Books - प्रज्ञा पुराण भाग-2
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Language: HINDI
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।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -1
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पञ्चमे दिवसे तत्र निश्चिते समये पुन: । ज्ञानगोष्ठी समारब्धा सत्संगसमयोद्भवा ।। १ ।। जिज्ञासव: समे स्वानि चासनानि तु भेजिरे । प्रेरणा भावबोधिन्यो लभ्यन्ते प्रतिपादनै: ।। २ ।। प्रतिपादनमाश्रुत्य सर्वं सर्वे व्यधुश्च तत् । हृदयंगममेतेऽत्र संगता: पुरूषा: स्वयम् ।। ३ ।।
टीका- पाँचवे दिन संत समागम की ज्ञानगोष्ठी नियत-निर्धारण के अनुसार निश्चित समय पर आरंभ हुई । सभी जिज्ञासुओं ने अपने-अपने आसन संभाले। प्रवचन-प्रतिपादनों से सभी को भावभरी प्रेरणाएं मिल रही थीं । सक प्रतिपादनों को सुनने के साथ-साथ गंभीरतापूर्वक हृदयंगम भी कर रहे थे ।। १ -३ ।।
उद्दालक उवाच-
देवधर्मस्य श्रुत्वैतद् युग्मयोस्तु विवेचनम् । आनन्द: परम: प्राप्त: समैरस्माभिरुत्तम ।। ४ ।। तत्पालनाय सर्वेषामुत्साह: समुदेति च । वचोऽमृतमिदं नव्यं जीवनं न: प्रयच्छति ।। ५ ।। प्रकाशमपि, तद् युग्मं तृतीयं कृपया भवान्। प्रकाशयतु सम्बन्ध: कोऽनुबन्धस्य चाऽस्य तु ।। ६ ।। अनुशासनस्य मध्ये स भिन्नता का च विद्यते। व्यवहारोपयोगी च बोधो धर्मस्य स्यादयम् ।। ७ ।।
टीका-उद्दालक बोले-हे देव! धर्म के दो युग्मों की विवेचना सुनकर हम सब को बड़ा आनंद प्राप्त हुआ है । उनके परिपालन में सभी को भारी उत्साह उमड़ रहा है । आपके अमृत वचन हम सबको नया जीवन, नया प्रकाश दे रहे हैं । अब कृपा कर तृतीय युग्म पर प्रकाश डालें और बताएं कि अनुशासन और अनुबंक्ष कापरस्पर क्या संबंध है? उनके बीच भिन्नता क्या है, जिससे धर्म का व्यवहारोपयोगी बोध हो जाय ।। ४-७ ।।
आश्वलायन उवाच
अनुशासनमत्राहुर्गुणं सामाजिकं बुंधा: । सभ्यताशब्दितोऽप्येतदनुबन्धस्तथास्ति सः ।। ८ ।। गुणस्त्वान्तरिको यां च संस्कृतिं कथयन्त्यपि । सुसंस्कारित्वशब्देन जना जानन्ति कुत्रचित् ।। ९ ।। द्विधैतयो: प्रयोगस्तु क्षेत्रयोर्भवति द्वयो: । एकमुद्गममूलं तु द्वयोरेवास्ति वस्तुत: ।। १० ।।
टीका-श्री आवश्वलायन ने कहा-विद्वानों ने अनुशासन को सामाजिक गुण कहा है और इस बाह्य अनुबंध को सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है । इसका दूसरा रूप आंतरिक गुण के रूप में होता है, जिसेसुसंस्कारिता या संस्कृति के नाम से जाना जाता है । इनके प्रयोग तो दोनों क्षेत्रों में दो प्रकार से होते हैं, पर उनका मूल उद्गम एक ही है ।। ८-१० ।।
अर्थ- धर्म के तृतीय युग्म के रूप में यहाँ पर सभ्यता अनुशासन के रूप में बहिरंग में कार्य करने वाले एवं संस्कृति अनुबंध के रूप में अंतरंग में क्रियाशील दो गुणों की चर्चा की गयी है । सभ्यता एक प्रकारका बाह्य अनुबंध है एवं संस्कृति एक प्रकार का आत्मानुशासन । इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के पूरक एवं मिलकर समग्र बनते हैं । इन दोनों का मूलभूत स्रोत एक ही है । शब्दों के रूप में इन्हें चाहे जिस तरह अभिव्यक्ति दी जाय; व्यक्तित्व को निखारने, उसे पूर्ण मानव के रूप में विकसित करने के लिए इन दोनों ही गुणों को अपरिहार्य माना गया है ।
अनुबंध की व्याख्या करते हुए उसे अंत: से उद्भूत अनुशासन बताया गया है । संस्कृति, जो संस्कारों का अभिवर्द्धन कर अंत:क्षेत्र को प्रखर बनाती है, इसी का पर्यायवाची शब्द है । सभ्यता बहिरंग से निभने वाला अनुशासन है, अंत: की बाहर अभिव्यक्त होने वाली प्रतिक्रिया है । इस प्रकार मोटे तौर से दोनों ही गुण एक ही मूल से उपजने वाले वृक्ष की दो शाखाएँ हैं ।
सुसंस्कारिता को किसी भी वर्ग, समाज, देश या संस्कृति का मेरुदंड कहा जा सकता है । इसके अभाव में बाह्योपचार निरर्थक है । सारा वैभव इसके न होने की स्थिति में धूलि के समान हो जाता है ।
