Books - प्रज्ञा पुराण भाग-2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-5
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
एतेषां तुष्टये सर्वं न्यूनमेववार्जित नृणाम् । लोभादिकं तु पूत्यैं स्यादलं नाऽसीमितं कृतम् ।। ४९ ।। घृतेन दीप्यते वह्निर्मोहान्धस्तेन मानव: । कर्तव्यपालनं नैव चिन्तयत्येष चात्मन: ।। ५० ।। लोभातिरिक्तं नैवायं किञ्चित् कुत्राऽपि पश्यति । कर्तव्यनिश्चये बुद्धिनैंवास्यैवं प्रवर्तते ।। ५१ ।। तस्य पालनहेतोश्च साहसोत्साहयो: कथम् । भाय: स उदयं गच्छेद् विनाऽऽभ्यां सिद्धिरेव का ।। ५२ ।।
टीका-इनकी तुष्टि के लिए जो कुछ भी जुटाया जायेगा, वह कम पड़ जायेगा । लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए कितना ही कुछ किया जाय, वह कम ही पड़ता जायेगा । घृत डालने से आग और भड़कती है । ऐसी दशा में मोहांध व्यक्ति कर्तव्यपालन की बात सोच ही नहीं पाता । उसे लालच के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं । ऐसी दशा में कर्तव्य निर्धारण में उसकी बुद्धि काम ही नहीं देती । उसका पालन करने के लिए उत्साह और साहस जगेगा ही कैंसे? और बिना कर्तव्यपालन के कोई लक्ष्य सिद्ध नहीं हो सकेगा ।। ४९-५२ ।।
अर्थ-वासना से मोह, तृष्णा से लोभ और अहंता से अहंकार उसी प्रकार बढ़ते हैं जैसे घी या ईंधन से अग्नि । जब ये दोष बढ़ जाते हैं तो मनुष्य की सोचने-समझने की शक्ति क्षीण और नष्ट हो जाती है ।
उनका सम्मोहन मनुष्य पर छा जाता हैं । गीता में लिखा हैं-सम्मोहित व्यक्ति की स्मृति भ्रमित हो जाती है । स्मृति क्षम होते ही बुद्धि की क्षमता नष्ट हो जाती है । बुद्धि नाश के साथ मनुष्य भी नष्ट हो जाता है ।
यहाँ ऋषि समझा रहे हैं कि कर्तव्य के प्रति और साहस जागे तब कर्तव्य सधता है । पर दोषों से सम्मोहित व्यक्ति तो कर्तव्य-अकर्तव्य सोच ही नहीं पाता । उसे निभाने की स्थिति तो दूर की बात है ।
आदमी लदय सिद्धि तो चाहता है, पर लक्ष्य तक जाने का मार्ग कर्तव्यपालन से ही बना है । उस पर चले बिना लक्ष्य पर कैसे पहुँचे?
सूर्पणखा को क्या हो गया
सूर्पणखा रावण जैसे प्रतापी राजा, पुलस्त्य के नाती की बहन थी । अपने आचरण के स्तर और गौरव को समझना यों कठिन न था । परंतु वासना ने उसके सोचने की शक्ति हर ली । सीता के होते हुए भी राम से संबंध स्थापित करना चाहा । उनके टालने-बहलाने से भी न समझ सकी कि यह इस प्रकार के व्यक्ति नहीं है । निर्लज्जता बढ़ाती ही गयी और नाक कटा बैठी ।
उसके बाद अहंता ने शांत न बैठने दिया। खरदूषण वध से भी वह सीख न ले सकी और उसी आग में रावण को भी सपरिवार झोंक दिया ।
उन्हें हारना ही था
महाभारत समाप्त हुआ । पुत्रों के वियोग में दु:खी धृतराष्ट्र ने महात्मा विदुर को बुलाया । उनके साथ सत्संग में दु:ख हल्का करने लगे । चर्चा के बीच धृतराष्ट्र ने पूछा-''विदुर जी ! हमारे पक्ष का एक योद्धा इतना सक्षम था कि सेनापति बनने पर उसने पांडवों के छक्के छुडा दिए । यह जीवन-मरण का युद्ध है, यह सबको पता था । यह सोचकर सेनापति बनने पर एक-एक करके अपना पराक्रम प्रकट करने की अपेक्षा कर्तव्य बुद्धि से एक साथ पराक्रम प्रकट करते तो क्या युद्ध जीत न जाते?''
