Books - प्रत्यक्ष फलदायिनी साधनाऐं
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भूत साधना से आत्म विजय
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कितने ही मनुष्यों का विचार प्रणाली ऐसी विकृत हो जाती है कि वे अपने मस्तिष्क में दौड़ने वाले विचार प्रवाह को रोकने में समर्थ नहीं हो पाते। किसी से झगड़ा हुआ, झगड़ा होने के बाद दोनों पक्ष अलग हो गये पर विकृत विचार प्रणाली वाले मनुष्य का मस्तिष्क उसी में उलझा रहता है। दिमाग में भारी उत्तेजना एवं गर्मी भर जाती है जिसके कारण सिर मन्नाने लगता है। उस समय उस उत्तेजना को छोड़ कर नये प्रश्न पर विचार करने के लिए तैयार ही नहीं होता। बुद्धि कहती है कि ‘‘जो होना था हो गया, छोटी सी बात पर इतना उलझना ठीक नहीं, चलो दूसरी बात पर विचार करें।’’ पर वह विचार प्रवाह हटता नहीं बराबर वही उत्तेजना शिर के भीतर गूंजती रहती है। रात को पूरी नींद नहीं आती शिर में दर्द होने लगता है। आंखों में गर्मी छा जाती है पर उस उत्तेजन्त से पीछा नहीं छूटता।
इसी प्रकार कितने ही व्यक्ति, चिन्ता, शोक, ईर्ष्या, अहंकार, द्वेष, लोभ आदि के कुविचारों में बुरी तरह डूबे रहते हैं। वे इन विचारों को छोड़ना चाहते हैं पर वे छूटते नहीं। लौट लौट कर वह बातें दिमाग में भर जाती हैं। यह दूषित विचार प्रणाली का परिणाम है। यहां एक प्रकार का भयंकर बन्धन है। जिसमें बंधा हुआ मनुष्य विवश होकर कहीं का कहीं घिसटता फिरता है। इस विचारों की गुलामी से छुटकारा पाये बिना आन्तरिक शान्ति प्राप्त होना कठिन है।
विचारों पर हमारा आधिपत्य होना चाहिए। जब जिस विचार को हम चाहें अपने मस्तिष्क में विचरण करने दें और जब चाहें जिस विचार को निकाल बाहर करें यह स्थिति प्राप्त करना अध्यात्म क्षेत्र के पथिकों के लिए बड़ा आवश्यक है। विचारों पर काबू पाना एकाग्रता में सफलता पाना है। एकाग्रता—मानसिक उन्नति का सर्वोपरि हथियार है। मैस्मरेजम में दूसरों को निद्रा में लाने का प्रधान साधन एकाग्रता पूर्वक तीव्र दृष्टिपात ही तो है। ध्यान में एकाग्रता ही मुख्य है। समाधि एकाग्रता में ही सिद्धावस्था है। व्यापारी, वैज्ञानिक, कवि, चित्रकार, नट, लेखक, विचारक, शिल्पकार, कलाकार सरीखे प्रतिभाशाली वर्गों के सफल व्यक्ति एकाग्रता के ही प्रभाव से अपनी प्रतिभा चमकाते हैं। जिसमें एकाग्रता नहीं वह मानसिक क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता।
बारूद को जमीन पर फैला कर उसमें आग लगाई जाय तो वह भक् से जल कर समाप्त हो जायेगी। पर उसी बारूद को बन्दूक की नली में रखकर केवल एक नियत दिशा में ही चलने दिया जाय तो वह भयंकर शब्द और प्राणघातक चोट करती है। विचार भी यदि बिखरे रहें अस्त व्यस्त रहें, तो उनका कोई महत्व नहीं, पर जब वे एक स्थान पर केन्द्रित किये जाते हैं तो एकाग्रता की शक्ति के साथ गजब के परिणाम उपस्थित करते हैं। एकाग्र मन जिधर भी लग जाता है उधर ही सफलताओं का ढेर लग जाता है।
