Books - विचार क्रांति के द्रष्टा एवं स्रष्टा
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Language: HINDI
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सामंती परिवार की एक विभूति लू-शुन
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लू-शुन की मृत्यु के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए चीन के राष्ट्राध्यक्ष माओत्से तुंग ने कहा था—‘‘वे सांस्कृतिक क्रांति के महान सेनापति और वीर सेनानी थे। वे केवल लेखक ही नहीं वरन् एक महान् विचारक और क्रांतिकारी भी थे, एक ऐसे तपे हुए असाधारण राष्ट्रीय वीर जो प्रतिभाशाली तत्वों से संघर्ष को अपना कर्तव्य मानकर जूझते रहे।’’
ये शब्द उस समय कहे गए जब माओ स्वयं भी एक क्रांतिकारी सैनिक के रूप में काम कर रहे थे। सन् 1936 –जब चीन में परिवर्तनों का दौर-दौरा चल रहा था। जर्जर और अस्त-व्यस्त समाज व्यवस्था तथा शासन तंत्र को तोड़कर नये समाज की रचना के प्रयत्न चल रहे थे। तो ऐसे समय में अर्पित किए गए ये श्रद्धा सुमन इस बात के प्रतीक नहीं हो सकते थे कि लू-शुन चीन के वर्तमान शासकों के अंधभक्ति या अंध समर्थक रहे हों। यह वह समय था जब सामान्य जनता और बुद्धिजीवी हर कोई दंड तथा उत्पीड़न का शिकार हो रहा था। यद्यपि स्वदेशी शासन व्यवस्था थी परन्तु सामंतों तथा जागीरदारों का समाज में इतना प्रभुत्व था कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी।
उस समय में इन तत्वों के खिलाफ आवाज उठाने का एक ही अर्थ था घुट-घुट कर मर जाने के लिए मृत्यु को निमंत्रण। इसलिए ऐसा दुस्साहस शायद ही किसी का होता हो और जो यह दुस्साहस करता भी उसे बड़ी नारकीय स्थिति में जीना पड़ता। कुछेक आदर्शवादी और सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति ऐसा साहस करते भी तो भूख, बेकारी और पत्नी-बच्चों की कराह उन्हें जल्दी ही तोड़ देती। इन सब संभावनाओं के बावजूद भी लू-शुन ने चीन के नागरिकों को नये जीवन का संदेश दिया तथा नये समाज के सृजन का आह्वान किया।
उपरोक्त परिस्थितियों का चित्रण करते हुए उन्होंने एक मार्मिक कहानी लिखी है—‘भूतकाल का पश्चाताप’ जिसमें उनका यह आक्रांत आक्रोश बड़ी तीव्रता से व्यक्त हो उठा है। इस कहानी का नायक शिक्षित है और लेखक भी। बदलती परिस्थितियों में वह मितव्ययिता से अपना गुजारा चलाने का प्रयत्न करता है परन्तु परिस्थितियों से तालमेल नहीं बैठता। नायक की मनःस्थिति का बड़ा मार्मिक चित्रण किया गया है इस कहानी में। उसे कोई काम नहीं मिलता। वह सोचता है कि जब मेरे पास आजीविका का कोई साधन नहीं है तो मैं अपनी पत्नी से प्रेम भी कैसे कर सकता हूं और वह अपनी पत्नी को कहीं और भेज देता है, जहां वह मर जाती है। पत्नी के देहान्त का समाचार पाकर नायक अवाक् रह जाता है। इस स्थिति में एक सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति की क्या मनोदशा होगी, यह तो उसी स्तर का व्यक्ति अनुभव कर सकता है। नायक सोचता है, उसके विचार बदलते हैं और वह विचार बदलने के साथ-साथ अपनी जीवन दशा भी बदल देता है। उन निर्णायक क्षणों में वह कहता है कि निस्संदेह इन परिस्थितियों से समझौता करने के लिए मुझे अपने हृदय को घायल करना