विदुर जी बोले-''राजन ! आप ठीक कहते हैं । वे जीत सकते थे यदि अपने कर्तव्य को ठीक प्रकार समझ और अपना पाते । परंतु अधिक यश अकेले बटोर लेने की तृष्णा तथा अपने को सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने की अहंता ने वह कर्तव्य सोचने, उसे निभाने की उमंग पैदा करने का अवसर ही नहीं दिया ।''
थोड़ा रुक कर विदुर जी बोले-''पर राजन, उनके इतना न सोच पाने और न जीते पाने का दु:ख न करें । उन्हें तो हारना ही था । कर्तव्य समझे बिना जीत का लक्ष्य नहीं मिल सकता, यह भी ठीक है और कर्तव्य को महत्व दे पाते तो युद्ध का प्रश्न ही न उठता । कर्तव्य के नाते भाइयों का हक देंने से उन्हें किसने रोका था । स्वयं युग पुरुष श्रीकृष्ण समझाने आये थे । पर उस समय भी तृष्णा ने पाँच गाँव भी न छोड़े , अहंता ने न पितामह की सुनी, न युग पुरुष की । जिन वृत्तियों नें युद्ध पैदा किया, उन्हीं ने हरा भी दिया ।''
डाकू की सीख
तृष्णा में अंधे होकर दोनों हाथों से लूट-खसोट करने वाले कभी सम्मान के पात्र नहीं बनते । सिकंदर के हमले से खिन्न होकर मैसीटोनिया के लोगों ने समुद्री डाकू की तरह काम करना और सिकंदर के जहाज लूटना, डुबोना आरंभ कर दिया ।
पकड़े हुए डाकुओं के सरदार को सिकंदर के सामने पेश किया गया । उसने मृत्युदंड निश्चित समझते हुए भी निर्भीकतापूर्वक कहा-''आप बड़े डाकू हैं, हम छोटे । आप बुरे उद्देश्य के लिए हमला करने के कारण किसी भले आदमी की दृष्टि में सम्मानास्पद नहीं हो सकते ।'' सिकंदर को संधि करनी पड़ी और आक्रमण बंद कर दिया ।
मुर्दे की खोपड़ी से तत्त्वज्ञान का पाठ
दार्शनिक च्चाँगत्से को रात्रि के समय कब्रिस्तान में होकर गुजरते समय पैर में ठोकर लगी । टटोल कर देखा तो किसी मुर्दे की खोपड़ी थी । उठाकर झोली में रख लिया और सदा साथ रखने लगे । शिष्यों ने इस पर उनसे पूछा-''यह कितनी गंदी और कुरूप है इसे आप साथक्यों रखते हैं ?''
च्चाँगत्से ने उत्तर दिया-''यह मेरे दिमाग का तनाव दूर करने की अच्छी दवा है । जब अहंकार का आवेश चढ़ता है, लालच सताता है तो यह मुझे अपने कर्तव्य का बोध कराती है । मैं इस खोपड़ी को गौर से देखता हूँ । कल परसों अपनी भी ऐसी ही दुर्गति होनी है तो अहंकार और लालच किसका किया जाय ? क्यों न सतत कर्म निष्ठा में जुटा रहा जाय ।''
वे मृत्यु को स्मरण रखना, अनुचित आवेशों के समय का उपयुक्त उपचार बताया करते थे और इसके लिए मुर्दे की खोपड़ी का ध्यान करने की सलाह दिया करते थे । खुद तो उसे साथ रखते ही थे ।
कर्तव्यपालनं नूनं गौरवं महतां महत् । तिनैवाप्नोति सन्तोष: पुरुषो दुर्लभं परम् ।। ५३ ।। कर्मयोगो मत: सर्वसुलभ: सर्वसम्मत: । कल्याणकारकोऽत्यर्थं यत्र चैकमतं नृणाम् ।। ५४ ।। कर्तथ्यपालकान् मर्त्यान् शूरान् धर्मरतास्तथा । भक्तान् वदन्ति कर्तव्ये सार्थक्यं जीवनस्य तु ।। ५५ ।। व्यवस्था प्रगतिश्चात्र विद्यन्ते सुप्रसन्नता । दायित्वमुह्यते कर्मपालनाधारमाश्रितम् ।। ५६ ।। मनुष्यश्चदृशो याति गौरवं दर्शयत्यपि । मार्गं स्वयं मनुष्येभ्योऽसंख्येभ्यो धन्यजीवित: ।। ५७ ।।
