते । वे उदारतावश दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपना वैभव लुटाते रहते हैं । संदेह हो तो इस संत से भी माँगकर देखो । वह भूखा होने पर भी अपनी रोटियाँ दान कर देगा ।"
परीक्षा की बात ठहरी । पार्वती जी वृद्धा का वेश बनाकर पहुँचीं और अपनी तथा पति की भूख बुझाने के लिए रोटी माँगी ।
पिंड एकत्रित करके चार रोटियाँ बनाई थीं। संत ने दो रोटी वृद्धा को दे दीं और दो से अपनी उदर-ज्वाला शांत कर ली, ताकि जीवित रहा जा सके ।
शिव-पार्वती ने सच्चे भक्त की निष्ठा देखी और बहुत प्रसन्न हुए । प्रकट होकर वर माँगने के लिए कहने लगे ।
भक्त ने कहा-"ऐसा वर दीजिए कि सुपात्र याचक सदा मेरे सामने आते रहें और अपना पेट काटकर भी उन्हेंकुछ देने का संतोष लाभ प्राप्त करता रहूँ।"
पार्वतीजी की आँखें छलक आयीं । बोलीं-"ऐसे भक्त का अभाव दूर करना कठिन है । उसे वे अपनी गौरव जो मानते है ।"
यही त्याग युगों-युगों तक इतिहास को प्रकाश देता रहता है । आगे आने वाली हर पीढ़ी से महापुरुष उत्पन्नकरते रहने का उत्तरदायित्व यही सौजन्य पूर्ण करता है । हरिश्चंद्र का सर्वस्व त्याग
विश्वामित्र ने युग परिवर्तन का महान कार्य अपने कंधों पर लिया था । साधन जुटाने की जिम्मेदारी उनके शिष्य हरिश्चंद्र ने उठायी । आवश्यकता पूरी करते रहने में उनने अपना कोष और वैभव लगा दिया । इतने से भी काम न चला तो उनने अपने को दास रूप में बेचकर उस आवश्यकता की पूर्ति की। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को लोक कल्याण के लिए विसर्जित करने में उनने दु:खी होने के स्थान पर प्रसन्नता अनुभव की। हरिश्चंद्र को उदाहरण के रूप में नाटक में देखकर बालक गाँधी-महात्मा गाँधी के रूप में परिणत हुए । ऐसी ही प्रेरणा से उनका चरित्र न जाने कितनों को आदर्शवादी बना चुका होगा और बनाता रहेगा ।
प्रश्न प्रसिद्धि और प्रखरता का ही नहीं। महापुरुष बिना किसी यश की कामना के विशुद्ध कर्तव्यनिष्ठा के रूप में यह दावित्व निबाहते हैं । उन्हें इस बात का गुमान भी नहीं होता कि प्रतिफल कितना निकलेगा । वे सच्चे अर्थों में गीता के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' का अनुपालन करते हे । किसी भी जातीय जीवन में महान परंपराएँ इसी तरह उगती और विकसित होती हैं ।
अपूर्ण साधना
राज्य आमात्य जनश्रुति ने महर्षि वशिष्ठ से पूछा-"भगवान! मैं पुण्यात्मा हूँ। धर्म के नियमों पर चलता हूँ । उपासना में भी चूक नहीं करता, फिर भी न मेरा कहीं सम्मान होता है और न भीतरका संतोष मिलता है ।"
