Books - विचार क्रांति के द्रष्टा एवं स्रष्टा
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
शांति और स्वतंत्रता का अमर उपासक विलियम पेन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विश्व-मानव को समृद्ध, आश्वस्त और सुखी बनाने के लिए नूतन आदर्शों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वालों को काल की परिधि में नहीं बांधा जा सकता। भविष्य के ये दृष्टा अपने गहन चिंतन के परिणामस्वरूप ऐसे सिद्धान्त प्रतिपादन कर जाते हैं जो उनके समय में सर्वथा काल्पनिक व अव्यवहारिक लगते हैं, किन्तु आगे जाकर वे व्यवस्था में आते हैं, उन्हें कार्यान्वित किया जाता है। ऐसे ही एक व्यक्ति थे विलियम पेन, जिन्होंने आज से 300 वर्षों पहले व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन से संघर्ष किया था। उन्होंने प्रजातंत्र व स्वतंत्रता के सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इस प्रतिपादन के साथ-साथ उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की योजना भी बनाई थी।
विलियम पेन का जन्म लंदन में सन् 1644 में हुआ था। उन दिनों व्यक्ति की आत्मा पर भी राजा का पहरा होता था। इंग्लैण्ड वासियों की वही धर्म मानना होता था जो उनके राजा को पसंद था। व्यक्ति की श्रद्धा व विश्वास पर दंड के पहरे बिठाये हुए थे। विलियम ज्यों-त्यों वयस्क होते गए त्यों-त्यों उन्हें यह बंधन अखरने लगा। घर में कमी कुछ भी नहीं थी। उनके पिता ब्रिटिश नौ सेना में एडमिरल थे। भविष्य में उनके लिए उच्च पद मिलना सुनिश्चित था। किंतु सोने के पिंजरे में रहकर भी पक्षी उस आनन्द से वंचित ही रहता है जो उसे स्वतंत्र रहकर प्रकृति की गोद में उन्मुक्त विचरण से मिलता है।
चौबीस वर्ष की आयु में ही उन्हें ‘लंदन टावर’ नामक कारावास की सैर करनी पड़ी। उसका कारण उनका क्वेकर (शांति संगठन) नामक सम्प्रदाय का अनुयायी बनाना था जो राजाज्ञा के अनुसार प्रतिबंधित था। क्वेकर सम्प्रदाय के सदस्यों को राजा के विधान द्वारा क्रूर यातनाएं दी जाती थीं।
पिता ने अपने पुत्र से बड़ी-बड़ी लौकिक कामनाएं लगा रखी थीं। उनका सपना अपने पुत्र को ब्रिटिश शासन तंत्र के उच्चाधिकारी के रूप में देखने का था। किन्तु विलियम के कार्य-कलापों से उनका यह स्वप्न चूर-चूर हो गया। उन्होंने उसे बुरी तरह तिरस्कृत किया, मारा-पीटा भी सही। पर वह अपने सिद्धांतों पर दृढ़ थे। इसी कारण उन्हें आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से भी निष्कासित कर दिया गया था।
नौ महीन के सश्रम कारावास ने उन्हें संकल्पों को दृढ़ ही किया था, डिगाया नहीं था। क्योंकि यह उनके अकेले की समस्या नहीं थी, लाखों व्यक्ति इन अन्याय युक्त कानून से अपने धर्म, विश्वास तथा निष्ठा को बनाए नहीं रख सकते थे। जन-जन की इस पीड़ा को अपने हृदय में स्थान देने के कारण ही वे इतने दृढ़ बन सके थे।
