Books - प्रज्ञा पुराण भाग-2
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॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-4
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नृणां परार्थकार्येषु बाधा नैवोपजायते । निर्वाह: परमार्थश्व सिद्धयत: सार्धमेव तु ।। ४५ ।। अनुभवन्ति च प्रत्यक्षमिदं ते देवमानवा:। गुणकर्मस्वभावानां स्तर कुर्वन्ति प्रोत्रतम् ।। ४६ ।। क्षण नैव तु व्यर्थ ते हापयन्ति सदैव च । विवेकस्याथ शौर्यस्य दायित्वस्याऽपि मानवाः ।। ४७।। विश्वासभावनायाश्च शुभादशैं स्वजीवनम् । ओतं प्रोतं प्रकुर्वन्ति दिव्यां दृष्टि श्रयन्ति च ।। ४८ ।।
टीका-श्रेष्ठ वृत्तियाँ अपना लेने के उपरांत मनुष्य को परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न होने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती । निर्वाह और परमार्थ भली प्रकार साथ- साथ निभता रह सकता है, इसे वे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । अपने गुण-कर्म का स्तर उठाते हैं । एक क्षण भी निरर्थक नहीं गुजारते । समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के आदर्शों से जीवन को ओत-प्रोत करते हैं तथा दिव्य दृष्टि प्राप्त करते हैं ।। ४५- ४८ ।।
अर्थ-सामान्य व्यक्ति को यह लगता है कि परमार्थ करेंगे, तो निर्वाह में कमी पड़ जायेगी । यह सामान्य वृत्ति वाले के लिए सही भी हो सज्जा है । श्रेष्ठ वृत्ति वालों का निर्वाह-व्यय बहुत सीमित रह जाता है तथा पुरुषार्थ बहुत बढ़ जाता है । उनका निर्वाह उनके पुरुषार्थ के एक छोटे से अंश से ही पूरा हो जाता है । शेष जो बचता है, वह परमार्थ में ही लगाते हैं ।
एकनिष्ठ होकर उद्य उद्देश्यों के लिए क्षण- क्षण का उपयोग करने वालों, गुणों की दैवी-संपदा को सधी संपदा समझने वालों को दिव्य दूर-दर्शिता अपनानी पड़ती है।
मान से दूर परमार्थ मूर्ति मालवीय जी
महामना मालवीय जी गरीब परिवार में जन्मे थे । किसी प्रकार बी०ए० पास करने के उपरांत वे पचास रुपये मासिक की अध्यापकी पा सके । इस सीमित आजीविका में से भी वे कुछ बचा कर निर्धन छात्रों की सहायता करते । नौकरी से बचा हुआ शेष सारा समय लोक सेवा के कार्यों में लगता । इसी बीच वे राष्ट्रीय कांग्रेस में भाग लेने लगे। जन सेवा में उनकी प्रतिभा और भाषण कला निखरने लगी ।
कलकत्ता कांग्रेस में मालवीय जी की असाधारण भूमिका देखकर राजा काला कांकर बहुत प्रभावित हुए । उनने उन्हें अपने यहाँ बुला लिया । 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' का संपादक बनाया । वेतन भी पचास के स्थान पर दो सौ कर दिया । पर वहाँ भी उनकी पटरी बैठी नहीं । राजा साहब पीते थे । इस स्थिति में उनके साथ रहना मालवीय जी से निभा नहीं । वे छोड़कर बनारस चले आए और वकालत पास करके कुछ ही समय में अच्छे वकील बन गए ।
मालवीय जी क आदर्शवाद उन्हें समय की पुकार सुनने के लिए बाध्य करने लगा। वे अपना अधिकाधिक समय कांग्रेस के तत्वावधान में राष्ट्रीय कार्यों के लिए लगाने लगे । जनमानस पर उनकी गहरी छाप पड़ी, फलतःकेन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्य चुन लिए गए । अब उनका पूरा समय राष्ट्र कार्य में ही लगता था ।
उन्होंने साप्ताहिक 'अभ्युदय' और मासिक 'मर्यादा' का प्रकाशन आरंभ किया और हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव डाली । कांग्रेस आंदोलन में जेल गए । उनकी प्रतिभा जितनी असाधारण थी, उतनी ही नम्रता भी चरम सीमा की थी । कलकत्ता विश्वविद्यालय उन्हें सम्मानित करने को 'डॉक्ट्रेट' की मानद उपाधि दे रहा था, सरकार उन्हें 'सर' बनाना चाहती थी । पंडित सभा ने उन्हें 'पंडित राज' पदवी देनी चाही; पर उनमें से एक को भी उनने स्वीकार नहीं किया । कहते थे-'' यदि 'पंडित' उपाधि को ही सही सद्धि कर सकूँ, तो बहुत है ।''
मालवीय जी का व्यक्तिगत जीवन सादगी, कर्मठता, सज्जनता, मितव्ययिता और उदारता से पूरी तरह भरा हुआ था । इन्हीं सद्गुणों के कारण वे सामान्य से असामान्य बने और असंख्यों के लिए अपना प्रेरणाप्रद उदाहरण छोड़ गए ।
श्री टी० प्रकाशम्
आंध्र प्रांत बना, तो उसके मुख्यमंत्री टी० प्रकाशम बनाये गए । तब वे ८४ वर्ष के थे । इनका जीवन इतिहास, ही ऐसा था, जिसके लिए उन दिनों उनसे अच्छा प्रामाणिक व्यक्ति दूसरा था नहीं । कुछ दिन मुख्यमंत्री पद संभाल कर अपना प्रिय विषय रचनात्मक कार्य हाथ में लिया और जब तक जीवित रहे उसी काम में लगे रहे ।
टी० प्रकाशम ने गरीबी के दिन देखे थे । उनकी माता एक छोटा होटल चलाकर परिवार, का पालन करती थीं । टी० प्रकाशम ने अपने पुरुषार्थ से वकालत पास की और इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बन कर आए । अपनी आजीविका का एक बड़ा भाग पिछड़े लोगों की सहायता में लगाते रहे ।
स्वतंत्रता आंदोलन में उनने अग्रिम पंक्ति में भाग लिया । दैनिक 'स्वराज्य' सफलतापूर्वक चलाया । जेल जाते रहे और अनेक में इसके लिए प्राण फूँकते रहे । अपने पारिवारिक निर्वाह के साथ- साथ लोक-सेवा का क्रम चलाते रहने में उन्हें कभी कठिनाई नहीं हुई ।
पुरोहित, जिनका जीवन धर्म सेवा में लगा
हवाई द्वीप समूह में कितने ही छोटे-छोटे टापू है । इनमें आदिवासी समुदाय रहता है । स्वास्थ्य संबंधी नियमों की जानकारी न होने तथा आर्थिक साधनों की कमी से इन द्वीपों में कुष्ठ रोग बुरी तरह फैला है । हाथ-पैरों से अपंग हो जाने पर ज्यों-त्यों करके ही जीवनयापन कर पाते है । इस क्षेत्र की कठिनाई को दूर करने के लिए फादर दामियेन आगे आये । वे चाहते तो दूसरे पुरोहितों की तरह मौज- मजे वाले स्थान भी अपने लिए चुन सकते थे पर उनने पीड़ित मानवता के लिए ही अपना जीवन समर्पित करने की ठानी । अपने लिए एक झोंपड़ा बनाया और पास ही चिकित्सालय तथा चर्च भी छोटे रूप में खड़ा कर दिया ।
मात्र कुष्ठ चिकित्सा ही पर्याप्त न थी । उनके लिए निर्वाह साधन जुटाना, स्वास्थ्य नियमों से परिचित कराना, शिक्षा देना तथा प्रचलित कुरीतियों से पीछा छुड़ाना जैसे अनेक काम उन्हें करने पड़े । पहले मोलीकाई द्वीप से यह कार्य आरंभ किया गया था; पर अब ३० टापुओं में वह कार्य चल रहा है । नये पादरी भी उनकी सहायता के लिए पहुँच रहे हैं । सेवा कार्य उन्हें इस क्षेत्र में श्रद्धास्पद बना रहे हैं ।
भारत माता के सच्चे सपूत
डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी बंगाल की इनी- गिनी प्रतिभाओं में से एक थे । इंग्लैंड से बैरिस्ट्री पास करके लौटे तो परिवार को उनसे धनोपार्जन की बड़ी आशा थी । पर घर में गुजारे व्यवस्था पहले से ही थी,। इसलिए वे उस ओर तनिक भी ध्यान न देकर समय की आवश्यकतानुसार देश सेवा के कार्यों में जुट पडे़ ।
बंगाल के दुर्भिक्ष में उनने जमकर कार्य किया । बँटवारे के समय सांप्रदायिक दंगों की आग बुझाने में कुछ उठा न रखा । केन्द्र में वित्त मंत्री बने तो बेरोजगारों को रोजगार देने के लिए उनने नई स्थापनाएँ कीं ।
सरकार से मतभेद होने पर उन्होंने जन संघ की स्थापना की । उन दिनों अनेक गुत्थियों को सुलझाने में लगे रहे । ऐसे नर-रत्नों को भारत माता का सच्चा सपूत ही कहा जायगा ।
सुल्तान यों बने
बादशाह होने के बाद हसन से किसी ने पूछा-''आपके पास न तो पर्याप्त धन था और न सोना फिर आप सुल्तान कैसे हो गए ?''