पड़ेगा परन्तु जीने के लिए मुझे अपने घायल हृदय से सत्य को छिपाना ही पड़ेगा। जीने का यही एक रास्ता है कि अपने जीवन दर्शन को भुलाकर असत्य को ही अपना मार्गदर्शन बनाना पड़ेगा। इस कहानी के शिल्प और भाषा में इतना करारा और तीव्र व्यंग्य किया गया था कि जो लोग उसका निशाना बने वे तिलमिला उठे। लू-शुन जानते थे कि नौकरशाही को नाराज कर उसके परिणाम भोगने पड़ेंगे। जान-बूझकर खतरा मोल लेना तो वस्तुतः ही एक बड़े साहस की बात है। अनजाने आ गए खतरों से साधारणतः बचाव ही करना पड़ता है, इससे व्यक्तित्व का उतना उत्कर्ष नहीं होता जितना कि जान-बूझकर खतरों को निमंत्रण देने और उनसे जूझने से।
ऐसे संघर्षशील तपस्वी साहित्यकार लू-शुन का जन्म सन् 1881 ई. में चीन के वेकियांग प्रांत के शाओशिंग नगर में एक सामंती परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता सम्पन्न और समृद्ध होने के साथ-साथ विद्वान् और उदार व्यक्तित्व के धनी भी थे। लू-शुन का बचपन का नाम चाओ-शेरेन था। उनके व्यक्तित्व पर माता का अधिक प्रभाव रहा था, जिसका नाम लू था। पिता कठोर अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। नियमों और मर्यादाओं में तनिक सा ढीलापन भी उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। इसी विशेषता के कारण वे कभी-कभी तो अपनी पत्नी के प्रति भी कठोर रूप हो जाया करते थे। मां के सहृदय निकट सान्निध्य में रहने से चाओ स्वयं को पिता के स्वभाव से सुरक्षित अनुभव करते और वे प्रभावित भी अपनी मां से ही अधिक रहे। इसी कारण उन्होंने आगे चलकर लू-शुन के नाम से लेखन कार्य आरंभ किया।
छः वर्ष की अवस्था में उन्हें स्कूल में भर्ती करवाया गया। उन्हें जो अध्यापक मिला था वह बहुत अच्छे ढंग से कहानियों कहना जानता था। अध्यापक की सुनाई हुई कहानियों ने लू-शुन का रुझान कहानी विधा की ओर मोड़ा। कथा-कहानी सुनने और सुनाने में उन्हें बड़ा मजा आता। कालांतर में उनकी रुचि चित्रकला में भी हुई लेकिन कहानी की ओर उनकी रुचि ज्यों की त्यों ही बनी रही। 11 वर्षों में लू-शुन ने इस स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली और नानकिंग के एकेडमी स्कूल में प्रविष्ट हुए।
यहां उन्होंने चार वर्ष तक पाठ्यपुस्तकों के साथ पाठ्यक्रमेत्तर साहित्य भी पढ़ा। विदेशी लेखकों और साहित्यकारों द्वारा लिखी गयी पुस्तकें उन्हें विशेष रूप से अच्छी लगती थीं। विदेशी साहित्य का अध्ययन करते समय वे यह भी सोचते कि चीनी भाषा में ऐसा साहित्य क्यों नहीं है। चीनी भाषा में उस समय ऐसे साहित्य का वस्तुतः अभाव था। विदेशी साहित्यकारों की इन कृतियों को देखकर ही उनमें चीनी भाषा में सृजनात्मक साहित्य लिखने की प्रेरणा जागी। उस समय के संस्मरण लिखते हुए उन्होंने एक स्थान पर कहा है—‘‘जब कभी मैं काई चीनी पुस्तक पढ़ता तो मुझे लगता था कि जैसे मैं मानवीय अस्तित्व का अंश नहीं हूं। परन्तु विदेशी पुस्तकें पढ़ते समय मुझे बड़ी तीव्रता से यह अनुभूति होती कि मैं मानवीय अस्तित्व के सम्पर्क में आ गया हूं और मेरे शरीर में विद्युत सी दौड़ने लगती। निस्संदेह यह चीनी साहित्य की दीनता थी और इस दीनता को दूर करने के लिए मेरे अन्तःकरण में निरन्तर प्रेरणाएं उठती रहती थीं।’’
