Books - प्रत्यक्ष फलदायिनी साधनाऐं
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Language: HINDI
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कब्ज दूर करने की साधना
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उषापान कब्ज रोग की प्राकृतिक और प्राचीन यौगिक जल चिकित्सा है। देखा जाता है कि रात को पाचन क्रिया में शिथिलता आ जाने के कारण पेट में पड़ा हुआ अन्न कुछ विकृत होकर विषैला हो जाता है यह विष उष्णता और दाह उत्पन्न करता है। और अपना प्रभाव ऊर्ध्व नालियों द्वारा मुख नासिका एवं मस्तिष्क तक होता है। प्रातः काल उठने पर साधारणतः इतनी फुर्ती और सजीवता होनी चाहिए कि आदमी अपने को सब कार्यों के योग्य नवीन बल धारण किए हुए अनुभव करें इसके विपरीत सोकर उठते समय जिनके मुंह का स्वाद खराब हो जाता है।, होठ सूखे रहते हैं, सिर में भारीपन प्रतीत होता है, नथुनों में खुरट जम जाते हैं।, पेट में जलन होती है, एवं प्यास लगती है समझना चाहिए उनको रात को भोजन हजम नहीं हुआ है। भोजन का ठीक पाचन हो जाने पर उठते ही जोर से टट्टी लगती है और तत्पश्चात् कड़ाके की भूख लगनी चाहिए।
जिसका पाचन नहीं हुआ है वह भोजन आमाशय में पड़ा रहता है। उसे अजीर्ण कहते हैं। पच जाने पर आंतों में होकर आगे चलने का कार्य नहीं होता उसे मलावरोध कहते हैं। इनमें से कोई एक या दोनों का आक्रमण शरीर पर जारी रहता है। और इन्हीं दोनों के अंचल में छिपे हुए और अनेक रोगों के कीटाणु पलते रहते हैं। बदहजमी के होते हुए नवीन रक्त और बल वीर्य की प्राप्ति तो हो ही कैसे सकती है?
जिन्होंने उषापान किया है उन लोगों के अनुभव द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है कि कुछ दिन पहले जिस प्रकार मुंह में कडुआपन, सिर में भारीपन, प्यास, पेट में जलन आदि शिकायतें होती थीं अब नहीं होती। शारीरिक अन्य विकारों की वजह से प्रातःकाल में जो उष्णता छाई रहती है उषापान उसके लिए अमृत तुल्य है।
ऊषा पान की साधना
यों तो सदा ही शुद्ध एवं स्वच्छ जल काम में लाना चाहिए किन्तु उषःपान में खास तौर से जल की शुद्धता एवं निर्मलता की आवश्यकता है। इस में लापरवाही न होनी चाहिए चाहे जल स्वच्छ ही हो, लेकिन फिर भी उसे किसी स्वच्छ वस्त्र से साफ बर्तन में छान लेना चाहिए। इसके लिए हमेशा शीतल एवं बासी जल की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके माने यह नहीं कि जल को बरफ से शीतल किया जाय अथवा कई दिन का बासी पानी प्रयोग में लायें एक शुद्ध घड़े में इस कार्य के लिए सुव्यवस्थिति पानी ढक, छान कर खुली हवा में जल रखना चाहिए। प्रभात में सूर्योदय से कम से कम आध घंटे और अधिक से अधिक दो घण्टे पूर्व इस क्रिया को करना चाहिए। बिस्तर छोड़ने के उपरान्त फौरन ही इस क्रिया को करना ठीक नहीं। बिस्तर से उठने के बाद कुछ देर घूम कर, दो तीन मिनट बाद गहरी श्वांस लेकर हाथ मुंह धोकर खूब गरारे (कुल्ले) करने चाहिए। इसके बाद नासिका द्वारा धीरे धीरे जल पीना चाहिए। और दो बार उसे जोर के साथ बाहर निकाल देना चाहिए, पर विश्वास हो जाने