जेल से मुक्त होते ही उन्होंने ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, हालैंड आदि देशों की यात्रा की। उन्होंने स्थान-स्थान पर जन सभाएं आयोजित करके लोगों को अपनी अंतःप्रेरणा को अभिव्यक्त करने के माध्यम ‘धर्म’ को राज्य के कारागृह से मुक्त कराने का उद्बोधन दिया। इन जन सभाओं में अधिकांश क्वेकर मतावलम्बी आते थे या वे लोग आते थे जो अपने खोये हुए अधिकारों को पाना चाहते थे। इनकी संख्या हजारों में होती थी।
लंदन में अपने हजारों अनुयायियों की एक सभा में भाषण देते समय ब्रिटिश सरकार के सिपाहियों से सभागृह में ताले डाल दिए। विलियम पेन को पकड़ लिया गया। उन्हें न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया गया। इस तथाकथित न्यायालय के प्रकरण के समय जो कुछ हुआ वह न्याय के नाम पर अन्याय ही था।
न्यायाधीश सर सेमुअल स्टार्लिंग लार्ड मेयर ऑफ लंदन ने उनसे कहा— ‘‘तुम्हें राजाज्ञा उल्लंघन का अपराधी पाया गया है।’’
विलियम पेन ने न्यायालय को चुनौती देते हुए कहा—‘‘प्रश्न यह नहीं है कि मैं अपराधी हूं या नहीं। प्रश्न यह है कि मुझे जिस प्रकार पकड़ कर यहां अपराधी के कटघरे में खड़ा कर दिया है क्या यह वैधानिक है?’’
विलियम पेन के इस उत्तर को सुनकर न्यायाधीश क्रोध से जल उठा। उसने पेन को अभद्र वचन कहते हुए सिपाहियों से उसे जानवरों के कटघरे में बन्द करवा दिया। पेन का उद्देश्य इंग्लैंड वासियों में स्वतंत्रता की भावना जगाना था। कटघरे में बन्द करके भी उनकी आवाज को तो बन्द नहीं किया जा सकता था। उन्होंने जूरी से अनुरोध करते हुए कहा—‘‘देखिए! आप लोग ब्रिटेनवासी हैं। जिस प्रकार एक भद्र व्यक्ति को जानवरों के कटघरे में बन्द किया गया है। क्या यह न्याय संगत है? आप अपने अधिकार को छोड़ियेगा नहीं। यह मेरी ही बात नहीं, एक सम्मानित देश के सामान्य नागरिक की बात है।’’
जूरी ने पेन को निर्दोष घोषित कर दिया। क्रुद्ध न्यायाधीश ने उन्हें साम, दाम, दंड, भेद सभी नीतियों से उनके निश्चय को डिगाना चाहा पर वे अटल रहे। उन्हें मारा गया तथा उन्हें न्यायालय का अपमान करने का अपराधी मानकर जेल में डाल दिया गया। बाद में उन्होंने न्यायाधीश पर मुकदमा दायर किया और वे जीते।
विलियम पेन को पांच बार जेल जाना पड़ा। जेल में भी उनका चिंतन-मनन चलता रहा। इस अवधि में उन्होंने अपने सिद्धान्तों को व्यवस्थित स्वरूप दिया। नई-नई योजनाएं बनायीं। जेल की दीवारों पर अपने सिद्धान्तों को लिखा। वह एक सम्प्रदाय के नेता से ऊपर उठकर स्वतंत्रता के सिद्धांत के जनक बन गए। उनकी ख्याति देश-विदेश में फैल गयी। यह उनकी उस धीरता का परिणाम था कि जेल भी उनके लिए वरदान बन गई।
जब वे जेल से बाहर निकले उस समय वे यूरोप के एक सशक्त लोकप्रिय व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें पीटर के समान महान माना गया। चार्ल्स द्वितीय, जेम्स द्वितीय, विलियम ऑफ ओरेंज तथा रानी एनी जैसे राज परिवार के लोग भी उनके प्रशंसक बन चुके थे। अपने इस प्रभाव से उन्होंने कितने ही लोगों को अन्याय के दमन चक्र से छुड़ाया।
कुछ लोगों के कहने पर उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में भी जमने का प्रयास किया। उनका यह विश्वास था कि सुशासन लाने के लिए राजनीति में दखल रखना भी आवश्यक है। किन्तु दो चुनावों के परिणाम देखकर वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि दो नावों पर पांव रखकर चलने पर धोखा भी खाना पड़ता है। उनके उम्मीदवार दो बार उचित-अनुचित दोनों तरीके काम में नहीं लाने के कारण हार गए। सच तो यह है कि बिना नैतिकता व आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा के समाज की समग्र प्रगति हो नहीं सकती है। अतः उन्होंने ‘एकै साधे सब सधै’ की उक्ति के अनुसार ही कार्य करना आरंभ किया।
अपने ‘पवित्र प्रयोग’ के लिए उन्होंने इंग्लैण्ड छोड़कर अमेरिका को चुना। चार्ल्स द्वितीय से उन्होंने 50,000 पौंड में अमेरिका के एक विस्तृत भू-भाग को खरीदा। वहीं से उन्होंने व्यक्ति, समाज, देश और विश्व को सुनियोजित कड़ियों में जोड़ने और अपने उस चिंतन को व्यावहारिक रूप देने का कार्य किया जिसे उन्होंने जेल की काल कोठरी में बैठकर किया था। यह प्रदेश डेल्वेयर नदी के पास था तथा क्षेत्रफल में इंग्लैंड जितना ही बड़ा था। यहां के निवासी रेड इंडियन, डच, स्वीडिश तथा ब्रिटिश थे। यहां कोई व्यवस्थित सरकार नहीं थी। यहीं उन्होंने अपने सिद्धान्तों का बीज रूप में वपन किया जो कालांतर में फले-फूले।
1682 के अक्टूबर माह में विलियम पेन ने डेल्वेयर नदी के तटवर्ती प्रदेश में पदार्पण किया। इस प्रदेश के निवासियों ने उनका बड़े जोर-शोर से स्वागत किया। उनके विचार, सिद्धांत तथा ख्याति उनके आने के पहले ही वहां फैल चुकी थी। उन लोगों ने उस प्रदेश का नामकरण संस्कार उन्हीं के नाम पर पेंसिलवानियाँ कर दिया। आज यह प्रदेश संयुक्त राज्य अमेरिका की समृद्धतम स्टेट है किन्तु उस समय यह निरा जंगल था।
यहां उन्होंने अपने उन महत्वपूर्ण स्वप्नों को साकार करना आरंभ किया। 10,000 एकड़ में फिलाडेल्फिया नगर की योजना बनाई। यह एक बालक उत्साह जैसा ही कार्य था। इतने बड़े नगर में रहने वाले कहां से आयेंगे। अतः अनुभवी लोगों ने उन्हें 1200 एकड़ में ही नगर बसाने की सलाह दी। किन्तु आज वह नगर उनके अनुमान से अधिक फैल चुका है। प्रत्येक मकान का अपना बगीचा और प्रत्येक सड़क वृक्षों से ढकी हुई बनायी गयी थी।
उनके सुशासन में सभी प्रकार के सुख-शांति थी। आदिवासी रेड इंडियन तथा अन्य यूरोपीय देशों से आकर बसने वाले लोग भाईचारे से रहते थे। पेन ने इस कालोनी का अपना एक संविधान बनाया था। इसमें प्रत्येक नागरिक को अपने वैयक्तिक अधिकार मिले हुए थे। चुनाव द्वारा पार्षद चुने जाते थे तथा वे स्टेट का प्रबंध करते थे। प्रत्येक वयस्क को मताधिकार था। सभी को समान रूप से न्याय मिलने की व्यवस्था थी। धर्म व संस्कृति के मामले में सरकार कोई दखल नहीं देती थी।
पेन के न्यायपालिका को राज्य पालिका के प्रभाव से सर्वथा मुक्त रखा। वहां के न्यायालय में रेड इंडियनों को भी जूरी में स्थान दिया गया था।
प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता ही नहीं आत्म निर्भर तथा समृद्ध बनने की सुविधाएं भी उन्होंने पेंसिलवानियाँ के नागरिकों को प्रदान कीं। पेंसिलवानियाँ के कलाकारों, कारीगरों तथा योग्य कृषकों के लिए बसने की पूरी-पूरी सुविधाएं जुटाई गयीं। जहाज निर्माण, खनिज दोहन तथा फर के व्यापार को प्रोत्साहन दिया गया।
कालोनी में शिक्षा व्यवस्था का समुचित प्रबंध था। गरीबों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। वह शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान की परिधि में ही नहीं सिमटी हुई थी वरन् जीवन के समग्र विकास की कसौटी पर भी खरी उतरती थी। रूढ़िवादी तथा निरर्थक परंपराओं से जनता को मुक्त रखा गया।
पेन का अपना परिवार सुखी तथा सम्पन्न था। उन्होंने पेंसिल बरी में अपना सुन्दर सा मकान बनाया तथा अपने परिवार के साथ आनन्दपूर्वक वहीं रहते रहे। 1701 में उन्हें अपनी कालोनी की प्रगति के सम्बन्ध में इंग्लैंड आना पड़ा। उसके बाद वे पुनः अमेरिका नहीं लौट सके।
अपने ‘एन एसे आन द प्रजेंट एंड फ्यूचर पीस आफ यूरोप’ (यूरोप की वर्तमान तथा भविष्य संबंधी शांति पर एक लेख) नामक दस्तावेज में उन्होंने अपने गहन चिंतन के आधार पर विश्व शांति के संभाव्य हल तथा युद्ध की विभीषिका से मुक्ति का मार्ग सुझाया। यह दस्तावेज आज भी विश्व शांति के लिए पथ प्रदर्शन कर सकता है। उसमें से बहुत सी बातें अब अपनायी जा रही हैं।
उस काल में राज्य तंत्र तथा युद्ध मनुष्य की त्रासदियां थीं। आज भौतिक समृद्धि को ही चरम सत्य मान बैठने की भूल मनुष्य कर रहा है। विलियम पेन की तरह आज कोई व्यक्ति अपने सिद्धान्तों द्वारा भावी सुख शांति का विधान रच रहा हो तो यह कोई असंभव बात नहीं। आज वह नगण्य लगे पर कल उसका महत्व स्वीकारना ही होगा।
(यु. नि. यो. मई 1973 से संकलित)
विलियम पेन का जन्म लंदन में सन् 1644 में हुआ था। उन दिनों व्यक्ति की आत्मा पर भी राजा का पहरा होता था। इंग्लैण्ड वासियों की वही धर्म मानना होता था जो उनके राजा को पसंद था। व्यक्ति की श्रद्धा व विश्वास पर दंड के पहरे बिठाये हुए थे। विलियम ज्यों-त्यों वयस्क होते गए त्यों-त्यों उन्हें यह बंधन अखरने लगा। घर में कमी कुछ भी नहीं थी। उनके पिता ब्रिटिश नौ सेना में एडमिरल थे। भविष्य में उनके लिए उच्च पद मिलना सुनिश्चित था। किंतु सोने के पिंजरे में रहकर भी पक्षी उस आनन्द से वंचित ही रहता है जो उसे स्वतंत्र रहकर प्रकृति की गोद में उन्मुक्त विचरण से मिलता है।
चौबीस वर्ष की आयु में ही उन्हें ‘लंदन टावर’ नामक कारावास की सैर करनी पड़ी। उसका कारण उनका क्वेकर (शांति संगठन) नामक सम्प्रदाय का अनुयायी बनाना था जो राजाज्ञा के अनुसार प्रतिबंधित था। क्वेकर सम्प्रदाय के सदस्यों को राजा के विधान द्वारा क्रूर यातनाएं दी जाती थीं।
