Books - व्यक्तित्त्व परिष्कार की साधना अद्भुत और अनुपम सुयोग
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Language: HINDI
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जप और ध्यान
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नौ दिवसीय साधना सत्रों में साधकों से गायत्री महामंत्र के 24000 जप सहित साधना-अनुष्ठान कराया जाता है। गायत्री महामंत्र का प्रभाव, उच्चारण तथा भाव-चिन्तन दोनों ही प्रकार से होता है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्था थियोसोफिकल सोसायटी (ब्रह्मविद्या समाज) के दिव्य दृष्टि सम्पन्न साधक- पादरी लैडविटर ने गायत्री महामंत्र के प्रभाव की समीक्षा अपनी दृष्टि के आधार पर की थी। उनका कथन है कि यह अत्यधिक शक्तिशाली मंत्र है। प्रकृति की दिव्य सत्ताएं इसके भाव-कम्पनों से तत्काल प्रभावित होती हैं। किसी भी भाषा में इसका अनुवाद करके प्रयोग किया जाय, उसकी प्रतिक्रिया समान रूप से होती है। संस्कृत में उच्चारण करने से उसके साथ एक विशेष लयबद्ध कलात्मकता भी जुड़ जाती है।उक्त कथन ऋषियों की इस बात का ही समर्थन करता है कि गायत्री महामंत्र असाधारण है तथा उच्चारण एवं भाव-चिन्तन दोनों ही विधाओं से लाभ पहुंचता है। इसीलिए गायत्री महामंत्र के जप के साथ-साथ गहन भाव संवेदनायुक्त ध्यान करने का निर्देश पूज्यवर ने दिया है।
जप के लिए उपयुक्त वातावरण में बैठ कर षट्कर्म आदि द्वारा अपना मानस स्थिर-जागृत करके जप प्रारम्भ करना चाहिए। गायत्री का देवता सविता है अर्थात् वह चेतन धारा, जो सूर्य को सक्रिय बनाये है। भावना करें कि जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश चर-अचर प्रकृति को चारों ओर से घेर लेता है, उसी प्रकार हमारे आवाहन पर इष्ट की चेतना का दिव्य प्रवाह हमें घेरे है। जल में मछली, वायु में पंछी की तरह, हम उसी के गर्भ में हैं। इष्ट हमें गोद में- गर्भ में लेकर स्नेह और शक्ति का संचार कर रहा है। हम जप द्वारा उस दिव्य प्रवाह को अपने शरीर-मन-अन्तःकरण के कण-कण में समाहित कर रहे हैं।
इस प्रकार जप करते हुए दिव्य स्नेह, दिव्य पुलकन जैसी अनुभूति होती है। अपने में इष्ट के समाहित होने, इष्ट में स्वयं के घुलने-एकाकार होने जैसा अनुभव होता है। इस प्रकार तन्मयतापूर्वक जप करने में आनन्द और उपयोगिता दोनों है। इससे उत्पन्न परिप्रेषण क्रिया से अपने भीतर प्राणों का संचार होता है, त्वचा कोमल होती है, आंखों की चमक बढ़ती है। ध्यान जितना एकाग्र होगा, अपने भीतर सविता के प्राण की उतनी ही अधिक मात्रा उड़ेली जा सकती है। चिह्न-पूजा से लाभ भी चिह्न जैसा ही मिलता है।
दिनचर्या में जप पूरा करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। सबेरे, दोपहर, शाम तीनों समय में सुविधानुसार नित्य की निर्धारित जप संख्या पूरी कर लेनी चाहिए। हर बैठक समाप्त होने पर, पास रखे पात्र का जल लेकर सूर्य को अर्घ्य अर्पित करना चाहिए। भावना करनी चाहिए कि जिस प्रकार पात्र का जल सूर्य को अर्पित होकर विशाल क्षेत्र में भाप बनकर फैल जाता है, उसी प्रकार हमारी भावनाएं-शक्तियां भी समर्पित होकर सीमित से व्यापक हो रही है।