कितने ही समूह बाहर से संपन्न पर संस्कारों की दृष्टि से खोखले नजर आएँ तो समझना चाहिए कि उनका यह वैभव क्षणिक है । अंदर का शून्य बाहर भी विपन्नता उपजाकर छोड़ेगा । यह भी उचित ही कहा गया है कि सभ्यता अथवा अनुशासन आंतरिक अनुबंध सुसंस्कारिता के पूरक हैं । दोनों का सह अरितत्व एक दूसरे के कारण है यद्यपि दोनों के कार्य क्षेत्र अलग-अलग हैं ।
अनुशासन मर्यादापालन को कहते हैं और अनुबंध आत्मसंयम के लिए किए गए पुरुषार्थ को । मनुष्य को स्वतंत्रता तो मिली है । वह स्वेच्छा से कुछ भी भला-बुरा कर सकता है, किन्तु धर्म-धारणा ने उस पर सन्मार्ग में ही चलते रहने हेतु अनुशासन के अंकुश भी लगाए हैं । हाथी बलिष्ठ होता है । उसकी उपयोगिता भी है, किन्तु अंकुश के बिना वह सही रास्ते पर चलता नहीं । स्वच्छंद होने की स्थिति में कहीं भी भटकता है, पर जब महावत का अंकुश अनुशासन उसकी गतिविधि को नियंत्रित करता और अभीष्ट दिशा में चलने का मार्गदर्शन करता है, तभी उसकी क्षमता का सही उपयोग होता है । उसके बिना वह उच्छ्रंखलता अपनाकर विनाशकारी घटनाक्रम भी खड़े कर सकता है । हर समाज, वर्ग, समूह के लिए ऋषिगणों ने बाह्य मर्यादाओं, वर्जनाओं एवं संस्कार रूपी आत्मानुशासन का प्रावधान यही सोचकर किया है कि मनुष्य स्वभावत: उच्छ्रंखल है । उसे नियंत्रित रखने एवं आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़ाने हेतु इसप्रकार का सीमा बंधन अनिवार्य है । देव संस्कृति की यह विशेषता अपने आप में अनुपम है ।
अपने लिए नहीं
गाँधी जी जब तक सामुदायिक जीवन में संस्कृति एवं सभ्यता का प्रवाह बना रहता, तब तक समाज फलते-फूलते रहते हैं । इसलिए युग निर्माता महामानव अपने आचरण में इस परंपरा का प्रायोगिक प्रशिक्षण करते पाए जाते हैं ।
गाँधी जी के आश्रम में कभी-कभी उनकी पोतियाँ भी आ जाती थीं । जितने दिन ठहरतीं, उतने दिन का खर्च उनके पिताजी को बिल बनाकर भेजा जाता था । आश्रम का पैसा सार्वजनिक कामों में ही खर्च होना चाहिए । व्यक्ति के निजी कार्य के लिए चाहे वह गाँधी जी का संबंधी ही क्यों न हो, उसमें से एक पैसा भी खर्चनहीं किया जा सकता था ।
गाँधी जी समर्थ ब्रिटिश शासन के सम्मुख प्रचंड प्रतिरोध तभी खड़ा कर सके जब उनके पीछे अनुशासनबद्ध स्वयंसेवकों की लंबी कतार थी । उन दिनों कांग्रेस का प्रत्येक सदस्य अनुशासन का पालन करता था । उनकी विजय का यही एकमात्र रहस्य था ।
बापू का विनम्र चपरासी
बिहार के चंपारन जिले में महात्मा गाँधी का शिविर लगा था । किसानों पर होने वाले सरकारी अत्याचारों की जाँच चल रही थी । हजारों की तादाद में किसान आ-आकर बापू से अपना दु:ख निवेदन कर रहे थे । उस समय उस जाँच आंदोलन में कृपलानी जी का बड़ा प्रमुख सहयोग था । वे गाँधी जी के कैंप सेक्रेटरी के रूप में काम कर रहे थे । इसलिए जिला अधिकारियों के आँख की किरकिरी बने हुए थे । इस जाँच-पड़ताल के दौरान महात्मा जी को अनेक चिट्ठियाँ दिन में बहुत बार कलेक्टर के पास भेजनी पड़ती थीं । यह सब डाक ले जाने का काम कृपलानी जी ही करते थे ।
कृपलानी जी को डाक लाते-ले जाते देखकर एक बार कलेक्टर ने पूछा-''आप ही तो वह प्रो० कृपलानी हैं, जो इस सब हलचल के मुखिया है । फिर आप यह डाक लाने-ले-जाने का काम क्यों करते हैं?''
कृपलानी जी ने उत्तर दिया-''मैं तो एक साधारण कार्यकर्त्ता और बापू का चपरासी हूँ ।'' उनकी यह विनम्रता एवं गाँधी जी की हर बड़े से बडे व्यक्ति से छोटा कार्य भी करा लेने की क्षमता ने उन दिनों महामानवों का एक विशाल समुदाय विनिर्मित कर दिया था । स्वतंत्रता प्राप्ति में बहिरंग के प्रयास की कम एवं इन मूल्यों की महत्ता अधिक आँकी जानी चाहिए ।
राष्ट्र की रक्षा सबसे पहले
हालैंड समुद्र से निचाई पर बसा हुआ है । पानी भीतर न घुसे इस लिए उस देश के किनारे पर दीवारें बनी हुई हैं । कभी पानी भीतर आने लगता है तो बड़े-बड़े पंप उसे उलीचने के लिए लगाने पड़ते हैं ।