वशिष्ठ ने कहा-"वत्स! सदाचार और साधन की महत्ता है । किन्तु वे दोनों ही स्नेह और सेवा के बिना अपूर्ण रहते हैं। तुम उन दो साधनाओं को भी अपनाकर अपूर्णता दूर करो और समग्र प्रतिफल प्राप्त करो ।"
योग और तप से सिद्धियाँ और सामर्थ्य तो मिल जायेगी, परंतु उपरोक्त सुसंस्कारिता के अभाव में वे अहितकर ही सिद्ध होगी । पुराण इस बात के अद्यावधि साक्षी हैं ।
भस्मासुर की दुर्गति पर देवताओं ने जब प्रजापति से पूछा कि ऐसी दुर्गति क्यों हुई? उन्होंने कहा कि पराक्रम का प्रतिफल तो मिलता है, पर उसके सहारे लाभ मात्र सज्जन, दूरदर्शी, चरित्रवान ही उठा पाते है ।
कहाँ सौजन्य अपनाया जाए, कहाँ शौर्य-इसे समझना बहुत आवश्यक है, अन्यथा धर्मधारणा के यथार्ध लाभप्राप्त करना कठिन हो जायेगा । ऐसे व्यक्ति या तो संसार से रखते हैं या साधना से । दोनों ही हेय परिस्थितियाँ हैं । दोनों में पारस्परिक सामंजस्य अत्यंत अनिवार्य है ।
साधक की दुर्दशा
काकभुशुण्डि जी के मन में एक बार यह जानने की इच्छा हुई कि क्या संसार में ऐसा भी कोई दीर्घजीवी व्यक्ति है, जो विद्वान भी हो और उसे आत्मज्ञान न हुआ हो? इस बात का पता लगाने के लिए वे महर्षि वशिष्ठ से आज्ञा लेकर निकल पड़े ।
ग्राम ढूँढ़ा, नगर ढूँढे़, वन और कंदराओं की खाक छानी तब कहीं जाकर विद्याधर नामक ब्राह्मण से भेंट हुई । पूछने पर मालूम हुआ कि उनकी आयु चार कल्प की हो चुकी है और उन्होंने वेद-शास्त्र का परिपूर्ण अध्ययन किया है । शास्त्रों के श्लोक उन्हें ऐसे कंठस्थ थे, जैसे तोते को रामायण । किसी भी शंका का समाधान वे मजे से देते थे ।
काकभुशुण्डि जी को उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई, किन्तु उन्हें बड़ा आश्चर्य यह था कि इतने विद्वान् होने पर, भी विद्याधर को लोग आत्म-ज्ञानी क्यों नहीं कहते ।
यह जानने के लिए काकभुशुण्डि जी चुपचाप विद्याधर के पीछे घूमने लगे । विद्याधर एक दिन नीलगिरि पर्वत पर वन-विहार का आनंद ले रहे थे, तभी उन्हें कण्वंद की राजकन्या आती दिखाई दी । नारी के सौंदर्य से विमोहित विद्याधर प्रकृति के उन्मुक्त आनंद को भूल गए, कामावेश ने उन्हें इस तरह दीन कर दिया, जैसे मणिहीन सर्प । वे राजकन्या के पीछे इस तरह चल पड़े जैसे मृत पशु की हड्डियाँ चाटने के लिए कुत्ता । उस समय उन्हें न शास्त्र का ज्ञान रहा, न पुराण का । राजकन्या की उपेक्षा से भी उनको बोध नहीं हुआ । वे उसके पीछे चलते गए, सिपाहियों ने समझा यह कोई विक्षिप्त व्यक्ति है, इसलिए उन्हें पकड़कर बंदीगृह में डाल दिया।
कारागृह में पड़े विद्याधर से काकभुशुण्डि ने कहा-"मुनिवर! आप इतने विद्वान् होकर भी यह नहीं समझ सके कि आसक्ति ही आत्म-ज्ञान का बंधन है । यदि आप कामासक्त न होते तो आज यह दुर्दशा क्यों होती?"
