Books - विचार क्रांति के द्रष्टा एवं स्रष्टा
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Language: HINDI
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व्यवहारिक अध्यात्मवादी आत्मवीर सुकरात
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सुकरात की पत्नी जेथिप्पी आवश्यकता से अधिक लड़ाका स्वभाव की थी। वह
बाहरी लोगों से ही नहीं स्वयं सुकरात से भी बिना विशेष कारण के लड़ने लग
जाती और उनको मनमानी बातें सुनाने लगती। एक दिन न जाने किस बात पर उसके
मिज़ाज का पारा बहुत गर्म हो गया और वह बड़ी देर तक बकती-झकती रही। पर
सुकरात, जो उसके इस स्वभाव के अभ्यस्त हो गये थे, कुछ न बोले और अपने काम
में लगे रहे। अपनी बातों का कोई प्रभाव पड़ते न देखकर वह और भी नाराज हो गई
और उसने एक बर्तन से भरा मैला पानी लाकर सुकरात पर डाल दिया। उनके सारे
कपड़े भीग गए किन्तु वे फिर भी मुस्कराते रहे और उन्होंने कहा—‘‘मैं तो
पहले ही जानता था कि जेथिप्पी इतना गरजने के बाद बिना बरसे न रहेगी।’’ एक
दूसरे अवसर पर जेथिप्पी बाजार में ही उनसे लड़ने लग गई और उनका कोट खींच कर
फाड़ दिया। यह बात उनके कई मित्रों को बहुत बुरी लगी और उन्होंने सलाह दी
कि इसे खूब पीटना चाहिए। पर सुकरात ने कहा—‘‘किसी साइंस (घोड़ा गाड़ी चलाने
वाला) की योग्यता इसी में देखी जाती है कि वह दुष्ट घोड़े को भी सधा और
सिखाकर उससे काम ले सके। अगर वह दुष्ट घोड़े को उपयोग लायक बना सकता है तो
अन्य सामान्य घोड़ों का काबू में रखने में उसे कुछ भी कठिनाई नहीं होगी।
इसी प्रकार मैं भी जेथिप्पी जैसी चिड़चिड़े स्वभाव की स्त्री के साथ रहता
हूं। अगर मैं उसके साथ निर्वाह कर लेता हूं तो मुझे संसार के अन्य लोगों के
साथ व्यवहार करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।’’अपने गृहस्थ जीवन
को इस प्रकार दूसरों के लिए एक आदर्श बना देने वाले आत्म-ज्ञानी सुकरात
ईसामसीह से भी 499 वर्ष पहले यूनान के एथेन्स नगर में पैदा हुए थे। उनके
पिता शिल्पकार थे जो प्रातः मूर्तियां बनाने का कार्य किया करते थे। सुकरात
ने भी कुछ समय तक अपने इस पैतृक धंधे को किया, पर उसके पश्चात् उन्हें
राजकीय नियमों के अनुसार सेना में भर्ती हो जाना पड़ा और पचास वर्ष की आयु
तक वे उस कार्य को करते रहे। वे तीन युद्धों में लड़ने के लिए भी गए जिनमें
उन्होंने वीरता और धैर्य का अच्छा परिचय दिया। पर वहां भी वे कोई अनुचित
कार्य करने को तैयार नहीं होते थे। न्याय और सत्य का व्यवहार आजीवन उनका
आदर्श बना रहा।
उस जमाने में यूनान का देश नगर राज्यों में बंटा हुआ था। सबमें पृथक-पृथक प्रजातंत्रीय ढंग से शासन होता था जिसके संचालक कुछ प्रमुख नागरिक ही होते थे। एथेन्स का नगर राज्य उस समय बड़ा प्रसिद्ध और प्रभावशाली था तथा धन, बल, विद्या, कला-कौशल आदि सब बातों में वह अग्रगण्य माना जाता था। उस नगर में सुकरात को आरंभ से ही एक ज्ञानी पुरुष माना जाता था और उनके छोटी-छोटी आयु के धनवान और कुलीन व्यक्ति उनकी संगत में रहकर उपदेश ग्रहण किया करते थे।