लू-शुन ने सन् 1901 में बी. ए. पास किया और सरकारी छात्रवृत्ति पर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान तथा दर्शन और साहित्य का अध्ययन करने के लिए जापान चले गए। उन विषयों के अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने जापानी जन-जीवन का अध्ययन भी किया जो प्रखर रूप से राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत था। वहां के नागरिकों की तुलना जब वे चीनी नागरिकों से करते तो दुःख और वेदना के कारण उनकी आंखें नम हो जातीं और वे सोचते कि चीनी जनता की यह उदासीनता न जाने कब दूर होगी। आठ वर्ष तक जापान में चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन कर जब वे चीन लौटे तो उनकी वेदना और अधिक बढ़ गई तथा उन्होंने संकल्प लिया कि वे लोगों की शारीरिक चिकित्सा के स्थान पर मस्तिष्कीय चिकित्सा, भावनात्मक चिकित्सा, चेतना की चिकित्सा के लिए प्रयत्न करेंगे। शरीर के स्वास्थ की उपेक्षा मनुष्य का मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य अधिक महत्वपूर्ण है और इस उद्देश्य-प्राप्ति के लिए साहित्य की सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम सिद्ध हो सकता है। लू-शुन ने ऐसी स्थिति में डॉक्टर बनने की अपेक्षा शाओशिंग स्कूल में अध्यापक बनना पसंद किया।
सन् 1911 में क्रांतिकारी लहरें उठने लगीं। इस क्रांति से राजवंशों का खात्मा तो हुआ लेकिन साम्राज्यवाद और सामंतवाद का उन्मूलन नहीं हो सका। सामंती समाज का प्रभाव और प्रभुता ज्यों की त्यों बनी रही। इस स्थिति को उलटने के लिए लू-शुन ने अपनी कलम उठायी और ऐसे तत्वों से लोहा लेने लगे। वे शाओरिंग से पेकिंग आ गए। पेकिंग उन दिनों साहित्यिक और सांस्कृतिक हलचलों का केन्द्र बना हुआ था। लू-शुन को सरकारी शिक्षा विभाग में एक अच्छा पद मिल गया तथा आगे चलकर 1919 में वे जब पेकिंग विश्वविद्यालय में अध्यापक बने तो ‘नवयुवक’ पत्र का सम्पादन भी करने लगे।
यह पत्र लू-शुन की साहित्यिक गतिविधियों का प्रमुख माध्यम बना। इसी के बल पर उन्होंने पुरानी जर्जर व्यवस्था को नष्ट करने तथा नव सृजन के लिए युवकों और विद्यार्थियों को प्रेरणा दी वह उनका मार्गदर्शन किया। लगने लगा कि यह आन्दोलन कुछ समय में पुरानी व्यवस्था के लिए चिंतनीय समस्या बन जायेगा तो सन् 1926 ई. में इसका तीव्र दमन किया गया। इसी दमन के परिणामस्वरूप लू-शुन को पीकिंग विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग से पृथक भी होना पड़ा।
बचपन की अभिरुचि से विकसित कथा शिल्प की प्रतिभा को उन्होंने और मांज कर निखारा तथा वे कहानियां लिखने लगे। ये कहानियां तत्कालीन राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर लिखी गईं। अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने सामंती व्यवस्था पर करारे प्रहार किये। उन्होंने दोनों पक्षों का ध्यान रखा। पहला पक्ष तो था उस व्यवस्था से पीड़ित लोगों का चित्रण। जो लोग शोषण के इस चक्र में बुरी तरह पिस चुके थे और पिसते जा रहे थे उनका करुणार्द्र चित्रण। तथा दूसरा था इसका विकल्प प्रतिपादन। वर्तमान व्यवस्था को तोड़ा जाय तो उसके स्थान पर किया क्या जाय?
