Books - प्रत्यक्ष फलदायिनी साधनाऐं
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Language: HINDI
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उपवास-साधना
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साधनाओं में उपवास का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रायश्चित्यों के लिए तथा आत्म शुद्धि के लिए उपवास सर्वोत्तम साधन माना जाता है। किसी शुभ कार्य को आरम्भ करते हुए प्रायः उपवास का आश्रय लिया जाता है। कन्यादान के दिन माता पिता उपवास रखते हैं। यज्ञोपवीत व्रतबन्ध, समावर्तन, वेदारम्भ आदि संस्कारों के दिन ब्रह्मचारी को उपवास रखना आवश्यक है। अनुष्ठान के दिन में यजमान तथा आचार्य को उपवास रखना होता है। नवदुर्गा के नौ दिन कितने ही स्त्री पुरुष पूर्ण या आंशिक उपवास रखते हैं।
भूल, अपराध, पाप अथवा न करने योग्य कार्य हो जाने पर उपवासों द्वारा प्रायश्चित्य किया जाता है। आत्म बल बढ़ाने के लिए, आन्तरिक पवित्रता में अभिवृद्धि करने के लिए उपवास एक अचूकअस्त्र है। विश्व विभूति महात्मा गांधी ने जीवन में कई बार उपवास का आश्रय लिया है। उन्होंने इक्कीस इक्कीस दिन के उपवास किये हैं। सत्याग्रह के रूप में एक महान् अस्त्र के रूप में भी उपवास किया जाता है। वीर यतीन्द्रनाथ दास, देशभक्त, मेक्म्बिनी जैसी आत्माओं ने निराहार रहकर आत्म विसर्जन किया था। भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर ने अपने जीवन में लम्बे-लम्बे उपवास किये थे और उस तपश्चर्या के प्रताप से आत्म दर्शन करने में सफल हुए थे।
उपवास के संकल्प के साथ साथ सात्विकता की तरंगें अन्तःकरण में उठना आरम्भ होती हैं और रजोगुण तमोगुण की कमी होने लगती है। गीता कहती हैं कि— ‘‘निराहार रहने से विषय निवृत्त होते हैं।’’ शुभ कर्मों के लिये सात्विकता की अधिक आवश्यकता है इसलिए प्रत्येक धर्म कृत्य के साथ उपवास को सम्बन्धित रखा है। आवेशों का उफान भूखे रहने पर घट जाता है। विषय विकारों का बोझा हलका पड़ता है और भवताप से पीड़ित मनुष्य को इस महौषधि द्वारा तुरन्त पवित्रता की शीतलता अनुभव होने लगती है।
स्वास्थ्य की दृष्टि में उपवास का असाधारण महत्व है। रोगियों के लिए इसे एक प्रकार की जीवन मूरि ही कह सकते हैं। चिकित्सा शास्त्र का रोगियों को एक दैवी उपदेश है कि ‘‘बीमारी को भूखा मारो’’ भूखे रहने से बीमारी मर जाती है। और रोगी बच जाता है। संक्रामक कष्ट साध्य खतरनाक रोगों में साधन की एक मात्र चिकित्सा है। मोतीझरा, निमोनिया, विशूचिका, प्लेग, सन्निपात, टाइफ़ाइड जैसे रोगों में कोई भी चिकित्सक उपवास को व्यर्थ कहने का साहस कहीं कर सकता। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान तो समस्त पूर्ण, या आंशिक उपवास को ही सर्व प्रधान उपचार बताया है। इस तथ्य को हमारे माननीय ऋषिगण भी भली प्रकार जानते थे। इसलिए उन्होंने धार्मिक कृत्यों में इस साधना को बड़ा महत्व दिया है। एकादशी, रविवार, अमावस्या पूर्णमासी चतुर्थी प्रभृति व्रत हर महीने निश्चित हैं। इसके अतिरिक्त हर महीने दो चार विशेष व्रत भी होते हैं, इनके लम्बे चौड़े महात्म्यों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। इन महात्म्यों का इतना आकर्षक वर्णन इसलिए है कि लोगों की रुचि इस ओर आकर्षित हो और वे उपवास के द्वारा प्राप्त होने वाले शारीरिक तथा आत्मिक लाभों को उठावें।
अध्यात्म मार्ग के पथिकों के लिए उपवास साधना को अपनाना आवश्यक है। इससे उनके आत्मिक दोष घटते और आत्म बल बढ़ता चले। उपवास तीन प्रकार के होते हैं
(1) दैनिक
(2) नियत कालीन
(3) विशिष्ट ।
इन तीनों का विवेचन नीचे किया जाता है।
