Books - विचार क्रांति के द्रष्टा एवं स्रष्टा
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Language: HINDI
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विचार क्रांति के अग्रदूत वाल्टेयर
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पेरिस के एक मकान में वृद्ध पिता अपने पुत्र को समझा रहा था— ‘‘देखो बेटे! अभी तुम्हें जिन्दगी का अनुभव नहीं है। पेरिस में कितने ही लेखक हैं जिन्हें भूखों मरना पड़ता है। दो जून छोड़कर उन्हें एक वक्त भी भरपेट रोटी नहीं मिल पाती। तुम्हें अपनी जिद छोड़ देनी चाहिए और मेरा कहना मानकर वकालत सीखनी चाहिए।’’
‘‘वकालत से मैं अपने और आपके लिए एक आलीशान भवन और नौकर-चाकर भले ही खरीद लूं पर यदि इन दिनों जनमानस के चिंतन में आयी गिरावट को दूर नहीं किया गया तो अपने आस-पास भूख और पीड़ा से कराहते बच्चों की चीत्कार सुनकर क्या हम सुख से रह सकेंगे।’’ —नवयुवक का तर्क था और अपनी जगह पर यह तर्क बहुत सही था। पिता उसके तर्कों का उत्तर तो नहीं दे पा रहा था किन्तु उससे यह भी नहीं हो रहा था कि वह अपने होनहार बेटे को दुनियादारी से विमुख होते देख सके और किसी तरह उसने अपने लड़के को विधि कॉलेज में भर्ती करा ही दिया। नवयुवक ने विधि की परिक्षा पास कर ली किन्तु वकालत नहीं की। वह यह भी जानता था कि यदि पेरिस में ही रहना पड़ा तो पिता की इच्छा के आगे नतमस्तक होना पड़ेगा। इसलिए उसने फ्रांस के कूटनीतिक विभाग में नौकरी कर ली और उसी नौकरी से सिलसिले में हालैंड चला गया।
हालैंड में उसे अपने किशोरावस्था के लक्ष्य को पूरा करने का, साहित्य साधना का पर्याप्त अवसर मिला। कुछ दिनों बाद जब वह युवा लेखक वापस फ्रांस आया तब तक लेखनी से उसका संबंध सूत्र इतना प्रगाढ़ हो चुका था कि लाख प्रयत्न करने के बावजूद भी पिता उस संबंध में को तोड़ न सके और नवयुवक लेखक ने भी पिता की तमाम धमकियों के बावजूद अपना संकल्प नहीं छोड़ा। पिता ने उनसे यहां तक कहा कि यदि तुमने यह खब्त नहीं छोड़ी तो मैं तुम्हें अपनी जायदाद में से एक कौड़ी भी नहीं दूंगा और सारे जीवन अपना त्याज्य पुत्र समझूंगा।
वह युवक इस धमकी के आगे भी नहीं झुका और तब से आरंभ कर जीवन पर्यंत साहित्य साधना करता रहा। यह वृत्तांत अब से ढाई सौ वर्ष पूर्व का है। लेखन का पेशा आज भी लाभदायक नहीं है तो फिर उस समय इसमें कितना जोखिम रहा होगा- कहना कठिन है। पर एक उद्देश्य के लिए, समाज में विवेक और विचारशीलता विकसित करने के लिए वह युवा लेखक अपने परिवार से लेकर शासनतंत्र तक का विरोध सहते हुए भी साहित्य साधना में लगा रहा और लगभग एक सौ कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंधों की पुस्तकें लिख डालीं। न केवल पुस्तकें लिखीं वरन् फ्रेंच साहित्य और फ्रांस के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया।