पिता ने अपने पुत्र से बड़ी-बड़ी लौकिक कामनाएं लगा रखी थीं। उनका सपना अपने पुत्र को ब्रिटिश शासन तंत्र के उच्चाधिकारी के रूप में देखने का था। किन्तु विलियम के कार्य-कलापों से उनका यह स्वप्न चूर-चूर हो गया। उन्होंने उसे बुरी तरह तिरस्कृत किया, मारा-पीटा भी सही। पर वह अपने सिद्धांतों पर दृढ़ थे। इसी कारण उन्हें आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से भी निष्कासित कर दिया गया था।
नौ महीन के सश्रम कारावास ने उन्हें संकल्पों को दृढ़ ही किया था, डिगाया नहीं था। क्योंकि यह उनके अकेले की समस्या नहीं थी, लाखों व्यक्ति इन अन्याय युक्त कानून से अपने धर्म, विश्वास तथा निष्ठा को बनाए नहीं रख सकते थे। जन-जन की इस पीड़ा को अपने हृदय में स्थान देने के कारण ही वे इतने दृढ़ बन सके थे।
जेल से मुक्त होते ही उन्होंने ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, हालैंड आदि देशों की यात्रा की। उन्होंने स्थान-स्थान पर जन सभाएं आयोजित करके लोगों को अपनी अंतःप्रेरणा को अभिव्यक्त करने के माध्यम ‘धर्म’ को राज्य के कारागृह से मुक्त कराने का उद्बोधन दिया। इन जन सभाओं में अधिकांश क्वेकर मतावलम्बी आते थे या वे लोग आते थे जो अपने खोये हुए अधिकारों को पाना चाहते थे। इनकी संख्या हजारों में होती थी।
लंदन में अपने हजारों अनुयायियों की एक सभा में भाषण देते समय ब्रिटिश सरकार के सिपाहियों से सभागृह में ताले डाल दिए। विलियम पेन को पकड़ लिया गया। उन्हें न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया गया। इस तथाकथित न्यायालय के प्रकरण के समय जो कुछ हुआ वह न्याय के नाम पर अन्याय ही था।
न्यायाधीश सर सेमुअल स्टार्लिंग लार्ड मेयर ऑफ लंदन ने उनसे कहा— ‘‘तुम्हें राजाज्ञा उल्लंघन का अपराधी पाया गया है।’’
विलियम पेन ने न्यायालय को चुनौती देते हुए कहा—‘‘प्रश्न यह नहीं है कि मैं अपराधी हूं या नहीं। प्रश्न यह है कि मुझे जिस प्रकार पकड़ कर यहां अपराधी के कटघरे में खड़ा कर दिया है क्या यह वैधानिक है?’’
विलियम पेन के इस उत्तर को सुनकर न्यायाधीश क्रोध से जल उठा। उसने पेन को अभद्र वचन कहते हुए सिपाहियों से उसे जानवरों के कटघरे में बन्द करवा दिया। पेन का उद्देश्य इंग्लैंड वासियों में स्वतंत्रता की भावना जगाना था। कटघरे में बन्द करके भी उनकी आवाज को तो बन्द नहीं किया जा सकता था। उन्होंने जूरी से अनुरोध करते हुए कहा—‘‘देखिए! आप लोग ब्रिटेनवासी हैं। जिस प्रकार एक भद्र व्यक्ति को जानवरों के कटघरे में बन्द किया गया है। क्या यह न्याय संगत है? आप अपने अधिकार को छोड़ियेगा नहीं। यह मेरी ही बात नहीं, एक सम्मानित देश के सामान्य नागरिक की बात है।’’
जूरी ने पेन को निर्दोष घोषित कर दिया। क्रुद्ध न्यायाधीश ने उन्हें साम, दाम, दंड, भेद सभी नीतियों से उनके निश्चय को डिगाना चाहा पर वे अटल रहे। उन्हें मारा गया तथा उन्हें न्यायालय का अपमान करने का अपराधी मानकर जेल में डाल दिया गया। बाद में उन्होंने न्यायाधीश पर मुकदमा दायर किया और वे जीते।