सौजन्य-विनम्रता एवं कर्मठता-पराक्रम दौनों का समन्वित रूप जीवन को क्रियाशील बनाए रखने के लिएजरुरी है । यह युग्म परंपरा अन्योन्याश्रित है ।
दोनों ही आवश्यक
मंद वायु औधी से बोली-"दीदी, मैं जहाँ जाती हूँ लोग स्वागत करते हैं । आपका आभास पाते ही आवश्यक डरते-छिपते हैं । हमारा लक्ष्य तो लोकमंगल का है फिर क्यों इस रूप में सबको परेशान करती है ।"
आँधी बोली-"बहिन, तेरी उपयोगिता अपनी जगह है, मेरी अपनी । जगह-जगह सड़न, जहरीला धुँआ-गुबार आदि एकत्र हो जाते हैं । कहीं प्राणवायु की मात्रा कम हो जाती है। उनका निवारण तुम्हारी गति से संभव नहीं, इसीलिए कभी-कभी मैं सक्रिय हो जाती हूँ । तुम लोगों को तसल्ली देती हो, मैं घुटन पैदा करने वाले विकारों का निराकरण करती हूँ । लोकमंगल के लिए दोनों आवश्यक हैं। तुम्हारा सौजन्य भी और मेरा पराक्रम भी।"
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी बात के लिए सहमत किया था और यह प्रतिपादित कर दिखाया था किधर्म कायरों और भीरु जनों का नहीं, वीरों का अलंकार है ।
अर्जुन ने विचार बदला
कौरवों की अनीति को निरस्त करने के लिए जब समझाने से काम न चला तो सहन करने की अपेक्षा प्रतिकार का युद्ध लड़ना अनिवार्य हो गया । अर्जुन जोखिम में पड़ने की अपेक्षा निर्वाहका सरल उपाय ढूँढ़ने के पक्ष में थे । पर कृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश सुनाकर अनीति प्रतिकार के लिए संघर्ष करने के आदर्श पर सहमत कर लिया । सहन करने से आतताइयों के हौसले बढ़ते हैं और वे फिर व्यापक अनाचार पर उतरते हैं । इसलिए समय रहते उनका प्रतिरोध करना नीति की सुरक्षा जैसा पुण्य कार्य है । अर्जुन ने न्याय पक्ष के समर्थन हेतु संघर्ष का दर्शन समझा और पिछला विचार बदल कर 'करिष्ये वचनं तव' कहते हुए महाभारत का युद्ध लडा ।
यही तथ्य हमारे जन-जीवन में उभरने आवश्यक हैं । स्वाधीनता संग्राम की सफलता के पीछे यही तथ्य आधार भूत थे।
गोरों को सबक सिखाया
जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे रेल का सफ्त कर रहे थे । गाड़ी देर तक खड़ी होती थी सो वे नीचे उतर कर एक मित्र से बातें करने लगे । इतने में दो गोरे आए और रानाडे का सामान प्लेटफार्म पर फेंककर सीट पर कब्जा कर लिया। उन दिनों गोरों का अहंकार ऐसा ही बढ़ा-चढ़ा था ।
रानाडे ने विनम्रता की पराकाष्ठा पर भी यह अनीति देखी तो रेलवे अधिकारियों तथा पुलिस को तुरंत बुला लिया । प्रधान न्यायाधीश की सीट इस तरह हथियाने के लिए गोरों की भर्त्सना हुई और वह दुम दबा कर भाग गए ।सज्जनता अपनी जगह है किन्तु अनीति से जूझने हेतु पराक्रम का माद्दा भी अंदर होना चाहिए ।