उस समर्थ पुरुष का नाम वाल्टेयर। वाल्टेयर ने जिस युग में जन्म लिया वह अंधेरगर्दी का युग था। राजतंत्र से लेकर धर्मतंत्र तक सभी स्थानों पर अंधेर मचा हुआ था। समाज मुख्यतः दो वर्गों में बंटा हुआ था—एक प्रभुत्व सम्पन्न और दूसरा अधीनस्थ आज्ञाकारी वर्ग। प्रभुत्व सम्पन्न राज्याधिकारी जो कहते नागरिक उन्हें ज्यों का त्यों मान लेते। भले ही उसमें स्वयं का और समाज का कितना ही अहित क्यों न रहा हो और धर्म पुरोहितों के प्रति अंध श्रद्धा तो अपने चरम पर थी। फिर भी विडंबना यह कि इन क्षेत्रों में धूर्त, स्वार्थी और चालाक व्यक्ति घुसे बैठे थे जो दोनों हाथों से जनता को दुह रहे थे।
वाल्टेयर ने तत्कालीन समाज का निकट से अध्ययन किया और पाया कि इस अंधेरगर्दी और आपाधापी का एकमात्र कारण है जन-साधारण में विचारशीलता का अभाव। इसलिए उन्होंने थोड़ा समझदार होते ही समाज में विचारशीलता जगाने और विवेक प्रतिष्ठा करने के लिए साहित्य सेवा को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया। जिस समय उन पर उनके पिता का दबाव पड़ रहा था कि वे वकालत शुरू करें उस समय उनकी आयु लगभग 20 वर्ष की थी। परन्तु इस कच्ची उम्र में ही वाल्टेयर ने तो संकल्प कर लिया था कि भूखे मरेंगे तो भी करूंगा साहित्य की ही सेवा।
वाल्टेयर ने अपनी लेखनी के माध्यम से तत्कालीन समाज के दोषों को इंगित करना आरंभ किया। उनका असली नाम फ्रांकई भारी आरुई था और आरंभ में उन्होंने इसी नाम से लिखा। उनकी अभिव्यक्ति इतनी मर्मस्पर्शी और इतनी पैनी होती थी कि पढ़ने-सुनने वाले का हृदय बेधकर रख देती थी। तब फ्रांस में भी अशिक्षितों की बड़ी संख्या थी। शिक्षित व्यक्ति तो उनकी पुस्तकें पढ़कर स्वतंत्र दृष्टि अपनाने की प्रेरणा ग्रहण करते ही थे किन्तु अशिक्षित व्यक्तियों का भी एक बड़ा वर्ग था जिसे भी जागृत करना आवश्यक था। उस वर्ग तक जागृति का संदेश पहुंचाने के लिए वाल्टेयर ने रंगमंच का माध्यम अपनाया। उन्होंने नाटक लिखे और रंगमंच पर अभिनीत कराये। पुस्तकीय विचारों की तरह रंगमंच पर भी उनकी प्रेरणायें प्रखर बन पड़ती थीं फलस्वरूप एक ओर उनके द्वारा अभिमंचित नाटक लोकप्रिय होते गए तो दूसरी ओर वे जनमानस को अपने लेखों और नाटकों द्वारा प्रभावित भी करने लगे।
उनके कुछ नाटकों से ऐसी जागृति आयी कि निहित स्वार्थी तत्त्व भयभीत हो उठे। इसी बीच उनके द्वारा लिखा गया एक ऐसा व्यंग मंच पर अभिनीत हुआ जिसमें तत्कालीन शासन व्यवस्था पर करारा प्रहार किया गया था। जिन अवांछनीय तत्वों के विरुद्ध वे जनमत जागृत करने में लगे हुए थे उनकी बन आयी और उन्होंने वाल्टेयर पर एक ऐसा अभियोग लगवा दिया जिससे उन्हें जेल की सजा हो गयी। कारागार में ही उन्होंने अपना नाम फ्रांकई-भारी आरुई से बदलकर वाल्टेयर रखा और इसी नाम से कवितायें लिखते रहे और जेल में इसी नाम से कविताओं की दो पुस्तकें तथा एक महाकाव्य लिख डाला।