पहले पक्ष में उन्होंने शोषित और उत्पीड़ित वर्ग का बड़ा ही करुण तथा मार्मिक चित्रण किया। जो आज भी इतना सजीव है कि पढ़कर नेत्र सजल हो उठें। सन् 1928 में वे शंघाई आकर रहने लगे। उन्होंने यहां रहकर समाजवाद के सिद्धान्तों का अध्ययन किया। इस पक्ष को जन-साधारण के सामने रखने के लिए उन्होंने आलोचनात्मक निबंध तथा ऐतिहासिक कहानियां लिखीं व अन्य देश की भाषाओं का साहित्यानुवाद प्रकाशित किया। उनकी कहानियां पढ़कर तिलमिला उठा हृदय उपयुक्त समाधान पाकर तृप्त सा हो जाता। मात्र तृप्त ही नहीं वरन् एक दिशा भी प्राप्त कर लेता था।
इस प्रकार उन्होंने समाजवादी क्रांति की संभावनाओं को मजबूत बनाया। यह सच है कि कोई भी परिवर्तन चाहे बड़ा हो या छोटा विचारों के रूप में ही जन्म लेता है। मनुष्यों और समाज की विचारणा तथा धारणा में जब तक परिवर्तन नहीं आता तब तक सामाजिक परिवर्तन भी असंभव ही है और कहना नहीं होगा कि विचारों के बीज साहित्य के हल से ही बोये जा सकते हैं। लू-शुन ने चीनी जनता को समृद्ध व सुखी बनाने के लिए इसी कृषि उपकरण का सफल प्रयोग किया।
सितंबर 1936 में लू-शुन का देहांत हो गया। परन्तु उन्होंने चीनी भाषा के साहित्य को जो समृद्धि और सम्पन्नता दी वह चिर स्मरणीय है। चीनी समाज उन्हें युगांतरकार के रूप में सदैव याद करेगा।
(यु. नि. यो. नवंबर 1975 से संकलित)
ये शब्द उस समय कहे गए जब माओ स्वयं भी एक क्रांतिकारी सैनिक के रूप में काम कर रहे थे। सन् 1936 –जब चीन में परिवर्तनों का दौर-दौरा चल रहा था। जर्जर और अस्त-व्यस्त समाज व्यवस्था तथा शासन तंत्र को तोड़कर नये समाज की रचना के प्रयत्न चल रहे थे। तो ऐसे समय में अर्पित किए गए ये श्रद्धा सुमन इस बात के प्रतीक नहीं हो सकते थे कि लू-शुन चीन के वर्तमान शासकों के अंधभक्ति या अंध समर्थक रहे हों। यह वह समय था जब सामान्य जनता और बुद्धिजीवी हर कोई दंड तथा उत्पीड़न का शिकार हो रहा था। यद्यपि स्वदेशी शासन व्यवस्था थी परन्तु सामंतों तथा जागीरदारों का समाज में इतना प्रभुत्व था कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी।
उस समय में इन तत्वों के खिलाफ आवाज उठाने का एक ही अर्थ था घुट-घुट कर मर जाने के लिए मृत्यु को निमंत्रण। इसलिए ऐसा दुस्साहस शायद ही किसी का होता हो और जो यह दुस्साहस करता भी उसे बड़ी नारकीय स्थिति में जीना पड़ता। कुछेक आदर्शवादी और सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति ऐसा साहस करते भी तो भूख, बेकारी और पत्नी-बच्चों की कराह उन्हें जल्दी ही तोड़ देती। इन सब संभावनाओं के बावजूद भी लू-शुन ने चीन के नागरिकों को नये जीवन का संदेश दिया तथा नये समाज के सृजन का आह्वान किया।