विचारों पर काबू पाना ही मन को वश में करना कहलाता है। पातंजलि ने चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहा है। जिसने अपने मन के ऊपर विजय प्राप्त कर ली समझिए कि उसने संसार के ऊपर विजय प्राप्त कर ली। महापुरुषों में यही विशेषता होती है कि वे विचारों के प्रवाह में नहीं बहते वरन् जिधर चाहते हैं उत्तर विचारों को बहाते हैं। जब चाहते तब विचारों के प्रवाह को मोड़ देते हैं, बदल देते हैं पलट देते हैं एवं बन्द कर देते हैं। महात्मा गांधी को बड़ी गम्भीर गुत्थियां सुलझानी पड़ती हैं, उनके आगे कभी कभी बड़ी विकट चिन्ताजनक समस्याएं आती हैं उनके कन्धे पर हर घड़ी जिम्मेदारियों का भारी बोझ रहता है पर वे जब चाहते तब विचारों के प्रवाह को रोक देते हैं। गम्भीर बहस मुवाहिसे में भाग लेते हुए यदि कुछ मिनटों का समय मिल जाता है तो वे इतनी ही देर में गहरी नींद सो लेते हैं। नैपोलियन युद्ध क्षेत्र में घमासान करते समय कुछ देर के लिए घोड़े को पेड़ के सहारे लगाकर और देह को पेड़ का सहारा देकर सो लेता था। विचारों पर हमारा ऐसा ही अधिकार होना चाहिए। घुड़सवार लगाम मोड़ कर अपने घोड़े को मन चाही दिशा में ले जाता है विचारों पर हमारा भी ऐसा ही आधिपत्य होना आवश्यक है।
मनोनिग्रह, विचार संयम, चित्त निरोध, एकाग्रता की साधना से एक बड़ी आध्यात्मिक समस्या का हल हो जाता है जहां चाहें वहां मन लगा देना और जहां चाहे वहां से मन हटा लेना यह एक ऐसी सिद्धि है जिसके द्वारा शोक, क्रोध, चिन्ता, भय, काम, निराशा, आवेश आदि अवांछनीय स्थिति से मन हटाकर समस्त मानसिक दुखों का अन्त किया जा सकता है। इस संसार में तीन चौथाई दुख मानसिक और एक चौथाई दुख शारीरिक हैं। शारीरिक दुख को भी तब मनुष्य भूल जाता है जब उसका चित्त किसी आनन्ददायक विचारधारा में रमण कर रहा हो। जिसका मन काबू में है जिसका आहार विहार संयमित है उसे वैसे भी शारीरिक कष्टों में नहीं पड़ना पड़ता, पर यदि कदाचित् किसी कोई प्रारब्ध भोग का कष्ट आ भी पड़े तो उसे संतुलित चित्त वाला व्यक्ति आसानी से हंसी हंसी में ही सहन कर लेता है। इस प्रकार सांसारिक दुखों से छुटकारा पाकर मनोनिग्रही आत्मानन्द का सुखोपभोग करता है। हर घड़ी विपरीत, परिस्थितियों में रहकर भी—उसकी आन्तरिक शान्ति नष्ट नहीं होती।
मनोनिग्रह की साधना
मन का स्वभाव कुछ न कुछ काम करने का है। वह बेकार कभी नहीं बैठता हर वक्त उसे कुछ न कुछ कार्य चाहिए। इस लिए मन को अन्य दिशाओं से रोककर पांच ज्ञानेन्द्रियों के पांच विषयों पर लगाया जाता है। कान, आंख, जिह्वा, नाक, त्वचा यह पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं—इनके कार्य क्रमशः शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श को अनुभव करना है। यह पांचों अनुभूतियां पांच तत्वों से भी सम्बन्धित हैं। आकाश से शब्द, तेज से रूप, जल से रस, पृथ्वी से गन्ध और वायु से स्पर्श का भान होता है। मन को इन पांचों की अनुभूतियों में एक विशेष विधि से लगाने को साधना द्वारा उसका संयम हो सकता है। अब क्रमशः पांचों साधना संक्षिप्त रूप से आगे लिखी जाती हैं।
शब्द साधना— कबीर पंथ और राधा स्वामी मत में शब्द साधना की बड़ी मान्यता है। नाद बिंदोपनिषद् में इस नाद योग का विस्तृत वर्णन है।
जायफल का चूर्ण, मोम और थोड़ी कस्तूरी मिलाकर उसे लाल रेशम की दो छोटी छोटी गोली जैसी पोटलियों में बांध लेना चाहिए। यह पोटली इतनी बड़ी होनी चाहिए कि कान में बोतल के कार्क की तरह फिट हो जावे और भीतर हवा जाने के स्थान न बचे। कोई कोई साधक इन पोटलियों के बजाय, तुलसी या चन्दन की लकड़ी, बोतलों के कार्क रुई या उंगलियों का प्रयोग करते हैं। प्राचीन प्रथा तो रेशम की पोटली की है। पर सुविधानुसार अन्य चीजों से भी काम लिया जा सकता है। साधना के बाद उन्हें निकाल कर ठीक तरह से साफ कर लेना जरूरी है जिससे कि कान का मैल उससे चिपका रह कर गन्दगी की वृद्धि न करे।
इस साधना के लिए रात्रि का निस्तब्ध कोलाहल रहित समय अधिक उत्तम है। शुद्ध होकर शान्ति पूर्वक ऐसे सुविधा जनक आसन पर बैठिए जिसे कष्ट के कारण साधना समय के बीच में फिर न बदलना पड़े। गोली, पोटली, कार्क, रुई या उंगली लगा कर कान के छेदों को बन्द कर लीजिए ताकि बाहर के शब्द कानों के भीतर न पहुंचने पावें। नेत्रों को बन्द कर लीजिए। मेरुदण्ड सीधा रखिए।
‘ओ३म्’ की ध्वनि लहरी पर चित्त को एकाग्र कीजिए। जैसे घड़ियाल में हथौड़ी मार देने पर कुछ देर तक उसमें से थर-थराती हुई शब्द ध्वनि निकलती रहती है। इसी प्रकार ओं ओं ओं ओं शब्द ध्वनि आपके मन लोक में गुंजित हो रही है। इस प्रकार की भावना एवं श्रद्धा गम्भीरता के साथ कीजिए।
कुछ समय पश्चात् कई प्रकार की शब्द ध्वनियां सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा सुनाई पड़ेगी, आंधी चलने, रेल दौड़ने, झींगुर बोलने, घंटियां, मृदंग, शंख, बजने सितार झनझनाने बादल गरजने एवं वंशी बजने जैसे शब्द सुनाई पड़ते हैं।
सब साधकों का एक जैसी ये शब्द ध्वनियां सुनाई नहीं पड़ती। कारण यह है कि विभिन्न साधकों की मानसिक स्थिति भिन्न होती है। सतोगुणी स्वभाव वालों को मन्द, समरस, मृदुल शब्द सुनाई पड़ते हैं। रजोगुणी को तीव्र, स्वर के, गम्भीर शब्द सुनाई देते हैं। तमोगुणी की कर्कश अस्थिर भयंकर, डराने वाले शब्दों का अनुभव होता है।
इन शब्द ध्वनियों का आरम्भ में पन्द्रह मिनट तक सुनना चाहिए। फिर क्रमशः एक एक मिनट बढ़ा कर सुविधानुसार अधिक से अधिक दो घन्टे तक किया जा सकता है। जो ध्वनि सुनाई पड़े उसे सुनने में मन को पूरी तन्मयता के साथ लगाना चाहिए ताकि वह बीच बीच में इधर-उधर न दौड़े।
रूप साधना— रूप साधना के लिए त्राटक का अभ्यास किया जाता है। त्राटक के दो प्रकार के होते हैं बाह्य और आभ्यंतरिक। दोनों की साधना नीचे लिखी जाती है।
(1) बाह्य त्राटक— किसी बिन्दु पर दृष्टि जमाने को कहते हैं। सफेद चिकने चमकदार कागज के एक चौकोर टुकड़े पर ठीक बीचों बीच एक रुपये के बराबर गहरी काली स्याही से गोला अंकित कीजिए इस गोले के बीचों बीच सफेद बिन्दु रहने दिया जाय