पचास वर्ष की आयु में सेना से अवकाश पा जाने के बाद तो उन्होंने अपना पूरा समय इसी में लगाना आरंभ कर दिया। वे एक लबादा पहने हुए नंगे पैर शहर की सड़कों और गलियों में घूमा करते थे और चाहे जहां दस-बीस व्यक्तियों के इकट्ठा हो जाने पर वहीं उपदेश देने लग जाते थे। उनके उपदेश देने का ढंग भी अन्य लोगों से निराला था। वे श्रोताओं से ही प्रश्न करने को कहते और उनका उत्तर देते-देते ही ही अपने समस्त सिद्धान्तों को उन्हें समझा देते थे। उनकी खरी बातों या डांटने-फटकारने से चिढ़कर अनेक बार लोग उनकी हंसी भी उड़ाने लगते थे, उनके बाल और खाल को खींचने लगते थे, पर सुकरात सुकरात ने कभी किसी पर क्रोध नहीं किया। उन्होंने आत्म-ज्ञान द्वारा क्रोध पर विजय पा ली थी। एक बार कुछ लोगों के उनको लातों से भी मारा। उनके कुछ शिष्यों ने पूछा कि आपने इन लोगों का ऐसा व्यवहार क्यों सहन कर लिया, जबकि आप शारीरिक शक्ति में उनसे बहुत अधिक होने के कारण उन्हें अच्छी तरह दंड दे सकते थे? सुकरात ने जवाब दिया कि यदि कोई गधा हमें लात मार दे तो क्या हम भी उसे लात मारने लग जांय?
सुकरात का मुकदमा—
पर ऐसे सरल स्वभाव तथा बैर-भाव से मुक्त पुरुष के भी एथेन्स में बहुत से विद्वेषी उत्पन्न हो गए थे। इसका मुख्य कारण तो यह था कि कितने ही धनवान लोगों के पुत्र सुकरात की शिक्षाओं से आकर्षित होकर उनके अनुयायी बनते जाते थे और यह बात उनके अभिभावकों को बुरी जान पड़ती थी। एक तो गरीबी की हालत में रहने के कारण वे सुकरात को अपने से नीचा मनुष्य समझते थे उसे वे अपनी स्थिति के प्रतिकूल समझते थे। जिस प्रकार यदि किसी वेश्यागामी के सामने ब्रह्मचर्य की प्रशंसा की जाय, अथवा किसी नशेबाज के सम्मुख मादक पदार्थों की बुराइयां दिखलाई जायें तो उनको ऐसे उपदेशक पर क्रोध आता है, उसी प्रकार जो लोग तिकड़म से अथवा अनुचित उपायों से धन पैदा करके मालदार बन जाते थे उनको सत्य और न्याय के व्यवहार की बात खटकने वाली ही प्रतीत होती थीं।
दूसरी बात यह थी कि जिन लोगों ने उस समय ‘विद्वान’ का बाना धारण कर रखा था और जो धनवानों के लड़कों को सांसारिकता और वितंडावाद (तर्क-वितर्क) की शिक्षा देकर खूब कमाई करते थे, वे भी सुकरात की सीधी-सादी और आत्म-ज्ञान युक्त शिक्षाओं से चिढ़ते थे। सुकरात ने ऐसे कई विद्वानों से वाद-विवाद करके उन्हें निरुत्तर भी कर दिया था, जिससे वे उनके साथ विद्वेष करने लग गए थे। इन्हीं सब लोगों ने मिलकर सुकरात पर नवयुवकों को कुशिक्षा देने का आरोप लगा करके उन्हें गिरफ्तार करा दिया और उन पर न्यायालय में मुकदमा चलाया।
पर सुकरात इस घटना से विचलित नहीं हुए। वह संसार की नश्वरता और सुख-दुःख की असारता को भली प्रकार समझते थे। उनका विश्वास था कि यह दृश्य जगत क्षणिक और परिवर्तनशील है, इसमें राजा से रंक बनते कुछ भी देर नहीं लगती। इसलिए इसके किसी हानि-लाभ के लिए शोक या हर्ष करना बुद्धिमत्ता नहीं है। जो व्यक्ति आत्म-जगत से अपरिचित होते हैं वे इसके हानि-लाभ को महत्व देते हैं। यह धारणा उनके हृदय में इतनी दृढ़ता के साथ जमी थी कि यह जानते हुए भी कि उनसे द्वेष रखने वाले इस मुकदमें के बहाने उनके जीवन का अंत करना चाहते हैं, उन्होंने उनकी राई भर भी परवाह नहीं की तथा अभियोक्ताओं और न्यायाधीशों को हजारों नागरिकों के सामने की खरी-खरी बातें सुनाईं। उन्होंने कहा—