टीका-प्रंभात की पुण्यवेला में नित्य चलने वाला संत-समागम नैमिषारण्य के पुनीत वातावरण को और भी अधिक प्रकाश-प्रखरता से भर रहा था। आगन्तुक उदार धर्मात्मा, मुनि-मनीषी इस ज्ञानगंगा का नित्य अवगाहन करते हुए भ्रांति की थकान दूर हो जाने से अतीव प्रसन्नता अनुभव रहे थे। प्रंसग गतिशील था। धर्म-धारणा का अवलम्बन करके किस प्रकार सर्वसाधारण से महामानव बनने का सुयोग मिल सकता है, किस प्रकार सामान्य मनुष्य कलेवर में रहते हुए भी देव जीवन का आनंद लिया जा सकता है, इसका मार्गदर्शन इससत्र का विशेष विषय था । आज के प्रश्नकर्त्ता आरुणि ने विनयावनत होकर सत्राध्यक्ष से पूछा-हे भगवन्! धर्म धारणा के चतुर्थ युग्म 'सौजन्य और पराक्रम' के संबंध में प्रकाश डालने का अनुग्रह करें । बताएँ कि उनका परस्पर क्या संबंध है और उनको धर्म का आधार क्यों कहा गया है?॥१-९॥
आश्वलायन उवाच-
उपस्थिता जना: सर्वे शृण्वन्त्ववदधत्वपि। धर्म: शब्दान्तरेणाऽत्र मन्तव्य: शुभकर्मता॥१०॥ कर्तव्यमिदमेवास्ति मानवानां तथैव च। आत्मपूर्णत्यमेवाथ विश्वकल्याणमप्युत॥११॥ उभयं प्रयोजनं सिद्धयेदनेन विधिना स्वत:। सादर्शां दृढतां प्राप्तुमर्ज्याश्च क्षमता: शूभाः॥१२॥ एतासु प्रथमं युक्तं स्नेहसौजन्यमेव तु । तत्परत्वं समग्रं च द्वितीयमभिमन्यताम्॥१३॥
टीका-आश्वलायन ने कहा-प्रश्नकर्त्ता समेत सभी उपीस्थतजन! ध्यान से सुनें। धर्म को दूसरे शब्दों में सत्कर्म समझें । यही मनुष्य का कर्तव्य है । आत्मिक पूर्णता और विश्व कल्याण का उभयपक्षीय प्रयोजन भी इसी से पूर्ण होता है । इस आदर्शवादी दृढ़ता को प्राप्त करने के लिए कुछ प्रमुख क्षमताएँ अनिवार्य रूप से अर्जित करनी होती हैं। इनमें एक है-स्नेह-सौजन्य और दूसरी है-समग्र तत्परता ॥१०-१३॥
एका सज्जनता प्रोक्ता तथा कर्मठताऽपरा । उभयोरपि सम्बन्ध: कथ्यते च पराक्रम: ॥१४॥ पराक्रमश्च देवानां बलविक्रम उच्यते । आधारमिममाश्रित्य स्थितिमुच्चां भजन्ति ते ॥१५॥ सर्वेषां प्राणिनां ते च कल्याणे मानवा: सदा । जायन्ते निरता: श्रेयो विन्दन्त्यपि च सन्ततम् ॥१६॥
टीका-सज्जनता और कर्मठता यह दोनों जब मिलते हैं, तो उनका समन्वय पराक्रम कहलाता है। इसी आधार पर वे उच्चतम स्थिति तक पहुँचते है, सबका कल्याण करने में निरत रहते हैं और श्रेय प्राप्त करतेहैं॥-१४-१६॥
अर्थ-धर्म की परिधि असीम है। परिभाषा सरल नहीं, अपितु बहुमुखी होने के कारण किंचित्-क्लिष्ट भी । धर्म कर्तव्यनिष्ठा का पर्यायवाची माना जा सकता है । श्रेष्ठता से अभिपूरित कार्यों में जो निरत हो, वही सच्चा धर्म कहा जा सकता है । मात्र अपनी मुक्ति नहीं, समष्टिगत हित की बात सोचने वाला ही प्रगति के पथ पर बढ़ सकता है । ऋषि श्रेष्ठ यहाँ धर्म के चौथे युग्म के रूप में पारस्परिक सेठ-सद्भाव एवं सर्वांगपूर्ण तत्परता की चर्चा कर रहे हैं। दोनों ही एक दूसरे के पूरक एवं आदर्श के पथ पर चलने वालों के लिए अनिवार्य हैं । विनम्रता जितनी अनिवार्य है, उद्देश्य के प्रति लगन-दृढनिष्ठा भी जीवन में उतना ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है । ये दोनों जब मिलते हैं तब प्रखर-पराक्रम जन्म लेता है। इस प्रकार दृढ़ता से युक्त विनम्रता एवं जागरूकता का समनय उस गुण को जन्म देता है, जो जीवन व्यापार चलाने एवं ऊँचा उठाने के लिए सभी को अभीष्ट है ।
आत्मवत् सर्वभूतेषु