मेरुदण्ड का सीधा रखकर स्वस्थचित्त होकर, पद्मासन, पर अथवा अर्धपद्मासन पर (पालथी मार कर) बैठिए। उपरोक्त काले गोले को नेत्रों की सीध तीन फुट के फासले से दीवार पर टांग लीजिए। काले गोले के बीच के सफेद बिन्दु पर दृष्टि जमाइए। पलक मारते रहने में कुछ हर्ज नहीं पर दृष्टि बिन्दु पर से न हटे। आंखें न तो बहुत अधिक खोली जांय न पलक सिकोड़े जांय, दृष्टिपात बहुत हल्का हो और न बहुत जोर लगाया जाय। मध्यम स्थिति में यह साधना करनी चाहिए। यह साधन स्वस्थ नेत्र वालों को ही करना चाहिए। जिनकी आंखों में कोई रोग है उनके लिए त्राटक करना वर्जित है।
एक टक दृष्टि जमाने से कुछ ही देर में गोले के बीच का सफेद बिन्दु हिलता डुलता घटता बढ़ता कांपता थर-थराता तथा रंग बदलता दीखने लगता है। यह सब होने पर भी दृष्टि हटानी न चाहिए। कुछ दिनों अभ्यास से बिन्दु स्थिति हो जाता है। यह इस साधना की परिपक्वावस्था का चिह्न है। साधन दो मिनट से आरम्भ करके एक एक मिनट नित्य बढ़ानी चाहिए। आंखों में पानी भर आये तो त्राटक अवश्य ही समाप्त कर देना चाहिए।
चन्द्रमा पर, घी के दीपक की शिखा पर, शालिग्राम या शिवलिंग के अग्रभाग पर, इष्ट देव के चरण नख या किसी अंग विशेष के बिन्दु पर भी यह साधन किया जा सकता है।
(2) आभ्यन्तरिक त्राटक के लिए नेत्र बन्द करके साधना पर बैठना चाहिए। दोनों कानों के छिद्रों के बीच में एक सीधी रेखा खींची जाय और भ्रूमध्य भाग से लेकर शिर के पीछे की ओर एक रेखा खींची जाय तो यह दोनों रेखाएं आपस में जहां मिलती है वहीं त्रिकुटी ब्रह्मरंध्र या सहस्रदल कमल का स्थान है। इस स्थान पर शान्त चित्त से ध्यान जमाने पर एक छोटा सा प्रकाश बिन्दु दृष्टिगोचर होता है। कुछ दिन के बाद एक के स्थान पर अनेक तथा लाल, पीले, काले, विभिन्न वर्णों के विभिन्न आकृतियों के बिन्दु मस्तक के भीतर चारों ओर उड़ते हुए दिखाई देते हैं। दीर्घ कालीन सतत अभ्यास से वे बिखरे हुए विभिन्न आकार प्रकार के बिन्दु उस मूल बिन्दु में लय होने लगते हैं और अन्त में एक शुभ्र ब्रह्म ज्योति रह जाती है इसके दर्शन से अन्तःप्रदेश में बड़ी आनन्द दायक शान्ति वर्षा होती है।
रस साधना— जो फल आपको खाने में सबसे स्वादिष्ट लगता हो उसे इस साधना के लिए लीजिए। जैसे आपको कलमी आम अधिक रुचि कर हैं तो उसके पांच छोटे टुकड़े लें। एक टुकड़ा लेकर जिह्वा के अग्रभाग पर एक मिनट तक रखे रहें और उसके स्वाद का अनुभव करें। फिर इस टुकड़े को फेंक दें और उस पूर्व स्वाद का अध्यान दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा फिर दूसरा टुकड़ा जवान पर रखिए और पूर्ववत् उसे फेंक कर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए इस प्रकार पांच बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।
धीरे-धीरे जिह्वा पर कोई वस्तु रखने का समय कम करना चाहिए और बिना इस वस्तु के रस अनुभव करने का समय बढ़ाना चाहिए। कुछ समय पश्चात बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे भी केवल भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक रसास्वादन किया जा सकता है।