उपरोक्त परिस्थितियों का चित्रण करते हुए उन्होंने एक मार्मिक कहानी लिखी है—‘भूतकाल का पश्चाताप’ जिसमें उनका यह आक्रांत आक्रोश बड़ी तीव्रता से व्यक्त हो उठा है। इस कहानी का नायक शिक्षित है और लेखक भी। बदलती परिस्थितियों में वह मितव्ययिता से अपना गुजारा चलाने का प्रयत्न करता है परन्तु परिस्थितियों से तालमेल नहीं बैठता। नायक की मनःस्थिति का बड़ा मार्मिक चित्रण किया गया है इस कहानी में। उसे कोई काम नहीं मिलता। वह सोचता है कि जब मेरे पास आजीविका का कोई साधन नहीं है तो मैं अपनी पत्नी से प्रेम भी कैसे कर सकता हूं और वह अपनी पत्नी को कहीं और भेज देता है, जहां वह मर जाती है। पत्नी के देहान्त का समाचार पाकर नायक अवाक् रह जाता है। इस स्थिति में एक सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति की क्या मनोदशा होगी, यह तो उसी स्तर का व्यक्ति अनुभव कर सकता है। नायक सोचता है, उसके विचार बदलते हैं और वह विचार बदलने के साथ-साथ अपनी जीवन दशा भी बदल देता है। उन निर्णायक क्षणों में वह कहता है कि निस्संदेह इन परिस्थितियों से समझौता करने के लिए मुझे अपने हृदय को घायल करना पड़ेगा परन्तु जीने के लिए मुझे अपने घायल हृदय से सत्य को छिपाना ही पड़ेगा। जीने का यही एक रास्ता है कि अपने जीवन दर्शन को भुलाकर असत्य को ही अपना मार्गदर्शन बनाना पड़ेगा। इस कहानी के शिल्प और भाषा में इतना करारा और तीव्र व्यंग्य किया गया था कि जो लोग उसका निशाना बने वे तिलमिला उठे। लू-शुन जानते थे कि नौकरशाही को नाराज कर उसके परिणाम भोगने पड़ेंगे। जान-बूझकर खतरा मोल लेना तो वस्तुतः ही एक बड़े साहस की बात है। अनजाने आ गए खतरों से साधारणतः बचाव ही करना पड़ता है, इससे व्यक्तित्व का उतना उत्कर्ष नहीं होता जितना कि जान-बूझकर खतरों को निमंत्रण देने और उनसे जूझने से।
ऐसे संघर्षशील तपस्वी साहित्यकार लू-शुन का जन्म सन् 1881 ई. में चीन के वेकियांग प्रांत के शाओशिंग नगर में एक सामंती परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता सम्पन्न और समृद्ध होने के साथ-साथ विद्वान् और उदार व्यक्तित्व के धनी भी थे। लू-शुन का बचपन का नाम चाओ-शेरेन था। उनके व्यक्तित्व पर माता का अधिक प्रभाव रहा था, जिसका नाम लू था। पिता कठोर अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। नियमों और मर्यादाओं में तनिक सा ढीलापन भी उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। इसी विशेषता के कारण वे कभी-कभी तो अपनी पत्नी के प्रति भी कठोर रूप हो जाया करते थे। मां के सहृदय निकट सान्निध्य में रहने से चाओ स्वयं को पिता के स्वभाव से सुरक्षित अनुभव करते और वे प्रभावित भी अपनी मां से ही अधिक रहे। इसी कारण उन्होंने आगे चलकर लू-शुन के नाम से लेखन कार्य आरंभ किया।
छः वर्ष की अवस्था में उन्हें स्कूल में भर्ती करवाया गया। उन्हें जो अध्यापक मिला था वह बहुत अच्छे ढंग से कहानियों कहना जानता था। अध्यापक की सुनाई हुई कहानियों ने लू-शुन का रुझान कहानी विधा की ओर मोड़ा। कथा-कहानी सुनने और सुनाने में उन्हें बड़ा मजा आता। कालांतर में उनकी रुचि चित्रकला में भी हुई लेकिन कहानी की ओर उनकी रुचि ज्यों की त्यों ही बनी रही। 11 वर्षों में लू-शुन ने इस स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली और नानकिंग के एकेडमी स्कूल में प्रविष्ट हुए।