एक दिन रात होते-होते एक लड़का पीटर समुद्र की दीवार पर से निकला । उसने देखा कि दीवार में छेद हो गया है और उससे होकर पानी नगर में तेजी से दौड़ रहा है । स्काउटिंग की शिक्षा प्राप्त अनुशासन प्रिय छात्र ने कोई और उपाय न देखकर अपनी बांह उस छेद में ठूँस कर बहाव को रोका । सहायता के लिए औरों को पुकारता रहा पर उस सुनसान में किसी ने उसकी आवाज ही नहीं सुनी । बारह घंटे भयंकर शीत और पानी में डूबा हुआ लड़का मरणासन्न हो गया । सबेरे जब लोग उधर से निकले तो लड़के को इस स्थिति में पानी को रोके हुए पड़े देखा । उपचार कराने पर बड़ी कठिनाई से ही उसकी जान बचाई जा सकी । हालैंड को डूबने से बचाने वाले इस व्यक्ति पीटर का नाम हालैंड के इतिहास में अमर है ।
ऐसे ही व्यक्ति अपने ऐसे ही गुणों के कारण विश्ववद्य महामानव के रूप में पूजे जाते हैं । उनकी गाथाएँ अनेक के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाती हैं ।
कोई चोर नहीं
अनुशासन परंपरा का जितने व्यापक क्षेत्र में विस्तार होगा, उसका उतना ही बड़ा प्रतिफल भी मिलेगा ।
जापान आज चोटी के देशों में से एक है । उसकी सफलता का रहस्य इसी एक उदाहरण से उद्घाटित होता है । एक बार कुछ जापानी छात्र बस छोड़कर तीन मील ऊपर पर्वत पर चढ़ रहे थे । एक अमेरिकी बस पीछे से आई । उसके एक यात्री ने छात्रों से पूछा-''आप लोगों का सामान खुला पड़ा है, कोई चौकीदारभी नहीं ।''
छात्रों ने कहा-''जापान में कोई चोरी नहीं करता, इसीलिए तो हमारा देश इतना प्रगतिशील है ।''
कैदी भागे नही
एक बार आस्ट्रेलिया-तस्मानिया के हॉवर्ट नगर में बहुत जोर की आग लगी । जेल का फाटक भी जल गया । कैदी निकल कर आग बुझाने में लग गए । आग बुझ जाने पर सभी कैदी अपनी कोठरियों में वापस आ गए । गिने तो सब मौजूद थे
अफसर ने पूछा-''आप लोग इस अवसर का लाभ उठाकर भाग भी सकतें थे ।'' कैदियों ने कहा-''हम अपनी सरकार और कानून के प्रति वफादार हैं । ऐसे काम नहीं कर सकते, जिससे न्याय-व्यवस्था बिगड़े।'' सरकार ने प्रसन्न होकर ऐसे नीतिनिष्ठ सभी कैदियों को छोड़ दिया ।
कनाडा के निर्माता
कनाडा अपने आरंभिक दिनों में छोटी-छोटी ऐसी रियासतों का समूह था, जो हमेशा आपस में लड़ते-झगडते रहते थे । इस फूट-फिसाद से सभी को हानि थी । इन्हें एक सूत्र, एक अनुशासन में बाँधने का काम मेकडोनल्ड ने किया । वह किसी बड़े घराने में पैदा नहीं हुआ था और न शिक्षा या प्रतिभा की दृष्टि में कोई उच्च श्रेणी का व्यक्ति था । पर सूझ-बूझ और मधुर वार्तालाप की दृष्टि से ऐसा कुशल था किं एकीकरण मार्ग में अड़ी हुई सैकड़ों गुत्थियों को उसने बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक सुलझा लिया ।
मैकडोनल्ड को आज के कनाडा का निर्माता माना जाता है । उसने ऐसी नींव रखी कि वह देश निरंतर उन्नतिशील होता चला गया । उसके व्यक्तित्व में ऐसा जादू था कि कट्टर विरोधी भी पानी पानी हो जाते थे ।
स्वयं को भी देखें
आत्मानुशासन का अर्थ है-अपने आप की पैनी समीक्षा और यदि कोई कमी दिखाई दे, तो उसे हटाने, के लिए अपने साथ ही बरती गई कठोरता ।
एक शिष्य बहुत दिन से गुरु की सेवा कर रहा था । एक दिन उसने कहा-''कोई सिद्धि सिखाइए ।''
शिष्य अनपढ़ था । उसे सिद्धि कैसे सिखाई जाय । गुरु ने झोली में से निकालकर एक डंडा दे दिया और कहा इसमें यह सिद्धि है कि किसी का अंतर्मन तुम देख सकोगे ।
शिष्य ने डंडा ले लिया और सबसे पहले गुरु का ही अंतर्मन देखा । उसमें मक्खी-मच्छर जैसे कीडे़-मकोडे़भिन-भिना रहे थे ।
शिष्य की श्रद्धा चली गई । गुरु के भीतर तो इतनी गंदगी है ।
अब गुरु ने कहा-''डंडे को अपनी ओर करके देख ।'' देखा तो साँप-बिच्छू जैसे भयंकर जीव दौड़ रहे थे ।
शिष्य समझ गया कि मुझसे गुरु सौ गुना अच्छे हैं । तुलना करने पर उसकी श्रद्धा वापस लौट आई । उसने सोचा मुझे पहले अपनी गंदगी मिटानी चाहिए, बाद में कहीं और देखना चाहिए ।
संरक्षण मात्र
नासिरुद्दीन दिल्ली के बादशाह थे; पर वे अवकाश कें समय टोपियाँ बनाकर व कुरान की नकल करके जो धन मिलता, उसी से अपना खर्च चलाते । बादशाह की बेगम हाथ से खाना पकाया करती थीं ।
एक बार खाना पकाते समय बेगम का हाथ जल गया । वह सोचने लगीं-एक बादशाह की बेगम होते हुए भी उसे एक नौकर भी मयस्सर नहीं । उसने अपने पति से कहा-''आप राज्य के स्वामी हैं । क्या आप हमारे लिए भोजन पकाने वाले एक नौकर का प्रबंध नहीं कर सकते?''