‘‘इससे पहले भी एक बार इस न्यायालय की अन्याय पूर्ण आज्ञा को अमान्य करके मैंने अपने वचन से ही नहीं वरन् अपने कर्म से भी यह सिद्ध कर दिया है कि मैं मृत्यु को तृण के समान तुच्छ समझता हूं। मेरी एक मात्र साधना यही है कि यही है कि मुझसे कोई अधर्माचरण या दुष्कृत न होने पाये। इसलिए मेरी आत्मा शुद्ध है और इस आधार पर मैं कह सकता हूं कि मैं ‘सत्यवादी’ हूं और मेरा प्रतिपक्षी यह म्लेतास ‘मिथ्यावादी’ है।’’
इसके पश्चात् भी एथेन्स के बहुसंख्यक नागरिक, जो सुकरात की महानता को जानते थे, इसके लिए तैयार थे कि सुकरात को इस शर्त पर छोड़ दिया जाय कि वह नवयुवकों को अपने सिद्धांतों का उपदेश करना बंद कर दें। पर सुकरात ने इसका उत्तर देते हुए कहा—
‘‘एथेन्स के नागरिकों ! आप में से कुछ कहेंगे कि सुकरात! क्या तुम अपना मुंह बंद नहीं कर सकते? इसके उत्तर में यही कहना चाहता हूं कि इस बात को मान लेना मेरी दृष्टि में भगवान का अपमान होगा। मेरा विश्वास है कि अगर मैं शील-सदाचार के विषय में चर्चा नहीं कर सकता और आत्मान्वेषण करना बंद कर देता हूं, तो वह जीवन एक कौड़ी का भी न होगा।’’
‘‘मेरे अब तक के अनुभवों के अनुसार जब कभी मैं कोई गलत काम करने लगता हूं तो एक अंतर्ध्वनि (आत्मा की आवाज) मुझे उसके करने का निषेध कर देती है। यही कारण है कि मैंने आज तक सार्वजनिक सेवा करते हुए भी राज्य की कोई ऐसी आज्ञा नहीं मानी जो मेरी दृष्टि में अनीतिपूर्ण या अन्याय युक्त थी। इस समय भी मेरे सामने वैसी ही समस्या उपस्थित है। यदि मैं न्यायालय की आज्ञा मानकर नवयुवकों को न्याय-नीति का उपदेश देना बंद कर दूं या एथेन्स को छोड़कर विदेश को चला जाऊं तो मेरे प्राण अवश्य बच जायेंगे, पर मैं ऐसे जीवन की कीमत एक कौड़ी के बराबर भी नहीं समझता। इसकी अपेक्षा भगवान और अपनी आत्मा की प्रेरणा के अनुसार आचरण करते हुए देह त्याग देना मेरी दृष्टि में सौ गुना श्रेष्ठ है।’’
जब विषपान द्वारा मृत्यु दंड की आज्ञा मिलने पर सुकरात कारागार में बंद कर दिया गया तो एक विशेष कारण वश उन्हें तुरंत न मारकर 23 दिन तक जेल में ही बंद रखा गया। पर उन दिनों भी वह अपने पास आने वाले मित्रों को सदा के समान आत्मोपदेश देते रहते और बड़ी प्रसन्नता के दिन व्यतीत करते। किसी को यह प्रतीत ही नहीं होता था कि उनको मृत्युदंड दिया जा चुका है और वे गिनती के दिनों के मेहमान हैं। अंतिम दिन जब उनका एक प्रमुख शिष्य ‘क्रितान’ जो उनका मित्र भी था, उनके पास बहुत सवेरे ही आ पहुंचा तो उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि सुकरात बड़ी गहरी नींद में शांति से सोए हुए हैं। जब मित्र ने सुकरात से इस संबन्ध में पूछा तो उन्होंने यही कहा—‘‘मैं मृत्यु को शत्रु की तरह नहीं वरन् मित्र की तरह समझ रहा हूं, फिर उसके आगमन से मुझे अशांति अथवा शोक कैसे हो सकता है?’’