टीका-कर्तव्यपालन ही सबसे बड़ा गौरव है। संतोष उसी से मिलता है । कर्मयोग को सर्वसुलभ, सर्वमान्य और सर्वोपरि कल्याणकारक गया है । इसमें सबका एक मत है । कर्तव्य कर्म करने वाले माना शूरवीर, धर्मनिष्ठ और ईश्वर भक्त माने जाते हैं । जीवन की सार्थकता भी कर्तव्यपालन में है । प्रसन्नता, व्यवस्था और प्रगति भी इसी में हैं । उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर्तव्यपालन के आधार पर ही बन पड़ता है । ऐसा ही स्वनामधन्य मनुष्य गौरवशाली बनता और असंख्यों का मार्गदर्शन करता है ।। ५३-५७।।
अर्थ-कर्तव्य के लिए मनुष्य के मन में उत्साह क्यों उभरे ? इस मनोवैज्ञानिक समस्या का हल ऋषि जानते हैं । व्यक्ति को उत्साह आता है उपलब्धियों के लिए । ऋषि स्पष्ट करते हैं कि जीवन की महानतम उपलब्धियाँ कर्तव्य के आधार पर मिलती हैं, जैसे- गौरव जिसे पाने के लिए मनुष्य सदा लालायित रहते हैं और शास्त्र भी उसे पाने योग्य कहते हैं ।
संतोष, जिसे जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि कहा है । बड़ी से बड़ी चीज या पद पाकर भी यदि संतोष अनुभव न हुआ तो वह निरर्थक सी ही लगती है । संतोष, प्यार के दो शब्दों में भी मिला तो उस पर राज्य न्योछाबर हो जाते हैं ।
शूरवीर, धर्मनिष्ठ और ईश्वर भक्त कहलाना असामान्य गौरव माना जाता है । इसका भी आधार कर्तव्य ही है ।
जीवन की सार्थकता तथा दूसरों का हित कर सकने का पुण्य-परमार्थ, यह भी ऐसी उपलब्धियाँ हैं, जिन्हें छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकट बड़े से बड़े महापुरुष तक महत्व देते हैं ।
यश भी पुण्य के आधार पर मिलता है । रामचरित मानस में लिखा है-'पावन यश कि पुण्य बिनु होई' पुण्य कुछ और नहीं, उच्चस्तरीय कर्तव्यों का फलितार्थ है ।
इन सब आधारों, तथ्यों को जो ध्यान में रखते हैं, उनमें कर्तव्यों के प्रति उत्साह, साहस और उमंग रहती है; वे कर्तव्य समझने में या उसके परिपालन में कभी नहीं चूकते ।
कवि माघ आग में कूदे
धारा नगरी में आग लग गई । दो सुकुमार बच्चे आग की लपट में घिर गए । महाराज भोज चिल्लाये जो इन बच्चो को बचायेगा उसे पुरस्कार दिया जायेगा । भीड़ में से कोई आगे नहीं बढ़ रहा था । तभी एक ओर से एक व्यक्ति आया और आग में घुस गया । दोनों बच्चों को निकाल तो लाया पर स्वयं बुरी तरह जल गया । उपचार के बाद पहचान में आया कि वह तो महान् उदार और दयालु कवि माघ थे। भोज ने उन्हें शीश झुकाते हुए कहा-'' कविवर आज तो तुमने काव्य से भी अधिक अपनी कर्तव्य परायणता से हम सबको जीत लिया ।''
कवि बोले-''महाराज! आप सबका स्नेह सम्मान बहुमूल्य है, परंतु आज मैंने अपना कर्तव्य पूर्ण करके अपनी अंतरात्मा का स्नेह सम्मान पा लिया है । इस आत्म संतोष के आगे सीमित चमड़ी की जलन कोई महत्व नहीं रखती।
ताना जी का आत्मोत्सर्ग
तानाजी के पुत्र का विवाह था, तभी कोंडण दुर्ग के लिए युद्ध की सूचना आ पहुँची । तानाजी ने कहा-''अपने देश और समाज के आगे व्यक्तिगत स्वार्थ तुच्छ हैं । ''वह युद्ध के लिए चल पडे़ । युद्ध में जीत उन्हीं की हुई; पर उनका शरीर काम आ गया । उनकी स्मृति में ही इस दुर्ग कानाम सिंहगढ़ रखा गया ।
शिवाजी ने कहा-''तानाजी जैसी जीवन की सार्थकता विरलों को मिलती है ।''
थामस स्कॉट अपनी नाव न्यूयॉर्क में नार्थ नदी में चला रहा था । इसी समय उसे नजदीक ही उसे एक दूसरी नाव डूबती दिखाई दी । उसमें स्त्री-बच्चों की भरमार थी ।
थामस-हाथ टूटा हिम्मत नहीं
थमास अपनी नाव को बढ़ा कर डूबती नाव के पास ले गया, देखा कि उसकी तली में एक बड़ा छेद हो गया है और पानी भरता जा रहा है । बचाव का और कोई उपाय न देखकर वह उछल कर डूबती नाव पर चढ़ गया और छेद में अपना एक हाथ ठूँस कर बढ़ते पानी को रोक दिया । किसी प्रकार नाव किनोर लगी और उस पर चढ़ी सवारियाँ बच गयीं।
थामस का एक हाथ हिमवत ठंडे जल के कारण क्षतिग्रस्त हो पूरी तरह टूट गया । वह अपार कष्ट सहता हुआ हाथ को तब तक छेद में ही लगाए रहा, जब तक कि नाव किनारे तक पहुँच न गयी ।
राजा दिलीप और सिंह
राजा दिलीप उन दिनों गुरु वशिष्ट के आश्रम में रह रहे थे । उन्हें आश्रम की गायें चराने का काम सौंपा गया । वे उस छोटे काम को भी बड़ा मानते थे और तत्परतापूर्वक सौंपी जिम्मेदारी निबाहते ।
एक दिन एक सिंह ने गुरु की नंदिनी गाय को दबोच लिया । राजा के धनुष वाण काम नहीं आये । अब किया क्या जाय? गुरु की सौंपी जिम्मेदारी कैसे निभे? दिलीप ने अपने आप को सिंह के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया, ताकि वह गाय को छोड़ कर उन्हें खा ले । उठाये उत्तरदायित्व को न निभाने का कलंक ओढ़ने की, अपेक्षा उन्हें अपना शरीर देना अधिक श्रेयस्कर लगा ।
इस आदर्शवादी साहसिकता से सिंह भी सहम गया । गाय भी बच गयी और उत्तरदायित्व निर्वाह की परीक्षा में सफल होने के कारण गुरुदेव का अभीष्ट आशीर्वाद भी मिला ।
देशभक्त छत्रसाल
बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल आरंभ में मुगलों से स्थानीय और क्षेत्रीय लड़ाइयाँ लड़ते रहे । पर पीछे शिवाजी के परामर्श से उनने अपना ध्येय भारत को स्वतंत्र बनाना निश्चित कर लिया । राणा प्रताप भी यही कर रहे थे । इन तीनों शक्तियों के मिल जाने और योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाने से दिल्ली दरबार की जड़ें हिल गई ।
इतना ही नहीं इन तीनों ने अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में हिन्दू धर्म के प्रति गहरी आस्थाएँ उत्पन्न करने और समूचे भारत को अपना देश समझने की भावना को भी पूरी तरह उभारा ।
छत्रसाल अच्छे कवि भी थे । उनका व्यक्तिगत चरित्र अन्य सामंतों जैसा नहीं था । उनने बुढ़ापे में वानप्रस्थ लिया और जन जागरण के कार्य में जुटे । किन्तु परिस्थितियों के निमंत्रण पर उन्हें ८६ वर्ष की आयु में फिर तलवार पकड़नी पड़ी ।
छत्रसाल की गिनती सीमित क्षेत्र में लड़ने-मरने वाले सामंतों में नहीं की गई वरन् उन्हें देश के महान संरक्षकों की श्रेणी में गिना गया ।
पुत्र मोह नहीं न्याय प्रधान
अंग्रेजी जमाने में बैजनाथ एक बड़े ही न्यायनिष्ठ जज हुए हैं । उन्होंने किसी की भी सिफारिश या रिश्वत की ओर आँख उठाकर नहीं देखा ।
एक बार उनका सगा दामाद एक फौजदारी के कल्ल के केस में फँस गया । उनने सरकार से प्रार्थना की कि मामला उनके सगे-संबंधी का है, इसलिए केस दूसरी किसी अदालत में भेज दिया जाय; पर वैसा न हो सका । कानून के अनुरूप उन्हें दामाद को फाँसी की सजा सुनानी पड़ी । सभी इस पर आश्चर्यचकित रह गए। गवर्नर ने अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करके अभियुक्त की सजा कम कर आजीवन कारावास में बदल दी । साथ हीउन्हें सेशन जज से हाईकोर्ट का चीफ जज बना दिया ।
बालक धन्य देश धन्य