"बेगम, आपके लिए नौकर रखा जा सकता है, बशर्ते कि हम अपने सिद्धांतों से डिग जाँय । राज्य, धन, वैभव तो प्रजा का है । हम तो उसके संरक्षक मात्र हैं । उसका उपयोग अपने लिए करें; यह तो बेईमानी होगी ।''-नासिरुद्दीन ने उत्तर दिया । उनकी सिद्धांत निष्ठा के आगे पत्नी को झुकना ही पड़ा ।
फाटक नही खुला
इस समीक्षा में थाड़ी भी ढील दी गई, बस उसी समय से पतन-पराभव की परंपरा पनपने लगती है । इस पुण्य भूमि का इतिहास इस बात का साक्षी है कि कठिन परिस्थितियों में भी हमने यह अनुबंध नहीं तोड़ा ।
जोधपुर महाराज एक युद्ध में लड़ने के लिए सेना समेत गए । हार होती देखकर अपनी जान बचाकर भाग आए । रात्रि को किले का दरवाजा खटखटाया; प्रहरी रानी के पास गए । उस स्थिति में रात्रि के समय दरवाजा उनकी आज्ञा से ही खुल सकता था ।
रानी ने पूरा विवरण सुनने के बाद दरवाजा न खोलने का हुक्म दिया और राजा से कहलवा भेजा-''जोधपुरनरेश होते तो पीठ दिखाकर न आते । या तो जीत कर लौटते या उनकी लाश वापस आती । भगोड़ा तो कोई छद्मवेषधारी हो सकता है ।''
राजा को पहरेदारों ने रानी का आदेश सुनाया । वे उल्टे पैर वापस लौट गए । पूरे जोश के साथ दुबारा लड़े और जीतकर वापस लौटे ।
इस देश और जातीय जीवन की समर्थता ऐसे ही कठोर अनुबंधों के सहारे विकसित हुई थी ।
चतुर घोड़ा
इसके लिए आवश्यक है कि मन को पहले से ही सुसंस्कारिता का अभ्यस्त बनाया जाए ।
एक बार एक रईस ने एक घोड़े की बहुत प्रशंसा सुनी । सो उसने उसे खरीदने का निश्चय किया और मुँह मांगा मूल्य देकर खरीद लिया ।
घोड़ा बहुत चतुर था । उदाहरण उसनें प्रत्यक्ष देखा-मालिक पीठ पर से गिरा, तो घोड़े ने सहारा देकर उसे उठाया, पीठ पर बिठाया और डाक्टर के यहाँ पहुँचाया ।
बहुत दिन बन्द संयोगवश वैसी ही दुर्घउ।ना उस रईस के साथ घटी, वह दौड़ते हुए गिर पड़ा । घोड़े ने उसेउठाया, पीठ पर बिठाया और डाक्टर के यहाँ पहुँचाया ।
पर असमंजस यह रहा कि उसे जानवरों के अस्पताल में पहुँचाया गया । घोड़ा उसी को जानता था । मनुष्यों के डाक्टरों से उसका वास्ता ही न पड़ा था । वहाँ पहुँचता तो कैसे?
रईस उस प्रसंग की चर्चा कर रहे थे कि एक संत ने कहा-''मन ऐसा ही बहुमूल्य घोड़ा है; सो उसने जो सीखा है, वही करता है । खरीदने वाले को चाहिए कि उसे वह सिखाए जो कराना है ।
हम तो कभी झगडे़ भी नहीं
ईश्वरीय अनुशासन को मानने वाले को डर किस बात का । थोरो अमरीका के सुप्रसिद्ध दार्शनिक थे । महात्मा गाँधी भी उनके विचारों से समय-समय पर प्रेरणा लिया करते थे । वे जब मृत्यु-शैया पर पड़े थे, तब उनकी दूर की रिश्ते की एक चाची उनसे मिलने आई । उसने कहा- ''बेटा, ईश्वर से शांति की प्रार्थना करके तूने उससे आज तक के अपराधों की क्षमा माँगी या नहीं?''
थोरो ने मुस्कराकर कहा-''चाची, हम दोनों का कभी मनमुटाव हुआ हो या किसी बात पर आपस में झगड़े हुए हों, ऐसा मुझे तो याद नहीं आता । मैंने कभी उनके आदेशों का उल्लंघन नहीं किया, हमेशा उनके इशारे पर ही चलता रहा तो क्षमा किस बात की माँगू?''
आत्मानुशासन मानने वाले, संस्कार संवर्द्धन की महत्ता समझने वाले ईश्वर को प्रिय है । उन्हें किसी प्रकार का आडंबर रचने की क्या आवश्यकता?
संत द्वारा बाग की रखवाली
संत इब्राहीम ने ईश्वर भक्ति के लिए घर छोड़ दिया और वे भिक्षाटन पर निर्वाह करके साधनारत रहने लगे ।
किसी किसान के यहाँ वे भिक्षा माँग रहे थे तो उसने रोक कर कहा-''आप जवान हैं, परिश्रमपूर्वक निर्वाह करें । बचे समय में साधना करें । समर्थ का भिक्षा माँगना उचित नहीं ।''
इब्राहीम को बात जँच गई । उनने इस सदुपदेश कर्ता का एहसान माना और पूछा-''तो फिर इतनी कृपा और करें कि मुझे काम दिला दें ताकि गुजारे के संबंध में निश्चिंत रहकर भजन करता रह सकूँ ।''
किसान का एक आम का बगीचा था । उसकी रखवाली का काम सौंप दिया । साथ ही निर्वाह का प्रबंध कर दिया । दोनों को सुविधा रही ।
बहुत दिन बाद आम की फसल के दिनों में किसान बगीचे में पहुँचा और मीठे आम तोड़कर लाने के लिए कहा । इब्राहीम ने बड़े और पके फल लाकर सामने रख दिए। वे सभी खट्टे थे । नाराजी का भाव दिखाते हुए किसान ने पूछा-''इतने दिन यहाँ रहते हो गए । इस पर भी यह नहीं देखा कि कौन पेड़ खट्टे और कौन मीठे फलों का है?''
इब्राहीम ने नम्रतापूर्वक कहा-''मैंने कभी किसी पेड़ का फल नहीं चखा । बिना आपकी आज्ञा के चोरी करके मैं क्यों चखता?''
किसान इस रखवाले की ईमानदारी-वफादारी पर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने कहा-'' आप पूरे समय भजनकरें । निर्वाह मिलता रहेगा । रखवाला दूसरा रख देंगे । ''
इब्राहीम दूसरे दिन बड़े सबेरे ही उठकर अन्यत्र चले गए । चिट्ठी रख गए-'' आपने आरंभ में कहा था बिना परिश्रम के नहीं खाना चाहिए । आपकी उस अनुशासन भरी शिक्षा से ही मेरी श्रद्धा बड़ी थी । अब तो आप ठीक उल्टा उपदेश करने लगे । मुफ्त का खाने लगूँ, यह कैसे होगा? आपकी बदली हुई शिक्षा को देखकर मैंने चला जाना ही उचित समझा ।''
संस्कारों की प्रबलता सही मर्ण पर चलने वाले को कभी दिग्भ्रांत नहीं कर सकती।
टीका- पाँचवे दिन संत समागम की ज्ञानगोष्ठी नियत-निर्धारण के अनुसार निश्चित समय पर आरंभ हुई । सभी जिज्ञासुओं ने अपने-अपने आसन संभाले। प्रवचन-प्रतिपादनों से सभी को भावभरी प्रेरणाएं मिल रही थीं । सक प्रतिपादनों को सुनने के साथ-साथ गंभीरतापूर्वक हृदयंगम भी कर रहे थे ।। १ -३ ।।
उद्दालक उवाच-
देवधर्मस्य श्रुत्वैतद् युग्मयोस्तु विवेचनम् । आनन्द: परम: प्राप्त: समैरस्माभिरुत्तम ।। ४ ।। तत्पालनाय सर्वेषामुत्साह: समुदेति च । वचोऽमृतमिदं नव्यं जीवनं न: प्रयच्छति ।। ५ ।। प्रकाशमपि, तद् युग्मं तृतीयं कृपया भवान्। प्रकाशयतु सम्बन्ध: कोऽनुबन्धस्य चाऽस्य तु ।। ६ ।। अनुशासनस्य मध्ये स भिन्नता का च विद्यते। व्यवहारोपयोगी च बोधो धर्मस्य स्यादयम् ।। ७ ।।
टीका-उद्दालक बोले-हे देव! धर्म के दो युग्मों की विवेचना सुनकर हम सब को बड़ा आनंद प्राप्त हुआ है । उनके परिपालन में सभी को भारी उत्साह उमड़ रहा है । आपके अमृत वचन हम सबको नया जीवन, नया प्रकाश दे रहे हैं । अब कृपा कर तृतीय युग्म पर प्रकाश डालें और बताएं कि अनुशासन और अनुबंक्ष कापरस्पर क्या संबंध है? उनके बीच भिन्नता क्या है, जिससे धर्म का व्यवहारोपयोगी बोध हो जाय ।। ४-७ ।।
आश्वलायन उवाच
अनुशासनमत्राहुर्गुणं सामाजिकं बुंधा: । सभ्यताशब्दितोऽप्येतदनुबन्धस्तथास्ति सः ।। ८ ।। गुणस्त्वान्तरिको यां च संस्कृतिं कथयन्त्यपि । सुसंस्कारित्वशब्देन जना जानन्ति कुत्रचित् ।। ९ ।। द्विधैतयो: प्रयोगस्तु क्षेत्रयोर्भवति द्वयो: । एकमुद्गममूलं तु द्वयोरेवास्ति वस्तुत: ।। १० ।।
टीका-श्री आवश्वलायन ने कहा-विद्वानों ने अनुशासन को सामाजिक गुण कहा है और इस बाह्य अनुबंध को सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है । इसका दूसरा रूप आंतरिक गुण के रूप में होता है, जिसेसुसंस्कारिता या संस्कृति के नाम से जाना जाता है । इनके प्रयोग तो दोनों क्षेत्रों में दो प्रकार से होते हैं, पर उनका मूल उद्गम एक ही है ।। ८-१० ।।
अर्थ- धर्म के तृतीय युग्म के रूप में यहाँ पर सभ्यता अनुशासन के रूप में बहिरंग में कार्य करने वाले एवं संस्कृति अनुबंध के रूप में अंतरंग में क्रियाशील दो गुणों की चर्चा की गयी है । सभ्यता एक प्रकारका बाह्य अनुबंध है एवं संस्कृति एक प्रकार का आत्मानुशासन । इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के पूरक एवं मिलकर समग्र बनते हैं । इन दोनों का मूलभूत स्रोत एक ही है । शब्दों के रूप में इन्हें चाहे जिस तरह अभिव्यक्ति दी जाय; व्यक्तित्व को निखारने, उसे पूर्ण मानव के रूप में विकसित करने के लिए इन दोनों ही गुणों को अपरिहार्य माना गया है ।
अनुबंध की व्याख्या करते हुए उसे अंत: से उद्भूत अनुशासन बताया गया है । संस्कृति, जो संस्कारों का अभिवर्द्धन कर अंत:क्षेत्र को प्रखर बनाती है, इसी का पर्यायवाची शब्द है । सभ्यता बहिरंग से निभने वाला अनुशासन है, अंत: की बाहर अभिव्यक्त होने वाली प्रतिक्रिया है । इस प्रकार मोटे तौर से दोनों ही गुण एक ही मूल से उपजने वाले वृक्ष की दो शाखाएँ हैं ।
सुसंस्कारिता को किसी भी वर्ग, समाज, देश या संस्कृति का मेरुदंड कहा जा सकता है । इसके अभाव में बाह्योपचार निरर्थक है । सारा वैभव इसके न होने की स्थिति में धूलि के समान हो जाता है ।