जब विष का प्याला सामने लाया गया तो उसे भी उन्होंने इस प्रकार पी लिया जैसे कोई स्वादिष्ट पदार्थ हो। इस प्रकार उन्होंने गीता के सिद्धांतानुसार यह दिखला दिया था कि—‘‘यह शरीर तो आत्मा के ऊपर एक वस्त्र के समान है। जब यह जीर्ण या अनुपयोगी हो जाय तो इसे बदलकर दूसरा नया शरीर धारण कर लेने में कोई बुराई या दुःख की बात नहीं हो सकती।’’ इस सिद्धांत की सत्यता को हृदय में धारण कर लेने के कारण उन्हें मरते समय किसी प्रकार का भय और कष्ट नहीं हुआ वह अपने आत्म बलिदान द्वारा हमको यह शिक्षा दे गये हैं कि जीवन उसी का सफल और सार्थक है जो सदैव सचाई पर डटा रहता है और कैसा भी संकट आवे उसके विपरीत आचरण नहीं करता।
(यु. नि. यो. जनवरी 1970 से संकलित)
उस जमाने में यूनान का देश नगर राज्यों में बंटा हुआ था। सबमें पृथक-पृथक प्रजातंत्रीय ढंग से शासन होता था जिसके संचालक कुछ प्रमुख नागरिक ही होते थे। एथेन्स का नगर राज्य उस समय बड़ा प्रसिद्ध और प्रभावशाली था तथा धन, बल, विद्या, कला-कौशल आदि सब बातों में वह अग्रगण्य माना जाता था। उस नगर में सुकरात को आरंभ से ही एक ज्ञानी पुरुष माना जाता था और उनके छोटी-छोटी आयु के धनवान और कुलीन व्यक्ति उनकी संगत में रहकर उपदेश ग्रहण किया करते थे।
पचास वर्ष की आयु में सेना से अवकाश पा जाने के बाद तो उन्होंने अपना पूरा समय इसी में लगाना आरंभ कर दिया। वे एक लबादा पहने हुए नंगे पैर शहर की सड़कों और गलियों में घूमा करते थे और चाहे जहां दस-बीस व्यक्तियों के इकट्ठा हो जाने पर वहीं उपदेश देने लग जाते थे। उनके उपदेश देने का ढंग भी अन्य लोगों से निराला था। वे श्रोताओं से ही प्रश्न करने को कहते और उनका उत्तर देते-देते ही ही अपने समस्त सिद्धान्तों को उन्हें समझा देते थे। उनकी खरी बातों या डांटने-फटकारने से चिढ़कर अनेक बार लोग उनकी हंसी भी उड़ाने लगते थे, उनके बाल और खाल को खींचने लगते थे, पर सुकरात सुकरात ने कभी किसी पर क्रोध नहीं किया। उन्होंने आत्म-ज्ञान द्वारा क्रोध पर विजय पा ली थी। एक बार कुछ लोगों के उनको लातों से भी मारा। उनके कुछ शिष्यों ने पूछा कि आपने इन लोगों का ऐसा व्यवहार क्यों सहन कर लिया, जबकि आप शारीरिक शक्ति में उनसे बहुत अधिक होने के कारण उन्हें अच्छी तरह दंड दे सकते थे? सुकरात ने जवाब दिया कि यदि कोई गधा हमें लात मार दे तो क्या हम भी उसे लात मारने लग जांय?