यहां उन्होंने चार वर्ष तक पाठ्यपुस्तकों के साथ पाठ्यक्रमेत्तर साहित्य भी पढ़ा। विदेशी लेखकों और साहित्यकारों द्वारा लिखी गयी पुस्तकें उन्हें विशेष रूप से अच्छी लगती थीं। विदेशी साहित्य का अध्ययन करते समय वे यह भी सोचते कि चीनी भाषा में ऐसा साहित्य क्यों नहीं है। चीनी भाषा में उस समय ऐसे साहित्य का वस्तुतः अभाव था। विदेशी साहित्यकारों की इन कृतियों को देखकर ही उनमें चीनी भाषा में सृजनात्मक साहित्य लिखने की प्रेरणा जागी। उस समय के संस्मरण लिखते हुए उन्होंने एक स्थान पर कहा है—‘‘जब कभी मैं काई चीनी पुस्तक पढ़ता तो मुझे लगता था कि जैसे मैं मानवीय अस्तित्व का अंश नहीं हूं। परन्तु विदेशी पुस्तकें पढ़ते समय मुझे बड़ी तीव्रता से यह अनुभूति होती कि मैं मानवीय अस्तित्व के सम्पर्क में आ गया हूं और मेरे शरीर में विद्युत सी दौड़ने लगती। निस्संदेह यह चीनी साहित्य की दीनता थी और इस दीनता को दूर करने के लिए मेरे अन्तःकरण में निरन्तर प्रेरणाएं उठती रहती थीं।’’
लू-शुन ने सन् 1901 में बी. ए. पास किया और सरकारी छात्रवृत्ति पर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान तथा दर्शन और साहित्य का अध्ययन करने के लिए जापान चले गए। उन विषयों के अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने जापानी जन-जीवन का अध्ययन भी किया जो प्रखर रूप से राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत था। वहां के नागरिकों की तुलना जब वे चीनी नागरिकों से करते तो दुःख और वेदना के कारण उनकी आंखें नम हो जातीं और वे सोचते कि चीनी जनता की यह उदासीनता न जाने कब दूर होगी। आठ वर्ष तक जापान में चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन कर जब वे चीन लौटे तो उनकी वेदना और अधिक बढ़ गई तथा उन्होंने संकल्प लिया कि वे लोगों की शारीरिक चिकित्सा के स्थान पर मस्तिष्कीय चिकित्सा, भावनात्मक चिकित्सा, चेतना की चिकित्सा के लिए प्रयत्न करेंगे। शरीर के स्वास्थ की उपेक्षा मनुष्य का मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य अधिक महत्वपूर्ण है और इस उद्देश्य-प्राप्ति के लिए साहित्य की सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम सिद्ध हो सकता है। लू-शुन ने ऐसी स्थिति में डॉक्टर बनने की अपेक्षा शाओशिंग स्कूल में अध्यापक बनना पसंद किया।