विलियम पेन को पांच बार जेल जाना पड़ा। जेल में भी उनका चिंतन-मनन चलता रहा। इस अवधि में उन्होंने अपने सिद्धान्तों को व्यवस्थित स्वरूप दिया। नई-नई योजनाएं बनायीं। जेल की दीवारों पर अपने सिद्धान्तों को लिखा। वह एक सम्प्रदाय के नेता से ऊपर उठकर स्वतंत्रता के सिद्धांत के जनक बन गए। उनकी ख्याति देश-विदेश में फैल गयी। यह उनकी उस धीरता का परिणाम था कि जेल भी उनके लिए वरदान बन गई।
जब वे जेल से बाहर निकले उस समय वे यूरोप के एक सशक्त लोकप्रिय व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें पीटर के समान महान माना गया। चार्ल्स द्वितीय, जेम्स द्वितीय, विलियम ऑफ ओरेंज तथा रानी एनी जैसे राज परिवार के लोग भी उनके प्रशंसक बन चुके थे। अपने इस प्रभाव से उन्होंने कितने ही लोगों को अन्याय के दमन चक्र से छुड़ाया।
कुछ लोगों के कहने पर उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में भी जमने का प्रयास किया। उनका यह विश्वास था कि सुशासन लाने के लिए राजनीति में दखल रखना भी आवश्यक है। किन्तु दो चुनावों के परिणाम देखकर वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि दो नावों पर पांव रखकर चलने पर धोखा भी खाना पड़ता है। उनके उम्मीदवार दो बार उचित-अनुचित दोनों तरीके काम में नहीं लाने के कारण हार गए। सच तो यह है कि बिना नैतिकता व आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा के समाज की समग्र प्रगति हो नहीं सकती है। अतः उन्होंने ‘एकै साधे सब सधै’ की उक्ति के अनुसार ही कार्य करना आरंभ किया।
अपने ‘पवित्र प्रयोग’ के लिए उन्होंने इंग्लैण्ड छोड़कर अमेरिका को चुना। चार्ल्स द्वितीय से उन्होंने 50,000 पौंड में अमेरिका के एक विस्तृत भू-भाग को खरीदा। वहीं से उन्होंने व्यक्ति, समाज, देश और विश्व को सुनियोजित कड़ियों में जोड़ने और अपने उस चिंतन को व्यावहारिक रूप देने का कार्य किया जिसे उन्होंने जेल की काल कोठरी में बैठकर किया था। यह प्रदेश डेल्वेयर नदी के पास था तथा क्षेत्रफल में इंग्लैंड जितना ही बड़ा था। यहां के निवासी रेड इंडियन, डच, स्वीडिश तथा ब्रिटिश थे। यहां कोई व्यवस्थित सरकार नहीं थी। यहीं उन्होंने अपने सिद्धान्तों का बीज रूप में वपन किया जो कालांतर में फले-फूले।
1682 के अक्टूबर माह में विलियम पेन ने डेल्वेयर नदी के तटवर्ती प्रदेश में पदार्पण किया। इस प्रदेश के निवासियों ने उनका बड़े जोर-शोर से स्वागत किया। उनके विचार, सिद्धांत तथा ख्याति उनके आने के पहले ही वहां फैल चुकी थी। उन लोगों ने उस प्रदेश का नामकरण संस्कार उन्हीं के नाम पर पेंसिलवानियाँ कर दिया। आज यह प्रदेश संयुक्त राज्य अमेरिका की समृद्धतम स्टेट है किन्तु उस समय यह निरा जंगल था।
यहां उन्होंने अपने उन महत्वपूर्ण स्वप्नों को साकार करना आरंभ किया। 10,000 एकड़ में फिलाडेल्फिया नगर की योजना बनाई। यह एक बालक उत्साह जैसा ही कार्य था। इतने बड़े नगर में रहने वाले कहां से आयेंगे। अतः अनुभवी लोगों ने उन्हें 1200 एकड़ में ही नगर बसाने की सलाह दी। किन्तु आज वह नगर उनके अनुमान से अधिक फैल चुका है। प्रत्येक मकान का अपना बगीचा और प्रत्येक सड़क वृक्षों से ढकी हुई बनायी गयी थी।
उनके सुशासन में सभी प्रकार के सुख-शांति थी। आदिवासी रेड इंडियन तथा अन्य यूरोपीय देशों से आकर बसने वाले लोग भाईचारे से रहते थे। पेन ने इस कालोनी का अपना एक संविधान बनाया था। इसमें प्रत्येक नागरिक को अपने वैयक्तिक अधिकार मिले हुए थे। चुनाव द्वारा पार्षद चुने जाते थे तथा वे स्टेट का प्रबंध करते थे। प्रत्येक वयस्क को मताधिकार था। सभी को समान रूप से न्याय मिलने की व्यवस्था थी। धर्म व संस्कृति के मामले में सरकार कोई दखल नहीं देती थी।
पेन के न्यायपालिका को राज्य पालिका के प्रभाव से सर्वथा मुक्त रखा। वहां के न्यायालय में रेड इंडियनों को भी जूरी में स्थान दिया गया था।
प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता ही नहीं आत्म निर्भर तथा समृद्ध बनने की सुविधाएं भी उन्होंने पेंसिलवानियाँ के नागरिकों को प्रदान कीं। पेंसिलवानियाँ के कलाकारों, कारीगरों तथा योग्य कृषकों के लिए बसने की पूरी-पूरी सुविधाएं जुटाई गयीं। जहाज निर्माण, खनिज दोहन तथा फर के व्यापार को प्रोत्साहन दिया गया।
कालोनी में शिक्षा व्यवस्था का समुचित प्रबंध था। गरीबों के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। वह शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान की परिधि में ही नहीं सिमटी हुई थी वरन् जीवन के समग्र विकास की कसौटी पर भी खरी उतरती थी। रूढ़िवादी तथा निरर्थक परंपराओं से जनता को मुक्त रखा गया।
पेन का अपना परिवार सुखी तथा सम्पन्न था। उन्होंने पेंसिल बरी में अपना सुन्दर सा मकान बनाया तथा अपने परिवार के साथ आनन्दपूर्वक वहीं रहते रहे। 1701 में उन्हें अपनी कालोनी की प्रगति के सम्बन्ध में इंग्लैंड आना पड़ा। उसके बाद वे पुनः अमेरिका नहीं लौट सके।
अपने ‘एन एसे आन द प्रजेंट एंड फ्यूचर पीस आफ यूरोप’ (यूरोप की वर्तमान तथा भविष्य संबंधी शांति पर एक लेख) नामक दस्तावेज में उन्होंने अपने गहन चिंतन के आधार पर विश्व शांति के संभाव्य हल तथा युद्ध की विभीषिका से मुक्ति का मार्ग सुझाया। यह दस्तावेज आज भी विश्व शांति के लिए पथ प्रदर्शन कर सकता है। उसमें से बहुत सी बातें अब अपनायी जा रही हैं।
उस काल में राज्य तंत्र तथा युद्ध मनुष्य की त्रासदियां थीं। आज भौतिक समृद्धि को ही चरम सत्य मान बैठने की भूल मनुष्य कर रहा है। विलियम पेन की तरह आज कोई व्यक्ति अपने सिद्धान्तों द्वारा भावी सुख शांति का विधान रच रहा हो तो यह कोई असंभव बात नहीं। आज वह नगण्य लगे पर कल उसका महत्व स्वीकारना ही होगा।
(यु. नि. यो. मई 1973 से संकलित)