हसन ने उत्तर दिया-''मित्रो के प्रति मेरा सच्चा प्रेम, शत्रु के प्रति उदारता और मनुष्य के प्रति मेरा सद्भाव इतनी सामग्री क्या सुल्तान होने के लिए पर्याप्त नहीं ।''
हजारी किसान
बिहार प्रांत के एक छोटे से गाँव में एक किसान रहता था । नाम था उसका हजारी । उसने अपने खेतों की मेड़ों पर आम के पेड़ लगाए । जब वे बड़े हुए तो उन पर पक्षियों ने घोंसले बना लिए । मधुर स्वर में चहचहाते । जब बौर आता तो कोयल कूकती । छोटे-छोटे फल आते तो सारे गाँव के लोग बारी-बारी से चटनी के लिए आम माँग कर ले जाते । वह स्वयं भी उस पेड़ के नीचे सघन छाया में चारपाई बिछाकर बैठता तो बहुत अच्छा लगता ।
हजारी के बच्चे बड़े हो गए थे । उसने सोचा कि खेती-बाड़ी का काम इन्हें सौंप देना चाहिए और स्वयं उस क्षेत्र में आम के पौध लगवाने के लिए निकल पड़ना चाहिए । ढलती उम्र में परमार्थ परायण होने को ही वानप्रस्थ कहते हैं ।
उसने अपने खेत पर आमों की नर्सरी उगाई । गाँव-गाँव घूमा । आम लगाने का महत्व समझाया । जो लोग सहमत होते उनके यहाँ स्वयं ही पौधे लगा आता । सिंचाई, खाद, रखवाली आदि में भी दिलचस्पी लेता । इस प्रकार मरते समय तक उसने एक हजार आम्र उद्यान लगवा दिए । उस क्षेत्र का नाम उस किसान की स्मृति में हजारीबाग पड़ा ।
पिता का कमरबंद माँगा
पारसी धर्म के पैगंबर माने जाने वाले जरथुस्त शिक्षा प्राप्त करके विद्वान बन गए थे । उनके गुरु उनसे न केवल प्रसन्न थे बल्कि उन्हें शिष्य के रूप में पाकर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करते थे । उनकी सफलताओं से प्रसन्न होकर उनके पिता पौरुषस्प ने उनसे पूछा- ''मेरी कौन-सी संपत्ति चाहते हो? माँग लो।'' जरथुस्त बोले-'' पिताजी! अपना कमरबंद दे दें ।'' पौरुषस्प आश्चर्य में पड़ गए, मूल्यवान संपदाओं को छोड़कर सामान्य कमरबंद माँगा । पूछा-''ऐसा क्यों ?'' जरथुस्त ने कहा-''आपने जीवन भर आदर्शों के लिए कमर कसकर पुरुषार्थ किया है । शैतान के विरुद्ध देवत्व की विजय सुनिक्षित करने के अभियान में मुझे लगना है । आपका कमरबंद मेरा आत्मविश्वास बढ़ाता है ।'' पिता को विश्वास हो गया साधनों की अपेक्षा आदर्शों को मूल्यवान समझने वाला यह होनहार बालक अवश्य महान बनेगा ।
पुरुषार्थी पुरोहित
उन दिनों पुरोहितों की चाँदी थी। कथा और कर्मकांड के सहारे वे विपुल दक्षिणा बटोरते थे ।
पद्मनाभ ने नया मार्गदर्शन किया । वे उच्च कोटि के विद्वान थे । उनने लकड़ी काट कर पेट भरने का धंधा अपनाया । धर्म कृत्यों को मन लगाकर करते रहे । जो मिलता उसे वहाँ के सत्कार्यों में लगा देते ।
जनता ने उन्हें भरपूर मान दिया । लालची पुरोहितों को मुँह छपाये फिरते और पद्मनाभ पर अनर्गल आक्षेप लगाते देखा गया । तो भी वे अपने समय के लोकप्रिय पुरोहित रहे और भरपूर मान मिला । उन्होंने यह तथ्य अपने जीवन से प्रतिपादित किया कि पौरोहित्य को परमार्थ भाव से किया जा सकता है । व्यवसायी भाव उसके लिए आवश्यक नहीं ।
पाप का प्रायश्चित्त
अपने पिता बिंदुसार से सम्राट अशोक को सुविस्तृत राज्य प्राप्त हुआ था । पर उसकी तृष्णा और अहमन्यता ने उसे चैन नहीं लेने दिया । आस-पास के छोटे- छोटे राज्य उसने अपनी विशाल सेना के बल पर जीते और अपने राज्य में मिला लिए ।
उसके मन में कलिंग राज्य पर आक्रमण करने की उमंग आई । कलिंग धर्मात्मा भी था और साहसी भी । उसकी सेना तथा प्रजा ने अशोक के आक्रमण का पूरा मुकाबला किया । उसकी प्राय: सारी आबादी मृत्यु के मुँह में चली गई या घायल हो गई । अब उस देश की महिलाओं ने तलवार उठाई । अशोक इस सेना को देखकर चकित रह गया । वह उस देश में भ्रमण के लिए गया तो सर्वत्र लाशें ही पटी देखीं और खून की धारा बह रही थी ।
अशोक का मन पाप की आग से जलने लगा । उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और जो कुछ राज्य वैभव था उस सारे धन से बौद्ध धर्म का प्रसार किया तथा उपयोगी धर्म संस्थान बनवाये । अपने पुत्र और पुत्री को धर्म प्रचार के लिए समर्पित कर दिया । परिवर्तन इसी को कहते हैं । एक क्रूर और आतताई कहा जाने वाला अशोक बदला तो प्रायश्चित की आग में तपकर वह एक संन्यासी जैसा हो गया।
दृढ़ निश्चयी मीरा
मीरा राजस्थान के मेड़ता घराने में जन्मी, उनका विवाह चित्तौड़ के राजकुमार से हुआ । वे मन से अपने को भगवत समर्पित मानती थी और भक्त के साथ- साथ असाधारण रूप से साहसी भी थीं ।
विधवा हो जाने पर उनने अपना जीवन परमार्थ प्रयोजनों में लगाने की ठानी। ससुराल परिवार रूढ़िवादी होने से घर से बाहर नहीं निकलने देता था । उन्हें पिंजड़े की पंछी की तरह घुट-घुट कर मरना स्वीकार न था । वे अपनी प्रतिज्ञा पर अड़ी रहीं और संत गोष्ठियों में सम्मिलित रहकर धर्म प्रचार के निमित्त परिभ्रमण करती रहती थीं ।
ससुराल वालों के अनेक त्रासों और प्रतिबंधों की परवाह न करती हुई वे कहती थीं-''साधु संग बैठि-बैठि लोक लाज खोई ।''
त्रासों को सहन करती हुईं वे कहती थीं- ''राणाजी रूठे तो म्हारो काँई करशी '' उन्हें अपनी मृत्यु तक की परवाह न थी ।
रैदास चमार थे । मीरा ने उन्हें अपना गुरु बनाया । राजपूत परंपरा के अनुसार यह अनुचित था पर उसने अपनी आत्मा की आवाज के सामने किसी की परवाह नहीं की । यहाँ तक कि चित्तौड़ के राज परिवार में रानियों, राजकुमारियों के मन में रैदास के प्रति श्रद्धा भावना उत्पन्न की। वे भगवान की कृपा मुफ्त में माँगने पर विश्वास नहीं करती थीं । वरन् अपना सब कुछ भगवान के काम में आने के लिए सुपुर्द करती थीं । वे गाती थीं-''सखी री मैंने गिरधर लीन्हों मील''। मीरा को दृढ़ निश्चयी और साहसी भक्तों में गिना जाता है ।
अत्र ते चात्मकल्याणं विश्वकल्याणमेव च । प्रयोजनं तु पश्यन्ति सिद्धमेवोभयं नस: ।। ४१ ।। ह्रदि चोत्कष्टताहेतो: श्रद्धा नित्यं च चिंतने। प्रज्ञोदेति शुभादर्शपक्षगा मंङ्गलोन्मुखी ।। ५० ।। फलतश्चेदृशा मर्त्या देवतुल्यप्रवृत्तय: । व्यवहारे स्वके लोकमानसस्य परिष्कृते: ।। ५१ ।। सत्प्रवृत्तिविकासस्य शुभे द्वेऽहि प्रयोजने ।स्वीकुर्वन्ति च मुख्यत्वाद् वशराष्ट्राभिपूजिता: ।। ५२ ।।