सन् 1911 में क्रांतिकारी लहरें उठने लगीं। इस क्रांति से राजवंशों का खात्मा तो हुआ लेकिन साम्राज्यवाद और सामंतवाद का उन्मूलन नहीं हो सका। सामंती समाज का प्रभाव और प्रभुता ज्यों की त्यों बनी रही। इस स्थिति को उलटने के लिए लू-शुन ने अपनी कलम उठायी और ऐसे तत्वों से लोहा लेने लगे। वे शाओरिंग से पेकिंग आ गए। पेकिंग उन दिनों साहित्यिक और सांस्कृतिक हलचलों का केन्द्र बना हुआ था। लू-शुन को सरकारी शिक्षा विभाग में एक अच्छा पद मिल गया तथा आगे चलकर 1919 में वे जब पेकिंग विश्वविद्यालय में अध्यापक बने तो ‘नवयुवक’ पत्र का सम्पादन भी करने लगे।
यह पत्र लू-शुन की साहित्यिक गतिविधियों का प्रमुख माध्यम बना। इसी के बल पर उन्होंने पुरानी जर्जर व्यवस्था को नष्ट करने तथा नव सृजन के लिए युवकों और विद्यार्थियों को प्रेरणा दी वह उनका मार्गदर्शन किया। लगने लगा कि यह आन्दोलन कुछ समय में पुरानी व्यवस्था के लिए चिंतनीय समस्या बन जायेगा तो सन् 1926 ई. में इसका तीव्र दमन किया गया। इसी दमन के परिणामस्वरूप लू-शुन को पीकिंग विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग से पृथक भी होना पड़ा।
बचपन की अभिरुचि से विकसित कथा शिल्प की प्रतिभा को उन्होंने और मांज कर निखारा तथा वे कहानियां लिखने लगे। ये कहानियां तत्कालीन राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर लिखी गईं। अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने सामंती व्यवस्था पर करारे प्रहार किये। उन्होंने दोनों पक्षों का ध्यान रखा। पहला पक्ष तो था उस व्यवस्था से पीड़ित लोगों का चित्रण। जो लोग शोषण के इस चक्र में बुरी तरह पिस चुके थे और पिसते जा रहे थे उनका करुणार्द्र चित्रण। तथा दूसरा था इसका विकल्प प्रतिपादन। वर्तमान व्यवस्था को तोड़ा जाय तो उसके स्थान पर किया क्या जाय?
पहले पक्ष में उन्होंने शोषित और उत्पीड़ित वर्ग का बड़ा ही करुण तथा मार्मिक चित्रण किया। जो आज भी इतना सजीव है कि पढ़कर नेत्र सजल हो उठें। सन् 1928 में वे शंघाई आकर रहने लगे। उन्होंने यहां रहकर समाजवाद के सिद्धान्तों का अध्ययन किया। इस पक्ष को जन-साधारण के सामने रखने के लिए उन्होंने आलोचनात्मक निबंध तथा ऐतिहासिक कहानियां लिखीं व अन्य देश की भाषाओं का साहित्यानुवाद प्रकाशित किया। उनकी कहानियां पढ़कर तिलमिला उठा हृदय उपयुक्त समाधान पाकर तृप्त सा हो जाता। मात्र तृप्त ही नहीं वरन् एक दिशा भी प्राप्त कर लेता था।
इस प्रकार उन्होंने समाजवादी क्रांति की संभावनाओं को मजबूत बनाया। यह सच है कि कोई भी परिवर्तन चाहे बड़ा हो या छोटा विचारों के रूप में ही जन्म लेता है। मनुष्यों और समाज की विचारणा तथा धारणा में जब तक परिवर्तन नहीं आता तब तक सामाजिक परिवर्तन भी असंभव ही है और कहना नहीं होगा कि विचारों के बीज साहित्य के हल से ही बोये जा सकते हैं। लू-शुन ने चीनी जनता को समृद्ध व सुखी बनाने के लिए इसी कृषि उपकरण का सफल प्रयोग किया।
सितंबर 1936 में लू-शुन का देहांत हो गया। परन्तु उन्होंने चीनी भाषा के साहित्य को जो समृद्धि और सम्पन्नता दी वह चिर स्मरणीय है। चीनी समाज उन्हें युगांतरकार के रूप में सदैव याद करेगा।
(यु. नि. यो. नवंबर 1975 से संकलित)