गन्ध साधना— नासिका के अग्रभाग पर त्राटक करना इस साधना के लिए आवश्यक हैं। दोनों नेत्रों से एक साथ नासिका के अग्रभाग पर त्राटक नहीं हो सकता। इसलिए एक मिनट दाहिनी ओर तथा एक मिनट बांई ओर करना उचित है। दाहिने को प्रधानता देकर उससे नाक के दाहिने हिस्से को और फिर बाएं नेत्र को प्रधानता देकर बाएं हिस्से को गम्भीर दृष्टि से देखना चाहिए आरम्भ एक एक मिनट से करके अन्त में पांच मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। इस त्राटक से नासिका की सूक्ष्म शक्तियां जाग्रत होती हैं।
इस त्राटक के बाद कोई सुगन्धित तथा सुन्दर पुष्प लीजिए। उसे नासिक के समीप ले जाकर एक मिनट तक धीरे-धीरे सूंघिए और उसकी गन्ध का भली प्रकार स्मरण कीजिए। इसके बाद फूल को फेंक दीजिए और बिना फूल के ही उस गन्ध को दो मिनट तक स्मरण कीजिए। पांच फूलों को पन्द्रह मिनट प्रयोग करना चाहिए। स्मरण रहे कम से कम एक सप्ताह एक ही फूल प्रयोग होना चाहिए। इसी प्रकार रस साधना में एक फल एक सप्ताह तक प्रयोग होना चाहिए।
स्पर्श साधना—
(1) बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु, शरीर पर एक मिनट लगा कर फिर उसे हटालें और दो मिनट तक अनुभव करें कि वही ठंडक मिल रही है। सह्य उष्णता का गरम किया हुआ पत्थर का टुकड़ा शरीर से स्पर्श करा कर उसकी अनुभूति कायम रखने की भावना करनी चाहिए। पंखा झाल कर हवा करना चिकना कांच का गोला या रुई की गेंद त्वचा पर स्पर्श करके फिर उस स्पर्श को ध्यान रखना भी इसी प्रकार का अभ्यास है। ब्रुश से रगड़ना, लोहे का गोला उठाना जैसी अभ्यासों की भी इसी प्रकार ध्यान भावना की जा सकती है।
(2) किसी समतल भूमि पर एक बहुत ही मुलायम गद्दा बिछा कर उस पर चित्त लेट रहिए कुछ देर उसकी कोमलता का स्पर्श-सुख अनुभव करते रहिए इसके बाद बिना गद्दा की कठोर जमीन या तख्त पर लेट जाइए। कठोर भूमि पर पड़े रह कर कोमल गद्दे के स्पर्श की भावना कीजिए फिर पलट कर गद्दे पर आ जाइए और उस कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना करने से तितीक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श साधना में सफलता प्राप्त करने पर शारीरिक कष्टों को हंसते हंसते सहने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
उपरोक्त पांचों साधनाओं को एक साथ ही किया जाय यह आवश्यक नहीं। जिनके पास साधना के लिए समय थोड़ा है वे इनमें से किसी एक दो साधनाओं को अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार चुन सकते हैं। उसमें सफलता मिलने पर अन्य साधनाओं को हाथ में लिया जा सकता है।
इस साधनाओं से मन वश में होता है, चित्त वृत्तियों का निरोध होता है और विचारों पर काबू होता है। योग के समस्त साधनों का यही उद्देश्य है। एकाग्रता की सफलता तथा आत्म विजय जीवन की सबसे बड़ी सफलताएं हैं। इनके आधार पर मनुष्य अपनी इच्छानुसार जो चाहे सो बन सकता है जो चाहे सो कर सकता है। इन्द्रियों की सूक्ष्म शक्ति से अनेकों प्रकार की सिद्धियां मिलती हैं, वे सूक्ष्मइन्द्रियां वस्तुओं के आधार पर नहीं वरन् इच्छा के आधार पर संसार के समस्त सुखों को अनुभव कर लेती हैं। भोगी लोग जिन भौतिक भोगों के लिए मृग तृष्णा मारे मारे फिरते हैं वे सब योगियों के करतल गत होते हैं। संकल्प शक्ति से वे सब सुख उनके सामने आकर खड़े हो जाते हैं।
----***----