(1) दैनिक उपासना— नित्य जो अन्न ग्रहण किया जाता है वह उपवास के स्वल्पाहार की तरह हो। जिस दिन उपवास होता है उस दिन बीच में कुछ स्वल्पाहार किया जाता है उसके लिए सात्विक, नमक आदि स्वादिष्ट मिश्रणों से रहित आहार लिया जाता है। दैनिक उपवास करने वाले को दोपहर को एक बार पूर्ण आहार अन्नाहार लेना चाहिए। उसमें मिर्च मसालों का पूर्ण रूपेण त्याग रहे। केवल नमक लिया जा सकता है। मीठा लेना हो तो बहुत थोड़ा लेना चाहिए। रोटी में कई अनाजों का मिश्रण न हो एक ही किस्म का अन्न होना चाहिए। रोटी के साथ दूध, दही, छाछ, दाल, साग, में से कोई एक चीज ली जा सकती है। कई दालों का, कई सागों का मिश्रण या थाली में कई प्रकार के पदार्थों का होना ठीक नहीं। चावल, दलिया, खिचड़ी आदि के सम्बन्ध में भी यही नियम हैं कि दो वस्तुओं से अधिक का संमिश्रण न हो। भोजन अपने हाथ से बनाया जा सके तो सबसे अच्छा नहीं तो ऐसे विश्वस्त व्यक्ति द्वारा बनाया हुआ तो होना ही चाहिए जो सात्विक प्रकृति का और शुद्ध चरित्र का हो। कारण यह है कि भोजन बनाने वाले की मनोवृत्तियों का आहार पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है और उसे खाने वाले के मन में भी वैसे ही भाव उत्पन्न होते हैं।
शाम को अन्नाहार न लेकर फल एवं दूध लिया जा सकता है। दैनिक उपवास रखने वालों को केवल एककालिक आहार पर रहने की आवश्यकता नहीं है। यदि साधक श्रम जीवी है तो प्रातःकाल भी दूध ले सकता है।
बासी, बुसा, घी तेल में तला हुआ, गरिष्ठ, बहुत अधिक जलाया या भुना हुआ, मिर्च मसाले खटाई, मिठाई से सराबोर आहार त्याज्य है। इस प्रकार विवेक पूर्वक जो सात्विकता प्रधान आहार लिया जाता है, वह फलाहार स्वल्पाहार के समान है। इस प्रकार आहार करता हुआ मनुष्य उपवास के फल को ही प्राप्त होता है।
(2 ) नियत कालीन— किसी निर्धारित समय पर जो उपवास किये जाते हैं वे नियत कालीन कहलाते हैं। एकादशी, अमावस्या, पूर्णमासी, रविवार, शिवरात्रि, नवदुर्गा आदि नियत कालीन उपवास हैं। दैनिक की अपेक्षा नियत कालीनों में अधिक गहराई बरती जाती है। इनमें एक ही बार फलाहार करना चाहिए। जो लोग दैनिक उपवास करने की स्थिति में नहीं हैं उन्हें नियत कालीनों को ही अपनाना चाहिए। समय समय पर निराहार रहने से पेट में संचित मलों का पाचन हो जाता है तथा मनोविकारों की शुद्धि होती रहती है। महीनों में कम से कम दो उपवास तो अवश्य ही करने चाहिए इसके लिए दोनों पक्षों की एकादशियां या अमावस्या पूर्णमासी नियत कर लेनी चाहिए। यदि महीने में चार दिन सम्भव हो तो सप्ताह का कोई एक दिन नियत करलें रविवार तेज वृद्धि और प्रतिभा विकास के लिए उत्तम है।
(3) विशिष्ठ— आत्म शुद्धि के लिए, अपराधों के प्रायश्चित्य स्वरूप अथवा किसी विशेष प्रयोजन के लिए जो उपवास किये जाते हैं, वे विशिष्ट कहलाते हैं। इनकी कोई मर्यादा नियत रहनी चाहिए। अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार उनकी अवधि नियत करनी चाहिए। बिलकुल निराहार व्रत स्वस्थ अवस्था में एक दिन से अधिक न करना चाहिए। दूध या फलों का रस जैसी कोई चीज लेते रहना ठीक है।
उपवास सम्बन्धी कुछ आवश्यक नियम
1— उपवास के दिन कड़ा शारीरिक या मानसिक परिश्रम नहीं करना चाहिए। उस दिन यथा सम्भव अधिक विश्राम लेना चाहिए।
2— उपवास के दिन खूब पानी पीना चाहिए बिना इच्छा के भी पीना चाहिए जिससे पेट अच्छी तरह घुल जावे। पानी के साथ नींबू या थोड़ा नमक भी
मिला लिया जावे तो पेट की सफाई में और भी मदद मिलती है।
3— उपवास समाप्त करते ही गरिष्ठ चीजें अधिक मात्रा में खाने से उल्टी हानि होती है। इस लिए उपवास तोड़ते समय थोड़ी मात्रा में हलकी सुपाच्य
चीजें लेनी चाहिए। जितने समय उपवास किया हो, उतने ही समय पीछे भी साधारण आहार पर धीरे-धीरे आने में लगाना चाहिए।
4— उपवास काल में आवश्यकता होने पर सुपाच्य फल, शाक या दूध ही लेना चाहिए गरिष्ठ पकवान या मिठाइयां खाना उपवास को व्यर्थ बना देता है।
5— उपवास काल में आत्म चिन्तन, ईश्वराराधना, स्वाध्याय, सत्संग आदि सात्विकता बढ़ाने वाले कामों में विशेष रूप से समय लगाना चाहिए।
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