सुकरात का मुकदमा—
पर ऐसे सरल स्वभाव तथा बैर-भाव से मुक्त पुरुष के भी एथेन्स में बहुत से विद्वेषी उत्पन्न हो गए थे। इसका मुख्य कारण तो यह था कि कितने ही धनवान लोगों के पुत्र सुकरात की शिक्षाओं से आकर्षित होकर उनके अनुयायी बनते जाते थे और यह बात उनके अभिभावकों को बुरी जान पड़ती थी। एक तो गरीबी की हालत में रहने के कारण वे सुकरात को अपने से नीचा मनुष्य समझते थे उसे वे अपनी स्थिति के प्रतिकूल समझते थे। जिस प्रकार यदि किसी वेश्यागामी के सामने ब्रह्मचर्य की प्रशंसा की जाय, अथवा किसी नशेबाज के सम्मुख मादक पदार्थों की बुराइयां दिखलाई जायें तो उनको ऐसे उपदेशक पर क्रोध आता है, उसी प्रकार जो लोग तिकड़म से अथवा अनुचित उपायों से धन पैदा करके मालदार बन जाते थे उनको सत्य और न्याय के व्यवहार की बात खटकने वाली ही प्रतीत होती थीं।
दूसरी बात यह थी कि जिन लोगों ने उस समय ‘विद्वान’ का बाना धारण कर रखा था और जो धनवानों के लड़कों को सांसारिकता और वितंडावाद (तर्क-वितर्क) की शिक्षा देकर खूब कमाई करते थे, वे भी सुकरात की सीधी-सादी और आत्म-ज्ञान युक्त शिक्षाओं से चिढ़ते थे। सुकरात ने ऐसे कई विद्वानों से वाद-विवाद करके उन्हें निरुत्तर भी कर दिया था, जिससे वे उनके साथ विद्वेष करने लग गए थे। इन्हीं सब लोगों ने मिलकर सुकरात पर नवयुवकों को कुशिक्षा देने का आरोप लगा करके उन्हें गिरफ्तार करा दिया और उन पर न्यायालय में मुकदमा चलाया।
पर सुकरात इस घटना से विचलित नहीं हुए। वह संसार की नश्वरता और सुख-दुःख की असारता को भली प्रकार समझते थे। उनका विश्वास था कि यह दृश्य जगत क्षणिक और परिवर्तनशील है, इसमें राजा से रंक बनते कुछ भी देर नहीं लगती। इसलिए इसके किसी हानि-लाभ के लिए शोक या हर्ष करना बुद्धिमत्ता नहीं है। जो व्यक्ति आत्म-जगत से अपरिचित होते हैं वे इसके हानि-लाभ को महत्व देते हैं। यह धारणा उनके हृदय में इतनी दृढ़ता के साथ जमी थी कि यह जानते हुए भी कि उनसे द्वेष रखने वाले इस मुकदमें के बहाने उनके जीवन का अंत करना चाहते हैं, उन्होंने उनकी राई भर भी परवाह नहीं की तथा अभियोक्ताओं और न्यायाधीशों को हजारों नागरिकों के सामने की खरी-खरी बातें सुनाईं। उन्होंने कहा—
‘‘इससे पहले भी एक बार इस न्यायालय की अन्याय पूर्ण आज्ञा को अमान्य करके मैंने अपने वचन से ही नहीं वरन् अपने कर्म से भी यह सिद्ध कर दिया है कि मैं मृत्यु को तृण के समान तुच्छ समझता हूं। मेरी एक मात्र साधना यही है कि यही है कि मुझसे कोई अधर्माचरण या दुष्कृत न होने पाये। इसलिए मेरी आत्मा शुद्ध है और इस आधार पर मैं कह सकता हूं कि मैं ‘सत्यवादी’ हूं और मेरा प्रतिपक्षी यह म्लेतास ‘मिथ्यावादी’ है।’’
इसके पश्चात् भी एथेन्स के बहुसंख्यक नागरिक, जो सुकरात की महानता को जानते थे, इसके लिए तैयार थे कि सुकरात को इस शर्त पर छोड़ दिया जाय कि वह नवयुवकों को अपने सिद्धांतों का उपदेश करना बंद कर दें। पर सुकरात ने इसका उत्तर देते हुए कहा—