जिन लोगों ने अभियोग लगाकर उन्हें जेल भिजवाया था, वे समझ रहे थे कि जेल से छूटने पर वाल्टेयर की अक्ल ठिकाने आ जायेगी। परन्तु वाल्टेयर ऐसी कच्ची मिट्टी के बने नहीं थे। लोकप्रिय तो वे पहले से ही रहे थे, जेल की घटना ने उन्हें और लोकप्रिय बना दिया। जेल से छूटकर आने के बाद जब उन्होंने पहली बार पेरिस में नाटक- अभिमंचन की घोषणा की तो दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी। यह एक ही नाटक पेरिस में लगातार डेढ़ महीने तक खेला गया और प्रतिदिन रंगशाला दर्शकों से खचाखच भरी रहती थी। वाल्टेयर के पिता जो आरंभ में उन्हें इस बेगार धंधे में न फंसने के लिए दबाव दिया करते थे अपने बेटे की कीर्ति सुनकर अभिभूत हो उठे। नाराज रहने के कारण पुत्र से कोई संबंध न रखते हुए भी वे नाटक देखने रंगशाला में आए और वहां वाल्टेयर का अभिनय देखकर उन्हें गले से लगा लिया।
नाटक लिखने और उनका प्रदर्शन करने से वाल्टेयर को आमदनी भी अच्छी होती थी। परन्तु पैसा कमाना उनका उद्देश्य कभी नहीं रहा, इसलिए उस पैसे को उन्होंने अपने पास इकट्ठा भी नहीं किया। जैसे ही पैसा आता उसे वे अगले प्रदर्शन की तैयारी में लगाते और दुःखी-कष्ट पीड़ित लोगों की सहायता के लिए बांट देते। इस प्रकार उनमें उदारता का भी समावेश हुआ। स्वयं के लिए कम से कम खर्च करने की कंजूसी और दूसरों के लिए उचित सहायता में जी खोलकर सहयोग प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति ने उनकी लोकप्रियता में भी चार चांद लगाये और उनकी अभिव्यंजना को भी प्राणवान् बनाया। इतनी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा मिलने के कारण अभिजात वर्ग के व्यक्ति भी उनकी ओर आकर्षित हुए। फिर भी उनमें से अधिकांश ऐसे थे जो वाल्टेयर को अपना शत्रु समझते थे क्योंकि उन दिनों पेरिस में यही वह वर्ग था जो जन साधारण के भोलेपन का अनुचित लाभ उठाकर अपना हित करता था। ऐसे अभिजात्य व्यक्तियों द्वारा उनके विरुद्ध षड़यंत्र रचा गया और उन्हें एक बार फिर जेल जाना पड़ा।
इस बार फ्रांस की सरकार ने उन्हें एक शर्त पर जेल से छोड़ा कि वे यह देश छोड़ देंगे और अन्यत्र कहीं चले जायेंगे। वाल्टेयर ने इंग्लैंड जाने का निश्चय किया। तब तक उन्हें अंग्रेजी भाषा बिल्कुल भी नहीं आती थी। प्रवास काल में ही उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी और इंग्लैंड जाकर अंग्रेजी साहित्य का भली-भांति अध्ययन किया। इंग्लैंड में वे तीन वर्ष तक रहे और वहां भी उन्होंने अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति तथा प्रगतिशील विचारों द्वारा जन जागरण का शंखनाद किया। फ्रांस सरकार को जब यह पता चला कि वाल्टेयर इंग्लैण्ड में भी वही काम कर रहे हैं और उससे उनके देश की बदनामी इंग्लैंड में हो रही है तो उन्हें वापस पेरिस बुला लिया। जिस समय वे वापस स्वदेश लौटे तब उनकी आयु मात्र 34 वर्ष थी।
वापस स्वदेश आमंत्रित करते समय यह सोचा गया था कि वाल्टेयर शासन की उदारता से प्रभावित होकर पिछली गतिविधियों को पुनः नहीं दोहरायेंगे। परन्तु वे तो सत्य और विवेक के पुजारी थे, कोई सुविधा प्राप्त कर अपने आदर्शों का हनन उन्हें स्वीकार्य नहीं था। इसलिए पुनः पहले की तरह जन जागृति में लग गए। इंग्लैंड से लौटने के बाद उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई—‘लेटर्स आन द इंग्लिश’। इस पुस्तक में फ्रांस के प्रभुता सम्पन्न अभिजात्य घरानों और धर्म पुरोहितों के अत्याचारों पर निर्मम प्रहार किया गया था और उनके विरुद्ध संघर्ष छेड़ने का आह्वान किया गया था। देखते ही देखते पुस्तक की सारी प्रतियां बिक गयीं। सरकार को जब पता लगा कि वाल्टेयर की ऐसी कोई विस्फोटक पुस्तक प्रकाशित हुई है तो उसने तत्काल ही आदेश दिया कि पुस्तक जहां कहीं भी दिखाई दे छीनकर उसे खुली जगह में जला दिया जाय। कुछ व्यक्तियों ने उसके विरुद्ध अभियोग चलाने की भी पेशकश की। वाल्टेयर ताड़ गए कि उन्हें पुनः जेल जाना पड़ सकता है। तो वे चुपचाप फ्रांस से भाग निकले और जर्मनी चले गए।
कुछ दिनों तक वे जर्मनी के सम्राट फ्रेडरिक के अतिथि रहे। यह सोचकर कि अब तक तो मामला ठंडा पड़ चुका होगा, वाल्टेयर वापस फ्रांस जाने की तैयारी करने लगे। जब वे जर्मनी ही सीमा पार कर ही रहे थे तभी उन्हें पता चला कि फ्रांस की सरकार ने उन्हें निर्वासित घोषित कर रखा है और वापस फ्रांस में दिखाई देने पर प्राणदंड की सजा देने का निश्चय किया है तो वे अपना गन्तव्य बदलकर स्विट्जरलैंड चले गए और वहीं रहने लगे।
शोषितों और पीड़ित व्यक्तियों में जीवन चेतना फूंकने के लिए ही जैसे वाल्टेयर ने जन्म लिया था। उनकी लेखनी स्विट्जरलैंड में भी अग्नि स्फुल्लिंगों का विस्फोट उगलने लगी। इसका अपेक्षित प्रभाव भी होता दिखाई दिया और जन-जागरण के चिह्न दिखाई देने लगे। वाल्टेयर की लेखनी की पैनी नोक से घबराकर संबंधित व्यक्तियों ने उन्हें वापस भिजवाने का प्रयत्न किया। इसके लिए वाल्टेयर को धन का प्रलोभन भी दिया गया और जान से मारने की धमकी भी। किन्तु सिद्धान्तों पर दृढ़ और आदर्शों के प्रति निष्ठावान वाल्टेयर न उन प्रलोभनों से टूटे और न धमकियों के आगे झुके। उनकी कलम बराबर आग उगलती रही और सोये हुए अंतःकरणों में नये प्राण फूंकती रही।
वे जीवन के अंत तक कार्यरत रहे। काम की उनका आनन्द था। जीवन के अंतिम दिनों में वाल्टेयर यद्यपि बीमार रहने लगे थे किन्तु उनकी साहित्य साधना तब भी अविराम चलती रही थी। 83 वर्ष की आयु में उनकी इच्छा पेरिस जाने की हुई। डाक्टरों ने कहा कि स्वास्थ्य को देखते हुए यह यात्रा नहीं करनी चाहिए। परन्तु ‘कर्म’ और ‘संघर्ष’ को ही अपना मंत्र मानने वाले वाल्टेयर के लिए रोग या मृत्यु के भय से कोई योजना स्थगित कर देना उनकी प्रकृति के विरुद्ध था। इसलिए उन्होंने पेरिस जाने की तैयारी की और मृत्यु से पूर्व वे अन्तिम बार फ्रांस गए। फ्रांस की जनता उनके विचारों का अब भी अवगाहन कर रही थी। वाल्टेयर के आने की खबर सुनकर पेरिस वासी उनका स्वागत करने के लिए इकट्ठे हुए। उनका भव्य स्वागत किया गया। इसके कुछ दिनों बाद ही सन् 1778 में उनका देहान्त हो गया। मृत्यु से पूर्व अपने सेक्रेटरी को नोट कराये वक्तव्य में उन्होंने अपने सारे सजीवन का निष्कर्ष निचोड़कर रख दिया था। उन्होंने लिखा था—‘‘मैं ईश्वर की उपासना करते हुए, अपने मित्रों से प्रेम करते हुए, मुझे शत्रु समझने वालों के प्रति किसी भी प्रकार का घृणाभाव नहीं रखते हुए और अविवेक, अंध-विश्वास तथा अन्याय को घृणित समझते हुए मृत्यु का आलिंगन करता हूं।’’