पर कि अब नासिका में किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं रही, पुनः नासिका द्वारा जल पीना चाहिए, पहले पहल पाव छटांक जल से अधिक से अधिक नहीं पीना चाहिए। बाद में अभ्यास द्वारा पाव भर तक जल पीया जा सकता है। सर्व प्रथम नासिका द्वारा जल पीने में कुछ कष्ट होता है। मस्तिष्क एवं नासिका की नलिकाओं में कुछ चींटी काटने जैसी पीड़ा होती है, किन्तु तीन चार दिन के अभ्यास को बाद वह शनैः शनैः दूर होने लगती है फिर तो तनिक भी कष्ट नहीं होता।
नासिका से उषःपान करने के उपरान्त मुख द्वारा जल पीना चाहिए, जिसकी मात्रा आध सेर से किसी भी हालत में अधिक न होनी चाहिए। हां! यदि अजीर्ण हो तो एक सेर तक भी पिया जा सकता है। नासिका से पानी पीते समय जल्दी जल्दी खींचना नहीं चाहिए वरन् धीरे धीरे पीना चाहिए। सर्व प्रथम नाक से पानी पीते समय दो तीन बार नाक से पीकर मुंह से कुल्ला कर देना चाहिए ताकि किसी प्रकार की गन्दगी मुख द्वारा पेट में पहुंच कर विकार न पैदा करदे। मुंह से पानी पीते समय जितनी कम श्वांस ली जाएं उतनी ही लाभप्रद होगी। उषःपान सदैव शौचादि से निवृत्त होने के पूर्व करना चाहिए। यदि नासिका द्वारा जल पीने में कष्ट मालूम हो तो मुख द्वारा ही लिया जाय। मुख द्वारा पानी के उपरान्त यदि हो सके तो पुनः नासिका द्वारा पीने का प्रयत्न करना करना अच्छा है।
उषा पान से लाभ
अजीर्ण दूर होकर शौच बिलकुल साफ होता है। पेट की गुड़गुड़ाहट एवं फूलना बन्द हो जाता है। रक्त शुद्ध बनता है। मस्तिष्क शक्तिशाली एवं दृष्टि दीप्त होती है। शरीर में एक प्रकार की अद्भुत शक्ति पैदा होती है शरीर का रंग निखर जाता है। उषःपान करने के दूसरे दिन से खूब भूख होने लगती है। स्वप्नदोष तथा अन्य वीर्य दोषों में आश्चर्य जनक लाभ होता है। कितने ही प्रमेह एवं स्वप्न दोष ग्रस्त रोगी नियमित रूप से उषःपान करने से रोग मुक्त होते देखे गए हैं। रक्त विकार में भी आशातीत लाभ होता है। बाल सफेद होना कम हो जाता है।
उषःपान कब नहीं करना चाहिये
जलोदर, गठिया, पक्षाघात, कुष्ठ, तीव्रज्वर और जुकाम में उषःपान नहीं करना चाहिए, इसमें लाभ की जगह हानि होने की अधिक सम्भावना है। उषःपान के अभ्यासी को जो अभ्यास पहले पहल करना चाहता है। कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए। सूर्योदय से पूर्व तो उषःपान किया ही जाता है। इसके अतिरिक्त नौसिखिये को ऐसे समय से करना चाहिये जब न अधिक ठंड हो और न अधिक गर्मी। यदि फाल्गुन चैत्र से इसका अभ्यास किया जाता है तो अच्छा है। वैसे जब चाहो तब शुरू किया जा सकता है। गर्मियों के दिन में मिट्टी के पात्र में जाड़ों में चांदी, सिल्वर ताम्रपात्र में पानी रखना अधिक लाभप्रद होता है। इस क्रिया में शीघ्रता कभी नहीं करनी चाहिये। धीरे धीरे पीना चाहिए शरीर में जो विकार हो उस पर ध्यान लगाकर मन में यह संकल्प एवं भावना उत्पन्न करनी चाहिए कि अमुक रोग के लिए मैं यह अमृत पान कर रहा हूं। पाठक वृन्द इसे करके देखें फिर स्वयं प्रशंसा करेंगे।
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