कितने ही समूह बाहर से संपन्न पर संस्कारों की दृष्टि से खोखले नजर आएँ तो समझना चाहिए कि उनका यह वैभव क्षणिक है । अंदर का शून्य बाहर भी विपन्नता उपजाकर छोड़ेगा । यह भी उचित ही कहा गया है कि सभ्यता अथवा अनुशासन आंतरिक अनुबंध सुसंस्कारिता के पूरक हैं । दोनों का सह अरितत्व एक दूसरे के कारण है यद्यपि दोनों के कार्य क्षेत्र अलग-अलग हैं ।
अनुशासन मर्यादापालन को कहते हैं और अनुबंध आत्मसंयम के लिए किए गए पुरुषार्थ को । मनुष्य को स्वतंत्रता तो मिली है । वह स्वेच्छा से कुछ भी भला-बुरा कर सकता है, किन्तु धर्म-धारणा ने उस पर सन्मार्ग में ही चलते रहने हेतु अनुशासन के अंकुश भी लगाए हैं । हाथी बलिष्ठ होता है । उसकी उपयोगिता भी है, किन्तु अंकुश के बिना वह सही रास्ते पर चलता नहीं । स्वच्छंद होने की स्थिति में कहीं भी भटकता है, पर जब महावत का अंकुश अनुशासन उसकी गतिविधि को नियंत्रित करता और अभीष्ट दिशा में चलने का मार्गदर्शन करता है, तभी उसकी क्षमता का सही उपयोग होता है । उसके बिना वह उच्छ्रंखलता अपनाकर विनाशकारी घटनाक्रम भी खड़े कर सकता है । हर समाज, वर्ग, समूह के लिए ऋषिगणों ने बाह्य मर्यादाओं, वर्जनाओं एवं संस्कार रूपी आत्मानुशासन का प्रावधान यही सोचकर किया है कि मनुष्य स्वभावत: उच्छ्रंखल है । उसे नियंत्रित रखने एवं आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़ाने हेतु इसप्रकार का सीमा बंधन अनिवार्य है । देव संस्कृति की यह विशेषता अपने आप में अनुपम है ।
अपने लिए नहीं
गाँधी जी जब तक सामुदायिक जीवन में संस्कृति एवं सभ्यता का प्रवाह बना रहता, तब तक समाज फलते-फूलते रहते हैं । इसलिए युग निर्माता महामानव अपने आचरण में इस परंपरा का प्रायोगिक प्रशिक्षण करते पाए जाते हैं ।
गाँधी जी के आश्रम में कभी-कभी उनकी पोतियाँ भी आ जाती थीं । जितने दिन ठहरतीं, उतने दिन का खर्च उनके पिताजी को बिल बनाकर भेजा जाता था । आश्रम का पैसा सार्वजनिक कामों में ही खर्च होना चाहिए । व्यक्ति के निजी कार्य के लिए चाहे वह गाँधी जी का संबंधी ही क्यों न हो, उसमें से एक पैसा भी खर्चनहीं किया जा सकता था ।
गाँधी जी समर्थ ब्रिटिश शासन के सम्मुख प्रचंड प्रतिरोध तभी खड़ा कर सके जब उनके पीछे अनुशासनबद्ध स्वयंसेवकों की लंबी कतार थी । उन दिनों कांग्रेस का प्रत्येक सदस्य अनुशासन का पालन करता था । उनकी विजय का यही एकमात्र रहस्य था ।
बापू का विनम्र चपरासी
बिहार के चंपारन जिले में महात्मा गाँधी का शिविर लगा था । किसानों पर होने वाले सरकारी अत्याचारों की जाँच चल रही थी । हजारों की तादाद में किसान आ-आकर बापू से अपना दु:ख निवेदन कर रहे थे । उस समय उस जाँच आंदोलन में कृपलानी जी का बड़ा प्रमुख सहयोग था । वे गाँधी जी के कैंप सेक्रेटरी के रूप में काम कर रहे थे । इसलिए जिला अधिकारियों के आँख की किरकिरी बने हुए थे । इस जाँच-पड़ताल के दौरान महात्मा जी को अनेक चिट्ठियाँ दिन में बहुत बार कलेक्टर के पास भेजनी पड़ती थीं । यह सब डाक ले जाने का काम कृपलानी जी ही करते थे ।
कृपलानी जी को डाक लाते-ले जाते देखकर एक बार कलेक्टर ने पूछा-''आप ही तो वह प्रो० कृपलानी हैं, जो इस सब हलचल के मुखिया है । फिर आप यह डाक लाने-ले-जाने का काम क्यों करते हैं?''
कृपलानी जी ने उत्तर दिया-''मैं तो एक साधारण कार्यकर्त्ता और बापू का चपरासी हूँ ।'' उनकी यह विनम्रता एवं गाँधी जी की हर बड़े से बडे व्यक्ति से छोटा कार्य भी करा लेने की क्षमता ने उन दिनों महामानवों का एक विशाल समुदाय विनिर्मित कर दिया था । स्वतंत्रता प्राप्ति में बहिरंग के प्रयास की कम एवं इन मूल्यों की महत्ता अधिक आँकी जानी चाहिए ।
राष्ट्र की रक्षा सबसे पहले
हालैंड समुद्र से निचाई पर बसा हुआ है । पानी भीतर न घुसे इस लिए उस देश के किनारे पर दीवारें बनी हुई हैं । कभी पानी भीतर आने लगता है तो बड़े-बड़े पंप उसे उलीचने के लिए लगाने पड़ते हैं ।