‘‘एथेन्स के नागरिकों ! आप में से कुछ कहेंगे कि सुकरात! क्या तुम अपना मुंह बंद नहीं कर सकते? इसके उत्तर में यही कहना चाहता हूं कि इस बात को मान लेना मेरी दृष्टि में भगवान का अपमान होगा। मेरा विश्वास है कि अगर मैं शील-सदाचार के विषय में चर्चा नहीं कर सकता और आत्मान्वेषण करना बंद कर देता हूं, तो वह जीवन एक कौड़ी का भी न होगा।’’
‘‘मेरे अब तक के अनुभवों के अनुसार जब कभी मैं कोई गलत काम करने लगता हूं तो एक अंतर्ध्वनि (आत्मा की आवाज) मुझे उसके करने का निषेध कर देती है। यही कारण है कि मैंने आज तक सार्वजनिक सेवा करते हुए भी राज्य की कोई ऐसी आज्ञा नहीं मानी जो मेरी दृष्टि में अनीतिपूर्ण या अन्याय युक्त थी। इस समय भी मेरे सामने वैसी ही समस्या उपस्थित है। यदि मैं न्यायालय की आज्ञा मानकर नवयुवकों को न्याय-नीति का उपदेश देना बंद कर दूं या एथेन्स को छोड़कर विदेश को चला जाऊं तो मेरे प्राण अवश्य बच जायेंगे, पर मैं ऐसे जीवन की कीमत एक कौड़ी के बराबर भी नहीं समझता। इसकी अपेक्षा भगवान और अपनी आत्मा की प्रेरणा के अनुसार आचरण करते हुए देह त्याग देना मेरी दृष्टि में सौ गुना श्रेष्ठ है।’’
जब विषपान द्वारा मृत्यु दंड की आज्ञा मिलने पर सुकरात कारागार में बंद कर दिया गया तो एक विशेष कारण वश उन्हें तुरंत न मारकर 23 दिन तक जेल में ही बंद रखा गया। पर उन दिनों भी वह अपने पास आने वाले मित्रों को सदा के समान आत्मोपदेश देते रहते और बड़ी प्रसन्नता के दिन व्यतीत करते। किसी को यह प्रतीत ही नहीं होता था कि उनको मृत्युदंड दिया जा चुका है और वे गिनती के दिनों के मेहमान हैं। अंतिम दिन जब उनका एक प्रमुख शिष्य ‘क्रितान’ जो उनका मित्र भी था, उनके पास बहुत सवेरे ही आ पहुंचा तो उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि सुकरात बड़ी गहरी नींद में शांति से सोए हुए हैं। जब मित्र ने सुकरात से इस संबन्ध में पूछा तो उन्होंने यही कहा—‘‘मैं मृत्यु को शत्रु की तरह नहीं वरन् मित्र की तरह समझ रहा हूं, फिर उसके आगमन से मुझे अशांति अथवा शोक कैसे हो सकता है?’’
जब विष का प्याला सामने लाया गया तो उसे भी उन्होंने इस प्रकार पी लिया जैसे कोई स्वादिष्ट पदार्थ हो। इस प्रकार उन्होंने गीता के सिद्धांतानुसार यह दिखला दिया था कि—‘‘यह शरीर तो आत्मा के ऊपर एक वस्त्र के समान है। जब यह जीर्ण या अनुपयोगी हो जाय तो इसे बदलकर दूसरा नया शरीर धारण कर लेने में कोई बुराई या दुःख की बात नहीं हो सकती।’’ इस सिद्धांत की सत्यता को हृदय में धारण कर लेने के कारण उन्हें मरते समय किसी प्रकार का भय और कष्ट नहीं हुआ वह अपने आत्म बलिदान द्वारा हमको यह शिक्षा दे गये हैं कि जीवन उसी का सफल और सार्थक है जो सदैव सचाई पर डटा रहता है और कैसा भी संकट आवे उसके विपरीत आचरण नहीं करता।
(यु. नि. यो. जनवरी 1970 से संकलित)