Books - प्रत्यक्ष फलदायिनी साधनाऐं
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Language: HINDI
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प्राणाकर्षण प्राणायाम
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हृदय और मस्तिष्क शरीर के भीतर दो ऐसे प्रधान अंग हैं जिन पर मनुष्य की जीवनी शक्ति एवं मानसिक स्वस्थता निर्भर रहती है। हृदय की गति में अवरोध होते ही मृत्यु निश्चित है। मस्तिष्क में विकार उत्पन्न होने पर विक्षिप्तता एवं पागलपन आ घेरता है। जिनके यह दोनों अंग स्वस्थ हैं उनकी शारीरिक और मानसिक स्वस्थता कायम रहती है— बढ़ती है। इन दोनों अंगों के परिशोधन और परिवर्धन के लिए प्राणायाम का व्यायाम है। इस व्यायाम से फेफड़े मजबूत रहते हैं और खांसी श्वांस क्षय आदि रोगों से सुरक्षा रहती है।
इतनी ही नहीं सूक्ष्म शरीर को भी प्राणायाम से बहुत लाभ पहुंचता है। उससे आत्म शक्ति बढ़ती है। महीने पातंजलि ने योग दर्शन में कहा है—
‘‘किंच धारण सुच योग्यता मनस’’ अर्थात् प्राणायाम से मन की एकाग्रता होती है। चंचल मन को वश में करने के लिए प्राणायाम का हथियार बहुत ही उपयुक्त सिद्ध होता है। वे और भी कहते हैं—‘‘ततः क्षीयते प्रकाशः वरणम्’’ अर्थात् प्राणायाम से अन्धकार से अन्धकार का आवरण क्षीण होता है। हृदय में अज्ञान और कुविचारों के कारण एक प्रकार का अन्धकार हो जाता है। प्राणायाम से आत्म ज्योति का प्रकाश जगता है और इससे इस अज्ञान का नाश होता है।
प्राणायाम की सुगम क्रिया
प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्ति होकर साधना के लिए किसी स्वच्छ शान्ति दायक स्थान में आसन बिछा कर बैठिए दोनों हाथ दोनों घुटनों पर रखिए। मेरुदण्ड सीधा रहे। नेत्र बन्द कर लीजिए।
फेफड़ों में भरी हुई सारी हवा बाहर निकाल दीजिए। अब धीरे धीरे नासिका द्वारा सांस लेना आरम्भ कीजिए जितनी अधिक मात्रा में भर सकें फेफड़ों में भर लीजिए। अब कुछ देर उसे भीतर ही रोके रहिए। इसके पश्चात् सांस को धीरे धीरे नासिका द्वार से बाहर निकालना आरम्भ कीजिए। हवा को जितना अधिक खाली कर सकें कीजिए। अब कुछ देर सांस को बाहर ही रोक दीजिए, अर्थात् बिना सांस के रहिए, इसके बाद पूर्ववत् वायु खींचना आरम्भ कर दीजिए। यह एक प्राणायाम हुआ। सांस निकालने को रेचक, खींचने को पूरक और रोके रहने को कुंभक कहते हैं। कुंभक के दो भेद हैं। सांस को भीतर भर कर रोके रहना ‘अन्तर कुंभक’ और खाली करे बिना सांस रहना ‘बाह्य कुंभक’ कहलाता है। रेचक और पूरक में समय बराबर लगाना चाहिए पर कुंभक में उसका आधा समय की पर्याप्त है।
पूरक करते समय भावना करनी चाहिए कि मैं जन शून्य लोक में अकेला बैठा हूं मेरे चारों ओर चैतन्य विद्युत प्रवाह जैसी जीवनी शक्ति का समुद्र लहरें ले रहा है। सांस द्वारा वायु के साथ साथ उस प्राण शक्ति को मैं अपने अन्दर खींच रहा हूं।
अन्तर कुंभक करते समय भावना करनी चाहिए कि उस चैतन्य प्राण शक्ति को मैं अपने भीतर भरे हूं। समस्त नस नाड़ियों के अंग प्रत्यंगों में वह शक्ति जज्ब हो रही है। उसे सोख कर देह का रोम-रोम चैतन्य, प्रफुल्ल, सतेज एवं परिपुष्ट हो रहा है।
रेचक करते समय भावना करनी चाहिए कि शरीर में संचित मल, रक्त में, मिले हुए विष, मन में धंसे हुए विकार, सांस छोड़ने पर वायु के साथ साथ बाहर निकले जा रहे हैं।
बाह्य कुंभक करते समय भावना करनी चाहिए कि अन्दर के दोष सांस द्वारा बाहर निकाल कर भीतर का दरवाजा बन्द कर दिया गया है ताकि वे विकार वापिस लौटने न पावें।
इन भावनाओं के साथ प्राणाकर्षण प्राणायाम करने चाहिए। आरम्भ में पांच प्राणायाम करें फिर क्रमशः सुविधानुसार बढ़ाते जावें।