महावीर स्वामी उन दिनों जंगल में घोर तप कर रहे थे । जंगल के ग्वाले उन्हें समाधिस्थ देख उनका उपहास किया करते थे । कुछ दुष्ट तो लांछन लगाकर उन्हें तंग भी करने लगे । महावीर इन व्यवधानों से विचलित न हो तपस्या करते रहे।
तपस्या में विघ्न डालने की बात पास के व्यक्तियों तक पहुँची, वहाँ के धनिक लोग महावीर के पास आए और कहने लगे-"देव, आपको ये नादान व्यर्थ कष्ट देकर असुविधा में डाल रहे है, हमारा निवेदन है, हम आपके लिए एक भवन यहाँ बनवा दें तथा ऐसी सुरक्षा व्यवस्था करा दें, जिससे आप निश्चिंत हो तपस्या-साधना करते रहें।"
महावीर बोले-"ऐसा न कहें तात! यह तो अपने है । बच्चे प्यार से भी तो मुँह नोचने लगते हैं, इससे कोई अभिभावक उन्हें गोद में लेना तो बंद नहीं कर देते ।"
"इतनी-सी बात के लिए जो धन अनाश्रितों के काम आ सकता है, वह अपने लिए खर्च कराने का अभिशाप मैं नहीं ले सकता ।" उन्होंने भवन बनवाने से इन्कार कर दिया । ग्वालों को यह समाचार मिला तो वे अभिभूत होकर महावीर के चरणों में गिर पड़े ।
धनिकों के मुँह से इतना ही निकला-" यहीं है सच्ची महानता जो आज देखने को मिल रही है ।"
जिनके मन में समाज के लिए प्यार और कर्तव्यनिष्ठा जागती हैं, वे अपने स्वार्थ की कल्पना नहीं करते । स्वतंत्रता संग्राम के सेनापतियों ने पग-पग पर उसके उदाहरण प्रस्तुत किये है।
शहीद डा मथुरा सिंह
भारत में क्रांतिकारी दल अपने पैर जमा रहा था । तब तक कोई जन आंदोलन उभर न सका था ।
क्रांतिकारियों ने कनाडा के 'कामा गाटा मारू' बंदरगाह से हथियारों से लैस एक जहाज भारत के लिए रवाना किया, उसमें देश के मूर्धन्य क्रांतिकारी भी थे । जिनमें झेलम जिले के डॉ० मथुरा सिंह को बडी जिम्मेदारियों सौपी गई थीं । यदि वह योजना सफल हो जाती तो अंग्रेजों को बहुत पहले ही बिस्तर गोल करने पड़ते ।
क्रांतिकारियों में से ही एक पुलिस का मुखबिर बन गया । लंबे समय से गुलामी ने देश का नैतिक स्तर जर्जर कर दिया था। इसी कारण क्रांतिकारी योजनाएँ असफल होती रहीं ।
जहाज पकड़ा गया । उस पर सवार लोग भी। डॉ० मथुरा सिंह रूस भागने की तैयारी में थे कि पुलिस ने उन्हें भी पकड़ लिया और उन्हें जीवन से हाथ धोना पड़ा ।
समुद्र में कूद गए
वीर सावरकर ने भारत माता के बंधन काटने का निश्चय किया । उनने ऐसे ढेरों काम किए जिससे अंग्रेज सरकार का तख्ता हिलने लगा । उन पर ढेरों मुकदमे चले और फाँसी की सजा सुनाई गई । वे इंग्लैंड में थे। अत: यह निश्चय हुआ कि फाँसी भारत में दी जाय, ताकि वहाँ के लोगों को सबक मिले । वीर सावरकर को जहाज से लाया जा रहा था । उन्होंने विचार किया, कहीं देशवासी भयभीत न हो जायँ । सो उन्होंने चलते जहाज से ही समुद्र में छलांग लगा दी । इस शौर्यपूर्ण साहस ने देश में आग भड़का दी । सैकड़ों सावरकर पैदा कर दिए । फिर से मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई ।
पूरे ३० वर्ष उन्हें काले पानी रहना पड़ा। वे खतरनाक समझे जाते थे, इसलिए बंधन कड़े रखे गए । भारत होने पर वे जेल से स्वतंत्र छूटे।
लौटने पर उनका उत्साह तनिक भी शिथिल न हुआ । देश में लौटकर स्वतंत्रता को सार्थक बनाने के लिए वेशेष जीवन लगातार काम करते रहे । ऐसे देशभक्तों के कारण ही भारत माता धन्य हुईं ।
अभाव का सुख
एक संत थे । जो पाते उसे अपने से अधिक जरूरतमंदों को बाँट देते । इस उदारता से उन्हें कई बार स्वयं भूखा रहना पड़ता ।
कई दिन से भोजन न मिला था । श्मशान में उनने कुछ आटे के पिंड पड़े देखे और बचा हुआ ईंधन बिखरा पाया । सोचने लगे, इसी से रोटी पकाकर अपना पेट भर लें ।
शिव-पार्वती उधर से निकले । पार्वती जी ने भक्त की ऐसी दरिद्रता देखकर भगवान से कहा-"आप भक्तों पर दया नहीं करते? उनके अभाव दूर क्यों नहीं करते?" शिवजी ने कहा-"भक्तजन अभावग्रस्त, दरिद्र, कंगाल नहीं होते । वे उदारतावश दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपना वैभव लुटाते रहते हैं । संदेह हो तो इस संत से भी माँगकर देखो । वह भूखा होने पर भी अपनी रोटियाँ दान कर देगा ।"
परीक्षा की बात ठहरी । पार्वती जी वृद्धा का वेश बनाकर पहुँचीं और अपनी तथा पति की भूख बुझाने के लिए रोटी माँगी ।
पिंड एकत्रित करके चार रोटियाँ बनाई थीं। संत ने दो रोटी वृद्धा को दे दीं और दो से अपनी उदर-ज्वाला शांत कर ली, ताकि जीवित रहा जा सके ।
शिव-पार्वती ने सच्चे भक्त की निष्ठा देखी और बहुत प्रसन्न हुए । प्रकट होकर वर माँगने के लिए कहने लगे ।
भक्त ने कहा-"ऐसा वर दीजिए कि सुपात्र याचक सदा मेरे सामने आते रहें और अपना पेट काटकर भी उन्हेंकुछ देने का संतोष लाभ प्राप्त करता रहूँ।"
पार्वतीजी की आँखें छलक आयीं । बोलीं-"ऐसे भक्त का अभाव दूर करना कठिन है । उसे वे अपनी गौरव जो मानते है ।"
यही त्याग युगों-युगों तक इतिहास को प्रकाश देता रहता है । आगे आने वाली हर पीढ़ी से महापुरुष उत्पन्नकरते रहने का उत्तरदायित्व यही सौजन्य पूर्ण करता है । हरिश्चंद्र का सर्वस्व त्याग
विश्वामित्र ने युग परिवर्तन का महान कार्य अपने कंधों पर लिया था । साधन जुटाने की जिम्मेदारी उनके शिष्य हरिश्चंद्र ने उठायी । आवश्यकता पूरी करते रहने में उनने अपना कोष और वैभव लगा दिया । इतने से भी काम न चला तो उनने अपने को दास रूप में बेचकर उस आवश्यकता की पूर्ति की। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को लोक कल्याण के लिए विसर्जित करने में उनने दु:खी होने के स्थान पर प्रसन्नता अनुभव की। हरिश्चंद्र को उदाहरण के रूप में नाटक में देखकर बालक गाँधी-महात्मा गाँधी के रूप में परिणत हुए । ऐसी ही प्रेरणा से उनका चरित्र न जाने कितनों को आदर्शवादी बना चुका होगा और बनाता रहेगा ।
प्रश्न प्रसिद्धि और प्रखरता का ही नहीं। महापुरुष बिना किसी यश की कामना के विशुद्ध कर्तव्यनिष्ठा के रूप में यह दावित्व निबाहते हैं । उन्हें इस बात का गुमान भी नहीं होता कि प्रतिफल कितना निकलेगा । वे सच्चे अर्थों में गीता के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' का अनुपालन करते हे । किसी भी जातीय जीवन में महान परंपराएँ इसी तरह उगती और विकसित होती हैं ।