हालैंड की पुरानी घटना है । नदी की बाढ़ से रेल का पुल टूट गया । गाड़ी आने का समय हो गया । टूटने की जानकारी न होने से वह चली आती तो, डूब जाती ।
एक छोटा लड़का वहाँ मौजूद था । आने वाली गाड़ी को रोकने के लिए उसने तुरंत उपाय सोच लिया कुर्ता फाड़कर झंडी बनायी ! भुजा काटकर खून निकाला और उसे लाल रंग लिया । पटरी पर लकड़ी मेंलाल झंडा फहराता हुआ वह खड़ा था । गाड़ी चली आती तो जान जोखिम का खतरा भी था । पर उसने उसकीपरवाह न की ।
ड्रायवर ने लड़के को खड़ा देख लिया । गाड़ी रोकी । दुर्घटना रुकी । गाड़ी वापस लौटी । उस लड़के जॉर्ज स्टेनले को उस देश के निवासी और सुनने वाले कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते और मन ही मन धन्यवाद देते हैं ।
टीका-इनकी तुष्टि के लिए जो कुछ भी जुटाया जायेगा, वह कम पड़ जायेगा । लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए कितना ही कुछ किया जाय, वह कम ही पड़ता जायेगा । घृत डालने से आग और भड़कती है । ऐसी दशा में मोहांध व्यक्ति कर्तव्यपालन की बात सोच ही नहीं पाता । उसे लालच के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं । ऐसी दशा में कर्तव्य निर्धारण में उसकी बुद्धि काम ही नहीं देती । उसका पालन करने के लिए उत्साह और साहस जगेगा ही कैंसे? और बिना कर्तव्यपालन के कोई लक्ष्य सिद्ध नहीं हो सकेगा ।। ४९-५२ ।।
अर्थ-वासना से मोह, तृष्णा से लोभ और अहंता से अहंकार उसी प्रकार बढ़ते हैं जैसे घी या ईंधन से अग्नि । जब ये दोष बढ़ जाते हैं तो मनुष्य की सोचने-समझने की शक्ति क्षीण और नष्ट हो जाती है ।
उनका सम्मोहन मनुष्य पर छा जाता हैं । गीता में लिखा हैं-सम्मोहित व्यक्ति की स्मृति भ्रमित हो जाती है । स्मृति क्षम होते ही बुद्धि की क्षमता नष्ट हो जाती है । बुद्धि नाश के साथ मनुष्य भी नष्ट हो जाता है ।
यहाँ ऋषि समझा रहे हैं कि कर्तव्य के प्रति और साहस जागे तब कर्तव्य सधता है । पर दोषों से सम्मोहित व्यक्ति तो कर्तव्य-अकर्तव्य सोच ही नहीं पाता । उसे निभाने की स्थिति तो दूर की बात है ।
आदमी लदय सिद्धि तो चाहता है, पर लक्ष्य तक जाने का मार्ग कर्तव्यपालन से ही बना है । उस पर चले बिना लक्ष्य पर कैसे पहुँचे?
सूर्पणखा को क्या हो गया
सूर्पणखा रावण जैसे प्रतापी राजा, पुलस्त्य के नाती की बहन थी । अपने आचरण के स्तर और गौरव को समझना यों कठिन न था । परंतु वासना ने उसके सोचने की शक्ति हर ली । सीता के होते हुए भी राम से संबंध स्थापित करना चाहा । उनके टालने-बहलाने से भी न समझ सकी कि यह इस प्रकार के व्यक्ति नहीं है । निर्लज्जता बढ़ाती ही गयी और नाक कटा बैठी ।
उसके बाद अहंता ने शांत न बैठने दिया। खरदूषण वध से भी वह सीख न ले सकी और उसी आग में रावण को भी सपरिवार झोंक दिया ।
उन्हें हारना ही था
महाभारत समाप्त हुआ । पुत्रों के वियोग में दु:खी धृतराष्ट्र ने महात्मा विदुर को बुलाया । उनके साथ सत्संग में दु:ख हल्का करने लगे । चर्चा के बीच धृतराष्ट्र ने पूछा-''विदुर जी ! हमारे पक्ष का एक योद्धा इतना सक्षम था कि सेनापति बनने पर उसने पांडवों के छक्के छुडा दिए । यह जीवन-मरण का युद्ध है, यह सबको पता था । यह सोचकर सेनापति बनने पर एक-एक करके अपना पराक्रम प्रकट करने की अपेक्षा कर्तव्य बुद्धि से एक साथ पराक्रम प्रकट करते तो क्या युद्ध जीत न जाते?''
विदुर जी बोले-''राजन ! आप ठीक कहते हैं । वे जीत सकते थे यदि अपने कर्तव्य को ठीक प्रकार समझ और अपना पाते । परंतु अधिक यश अकेले बटोर लेने की तृष्णा तथा अपने को सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने की अहंता ने वह कर्तव्य सोचने, उसे निभाने की उमंग पैदा करने का अवसर ही नहीं दिया ।''
थोड़ा रुक कर विदुर जी बोले-''पर राजन, उनके इतना न सोच पाने और न जीते पाने का दु:ख न करें । उन्हें तो हारना ही था । कर्तव्य समझे बिना जीत का लक्ष्य नहीं मिल सकता, यह भी ठीक है और कर्तव्य को महत्व दे पाते तो युद्ध का प्रश्न ही न उठता । कर्तव्य के नाते भाइयों का हक देंने से उन्हें किसने रोका था । स्वयं युग पुरुष श्रीकृष्ण समझाने आये थे । पर उस समय भी तृष्णा ने पाँच गाँव भी न छोड़े , अहंता ने न पितामह की सुनी, न युग पुरुष की । जिन वृत्तियों नें युद्ध पैदा किया, उन्हीं ने हरा भी दिया ।''
डाकू की सीख
तृष्णा में अंधे होकर दोनों हाथों से लूट-खसोट करने वाले कभी सम्मान के पात्र नहीं बनते । सिकंदर के हमले से खिन्न होकर मैसीटोनिया के लोगों ने समुद्री डाकू की तरह काम करना और सिकंदर के जहाज लूटना, डुबोना आरंभ कर दिया ।
पकड़े हुए डाकुओं के सरदार को सिकंदर के सामने पेश किया गया । उसने मृत्युदंड निश्चित समझते हुए भी निर्भीकतापूर्वक कहा-''आप बड़े डाकू हैं, हम छोटे । आप बुरे उद्देश्य के लिए हमला करने के कारण किसी भले आदमी की दृष्टि में सम्मानास्पद नहीं हो सकते ।'' सिकंदर को संधि करनी पड़ी और आक्रमण बंद कर दिया ।
मुर्दे की खोपड़ी से तत्त्वज्ञान का पाठ
दार्शनिक च्चाँगत्से को रात्रि के समय कब्रिस्तान में होकर गुजरते समय पैर में ठोकर लगी । टटोल कर देखा तो किसी मुर्दे की खोपड़ी थी । उठाकर झोली में रख लिया और सदा साथ रखने लगे । शिष्यों ने इस पर उनसे पूछा-''यह कितनी गंदी और कुरूप है इसे आप साथक्यों रखते हैं ?''
च्चाँगत्से ने उत्तर दिया-''यह मेरे दिमाग का तनाव दूर करने की अच्छी दवा है । जब अहंकार का आवेश चढ़ता है, लालच सताता है तो यह मुझे अपने कर्तव्य का बोध कराती है । मैं इस खोपड़ी को गौर से देखता हूँ । कल परसों अपनी भी ऐसी ही दुर्गति होनी है तो अहंकार और लालच किसका किया जाय ? क्यों न सतत कर्म निष्ठा में जुटा रहा जाय ।''
वे मृत्यु को स्मरण रखना, अनुचित आवेशों के समय का उपयुक्त उपचार बताया करते थे और इसके लिए मुर्दे की खोपड़ी का ध्यान करने की सलाह दिया करते थे । खुद तो उसे साथ रखते ही थे ।
कर्तव्यपालनं नूनं गौरवं महतां महत् । तिनैवाप्नोति सन्तोष: पुरुषो दुर्लभं परम् ।। ५३ ।। कर्मयोगो मत: सर्वसुलभ: सर्वसम्मत: । कल्याणकारकोऽत्यर्थं यत्र चैकमतं नृणाम् ।। ५४ ।। कर्तथ्यपालकान् मर्त्यान् शूरान् धर्मरतास्तथा । भक्तान् वदन्ति कर्तव्ये सार्थक्यं जीवनस्य तु ।। ५५ ।। व्यवस्था प्रगतिश्चात्र विद्यन्ते सुप्रसन्नता । दायित्वमुह्यते कर्मपालनाधारमाश्रितम् ।। ५६ ।। मनुष्यश्चदृशो याति गौरवं दर्शयत्यपि । मार्गं स्वयं मनुष्येभ्योऽसंख्येभ्यो धन्यजीवित: ।। ५७ ।।
टीका-कर्तव्यपालन ही सबसे बड़ा गौरव है। संतोष उसी से मिलता है । कर्मयोग को सर्वसुलभ, सर्वमान्य और सर्वोपरि कल्याणकारक गया है । इसमें सबका एक मत है । कर्तव्य कर्म करने वाले माना शूरवीर, धर्मनिष्ठ और ईश्वर भक्त माने जाते हैं । जीवन की सार्थकता भी कर्तव्यपालन में है । प्रसन्नता, व्यवस्था और प्रगति भी इसी में हैं । उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर्तव्यपालन के आधार पर ही बन पड़ता है । ऐसा ही स्वनामधन्य मनुष्य गौरवशाली बनता और असंख्यों का मार्गदर्शन करता है ।। ५३-५७।।
अर्थ-कर्तव्य के लिए मनुष्य के मन में उत्साह क्यों उभरे ? इस मनोवैज्ञानिक समस्या का हल ऋषि जानते हैं । व्यक्ति को उत्साह आता है उपलब्धियों के लिए । ऋषि स्पष्ट करते हैं कि जीवन की महानतम उपलब्धियाँ कर्तव्य के आधार पर मिलती हैं, जैसे- गौरव जिसे पाने के लिए मनुष्य सदा लालायित रहते हैं और शास्त्र भी उसे पाने योग्य कहते हैं ।
संतोष, जिसे जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि कहा है । बड़ी से बड़ी चीज या पद पाकर भी यदि संतोष अनुभव न हुआ तो वह निरर्थक सी ही लगती है । संतोष, प्यार के दो शब्दों में भी मिला तो उस पर राज्य न्योछाबर हो जाते हैं ।
शूरवीर, धर्मनिष्ठ और ईश्वर भक्त कहलाना असामान्य गौरव माना जाता है । इसका भी आधार कर्तव्य ही है ।
जीवन की सार्थकता तथा दूसरों का हित कर सकने का पुण्य-परमार्थ, यह भी ऐसी उपलब्धियाँ हैं, जिन्हें छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकट बड़े से बड़े महापुरुष तक महत्व देते हैं ।
यश भी पुण्य के आधार पर मिलता है । रामचरित मानस में लिखा है-'पावन यश कि पुण्य बिनु होई' पुण्य कुछ और नहीं, उच्चस्तरीय कर्तव्यों का फलितार्थ है ।
इन सब आधारों, तथ्यों को जो ध्यान में रखते हैं, उनमें कर्तव्यों के प्रति उत्साह, साहस और उमंग रहती है; वे कर्तव्य समझने में या उसके परिपालन में कभी नहीं चूकते ।
कवि माघ आग में कूदे
धारा नगरी में आग लग गई । दो सुकुमार बच्चे आग की लपट में घिर गए । महाराज भोज चिल्लाये जो इन बच्चो को बचायेगा उसे पुरस्कार दिया जायेगा । भीड़ में से कोई आगे नहीं बढ़ रहा था । तभी एक ओर से एक व्यक्ति आया और आग में घुस गया । दोनों बच्चों को निकाल तो लाया पर स्वयं बुरी तरह जल गया । उपचार के बाद पहचान में आया कि वह तो महान् उदार और दयालु कवि माघ थे। भोज ने उन्हें शीश झुकाते हुए कहा-'' कविवर आज तो तुमने काव्य से भी अधिक अपनी कर्तव्य परायणता से हम सबको जीत लिया ।''
कवि बोले-''महाराज! आप सबका स्नेह सम्मान बहुमूल्य है, परंतु आज मैंने अपना कर्तव्य पूर्ण करके अपनी अंतरात्मा का स्नेह सम्मान पा लिया है । इस आत्म संतोष के आगे सीमित चमड़ी की जलन कोई महत्व नहीं रखती।
ताना जी का आत्मोत्सर्ग
तानाजी के पुत्र का विवाह था, तभी कोंडण दुर्ग के लिए युद्ध की सूचना आ पहुँची । तानाजी ने कहा-''अपने देश और समाज के आगे व्यक्तिगत स्वार्थ तुच्छ हैं । ''वह युद्ध के लिए चल पडे़ । युद्ध में जीत उन्हीं की हुई; पर उनका शरीर काम आ गया । उनकी स्मृति में ही इस दुर्ग कानाम सिंहगढ़ रखा गया ।
शिवाजी ने कहा-''तानाजी जैसी जीवन की सार्थकता विरलों को मिलती है ।''
थामस स्कॉट अपनी नाव न्यूयॉर्क में नार्थ नदी में चला रहा था । इसी समय उसे नजदीक ही उसे एक दूसरी नाव डूबती दिखाई दी । उसमें स्त्री-बच्चों की भरमार थी ।
थामस-हाथ टूटा हिम्मत नहीं
थमास अपनी नाव को बढ़ा कर डूबती नाव के पास ले गया, देखा कि उसकी तली में एक बड़ा छेद हो गया है और पानी भरता जा रहा है । बचाव का और कोई उपाय न देखकर वह उछल कर डूबती नाव पर चढ़ गया और छेद में अपना एक हाथ ठूँस कर बढ़ते पानी को रोक दिया । किसी प्रकार नाव किनोर लगी और उस पर चढ़ी सवारियाँ बच गयीं।
थामस का एक हाथ हिमवत ठंडे जल के कारण क्षतिग्रस्त हो पूरी तरह टूट गया । वह अपार कष्ट सहता हुआ हाथ को तब तक छेद में ही लगाए रहा, जब तक कि नाव किनारे तक पहुँच न गयी ।
राजा दिलीप और सिंह
राजा दिलीप उन दिनों गुरु वशिष्ट के आश्रम में रह रहे थे । उन्हें आश्रम की गायें चराने का काम सौंपा गया । वे उस छोटे काम को भी बड़ा मानते थे और तत्परतापूर्वक सौंपी जिम्मेदारी निबाहते ।
एक दिन एक सिंह ने गुरु की नंदिनी गाय को दबोच लिया । राजा के धनुष वाण काम नहीं आये । अब किया क्या जाय? गुरु की सौंपी जिम्मेदारी कैसे निभे? दिलीप ने अपने आप को सिंह के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया, ताकि वह गाय को छोड़ कर उन्हें खा ले । उठाये उत्तरदायित्व को न निभाने का कलंक ओढ़ने की, अपेक्षा उन्हें अपना शरीर देना अधिक श्रेयस्कर लगा ।
इस आदर्शवादी साहसिकता से सिंह भी सहम गया । गाय भी बच गयी और उत्तरदायित्व निर्वाह की परीक्षा में सफल होने के कारण गुरुदेव का अभीष्ट आशीर्वाद भी मिला ।
देशभक्त छत्रसाल
बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल आरंभ में मुगलों से स्थानीय और क्षेत्रीय लड़ाइयाँ लड़ते रहे । पर पीछे शिवाजी के परामर्श से उनने अपना ध्येय भारत को स्वतंत्र बनाना निश्चित कर लिया । राणा प्रताप भी यही कर रहे थे । इन तीनों शक्तियों के मिल जाने और योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाने से दिल्ली दरबार की जड़ें हिल गई ।
इतना ही नहीं इन तीनों ने अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में हिन्दू धर्म के प्रति गहरी आस्थाएँ उत्पन्न करने और समूचे भारत को अपना देश समझने की भावना को भी पूरी तरह उभारा ।
छत्रसाल अच्छे कवि भी थे । उनका व्यक्तिगत चरित्र अन्य सामंतों जैसा नहीं था । उनने बुढ़ापे में वानप्रस्थ लिया और जन जागरण के कार्य में जुटे । किन्तु परिस्थितियों के निमंत्रण पर उन्हें ८६ वर्ष की आयु में फिर तलवार पकड़नी पड़ी ।
छत्रसाल की गिनती सीमित क्षेत्र में लड़ने-मरने वाले सामंतों में नहीं की गई वरन् उन्हें देश के महान संरक्षकों की श्रेणी में गिना गया ।
पुत्र मोह नहीं न्याय प्रधान
अंग्रेजी जमाने में बैजनाथ एक बड़े ही न्यायनिष्ठ जज हुए हैं । उन्होंने किसी की भी सिफारिश या रिश्वत की ओर आँख उठाकर नहीं देखा ।
एक बार उनका सगा दामाद एक फौजदारी के कल्ल के केस में फँस गया । उनने सरकार से प्रार्थना की कि मामला उनके सगे-संबंधी का है, इसलिए केस दूसरी किसी अदालत में भेज दिया जाय; पर वैसा न हो सका । कानून के अनुरूप उन्हें दामाद को फाँसी की सजा सुनानी पड़ी । सभी इस पर आश्चर्यचकित रह गए। गवर्नर ने अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करके अभियुक्त की सजा कम कर आजीवन कारावास में बदल दी । साथ हीउन्हें सेशन जज से हाईकोर्ट का चीफ जज बना दिया ।
बालक धन्य देश धन्य
हालैंड की पुरानी घटना है । नदी की बाढ़ से रेल का पुल टूट गया । गाड़ी आने का समय हो गया । टूटने की जानकारी न होने से वह चली आती तो, डूब जाती ।
एक छोटा लड़का वहाँ मौजूद था । आने वाली गाड़ी को रोकने के लिए उसने तुरंत उपाय सोच लिया कुर्ता फाड़कर झंडी बनायी ! भुजा काटकर खून निकाला और उसे लाल रंग लिया । पटरी पर लकड़ी मेंलाल झंडा फहराता हुआ वह खड़ा था । गाड़ी चली आती तो जान जोखिम का खतरा भी था । पर उसने उसकीपरवाह न की ।
ड्रायवर ने लड़के को खड़ा देख लिया । गाड़ी रोकी । दुर्घटना रुकी । गाड़ी वापस लौटी । उस लड़के जॉर्ज स्टेनले को उस देश के निवासी और सुनने वाले कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते और मन ही मन धन्यवाद देते हैं ।