टीका-आदर्शवादी जीवन क्रम में आत्म- कल्याण और विश्व-कल्याण के दुहरे प्रयोजन सधते देखते हैं । अंतःकरण में उकृष्टता के प्रति श्रद्धा-चिंतन में आदर्शों की पक्षधर मंगलमयी प्रज्ञा उभरती है । फलतः ऐसी देवोपम प्रवृत्ति के लोग अपने कर्म में व्यवहार में लोकमानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के दो प्रयोजनों को प्रमुखता देते हैं और अपने वंश व राष्ट्र में पूजे जाते हैं ।। ४१-५२ ।।
अर्थ-सामान्य दृष्टि वाले व्यक्ति परमार्थ परायण जीवन में व्यक्तिगत हानि देखते हैं । आत्म कल्याण की बात भी सोचते हैं, तो संसार को मिथ्या कहकर केवल अपने भले की बात को महत्व देते हैं । महामानव स्तर के व्यक्ति ऐसा मार्ग पकड़ते हैं, जो आत्म-कल्याण और विश्व- कल्याण दोनों को एक साथ उपलब्ध कराता है । लोक मानस के परिष्कार के प्रयास से व्यक्ति स्वयं भी परिष्कृत होता रहता है । समाज में सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में उसके अंदर भी वे पनपती हैं, इस प्रकार दोहरा लाभ मिल जाता है ।
पुष्य की दृष्टि
''बंधुवर पुष्प! लो सबेरा हुआ, माली इधर ही आ रहा है, अपनी सज्जनता, सौमनस्यता तथा उपकार की सजा भुगतने के लिए तैयार हो जाओ ।'' ''तात ! यदि मेरी सीख मानते और कठोरता व कुटिलता का आश्रय ग्रहण किए रहते, तो आज यह नौबत नहीं आती ।''
फूल कुछ बोला नहीं, उसकी स्थिति और भी मोहक हो उठी । माली आया, उसने फूल को तोड़ा और डलिया में रखा । काँटा दर्प में हँसा, माली की वृद्ध उँगलियों में चुभा और अहंकार में ऐंठ गया । माली उसे गालियाँ बकता हुआ वापस लौट गया ।
समय बीता । एक दिन देव-मंदिर में चढ़ाये उस फूल की सूखी काया को उठाकर कोई उसी वृक्ष की जड़ों के पास डाल गया । कटि ने प्लान मुख सुमन को देखा तो हँसा और बोला-'' कहो तात्! अब तो समझ गये कि परोपकारी होना अपनी ही दुर्गति कराना है ।''
फूल की आत्मा बोली-''बंधु, यह तुम्हारा अपना विश्वास है । शरीरों में चुभ कर दूसरों की आत्मा को कष्ट पहुँचाने के पाप के अतिरिक्त तुम अपयश के भी भागी बने । अंत तो सभी का सुनिश्चित है; किन्तु अपने प्राणों को देवत्व में परिणत करने और संसार को प्रसन्नता प्रदान करने का जो श्रेय मुझे मिला, तुम उससे सदैव के लिए वंचित रह गए । मैं दृष्टि से फायदे में हूँ और तुम घाटे में ।''
मंत्री भद्रजित की देवकृति
राजा बालीक ने किसी बात पर रुष्ट होकर प्रधान आमात्य भद्रजित को पदच्युत कर दिया । सोचा इससे उन्हे प्रताड़ना मिलेगी और होश ठिकाने आयेंगे । जन सम्मान के बिना कौन सुखी रह सकता है ।
भद्रजित की आदर्शनिष्ठ बुद्धि अडिग रही, प्रेरणा हुई-लोकमंगल के लिए पद नहीं, श्रेष्ठ भावना चाहिए । उन्होंने जन संपर्क साधा और लोक-सेवा के कार्यों में संलग्र हो गए । सहयोग पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ा । फलत:भद्रजित के सुख- संतोष में भी वृद्धि हो गई ।
राजा की इच्छा हुई कि अमात्य को मिली प्रताड़ना का प्रतिफल आँखों देखें । सो वे छद्म वेश बनाकर वहाँ जा पहुँचे जहाँ भद्रजित उन दिनों निवास कर रहे थे ।
राजा ने देखा भद्रजित बिल्कुल सहज स्थिति में हैं । अभाव का कोई चिह्न नहीं था । कुशल क्षेम पूछी तथा राज्यपद न रहने की प्रतिक्रिया जाननी चाही । भद्रजित ने कहा-''मेरे ऊपर राजा ने बड़ा उपकार किया । मुझे यह समझने का अवसर मिला, कि पद की अपेक्षा अपने कर्म और व्यवहार का प्रभाव कितना अधिक सार्थक होता है । आज मेरे और मेरी आराध्य जनता के बीच केवल स्नेह सूत्र हैं । पद, प्रतिष्ठा और औपचारिकता की खाईं पट चुकी है । सुख-दु:ख में एक होने का अवसर मिला । जो आत्मीयता अब अनुभव हुई वह पहले कहाँ थी ?'' राजा समझ गए सत्युरुष पद से नहीं, अपनी देवोपम प्रवृत्तियों से सम्मान पाते है।
सिद्धांतवादी वर्नार्ड शॉ
सिद्धांतवाद की जीती-जागती मूर्ति का नाम है-जार्ज बर्नार्ड शॉ । वे आयरलैंड के माने हुए लेखक थे । उस देश में मांसाहार और सुरा-सुंदरी का साधारण प्रचलन है । बर्नार्ड शॉ ने इन तीनों से आजीवन बचे रहने का प्रयास किया और उसे पूरी तरह निभाया ।
उनकी आजीविका अच्छी थी । ख्याति भी विश्वव्यापी थी । एक युवती ने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उनने चकित होकर इसका कारण पूछा । युवती ने कहा-"मैं चाहती हूँ कि मेरी संतान मुझ जैसी सुंदर और आप जैसी विद्वान हो ।'' शॉ समझ गए कि यह सुंदरी मुझे शब्दों के जाल में फँसाना चाहती है । उनकी आदर्शनिष्ठा बुद्धि ने तुरंत मार्ग खोजा । वे बोले-''देवी आप जैसा सोचती हैं यदि उसका ठीक उलटा हो गया तब कैसा होगा? मुझ जैसा कुरूप और आप जैसी मूर्ख संतान भी तो हो ही सकती है ।'' निरुत्तर होकर महिला लौट गई । शॉ अपने सिद्धांत पर अडिग रहे ।
शॉ ने जो भी कमाया सार्वजनकि कार्यों के लिए दान कर दिया । मरने के बाद उनके जनाजे में पशु-पक्षियों का जुलूस चले, ऐसी वे वसीयत कर गए । वे कहते थे कि पशु-पक्षियों का मांस मैंने कभी नहीं खाया और कुटुंबियों की तरह उन्हें माना है सो वे ही जनाजे के साथ चलने के अधिकारी हैं । उनकी विद्वत्ता, उनकी आदर्शनिष्ठा के सहारे ही इतनी निखरी और लोकप्रिय हुई ।
वुंड्रेज की सफल श्रम साधना
ओलंपिक खेलों का नाम आज संसार के बच्चे-बच्चे की जुबान पर है । इस स्थिति में लाने का श्रेय वुंड्रेज को है । उनने बहुत छोटे संगठन को विश्व स्तर का बनाया और सशक्त राष्ट्र, जो धींगामस्ती करते और मनमानी चलाते थे, उसे सूझ-बूझ और साहस के साथ रोका। आज १६ हजार उच्च कोटि के खिलाड़ी इस माध्यम से ट्रेनिंग प्राप्त कर रहे है ।
कभी खेल-कूद को गँवारों का शुगल समझा जाता था । वुंड्रेज की रचनात्मक बुद्धि ने उसे वह स्थान दिलाया कि उसे सम्मानित योग्यता माना जाने लगा । इससे उत्साह ग्रहण कर सारे संसार में व्यायाम के पक्ष में वातावरण बना है और उसका प्रभाव छोटे-छोटे गाँवों पर पड़ा है । लोगों की उछल-कूद की अनियंत्रित आदत को खेल भावना के अनुशासित साँचे में ढालने में वुंड्रेज के अथक श्रम को सदा श्रेय दिया जाता रहेगा। सारे विश्व में उसका और उसकी खेल योजना का नाम गौरव के साथ लिया जाता है ।
पाखंड उन्मूलक सच्चे संन्यासी दयानंद
टंकारा (गुजरात) में जन्मे मूलशंकर अधिक विद्या प्राप्त करने की दृष्टि से घर छोड़कर मथुरा चल दिए । यहाँ स्वामी विरजानंद की पाठशाला में उनने संस्कृत भाषा तथा वेदों का गहन अध्ययन किया।
अन्य विद्यार्थी तो पढ़-लिखकर अपना पेट पालने चल देते हैं, गुरु को एक प्रकार से भूल ही जाते है । मूलशंकर उनमें से न थे। उनने विरजानंद से गुरुदक्षिणा के लिए निवेदन किया । गुरु ने उनसे वेद- धर्म का प्रसार करने में और प्रचलित पाखंड के उन्मूलन में जीवन लगा देने की याचना की । सच्चे शिष्य ने तत्काल संन्यास ले लिया और नाम स्वामी दयानंद रखा गया । वे गुरु की इच्छा पूरी करने के लिए देशव्यापी भ्रमण में निकल पड़े । कुछ समय उन्होंने हिमालय गंगा तट पर तप किया और नया आत्मबल संचित करके अपने काम में जुट गए ।
उनने आर्यसमाज की स्थापना की । 'सत्यार्थ-प्रकाश' नामक प्रख्यात ग्रंथ लिखा । वेद भाष्य किया और अनवरत प्रव्रज्या में जुट गए । उनके प्रयास से एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया, जिसने हिन्दू धर्म के पुरातन स्वरूप से जन-जन को अवगत कराया । आर्य समाज की खदान में से बहुमूल्य मणि- माणिक्य निकले जिनकी कृतियों को कभी भुलाया न जा सकेगा ।
वेद ज्ञान के प्रसारक मैक्समूलर
जर्मनी के डेजी इलाके में जन्मे मैक्समूलर उपयुक्त अध्ययन के उपरांत कट्टरवादी बिल्कुल न रहे । सत्य की शोध में जहाँ भी यथार्थता दीख पड़ी, वहाँ से उसे ढूँढ़ निकालने का मन में निश्चय कर वे निकल पडे़ ।
वेदों को ज्ञान का भंडार जाना जाता था । वे वेदों को ढूँढने और उस ज्ञान को सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए व्याकुल हो उठे । हिन्दुस्तान आये, तो यहाँ बड़ी अजीब स्थिति देखी । पंडित लोग अपनी बिरादरी के अतिरिक्त वह ज्ञान किसी को बताना-सुनाना नहीं चाहते थे । इस कारण उन्हें भारी कठिनाई का सामना करना पड़ा । जो कार्य कम समय में हो सकता था, वह अत्यधिक समय में हुआ, फिर भी वे निराश न हुए ।
उनने वेदों को जर्मन भाषा में टीका सहित प्रकाशित किया । फिर वह अंग्रेजी में भी अनुवादित हुए । इसके उपरांत भारतीयों को भी अपनी उपेक्षा और संकीर्णता पर लजा आयी और वेदों की चर्चा, शिक्षा तथा छपाई होने लगी । सी और शूद्र भी उस यान को मनुष्यों की तरह प्राप्त करने लगे ।
आदर्श चिकित्सक
मैसूर राज्य के एक छोटे-से गाँव मणिपाल में जन्मे डॉ० पाई डॉक्टरी की उच्च शिक्षा प्राप्त करके जैसे ही निकले, वैसे ही नौकरियों के प्रस्तावों का ढेर लग गया; पर उनने उन सबको अस्वीकृत करते हुए अपनी जन्मभूमि तथा समीपवर्ती पिछडे़ क्षेत्रों की सेवा करने का निश्चय किया और वहीं एक छोटी-सी डिस्पेंसरी खोल कर जम गए । निर्धन रोगियों की भीड़ से अस्पताल खचाखच भरा रहता था । नाम मात्र के पैसे से लोग भारी लाभ उठाने लगे ।
अब डॉक्टर साहब का ध्यान अपने क्षेत्र में शिक्षा-व्यवस्था बनाने तथा आर्थिक सुविधायें उत्पन्न करने की ओर गया तथा इन्हें पूरा करने का निश्चय किया । इन नि:स्वार्थ प्रयत्नों में उन्हें सरकारी और गैर सरकारी सहयोग पूरा-पूरा मिला । छोटी स्थापनायें क्रमश: बढ़ते-बढ़ते उन्नति के चरम शिखर तक पहुँचीं ।
उस क्षेत्र में उनने अनेक विद्यालय खुलवाये, सहकारी बैंकें स्थापित करायीं; महिलाओं के लिए नर्सिंग स्कूल खुलवाया । छोटे-से सिंडीकेट बैंक की अब छ: राज्यों में एक सौ नवासी शाखाएँ हैं । गाँधी मैमोरियल कॉलेज तथा मणिपाल मेडीकल कॉलेज उन्हीं की स्थापना है । उस पिछड़े क्षेत्र को हर दृष्टि से डॉक्टर साहब ने इतना समुन्नत बनाया कि लोगों के लिए वह दर्शनीय तीर्थ बन गया ।
गोस्वामीजी की समाज-निष्ठा
लायलपुर (पंजाब) में जन्मे गोस्वामी गणेशदत्त ने अपने श्रम, ज्ञान और समय का विसर्जन देश-सेवा के लिए कर दिया। वे रचनात्मक कार्यों में विश्वास करते, थे । देखा कि उस समूचे प्रांत में उर्दू का बोलबाला है । हिन्दी जानने वाले लोग मुट्ठी भर थे । हिन्दी समझे बिना हिन्दू धर्म को समझना कठिन है-यह सोचकर उनने हिन्दी की प्रौढ़ पाठशालायें-बालशालाएँ चलाने का प्रयत्न किया । इसके लिए घर- घर गए और शिक्षार्थियों को ढूँढ़ कर लाए। देखते-देखते चार सौ पाठशालायें चलने लगीं ।
गोस्वामी जी ने सनातन धर्म सभा और महावीर दल की स्थापना की । समय- समय पर देश में आने वाले दुर्भिक्ष, महामारी आदि में अपने साथियों की सहायता एकत्रित करके दौड़ पड़े । आजीवन वे सेवा कार्यों में ही लगे रहे । पंजाब में एक संस्कृत कॉलेज स्थापित किया और हरिद्वार में सप्तऋषि आश्रम बनाया । इन प्रयासों के मूल में उनका उद्देश्य हिन्दी, हिन्दू हिन्दुस्तान की भावना को प्रबल बनाना था ।
महानता का मापदंड
"क्या तुम मेरे समान शक्ति, नहीं चाहतीं?"-यह कहकर 'आँधी' अपनी छोटी बहन मंदवायु की ओर देखने लगी। कुछ उत्तर न पाकर वह फिर कहने लगी- ''देखो, जिस समय मैं उठती हूँ, उस समय दूर-दूर तक लोग तूफान के चिह्रों से मेरे आने का संवाद चारों ओर फैला देते है । समुद्र के जल के साथ ऐसा किलोल करती हूँ कि पानी की लहरों को पर्वत के समान ऊपर उछाल देती हूँ । मुझे देखकर मनुष्य अपने घरों में घुस जाते हैं, पशु-पक्षी अपनी जान बचाकर भागते-फिरते हैं । कमजोर मकानों के छप्परों को भी उड़ा कर फेंक देती हूँ; मजबूत मकानों को पकड़ कर हिला देती हूँ । मेरी साँस से राष्ट्र के राष्ट्र धूल में मिल जाते हैं । क्या तुम नहीं चाहतीं कि तुममें भी मेरे सामन शक्ति आ जाय?''
यह सुनकर वसंत की मंदवायु ने कुछ उत्तर न दिया और अपनी यात्रा को चल पड़ी । उसको आते देखकर कर नदियाँ, ताल, जंगल, खेत सभी मुस्कराने लगें । बगीचों में तरह-तरह के फूल खिल उठे । रंग-बिरंगे फूलों के गलीचे बिछ गए । सुगंधि से चारों ओर का वातावरण भर गया । पक्षीगण कुंजों में आकर विहार करने लगे । सभी का जीवन सुखद हो गया । इस तरह से अपने कार्यों द्वारा वसंत वायु ने अपनी शक्ति का परिचय आँधी को करा दिया ।
महामानवों का जीवन क्रम भी वसंत की मंदवायु के समान सुरभि-सौंदर्य चारों ओर फैलाने वाला होता है । वे पराक्रम में नहीं, सौजन्य में महानता देखते हैं । इसी कारण वे सर्वत्र पूजे जाते है ।
टीका-श्रेष्ठ वृत्तियाँ अपना लेने के उपरांत मनुष्य को परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न होने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती । निर्वाह और परमार्थ भली प्रकार साथ- साथ निभता रह सकता है, इसे वे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । अपने गुण-कर्म का स्तर उठाते हैं । एक क्षण भी निरर्थक नहीं गुजारते । समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के आदर्शों से जीवन को ओत-प्रोत करते हैं तथा दिव्य दृष्टि प्राप्त करते हैं ।। ४५- ४८ ।।
अर्थ-सामान्य व्यक्ति को यह लगता है कि परमार्थ करेंगे, तो निर्वाह में कमी पड़ जायेगी । यह सामान्य वृत्ति वाले के लिए सही भी हो सज्जा है । श्रेष्ठ वृत्ति वालों का निर्वाह-व्यय बहुत सीमित रह जाता है तथा पुरुषार्थ बहुत बढ़ जाता है । उनका निर्वाह उनके पुरुषार्थ के एक छोटे से अंश से ही पूरा हो जाता है । शेष जो बचता है, वह परमार्थ में ही लगाते हैं ।
एकनिष्ठ होकर उद्य उद्देश्यों के लिए क्षण- क्षण का उपयोग करने वालों, गुणों की दैवी-संपदा को सधी संपदा समझने वालों को दिव्य दूर-दर्शिता अपनानी पड़ती है।
मान से दूर परमार्थ मूर्ति मालवीय जी
महामना मालवीय जी गरीब परिवार में जन्मे थे । किसी प्रकार बी०ए० पास करने के उपरांत वे पचास रुपये मासिक की अध्यापकी पा सके । इस सीमित आजीविका में से भी वे कुछ बचा कर निर्धन छात्रों की सहायता करते । नौकरी से बचा हुआ शेष सारा समय लोक सेवा के कार्यों में लगता । इसी बीच वे राष्ट्रीय कांग्रेस में भाग लेने लगे। जन सेवा में उनकी प्रतिभा और भाषण कला निखरने लगी ।
कलकत्ता कांग्रेस में मालवीय जी की असाधारण भूमिका देखकर राजा काला कांकर बहुत प्रभावित हुए । उनने उन्हें अपने यहाँ बुला लिया । 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' का संपादक बनाया । वेतन भी पचास के स्थान पर दो सौ कर दिया । पर वहाँ भी उनकी पटरी बैठी नहीं । राजा साहब पीते थे । इस स्थिति में उनके साथ रहना मालवीय जी से निभा नहीं । वे छोड़कर बनारस चले आए और वकालत पास करके कुछ ही समय में अच्छे वकील बन गए ।
मालवीय जी क आदर्शवाद उन्हें समय की पुकार सुनने के लिए बाध्य करने लगा। वे अपना अधिकाधिक समय कांग्रेस के तत्वावधान में राष्ट्रीय कार्यों के लिए लगाने लगे । जनमानस पर उनकी गहरी छाप पड़ी, फलतःकेन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्य चुन लिए गए । अब उनका पूरा समय राष्ट्र कार्य में ही लगता था ।
उन्होंने साप्ताहिक 'अभ्युदय' और मासिक 'मर्यादा' का प्रकाशन आरंभ किया और हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव डाली । कांग्रेस आंदोलन में जेल गए । उनकी प्रतिभा जितनी असाधारण थी, उतनी ही नम्रता भी चरम सीमा की थी । कलकत्ता विश्वविद्यालय उन्हें सम्मानित करने को 'डॉक्ट्रेट' की मानद उपाधि दे रहा था, सरकार उन्हें 'सर' बनाना चाहती थी । पंडित सभा ने उन्हें 'पंडित राज' पदवी देनी चाही; पर उनमें से एक को भी उनने स्वीकार नहीं किया । कहते थे-'' यदि 'पंडित' उपाधि को ही सही सद्धि कर सकूँ, तो बहुत है ।''
मालवीय जी का व्यक्तिगत जीवन सादगी, कर्मठता, सज्जनता, मितव्ययिता और उदारता से पूरी तरह भरा हुआ था । इन्हीं सद्गुणों के कारण वे सामान्य से असामान्य बने और असंख्यों के लिए अपना प्रेरणाप्रद उदाहरण छोड़ गए ।
श्री टी० प्रकाशम्
आंध्र प्रांत बना, तो उसके मुख्यमंत्री टी० प्रकाशम बनाये गए । तब वे ८४ वर्ष के थे । इनका जीवन इतिहास, ही ऐसा था, जिसके लिए उन दिनों उनसे अच्छा प्रामाणिक व्यक्ति दूसरा था नहीं । कुछ दिन मुख्यमंत्री पद संभाल कर अपना प्रिय विषय रचनात्मक कार्य हाथ में लिया और जब तक जीवित रहे उसी काम में लगे रहे ।
टी० प्रकाशम ने गरीबी के दिन देखे थे । उनकी माता एक छोटा होटल चलाकर परिवार, का पालन करती थीं । टी० प्रकाशम ने अपने पुरुषार्थ से वकालत पास की और इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बन कर आए । अपनी आजीविका का एक बड़ा भाग पिछड़े लोगों की सहायता में लगाते रहे ।
स्वतंत्रता आंदोलन में उनने अग्रिम पंक्ति में भाग लिया । दैनिक 'स्वराज्य' सफलतापूर्वक चलाया । जेल जाते रहे और अनेक में इसके लिए प्राण फूँकते रहे । अपने पारिवारिक निर्वाह के साथ- साथ लोक-सेवा का क्रम चलाते रहने में उन्हें कभी कठिनाई नहीं हुई ।
पुरोहित, जिनका जीवन धर्म सेवा में लगा
हवाई द्वीप समूह में कितने ही छोटे-छोटे टापू है । इनमें आदिवासी समुदाय रहता है । स्वास्थ्य संबंधी नियमों की जानकारी न होने तथा आर्थिक साधनों की कमी से इन द्वीपों में कुष्ठ रोग बुरी तरह फैला है । हाथ-पैरों से अपंग हो जाने पर ज्यों-त्यों करके ही जीवनयापन कर पाते है । इस क्षेत्र की कठिनाई को दूर करने के लिए फादर दामियेन आगे आये । वे चाहते तो दूसरे पुरोहितों की तरह मौज- मजे वाले स्थान भी अपने लिए चुन सकते थे पर उनने पीड़ित मानवता के लिए ही अपना जीवन समर्पित करने की ठानी । अपने लिए एक झोंपड़ा बनाया और पास ही चिकित्सालय तथा चर्च भी छोटे रूप में खड़ा कर दिया ।
मात्र कुष्ठ चिकित्सा ही पर्याप्त न थी । उनके लिए निर्वाह साधन जुटाना, स्वास्थ्य नियमों से परिचित कराना, शिक्षा देना तथा प्रचलित कुरीतियों से पीछा छुड़ाना जैसे अनेक काम उन्हें करने पड़े । पहले मोलीकाई द्वीप से यह कार्य आरंभ किया गया था; पर अब ३० टापुओं में वह कार्य चल रहा है । नये पादरी भी उनकी सहायता के लिए पहुँच रहे हैं । सेवा कार्य उन्हें इस क्षेत्र में श्रद्धास्पद बना रहे हैं ।
भारत माता के सच्चे सपूत
डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी बंगाल की इनी- गिनी प्रतिभाओं में से एक थे । इंग्लैंड से बैरिस्ट्री पास करके लौटे तो परिवार को उनसे धनोपार्जन की बड़ी आशा थी । पर घर में गुजारे व्यवस्था पहले से ही थी,। इसलिए वे उस ओर तनिक भी ध्यान न देकर समय की आवश्यकतानुसार देश सेवा के कार्यों में जुट पडे़ ।
बंगाल के दुर्भिक्ष में उनने जमकर कार्य किया । बँटवारे के समय सांप्रदायिक दंगों की आग बुझाने में कुछ उठा न रखा । केन्द्र में वित्त मंत्री बने तो बेरोजगारों को रोजगार देने के लिए उनने नई स्थापनाएँ कीं ।
सरकार से मतभेद होने पर उन्होंने जन संघ की स्थापना की । उन दिनों अनेक गुत्थियों को सुलझाने में लगे रहे । ऐसे नर-रत्नों को भारत माता का सच्चा सपूत ही कहा जायगा ।
सुल्तान यों बने
बादशाह होने के बाद हसन से किसी ने पूछा-''आपके पास न तो पर्याप्त धन था और न सोना फिर आप सुल्तान कैसे हो गए ?''
हसन ने उत्तर दिया-''मित्रो के प्रति मेरा सच्चा प्रेम, शत्रु के प्रति उदारता और मनुष्य के प्रति मेरा सद्भाव इतनी सामग्री क्या सुल्तान होने के लिए पर्याप्त नहीं ।''
हजारी किसान
बिहार प्रांत के एक छोटे से गाँव में एक किसान रहता था । नाम था उसका हजारी । उसने अपने खेतों की मेड़ों पर आम के पेड़ लगाए । जब वे बड़े हुए तो उन पर पक्षियों ने घोंसले बना लिए । मधुर स्वर में चहचहाते । जब बौर आता तो कोयल कूकती । छोटे-छोटे फल आते तो सारे गाँव के लोग बारी-बारी से चटनी के लिए आम माँग कर ले जाते । वह स्वयं भी उस पेड़ के नीचे सघन छाया में चारपाई बिछाकर बैठता तो बहुत अच्छा लगता ।
हजारी के बच्चे बड़े हो गए थे । उसने सोचा कि खेती-बाड़ी का काम इन्हें सौंप देना चाहिए और स्वयं उस क्षेत्र में आम के पौध लगवाने के लिए निकल पड़ना चाहिए । ढलती उम्र में परमार्थ परायण होने को ही वानप्रस्थ कहते हैं ।
उसने अपने खेत पर आमों की नर्सरी उगाई । गाँव-गाँव घूमा । आम लगाने का महत्व समझाया । जो लोग सहमत होते उनके यहाँ स्वयं ही पौधे लगा आता । सिंचाई, खाद, रखवाली आदि में भी दिलचस्पी लेता । इस प्रकार मरते समय तक उसने एक हजार आम्र उद्यान लगवा दिए । उस क्षेत्र का नाम उस किसान की स्मृति में हजारीबाग पड़ा ।
पिता का कमरबंद माँगा
पारसी धर्म के पैगंबर माने जाने वाले जरथुस्त शिक्षा प्राप्त करके विद्वान बन गए थे । उनके गुरु उनसे न केवल प्रसन्न थे बल्कि उन्हें शिष्य के रूप में पाकर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करते थे । उनकी सफलताओं से प्रसन्न होकर उनके पिता पौरुषस्प ने उनसे पूछा- ''मेरी कौन-सी संपत्ति चाहते हो? माँग लो।'' जरथुस्त बोले-'' पिताजी! अपना कमरबंद दे दें ।'' पौरुषस्प आश्चर्य में पड़ गए, मूल्यवान संपदाओं को छोड़कर सामान्य कमरबंद माँगा । पूछा-''ऐसा क्यों ?'' जरथुस्त ने कहा-''आपने जीवन भर आदर्शों के लिए कमर कसकर पुरुषार्थ किया है । शैतान के विरुद्ध देवत्व की विजय सुनिक्षित करने के अभियान में मुझे लगना है । आपका कमरबंद मेरा आत्मविश्वास बढ़ाता है ।'' पिता को विश्वास हो गया साधनों की अपेक्षा आदर्शों को मूल्यवान समझने वाला यह होनहार बालक अवश्य महान बनेगा ।
पुरुषार्थी पुरोहित
उन दिनों पुरोहितों की चाँदी थी। कथा और कर्मकांड के सहारे वे विपुल दक्षिणा बटोरते थे ।
पद्मनाभ ने नया मार्गदर्शन किया । वे उच्च कोटि के विद्वान थे । उनने लकड़ी काट कर पेट भरने का धंधा अपनाया । धर्म कृत्यों को मन लगाकर करते रहे । जो मिलता उसे वहाँ के सत्कार्यों में लगा देते ।
जनता ने उन्हें भरपूर मान दिया । लालची पुरोहितों को मुँह छपाये फिरते और पद्मनाभ पर अनर्गल आक्षेप लगाते देखा गया । तो भी वे अपने समय के लोकप्रिय पुरोहित रहे और भरपूर मान मिला । उन्होंने यह तथ्य अपने जीवन से प्रतिपादित किया कि पौरोहित्य को परमार्थ भाव से किया जा सकता है । व्यवसायी भाव उसके लिए आवश्यक नहीं ।
पाप का प्रायश्चित्त
अपने पिता बिंदुसार से सम्राट अशोक को सुविस्तृत राज्य प्राप्त हुआ था । पर उसकी तृष्णा और अहमन्यता ने उसे चैन नहीं लेने दिया । आस-पास के छोटे- छोटे राज्य उसने अपनी विशाल सेना के बल पर जीते और अपने राज्य में मिला लिए ।
उसके मन में कलिंग राज्य पर आक्रमण करने की उमंग आई । कलिंग धर्मात्मा भी था और साहसी भी । उसकी सेना तथा प्रजा ने अशोक के आक्रमण का पूरा मुकाबला किया । उसकी प्राय: सारी आबादी मृत्यु के मुँह में चली गई या घायल हो गई । अब उस देश की महिलाओं ने तलवार उठाई । अशोक इस सेना को देखकर चकित रह गया । वह उस देश में भ्रमण के लिए गया तो सर्वत्र लाशें ही पटी देखीं और खून की धारा बह रही थी ।
अशोक का मन पाप की आग से जलने लगा । उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और जो कुछ राज्य वैभव था उस सारे धन से बौद्ध धर्म का प्रसार किया तथा उपयोगी धर्म संस्थान बनवाये । अपने पुत्र और पुत्री को धर्म प्रचार के लिए समर्पित कर दिया । परिवर्तन इसी को कहते हैं । एक क्रूर और आतताई कहा जाने वाला अशोक बदला तो प्रायश्चित की आग में तपकर वह एक संन्यासी जैसा हो गया।
दृढ़ निश्चयी मीरा
मीरा राजस्थान के मेड़ता घराने में जन्मी, उनका विवाह चित्तौड़ के राजकुमार से हुआ । वे मन से अपने को भगवत समर्पित मानती थी और भक्त के साथ- साथ असाधारण रूप से साहसी भी थीं ।
विधवा हो जाने पर उनने अपना जीवन परमार्थ प्रयोजनों में लगाने की ठानी। ससुराल परिवार रूढ़िवादी होने से घर से बाहर नहीं निकलने देता था । उन्हें पिंजड़े की पंछी की तरह घुट-घुट कर मरना स्वीकार न था । वे अपनी प्रतिज्ञा पर अड़ी रहीं और संत गोष्ठियों में सम्मिलित रहकर धर्म प्रचार के निमित्त परिभ्रमण करती रहती थीं ।
ससुराल वालों के अनेक त्रासों और प्रतिबंधों की परवाह न करती हुई वे कहती थीं-''साधु संग बैठि-बैठि लोक लाज खोई ।''
त्रासों को सहन करती हुईं वे कहती थीं- ''राणाजी रूठे तो म्हारो काँई करशी '' उन्हें अपनी मृत्यु तक की परवाह न थी ।
रैदास चमार थे । मीरा ने उन्हें अपना गुरु बनाया । राजपूत परंपरा के अनुसार यह अनुचित था पर उसने अपनी आत्मा की आवाज के सामने किसी की परवाह नहीं की । यहाँ तक कि चित्तौड़ के राज परिवार में रानियों, राजकुमारियों के मन में रैदास के प्रति श्रद्धा भावना उत्पन्न की। वे भगवान की कृपा मुफ्त में माँगने पर विश्वास नहीं करती थीं । वरन् अपना सब कुछ भगवान के काम में आने के लिए सुपुर्द करती थीं । वे गाती थीं-''सखी री मैंने गिरधर लीन्हों मील''। मीरा को दृढ़ निश्चयी और साहसी भक्तों में गिना जाता है ।
अत्र ते चात्मकल्याणं विश्वकल्याणमेव च । प्रयोजनं तु पश्यन्ति सिद्धमेवोभयं नस: ।। ४१ ।। ह्रदि चोत्कष्टताहेतो: श्रद्धा नित्यं च चिंतने। प्रज्ञोदेति शुभादर्शपक्षगा मंङ्गलोन्मुखी ।। ५० ।। फलतश्चेदृशा मर्त्या देवतुल्यप्रवृत्तय: । व्यवहारे स्वके लोकमानसस्य परिष्कृते: ।। ५१ ।। सत्प्रवृत्तिविकासस्य शुभे द्वेऽहि प्रयोजने ।स्वीकुर्वन्ति च मुख्यत्वाद् वशराष्ट्राभिपूजिता: ।। ५२ ।।
टीका-आदर्शवादी जीवन क्रम में आत्म- कल्याण और विश्व-कल्याण के दुहरे प्रयोजन सधते देखते हैं । अंतःकरण में उकृष्टता के प्रति श्रद्धा-चिंतन में आदर्शों की पक्षधर मंगलमयी प्रज्ञा उभरती है । फलतः ऐसी देवोपम प्रवृत्ति के लोग अपने कर्म में व्यवहार में लोकमानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के दो प्रयोजनों को प्रमुखता देते हैं और अपने वंश व राष्ट्र में पूजे जाते हैं ।। ४१-५२ ।।
अर्थ-सामान्य दृष्टि वाले व्यक्ति परमार्थ परायण जीवन में व्यक्तिगत हानि देखते हैं । आत्म कल्याण की बात भी सोचते हैं, तो संसार को मिथ्या कहकर केवल अपने भले की बात को महत्व देते हैं । महामानव स्तर के व्यक्ति ऐसा मार्ग पकड़ते हैं, जो आत्म-कल्याण और विश्व- कल्याण दोनों को एक साथ उपलब्ध कराता है । लोक मानस के परिष्कार के प्रयास से व्यक्ति स्वयं भी परिष्कृत होता रहता है । समाज में सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में उसके अंदर भी वे पनपती हैं, इस प्रकार दोहरा लाभ मिल जाता है ।
पुष्य की दृष्टि
''बंधुवर पुष्प! लो सबेरा हुआ, माली इधर ही आ रहा है, अपनी सज्जनता, सौमनस्यता तथा उपकार की सजा भुगतने के लिए तैयार हो जाओ ।'' ''तात ! यदि मेरी सीख मानते और कठोरता व कुटिलता का आश्रय ग्रहण किए रहते, तो आज यह नौबत नहीं आती ।''
फूल कुछ बोला नहीं, उसकी स्थिति और भी मोहक हो उठी । माली आया, उसने फूल को तोड़ा और डलिया में रखा । काँटा दर्प में हँसा, माली की वृद्ध उँगलियों में चुभा और अहंकार में ऐंठ गया । माली उसे गालियाँ बकता हुआ वापस लौट गया ।
समय बीता । एक दिन देव-मंदिर में चढ़ाये उस फूल की सूखी काया को उठाकर कोई उसी वृक्ष की जड़ों के पास डाल गया । कटि ने प्लान मुख सुमन को देखा तो हँसा और बोला-'' कहो तात्! अब तो समझ गये कि परोपकारी होना अपनी ही दुर्गति कराना है ।''
फूल की आत्मा बोली-''बंधु, यह तुम्हारा अपना विश्वास है । शरीरों में चुभ कर दूसरों की आत्मा को कष्ट पहुँचाने के पाप के अतिरिक्त तुम अपयश के भी भागी बने । अंत तो सभी का सुनिश्चित है; किन्तु अपने प्राणों को देवत्व में परिणत करने और संसार को प्रसन्नता प्रदान करने का जो श्रेय मुझे मिला, तुम उससे सदैव के लिए वंचित रह गए । मैं दृष्टि से फायदे में हूँ और तुम घाटे में ।''
मंत्री भद्रजित की देवकृति
राजा बालीक ने किसी बात पर रुष्ट होकर प्रधान आमात्य भद्रजित को पदच्युत कर दिया । सोचा इससे उन्हे प्रताड़ना मिलेगी और होश ठिकाने आयेंगे । जन सम्मान के बिना कौन सुखी रह सकता है ।
भद्रजित की आदर्शनिष्ठ बुद्धि अडिग रही, प्रेरणा हुई-लोकमंगल के लिए पद नहीं, श्रेष्ठ भावना चाहिए । उन्होंने जन संपर्क साधा और लोक-सेवा के कार्यों में संलग्र हो गए । सहयोग पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ा । फलत:भद्रजित के सुख- संतोष में भी वृद्धि हो गई ।
राजा की इच्छा हुई कि अमात्य को मिली प्रताड़ना का प्रतिफल आँखों देखें । सो वे छद्म वेश बनाकर वहाँ जा पहुँचे जहाँ भद्रजित उन दिनों निवास कर रहे थे ।
राजा ने देखा भद्रजित बिल्कुल सहज स्थिति में हैं । अभाव का कोई चिह्न नहीं था । कुशल क्षेम पूछी तथा राज्यपद न रहने की प्रतिक्रिया जाननी चाही । भद्रजित ने कहा-''मेरे ऊपर राजा ने बड़ा उपकार किया । मुझे यह समझने का अवसर मिला, कि पद की अपेक्षा अपने कर्म और व्यवहार का प्रभाव कितना अधिक सार्थक होता है । आज मेरे और मेरी आराध्य जनता के बीच केवल स्नेह सूत्र हैं । पद, प्रतिष्ठा और औपचारिकता की खाईं पट चुकी है । सुख-दु:ख में एक होने का अवसर मिला । जो आत्मीयता अब अनुभव हुई वह पहले कहाँ थी ?'' राजा समझ गए सत्युरुष पद से नहीं, अपनी देवोपम प्रवृत्तियों से सम्मान पाते है।
सिद्धांतवादी वर्नार्ड शॉ
सिद्धांतवाद की जीती-जागती मूर्ति का नाम है-जार्ज बर्नार्ड शॉ । वे आयरलैंड के माने हुए लेखक थे । उस देश में मांसाहार और सुरा-सुंदरी का साधारण प्रचलन है । बर्नार्ड शॉ ने इन तीनों से आजीवन बचे रहने का प्रयास किया और उसे पूरी तरह निभाया ।
उनकी आजीविका अच्छी थी । ख्याति भी विश्वव्यापी थी । एक युवती ने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उनने चकित होकर इसका कारण पूछा । युवती ने कहा-"मैं चाहती हूँ कि मेरी संतान मुझ जैसी सुंदर और आप जैसी विद्वान हो ।'' शॉ समझ गए कि यह सुंदरी मुझे शब्दों के जाल में फँसाना चाहती है । उनकी आदर्शनिष्ठा बुद्धि ने तुरंत मार्ग खोजा । वे बोले-''देवी आप जैसा सोचती हैं यदि उसका ठीक उलटा हो गया तब कैसा होगा? मुझ जैसा कुरूप और आप जैसी मूर्ख संतान भी तो हो ही सकती है ।'' निरुत्तर होकर महिला लौट गई । शॉ अपने सिद्धांत पर अडिग रहे ।
शॉ ने जो भी कमाया सार्वजनकि कार्यों के लिए दान कर दिया । मरने के बाद उनके जनाजे में पशु-पक्षियों का जुलूस चले, ऐसी वे वसीयत कर गए । वे कहते थे कि पशु-पक्षियों का मांस मैंने कभी नहीं खाया और कुटुंबियों की तरह उन्हें माना है सो वे ही जनाजे के साथ चलने के अधिकारी हैं । उनकी विद्वत्ता, उनकी आदर्शनिष्ठा के सहारे ही इतनी निखरी और लोकप्रिय हुई ।
वुंड्रेज की सफल श्रम साधना
ओलंपिक खेलों का नाम आज संसार के बच्चे-बच्चे की जुबान पर है । इस स्थिति में लाने का श्रेय वुंड्रेज को है । उनने बहुत छोटे संगठन को विश्व स्तर का बनाया और सशक्त राष्ट्र, जो धींगामस्ती करते और मनमानी चलाते थे, उसे सूझ-बूझ और साहस के साथ रोका। आज १६ हजार उच्च कोटि के खिलाड़ी इस माध्यम से ट्रेनिंग प्राप्त कर रहे है ।
कभी खेल-कूद को गँवारों का शुगल समझा जाता था । वुंड्रेज की रचनात्मक बुद्धि ने उसे वह स्थान दिलाया कि उसे सम्मानित योग्यता माना जाने लगा । इससे उत्साह ग्रहण कर सारे संसार में व्यायाम के पक्ष में वातावरण बना है और उसका प्रभाव छोटे-छोटे गाँवों पर पड़ा है । लोगों की उछल-कूद की अनियंत्रित आदत को खेल भावना के अनुशासित साँचे में ढालने में वुंड्रेज के अथक श्रम को सदा श्रेय दिया जाता रहेगा। सारे विश्व में उसका और उसकी खेल योजना का नाम गौरव के साथ लिया जाता है ।
पाखंड उन्मूलक सच्चे संन्यासी दयानंद
टंकारा (गुजरात) में जन्मे मूलशंकर अधिक विद्या प्राप्त करने की दृष्टि से घर छोड़कर मथुरा चल दिए । यहाँ स्वामी विरजानंद की पाठशाला में उनने संस्कृत भाषा तथा वेदों का गहन अध्ययन किया।
अन्य विद्यार्थी तो पढ़-लिखकर अपना पेट पालने चल देते हैं, गुरु को एक प्रकार से भूल ही जाते है । मूलशंकर उनमें से न थे। उनने विरजानंद से गुरुदक्षिणा के लिए निवेदन किया । गुरु ने उनसे वेद- धर्म का प्रसार करने में और प्रचलित पाखंड के उन्मूलन में जीवन लगा देने की याचना की । सच्चे शिष्य ने तत्काल संन्यास ले लिया और नाम स्वामी दयानंद रखा गया । वे गुरु की इच्छा पूरी करने के लिए देशव्यापी भ्रमण में निकल पड़े । कुछ समय उन्होंने हिमालय गंगा तट पर तप किया और नया आत्मबल संचित करके अपने काम में जुट गए ।
उनने आर्यसमाज की स्थापना की । 'सत्यार्थ-प्रकाश' नामक प्रख्यात ग्रंथ लिखा । वेद भाष्य किया और अनवरत प्रव्रज्या में जुट गए । उनके प्रयास से एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया, जिसने हिन्दू धर्म के पुरातन स्वरूप से जन-जन को अवगत कराया । आर्य समाज की खदान में से बहुमूल्य मणि- माणिक्य निकले जिनकी कृतियों को कभी भुलाया न जा सकेगा ।
वेद ज्ञान के प्रसारक मैक्समूलर
जर्मनी के डेजी इलाके में जन्मे मैक्समूलर उपयुक्त अध्ययन के उपरांत कट्टरवादी बिल्कुल न रहे । सत्य की शोध में जहाँ भी यथार्थता दीख पड़ी, वहाँ से उसे ढूँढ़ निकालने का मन में निश्चय कर वे निकल पडे़ ।
वेदों को ज्ञान का भंडार जाना जाता था । वे वेदों को ढूँढने और उस ज्ञान को सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए व्याकुल हो उठे । हिन्दुस्तान आये, तो यहाँ बड़ी अजीब स्थिति देखी । पंडित लोग अपनी बिरादरी के अतिरिक्त वह ज्ञान किसी को बताना-सुनाना नहीं चाहते थे । इस कारण उन्हें भारी कठिनाई का सामना करना पड़ा । जो कार्य कम समय में हो सकता था, वह अत्यधिक समय में हुआ, फिर भी वे निराश न हुए ।
उनने वेदों को जर्मन भाषा में टीका सहित प्रकाशित किया । फिर वह अंग्रेजी में भी अनुवादित हुए । इसके उपरांत भारतीयों को भी अपनी उपेक्षा और संकीर्णता पर लजा आयी और वेदों की चर्चा, शिक्षा तथा छपाई होने लगी । सी और शूद्र भी उस यान को मनुष्यों की तरह प्राप्त करने लगे ।
आदर्श चिकित्सक
मैसूर राज्य के एक छोटे-से गाँव मणिपाल में जन्मे डॉ० पाई डॉक्टरी की उच्च शिक्षा प्राप्त करके जैसे ही निकले, वैसे ही नौकरियों के प्रस्तावों का ढेर लग गया; पर उनने उन सबको अस्वीकृत करते हुए अपनी जन्मभूमि तथा समीपवर्ती पिछडे़ क्षेत्रों की सेवा करने का निश्चय किया और वहीं एक छोटी-सी डिस्पेंसरी खोल कर जम गए । निर्धन रोगियों की भीड़ से अस्पताल खचाखच भरा रहता था । नाम मात्र के पैसे से लोग भारी लाभ उठाने लगे ।
अब डॉक्टर साहब का ध्यान अपने क्षेत्र में शिक्षा-व्यवस्था बनाने तथा आर्थिक सुविधायें उत्पन्न करने की ओर गया तथा इन्हें पूरा करने का निश्चय किया । इन नि:स्वार्थ प्रयत्नों में उन्हें सरकारी और गैर सरकारी सहयोग पूरा-पूरा मिला । छोटी स्थापनायें क्रमश: बढ़ते-बढ़ते उन्नति के चरम शिखर तक पहुँचीं ।
उस क्षेत्र में उनने अनेक विद्यालय खुलवाये, सहकारी बैंकें स्थापित करायीं; महिलाओं के लिए नर्सिंग स्कूल खुलवाया । छोटे-से सिंडीकेट बैंक की अब छ: राज्यों में एक सौ नवासी शाखाएँ हैं । गाँधी मैमोरियल कॉलेज तथा मणिपाल मेडीकल कॉलेज उन्हीं की स्थापना है । उस पिछड़े क्षेत्र को हर दृष्टि से डॉक्टर साहब ने इतना समुन्नत बनाया कि लोगों के लिए वह दर्शनीय तीर्थ बन गया ।
गोस्वामीजी की समाज-निष्ठा
लायलपुर (पंजाब) में जन्मे गोस्वामी गणेशदत्त ने अपने श्रम, ज्ञान और समय का विसर्जन देश-सेवा के लिए कर दिया। वे रचनात्मक कार्यों में विश्वास करते, थे । देखा कि उस समूचे प्रांत में उर्दू का बोलबाला है । हिन्दी जानने वाले लोग मुट्ठी भर थे । हिन्दी समझे बिना हिन्दू धर्म को समझना कठिन है-यह सोचकर उनने हिन्दी की प्रौढ़ पाठशालायें-बालशालाएँ चलाने का प्रयत्न किया । इसके लिए घर- घर गए और शिक्षार्थियों को ढूँढ़ कर लाए। देखते-देखते चार सौ पाठशालायें चलने लगीं ।
गोस्वामी जी ने सनातन धर्म सभा और महावीर दल की स्थापना की । समय- समय पर देश में आने वाले दुर्भिक्ष, महामारी आदि में अपने साथियों की सहायता एकत्रित करके दौड़ पड़े । आजीवन वे सेवा कार्यों में ही लगे रहे । पंजाब में एक संस्कृत कॉलेज स्थापित किया और हरिद्वार में सप्तऋषि आश्रम बनाया । इन प्रयासों के मूल में उनका उद्देश्य हिन्दी, हिन्दू हिन्दुस्तान की भावना को प्रबल बनाना था ।
महानता का मापदंड
"क्या तुम मेरे समान शक्ति, नहीं चाहतीं?"-यह कहकर 'आँधी' अपनी छोटी बहन मंदवायु की ओर देखने लगी। कुछ उत्तर न पाकर वह फिर कहने लगी- ''देखो, जिस समय मैं उठती हूँ, उस समय दूर-दूर तक लोग तूफान के चिह्रों से मेरे आने का संवाद चारों ओर फैला देते है । समुद्र के जल के साथ ऐसा किलोल करती हूँ कि पानी की लहरों को पर्वत के समान ऊपर उछाल देती हूँ । मुझे देखकर मनुष्य अपने घरों में घुस जाते हैं, पशु-पक्षी अपनी जान बचाकर भागते-फिरते हैं । कमजोर मकानों के छप्परों को भी उड़ा कर फेंक देती हूँ; मजबूत मकानों को पकड़ कर हिला देती हूँ । मेरी साँस से राष्ट्र के राष्ट्र धूल में मिल जाते हैं । क्या तुम नहीं चाहतीं कि तुममें भी मेरे सामन शक्ति आ जाय?''
यह सुनकर वसंत की मंदवायु ने कुछ उत्तर न दिया और अपनी यात्रा को चल पड़ी । उसको आते देखकर कर नदियाँ, ताल, जंगल, खेत सभी मुस्कराने लगें । बगीचों में तरह-तरह के फूल खिल उठे । रंग-बिरंगे फूलों के गलीचे बिछ गए । सुगंधि से चारों ओर का वातावरण भर गया । पक्षीगण कुंजों में आकर विहार करने लगे । सभी का जीवन सुखद हो गया । इस तरह से अपने कार्यों द्वारा वसंत वायु ने अपनी शक्ति का परिचय आँधी को करा दिया ।
महामानवों का जीवन क्रम भी वसंत की मंदवायु के समान सुरभि-सौंदर्य चारों ओर फैलाने वाला होता है । वे पराक्रम में नहीं, सौजन्य में महानता देखते हैं । इसी कारण वे सर्वत्र पूजे जाते है ।