(यु. नि. यो. जनवरी 1978 से संकलित)
‘‘वकालत से मैं अपने और आपके लिए एक आलीशान भवन और नौकर-चाकर भले ही खरीद लूं पर यदि इन दिनों जनमानस के चिंतन में आयी गिरावट को दूर नहीं किया गया तो अपने आस-पास भूख और पीड़ा से कराहते बच्चों की चीत्कार सुनकर क्या हम सुख से रह सकेंगे।’’ —नवयुवक का तर्क था और अपनी जगह पर यह तर्क बहुत सही था। पिता उसके तर्कों का उत्तर तो नहीं दे पा रहा था किन्तु उससे यह भी नहीं हो रहा था कि वह अपने होनहार बेटे को दुनियादारी से विमुख होते देख सके और किसी तरह उसने अपने लड़के को विधि कॉलेज में भर्ती करा ही दिया। नवयुवक ने विधि की परिक्षा पास कर ली किन्तु वकालत नहीं की। वह यह भी जानता था कि यदि पेरिस में ही रहना पड़ा तो पिता की इच्छा के आगे नतमस्तक होना पड़ेगा। इसलिए उसने फ्रांस के कूटनीतिक विभाग में नौकरी कर ली और उसी नौकरी से सिलसिले में हालैंड चला गया।
हालैंड में उसे अपने किशोरावस्था के लक्ष्य को पूरा करने का, साहित्य साधना का पर्याप्त अवसर मिला। कुछ दिनों बाद जब वह युवा लेखक वापस फ्रांस आया तब तक लेखनी से उसका संबंध सूत्र इतना प्रगाढ़ हो चुका था कि लाख प्रयत्न करने के बावजूद भी पिता उस संबंध में को तोड़ न सके और नवयुवक लेखक ने भी पिता की तमाम धमकियों के बावजूद अपना संकल्प नहीं छोड़ा। पिता ने उनसे यहां तक कहा कि यदि तुमने यह खब्त नहीं छोड़ी तो मैं तुम्हें अपनी जायदाद में से एक कौड़ी भी नहीं दूंगा और सारे जीवन अपना त्याज्य पुत्र समझूंगा।
वह युवक इस धमकी के आगे भी नहीं झुका और तब से आरंभ कर जीवन पर्यंत साहित्य साधना करता रहा। यह वृत्तांत अब से ढाई सौ वर्ष पूर्व का है। लेखन का पेशा आज भी लाभदायक नहीं है तो फिर उस समय इसमें कितना जोखिम रहा होगा- कहना कठिन है। पर एक उद्देश्य के लिए, समाज में विवेक और विचारशीलता विकसित करने के लिए वह युवा लेखक अपने परिवार से लेकर शासनतंत्र तक का विरोध सहते हुए भी साहित्य साधना में लगा रहा और लगभग एक सौ कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंधों की पुस्तकें लिख डालीं। न केवल पुस्तकें लिखीं वरन् फ्रेंच साहित्य और फ्रांस के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया।
उस समर्थ पुरुष का नाम वाल्टेयर। वाल्टेयर ने जिस युग में जन्म लिया वह अंधेरगर्दी का युग था। राजतंत्र से लेकर धर्मतंत्र तक सभी स्थानों पर अंधेर मचा हुआ था। समाज मुख्यतः दो वर्गों में बंटा हुआ था—एक प्रभुत्व सम्पन्न और दूसरा अधीनस्थ आज्ञाकारी वर्ग। प्रभुत्व सम्पन्न राज्याधिकारी जो कहते नागरिक उन्हें ज्यों का त्यों मान लेते। भले ही उसमें स्वयं का और समाज का कितना ही अहित क्यों न रहा हो और धर्म पुरोहितों के प्रति अंध श्रद्धा तो अपने चरम पर थी। फिर भी विडंबना यह कि इन क्षेत्रों में धूर्त, स्वार्थी और चालाक व्यक्ति घुसे बैठे थे जो दोनों हाथों से जनता को दुह रहे थे।
वाल्टेयर ने तत्कालीन समाज का निकट से अध्ययन किया और पाया कि इस अंधेरगर्दी और आपाधापी का एकमात्र कारण है जन-साधारण में विचारशीलता का अभाव। इसलिए उन्होंने थोड़ा समझदार होते ही समाज में विचारशीलता जगाने और विवेक प्रतिष्ठा करने के लिए साहित्य सेवा को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया। जिस समय उन पर उनके पिता का दबाव पड़ रहा था कि वे वकालत शुरू करें उस समय उनकी आयु लगभग 20 वर्ष की थी। परन्तु इस कच्ची उम्र में ही वाल्टेयर ने तो संकल्प कर लिया था कि भूखे मरेंगे तो भी करूंगा साहित्य की ही सेवा।
वाल्टेयर ने अपनी लेखनी के माध्यम से तत्कालीन समाज के दोषों को इंगित करना आरंभ किया। उनका असली नाम फ्रांकई भारी आरुई था और आरंभ में उन्होंने इसी नाम से लिखा। उनकी अभिव्यक्ति इतनी मर्मस्पर्शी और इतनी पैनी होती थी कि पढ़ने-सुनने वाले का हृदय बेधकर रख देती थी। तब फ्रांस में भी अशिक्षितों की बड़ी संख्या थी। शिक्षित व्यक्ति तो उनकी पुस्तकें पढ़कर स्वतंत्र दृष्टि अपनाने की प्रेरणा ग्रहण करते ही थे किन्तु अशिक्षित व्यक्तियों का भी एक बड़ा वर्ग था जिसे भी जागृत करना आवश्यक था। उस वर्ग तक जागृति का संदेश पहुंचाने के लिए वाल्टेयर ने रंगमंच का माध्यम अपनाया। उन्होंने नाटक लिखे और रंगमंच पर अभिनीत कराये। पुस्तकीय विचारों की तरह रंगमंच पर भी उनकी प्रेरणायें प्रखर बन पड़ती थीं फलस्वरूप एक ओर उनके द्वारा अभिमंचित नाटक लोकप्रिय होते गए तो दूसरी ओर वे जनमानस को अपने लेखों और नाटकों द्वारा प्रभावित भी करने लगे।
उनके कुछ नाटकों से ऐसी जागृति आयी कि निहित स्वार्थी तत्त्व भयभीत हो उठे। इसी बीच उनके द्वारा लिखा गया एक ऐसा व्यंग मंच पर अभिनीत हुआ जिसमें तत्कालीन शासन व्यवस्था पर करारा प्रहार किया गया था। जिन अवांछनीय तत्वों के विरुद्ध वे जनमत जागृत करने में लगे हुए थे उनकी बन आयी और उन्होंने वाल्टेयर पर एक ऐसा अभियोग लगवा दिया जिससे उन्हें जेल की सजा हो गयी। कारागार में ही उन्होंने अपना नाम फ्रांकई-भारी आरुई से बदलकर वाल्टेयर रखा और इसी नाम से कवितायें लिखते रहे और जेल में इसी नाम से कविताओं की दो पुस्तकें तथा एक महाकाव्य लिख डाला।
जिन लोगों ने अभियोग लगाकर उन्हें जेल भिजवाया था, वे समझ रहे थे कि जेल से छूटने पर वाल्टेयर की अक्ल ठिकाने आ जायेगी। परन्तु वाल्टेयर ऐसी कच्ची मिट्टी के बने नहीं थे। लोकप्रिय तो वे पहले से ही रहे थे, जेल की घटना ने उन्हें और लोकप्रिय बना दिया। जेल से छूटकर आने के बाद जब उन्होंने पहली बार पेरिस में नाटक- अभिमंचन की घोषणा की तो दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी। यह एक ही नाटक पेरिस में लगातार डेढ़ महीने तक खेला गया और प्रतिदिन रंगशाला दर्शकों से खचाखच भरी रहती थी। वाल्टेयर के पिता जो आरंभ में उन्हें इस बेगार धंधे में न फंसने के लिए दबाव दिया करते थे अपने बेटे की कीर्ति सुनकर अभिभूत हो उठे। नाराज रहने के कारण पुत्र से कोई संबंध न रखते हुए भी वे नाटक देखने रंगशाला में आए और वहां वाल्टेयर का अभिनय देखकर उन्हें गले से लगा लिया।
नाटक लिखने और उनका प्रदर्शन करने से वाल्टेयर को आमदनी भी अच्छी होती थी। परन्तु पैसा कमाना उनका उद्देश्य कभी नहीं रहा, इसलिए उस पैसे को उन्होंने अपने पास इकट्ठा भी नहीं किया। जैसे ही पैसा आता उसे वे अगले प्रदर्शन की तैयारी में लगाते और दुःखी-कष्ट पीड़ित लोगों की सहायता के लिए बांट देते। इस प्रकार उनमें उदारता का भी समावेश हुआ। स्वयं के लिए कम से कम खर्च करने की कंजूसी और दूसरों के लिए उचित सहायता में जी खोलकर सहयोग प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति ने उनकी लोकप्रियता में भी चार चांद लगाये और उनकी अभिव्यंजना को भी प्राणवान् बनाया। इतनी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा मिलने के कारण अभिजात वर्ग के व्यक्ति भी उनकी ओर आकर्षित हुए। फिर भी उनमें से अधिकांश ऐसे थे जो वाल्टेयर को अपना शत्रु समझते थे क्योंकि उन दिनों पेरिस में यही वह वर्ग था जो जन साधारण के भोलेपन का अनुचित लाभ उठाकर अपना हित करता था। ऐसे अभिजात्य व्यक्तियों द्वारा उनके विरुद्ध षड़यंत्र रचा गया और उन्हें एक बार फिर जेल जाना पड़ा।
इस बार फ्रांस की सरकार ने उन्हें एक शर्त पर जेल से छोड़ा कि वे यह देश छोड़ देंगे और अन्यत्र कहीं चले जायेंगे। वाल्टेयर ने इंग्लैंड जाने का निश्चय किया। तब तक उन्हें अंग्रेजी भाषा बिल्कुल भी नहीं आती थी। प्रवास काल में ही उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी और इंग्लैंड जाकर अंग्रेजी साहित्य का भली-भांति अध्ययन किया। इंग्लैंड में वे तीन वर्ष तक रहे और वहां भी उन्होंने अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति तथा प्रगतिशील विचारों द्वारा जन जागरण का शंखनाद किया। फ्रांस सरकार को जब यह पता चला कि वाल्टेयर इंग्लैण्ड में भी वही काम कर रहे हैं और उससे उनके देश की बदनामी इंग्लैंड में हो रही है तो उन्हें वापस पेरिस बुला लिया। जिस समय वे वापस स्वदेश लौटे तब उनकी आयु मात्र 34 वर्ष थी।
वापस स्वदेश आमंत्रित करते समय यह सोचा गया था कि वाल्टेयर शासन की उदारता से प्रभावित होकर पिछली गतिविधियों को पुनः नहीं दोहरायेंगे। परन्तु वे तो सत्य और विवेक के पुजारी थे, कोई सुविधा प्राप्त कर अपने आदर्शों का हनन उन्हें स्वीकार्य नहीं था। इसलिए पुनः पहले की तरह जन जागृति में लग गए। इंग्लैंड से लौटने के बाद उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई—‘लेटर्स आन द इंग्लिश’। इस पुस्तक में फ्रांस के प्रभुता सम्पन्न अभिजात्य घरानों और धर्म पुरोहितों के अत्याचारों पर निर्मम प्रहार किया गया था और उनके विरुद्ध संघर्ष छेड़ने का आह्वान किया गया था। देखते ही देखते पुस्तक की सारी प्रतियां बिक गयीं। सरकार को जब पता लगा कि वाल्टेयर की ऐसी कोई विस्फोटक पुस्तक प्रकाशित हुई है तो उसने तत्काल ही आदेश दिया कि पुस्तक जहां कहीं भी दिखाई दे छीनकर उसे खुली जगह में जला दिया जाय। कुछ व्यक्तियों ने उसके विरुद्ध अभियोग चलाने की भी पेशकश की। वाल्टेयर ताड़ गए कि उन्हें पुनः जेल जाना पड़ सकता है। तो वे चुपचाप फ्रांस से भाग निकले और जर्मनी चले गए।
कुछ दिनों तक वे जर्मनी के सम्राट फ्रेडरिक के अतिथि रहे। यह सोचकर कि अब तक तो मामला ठंडा पड़ चुका होगा, वाल्टेयर वापस फ्रांस जाने की तैयारी करने लगे। जब वे जर्मनी ही सीमा पार कर ही रहे थे तभी उन्हें पता चला कि फ्रांस की सरकार ने उन्हें निर्वासित घोषित कर रखा है और वापस फ्रांस में दिखाई देने पर प्राणदंड की सजा देने का निश्चय किया है तो वे अपना गन्तव्य बदलकर स्विट्जरलैंड चले गए और वहीं रहने लगे।
शोषितों और पीड़ित व्यक्तियों में जीवन चेतना फूंकने के लिए ही जैसे वाल्टेयर ने जन्म लिया था। उनकी लेखनी स्विट्जरलैंड में भी अग्नि स्फुल्लिंगों का विस्फोट उगलने लगी। इसका अपेक्षित प्रभाव भी होता दिखाई दिया और जन-जागरण के चिह्न दिखाई देने लगे। वाल्टेयर की लेखनी की पैनी नोक से घबराकर संबंधित व्यक्तियों ने उन्हें वापस भिजवाने का प्रयत्न किया। इसके लिए वाल्टेयर को धन का प्रलोभन भी दिया गया और जान से मारने की धमकी भी। किन्तु सिद्धान्तों पर दृढ़ और आदर्शों के प्रति निष्ठावान वाल्टेयर न उन प्रलोभनों से टूटे और न धमकियों के आगे झुके। उनकी कलम बराबर आग उगलती रही और सोये हुए अंतःकरणों में नये प्राण फूंकती रही।
वे जीवन के अंत तक कार्यरत रहे। काम की उनका आनन्द था। जीवन के अंतिम दिनों में वाल्टेयर यद्यपि बीमार रहने लगे थे किन्तु उनकी साहित्य साधना तब भी अविराम चलती रही थी। 83 वर्ष की आयु में उनकी इच्छा पेरिस जाने की हुई। डाक्टरों ने कहा कि स्वास्थ्य को देखते हुए यह यात्रा नहीं करनी चाहिए। परन्तु ‘कर्म’ और ‘संघर्ष’ को ही अपना मंत्र मानने वाले वाल्टेयर के लिए रोग या मृत्यु के भय से कोई योजना स्थगित कर देना उनकी प्रकृति के विरुद्ध था। इसलिए उन्होंने पेरिस जाने की तैयारी की और मृत्यु से पूर्व वे अन्तिम बार फ्रांस गए। फ्रांस की जनता उनके विचारों का अब भी अवगाहन कर रही थी। वाल्टेयर के आने की खबर सुनकर पेरिस वासी उनका स्वागत करने के लिए इकट्ठे हुए। उनका भव्य स्वागत किया गया। इसके कुछ दिनों बाद ही सन् 1778 में उनका देहान्त हो गया। मृत्यु से पूर्व अपने सेक्रेटरी को नोट कराये वक्तव्य में उन्होंने अपने सारे सजीवन का निष्कर्ष निचोड़कर रख दिया था। उन्होंने लिखा था—‘‘मैं ईश्वर की उपासना करते हुए, अपने मित्रों से प्रेम करते हुए, मुझे शत्रु समझने वालों के प्रति किसी भी प्रकार का घृणाभाव नहीं रखते हुए और अविवेक, अंध-विश्वास तथा अन्याय को घृणित समझते हुए मृत्यु का आलिंगन करता हूं।’’
(यु. नि. यो. जनवरी 1978 से संकलित)