प्रातः प्रणाम
प्रातः ध्यान एवं आरती के बाद सभी साधक अखण्ड दीप दर्शन एवं वंदनीया माता जी को प्रणाम करने जाते हैं। इस अवधि तक तथा इस क्रम में मौन बनाये रखना चाहिए। मौन से मानस अन्तर्मुखी होता है और तीर्थ चेतना में अवगाहन का अधिक लाभ प्राप्त होता है। बातचीत से अपना मन भी बहिर्मुखी होता है तथा अन्य साधकों के चिन्तन-प्रवाह में भी विघ्न पैदा होता है। इसलिए जागरण से यज्ञ होने तक मौन बनाये रखना उचित भी है और आवश्यक भी।
अखण्ड दीप दर्शन के साथ उस अखण्ड चेतना का बोध करना चाहिए, जो जीवन के प्रवाह को सतत बनाये रखती है। उसमें पूज्य गुरुदेव की आभा देखी जा सकती है। लोक-कल्याण का संकल्प लिए वे अखण्ड दीप-शिखा की तरह सतत प्रकाशित हो रहे हैं। अपना स्नेह उनके साथ जोड़कर हम भी उस दिव्य ज्योति की एक किरण बनने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।
वन्दनीया माता जी को प्रणाम करते हुए बोध करें, कि जिस मातृ सत्ता का ‘‘नमस्तस्यै-नमस्तस्यै’’ कहकर नमन किया गया है, वही हमारे कल्याण के लिए प्रत्यक्ष देह में स्थित है। भगवान श्री राम के कृपा पात्र बनने पर भी मातृ शक्ति का आशीष पाकर भक्तराज हनुमान के मुख से स्वभावतः निकला था- ‘‘अब कृत कृत्य भयउ मैं माता, आशीष तव अमोघ विख्याता।’’ श्री राम के काज के लिए हमारे अन्दर भी ऐसी उमंग जागे कि मातृ शक्ति का अमोघ आशीर्वाद हम पर भी बरस पड़े।
परम पूज्य गुरुदेव की चरण पादुकाओं को नमन करते हुए भावना करें कि दिव्य चेतना के रूप में संव्याप्त प्राण प्रवाह में हम सराबोर हो रहे हैं। महाप्राण द्वारा इस मानव जीवन को सार्थक बनाने की शक्ति प्रदान की जा रही है।
त्रिकाल संध्या के तीन ध्यान
साधना को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए शास्त्रों-सिद्ध पुरुषों ने त्रिकाल संध्या करने का परामर्श दिया है। प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में, मध्याह्न में और सायंकाल सूर्यास्त के संधिकाल में। सामूहिक रूप में साधना करने से उसका प्रभाव कई गुना हो जाने का तथ्य सर्वविदित है। इन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार साधना सत्रों में तीन बार सामूहिक ध्यान प्रयोग कराये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं।
जप के लिए उपयुक्त वातावरण में बैठ कर षट्कर्म आदि द्वारा अपना मानस स्थिर-जागृत करके जप प्रारम्भ करना चाहिए। गायत्री का देवता सविता है अर्थात् वह चेतन धारा, जो सूर्य को सक्रिय बनाये है। भावना करें कि जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश चर-अचर प्रकृति को चारों ओर से घेर लेता है, उसी प्रकार हमारे आवाहन पर इष्ट की चेतना का दिव्य प्रवाह हमें घेरे है। जल में मछली, वायु में पंछी की तरह, हम उसी के गर्भ में हैं। इष्ट हमें गोद में- गर्भ में लेकर स्नेह और शक्ति का संचार कर रहा है। हम जप द्वारा उस दिव्य प्रवाह को अपने शरीर-मन-अन्तःकरण के कण-कण में समाहित कर रहे हैं।