एक दिन रात होते-होते एक लड़का पीटर समुद्र की दीवार पर से निकला । उसने देखा कि दीवार में छेद हो गया है और उससे होकर पानी नगर में तेजी से दौड़ रहा है । स्काउटिंग की शिक्षा प्राप्त अनुशासन प्रिय छात्र ने कोई और उपाय न देखकर अपनी बांह उस छेद में ठूँस कर बहाव को रोका । सहायता के लिए औरों को पुकारता रहा पर उस सुनसान में किसी ने उसकी आवाज ही नहीं सुनी । बारह घंटे भयंकर शीत और पानी में डूबा हुआ लड़का मरणासन्न हो गया । सबेरे जब लोग उधर से निकले तो लड़के को इस स्थिति में पानी को रोके हुए पड़े देखा । उपचार कराने पर बड़ी कठिनाई से ही उसकी जान बचाई जा सकी । हालैंड को डूबने से बचाने वाले इस व्यक्ति पीटर का नाम हालैंड के इतिहास में अमर है ।
ऐसे ही व्यक्ति अपने ऐसे ही गुणों के कारण विश्ववद्य महामानव के रूप में पूजे जाते हैं । उनकी गाथाएँ अनेक के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाती हैं ।
कोई चोर नहीं
अनुशासन परंपरा का जितने व्यापक क्षेत्र में विस्तार होगा, उसका उतना ही बड़ा प्रतिफल भी मिलेगा ।
जापान आज चोटी के देशों में से एक है । उसकी सफलता का रहस्य इसी एक उदाहरण से उद्घाटित होता है । एक बार कुछ जापानी छात्र बस छोड़कर तीन मील ऊपर पर्वत पर चढ़ रहे थे । एक अमेरिकी बस पीछे से आई । उसके एक यात्री ने छात्रों से पूछा-''आप लोगों का सामान खुला पड़ा है, कोई चौकीदारभी नहीं ।''
छात्रों ने कहा-''जापान में कोई चोरी नहीं करता, इसीलिए तो हमारा देश इतना प्रगतिशील है ।''
कैदी भागे नही
एक बार आस्ट्रेलिया-तस्मानिया के हॉवर्ट नगर में बहुत जोर की आग लगी । जेल का फाटक भी जल गया । कैदी निकल कर आग बुझाने में लग गए । आग बुझ जाने पर सभी कैदी अपनी कोठरियों में वापस आ गए । गिने तो सब मौजूद थे
अफसर ने पूछा-''आप लोग इस अवसर का लाभ उठाकर भाग भी सकतें थे ।'' कैदियों ने कहा-''हम अपनी सरकार और कानून के प्रति वफादार हैं । ऐसे काम नहीं कर सकते, जिससे न्याय-व्यवस्था बिगड़े।'' सरकार ने प्रसन्न होकर ऐसे नीतिनिष्ठ सभी कैदियों को छोड़ दिया ।
कनाडा के निर्माता
कनाडा अपने आरंभिक दिनों में छोटी-छोटी ऐसी रियासतों का समूह था, जो हमेशा आपस में लड़ते-झगडते रहते थे । इस फूट-फिसाद से सभी को हानि थी । इन्हें एक सूत्र, एक अनुशासन में बाँधने का काम मेकडोनल्ड ने किया । वह किसी बड़े घराने में पैदा नहीं हुआ था और न शिक्षा या प्रतिभा की दृष्टि में कोई उच्च श्रेणी का व्यक्ति था । पर सूझ-बूझ और मधुर वार्तालाप की दृष्टि से ऐसा कुशल था किं एकीकरण मार्ग में अड़ी हुई सैकड़ों गुत्थियों को उसने बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक सुलझा लिया ।
मैकडोनल्ड को आज के कनाडा का निर्माता माना जाता है । उसने ऐसी नींव रखी कि वह देश निरंतर उन्नतिशील होता चला गया । उसके व्यक्तित्व में ऐसा जादू था कि कट्टर विरोधी भी पानी पानी हो जाते थे ।
स्वयं को भी देखें
आत्मानुशासन का अर्थ है-अपने आप की पैनी समीक्षा और यदि कोई कमी दिखाई दे, तो उसे हटाने, के लिए अपने साथ ही बरती गई कठोरता ।
एक शिष्य बहुत दिन से गुरु की सेवा कर रहा था । एक दिन उसने कहा-''कोई सिद्धि सिखाइए ।''
शिष्य अनपढ़ था । उसे सिद्धि कैसे सिखाई जाय । गुरु ने झोली में से निकालकर एक डंडा दे दिया और कहा इसमें यह सिद्धि है कि किसी का अंतर्मन तुम देख सकोगे ।
शिष्य ने डंडा ले लिया और सबसे पहले गुरु का ही अंतर्मन देखा । उसमें मक्खी-मच्छर जैसे कीडे़-मकोडे़भिन-भिना रहे थे ।
शिष्य की श्रद्धा चली गई । गुरु के भीतर तो इतनी गंदगी है ।
अब गुरु ने कहा-''डंडे को अपनी ओर करके देख ।'' देखा तो साँप-बिच्छू जैसे भयंकर जीव दौड़ रहे थे ।
शिष्य समझ गया कि मुझसे गुरु सौ गुना अच्छे हैं । तुलना करने पर उसकी श्रद्धा वापस लौट आई । उसने सोचा मुझे पहले अपनी गंदगी मिटानी चाहिए, बाद में कहीं और देखना चाहिए ।
संरक्षण मात्र
नासिरुद्दीन दिल्ली के बादशाह थे; पर वे अवकाश कें समय टोपियाँ बनाकर व कुरान की नकल करके जो धन मिलता, उसी से अपना खर्च चलाते । बादशाह की बेगम हाथ से खाना पकाया करती थीं ।
एक बार खाना पकाते समय बेगम का हाथ जल गया । वह सोचने लगीं-एक बादशाह की बेगम होते हुए भी उसे एक नौकर भी मयस्सर नहीं । उसने अपने पति से कहा-''आप राज्य के स्वामी हैं । क्या आप हमारे लिए भोजन पकाने वाले एक नौकर का प्रबंध नहीं कर सकते?''
"बेगम, आपके लिए नौकर रखा जा सकता है, बशर्ते कि हम अपने सिद्धांतों से डिग जाँय । राज्य, धन, वैभव तो प्रजा का है । हम तो उसके संरक्षक मात्र हैं । उसका उपयोग अपने लिए करें; यह तो बेईमानी होगी ।''-नासिरुद्दीन ने उत्तर दिया । उनकी सिद्धांत निष्ठा के आगे पत्नी को झुकना ही पड़ा ।
फाटक नही खुला
इस समीक्षा में थाड़ी भी ढील दी गई, बस उसी समय से पतन-पराभव की परंपरा पनपने लगती है । इस पुण्य भूमि का इतिहास इस बात का साक्षी है कि कठिन परिस्थितियों में भी हमने यह अनुबंध नहीं तोड़ा ।
जोधपुर महाराज एक युद्ध में लड़ने के लिए सेना समेत गए । हार होती देखकर अपनी जान बचाकर भाग आए । रात्रि को किले का दरवाजा खटखटाया; प्रहरी रानी के पास गए । उस स्थिति में रात्रि के समय दरवाजा उनकी आज्ञा से ही खुल सकता था ।
रानी ने पूरा विवरण सुनने के बाद दरवाजा न खोलने का हुक्म दिया और राजा से कहलवा भेजा-''जोधपुरनरेश होते तो पीठ दिखाकर न आते । या तो जीत कर लौटते या उनकी लाश वापस आती । भगोड़ा तो कोई छद्मवेषधारी हो सकता है ।''
राजा को पहरेदारों ने रानी का आदेश सुनाया । वे उल्टे पैर वापस लौट गए । पूरे जोश के साथ दुबारा लड़े और जीतकर वापस लौटे ।
इस देश और जातीय जीवन की समर्थता ऐसे ही कठोर अनुबंधों के सहारे विकसित हुई थी ।
चतुर घोड़ा
इसके लिए आवश्यक है कि मन को पहले से ही सुसंस्कारिता का अभ्यस्त बनाया जाए ।
एक बार एक रईस ने एक घोड़े की बहुत प्रशंसा सुनी । सो उसने उसे खरीदने का निश्चय किया और मुँह मांगा मूल्य देकर खरीद लिया ।
घोड़ा बहुत चतुर था । उदाहरण उसनें प्रत्यक्ष देखा-मालिक पीठ पर से गिरा, तो घोड़े ने सहारा देकर उसे उठाया, पीठ पर बिठाया और डाक्टर के यहाँ पहुँचाया ।
बहुत दिन बन्द संयोगवश वैसी ही दुर्घउ।ना उस रईस के साथ घटी, वह दौड़ते हुए गिर पड़ा । घोड़े ने उसेउठाया, पीठ पर बिठाया और डाक्टर के यहाँ पहुँचाया ।
पर असमंजस यह रहा कि उसे जानवरों के अस्पताल में पहुँचाया गया । घोड़ा उसी को जानता था । मनुष्यों के डाक्टरों से उसका वास्ता ही न पड़ा था । वहाँ पहुँचता तो कैसे?
रईस उस प्रसंग की चर्चा कर रहे थे कि एक संत ने कहा-''मन ऐसा ही बहुमूल्य घोड़ा है; सो उसने जो सीखा है, वही करता है । खरीदने वाले को चाहिए कि उसे वह सिखाए जो कराना है ।
हम तो कभी झगडे़ भी नहीं
ईश्वरीय अनुशासन को मानने वाले को डर किस बात का । थोरो अमरीका के सुप्रसिद्ध दार्शनिक थे । महात्मा गाँधी भी उनके विचारों से समय-समय पर प्रेरणा लिया करते थे । वे जब मृत्यु-शैया पर पड़े थे, तब उनकी दूर की रिश्ते की एक चाची उनसे मिलने आई । उसने कहा- ''बेटा, ईश्वर से शांति की प्रार्थना करके तूने उससे आज तक के अपराधों की क्षमा माँगी या नहीं?''
थोरो ने मुस्कराकर कहा-''चाची, हम दोनों का कभी मनमुटाव हुआ हो या किसी बात पर आपस में झगड़े हुए हों, ऐसा मुझे तो याद नहीं आता । मैंने कभी उनके आदेशों का उल्लंघन नहीं किया, हमेशा उनके इशारे पर ही चलता रहा तो क्षमा किस बात की माँगू?''
आत्मानुशासन मानने वाले, संस्कार संवर्द्धन की महत्ता समझने वाले ईश्वर को प्रिय है । उन्हें किसी प्रकार का आडंबर रचने की क्या आवश्यकता?
संत द्वारा बाग की रखवाली
संत इब्राहीम ने ईश्वर भक्ति के लिए घर छोड़ दिया और वे भिक्षाटन पर निर्वाह करके साधनारत रहने लगे ।
किसी किसान के यहाँ वे भिक्षा माँग रहे थे तो उसने रोक कर कहा-''आप जवान हैं, परिश्रमपूर्वक निर्वाह करें । बचे समय में साधना करें । समर्थ का भिक्षा माँगना उचित नहीं ।''
इब्राहीम को बात जँच गई । उनने इस सदुपदेश कर्ता का एहसान माना और पूछा-''तो फिर इतनी कृपा और करें कि मुझे काम दिला दें ताकि गुजारे के संबंध में निश्चिंत रहकर भजन करता रह सकूँ ।''
किसान का एक आम का बगीचा था । उसकी रखवाली का काम सौंप दिया । साथ ही निर्वाह का प्रबंध कर दिया । दोनों को सुविधा रही ।
बहुत दिन बाद आम की फसल के दिनों में किसान बगीचे में पहुँचा और मीठे आम तोड़कर लाने के लिए कहा । इब्राहीम ने बड़े और पके फल लाकर सामने रख दिए। वे सभी खट्टे थे । नाराजी का भाव दिखाते हुए किसान ने पूछा-''इतने दिन यहाँ रहते हो गए । इस पर भी यह नहीं देखा कि कौन पेड़ खट्टे और कौन मीठे फलों का है?''
इब्राहीम ने नम्रतापूर्वक कहा-''मैंने कभी किसी पेड़ का फल नहीं चखा । बिना आपकी आज्ञा के चोरी करके मैं क्यों चखता?''
किसान इस रखवाले की ईमानदारी-वफादारी पर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने कहा-'' आप पूरे समय भजनकरें । निर्वाह मिलता रहेगा । रखवाला दूसरा रख देंगे । ''
इब्राहीम दूसरे दिन बड़े सबेरे ही उठकर अन्यत्र चले गए । चिट्ठी रख गए-'' आपने आरंभ में कहा था बिना परिश्रम के नहीं खाना चाहिए । आपकी उस अनुशासन भरी शिक्षा से ही मेरी श्रद्धा बड़ी थी । अब तो आप ठीक उल्टा उपदेश करने लगे । मुफ्त का खाने लगूँ, यह कैसे होगा? आपकी बदली हुई शिक्षा को देखकर मैंने चला जाना ही उचित समझा ।''
संस्कारों की प्रबलता सही मर्ण पर चलने वाले को कभी दिग्भ्रांत नहीं कर सकती।