अपूर्ण साधना
राज्य आमात्य जनश्रुति ने महर्षि वशिष्ठ से पूछा-"भगवान! मैं पुण्यात्मा हूँ। धर्म के नियमों पर चलता हूँ । उपासना में भी चूक नहीं करता, फिर भी न मेरा कहीं सम्मान होता है और न भीतरका संतोष मिलता है ।"
वशिष्ठ ने कहा-"वत्स! सदाचार और साधन की महत्ता है । किन्तु वे दोनों ही स्नेह और सेवा के बिना अपूर्ण रहते हैं। तुम उन दो साधनाओं को भी अपनाकर अपूर्णता दूर करो और समग्र प्रतिफल प्राप्त करो ।"
योग और तप से सिद्धियाँ और सामर्थ्य तो मिल जायेगी, परंतु उपरोक्त सुसंस्कारिता के अभाव में वे अहितकर ही सिद्ध होगी । पुराण इस बात के अद्यावधि साक्षी हैं ।
भस्मासुर की दुर्गति पर देवताओं ने जब प्रजापति से पूछा कि ऐसी दुर्गति क्यों हुई? उन्होंने कहा कि पराक्रम का प्रतिफल तो मिलता है, पर उसके सहारे लाभ मात्र सज्जन, दूरदर्शी, चरित्रवान ही उठा पाते है ।
कहाँ सौजन्य अपनाया जाए, कहाँ शौर्य-इसे समझना बहुत आवश्यक है, अन्यथा धर्मधारणा के यथार्ध लाभप्राप्त करना कठिन हो जायेगा । ऐसे व्यक्ति या तो संसार से रखते हैं या साधना से । दोनों ही हेय परिस्थितियाँ हैं । दोनों में पारस्परिक सामंजस्य अत्यंत अनिवार्य है ।
साधक की दुर्दशा
काकभुशुण्डि जी के मन में एक बार यह जानने की इच्छा हुई कि क्या संसार में ऐसा भी कोई दीर्घजीवी व्यक्ति है, जो विद्वान भी हो और उसे आत्मज्ञान न हुआ हो? इस बात का पता लगाने के लिए वे महर्षि वशिष्ठ से आज्ञा लेकर निकल पड़े ।
ग्राम ढूँढ़ा, नगर ढूँढे़, वन और कंदराओं की खाक छानी तब कहीं जाकर विद्याधर नामक ब्राह्मण से भेंट हुई । पूछने पर मालूम हुआ कि उनकी आयु चार कल्प की हो चुकी है और उन्होंने वेद-शास्त्र का परिपूर्ण अध्ययन किया है । शास्त्रों के श्लोक उन्हें ऐसे कंठस्थ थे, जैसे तोते को रामायण । किसी भी शंका का समाधान वे मजे से देते थे ।
काकभुशुण्डि जी को उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई, किन्तु उन्हें बड़ा आश्चर्य यह था कि इतने विद्वान् होने पर, भी विद्याधर को लोग आत्म-ज्ञानी क्यों नहीं कहते ।
यह जानने के लिए काकभुशुण्डि जी चुपचाप विद्याधर के पीछे घूमने लगे । विद्याधर एक दिन नीलगिरि पर्वत पर वन-विहार का आनंद ले रहे थे, तभी उन्हें कण्वंद की राजकन्या आती दिखाई दी । नारी के सौंदर्य से विमोहित विद्याधर प्रकृति के उन्मुक्त आनंद को भूल गए, कामावेश ने उन्हें इस तरह दीन कर दिया, जैसे मणिहीन सर्प । वे राजकन्या के पीछे इस तरह चल पड़े जैसे मृत पशु की हड्डियाँ चाटने के लिए कुत्ता । उस समय उन्हें न शास्त्र का ज्ञान रहा, न पुराण का । राजकन्या की उपेक्षा से भी उनको बोध नहीं हुआ । वे उसके पीछे चलते गए, सिपाहियों ने समझा यह कोई विक्षिप्त व्यक्ति है, इसलिए उन्हें पकड़कर बंदीगृह में डाल दिया।
कारागृह में पड़े विद्याधर से काकभुशुण्डि ने कहा-"मुनिवर! आप इतने विद्वान् होकर भी यह नहीं समझ सके कि आसक्ति ही आत्म-ज्ञान का बंधन है । यदि आप कामासक्त न होते तो आज यह दुर्दशा क्यों होती?"
सौजन्य-विनम्रता एवं कर्मठता-पराक्रम दौनों का समन्वित रूप जीवन को क्रियाशील बनाए रखने के लिएजरुरी है । यह युग्म परंपरा अन्योन्याश्रित है ।
दोनों ही आवश्यक
मंद वायु औधी से बोली-"दीदी, मैं जहाँ जाती हूँ लोग स्वागत करते हैं । आपका आभास पाते ही आवश्यक डरते-छिपते हैं । हमारा लक्ष्य तो लोकमंगल का है फिर क्यों इस रूप में सबको परेशान करती है ।"
आँधी बोली-"बहिन, तेरी उपयोगिता अपनी जगह है, मेरी अपनी । जगह-जगह सड़न, जहरीला धुँआ-गुबार आदि एकत्र हो जाते हैं । कहीं प्राणवायु की मात्रा कम हो जाती है। उनका निवारण तुम्हारी गति से संभव नहीं, इसीलिए कभी-कभी मैं सक्रिय हो जाती हूँ । तुम लोगों को तसल्ली देती हो, मैं घुटन पैदा करने वाले विकारों का निराकरण करती हूँ । लोकमंगल के लिए दोनों आवश्यक हैं। तुम्हारा सौजन्य भी और मेरा पराक्रम भी।"
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी बात के लिए सहमत किया था और यह प्रतिपादित कर दिखाया था किधर्म कायरों और भीरु जनों का नहीं, वीरों का अलंकार है ।
अर्जुन ने विचार बदला
कौरवों की अनीति को निरस्त करने के लिए जब समझाने से काम न चला तो सहन करने की अपेक्षा प्रतिकार का युद्ध लड़ना अनिवार्य हो गया । अर्जुन जोखिम में पड़ने की अपेक्षा निर्वाहका सरल उपाय ढूँढ़ने के पक्ष में थे । पर कृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश सुनाकर अनीति प्रतिकार के लिए संघर्ष करने के आदर्श पर सहमत कर लिया । सहन करने से आतताइयों के हौसले बढ़ते हैं और वे फिर व्यापक अनाचार पर उतरते हैं । इसलिए समय रहते उनका प्रतिरोध करना नीति की सुरक्षा जैसा पुण्य कार्य है । अर्जुन ने न्याय पक्ष के समर्थन हेतु संघर्ष का दर्शन समझा और पिछला विचार बदल कर 'करिष्ये वचनं तव' कहते हुए महाभारत का युद्ध लडा ।
यही तथ्य हमारे जन-जीवन में उभरने आवश्यक हैं । स्वाधीनता संग्राम की सफलता के पीछे यही तथ्य आधार भूत थे।
गोरों को सबक सिखाया
जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे रेल का सफ्त कर रहे थे । गाड़ी देर तक खड़ी होती थी सो वे नीचे उतर कर एक मित्र से बातें करने लगे । इतने में दो गोरे आए और रानाडे का सामान प्लेटफार्म पर फेंककर सीट पर कब्जा कर लिया। उन दिनों गोरों का अहंकार ऐसा ही बढ़ा-चढ़ा था ।
रानाडे ने विनम्रता की पराकाष्ठा पर भी यह अनीति देखी तो रेलवे अधिकारियों तथा पुलिस को तुरंत बुला लिया । प्रधान न्यायाधीश की सीट इस तरह हथियाने के लिए गोरों की भर्त्सना हुई और वह दुम दबा कर भाग गए ।सज्जनता अपनी जगह है किन्तु अनीति से जूझने हेतु पराक्रम का माद्दा भी अंदर होना चाहिए ।