इस प्रकार जप करते हुए दिव्य स्नेह, दिव्य पुलकन जैसी अनुभूति होती है। अपने में इष्ट के समाहित होने, इष्ट में स्वयं के घुलने-एकाकार होने जैसा अनुभव होता है। इस प्रकार तन्मयतापूर्वक जप करने में आनन्द और उपयोगिता दोनों है। इससे उत्पन्न परिप्रेषण क्रिया से अपने भीतर प्राणों का संचार होता है, त्वचा कोमल होती है, आंखों की चमक बढ़ती है। ध्यान जितना एकाग्र होगा, अपने भीतर सविता के प्राण की उतनी ही अधिक मात्रा उड़ेली जा सकती है। चिह्न-पूजा से लाभ भी चिह्न जैसा ही मिलता है।
दिनचर्या में जप पूरा करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। सबेरे, दोपहर, शाम तीनों समय में सुविधानुसार नित्य की निर्धारित जप संख्या पूरी कर लेनी चाहिए। हर बैठक समाप्त होने पर, पास रखे पात्र का जल लेकर सूर्य को अर्घ्य अर्पित करना चाहिए। भावना करनी चाहिए कि जिस प्रकार पात्र का जल सूर्य को अर्पित होकर विशाल क्षेत्र में भाप बनकर फैल जाता है, उसी प्रकार हमारी भावनाएं-शक्तियां भी समर्पित होकर सीमित से व्यापक हो रही है।
प्रातः प्रणाम
प्रातः ध्यान एवं आरती के बाद सभी साधक अखण्ड दीप दर्शन एवं वंदनीया माता जी को प्रणाम करने जाते हैं। इस अवधि तक तथा इस क्रम में मौन बनाये रखना चाहिए। मौन से मानस अन्तर्मुखी होता है और तीर्थ चेतना में अवगाहन का अधिक लाभ प्राप्त होता है। बातचीत से अपना मन भी बहिर्मुखी होता है तथा अन्य साधकों के चिन्तन-प्रवाह में भी विघ्न पैदा होता है। इसलिए जागरण से यज्ञ होने तक मौन बनाये रखना उचित भी है और आवश्यक भी।
अखण्ड दीप दर्शन के साथ उस अखण्ड चेतना का बोध करना चाहिए, जो जीवन के प्रवाह को सतत बनाये रखती है। उसमें पूज्य गुरुदेव की आभा देखी जा सकती है। लोक-कल्याण का संकल्प लिए वे अखण्ड दीप-शिखा की तरह सतत प्रकाशित हो रहे हैं। अपना स्नेह उनके साथ जोड़कर हम भी उस दिव्य ज्योति की एक किरण बनने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।
वन्दनीया माता जी को प्रणाम करते हुए बोध करें, कि जिस मातृ सत्ता का ‘‘नमस्तस्यै-नमस्तस्यै’’ कहकर नमन किया गया है, वही हमारे कल्याण के लिए प्रत्यक्ष देह में स्थित है। भगवान श्री राम के कृपा पात्र बनने पर भी मातृ शक्ति का आशीष पाकर भक्तराज हनुमान के मुख से स्वभावतः निकला था- ‘‘अब कृत कृत्य भयउ मैं माता, आशीष तव अमोघ विख्याता।’’ श्री राम के काज के लिए हमारे अन्दर भी ऐसी उमंग जागे कि मातृ शक्ति का अमोघ आशीर्वाद हम पर भी बरस पड़े।
परम पूज्य गुरुदेव की चरण पादुकाओं को नमन करते हुए भावना करें कि दिव्य चेतना के रूप में संव्याप्त प्राण प्रवाह में हम सराबोर हो रहे हैं। महाप्राण द्वारा इस मानव जीवन को सार्थक बनाने की शक्ति प्रदान की जा रही है।
त्रिकाल संध्या के तीन ध्यान
साधना को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए शास्त्रों-सिद्ध पुरुषों ने त्रिकाल संध्या करने का परामर्श दिया है। प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में, मध्याह्न में और सायंकाल सूर्यास्त के संधिकाल में। सामूहिक रूप में साधना करने से उसका प्रभाव कई गुना हो जाने का तथ्य सर्वविदित है। इन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार साधना सत्रों में तीन बार सामूहिक ध्यान प्रयोग कराये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं।