Books - प्रत्यक्ष फलदायिनी साधनाऐं
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Language: HINDI
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योग साधना की आवश्यकता
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मन और अन्तःकरण के मिलन में, एकता में सुख है। इसी को आत्मा और परमात्मा का मिलन कहते हैं। इस मिलन का दूसरा नाम योग है। दो वस्तुओं के मिलने से एक नवीन तत्व उत्पन्न होता है। पति पत्नी का मिलन एक मनोहर सन्तान का उपहार-उपस्थित करता है, बिजली की ऋण और धन (ठंडी और गरम) शक्ति के तार जब आपस में मिलते हैं तो एक नवीन शक्ति उत्पन्न होती है। आत्मा और परमात्मा के योग से एक ऐसे आनन्द का आविर्भाव होता है जिसकी तुलना में संसार के अन्य किसी भी सुख में नहीं की जा सकती। इस सुख को परमानन्द, जीवन मुक्ति, ब्रह्मनिर्वाण, आत्मोपलब्धि, प्रभु दर्शन आदि नामों से पुकारा जाता है।
यह योग साधना जीवन का एक नित्य कर्म होना चाहिए। संसार के वातावरण का कुप्रभाव मन पर जमता है, इसको नित्य की साफ करने की जरूरत पड़ती है। कमरे में नित्य धूलि जमती है, इसलिए नित्य झाड़ू लगानी पड़ती है, त्वचा पर, नाक, कान, आंख, दांत, जीभ पर नित्य मैल जमता है इसलिए उनको जल से नित्य स्वच्छ करते हैं, इसी प्रकार मन पर सांसारिक दुष्प्रवृत्तियों के कुसंस्कार नित्य aजमते हैं उनको हटाने के लिए नित्य योग साधन की जरूरत पड़ती है। रोज जमने वाले मानसिक मैलों की सफाई के लिए और मन की आत्म विरोधी प्रवृत्तियों को हटाने के लिए योग साधना आवश्यक है। और इतनी आवश्यकता है कि उसे स्नान, शौच, भोजन, शयन की ही भांति नित्य कर्मों में स्थान मिलना चाहिए। साधना, अंतःकरण का शौच और आहार है इस लिए उसकी और तो शरीर की अपेक्षा अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
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